मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

प्रेमनगर / डीटीसी घोटाला








 डीटीसी में रंगीन बसों का करप्‍श
अनामी शरण बबल



( डीटीसी के महाघोटाले की यह रपट करीब तीन माह पहले की है। अब जबकि कैग और शुंगलू कमेटी की रपट आ चुकी है, मगर किसी में भी कामनवेल्थ गेम के नाम पर रंगीन बसों की खरीद का यह महाघोटाला सामने नहीं आया। लिहाजा शीला और जांच सिमतियों ते बीच तू डाल डाल तो मैं पात पात के खेल में फिलहाल शीला का ही दांव भारी पड़ा। अनामी डीटीसी के महाघोटाले की यह रपट कैग और शुंगलू कमेटी की रपट आ जाने के करीब छह माहा के बाद की है। मगर किसी में भी कामनवेल्थ गेम के नाम पर रंगीन बसों की खरीद का यह महाघोटाला सामने नहीं आया। कमाल तो यह है कि रंगीन बसों के करीद मामले की आंच आज भी मंद नहीं पड़ी है, बल्कि सार्वजनिक परिवहन को सुधारने और बेहतर( वर्ल्ड क्लास)बनाने के नाम पर कामनवेल्थ गेम के खत्म होने के 17-18 माह के बाद भी रंगीन बस करप्शन का कल्चर जारी है।

अनामीदिल्ली में करप्शन के (शीला के) जमाने में हरिकथ (करप्शन की) अनंता... की तरह ही फिलहाल यह दिल्ली परिवहन निगम के लिए रंगीन बसों की खरीद का यह महाघोटाला कामनवेल्थ गेम करप्शन के साथ होकर भी इससे अलग है। करीब 30 हजार करोड़ रूपए के कथित हुए विकास के नाम पर इस महाघोटाला या करप्शन पुराण के नौकरशाहों में नौकर तो जेल की रोटी का स्वाद ले रहे है, मगर अभी शाहों की बारी (शायद अब आएगी भी नहीं)  नहीं आई है। करप्शन गेम के बहाने ही इस बार हम आपको दिल्ली सरकार के एक ऐसे करप्शन पुराण की जानकारी दे रहे हैं, जिसको जानते और मानते तो सभी है, मगर इस करप्शन की तरफ शुंगलू जांच कमीशन कैग की नजर या सीबीआई की नजर ही नहीं गई है। कैग रपट में शीला पर सीधे सीधे अंगूली उठा दिए जाने के बाद भी डीटीसी की रंगीन बसों की खरीद की तरफ किसी का ध्यान ना जाना आंठवे आश्चर्य से कतई कम नहीं है।  
मंहगी दरों पर हजारों बसें( 6000बसें)  खरीदी गई और बसों की खरीद के पहले ही 2008 में हुए विधानसभा चुनाव से पहले ही 2000 बसों की खरीद का भुगतान करके (कमीशन तक खा लेने) की चेष्टा पर भी किसी के ध्यान का  ना जाना तो शीला सरकार के महाघोटाले की अनदेखी से कम नहीं है। बसों की खरीद में की गई हेरा फेरी को करप्शन की बजाय इसे शीला सरकार की एक बड़ी उपलब्धियों की तरह देखा जाना तो और भी शर्मनाक है। रंगीन बसों में ज्यादातर केवल तीन साल में ही हांफने लगे है और 2012 में करीब200 बसों (2015 कर 6000 बसों की जरूरत मानी जा रही है) के जल्द ही आर्डर निकलने वाले हैं।
अब जबकि कैग और शुंगलू कमीशन की रपट जगजाहिर हो चुकी है इसके बावजूद बस,यानी रंगीन बसों के करप्शन मामले में कुछ और करप्ट आंकडे़ रख कर मैं यह बताने की हिमाकत कर रहा हूं कि नेता और नौकरशाहों के साथ मिलकर देश के जागो ग्राहक जागो वाले विज्ञापन से देश को जगाने वाले भी किस प्रकार दिल्ली की लाइफ लाइन(मेट्रो आज भी लाईफ लाईन सबों के लिए नहीं है)  को पटरी से उतारने की साजिश (में शामिल थे) की है। सबसे आरामदायक बात तो ये है कि करीब 30 हजार करोड़ रूपए के इस गोरखधंधे को ना तो करप्शन की श्रेणी में रखा गया है, और ना ही इसे करप्शन मानकर कोई जांच की मांग हो रही है। गौरतलब हो कि रंगीन बसों के निर्माताओं में एक टाटा मोटर्स के स्वामी महामहिम रतन टाटा एंड कंपनी है, तो अशोक लेलैंड के मालिकों में हिंदुजा परिवार के लोग हैं।
जी हां, बात दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) की बदहाली की है। इस कंगाल डीटीसी की सालत किसी से छिपी नहीं है फिर भी इस सफेदहाथी को सबसे विश्वस्त साथी को ही दिया जाता है। हवाले कामनवेल्थ गेम चालू होने से काफी पहले ही मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने दिल्ली को ग्लोबल सिटी बनाने का संकल्प किया। कामनवेल्थ के लिए केंद्र से मिले वितीय कोष की बात करके हम अपने पाठकों को बोर नहीं करना चाहते। मेरा पूरा ध्यान केवल डीटीसी के कायाकल्प के नाम पर इसको रसातल में पहुंचाने की कथा को ही सामने रखना है।
आमतौर पर नौकरशाहों, दलालों, ठेकेदारों और नेताओं (जिनके बगैर कोई घोटाला संभव ही नहीं) के द्वारा बेडा़गर्क कर दिए जाने वाले विभागों को सरकार फिर से काम चलाने लायक बनाती है। मगर, केंद्र और दिल्ली सरकार की साजिशों ने ही दिल्ली की लाइफ लाइन को बरबाद कर दिया। कामनवेल्थ गेम से पहले दिल्ली को नया लुक देने के लिए ही सरकार ने पुराने ढर्रे की 18 लाख रूपए वाली सामान्य बसों ( सरकार की नजर में इन गाडियों के अब मोटर पार्टस कंपनी ने बनाने बंद कर दिए) को हटाकर लो फ्लोर (नान एसी-56 लाख और एसी 70 लाख रूपए में एक खरीदी गयी है) बसों को लाने का अभियान शुरू हुआ। इन बसों की खरीद के लिए केंद्रीय शहरी विकासमंत्रालय के जवाहर लाल नेहरू शहरी पुर्ननिर्माण (विकास) फंड से कई किस्तों में करीब 15 हजार करोड़ रूपए बतौर कर्ज दिल्ली सरकार ने डीटीसी को दिलाए। डीटीसी के बेड़े में आज 6000 बसें हं यानी करीब 15 हजार करोड़रूपए से भी इनकी खरीद पर पैसों को लुटाया गया। इसी रकम से दिल्ली में तमाम लो-फ्लोर की लाल और हरे कलर की बसें दौड़ रही हैं। विपक्ष द्वारा इन बसों को ज्यादा रकम में खरीदने का आरोप लगता रहा है। बीजेपी नेता विजय जाली ने तो सदन में रखे जाने वाले तमाम सारे दस्तावेजों को सड़क तक में लाकर दिखाया। , मगर परिवहन मंत्री अरविंदर सिंह लवली और पूर्व परिवहन मंत्री  हारून युसूफ से लेकर मुख्यमंत्री तक ने एक स्वर में इसे सबसे सस्ता बताने में नहीं हिचकती (अलबता, बीजेपी नेता विजय जाली द्वारा रखे गए सबूतों को सरकार हमेशा नकारती भी रही है)।
लोकमानस में यह धारणा है कि सरकारी खजाने से पैसा निकालना आसान नहीं होता। मगर2008 में विधान सभा चुनाव में जाने से पहले ही शीला सरकार ने दो हजार लो- फ्लोर बसों (एसी और नान एसी) के आदेश के साथ ही पैसे का अग्रिम भुगतान तक कर डाला। विपक्षी नेताओं ने आरोप लगाया कि अपना कमीशन खाने के लिए ही हजारों करोड़ रूपए का पहले ही भुगतान किया गया।  
 शायद शीला सरकार को फिर से सत्ता में आने की उम्मीद नहीं थी। मगर, संयोग कहे या दुर्भाग्य कि शीला सरकार तीसरी बार फिर सत्ता में लौट आई। चुनाव में जाने से पहले दिल्ली के परिवहन मंत्री हारून युसूफ होते थे, मगर सत्‍ता की तीसरी पारी में परिवहन मंत्रालय का (ठेका) दायित्व लवली को दिया गया है। (परिवहन मंत्री बनते ही लवली ने भी 2000 बसों का और (आदेश) ठेका दे डाला।

शीला सरकार की नयी पारी में फिर चालू होता है, लो-फ्लोर बस बनाने वाली कंपनियों और सरकार के बीच आंख मिचौली का खेल। 2008 में विधानसभा चुनाव से पहले किए गए तमाम भुगतान में  अगस्त 2010 से पहले तक सभी बसों को देने का अनुबंध था, मगर तमाम सरकारी (शीला के आंसू) आग्रह के बाद भी करीब 400 बसों को कामनवेल्थ गेम खत्म होने के चार माह के बाद ( करीब 150 बसों का आना नवम्बर 2011 तक लंबित ही है) तक दिल्ली में दौड़ने का सौभाग्य नहीं मिला है। गेम से पहले सरकार और कंपनियों के बीच वाद-विवाद और तकरार के इतने दौर चले कि इस पर अब कंपनियों की दादागिरी से सरकार भी शर्मसार होती रही। बस निर्माता कंपनियों के खिलाफ एक्शन लेने की बजाय गेम शुरू होने के ठीक आठ माह पहले (लवली के प्रेशर से) दिल्ली सरकार ने फिर से दो हजार बसों का आदेश दिए ( इनमें 900 बसें आ चुकी हैं)।  सरकार की तरफ से फिर शहरी विकास मंत्रालय के (जेएनएल) फंड के तहत ही सरकारी (कारू के खजाने) खजाने से फिर धन दोहन किया गया, मगर इस बार शहरी विकास मंत्रालय ने बसों में कटौती करके 1500 कर दी।
एक तरफ दिल्ली में लाल और हरे रंग की लो- फलोर बसे आती रही, तो दूसरी तरफ किलर के रूप में बदनाम ब्लू लाइन की बसों को पिछले तीन साल से चार-चार माह के टेम्परोरी(अस्थायी) परमिट से चलने की सुविधा दी जाती रही। लगभग 700 किलर बसों का आखिरी खेप अभी तक निकाल बाहर होने की राह देख रही है। इस समय करीब 300 बसें सरकारी दया से प्राप्त अस्थायी परमिट के भरोसे दिल्ली में दौड़ रही हैं। छह हजार से ज्यादा लो-फ्लोर बसों (कमीशन खाकर कहने की गुस्ताखीमाफ हो) समेत डीटीसी की पुरानी बसों को मिलाकर करीब 6500 से ज्यादा बसों के हो जाने के बाद  डीटीसी की असली समस्या (जिसके प्रति नेताओं ने कभी ध्यान ही नहीं दिया) शुरू हो गयी।
 भारी तादाद में चालकों और कंडक्टरों की किल्लत तो पहले से ही थी। ठेका पर हजारों चालकों और कंडक्टरों को रखे जाने के बाद भी (तकरीबन तीन हजार से भी ज्यादा स्टाफ की कमी अभी है) रोजाना करीब एक हजार लो-फ्लोर बसें डिपो की शोभा बनकर डीटीसी का दीवाला निकाल रही है। इसके अलावा डीटीसी की 46 बस डिपो में रोजाना करीब एक हजार बसें बाहर निकलने की बजाय चालकों और कंड़क्टरों की कमी की वजह से नहीं डिपो में ही खड़ी खड़ी धूल खा रही है। ( यह आलम तब है जब तमाम बसों की देखरेख और मेनटेनेनेंश फिलहाल बस निर्माता कंपनी के मुलाजिम ही कर रहे है)
डीटीसी के लिए लो-फ्लोर बसों को संभालना या रखना ही सबसे कठिन सा हो गया। दो तीन नए डिपो बनाए जाने के बाद भी 46 डिपो में  इन रंगीन हाथियों का समा पाना दूभर हो गया। मिलेनियम डिपो का विवाद शीला और एलजी के बीच अलग चल ही रहा है। गेम से ठीक पहले दिल्ली के एलजी को गेम के बाद डिपो को तोडने का भरोसा देकर एक हजार रंगीन हाथियों के लिए गेम विलेज के करीब यमुना नदी बेल्ट की 80 एकड़ भूमि पर करोड़ों की लागत से मिलेनियम डिपो बना। इस एक डिपो कैंपस में चार डिपो है। गेम के बाद एलजी ने जब इस डिपो को तोड़ने की याद दिलवाई, तो अपना वायदा भूलकर मुख्यमंत्री मामले को टरकाने लगी। गेम के काफी पहले से ही एलजी और सीएम के बीच कड़वाहट थी। इसी विवाद को और तूल दिया गया है। एलजी की तरफ से मामले को शांत रखा गया है, मगर पर्यावरण से खिलवाड़ के नाम पर केंद्र भी शीला सरकार से नाराजगी जता चुकी है। फिलहाल विवादास्पद मिलेनियम डिपो पर कार्रवाई की तलवार लटकी हुई है।

कामनवेल्थ गेम खात्में के बाद इन रंगीन हाथियों से हो रही डीटीसी की दुर्दशा को बताने से पहले इसके बैकग्रांउड को जानना जरूरी है। जिससे लोगों को सफेद हाथी के रूप में बदनाम डीटीसी के शानदार दौर का भी पता चल सके। गौरतलब है कि 1992 तक दिल्ली में केवल डीटीसी की बसें ही चलती थी। मगर नरसिम्हा राव सरकार में भूतल परिवहन मंत्री बने जगदीश टाइटलर ने ब्लू लाइन बसों के दिल्ली में इंट्री का रास्ता खोल दिया। और तभी से शुरू हो गया इसकी बर्बादी की अंतहीन कहानी का करप्ट दौर। 1993 तक अपने तमाम खर्चों को झेलकर भी लाभ में चल रही डीटीसी पर घाटों और कर्जों का बोझ बढ़ता ही चला गया। कई साल तक तो यह विभाग केंद्र के अधीन ही संचालित होता रहा, मगर 1996-97 में करीब 14 हजार करोड़ रूपए की कर्ज माफी के साथ ही इसे दिल्ली सरकार के हवाले कर दिया गया। एक दिसंबर 1993 को दिल्ली में मदन लाल खुराना के कैप्टनशिप में बीजेपी सरकार सत्तारूढ़ हो चुकी थी।
घाटे से लस्त-पस्त डीटीसी का हाल 2005-06 तक ये रहा कि हर माह इसकी मासिक आमदनी करीब 40-42 करोड़ होती रही, मगर इसके संचालन पर ही सारा खर्चे हो जाता था। साल 2000 से ही यह विभाग अपने कर्मचारियों के वेतन के लिए सरकार पर निर्भर (आज भी है) था। हर माह लगभग 30 करोड़ रूपए के आक्सीजन (बतौर हर माह दिल्ली सरकार से मिलने वाले कर्ज) पर ही इसकी सांस चलती रही, मगर छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद से ही दमा ग्रस्त डीटीसी का दम उखड़ने लगा। कर्मचारियों के एरियर भुगतान के लिए ही सरकार को करीब 250 करोड़ रूपए एक मुश्त देने पड़े।
कामनवेल्‍थ गेम के बाद दिल्ली से कुछेक सौ बसो को छोड़कर लगभग ब्लू लाईन सारी बसें बाहर (अपना रंग,रूप और नाम (चार्टर) बदल कर ज्यादातर ब्लू लाइन बसें आज भी दिल्ली और पड़ोसी शहरों में दौड़ रही हैं) हो चुकी है। इस समय डीटीसी की रोजाना आमदनी तीन करोड़ यानी लगभग90 करोड़ रूपए मासिक की हो गई है। सितम्बर में तो 104 करोड़ की मासिक राजस्व को एक बड़ी उपलब्धि की तरह डीटीसी प्रंबंधन और खासकर परिवहन मंत्री लवली ने मीडिया के सामने रखा। मगर, डीटीसी के घाटे का आलम यह है कि यह विभाग हर माह आज करीब 80-90 करोड़ रूपए के घाटे पर है। इस पर लगभग 56 हजार करोड़ रूपए कर्जे का बोझ लदा है। जिसके केवल ब्याज के रूप में डीटीसी को हर माह 14 करोड़ रूपए बैंको में जमा कराना होता है। 2005 तक ब्याज के रूप में केवल पांच करोड़ रूपए अदा करने पड़ते थे।
मगर डीटीसी प्रशासकों की राग में सूर मिला रहे मीडिया वालों को कौन बताए कि इसके पीछे के घाटे का कड़वा स्वाद इतना घिनौना और कसैला है कि सीएम शीला के साथ साथ लवली हो या डीटीसी की बर्बादी की रामकथा लिखने वालो में एक रहे पूर्व परिवहन मंत्री हारून युसूफ तक को यह नागवार लगेगा। डीटी़सी के स्थायी कर्मचारियों समेत ( जिसमें 5000से ज्यादा ठेके वाले चालक और कंडक्टर भी है) के मासिक वेतन पर ही 70  करोड़ रूपए हर माह खर्च हो जाते है । केवल बकाये की ब्याज रकम के रूप में हर माह डीटीसी लगभग 14 करोड़ रूपए भुगतान अदा करती है। (डीटीसी पर बतौर कर्ज सरकारी और दूसरे मंत्रालयों समेत बैंको का माने तो यह आंकड़ा 50 हजार करोड़ से भी ज्यादा की जाकर बैठती है। यानी आज डीटीसी की तमाम परिसंपतियों को बेचकर ही इस बकाए रकम की अदायगी मुमकिन है।
हर माह 90-95 करोड़ रूपए की आमदनी के बावजूद डीटीसी का मासिक घाटा भी लगभग 90 करोड़  का ही है। विभाग में कर्मचारियों के वेतन पर हर माह लगभग 70 करोड़ खर्च होते है। मुकदमा, ड्रेस,टेलीफोन, बिजली, प्रिटिंग स्टेशनरी आदि पर सालाना खर्च 40 करोड़(यह रकम भी अब 57 करोड़ की हो गई है) की है। इस्टेब्लिशमेंट (विभागीय परिचालन) पर करीब 30 करोड़ रूपए मासिक (अब 41 करोड़)  खर्च हो जाते हैं। यानी मासिक कमाई से वेतन और ब्याद रकम की अदायगी ही संभव है, मगर बसों के परिचालन के लिए तो (यह विभाग पुरी तरह सरकारी अनुकंपा पर ही निर्भर है) सरकारी मदद चाहिए। यह हाल तब है, जब ब्लू लाइन बसों का डिब्बा गोल होने ही वाला है। सामान्य बसों का प्रति एक किलोमीटर परिचालन (ईपीके) 17 रूपए पड़ता है, जबकि रंगीन लो-फ्लोर बसों का ईपीके परिचालन खर्च 23 रूपए(अब बढ़कर 28 रूपए) है। स्टाफ की कमी से रोजाना की दो शिफ्टों में सुबह में करीब 1500 और शाम में लगभग 2500 बसें डिपों में ही रह जा रही है। रोजाना लगभग 16 हजार बसों के फेरे मिस हो रहे है। ज्यादातर डिपो मैनेजर अपनी नाक बचाने के लिए बसों को डिपो से बाहर निकाल कर इसे डैमेज दिखाते हुए फिर वापस डिपो के भीतर करवा देते है)। वहीं मोटर पार्टस या तकनीकी खराबी से रोजाना करीब 700 से ज्यादा बसें विभिन्न डिपो में बीमार खड़ी रहती हैं। ( यह आलम तब है जब इन रंगीन हाथियों की देखरेख फिलहाल बस निर्माता कंपनियों द्वारा अपने ही खर्चे पर की जा रही है।)
यानी बीमार और सफेद हाथी के रूप में कब से तब्दील इस डीटीसी (दरवाजा तोड़ डिपार्टमेंट) विभाग की खस्ता हाल से किसी को भी गुरेज नहीं है। सीएम भी इस कंगाल विभाग के (मालदार कमाई) मंत्रालय को हमेशा किसी अपने खासमखास को ही सौंपती रही है। चाहे परवेज हाशमी हों या अजय माकन, ये लोग सीएम के इशारों पर नाचने तक ही इस विभाग में रह सके। हारून युसूफ भले ही आज तक विश्वसनीय बने रहे हो, मगर सीएम लवली को भी मौका देकर उसकी अपने प्रति निष्ठा की परीक्षा लेती रहती हैं।

करीब 20 साल में एक तरफ डीटीसी की कंगाली बढ़ती रही, तो दूसरी तरफ यहां आने वाले ज्यादातर नौकरशाहों से लेकर बाबूओं ने अपनी हैसियत करोड़ों की बना ली। सरकारी अनुकंपा पर चल रही डीटीसी का आज कोई खरीददार भी नही है। देखना यही है कि करप्शन के मामले में दिल्ली सरकार के ग्राफ को लगातार उपर रखने वाले इस विभाग का आगे क्या होगा। चाहे जो हो, यह तो समय साबित करेगा, मगर हजारों करोड़ की हेराफेरी करने वालों का कुछ होता भी है या हमेशा की तरह इस बार भी कुछ नहीं होगा, क्योंकि ईमानदार पीएम मनमोहन सिंह की अध्यक्षता वाली करप्शन की जांच समिति की जांच कर रही समितियों को (शुंगलू कमेटी) भी पर्दे के पीछे के इस महाघोटाले की खबर शायद नहीं लगी, तभी तो शीला के दामन को दागदार करने के लिए दर्जनों मामले तो सामने आए, मगर डीटीसी का यह महाघोटाला पर्दे के पीछे ही छिपा रह गया। 


प्रेम के सिवा सबकुछ है प्रेमनगर में

अनामी शरण बबल



दिल्ली में अंग्रेजों द्वारा गौतम बुद्ध रोड यानी जीबी रोड को कभी ग्रैस्टिन बैस्टन रो़ड भी कहा जाता था, मगर आज इसे गौतम बुद्ध रोड़ के नाम से जाना और क्यों कहा पर है?  इसका जवाब शायद ही कोई दे पाएमगर दिल्ली में जीबीरोड कहां पर है इसका जबाव लगभग हर दिल्लीवासी   के पास है। नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास जीबीरोड यानी गौतमबुद्धा रोड में जिस्म की मंडी है। जहां पर सरकारी और पुलिस के तमाम दावों के बावजूद पिछले कई सदियों से जिस्म का बाजार फल फूल रहा है। मगर दिल्ली के एक गांव में भी जिस्म का धंधा होता है। वेश्याओं के इस गांव या बस्ती के बारे में क्या आपको पता है?  बाहरी दिल्ली के रेवला खानपुर गांव के पास प्रेमनगर एक ऐसी ही बस्ती हैजहां पर रोजाना शाम ( वैसे यह मेला हर समय गुलजार होता है) ढलते ही यह बस्ती रंगीन हो जाती है। हालांकि पुलिस प्रशासन और कथित नेताओं द्वारा इसे उजाड़ने की यदा-कदा कोशिश भी होती रहती हैइसके बावजूद बदनाम प्रेमनगर की रंगीनी में कोई फर्क नहीं पड़ा है। अलबत्ता, महंगाई और आधुनिकता की मार से प्रेमनगर में क्षणिक प्यार का धंधा आज उदास सा जरूर होता जा  रहा है।
आज से करीब 16 साल पहले अपने दोस्त और बाहरी दिल्ली के अपने सबसे मजबूत संपर्क सूत्रों में एक थान सिंह यादव के साथ इस प्रेमगनर बस्ती के भीतर जाने का मौका मिला। ढांसा रोड की तरफ से एक चाय की दुकान के बगल से निकल कर हमलोग बस्ती के भीतर दाखिल हुए।  चाय की दुकान से ही एक बंदा हमारे साथ हो लिया। कुछ ही देर में हम उसके घर पर थे। उसने स्वीकार किया कि धंधा के नाम पर बस्ती में दो फाड़ हो चुका है। एक खेमा इस पुश्तैनी धंधे को बरकरार रखना चाहता है, तो दूसरा खेमा अब इस धंधे से बाहर निकलना चाहता है। हमलोग किसके घर में  बैठे थेइसका नाम तो अब मुझे याद नहीं हैमगर (सुविधा के  लिए उसका नाम राजू रख लेते हैं) राजू ने  बताया प्रेमनगर में पिछले 300 से हमारे पूर्वज रह रहे है। अपनी बहूओं से धंधा कराने के साथ ही कुंवारी बेटियों से भी धंधा कराने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता। आमतौर पर दिन में ज्यादातर मर्द खेतीमजदूरी या कोई भी काम से घर से बाहर निकल जाते हैतब यहां की औरते( लड़कियां भी) ग्राहक के आने पर निपट लेती है। इस मामले में पूरा लोकतंत्र हैकि एक मर्द(ग्राहक) द्वारा पसंद की गई वेश्या के अलावा और सारी धंधेवाली वहां से बिना कोई चूं-चपड़ किए फौरन चली जाती है। ग्राहक को लेकर घर में घुसते ही घर के और लोग दूसरे कमरे में या बाहर निकल जाते है। यानी घर में उसके परिजनों की मौजूदगी में ही धंधा होने के बावजूद ग्राहक को किसी प्रकार का कोई भय नहीं रहता है।
देखने में बेहद खूबसूरत करीब 30 साल की ( तीन बच्चों की मां) पानी लेकर हमलोग के पास आती है। एकदम सामान्य शिष्टाचार और एक अतिथि की तरह सत्कार कर रही धन्नो( नाम तो याद नहीं,मगर आसानी के लिए उसे धन्नो मान लेते है) और उसके पति के अनुरोध पर हमलोग करीब एक घंटे तक वहां रहकर जानकारी लेते रहे। इस दौरान हमें विवश होकर राजू और धन्नों के यहां चाय पीनी पड़ी। राजू ने बताया कि रेवला खानपुर में कभी प्रेमबाबू नामक कोई ग्राम प्रधान हुआ करते थेजिन्होंने इन कंजरों पर दया करके रेवला खानपुर ग्रामसभा की जमीन पर इन्हें आबाद कर दिया। ग्रामसभा की तरफ से पट्टा दिए जाने की वजह से यह बस्ती पुरी तरह वैधानिक और मान्य है। अपना पक्का मकान बना लेने वाले राजू से धंधे के विरोध के बाबत पूछे जाने पर वह कोई जवाब नहीं दे पाया। हालांकि उसने यह माना कि घर का खर्च चलाने में धन्नों की आय का भी एक बड़ा हिस्सा होता है। घर से बाहर निकलते समय थान सिंह ने धन्नों के छोटे बच्चे को एक सौ रूपए का एक नोट थमाया। रूपए को वापस करने के लिए धन्नो और राजू अड़ गए। खासकर धन्नो बोलीनहीं साब मुफ्त में तो हम एक पैसा भी नहीं लेते।
काफी देर तक ना नुकूर करने के बाद अंततः वे लोग किसी तरह नोट रखने पर राजी हुए।
प्रेमनगर खासकर शाम को आबाद होता हैजब ढांसा रोड पर इस बस्ती के आस पास दर्जनों ट्रकों का रेला लग जाता है। देर रात तक बस्ती में देह का कारोबार चलता रहता है।
 करीब एक साल के बाद प्रेमनगर में फिर दोबारा आने का मौका मिला। 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के मतदान के दिन बाहरी दिल्ली का चक्कर काटते हुए हमारी गाड़ी रेवलाखानपुर गांव के आसपास थी। हमारे साथ हरीश लखेड़ा(अभी अमर उजाला में) और कांचन आजाद ( अब मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पीआरओ) साथ थे। एकाएक चुनाव के प्रति वेश्याओं की रूचि को जानने के लिए मैनें गाड़ी को प्रेमनगर की तरफ ले चलने को कहा। हमारे साथ आए दो पत्रकार मित्रों के संकोच के बावजूद धड़धड़ाते हुए मै वहां पर जा पहुंचाजहां पर सात-आठ वेश्याएं(महिलाएं) बैठी थी। मुझे देखते ही एक उम्रदराज महिला का चेहरा खिल उठा। मुझे संबोधित करती हुई एक ने कहा का बात है राजा, बहुत दिनों के बाद इधर आना हुआ मैं भी वहां पर उनके ही खाट पर बैठकर सहज होने की कोशिश की। तभी महिला ने टोका ये सब बाबू (दूर खड़ी कार से उतरकर हरीश और कांचन मेरा इंतजार कर रहे थे) भी क्या तुम्हारे साथ ही है ?  एक दूसरी महिला ने चुटकी ली। आज तो तुम बाबू फौज के साथ आए हो। बात बदलते हुए मैंने कहा आज चुनाव है नाइन बाबूओं को कहां कहां पर मतदान कैसे होता हैयहीं दिखाने निकला था। अपनी बात को जारी रखते हुए मैने सवाल किया क्या तुमलोग वोट डालकर आ गई मैने एक को टोका बड़ी मस्ती में बैठी होकिसे वोट दी। मेरी बात सुनकर सारी महिलाएं (और लड़कियां भी) खिलखिला पड़ी। खिलखिलाते हुए किसी और ने टोका बड़ा चालू हो बाबू एक ही बार में सब जान लोगे या कुछ खर्चा-पानी भी करोगे। गलती का अहसास करने का नाटक करते हुए फट अपनी जेब से एक सौ रूपए का एक नोट निकालकर मैनें आगे कर दिया। नोट थामने से पहले उसने कहा बस्सस। मैने फौरन कहाये तो तुमलोग के चाय के लिए हैबाकी बाद में। मैंने उठने की चेष्टा की भी नहीं कि एक बहुत सुंदर सी महिला ने अपने शिशु को किसी और को थमाकर सामने के कमरे के दरवाजे पर जाकर खड़ी हो गयी। उधर जाने की बजाय मैं वहीं पर खड़ा होकर दोनों हाथ ऊपर करके अपने पूरे बदन को खोलने की कोशिश की। इस पर एक साथ कई महिलाएं एक साथ सित्कार सी उठीहाय यहां पर जान क्यों मार रहे हो। बदन और खाट अंदर जाकर तोड़ो ना। फिर भी मैं वहीं पर खड़ा रहा और चुनाव की चर्चा करते हुए यह पूछा कि तुमलोगों ने किसे वोट दिया मेरे सवाल पर मेरी मौजूदगी को बड़े अनमने तरीके से लेती हुई सबों ने जवाब देने की बजाय अपना मुंह बिदकाने लगी।  तभी मैने देखा कि 18-20 साल के दो लडके न जाने किधर से आए और इतनी सारी झुंड़ में बैठी महिलाओं की परवाह किए बगैर ही दनदनाते हुए कमरे में घुस गए। दरवाजे पर मेरे इंतजार में खड़ी वेश्या भी कमरे में मेरे इंतजार को भूलकर फौरन कमरे के भीतर चली गई। दरवाजा अभी बंद नहीं हुआ थालिहाजा मैं फौरन कमरे की तरफ भागा। इसपर एक साथ कई महिलाओं ने आपति की और जरा सख्त लहजे में अंदर जाने से मुझे रोका। सबों की अनसुनी करते हुए दूसरे ही पल मैं कमरे में था। जहां पर लड़कों से लेनदेन को लेकर मोलतोल हो रहा था। एकाएक कमरे में मुझे देखकर उसका लहजा बदल गया। उसने बाहर जाकर किसी और के लिए बात करने पर जोर देने लगी। फौरन 100 रूपए का नोट दिखाते हुए मैनें जिद कीजब मेरी बात हो गई हैतब दूसरे से मैं क्यों बात करूं  इसपर सख्त लहजे में उसने कहा मैं किसी की रखैल नहीं हूं जो तुम भाव दिखा रहे हो। फिलहाल तेरी बारी खत्म अब बाहर जाओ। कमरे से बाहर निकलते ही मैने गौर किया कि तमाम वेश्याओं का चेहरा लाल था। बाबू धंधे का कोई लिहाज भी होता है? किसी एक ने मेरे उपर कटाक्ष किया क्या तुम्हें वोट डालना है या किसे वोट डाली हो यह पूछते ही रहोगे इस पर सारी खिलखिला पड़ी। मैं भी ठिठाई से कहा यहां पर नहीं किसी को तीन चार घंटे के लिए हमारे साथ भेजो गाड़ी में और पैसा बताओ इस पर सबों ने अपनी अंगूली को दांतों से काटते हुए बोल पड़ी। हाय रे दईया पैसे वाला लाला है। किसी ने पूरी सख्ती से कहा कोई और मेम को ले जाना अपने साथ गाड़ी में।  प्रेमनगर की हम औरतें कहीं बाहर गाड़ी में नहीं जाती। इस बीच कहीं से चाय बनकर आ गई। तब वे सारी औरतें फौरन नरम हो गई और सभी  वेश्याओं ने चाय पीने का अनुरोध किया। मैनें नाराजगी दिखाते हुए फिर कभी आने का घिस्सा पीटा जवाब दोहराया। इस बीच अब तक खुला कमरा भीतर से बंद हो चुका था। लौटने के लिए मैं ज्यों ही मुड़ा तो दो एक ने चीखकर कटाक्ष किया। वर्मा ( तत्कालीन मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा) हो या सोलंकी(तत्कालीन स्थानीय विधायक धर्मदेव सोलंकी) सब भीतर से खल्लास हैं ,बाबू खल्लास। एक ने मेरे उपर तोहमत मढ़ा कही तुम भी तो वर्मा-  सोलंकी नहीं हो ? इस पर कोई प्रतिवाद करने की बजाय वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई दिखी।  प्रेमनगर को लेकर दो तीन खबरें छपने के बाद तब पॉयनीयर में (बाद में इंडियन एक्सप्रेस) में काम करने वाली ऐश्वर्या (अभी कहां पर हैइसकी जानकारी नही) ने मुझसे प्रेमनगर पर एक रिपोर्ट कराने का आग्रह किया।  यह बात लगभग 2000 की है। हमलोग एक बार फिर प्रेमनगर की उन्ही गलियों की ओर निकल पड़े। साथ में एक लड़की को लेकर इन गलियों में घूमते देख कर ज्यादातर वेश्याओं को बड़ी हैरानी हो रही थी। कई तरह की भद्दी और अश्लील टिप्पणियों से वे लोग हमें नवाजती रही। मैने कुछ उम्रदराज वेश्याओं को बताया कि ये एक एनजीओ से जुड़ी हैं और यहां पर वे आपलोग की सेहत और रहनसहन पर काम करने आई हैं। ये एक बड़ी अधिकारी हैऔर ये कई तरह से आपलोग को फायदा पहुंचाना चाहती है। मेरी बातों का इनपर कोई असर नहीं पड़ा। उल्टे टिप्पणी की कि ऐसी ऐसी बहुत सारी थूथनियों को मैं देख चूकी हूं। कईयों ने उपहास के साथ कटाक्ष भी किया कि अपनी हेमा मालिनी को लेकर जल्दी यहां से फूटो अपना और मेरा समय बर्बाद ना करो। मैने बल देकर कहा कि चिंता ना करो हमलोग पूरा पैसा देकर जाएंगे। इतना सुनते ही कई वेश्याएं आग बबूला सी हो गई। एक ने कहा बाबू यहां पर रोजाना मेला लगता हैजहां पर तुम जैसे डेढ़ सौ बाबू आकर अपनी थैली दे जाते है। पैसे का रौब ना गांठों। यहां तो  हमारे मूतने से भी पैसे की बारिश होती हैअभी तुम बच्चे हो। हमलोगों की आंखें नागिन की होती हैएक बार देखने पर चेहरा नहीं भूलती। तुम तो कई बार शो रूम देखने यहां आ चुके हो। दम है तो कमरे में चलकर बाते कर। मैनें फौरन क्षमा मांगते हुए किसी तरह वेश्याओं को शांत करने की गुजारिश में लग गया। एक ने कहा कि हमलोगों को तुम जितना उल्लू समझते होउतना हम होती नहीं है। बड़े बड़े फन्ने तीसमार खांन भी यहां आकर मेमना बन जाते है। हम ईमानदारी से केवल अपना पैसा लेती है। एक वेश्या ने जोड़ाहम रंड़ियों का अपना कानून होता है ,मगर तुम एय्याश मर्दो में तो कोई ईमान ही नहीं होता।  वेश्याओं के एकाएक इस बौछार से मैं लगभग निरूतर सा हो गया। महिला पत्रकार को लेकर फौरन खिसकना ही उचित लगा। एक उम्रदराज वेश्या से बिनती करते हुए पूछा कि क्या इसे पूरे गांव में घूमा दूं उसकी सहमति मिलने पर हमलोग प्रेमनगर की गलियों को देखना शुरू किया। अब हमलोगों ने फैसला किया कि किसी से उलझने या सवाल जवाब करने की बजाय केवल माहौल को देखकर ही हालात का जायजा लेना ज्यादा ठीक और सुरक्षित है। हमलोग अभी एक गली में प्रवेश ही किए थे कि गली के अंतिम छोर पर दो लड़कियां और दो लड़कों के बीच पैसे को लेकर मोलतोल जारी था। 18-19 साल के लड़के 17-18 साल का मासूम सी लड़कियों को 20 रूपए देना चाह रहे थेजबकि लड़कियां 30 रूपए की मांग पर अड़ी थी। लगता है जब बात नहीं बनी होगी तो एक लड़की बौखला सी गई और बोलती है. साले जेब में पैसे रखोगे नहीं और अपना मुंह लेकर सीधे चले आओगे अपनी अम्मां के पास आम चूसने। चल भाग वरना एक झापड़ दूंगी तो साले तेरा केला कटकर यहीं पर रह जाएगा। शर्म से पानी पाना से हो गए दोनों लड़के हमलोगों के मौके पर आने से पहले ही फूट गए। मैं बीच में ही बोल पड़ाक्या हुआ इतना गरम क्यों हो। इस पर लगभग पूरी बदतमीजी से एक बोली मंगलाचरण की बेला हैतेरा हंटर गरम है तो चल वरना तू भी हां से फूट। मैने बड़े प्यार से कहा कि चिंता ना कर तू हमलोग से  बात तो कर तेरे को पैसे मिल जाएंगे। मैनें अपनी जेब से 50 रूपए का एक नोट निकाल कर आगे कर दिया। नोट  को देखकर हुड़की देती हुई एक ने कहा सिर पर पटाखा बांधकर क्या हमें दिखाने आया हैजा मरा ना उसी से। मैने झिड़की देते हुए टोका इतनी गरम क्यों हो रही हैहम बात ही तो कर रहे है। गंदी सी गाली देती हुई एक ने कहा हम बात करने की नहीं नहाने की चीज है। कुंए में तैरने की हिम्मत है तो चल बात भी करेंगे और बर्दाश्त भी करेंगे। दूसरी ने अपने साथी को उलाहना दीतू भी कहां फंस रही है साले के पास डंड़ा रहेगा तभी तो गिल्ली से खेलेगा। दोनों जोरदार ठहाका लगाती हुई जाने लगी। मैं भी बुरा सा मुंह बनाते हुएतल्ख टिप्पणी कीतू लोग भी कम बदतमीज नहीं है। यह सुनते ही वे दोनों फिर हमलोगों के पास लौट आई। वेश्या के घर में इज्जत की बात करने वाला तू पहला मर्द है। यहां पर आने वाला मर्द हमारी नहीं हमलोगों के हाथों अपनी इज्जत उतरवा कर जाता है। मैने बात को मोड़ते हुए कहा कि ये बहुत बड़ी अधिकारी है और तुमलोग की सेहत और हालात पर बातचीत करके सरकार से मदद दिलाना चाहती है। इस पर वे लोग एकाएक नाराज हो गई। बिफरते हुए एक ने कहा हमारी सेहत को क्या हुआ है। तू समझ रहा है कि हमें एड(एड़स) हो गया है। तुम्हें पता ही नहीं है बाबू हमें कोई क्या चूसेगा चूस तो हमलोग लेती है मर्दो को। तपाक से मैनें जोड़ा अभी लगती तो एकदम बच्ची सी होमगर बड़ी खेली खाई सी बाते  कर रही है। इस पर रूखे लहजे में एक ने कहा जाओ बाबू जाओ तेरे  बस की ये सब नहीं है तू केवल झुनझुना है। उनलोगों की बाते सुनकर जब मैं खिलखिला पड़ातो एक ने एक्शन के साथ कहा कि मैं चौड़ा कर दूंगी न तो तू पूरा का पूरा भीतर समा जाएगा। गंदी गंदी गालियों के साथ वे दोनों पलक झपकते गली पार करके हमलोगों की नजरों से ओझल हो गई। पूरा मूड उखड़ने के बाद भी भरी दोपहरी में हमलोग दो चार गलियों में चक्कर काटते हुए प्रेमनगर से बाहर निकल गए।
करीब तीन साल पहले 2009 में एक बार फिर थान सिंह यादव के साथ मैं प्रेमनगर  में था। करीब आठ-नौ साल के बाद यहां आने पर बहुत कुछ बदला बदला सा दिखा। ज्यादातर कच्चे मकान पक्के हो चुके थे। गलियों की रंगत भी बदल सी गयी थी। कई बार यहा आने के बाद भी यहां की घुमावदार गलियां मेरे लिए हमेशा पहेली सी थी। गांव के मुहाने पर ही एक अधेड़ आदमी से मुलाकात हो गई। हमलोंगों ने यहां आने का मकसद बताते हुए किसी ऐसी महिला या लोगों से बात कराने का आग्रह कियाजिससे प्रेमनगर की पीड़ा को ठीक से सामने रखा जा सके। पत्रकार का परिचय देते हुए उसे भरोसे में लिया। हमने यह भी बता दिया कि इससे पहले भी कई बार आया हूं, मगर अपने परिचय को जाहिर नहीं किया था। अलबता पहले भी कई बार खबर छापने के बावजूद हमने हमेशा प्रेमनगर की पीड़ा को सनसनीखेज बनाने की बजाय इस अभिशाप की नियति को प्रस्तुत किया था।
यह हमारा संयोग था कि बुजुर्ग को मेरी बातों पर यकीन आ गयाऔर वह हमें  साथ लेकर अपने घर आ गया। घर में दो अधेड़ औरतों के सिवा दो और जवान विवाहिता थी। कई छोटे बच्चों वाले इस घर में उस समय कोई मर्द नहीं था। घर में  सामान्य तौर तरीके से पानी के साथ हमारी अगवानी की गई। दूसरे कमरे में जाकर मर्द ने पता नहीं क्या कहा होगा। थोड़ी देर में चेहरे पर मुस्कान लिए चारों महिलाएं हमारे सामने आकर बैठ गई। इस बीच थान सिंह ने अपने साथ लाए बिस्कुटच़ाकलेट और टाफी को आस पास  खड़ें बच्चों के बीच बाट दिया। बच्चों के हाथों में ढेरो चीज देखकर एक ने जाकर गैस खोलते हुए चाय बनाने की घोषणा की। इस पर थान सिंह ने अपनी थैली से दो लिटर दूध की थैली निकालते हुए इसे ले जाने का आग्रह किया। इस पर शरमाती हुई चारों औरतों ने एक साथ कहा कि घर में तो दूध है। बाजी अपने हाथ में आते देखकर फिर थान सिंह ने एक महिला को अपने पास बुलाया और थैली से दो किलो चीनी के साथ चाय की 250 ग्राम का एक पैकेट और क्रीम बिस्कुट के कुछ पैकेट निकाल कर उसे थमाया। पास में खड़ी महिला इन सामानों को लेने से परहेज करती हुई शरमाती रही। सारी महिलाओं को यह सब एक अचंभा सा लग रहा था। एक ने शिकायती लहजे में कहा अजी सबकुछ तो आपलोगों ने ही लाया है तो फिर हमारी चाय क्या हुई मैने कहा अरे घर तुम्हाराकिचेन से लेकर पानीबर्तनकप प्लेट से लेकर चाय बनाने और देने वाली तक तुम लोग हो तो चाय तो तुमलोग की ही हुई। अधेड़ महिला ने कहा बाबू तुमने तो हमलोगों को घर सा मान देकर तो एक तरीके से खरीद ही लिया। दूसरी अधेड़ महिला ने कहा बाबू उम्र पक गई. हमने सैकड़ों लोगों को देखामगर तुमलोग जैसा मान देने वाला कोई दूसरा नहीं देखा। यहां तो जल्दी से आकर फौरन भागने वाले मर्दो को ही देखते आ रहे है।
इस बीच हमने गौर किया कि बातचीत के दौरान ही घर में लाने वाले बुजुर्ग पता नहीं कब बगैर बताए ही घर से बाहर निकल गए। वजह पूछने पर एक अधेड़ ने बताया कि बातचीत में हमलोग को कोई दिक्कत ना हो इसी वजह से वे बाहर चले गए। हमलोगों ने बुरा मानने का अभिनय करते हुए कहा कि यह तो गलत है मैंने तो उन्हें सबकुछ बता दिया था। खैर इस बीच चाय भी आ गई।
चारों ने लगभग अपने हथियार डालते हुए कहा अब जो पूछना है बाबू बात कर सकतेहो। बातचीत का रूख बताते ही एक ने कहा बाबू तुम तो चले जाओगेमगर हमें परिणाम भुगतना पड़ेगा। एक बार फिर इमोशनल ब्लैकमेलिंग करते हुए मैने साफ कहा कि यदि तुम्हें हमलोगों पर विश्वास नहीं है तो मैं भी बात करना नहीं चाहूंगा यह कहकर मैंने अपना बोरिया बिस्तर समेटना चालू कर दिया। तभी एक जवान सी वेश्या ने तपाक से मेरे बगल में आकर बैठती हुई बोली अरे तुम तो नाराज ही हो गए। हमने तो केवल अपने मन का डर जाहिर किया था। शिकायती लहजे में मैंने भी तीर मारा कि जब मन में डर ही रह जाए तो फिर बात करने का क्या मतलबइस पर दूसरी ने कहा बाबू हमलोगों को कोई खरीद नहीं सकतामगर तुमने तो अपनी मीठी मीटी बातों में हमलोगों को खरीद ही लिया है। अब मन की सारी बाते बताऊंगी। फिर करीब एक घंटे तक अपने मन और अपनी जाति की नियति और सामाजिक पीड़ा को जाहिर करती रही।
बुजुर्ग सी महिला ने बताया कि हमारी जाति के मर्दो की कोई अहमियत नहीं होती। पहले तो केवल बेटियों से ही शादी से पहले तक धंधा कराने की परम्परा थीमगर पिछले 50-60 साल से बहूओं से भी धंधा कराया जाने लगा। हमारे यहां औरतों के जीवन में माहवारी के साथ ही वेश्यावृति का धंधा चालू होता हैजो करीब 45 साल की उम्र तक यानी माहवारी खत्म(रजोनिवृति) तक चलता रहता है। इनका कहना है कि माहवारी चालू होते ही कन्या का धूमधाम से नथ उतारी जाती है। गुस्सा जाहिर करती हुई एक ने कहा कि नथ तो एक रस्म होता हैमगर अब तो पुलिस वाले ही हमारे यहां की कौमा्र्य्य को भंग करना अपनी शान मानते है। नाना प्रकार की दिक्कतों को रखते हुए सबों ने कहा कि शाम ढलते ही जो लोग यहां आने के लिए बेताब रहते हैं,वही लोग दिन के उजाले में हमें उजाड़ने घर से बाहर निकालने के लिए लोगों कों आंदोलित करते है। एक ने कहा कि सब कुछ गंवाकर भी इस लायक हमलोग नहीं होती कि बुढ़ापा चैन से कट सके। हमारे यहां के मर्द समाज में जलील होते रहते हैं। बच्चों को इस कदर अपमानित होना पड़ता है कि वे दूसरे बच्चों के कटाक्ष से बचने के लिए हमारे बच्चे स्कूल नहीं जाते और पढ़ाई में भी पीछे ही रह जाते है। नौकरी के नाम पर निठ्ठला घूमते रहना ही हमारे यहां के मर्दो की दिनचर्या होती है। अपनी घरवाली की कमाई पर ही ये आश्रित होते है।
एक ने कहा कि जमाना बदल गया है। इस धंधे ने रंगरूप बदल लिया है, मगर हमलोग अभी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे है। बस्ती में रहकर ही धंधा होने के चलते बहुत तरह की रूकावटों के साथ साथ समाज की भी परवाह करनी पड़ती है। एक ने बताया कि हम वेश्या होकर भी घर में रहकर अपने घर में रहते है। हम कोठा पर बैठने वाली से अलग है। बगैर बैलून (कंडोम) के हम किसी मर्द को पास तक नहीं फटकने देती। यही कारण है कि बस्ती की तमाम वेश्याएं सभी तरह से साफ और भली है।
यानी डेढ सौ से अधिक जवान वेश्याओ के अलावाकरीब एक सौ वेश्याओं की उम्र 40पार कर गई है। एक अधेड़ वेश्या ने कहा कि लोगों की पसंद 16 से 25 के बीच वाली वेश्याओं की होती है। यह देखना हमारे लिए सबसे शर्मनाक लगता है कि एक 50 साल का मर्द जो 10-15 साल पहले कभी उसके साथ आता था वही मर्द उम्रदराज होने के बाद भी आंखों के सामने बेटी या बहू के साथ हमबिस्तर होता है और हमलोग उसे बेबसी के साथ देखती रह जाती है। एक ने कहा कि उम्र बढ़ने के साथ ही वेश्या अपने ही घर में धोबी के घर में कुतिया जैसी हो जाती है। इस पर जवान वेश्याओं ने ठहाका लगायातो मंद मंद मुस्कुराती हुई अधेड़ वेश्याओं ने कहा कि हंमलोग भी कभी रानी थीजैसे की तुमलोग अभी है। इस पर सबों ने फिर ठहाका लगाया। हमलोग भी ठहाका लगाकर उनका साथ दिया। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद फिर मैनें कहा कुछ और बोलोकिसी ने बेबसी झलकाती हुई बोली और क्या बोलू साहब बोलने का इतना कभी मौका कोई कहां देता है यहां तो खोलने का दौर चलता है। दूसरी जवान वेश्या ने कहा खोलने यानी बंद कमरे में कपड़ा खोलने का एक ने चुटकी लेते हुए कहा कि चलना है तो बोलो। एक अधेड़ ने समर्थन करती हुई बोली कोई बात नहीं साब मेहमान बनकर आए हो चाहों तो माल हलाल कर सकते हो। एक जवान ने तुरंत जोड़ा साब इसके लिए तुमलोग से कोई पैसा भी  नहीं लूंगीहम दोनों एकाएक खड़े हो गए। थान सिंह ने जेब से दो सौ रूपए निकाल कर बच्चों को देते हुए कहा कि अब तुमलोग ही नही चाहती हो कि हमलोग तुमसे बात करें। इस पर शर्मिंदा होती हुई अधेड़ों ने कहा कि माफ करना बाबू हमारी मंशा तुमलोगों को आहत करने की नहीं थी। खैर दुआ सलाम और मान मनुहार के बाद घर से बाहर निकल गए थे।
लगभग दो घंटे तक प्रेमनगर के एक घर में अतिथि बनकर रहने के बाद हमलोग बस्ती से  बाहर हो गए। मगर इस बार इन वेश्याओं की पीड़ा काफी समय तक मन को विह्वल करता रहा। इस बस्ती की खबरें यदा-कदा पास तक आती रहती है। ग्लोवल मंदी मंदी से भले ही भारत समेत पूरा संसार उबर गया होमगर अपना सबकुछ गंवाकर भी प्रेमनगर की वेश्याए इस मंदी से कभी ना उबर पाई है और लगता  है कि शायद ही कभी अर्थिक तंगी से उबर भी नहीं पाएगी ?