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रविवार, 11 जुलाई 2021

आज की शबरी

 *#कलयुग कि #शबरी #आज की #तस्वीर में जो बुजुर्ग महिला बैठी हुई है। इनके #दर्शन करना बड़े #सौभाग्य की बात है क्योंकि यह पिछले 46 सालों से राधा रमन जी के प्रांगण में ही बैठी रहती है। और कभी राधा रमन जी की गलियां और राधा रमन जी का मंदिर छोड़कर   इधर उधर वृंदावन में कहीं नहीं गई। इन   बुजुर्ग महिला की उमर 81 साल हो चुकी है। जब यह  35 बरस की थी । तब यह  जगन्नाथ पुरी से चलकर अकेली वृंदावन के लिए आई थी। वृंदावन पहुंचकर इन्होंने किसी बृजवासी से वृंदावन का रास्ता पूछा ।उस ब्रजवासी ने इनको राधा रमन जी का मंदिर दिखा दिया। आज से 46 साल पहले कल्पना कीजिए वृंदावन कैसा होगा। यह अकेली जवान औरत सब कुछ छोड़ कर केवल भगवान के भरोसे वृंदावन आ गई। और किसी बृजवासी ने जब इनको राधा रमन जी का मंदिर दिखा   कर यह कह दिया यही वृंदावन है। तब से लेकर आज तक इनको 46 बरस हो गए यह राधा रमन जी का मंदिर छोड़कर कहीं नहीं गई। यह मंदिर के प्रांगण में बैठकर 46 साल से भजन गाती है। मंगला आरती के दर्शन करती हैं। कभी-कभी गोपी गीत गाती हैं। जब इनको कोई भक्त यह कहता है। माताजी वृंदावन घुम  आओ। तो यह कहती है। मैं कैसे जाऊं? लोग बोलते हैं। बस से या ऑटो से चली जाओ। तो यह कहती है जब मुझे किसी बृजवासी ने यह बोल दिया  यही वृंदावन है। तो मेरे बिहारी जी तो मुझे यही मिलेंगे। मेरे लिए तो सारा वृंदावन इसी राधा रमन मंदिर में  ही है। देखिए प्रेम और समर्पण की कैसी प्रकाष्ठा है। आज   के दौर में संत हो या आम जन सब धन -दौलत, रिश्ते- नातों के पीछे भाग रहे है । तो आज भी संसार में ऐसे दुर्लभ भक्त हैं जो केवल और केवल भगवान के पीछे भागते हैं। यह देखने में   बहुत निर्धन   दिखते हैं। परंतु इनका परम धन इनके भगवान 🙏राधा रमन🙏 जी है।* *हम संसार के लोग थोड़ी सी भक्ति करते हैं। और अपने आप को भकत समझ बैठते हैं। और थोड़ी सी भी परेशानी आई   या तो भगवान को कोसने लगते हैं। या उस भगवान को छोड़कर किसी अन्य देवी- देवता की पूजा करने लग जाते हैं। हमारे अंदर समर्पण तो है ही नहीं। आज   संसार के अधिकतर लोग अपनी परेशानियों से परेशान होकर कभी एक बाबा से दूसरे बाबा पर दूसरे बाबा से तीसरे बाबा पर भाग रहे हैं। ओर तो ओर हमारा ना अपने गुरु पर विश्वास है। ना किसी एक देवता को अपना इषट मानते है।  अधिकतर लोग भगवान को अगर प्यार भी करते हैं। तो किसी ना किसी भौतिक जरूरत के लिए करते हैं। परंतु इन दुर्लभ संत  महिला को को देखिये।जो सब कुछ त्याग कर केवल भगवान के भरोसे 46 साल से राधा रमन जी के प्रांगण में बैठी lऐसे संतो के चरणों में मेरा कोटि-कोटि प्रणाम*🙏🙏🌹

*Զเधे कृष्ण जी*

🙏🌹🌹🙏

सीता की आग्नेय दृष्टि

 🌹आज का भगवद चिंतन - 864🌹

एक बार अयोध्या के राज भवन में भोजन परोसा जा रहा था।

माता कौशल्या बड़े प्रेम से भोजन खिला रही थी।


माँ सीता ने सभी को खीर परोसना शुरू किया और भोजन शुरू होने ही वाला था की ज़ोर से एक हवा का झोका आया सभी ने अपनी अपनी पत्तलें सम्भाली सीता जी बड़े गौर से सब देख रही थी...


ठीक उसी समय राजा दशरथ जी की खीर पर एक छोटा सा घास का तिनका गिर गया जिसे माँ सीता जी ने देख लिया... 


लेकिन अब खीर में हाथ कैसे डालें ये प्रश्न आ गया माँ सीता जी ने दूर से ही उस तिनके को घूर कर देखा वो जल कर राख की एक छोटी सी बिंदु बनकर रह गया सीता जी ने सोचा अच्छा हुआ किसी ने नहीं देखा...


लेकिन राजा दशरथ माँ सीता जी के इस चमत्कार को देख रहे थे फिर भी दशरथ जी चुप रहे और अपने कक्ष पहुँचकर माँ सीता जी को बुलवाया...


फिर उन्होंने सीताजी से कहा कि मैंने आज भोजन के समय आप के चमत्कार को देख लिया था...


आप साक्षात जगत जननी स्वरूपा हैं, लेकिन एक बात आप मेरी जरूर याद रखना...


आपने जिस नजर से आज उस तिनके को देखा था उस नजर से आप अपने शत्रु को भी कभी मत देखना...


इसीलिए माँ सीता जी के सामने जब भी रावण आता था तो वो उस घास के तिनके को उठाकर राजा दशरथ जी की बात याद कर लेती थीं...


तृण धर ओट कहत वैदेही...

सुमिरि अवधपति परम् सनेही...


यही है...उस तिनके का रहस्य...


इसलिये माता सीता जी चाहती तो रावण को उस जगह पर ही राख़ कर सकती थी लेकिन राजा दशरथ जी को दिये वचन एवं भगवान श्रीराम को रावण-वध का श्रेय दिलाने हेतु वो शांत रही...

ऐसी विशालहृदया थीं हमारी जानकी माता...


-प्रेरक / भक्ति कथायें

🙏❤️🌹जय श्री कृष्णा🌹❤️🙏

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बेटी बनकर घर पे रही लक्ष्मी

 ।। माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु के साथ मृत्यु लोक  की भ्रमण की कहानी  !!

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🙏 जय श्रीकृष्ण, जय माता लक्ष्मीi 🙏

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 भगवान् विष्णुजी और सौभाग्य और धन की देवी माँ लक्ष्मीजी के साथ मृत्युलोक भ्रमण की कथा का अमृत पान करेंगे, परमेश्वर के तीन मुख्य स्वरूपों में से एक भगवान विष्णुजी का नाम स्वयं ही धन की देवी माँ लक्ष्मीजी के साथ लिया जाता है, शास्त्रों में कथाओं के अनुसार माँ लक्ष्मीजी हिन्दू धर्म में धन, सम्पदा, शान्ति, सौभाग्य और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं।


माता लक्ष्मीजी भगवान् श्री विष्णुजी की अर्धांगिनी हैं. सुख व समृद्धि की प्रतीक माँ लक्ष्मी व भगवान् विष्णुजी को युगों-युगों से एक साथ ही देखा गया है, यदि कोई व्यक्ति अपने जीवन में धन का वास चाहता है, तो हमेशा ही मां लक्ष्मी के साथ भगवान विष्णु की आराधना अवश्य करे. इन दोनों का रिश्ता काफी शुद्ध व सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।


परंतु ऐसा क्या हुआ था? जो लक्ष्मीजी के कारण भगवान् विष्णुजी की आंखें भर आईं? एक कथा के अनुसार लक्ष्मीजी की किस बात से विष्णु जी इतने निराश हो गयें, एक बार भगवान विष्णुजी शेषनाग पर बैठे-बैठे उदास हो गयें और धरती पर जाने का विचार बनाया, धरती पर जाने का मन बनाते ही विष्णुजी जाने की तैयारियों में लग गये।


अपने स्वामी को तैयार होता देख कर लक्ष्मीजी ने उनसे पूछा- स्वामी, आप कहां जाने की तैयारी में लगे हैं? जिसके उत्तर में विष्णुजी ने कहा, हे देवी! मैं धरती लोक पर घूमने जा रहा हूँ, यह सुन माता लक्ष्मीजी का भी धरती पर जाने का मन हुआ और उन्होंने श्रीहरि से इसकी आज्ञा माँगी।


लक्ष्मीजी द्वारा प्रार्थना करने पर भगवान् विष्णुजी बोले आप मेरे साथ चल सकती हो, लेकिन एक शर्त पर, तुम धरती पर पहुँच कर उत्तर दिशा की ओर बिलकुल मत देखना, तभी मैं तुम्हें अपने साथ लेकर जाऊंगा. यह सुनते ही माता लक्ष्मीजी ने तुरंत हाँ कह दिया और विष्णुजी के साथ धरती लोक जाने के लिए तैयार हो गयीं।


माता लक्ष्मीजी और भगवान् विष्णुजी सुबह-सुबह धरती पर पहुँच गए. जब वे पहुंचे तब सूर्य देवता उदय हो ही रहें थे, कुछ दिनों पहले ही बरसात हुयी थी, इसलिये धरती पर  चारों ओर हरियाली ही हरियाली थी, धरती बेहद सुन्दर दिख रही थी, अतः माँ लक्ष्मीजी मन्त्र मुग्ध हो कर धरती के चारों ओर देख रही थीं, माँ लक्ष्मीजी भूल गयीं कि पति को क्या वचन दे कर साथ आई हैं।


अपनी नजर घुमाते हुए उन्होंने कब उत्तर दिशा की ओर देखा उन्हें पता ही नहीं चला? मन ही मन में मुग्ध हुई माता लक्ष्मीजी ने जब उत्तर दिशा की ओर देखा तो उन्हें एक सुन्दर बागीचा नजर आया. उस ओर से भीनी-भीनी खुशबू आ रही थी. बागीचे में बहुत ही सुन्दर-सुन्दर फूल खिले थे. फूलों को देखते ही मां लक्ष्मी बिना सोचे समझे उस खेत में चली गईं और एक सुंदर सा फूल तोड़ लायीं।


फूल तोड़ने के पश्चात जैसे ही माँ लक्ष्मीजी भगवान् विष्णुजी के पास वापस लौट कर आयीं तब भगवान् विष्णुजी की आँखों में आँसू थे. माँ लक्ष्मीजी के हाथ में फूल देख विष्णुजी बोले, कभी भी किसी से बिना पूछे उसका कुछ भी नहीं लेना चाहियें, और साथ ही माँ लक्ष्मीजी को विष्णुजी को दिया हुआ वचन भी याद दिलाया, और फिर भगवान् विष्णुजी जी ने दी माँ लक्ष्मीजी को सजा।


माँ लक्ष्मीजी को अपनी भूल का जब आभास हुआ तो उन्होंने भगवानक्ष विष्णुजी से इस भूल की क्षमा मांगी, विष्णुजी ने कहा कि आपने जो भूल की है उस की सजा तो आपको अवश्य मिलेगी? जिस माली के खेत से आपने बिना पूछे फूल तोड़ा है, यह एक प्रकार की चोरी है, इसीलिये अब आप तीन वर्षों तक माली के घर नौकर बन कर रहो, उस के बाद मैं आपको बैकुण्ठ में वापस बुलाऊँगा।


भगवान् विष्णुजी का आदेश माता लक्ष्मीजी ने चुपचाप सर झुका कर मान स्वीकार किया, जिसके बाद माँ लक्ष्मीजी ने एक गरीब औरत का रूप धारण किया और उस खेत के मालिक के घर गयीं, माधव नाम के उस माली का एक झोपड़ा था जहां माधव पत्नी, दो बेटे और तीन बेटियों के साथ रहता था, माता लक्ष्मीजी जब एक साधारण औरत बन कर माधव के झोपड़े पर पधारी,  तो माधव ने पूछा- बहन आप कौन हो........??


तब मां लक्ष्मी ने कहा- मैं एक गरीब औरत हूं, मेरी देखभाल करने वाला कोई नहीं, मैंने कई दिनों से खाना भी नहीं खाया, मुझे कोई भी काम दे दो. मैं तुम्हारे घर का काम कर लिया करूँगी और इसके बदले में आप मुझे अपने घर के एक कोने में आसरा दे देना, माधव बहुत ही अच्छे दिल का मालिक था, उसे दया आ गयीं, लेकिन उस ने कहा, बहन मैं तो बहुत ही गरीब हूं, मेरी कमाई से मेरे घर का खर्च काफी कठिनाई से चलता है।


लेकिन अगर मेरी तीन बेटियां है उसकी जगह अगर चार बेटियां होतीं तो भी मुझे गुजारा करना था, अगर तुम मेरी बेटी बन कर और जैसा रूखा-सूखा हम खाते हैं उसमें खुश रह सकती हो तो बेटी अन्दर आ जाओ।


माधव ने माँ लक्ष्मीजी को अपने झोपड़े में शरण दी,  और माँ लक्ष्मीजी तीन साल तक उस माधव के घर पर नौकरानी बन कर रहीं, कथा के अनुसार कहा जाता है कि जिस दिन माँ लक्ष्मीजी माधव के घर आईं थी, उसके दूसरे दिन ही माधव को फूलों से इतनी आमदनी हुई कि शाम को उसने एक गाय खरीद ली।


फिर धीरे-धीरे माधव ने जमीन खरीद ली और सबने अच्छे-अच्छे कपड़े भी बनवा लियें, कुछ समय बाद माधव ने एक बडा पक्का घर भी बनवा लिया, माधव हमेशा सोचता था कि मुझे यह सब इस महिला के आने के बाद मिला है, इस बेटी के रूप में मेरी किस्मत आ गई है...


एक दिन माधव जब अपने खेतों से काम खत्म करके घर आया, तो उसने अपने घर के द्वार पर गहनों से लदी एक देवी स्वरूप औरत को देखा, जब निकट गया तो उसे आभास हुआ कि यह तो मेरी मुंहबोली चौथी बेटी यानि वही औरत है, कुछ समय के बाद वह समझ गया कि यह देवी कोई और नहीं बल्कि स्वयं माँ लक्ष्मीजी हैं, यह जानकर माधव बोला- हे माँ हमें क्षमा करें, हमने आपसे अनजाने में ही घर और खेत में काम करवाया, हे माँ यह हमसे कैसा अपराध हो गया, हे माँ हम सब को माफ़ कर दे।


यह सुन माँ लक्ष्मीजी मुस्कुराईं और बोलीं- हे माधव तुम बहुत ही अच्छे और दयालु व्यक्त्ति हो, तुमने मुझे अपनी बेटी की तरह रखा, अपने परिवार का सदस्य बनाया, इसके बदले मैं तुम्हें वरदान देती हूंँ, कि तुम्हारे पास कभी भी खुशियों की और धन की कमी नहीं रहेगी, तुम्हें सारे सुख मिलेंगे जिसके तुम हकदार हो. इसके पश्चात माँ लक्ष्मीजी अपने स्वामी श्री हरि के द्वारा भेजे रथ में बैठकर वैकुण्ठ चली गयीं, हे माँ मेरी नम्र विनंती है कि जैसे माधव पर कृपा दृष्टि रखी, वैसी ही कृपा दृष्टि हमारे समाज और देश पर रखना।


                 🌹जय श्री लक्ष्मी माँ!🌹

महाभारत की कहानी

 एक रात के लिए पुनर्जीवित हुए थे महाभारत युद्ध में मारे गए वीर=======


        आज  महाभारत से जुडी एक अदभुत घटना के बारे में बता रहे है जब महाभारत युद्ध में मारे गए समस्त शूरवीर जैसे की भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, अभिमन्यु, द्रौपदी के पुत्र, कर्ण, शिखंडी  आदि एक रात के लिए पुनर्जीवित हुए थे यह घटना महाभारत  युद्ध ख़त्म होने के 15 साल बाद घटित हुई थी। साथ ही हम आपको बताएँगे की धृतराष्ट्, गांधारी, कुन्ती और विदुर की मौत कैसे हुई ? 


आइए इन सब के बारे में विस्तार पूर्वक जानते है –

राजा बनने के पश्चात हस्तिनापुर में युधिष्ठिर धर्म व न्यायपूर्वक शासन करने लगे। युधिष्ठिर प्रतिदिन धृतराष्ट्र व गांधारी का आशीर्वाद लेने के बाद ही अन्य काम करते थे। इस प्रकार अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी आदि भी सदैव धृतराष्ट्र व गांधारी की सेवा में लगे रहते थे, लेकिन भीम के मन में धृतराष्ट्र के प्रति हमेशा द्वेष भाव ही रहता। भीम धृतराष्ट्र के सामने कभी ऐसी बातें भी कह देते जो कहने योग्य नहीं होती थी।


इस प्रकार धृतराष्ट्र, गांधारी को पांडवों के साथ रहते-रहते 15 साल गुजर गए। एक दिन भीम ने धृतराष्ट्र व गांधारी के सामने कुछ ऐसी बातें कह दी, जिसे सुनकर उनके मन में बहुत शोक हुआ। तब धृतराष्ट्र ने सोचा कि पांडवों के आश्रय में रहते अब बहुत समय हो चुका है। इसलिए अब वानप्रस्थ आश्रम (वन में रहना) ही उचित है। गांधारी ने भी धृतराष्ट्र के साथ वन जाने में सहमति दे दी। धृतराष्ट्र व गांधारी के साथ विदुर व संजय ने वन जाने का निर्णय लिया।


वन जाने का विचार कर धृतराष्ट्र ने युधिष्ठिर को बुलाया और उनके सामने पूरी बात कह दी। पहले तो युधिष्ठिर को बहुत दुख हुआ, लेकिन बाद में महर्षि वेदव्यास के कहने पर युधिष्ठिर मान गए। जब युधिष्ठिर को पता चला कि धृतराष्ट्र व गांधारी के साथ विदुर व संजय भी वन जा रहे हैं तो उनके शोक की सीमा नहीं रही। धृतराष्ट्र ने बताया कि वे कार्तिक मास की पूर्णिमा को वन के लिए यात्रा करेंगे। वन जाने से पहले धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों व अन्य परिजनों के श्राद्ध के लिए युधिष्ठिर से धन मांगा।


भीम ने द्वेषतावश धृतराष्ट्र को धन देने के इनकार कर दिया, तब युधिष्ठिर ने उन्हें फटकार लगाई और धृतराष्ट्र को बहुत-सा धन देकर श्राद्ध कर्म संपूर्ण करवाया। तय समय पर धृतराष्ट्र, गांधारी, विदुर व संजय ने वन यात्रा प्रारंभ की। इन सभी को वन जाते देख पांडवों की माता कुंती ने भी वन में निवास करने का निश्चय किया। पांडवों ने उन्हें समझाने का बहुत प्रयास किया, लेकिन कुंती भी धृतराष्ट्र और गांधारी के साथ वन चलीं गईं।


धृतराष्ट्र आदि ने पहली रात गंगा नदी के तट पर व्यतीत की। कुछ दिन वहां रुकने के बाद धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती, विदुर व संजय कुरुक्षेत्र आ गए। यहां महर्षि वेदव्यास से वनवास की दीक्षा लेकर ये सभी महर्षि शतयूप के आश्रम में निवास करने लगे। वन में रहते हुए धृतराष्ट्र घोर तप करने लगे। तप से उनके शरीर का मांस सूख गया। सिर पर महर्षियों की तरह जटा धारण कर वे और भी कठोर तप करने लगे। तप से उनके मन का मोह दूर हो गया। गांधारी और कुंती भी तप में लीन हो गईं। विदुर और संजय इनकी सेवा में लगे रहते और  तपस्या किया करते थे।


इस प्रकार वन में रहते हुए धृतराष्ट्र आदि को लगभग 1 वर्ष बीत गया। इधर हस्तिनापुर में एक दिन राजा युधिष्ठिर के मन में वन में रह रहे अपने परिजनों को देखने की इच्छा हुई। तब युधिष्ठिर ने अपने सेना प्रमुखों को बुलाया और कहा कि वन जाने की तैयारी करो। 


मैं अपने भाइयों व परिजनों के साथ वन में रह रहे महाराज धृतराष्ट्र, माता गांधारी व कुंती आदि के दर्शन करूंगा। इस प्रकार पांडवों ने अपने पूरे परिवार के साथ वन जाने की यात्रा प्रारंभ की। पांडवों के साथ वे नगरवासी भी थे, जो धृतराष्ट्र आदि के दर्शन करना चाहते थे।


पांडव अपने सेना के साथ चलते-चलते उस स्थान पर आ गए, जहां धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती रहते थे। जब युधिष्ठिर ने उन्हें देखा तो वे बहुत प्रसन्न हुए और मुनियों के वेष में अपने परिजनों को देखकर उन्हें शोक भी हुआ। धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती भी अपने पुत्रों व परिजनों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए। 


जब युधिष्ठिर ने वहां विदुरजी को नहीं देखा तो धृतराष्ट्र से उनके बारे में पूछा। धृतराष्ट्र ने बताया कि वे कठोर तप कर रहे हैं। तभी युधिष्ठिर को विदुर उसी ओर आते हुए दिखाई दिए, लेकिन आश्रम में इतने सारे लोगों को देखकर विदुरजी पुन: लौट गए।


युधिष्ठिर उनसे मिलने के लिए पीछे-पीछे दौड़े। तब वन में एक पेड़ के नीचे उन्हें विदुरजी खड़े हुए दिखाई दिए। उसी समय विदुरजी के शरीर से प्राण निकले और युधिष्ठिर में समा गए। जब युधिष्ठिर ने देखा कि विदुरजी के शरीर में प्राण नहीं है तो उन्होंने उनका दाह संस्कार करने का निर्णय लिया। तभी आकाशवाणी हुई कि विदुरजी संन्यास धर्म का पालन करते थे।


 इसलिए उनका दाह संस्कार करना उचित नहीं है। यह बात युधिष्ठिर ने आकर महाराज धृतराष्ट्र को बताई। युधिष्ठिर के मुख से यह बात सुनकर सभी को आश्चर्य हुआ।


युधिष्ठिर आदि ने वह रात वन में ही बिताई। अगले दिन धृतराष्ट्र के आश्रम में महर्षि वेदव्यास आए। जब उन्हें पता चला कि विदुरजी ने शरीर त्याग दिया तब उन्होंने बताया कि विदुर धर्मराज (यमराज) के अवतार थे और युधिष्ठिर भी धर्मराज का ही अंश हैं। इसलिए विदुरजी के प्राण युधिष्ठिर के शरीर में समा गए।


 महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र, गांधारी और कुंती से कहा कि आज मैं तुम्हें अपनी तपस्या का प्रभाव दिखाऊंगा। तुम्हारी जो इच्छा हो वह मांग लो।


तब धृतराष्ट्र व गांधारी ने युद्ध में मृत अपने पुत्रों तथा कुंती ने कर्ण को देखने की इच्छा प्रकट की। द्रौपदी आदि ने कहा कि वह भी अपने परिजनों को देखना चाहते हैं। महर्षि वेदव्यास ने कहा कि ऐसा ही होगा। युद्ध में मारे गए जितने भी वीर हैं, उन्हें आज रात तुम सभी देख पाओगे। 


ऐसा कहकर महर्षि वेदव्यास ने सभी को गंगा तट पर चलने के लिए कहा। महर्षि वेदव्यास के कहने पर सभी गंगा तट पर एकत्रित हो गए और रात होने का इंतजार करने लगे।


रात होने पर महर्षि वेदव्यास ने गंगा नदी में प्रवेश किया और पांडव व कौरव पक्ष के सभी मृत योद्धाओं का आवाहन किया। थोड़ी ही देर में भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण, दुर्योधन, दु:शासन, अभिमन्यु, धृतराष्ट्र के सभी पुत्र, घटोत्कच, द्रौपदी के पांचों पुत्र, राजा द्रुपद, धृष्टद्युम्न, शकुनि, शिखंडी आदि वीर जल से बाहर निकल आए। उन सभी के मन में किसी भी प्रकार का अंहकार व क्रोध नहीं था। महर्षि वेदव्यास ने धृतराष्ट्र व गांधारी को दिव्य नेत्र प्रदान किए। अपने मृत परिजनों को देख सभी के मन में हर्ष छा गया।


सारी रात अपने मृत परिजनों के साथ बिता कर सभी के मन में संतोष हुआ। अपने मृत पुत्रों, भाइयों, पतियों व अन्य संबंधियों से मिलकर सभी का संताप दूर हो गया। तब महर्षि वेदव्यास ने वहां उपस्थित विधवा स्त्रियों से कहा कि जो भी अपने पति के साथ जाना चाहती हैं, वे सभी गंगा नदी में डुबकी लगाएं।


 महर्षि वेदव्यास के कहने पर अपने पति से प्रेम करने वाली स्त्रियां गंगा में डुबकी लगाने लगी और शरीर छोड़कर पतिलोक में चली गईं। इस प्रकार वह अद्भुत रात समाप्त हुई।


इस प्रकार अपने मृत परिजनों से मिलकर धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती व पांडव बहुत प्रसन्न हुए। लगभग 1 महीना वन में रहने के बाद युधिष्ठिर आदि पुन: हस्तिनापुर लौट आए। इस घटना के करीब 2 वर्ष बाद एक दिन देवर्षि नारद युधिष्ठिर के पास आए। 


युधिष्ठिर ने उनका स्वागत किया। जब देवर्षि नारद ने उन्हें बताया कि वे गंगा नदी के आस-पास के तीर्थों के दर्शन करते हुए आए हैं तो युधिष्ठिर ने उनसे धृतराष्ट्र, गांधारी व माता कुंती के बारे में पूछा। तब देवर्षि नारद ने उन्हें बताया कि तुम्हारे वन से लौटने के बाद धृतराष्ट्र आदि हरिद्वार चले गए। वहां भी उन्होंने घोर तपस्या की।


एक दिन जब वे गंगा स्नान कर आश्रम आ रहे थे, तभी वन में भयंकर आग लग गई। दुर्बलता के कारण धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती भागने में असमर्थ थे। इसलिए उन्होंने उसी अग्नि में प्राण त्यागने का विचार किया और वहीं एकाग्रचित्त होकर बैठ गए। इस प्रकार धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती ने अपने प्राणों का त्याग कर दिया। 


संजय ने ये बात तपस्वियों को बताई और वे स्वयं हिमालय पर तपस्या करने चले गए। धृतराष्ट्र, गांधारी व कुंती की मृत्यु का समाचार जब महल में फैला तो हाहाकार मच गया। तब देवर्षि नारद ने उन्हें धैर्य बंधाया। युधिष्ठिर ने विधिपूर्वक सभी का श्राद्ध कर्म करवाया और दान-दक्षिणा देकर उनकी आत्मा की शांति के लिए संस्कार किए।...#जयश्रीकृष्णा..💐..