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गुरुवार, 13 जनवरी 2011

पत्रकारिता के खोते मापदंड

पत्रकारिता के खोते मापदंड



papers.19185128बीसवीं सदी में सूचना क्रांति के विस्फोट के साथ-साथ पत्रकारिता का बहुविधा विकास हुआ है। लगभग 62483 पंजीकृत अखबारों और 600 से अधिक समाचार चैनलों के साथ देश के मीडिया ने पूरे विश्व में अपनी एक जगह बनाई है। आधुनिक जीवन की बढ़ती व्यस्तताओं और बदलती शैली के मद्देनजर पत्रकारिता ने अपना कलेवर भी बदला है। अब वह 24×7 यानी चौबीस घंटे, सातों दिन सजग रहती है, चीजों को लाइव यानी साक्षात् दिखाने की कोशिश करती है, स्टिंग यानी परदे के पीछे झांकने की चेष्टा करती है और स्थानीय मुद्दों से जुड़ने का प्रयत्न करती है। निश्चित ही आज देश में मीडिया का व्याप और प्रसार काफी बढ़ा है, परंतु दूसरी ओर उसका नैतिक और चारित्रिक पतन भी हुआ है। पत्रकारिता में बाजार, विज्ञापन, पैसे व सनसनी की महत्ता बढ़ी है और मानवीयता, निष्पक्षता व खबरीपने में गिरावट आई है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति श्री अच्युतानंद मिश्र कहते हैं, ”आज विचार गायब हो गए हैं और समाचार की महत्ता स्थापित की गई है।” इसका परिणाम यह हुआ है कि समाचारों में भी केवल सनसनी और चटपटेपन को ही प्रमुखता मिल रही है। समाज के उच्च वर्ग की ऐय्याशियों को खबर बनाने के लिए एक पेज थ्री नामक आयाम विकसित हो गया है। पत्रकार तो बिक ही रहे हैं, अब समाचार भी बिकने लगे हैं। खबरें छापने के लिए पैसे लिए जा रहे हैं और विज्ञापनों को खबरों के रूप में छापा जा रहा है। आज स्थिति यह हो गई है कि एक पत्रकार हनीमून पर जाता है और वहां से ली गईं तस्वीरों को दिखाकर ‘स्वर्ग मिल गया’ की खबर चलाई जाती है। पत्रकारिता के महारथी इसका जवाब यह कह कर दिया करते हैं कि आज पत्रकारिता के मायने बदल रहे हैं। परंतु सवाल यह है कि क्या पत्रकारिता के मायने बदले जा सकते हैं? क्या उसके मूल्यों को बदला जा सकता है?
यह सवाल वास्तव में एक दार्शनिक सवाल है और अध्ययन व स्वाध्याय से दूर आज के पत्रकार न केवल इसका उत्तर नहीं दे सकते, बल्कि वे इसके उत्तर को समझने की भी क्षमता नहीं रखते। यह सवाल किसी भी वस्तु के मौलिक गुणधर्मों को बदलने की गंभीर दार्शनिक समस्या से जुड़ा हुआ है। वास्तव में यह सवाल ऐसा होना चाहिए कि क्या किसी वस्तु के मौलिक गुणधर्म को बदला जा सकता है? उदाहरण के लिए सूरज का उष्मा उत्सर्जित करना, जल का ठंढा होना और आग का जलाना। क्या सूरज गर्मी देना बंद कर सकता है? हां, कर सकता है, लेकिन तब वह सूरज नहीं रह जाएगा। ब्रह्मांड में ऐसे अनेक ठंढे तारे हैं, परंतु वे सूरज नहीं कहलाते। क्या जल स्वाभाविक रूप से गर्म हो सकता है? हां, लेकिन तब वह जल नहीं रह जाएगा। क्या आग जलाना छोड़ सकती है? हां, लेकिन तब वह आग नहीं रह जाएगी। इसीप्रकार क्या पत्रकारिता अपने गुणधर्म को छोड़ सकती है? क्या वह जन सरोकारों से स्वयं को पृथक कर सकती है? हां, लेकिन तब वह पत्रकारिता नहीं रह जाएगी, जैसा कि आज हो गया है। क्या आज के अखबारों में जो खबरें या फिर खबरों के नाम पर जो कुछ छपता है, उसे पत्रकारिता कहा जा सकता है? यह एक गंभीर और बुनियादी सवाल है, जिस पर गंभीर और ठोस बहस की जरूरत है।
ध्यान देने की बात यह है कि भले ही आधुनिक पत्रकारिता का जन्म और विकास यूरोप में हुआ है, भारत में इसका एक स्वतंत्र स्वरूप विकसित हुआ। यह स्वरूप पश्चिम के स्वरूप से न केवल भिन्न था, बल्कि कई मायनों में उससे काफी बेहतर भी था। भारत में पत्रकारिता अमीरों के मनोरंजन के साधन के रूप में विकसित होने की बजाय स्वतंत्रता संग्राम के एक साधन के रूप में विकसित हुई थी। इसलिए जब 1920 के दशक में यूरोप में पत्रकारिता की सामाजिक भूमिका पर बहस शुरू हो रही थी, भारत में पत्रकारिता ने इसमें प्रौढ़ता प्राप्त कर ली थी। 1827 में राजा राममोहन राय ने पत्रकारिता के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखा था, ”मेरा सिर्फ यही उद्देश्य है कि मैं जनता के सामने ऐसे बौध्दिक निबंध उपस्थित करूं, जो उनके अनुभवों को बढ़ाए और सामाजिक प्रगति में सहायक सिध्द हो। मैं अपने शक्तिशाली शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूं ताकि शासक जनता को अधिक से अधिक सुविधा देने का अवसर पा सकें और जनता उन उपायों से परिचित हो सके जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और उचित मांगें पूरी कराई जा सकें।” माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के पूर्व कार्यकारी निदेशक प्रोफेसर रामशरण जोशी अपने एक लेख में इसकी ओर इंगित करते हुए लिखा है, ”1857 से 1947 की भारतीय भाषायी पत्रकारिता का मूल चरित्र मिशनवादी था। पत्रकारिता का यह मिशनवाद एकरूपी नहीं था, बहुरंगी था। इसकी कई उपधाराएं थीं- सामाजिक सुधारवाद, नारी उत्थान, अछूतोध्दार, स्वभाषा, राष्ट्रीय जागरण, आध्यात्मिक उत्थान, साम्राज्यवाद विरोध, संपूर्ण आजादी आदि।” सत्य एवं न्याय की प्रतिष्ठा में अखबारों की महत्वपूर्ण एवं अनिवार्य भूमिका को लक्ष्य करते हुए गांधीजी ने कहा था, ”मेरा ख्याल है कि ऐसी कोई भी लड़ाई जिसका आधार आत्म-बल हो, अखबार की सहायता के बिना नहीं चलायी जा सकती।” इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत में पत्रकारिता का सामाजिक स्वरूप एकदम प्रारंभ से भी विकसित हो गया था और उसमें भारतीयता की झलक साफ दिखा करती थी। भारत की राजनीतिक स्वाधीनता के साथ-साथ भारत के सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा उसका एक प्रमुख उद्देश्य हुआ करता था। वह समाज में सुधार तो देखना चाहता था, परंतु उसे अपनी जड़ों से काटना नहीं चाहता था। समाज में सुधार के लिए यूरोप के अंधानुकरण को कभी भी पोषित नहीं किया गया और सबसे प्रमुख बात यह थी कि पत्रकारिता बाजार के हानि-लाभ के सिध्दांतों की बजाय सामाजिक मूल्यों के विकास-पतन के आधार पर की जाती थी। आज की भांति वह केवल घटनाओं की जानकारी देने तक सीमित नहीं था, बल्कि वह घटनाओं की देश और जन सरोकारों के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण करती थी। समाचारों की बजाय विचारों को महत्व दिया जाता था। समाचारों में भी समाचार की सनसनी की बजाय समाचारों की महत्ता को वरीयता दी जाती थी। जनता क्या चाहती है, की बजाय जनता को कैसा होना चाहिए, के हिसाब से पत्रकारिता होती थी। भारत में विकसित हुआ पत्रकारिता का यह स्वरूप पश्चिम की पत्रकारिता से बिल्कुल अलग था।
स्वाधीनता के बाद परिस्थितियां बदलीं। स्वाधीनता मिलने के बाद से ही पत्रकारिता के इस भारतीय स्वरूप के सामने चुनौतियां भी बढ़ने लगीं थीं। इसकी ओर ही इंगित करते हुए 15 अगस्त, 1947 में ‘जनता’ ने लिखा था, ”भारत में पत्रकारिता के समक्ष तीन प्रकार की कठिनाइयां हैं। पहली समस्या वित्ता की है। दूसरी चुनौती है, स्वतंत्र समाचार पत्रों के पूंजीवादियों से संबंध, जो समाचार पत्रों को लाभ कमाने के साधन के रूप में विकसित करने और इसके द्वारा प्रतिक्रियावादी आर्थिक सिध्दांतों को स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। प्रबंध संपादकों द्वारा पूंजिवादियों के हितों के विरुद्ध किसी भी विचार को प्रकाशन से रोका जा रहा है। तीसरी समस्या है, व्यावसायिक पत्रकार, जो अपने कैरियर की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पत्रकारिता के सिध्दांतवादी व मिशनरी भूमिका को दबा देते हैं।” वास्तव में यह तीसरी समस्या ही सबसे बड़ी समस्या है। व्यावसायिक पत्रकार और पत्र-पत्रिकाएं, दोनों की जो शृंखला विकसित हुई है, उसे पत्रकारिता के सिध्दांतों और उद्देश्यों से कोई लेना देना नहीं है। टेलीविजन चैनलों की तो बात ही करना व्यर्थ है। उनका तो जन्म ही यूरोप की नकल से हुआ है। उनसे किसी भी प्रकार की भारतीयता की अपेक्षा करना ऐसा ही है जैसे कोई बबूल का वृक्ष बोए और आम के फलने की आशा करे। ऐसी पत्र-पत्रिकाएं व टेलीविजन चैनल ”गे डे” यानी कि समलैंगिकता दिवस मनाते हैं, संस्कृति की रक्षा की बातों को मोरल पोलिसिंग कहकर बदनाम करने की कोशिशें करते हैं, भारतीय परंपराओं और जीवन मूल्यों का मजाक उड़ाते हैं, खुलकर अश्लीलता, वासनायुक्त जीवन और अमर्यादित आचरणों का समर्थन करते हैं और कहते हैं कि यह सब वे ”पब्लिक डिमांड” यानी कि जनता की मांग पर कर रहे हैं।आज यदि महात्मा गांधी या राजा राममोहन राय या विष्णु हरि परांडकर या माखनलाल चतुर्वेदी जीवित होते तो क्या वे स्वयं को पत्रकार कहलाने की हिम्मत करते? क्या उन जैसे पत्रकारों की विरासत को आज के पत्रकार ठीक से स्मरण भी कर पा रहे हैं? क्या आज के पत्रकारों में उनकी उस समृध्द विरासत को संभालने की क्षमता है? ये प्रश्न ऐसे हैं, जिनके उत्तर आज की भारतीय पत्रकारिता को तलाशने की जरूरत है, अन्यथा न तो वह पत्रकारिता ही रह जाएगी और न ही उसमें भारतीय कहलाने लायक कुछ होगा।

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