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मंगलवार, 15 सितंबर 2020

लघुकथा के विभिन्न पहलू

 लघुकथा के प्रति 

(1) लघुकथा क्या है 

 * लघुकथा ‘गागर में सागर’ भर देने वाली विधा है। लघुकथा एकसाथ लघु भी है और कथा भी। यह न लघुता को छोड़ सकती है और न कथा को ही। 

 - भारत-दर्शन 

* यह विधा सामाजिक यथार्थ,आडंबरों, विसंगतियों और मनोभावों को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है जो शैली की सूक्षमता, अभिव्यक्ति के पैनेपन और तीव्र संप्रेषणीयता के कारण देखते-देखते अत्यंत लोकप्रिय विधा हो गयी है। 

 - डॉ शमीम शर्मा 

 * लघुकथा ऐसी ग़ज़ल है जिसकी बह्र भी खुद लेखक को लिखनी पड़ती है, क्योंकि लघुकथा किसी बने-बनाये साँचे में फिट हो जाने वाली विधा नहीं है। 

 - योगराज प्रभाकर 

(2) लघुकथा के तत्व 

लघुकथा के तीन तत्व 1- क्षणिक घटना, 2- संक्षिप्त कथन तथा 3- तीक्ष्ण प्रभाव हैं। इन में से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है। 

 - संजीव वर्मा सलिल 

 (3) लघुकथा के लक्षण 

 * शीर्षक पढ़ने कि जिज्ञासा उत्पन्न करे * भूमिका न हो * शब्दों की मितव्ययिता हो * सूक्ष्मतम आकार हो * चिंतन हेतु उद्वेलित करे * क्षणिक घटना हो * सीमित पात्र हों * एक ही काल-खंड हो * इकहरापन हो * चरित्र-चित्रण न हो और यदि हो तो सांकेतिक हो * लेखकीय हस्तक्षेप न हो * लेखकीय प्रवेश न हो * प्रतीकों में बात की जाये * शब्द की अभिधा शक्ति के साथ लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग हो * मारक पंक्ति या पंच लाइन प्राणवान हो * मध्यांतर न हो * अन्त का पूर्वाभास न हो * संदेश ध्वनित हो, शब्दायित नहीं … 

 (4) लघुकथा का शीर्षक 

 * रचना की सफलता में शीर्षक का बहुत बड़ा योगदान होता है। किसी भी रचना को शीर्षक ही प्रथम दृष्टि में पाठक को पढ़ने हेतु उत्प्रेरित करता है। शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो अपनी सार्थकता सिद्ध करने के साथ-साथ आकर्षक,विचित्र और जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला हो कि पाठक तुरंत उसे पढ़ना आरंभ कर दे। 

 - डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र 

 (5) लघुकथा का प्रसव 

 * लघुकथा विसंगतियों की कोख से उत्पन्न होती है। हर घटना या हर समाचार लघुकथा का रूप धारण नहीं कर सकता। किसी विशेष परिस्थिति या घटना को जब लेखक अपनी रचनाशीलता और कल्पना का पुट देकर कलमबंद करता है तब एक लघुकथा का खाका तैयार होता है। 

 - योगराज प्रभाकर 

 * लघुकथा हठात् जन्म नहीं लेती, अकस्मात् पैदा नहीं होती। दूसरे शब्दों में कहें तो लघुकथा तात्क्षणिक प्रतिक्रिया का परिणाम नहीं होती। जब कोई कथ्य–निर्देश देर तक मन में थिरता है और लोक–संवृत में अँखुआ उठता है, तब जाकर जन्म ले पाती है लघुकथा, जैसे सीपी में मोती जन्म लेता है।

 - गौतम सान्याल 

 * सृजन के लिए चिंतन की कोख चाहिए। बीज को फूटने के लिए गर्भ में उसे धारण करना होगा, चाहे वह जीव मात्र का शरीर हो या मिट्टी। बौद्धिक चिंतन सृजनात्मक अभिव्यक्ति को साहित्यिक पृष्ठभूमि पर पोषित कर फूटने का अवसर देता है। 

 - कान्ता रॉय 

 (6) लघुकथा का आकार 

 * (31 और 38 शब्दों की श्रेष्ठ लघुकथाओं के उदाहरण देने के बाद) इसलिए कम-से-कम शब्दों की सीमा की बात नहीं की जा सकती, संभव है इससे भी कम शब्दों की कोई श्रेष्ठ लघुकथा लिखी गयी हो या लिखी जाये। अब आइए अधिकतम शब्दों की सीमा की बात पर। अब तक लिखी गईं अधिकतर लघुकथाएँ 450-500 शब्दों तक जाती हैं, लेकिन कुछ लघुकथाएँ 700 शब्दों के पार जाती हैं और उम्दा रचनाएँ हैं। ... इस सीमा को हमें खुला ही छोड़ना होगा। 

 - डॉ. अशोक भाटिया 

* किसी भी लेखक की लघुकथा सम्बन्धी धारणा में लघुता के प्रति आग्रह स्पष्ट दिखाई देता है। इस लघुता की निम्नतम और अधिकतम शब्द-सीमा पर आम सहमति नहीं है। कहानी में अधिकतम शब्द-सीमा 1000 शब्द की है। अतः लघुकथा की अधिकतम सीमा इससे बढ़ कर तो नहीं हो सकती। वास्तव में हजार शब्दों की लघुकथा शायद ही पढ़ने को मिले। अधिकतर रचनाएँ 150 से 500 शब्दों तक ही सीमित हो जाती हैं। 

 - भगीरथ परिहार 

 (7) लघुकथा का कालखंड 

 * लघुकथा एक एकांगी-इकहरी लघु आकार की एक गद्य बानगी है जिसमें विस्तार की अधिक गुंजाइश नहीं होती है। लघुकथा किसी बड़े परिप्रेक्ष्य से किसी विशेष क्षण का सूक्ष्म निरीक्षण कर उसे मैग्नीफ़ाई करके उभारने का नाम है। यह क्षण कोई घटना हो सकती है, कोई संदेश हो सकता है, अथवा कोई विशेष भाव भी हो सकता है। यदि लघुकथा किसी विशेष घटना को उभारने वाली एकांगी विधा का नाम है तो जाहिर है कि लघुकथा एक ही कालखंड में सीमित होती है। अर्थात लघुकथा में एक से अधिक कालखंड होने से वह कालखंड-दोष से ग्रसित मानी जाएगी तथा लघुकथा न रह कर एक कहानी (शॉर्ट स्टोरी) हो जाएगी। 

 - योगराज प्रभाकर 

* कथा-प्रस्तुति की आवश्यकतानुरूप इसमें (लघुकथा में) लंबे कालखंड का आभास भले ही दिलाया गया हो लेकिन उसका विस्तृत व्यौरा देने से बचा गया हो। लघुकथा में जिसे हम क्षण कहते हैं वह द्वंद्व को उभारने वाला या पाठक-मस्तिष्क को उस ओर प्रेरित करने वाला होना चाहिए। 

 - डॉ बलराम अग्रवाल 

* लघुकथा के कथानक का आधार जीवन के क्षण विशेष के कालखंड की घटना पर आधारित होना चाहिए। 

* एक श्रेष्ठ लघुकथा में जिन आवश्यक तत्वों की दरकार आक कल की जाती है, मसलन वह आकार में बड़ी न हो, कम पात्र हों, समय के एक ही कालखंड को समाहित किए हो। 

 - सुभाष नीरव 

* एक क्षण की रचना कह कर हम ही लघुकथा को बौना बना रहे हैं। … रचना में उद्देश्य (कथ्य) की सूत्रबद्धता हो, और विषय की तारतम्यता हो, तो लघुकथा में बड़े से बड़ा समय सहज रूप में समा सकता है। बस लेखकीय कौशल की आवश्यकता है। 

 - डॉ अशोक भाटिया 

 (8) लघुकथा में लेखकीय प्रवेश 

* लघुकथा में जो कहना हो वह या तो पात्र कहें या फिर परिस्थितियाँ। किन्तु जब इन्हें पीछे धकेल कर लेखक स्वयं व्याख्यान देने लगे तो उसे रचना में लेखक का अनाधिकृत प्रवेश माना जाता है। 

 - योगराज प्रभाकर 

 * लघुकथा के अंत में चौंका देने वाली स्थिति आने के बाद लघुकथा का विस्तार करना लेखकीय प्रवेश है। यह लघुकथा के प्रभाव को कम कर देता है। 

 - मुकेश शर्मा 

 (9) लघुकथा में प्रतीक-विधान 

 * मानवेतर पात्र जब प्रतीक रूप में आकर लघुकथा को संचालित करते हैं तो रचना की रोचक बुनावट देखते ही  - डॉ अशोक भाटिया 

* संकेतों की कथानक में उल्लेखनीय भूमिका होती है। संकेत मील का पत्थर होते हैं। मील का पत्थर करते कुछ नहीं हैं पर दिशा और दूरी का पूरा संकेत कर देते हैं जिससे यात्रा सुगम हो जाती है। वैसे ही लघुकथा में संकेत चरित्रांकन और प्रतिपाद्य-उदघाटन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। 

 - डॉ शमीम शर्मा 

 (10) लघुकथा की इकहरी और एकांगी प्रकृति 

* कहानी या उपन्यास के विपरीत लघुकथा में उपकथा की कोई प्रावधान नहीं है। जी कारण इसे इकहरी अथवा एकांगी विधा कहा जाता है। 

- योगराज प्रभाकर 

* लघुकथा एक व्शय विशेष पर केन्द्रित होती है, जैसे ही उस विषय का प्रतिपादन पूर्ण हो जाता है, वह समाप्त हो जाती हयाह उस विषय से न तो भटकती है, न उस विषय के साथ किसी अन्य विषय को जोड़ती है। इसलिए हम इसे इकहरी या एकांगी विधा कहते हैं। 

- सतीश राठी 

 (11) लघुकथा का अंत 

 * लघुकथा का अंत करना एक हुनर है लघुकथा का अंत उसके स्तर और कद-बुत को स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अधिकतर सफल लघुकथाएँ अपने कलात्मक अंत के कारण ही पाठकों को प्रभावित करने में सफल रहती हैं। 

- योगराज प्रभाकर 

* चरमोत्कर्ष पर ही लघुकथा का अंत होना चाहिए। कथ्य-उदघाटन के साथ लघुकथा समाप्त होती है। लघुकथा में अंत का बहुत महत्व है। अंत अतिरिक्त परिश्रम और लेखकीय कौशल की मांग करता है। 

 - सुकेश साहनी 

 (12) लघुकथा में पंच-लाइन (मारक-पंक्ति) 

 ‘पंच’ शब्द इस समय बहुत चलन में है जिसका अर्थ प्रायः कथा में तड़ाक-फड़ाक अथवा विस्फोटक-पूर्ण समापन से लिया जा रहा है। वस्तुतः उसका अर्थ है कथा में वह बात जो पाठक के मन को उद्वेलित करे, विसंगति के प्रति मन में विद्रोह पैदा करे। यह भी अनिवार्य शर्त नहीं, न ही सायास लाये जाने हेतु लेखक बाध्य है बल्कि स्वाभाविक रूप से लेखक अपनी बात को इस अंदाज़ से कहे कि वह पाठक को भीतर तक प्रभावित करे। 

 - डॉ लता अग्रवाल 

 (13) लघुकथाकार 

 * स्तरीय लघुकथाकार वह है जो अपनी लेखनी की कमियों को जानता है और उन्हें दूर करने के लिए रचना-दर-रचना प्रयत्नशील रहता है। 

 - बलराम अग्रवाल 

 (14) लघुकथा की रचना प्रक्रिया 

* रचना-प्रक्रिया, अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का एक लंबा सफर है। … रचना-प्रक्रिया कोई जड़ यंत्र नहीं है, बल्कि वह रचनाकार की मानसिक संवेदना, सामाजिक परिवेश, तथा उसके कलात्मक अनुभवों से संबन्धित एक जागरूक प्रक्रिया है जिसमें रचनाकार न केवल अपने रचनात्मक अनुभवों को संप्रेषित करता है, बल्कि इस रचनात्मक लेखन को जीवन और यथार्थ के जटिल अनुभवों की तीव्रतम पीड़ा से अपने को मुक्त करने का साधन भी मानता है। 

कुमार विकल के मतानुसार रचना-प्रक्रिया की मुख्यतः दो अवस्थाएँ होती हैं- भावन की मानसी अवस्था और रूपाकार-बद्ध अवस्था। गजानन माधव मुक्तिबोध ने रचना प्रक्रिया के तीन पड़ावों का उल्लेख किया है- (1) जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव क्षण (2) अपने कसकते-दुखते मूलों में इस अनुभव की प्रथकता और आँखों के सामने कल्पना (फैंटेसी) में रूपान्तरण (3) इस कल्पना के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का प्रारम्भ। 

 - योगराज प्रभाकर 

 (15) लघुकथा की समीक्षा 

* समीक्षकों की पैनी नज़र और निष्पक्ष टिप्पणियाँ ही लघुकथा के भविष्य को सुरक्षित कर सकती हैं। 

 - अज्ञात 

* हर विधा को स्वीकारने में समय लगता है। उसकी गहराइयों को नापने का साहस अपेक्षित होता है, उसकी ऊंचाइयों में विचरण की हमेशा माँग होती है। फिर यह तो सत्य है कि कोई बड़ा किसी छोटे के गुणों की तारीफ कब स्वीकारता है,उसे तो अपने अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगता महसूस होता है। लघुकथा के समीक्षा पक्ष को स्पष्ट और पुष्ट करने के लिए स्वस्थ और खुले मन की जरूरत है। 

 - डॉ इन्दु बाली 

* क्या हम जाने-अनजाने लघुकथा के नैसर्गिक स्वरूप और विशिष्टता से विमुख तो नहीं होते जा रहे हैं?कहीं कृत्रिम कलात्मकता के प्रति आग्रहता अथवा अतार्किक नियमावली के बंधन लघुकथा के विकास को अवरुद्ध तो नहीं कर रहे हैं? आखिर इस भ्रम की स्थिति का कोई कारण तो अवश्य होगा। कहीं इस स्थिति के लिए नित नये बन रहे आचार्यविहीन मठ तो उत्तरदायी नहीं जो नवोदितों को दिग्भ्रमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं? ऐसे मठों और मठाधीशों से बच कर रहने में ही भलाई है। 

 - योगराज प्रभाकर  

(16) लघुकथा में संवाद शैली 

संवाद शैली में ऐसी लघुकथाएँ लिखी जा सकती हैं, जिनमें किसी भी और वर्णन के बिना काम चल सकता है ऐसी लघुकथाओं का प्रभाव भी बहुत रहता है, क्योंकि पाठक सीधे-सीधे पात्रों से रू-ब-रू होता है। ... वैसे एक ही लघुकथा में विभिन्न शैलियों का एक साथ भी प्रयोग रहता है। 

 संदर्भ ग्रंथ 

(1) लघुकथा कलश, प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ महाविशेषांक, संपादक- योगराज प्रभाकर, संपर्क- 9872568228 

(2) समय की दस्तक, संपादक- कान्ता रॉय, चलभाष- 9575465147  

(3) परिंदे पूछते हैं, लेखक- डॉ अशोक भाटिया, चलभाष- 9416152100

… … … (क्रमशः)

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

*शिक्षक-दिवस*

 *कुण्डलिया* / *शिक्षक-दिवस*


                           (१)


शिक्षक एक महान थे,उद्भट थे विद्वान।

राधा कृष्णन नाम था,सागर जैसा ज्ञान।।

सागर जैसा ज्ञान, परम वैज्ञानिक उनका।

करना शिक्षा-दान,कर्म सम्मानित जिनका।

भारत के थे रत्न,देश के उत्तम दीक्षक।

जन्मदिवस पर हर्ष,मनाते मिलकर शिक्षक।।


                         (२)


पाँच सितंबर तिथि हुआ,जन्मदिवस अनुमन्य।

शिक्षक दिवस स्वरूप में,राधाकृष्णन धन्य।

राधा कृष्णन धन्य,समर्पित शिक्षक नेता।

धर्म और विज्ञान,उभय के थे समवेता।।

धवल कीर्ति यशगान,सुशोभित धरती अम्बर।

शिक्षक दिवस 'दिनेश',आज है पाँच सितंबर।।


                           (३)


जाते शिक्षक बन मगर,शिक्षा से मुँह मोड़।

समय बिताते खेत में,विद्यालय को छोड़।।

विद्यालय को छोड़,बने नेता हैं फिरते।

करें न शिक्षा-कर्म,काम निज घर का करते।।

शिक्षक का जो धर्म,कभी वे नहीं निभाते।

ऐसे भी कुछ लोग,यहाँ शिक्षक बन जाते।।


                        (४)


शिक्षा अब बिकने लगी,शिक्षा के बाज़ार।

व्यापारी करने लगे,शिक्षा का व्यापार।।

शिक्षा का व्यापार,यहाँ करता है जो भी।

फलता है दिन-रात,बना व्यापारी लोभी।।

जो बालक धनहीन,नहीं पाते हैं दीक्षा।

कहता सत्य 'दिनेश', हुई अब महँगी शिक्षा।।


                           (५)


शिक्षक बन मत कीजिए, शिक्षा का व्यापार।

शिक्षा को मत बेचिए,सरेआम बाज़ार।।

सरेआम बाज़ार, बात है कड़वी सच्ची।

करिए यह स्वीकार,नहीं हो माथा-पच्ची।।

कहता सत्य 'दिनेश',परम पावन पद दीक्षक।

फैले जगत प्रकाश,बनो तुम ऐसा शिक्षक।।


                         (६)


शिक्षक बनकर राष्ट्र में,सदा निभाना धर्म।

प्राणवान भारत बने,करना ऐसा कर्म।।

करना ऐसा कर्म,छात्र के हित में होए।

शिक्षा के जो मूल्य,नहीं शिक्षार्थी खोए।।

सदा उठाकर शीश,खड़ा हो भारत तनकर।

अपना धर्म 'दिनेश', निभाओ शिक्षक बनकर।।


                        (७)


शिक्षक दिवस मनाइए,मचा हुआ है शोर।

शिक्षा के भी क्षेत्र में,दिखते हैं कुछ चोर।।

दिखते हैं कुछ चोर,काम चोरी जो करते।

बिना काम के दाम,सदा झोली में भरते।।

कहता सत्य दिनेश,इन्हें तुम समझो भिक्षक।

लगती मुझको शर्म,कहूँ जो इनको शिक्षक।।        

    

                        ( ८)


सरकारी शिक्षक बनो,शिक्षा से मुँह मोड़।

करिए कार्य तमाम हैं,केवल शिक्षा छोड़।।

केवल शिक्षा छोड़,पोलियो-ड्यूटी करिए।

कभी चुनावी बॉक्स,आप माथे पर धरिए।।

तरह-तरह के कर्म,कराते हैं अधिकारी।

शिक्षक होते त्रस्त, ख़ासकर जो सरकारी।।


                    दिनेश श्रीवास्तव             

                    @ दिनेश श्रीवास्तव

                      ग़ाज़ियाबाद

ये उन दिनों की बात हैं

 ये उन  दिनों  की बात हैं 

पांचवीं तक स्लेट की बत्ती को जीभ से चाटकर कैल्शियम की कमी पूरी करना हमारी स्थाई आदत थी लेकिन इसमें पापबोध भी था कि कहीं विद्यामाता नाराज न हो जायें ।


*पढ़ाई का तनाव हमने पेन्सिल का पिछला हिस्सा चबाकर मिटाया था ।*


"पुस्तक के बीच  *पौधे की पत्ती* *और मोरपंख रखने* से हम होशियार हो जाएंगे ऐसा हमारा दृढ विश्वास था"। 


कपड़े के थैले में किताब कॉपियां जमाने का विन्यास हमारा रचनात्मक कौशल था ।


*हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का वार्षिक उत्सव था ।*


*माता पिता को हमारी पढ़ाई की कोई फ़िक्र नहीं थी , न हमारी पढ़ाई उनकी जेब पर बोझा थी* । 

सालों साल बीत जाते पर माता पिता के कदम हमारे स्कूल में न पड़ते थे । 


*एक दोस्त को साईकिल के डंडे पर और दूसरे को पीछे कैरियर पर बिठा* हमने कितने रास्ते नापें हैं , यह अब याद नहीं बस कुछ धुंधली सी स्मृतियां हैं । 


*स्कूल में पिटते हुए और मुर्गा बनते हमारा ईगो हमें कभी परेशान नहीं करता था , दरअसल हम जानते ही नही थे कि ईगो होता क्या है ?*


पिटाई हमारे दैनिक जीवन की सहज सामान्य प्रक्रिया थी ,

"पीटने वाला और पिटने 

वाला दोनो खुश थे" , 

पिटने वाला इसलिए कि कम पिटे , पीटने वाला इसलिए खुश कि हाथ साफ़ हुवा। 


*हम अपने माता पिता को कभी नहीं बता पाए कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं,क्योंकि हमें "आई लव यू" कहना नहीं आता था* ।


आज हम गिरते - सम्भलते , संघर्ष करते दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं , कुछ मंजिल पा गये हैं तो कुछ न जाने कहां खो गए हैं ।


*हम दुनिया में कहीं भी हों लेकिन यह सच है , हमे हकीकतों ने पाला है , हम सच की दुनियां में थे ।*


कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना और रिश्तों को औपचारिकता से बनाए रखना हमें कभी नहीं आया इस मामले में हम सदा मूर्ख ही रहे ।


अपना अपना प्रारब्ध झेलते हुए हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं , शायद ख्वाब बुनना ही हमें जिन्दा रखे है, वरना जो जीवन हम जीकर आये हैं उसके सामने यह वर्तमान कुछ भी नहीं ।


*हम अच्छे थे या बुरे थे पर हम एक साथ थे, काश वो समय फिर लौट आए ।*


*👨‍🎨👩🏻‍🚒"एक बार फिर अपने बचपन के पन्नो को पलटिये, सच में फिर से जी उठेंगे”...✍*