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मंगलवार, 11 जनवरी 2011

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तेलंगाना कितना संभावित!

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गिरीशजीतेलंगाना मुद्दे पर न्यायमूर्ति श्रीकृष्ण समिति की लंबी-चौड़ी रिपोर्ट से आंध्र में आंदोलन की आग और भभक उठी है. इस विस्तृत रिपोर्ट में वैसे तो तेलंगाना को लेकर छह विकल्प सुझाए गए हैं और व्यापक संदर्भों में अनेक तुलनात्मक स्थितियों का जिक्र है, लेकिन आलोचकों का यही मानना है कि इसमें कुछ भी नया नहीं है. सिर्फ उन्हीं बातों को तेलंगाना, रायलसीमा, तटीय आंध्र और हैदराबाद के बारे में बतौर विकल्प उठाया गया है, जिन्हें लोग दशकों से बातचीत में उठाते रहे हैं. खुद समिति ने अपने छह विकल्पों या सुझावों में से शुरुआती चार को यह कहते हुए खारिज कर दिया है कि वे अव्यवहारिक हैं और शेष दो यानी विकल्प संख्या पांच और छह ऐसे हैं, जिन्हें व्‍यवहारिक माना गया है. इनमें से एक में आंध्र के बंटवारे और तेलंगाना के गठन की बात है तो दूसरे में संयुक्त आंध्र को कुछ क्षेत्रीय स्वायत्त समितियों के गठन के साथ स्वीकार किया गया है. लेकिन समिति का जोर अंतिम विकल्प यानी कि संयुक्त आंध्र के पक्ष में ही है. कुल मिलाकर स्थिति ढाक के तीन पात जैसी है.
पिछले गुरुवार को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने रिपोर्ट पर विचार के लिए जो बैठक बुलाई, उसका अनेक प्रमुख दलों जैसे तेलंगाना राष्‍ट्र समिति (टीआरएस), तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी), भाजपा इत्यादि ने बहिष्कार करके ये संकेत दे दिया है कि वे रिपोर्ट से सहमत नहीं हैं और केंद्र इस बाबत स्पष्ट प्रस्ताव लेकर सामने आए. अब केंद्र ने महीने के अंत में फिर इस मसले पर बैठक बुलाई है, लेकिन हालात में कोई बदलाव होगा, ऐसा नहीं लगता.
गौरतलब ये है कि श्रीकृष्ण समिति रिपोर्ट के अनेक तथ्य चौंकाने वाले हैं. सबसे पहले तो यही कि सिंचाई, खेती, शिक्षा और रोजगार के संदर्भ में तेलंगाना शेष आंध्र की तुलना में बहुत पिछड़ा हो, ऐसा नहीं है. समिति ने यह निष्कर्ष हैदराबाद को अलग करके भी निकाला है, क्योंकि हैदराबाद तेलंगाना क्षेत्र में ही आता है और वो अनेक संदर्भों में प्रदेश के ही नहीं, देश के विकसित शहरों में गिना जाता है. समिति का तो यहां तक मानना है कि तेलंगाना के क्षेत्रों की तुलना में बहुत खराब स्थिति तो रायलसीमा की है. लेकिन समिति ने तेलंगाना समर्थक पार्टियों से सहमति जताई है कि बड़े बांधों की कमी और कमजोर तबकों की शिक्षा और उनके विकास के अवसरों पर ध्यान नहीं दिया गया है. क्षेत्र में प्रशासनिक व्यवस्था और स्वास्थ्य सुविधाएं भी कमजोर स्थितियों में हैं.
लेकिन इस बाबत खुद श्रीकृष्ण समिति का मानना है कि इन समस्याओं के निदान के लिए छोटे राज्यों का गठन कोई उपयुक्त मार्ग नहीं है. इस संदर्भ में समिति झारखंड, छत्तीसगढ, उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों के गठन का मुद्दा भी उठाती है. समिति अपने विकल्प छह में प्रस्तावित संवैधानिक क्षेत्रीय स्वायत्त समितियों की बात को प्रमुखता से उठाती है. समिति का मानना है कि इन क्षेत्रीय स्वायत्त समितियों या परिषदों का गठन करके अविकसित क्षेत्रों का कल्याण या विकास का मार्ग सुनिश्चित किया जा सकता है. साथ ही आंध्र के विभाजन को भी टाला जा सकता है. इसके लिए संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता भी पड़ सकती है. लेकिन यहां सवाल फिर भी बना ही रहता है कि लद्दाख, बोडो और उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में स्थापित ऐसी ही अन्य समितियों के नतीजे कोई बहुत उत्साहवर्धक रहे हों, ऐसा भी नहीं है.
उधर, तेलंगाना के लिए प्रतिबद्ध टीआरएस और संयुक्त कार्यसमिति के तेवर आक्रामक बने हुए हैं. वे केंद्र को नौ दिसंबर 2009 का पी. चिदंबरम का खुद का वादा याद दिला रहे हैं कि ’तेलंगाना के गठन की प्रक्रिया को शुरू कर दिया गया है'. इन आंदोलनकारियों और खासकर टीआरएस के नेता के. चंद्रशेखर राव का मानना है कि ’केंद्र अब अपने आश्वासन से पीछे  हट रहा है... हमें श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट से कुछ लेना-देना नहीं है. हम तो समिति के गठन के पहले भी पृथक तेलंगाना और उसकी राजधानी हैदराबाद को लेकर -आंदोलनरत थे और आज भी हैं, और हम इसे लेकर रहेंगे.' टीआरएस की मांग का खुलकर समर्थन करने वालों में भाजपा शामिल है. हालांकि भाजपा के आंध्र विधानसभा में सिर्फ दो विधायक हैं और वे दोनों तेलंगाना क्षेत्र से हैं - ये उनके समर्थन का प्रमुख कारण हो सकता है. लेकिन भाजपा के समर्थन से तेलंगाना समर्थकों को केंद्रीय राजनीति में असर डालने वाला एक मजबूत साथी जरूर मिला है. जहां तक सीपीआई और सीपीएम की बात है वे समिति की अस्पष्ट रिपोर्ट को लेकर नाराज हैं और चाहते हैं कि केंद्र स्पष्ट योजना के साथ सामने आए.
लेकिन सबसे ज्यादा विचित्र स्थिति तो कांग्रेस और तेलुगू देशम जैसी पार्टियों की है. कांग्रेस के 155 विधायकों में से एक तिहाई यानी 50 तेलंगाना क्षेत्र से हैं, ऐसे ही तेलुगू देशम के कुल 91 विधायकों में एक तिहाई से ज्यादा यानी 38 तेलंगाना क्षेत्र से हैं, कांग्रेस का तो लोकसभा में भी प्रतिनिधित्व प्रदेश की कुल सीटों में से तीन चौथाई का है - यानी पूरे प्रदेश के स्तर पर नुमाइंदगी है, और फिर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार भी है - ऐसे में न तो वे खुलकर पृथक तेलंगाना आंदोलन का समर्थन कर सकते हैं और न ही विरोध. अब सारी आंखें केंद्र पर ही लगी हुई हैं. स्थितियां तब और पेचीदा हो जाती हैं जब आंदोलन की अगुवाई टीआरएस के हाथों हो. लेकिन जनता के दबाव में जनप्रतिनिधियों की सियासी स्थिति का विचित्र होना स्वाभाविक ही है. तेलुगू देशम की स्थिति तो और भी संशय वाली है. दिलचस्प है कि टीडीपी के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू 2009 तक आंध्र के विभाजन के विरोधी थे, तभी उन्होंने एकाएक तेलंगाना गठन का समर्थन किया. लेकिन 2009 के चुनाव के बाद से नायडू इस मसले पर खामोश हो गए. उन्होंने दिल्ली में तेलंगाना को लेकर हुई सर्वदलीय बैठक में भी पार्टी प्रतिनिधि को नहीं भेजा. पिछले गुरुवार को टीडीपी ने श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट की आलोचना जरूर की लेकिन तब भी नायडू खामोश ही रहे. इसका कारण यही है कि पार्टी का रायलसीमा क्षेत्रों और आंध्र के तटीय क्षेत्रों में अच्छा प्रभाव है और वह नहीं चाहती कि तेलंगाना का समर्थन करके उसे कमजोर किया जाए.
यही स्थिति प्रजाराज्यम पार्टी (पीआरपी) की है. उसके विधानसभा में कुल 18 सदस्य हैं, जिसमें से तेलंगाना क्षेत्र से सिर्फ एक-दो विधायक हैं - इसलिए उसने शुरू से ही संयुक्त आंध्र की बात की है. कुल मिलाकर सियासी स्थिति फिलहाल गड्ड-मड्ड है. टीआरएस जो कि पृथक तेलंगाना की खुलकर बात कर रही है, वो तो स्पष्ट है, थोड़ी बहुत ऐसी ही स्थिति भाजपा की है क्योंकि उसका कोई स्पष्ट बड़ा जनाधार नहीं है, इसलिए उसे कुछ खोने का डर नहीं है, लेकिन अन्य पार्टियों की हालत सांप-छछूंदर जैसी है. उनका डर यही है, 'एक का समर्थन यानी दूसरे को खोना.' और सभी इससे बचना चाहती हैं. कांग्रेस को लगता है कि यदि तेलंगाना बनता है तो उसका पूरा श्रेय टीआरएस के चंद्रशेखर राव को मिलेगा और रायलसीमा तथा आंध्र के तटीय क्षेत्रों में भी कांग्रेस को जनता की नाराजगी झेलनी पड़ेगी. और यदि तेलंगाना नहीं बनता है तो तेलंगाना में भले कांग्रेस को नुकसान हो, जैसा कि पिछले साल के उपचुनावों में भी हुआ, लेकिन दूसरे क्षेत्रों में भारी फायदा होगा और वो आसानी से तेलुगू देशम को टक्कर दे सकेगी.
कांग्रेस इस बात को भी भली प्रकार से जानती है कि आंध्र में पारंपरिक रूप से कांग्रेस के प्रति हमेशा से सम्मान रहा है. 1977 में जब आपातकाल के बाद पूरे देश में कांग्रेस के खिलाफ हवा थी, तब आंध्र में कांग्रेस ने 42 में से 41 सीटें जीती थीं ऐसे में कांग्रेस को लगता है कि यदि मुख्यमंत्री किरण कुमार ने थोडा अच्छा काम किया और तेलंगाना नहीं भी बना तो वो आंध्र के नीतीश कुमार हो सकते हैं. जहां तक चंद्रशेखर राव के इस बयान का ताल्लुक है कि तेलंगाना बनने के बाद वो टीआरएस का कांग्रेस में विलय कर देंगे, तो उनके इस बयान पर भरोसा नहीं किया जा रहा. दूसरी महत्वपूर्ण बात जगन रेड्डी प्रकरण है. जगन रेड्डी फिलहाल चंद्रशेखर राव से मिल कर दौरे और रैलियां आयोजित कर रहे हैं - लेकिन उन्हें भी सियासी जवाब के लिए कांग्रेस संभवतः विकल्प संख्या छह को ही अपनाए.
बहरहाल, ऐसे में भावनात्मक मुद्दा बन रहे तेलंगाना के सवाल पर ईमानदार पहल की जरूरत है, जिससे एक ओर जनअपेक्षाओं की पूर्ति हो सके तो साथ ही भावनात्मक स्तर पर सभी के साथ न्‍याय का बोध भी हो सके. सियासी गणित और लाभ-हानि की बिसात पर फिलहाल तो ऐसी संभावना क्षीण ही नजर आती है, बेहतर हो कि जनता के स्तर पर योग्य और विश्वासजनित पहल हो - वो एक अच्छी संभावना हो सकती है. वैसे, इस महीने के अंत में होने वाली विभिन्न पार्टियों की बैठक तक कोई ऐसी ही पहल हो तो आश्चर्य नहीं. ऐसा होना इसलिए भी जरूरी है कि अव्यवस्था और हिंसक अराजकता का कोई फायदा कम से कम माओवादी तत्व तो न उठा सकें.
लेखक गिरीश मिश्र वरिष्ठ पत्रकार हैं. इन दिनों वे लोकमत समाचार, नागपुर के संपादक हैं. उनका ये लिखा आज लोकमत में प्रकाशित हो चुका है, वहीं से साभार लेकर इसे यहां प्रकाशित किया गया है. गिरीश से संपर्क girishmisra@lokmat.comThis e-mail के जरिए किया जा सकता है.

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