औरंगाबाद वाले अखौरी प्रमोद का रांची ( JK) संस्करण / अनामी शरण बबल
साथ साथ लेखमाला लिखने की इस कोशिश में इसबार मैं एक ऐसे व्यक्ति पर कुछ लिखने का प्रयास कर रहा हूँ जिसके सामने मैं आज भी एक स्टूडेंट की तरह ही हूँ. जब भी और जहाँ कहीं भी इनकी चर्चा होती हैं तो इनका चेहरा मेरी आँखों के सामने घूमने लगता हैं. बिहार के देव जिला औरंगाबाद से आकर दिल्ली में सक्रिय होकर आबाद हुए 35 साल (1987-2022) हो गये हैं, और इस दौरान अनगिनत लोगों से मिला उन्ही लोगों में कुछ पर लिखने की यह पहल हो रही
: ख़ासकर अपनों या लंबे समय से परिचित करीबियों के प्रति कुछ भी लिखना सबसे कठिन होता हैं. बातों और यादों का सिलसिला भी इतना बड़ा होता हैं की क्या लिखें क्या छोड़ दे या लिखने के क्रम में क्या छूट गया या (जाय ) इसका खतरा हमेशा बना रहता हैं. मैं इस बार अपने युवकाल कहे या अपनी पहचान के लिए जूझ रहा था उस समय के एक व्यक्ति पर शब्दों का घरौंदा बना रहा हूँ जहाँ पर मैं कुछ नहीं था. मैं मूलतः औरंगाबाद जिले के धार्मिक कस्बे के रुप में बिख्यात देव का रहने वाला था. मगर कथाक्षेत्र जिला मुख्यालय औरंगाबाद हैं. बात मैं जिला के विख्यात फोटोग्राफर अखौरी प्रमोद की कर रहा हूँ जो मूलतः एक सरकारी नौकरी में रहते हुए भी सबके लिए सर्वविदित सर्व विख्यात सर्व सुलभ और सर्वत्र मुस्कान के संग उपलब्ध पाए जाते थे. समय के पक्के उस्ताद अखौरी प्रमोद क़ो ज्यादातर लोग जानते थे, मगर वे एक सरकारी नौकरी भी करते हैं इसकी जानकारी सबो क़ो शायद नहीं थी. मोबाइल का जमाना नहीं होने के बावजूद छायालोक स्टूडियो तक कोई खबर पंहुचा देने के बाद शायद ही कभी ऐसा होता होगा की समय पर AP ना पहुंचें हो कभी. साफ कर दू की उस समय अखौरी प्रमोद जी क़ो लोग AP का सम्बोधन देने की हिममत नहीं करते थे. AP तो दूर की बात जी लगाए बगैर शायद ही कोई होता हो जो केवल अखौरी प्रमोद कहता हो. दूसरों क़ो Ap ने शायद ही कभी तू तडाक या गरम लहज़े में बात की होगी . शायद इसी का प्रतिफल था कि ज़िलें में शासन प्रशासन नेता नौकरशाह से लेकर ढेरों लड़कियां सहित हर तरह के लोगों के बीच AP खासे सर्वप्रिय थे.आदर के पात्र भी.
औरंगाबाद से मेरा नाता भी अजीब हैं. मेरे पापा सहित दो दो चाचा का ससुराल भी धरनी धर रोड औरंगाबाद में हैं यानी यह शहर ही मेरे लिए मेरा ननिहाल (था ) हैं
मैं अपनी मौसियों से कहता भी था की औरंगाबाद का हर लड़का मेरा मामा और लड़की मेरी मौसी हैं.
खैर छायालोक वाले मोहन मामा क़ो जानता था और ढेरों से अपने परिचय के सूत्रधार दिवंगत प्रदीप कुमार रोशन भी रहें हैं जो खुद बहुत बडे शायर थे
बात कोई 1983- 84 की रही होगी जब मैं लेखक या पत्रकार नहीं था. कुछ लिखने का ककहरा सीख रहा था और मन में अपार ऊर्जा उमंग हिलोरे मार रहा था. पढ़ाई में भी इतना बुरा नहीं था अगर सरकारी नौकरी की ललक होती तो कहीं न कहीं सेट कर ही लेता या हो जाता, मगर अखबार में नाम का ऐसा खुमार था कि मैं इसी में पगलाया हुआ था. खैर पागलपन से ही कुछ पाया भी जा सकता हैं मैं AP से कैसे कब किस और किसके संग परिचित हुआ यह तो याद नहीं हैं मगर जब एक दूसरे क़ो जानने लगा तो कब किस तरह और कितना घुल मिल गया इसकी याद भी गज़ब की हैं. उभरता हुआ पत्रकार कहे या नवसिखुआ इस अंतर पर खुद कहना अजीब लगता हैं कोई खास पहचान साहस पहचान परिचय और सलीका नहीं होने के बाद भी AP हर कदम पर मेरे साथ नजर आते ( रहते ) थे.
i: बात उन दिनों की हैं जब देव की क्या बिसात पूरे औरंगाबाद जिले में ही पत्रकारों का घोर अकाल था. कहने क़ो तो कुछ वकील पत्रकार थे, मगर काले लिबास वाले झूठ के कारोबारी वकील नुमा पत्रकारों से मिलने की मन में कभी इच्छा नहीं हु, और मैं स्वनाम धन्य पत्रकात वकीलों से कभी नहीं मिला. जब कभी भी काले कपडे वाले वकील से अधिक पत्रकारों की चर्चा होती तो लोग इतनी शालीनता विनम्रता और आदर से नाम लेते मानो ऐसा नहीं करना भी कोई अपराध हो. हालांकि मैं भी नौ सिखुआ ही था मगर दूसरों की शर्तो अपनी लक्ष्मण रेखा क़ो बदलना कभी गवारा नहीं होता. हाँ तो 1983-86 तक कहने दिखने दिखाने के लिए केवल एक ही पत्रकार थे. औरंगाबाद बाजार में पोस्ट ऑफिस के निकट विमला मेडिकल स्टोर के मालिक कहे या दवाई विक्रेता विमल कुमार..
जी हाँ दिन भर दवाई बेचते बेचते कभी कभार कोई रिपोर्ट भी लिख कर गाड़ी से पटना भेज देते थे. खबरों के लिए भटकने की बजाय विमल जी केवल उन्ही खबरों क़ो न्यूज़ की तरह भेजते थे जो उनकी दुकान तक आ जाय. यानी स्वार्थ रहित पत्रकार विमल में सरकारी लाभ और रुतबे का गुमान नहीं था इस कारण सरकारी PRO क़ो भी प्रेस रिलीज़ विमल जी के दुकान तक पहुंचानी पड़ती थी. यही रुतबा और मान विमल जी क़ो पत्रकारिता से जोड़े हुए था. और NBT जैसे अख़बार क़ो भी पत्रकारों से अकालग्रस्त जिला औरंगाबाद में विमल जैसे दुर्लभ पत्रकार ही मिल पाया. बिना किसी लाग लपेट के विमल जी से सीधे मिलकर अपना परिचय दिया तो वे काफ़ी खुश हुए कुछ खबर लाकर ( लिखकर ) देने का उन्होंने सुझाव दिया. तो दर्जनों खबर लिखकर विमल जी क़ो देने लगा या उनके पास उपलब्ध न्यूज़ क़ो ही दुकान में बैठे बैठे ही लिखने की चेष्टा करता जिसके लिए विमल जी मेरे प्रति हमेशा स्नेह रखते थे. उधर मैं अपनी लिखी खबरों क़ो प्रिंट देख कर खुश होता की मुफ्त में न्यूज़ लिखने की आदत से तो हाथ मंज रहा था.
ये तो विमल विनोद कथा के बहाने मीडिया के प्रति अपने मस्का चस्का क़ो माप रहा था, मगर अघोषित तौर पर जिले में एक और पत्रकार छायाकार थे जो स्कूटी पर होकर सवार होकर ज्यादातर या यों कहे कि सभी आयोजनों में फोटो खींचते अधिकारियो से मिलते जुलते रहते थे. वे सक्रिय पत्रकार छायाकार हैं भी या नहीं यह तो बाद की बात हैं मगर औरंगाबाद में कोई भी राजनैतिक सामाजिक प्रशास.निक धार्मिक कार्यक्रम हो या कोई आंदोलन जलसा जुलुस दंगा या बंदी हो तो जनाब छायाकार पत्रकार के रुप में हरदम हमेशा या सर्वत्र सुलभ उपलब्ध होंगे ही होंगे. बात अखौरी प्रमोद की हो रही हैं जो ( यह बाद में ज्ञात हुआ ) एक सरकारी विभाग में कार्यरत होने के बावजूद घर दफ्तर बाजार और घटनास्थलो पर वे कैसे और किस तरह मौजूद रहते या हो जाते थे
पत्रकारिता के जोश जुनून और ताप के (चलते) साथ साथमैं भी हवा कि तरह हर जगह पहुंचने की कोशिश करता. 1987 में जिला औरंगाबाद के दरमियाँ और दलेलचक बघौरा नरसंहार की सुबह सुबह पता चलते ही मैं कोई 10-11 बजे तक घटनास्थल पर जा पहुंचा जहाँ पर मुझसे भी पहले श्रीमान छायाकार अखौरी प्रमोद दे दनादन फोटो खींचने में मुस्तैद थे . AP जी क़ो देखते ही मेरा हौसला परवान पर होता और मैं उनके पास क्या पहुंचा की सारा प्रशासन पुलिस का दल बल के बीच मनमाने ढंग से काम करने की आज़ादी मिल जाती थी सबसे पहले पहल एक छायाकार की तरह अखौरी प्रमोद होते तो पत्रकार के रुप में मेरी उपस्थिति होती थी. अमूमन होता यह था की दोपहर के बाद जब मैं उनके साथ औरंगाबाद लौटने की तैयारी करता तब तक पटना या गया के दर्जनों पत्रकार और छायाकार मौके पर आ धमकते तब live फोटो के लिए राजधानी के धुरंधर छायाकार भी इनके पीछे लग जाते थे. कभी कभार तो वे लोग के आने से पहले यदि AP औरंगाबाद निकल गये तो ढेरों पत्रकार छायाकार इनसे फोटो के लिए इनके घर या छायालोक स्टूडियो में करबद्ध हो जाते.
सबसे कमाल तो यह होता की अपने छायाकार सहोदरो क़ो देख कर अखौरी प्रमोद बिना बाइलाइन के प्रेशर के दुर्लभ फोटो सहज़ में दे देते. हालांकि उनकी यह उदारता मुझे खलती थी मगर वे मुस्कुरा कर हमेशा यही संतोष कर लेते की कोई बात नहीं फोटो मेरे पास यूहीं रहने से बेहतर हैं की वो छपे. यह बड़प्पन या उदारता मुझे अचम्भित करती थी .
Ap के मन में संतोष और जोश भरा होता था सबो के लिए काफ़ी उत्साह के साथ संपर्क में रहना उनकी खासियत थी Ap मेरे लिए एक थर्वामीटर की तरह थे जिनको देखकर मैं अपनी काबलियत नकारापन और क्षमताओं के उतार चढ़ाव के ग्राफ का आंकलन करता या अपने बढ़ते चढ़ते सिकुड़ते मुड़ते टूटते कद क़ो देखता था यह उनका बड़प्पन था कि मेरा साधिकार किसी भी फोटो के लिए निःसंकोच कह देना ही काफ़ी होता. पटना में मेरे कुछ ऐसे भी गुरु नुमा दोस्त बन गये थे जिनको कोई खबर की रुप रेखा बताने पर फोटो के साथ रिपोर्ट भेज देता था तो वही रिपोर्ट कभी आज पाटलिपुत्र प्रदीप ( बाद में यही प्रदीप हिंदुस्तान बन गया ) आदि कई अखबारों में छप जाती थी.
ख़ासकर स्पलिंटर और ढेरों नये पुराने अखबारों में खबर छपवाने के लिए पटना के शर्मांजु किशोर मेरे सारथी बनकर मदद करते थे. हालांकि शर्मान्नजू किशोर से पहली और आखिरी बार मैं 1996 में अहमदाबाद में मिला. इनपर तो काफ़ी कुछ कभी लिखा जायगा. मगर देव औरंगाबाद में रहते हुए हज़ारो रूपये के फोटो अखौरी जी ने खींची थी. अमुमन पूरी खबर जिसे डिटेल भी कह सकते हैं के साथ फोटो मुझे लाकर देते. जिसे पटना के किसी मित्र के पास डाक से भेजकर किसी पेपर में छपने का इंतजार करता और छपी हुई रिपोर्ट क़ो देख कर ऐसा लगता मानो जन्नत हाथ में हो
पटना के किसी अख़बार में अंशकालिक या छपी हुई खबर के अनुसार मानदेय पाने वाला रिपोर्टर बनने का तो मौका नहीं मिला मगर 1987 में भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC ) में स्नात्तकोत्तर पत्रकारिता डिप्लोमा करने का सुअवसर जरूर मिला. दिल्ली में नामांकन के साथ ही देव औरंगाबाद छूट गया. अपने ही गांव घर जिला में किसी मेहमान की तरह आता. कुछ लोग मिलते तो कुछ लोग से बिना मिले ही रिटर्न हो जाता. नौकरी बेकारी का सिलसिला जारी रहा. दर्जन भर नौकरी करने बदलने छोड़ने छूटने के बावजूद 35 साल में 15 साल बेकारी के ही रहें. हालांकि नाम शोहरत धन दौलत दर्जन भर किताबों सहित न्यूज़ एजेंसियो के लिए जमकर और खूब लिखा और पाया.दो तीन सज्जनों के लिए तो सैकड़ों रिपोर्ट लिखने के बावजूद धन नहीं मिला ख़ासकर किसी महिला से भी सुंदर संपादक रहें पत्रकार और साधु महंत बने माल मैथुन के रंगीले पत्रकार के संग छपने की भूख तो मिट गयी मगर धन पाना संभव नहीं हो पाया इन दिवंगत पत्रकारों पर सच लिखना अब शोभा नहीं देता. मगर निठल्लापन में FANA न्यूज़ एजेंसी के सहयोग और अपनापन क़ो कभी भी भुला नहीं जा सकता. कोई 1990-91 के दौरान इसके संपादक हर माह मुझसे पांच रिपोर्ट लेकर एक साथ 2000/- दे दिया करते थे. अक्सर मेरे बारे में पूछते रहते और मेरी निष्ठा क़ो देखते हुए हर माह छह रिपोर्ट लेकर एक साथ 3000/- देने लगे. FANA से जारी मेरी दर्जनों रिपोर्ट गल्फ टाइम्स सहित कई देशो के अखबारों में भी छपे. 1993 में फाना के बंद हो जानें के बाद मेरे आय का यह स्रोत भी बंद हो गया.