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गुरुवार, 20 अगस्त 2020

अनामी शरण बबल / बलबीर दत्त की नजर में आपातकाल

 आपातकाल को परिभाषित करने की पहल 


इतिहास कभी पुराना नहीं  होता.  वह ज़ब तब हमारे सामने किताबों में चर्चाओं में यादों में जीवित रहता है.   समय गुजरने  के साथ ही  इतिहास की कोई घटना हरदम एक सबक सीख सरोकार या संदेश की तरह ही आसपास को समाज को सतर्क करता है.   सावधान करता है. और  मौजूदा समय से तुलना करने का मौका भी   देता है .  आज से 45 साल पहले देश के पहले प्रधानमंत्री  जवाहरलाल  नेहरू  की अक्खड़ पुत्री इंदिरा गाँधी ने अपनी सत्ता सामर्थ  सनक को एक नया सार्थक आयाम देने के लिए 25-26 जून 1975 की  रात में देश में आपातकाल जिसे (emergency ) इमरजेंसी  कहा जाता हैँ,  को देश पर लाद  दिया.  लोकतंत्र के इस काले अध्याय का कालखंड 21 माह का रहा.  इस दौरान  देश की अर्थव्यवस्था का जमकर दुरूपयोग  किया गया .  Media का गला सेंसर से नेस्तनाबूद कर दिया gya. देश के सारे विपक्षी नेताओं को जबरन  जेल में ठूसा  गया.  देश  के 86 वर्षीय सबसे वरिष्ठ और आज भी सक्रिय  पत्रकार  संपादक बलबीर दत्त  ने 45 साल  के बाद आपातकाल पर गहन चिंतन और तमाम दस्तावेजो  को एकत्रित करके अपनी नयी  किताब को सामने लाया है.  472 पेजी इमरजेंसी  का कहर  और सेंसर का  जहर.  पुस्तक को प्रभात  प्रकाशन  के प्रभात पेपरबैक्स ने छापा  है. यू  तो हिंदी में आपातकाल  पर छिटपुट कुछ किताबें आयी है,  मगर शोधपरक दस्तावेजों को कार्टूनो,  चित्रों  व्यंगचित्रो  पेपर कतरनों  सरकारी कागज़ो आदेशपत्रो से सुसज्जित इस तरह की कोई भी किताब हिंदी में नहीं है. रांची एक्सप्रेस  अख़बार  के संपादक  के रूप में इनका संग्रह शोध और संकलन  hai,  मगर ज़ब यह किताब आज सबके सामने है तो पदम् श्री सम्मान से सम्मानित बलबीर जी अपनी पकी हुई  उम्र में भी  झारखंड  की राजधानी रांची में देशप्राण नामक  एक नये अख़बार को पिछले  तीन साल से नया  आकर दें रहे है. बलबीर  दत्त की लेखनी की सबसे बड़ी खूबी यह है की किसी अध्याय को एकसार देते हुए  लम्बा बोरिंग करने की बजाय छोटे छोटे प्रसंगो को सूत्रबद्ध करतें hai.  इस तरह एक ही किताब में  सैकड़ो  रोचक घटनाओं  किस्से  कहानियो को पिरो देते hai.  जिससे सामान्य पाठको को भी चटकारे लेकर पढ़ने में मजा आता है तो वही गंभीर पाठको को सुनी अनसुनी ढेरों घटनाओं की जानकारी हो जाती है. इस तरह इमरजेंसी जैसी किताब को पढ़ते हुए कभी लोककथा कभी रोचक गपशप  तो कभी अनहोनी प्रसंगो को जानकर ज्यादातर पाठक मुग्ध हो jayenge. किताब में इतना कुछ हसि की सबका  उल्लेख करना संभव नहीं.  निसंदेह प्रामाणिक दस्तावेजों के साथ यह हिंदी की सबसे बेहतरीन किताब  है.  हालांकि  बिहार के कांग्रेसी  सांसद रहे दिवंगत शंकर दयाल सिंह की किताब इमरजेंसी : क्या सच क्या झूठ  इस घटना की राजनितिक सरगर्मियों का जीवंत उल्लेख hai,  मगर बलबीर दत्त की किताब में इसके सामाजिक राजनीतिक  प्रभाव और जनता के असंतोष  को स्वर दियस hai. यह किताब एक तरह से आज़ादी के बाद राजनीति के विकृत चेहरे की कलई  खोलती है .  भले ही 45 साल के बाद आपातकाल  पर यह किताब  आयी है मगर आने के साथ ही  आपातकाल साहित्य की एक बड़ी कमी को खत्म  करती  है. बलबीर दत्त को श्रेय दिया जा सकता है. देर  से ही सही इस किताब ने आपातकाल को नये तरह से परिभाषित करके शून्यता को भर  दिया  है.  472 पेजी किताब को आकर्षक साज सज्जा के साथ छापा गया है और इसकी क़ीमत 500/- भी कोई खास अधिक नहीं लगती hai.