Anami Sharan. Babal
बुधवार, 26 जनवरी 2011
MEDIA/JOURNALISM./ पत्रिकाय/ हंस / खबरिया चैनल अंक/ चैनलों का सही चेहरा
डरी हुई सत्ता
Added 23 January ·
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चैनलों का सही चेहरा
मीडिया-पत्रकारिता हंस खबरिया चैनल अंक में चैनलों का सही चेहरा
अजय नाथ झा
मीडिया मंथन[
हंस नामक नामचीन
साहिति्यक
पत्रिका में जनवरी
2007
में एक विशेषांक छपा जो अचानक कहीं से हाथ लगा और उसको पढ़ने के बाद फौरन उसकी समीक्षा करने की ललक जाग उठी। सोचा
,
शायद इसी बहाने हिंदी में लिखने की आदत लग जाए। मैंने उस पत्रिका में छपे लेखों के संकलन पर एक समीक्षा लिख मारी। और उसकी एक प्रति हंस पत्रिका के संपादक के दफ्तर में छोड़ आया। कई वरिष्ठ पत्रकारों के मुंह से सुन रखा था कि हंस के संपादक सही मायने में सरस्वती पुत्र हैं और वो सच छापने से कभी नहीं डरते। मगर मैं सच का इंतजार करता ही रहा....खैर
,
एक दो और नामचीन अखबरों के संपादकों को भी मैंने इसकी प्रति प्रकाशन के लिए भेजी। कुछ का जवाब नहीं आया
,
पर एक दो संपादकों ने वापस फोन कर के कहा
, ‘
बन्धुवर आपकी समीक्षा कमाल की है पर छपने योग्य नहीं। मैं इसे छापकर उन लोगों से बैर मोल नहीं ले सकता। आखिर उनके चैनलों में भी तो जाना पड़ता है
’
।
मैं हैरान था कि इस समीक्षा के अंदर कौन सा बम या विस्फोटक था जो इतना खतरनाक हो गया। मेरे विचार में या सोचने के तरीके में मतभेद हो सकता है मगर पत्रकार विरादरी में किसी से कोई झगड़ा या दुश्मनी तो है ही नहीं। फिर क्या बात हो गई
?
क्या समीक्षा लिखना इतना बड़ा संगीन अपराध हो गया
?
फिर एनडीटीवी में ही एक साथी ने राय दी कि ये जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी जी को भेज दो। मगर एक हफ्ते के बाद उनका फोन आया-
‘
महराज ये क्या किया है आपने
?
इसे पढ़कर आगे आपको नौकरी कौन देगा
?
अपने पांव पर क्यों कुल्हाड़ी मार रहे हो भाई
?’
फिर मन खराब हो गया और मैंने ठान लिया कि हिंदी में दोबारा कुछ नहीं लिखूंगा। दो दिन पहले अचानक उसकी पांडुलिपी कमरे में पड़े कागज के ढेर में नज़र आई।फिर मैंने सोचा कि इसके पहले ये किसी कबाड़ी के यहां या किसी परचून की दूकान पर
‘
ढोंगा
’
के तौर पर अपनी इज्जत नीलाम करे
,
इसको अपने ब्लॉग पर
‘
जस की तस
’
डाल देना ही श्रेयकर है। कम से कम पत्रकारों की इस पीढ़ी में तो इस पर निगाह डालेगा और इसे
‘
हस्ताक्षर
’
नहीं तो
‘
हाशिय़े
’
का एक कोना तो मानेगा। वो समीक्षा यूं है...
एक अप्रकाशित समीक्षा- खबरिया चैनलों की कहानी
-
हंस पत्रिका का जनवरी-
2007
का अंक पढने में अच्छा लगा। राजेंद्र यादव बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने ऐसे विषय पर खट्टी-मीठी
,
तीखी-फीकी-हर किस्म के व्यंजन एक साथ परोसने की हिम्मत जुटाई।-इसमें कोई दो राय नहीं कि श्री यादव ने अपने संपादकीय के माध्यम से कई ज्वलंत प्रश्न अपने पाठकों के समक्ष रखें हैं
,
मगर उनकी लेखनी में कहीं न कहीं प्रसार भारती से निकाल दिए जाने का दर्द और नौकरशाही के साथ धींगामुश्ती में बहुत कुछ न कर पाने की टीस भी साफ दिखाई दे जाती है।-श्री यादव और उनकी संपादकीय टीम ने बहुत ही सशक्त ढंग से विभिन्न चैनलों द्वारा कितना बडा चमत्कार या चुतियापा
`
परोसने के रिवाज पर बज्र प्रहार तो किया
,
लेकिन वह स
ा
माजिक शिक्षा व जागरुकता के लिए कोई प्रभावशाली औजार या विकल्प परिभाषित नहीं कर पाए। अगर उनके जैसा अनुभवी और प्रखर साहित्यकार इस दिशा में संजीदगी से सोचने में डरता है
,
तो शायद यह हिन्दी पत्रकारिता के लिए बुरे दिनों का आगाज है।-ऐसा कहा जाता है कि जब घर के बडे-बुजुर्ग चले जाएं
,
तो घर की मिठास कम हो जाती है। अगर आज के टीवी चैनलों को मानव जीवन के प्रति क्रूरता की अद्भुत प्रयोगशालाएं बना दिया गया है... अगर आजकल के बहुत
से
पत्रकार आडंबर और दिमागी दिवालियापन के चलते-फिरते इस्तहार या फिर...पत्र के आडे-तिरछे आकार बनकर रह गए हैं
,
तो इस अधोपतन के लिए श्री यादव जैसे महामहिम भी कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं क्योंकि वह अगर नई पीढी का सही मार्गदर्शन कर पाते तो षायद आज के अखबारों व टीवी चैनलों में प्रयोग किए जा रहे है शब्द समूहों के साथ हिन्दी भाषा का सामूहिक बलात्कार देखने की त्रासदी नहीं झेलनी पड़ती।-सनसनी जैसी खबरें
`
हर कीमत पर
`
जैसे तकियाकलाम ने भाषा तथा शब्दों एवं मुहावरों के प्रयोग ने हिन्दी भाषा... हमारी सुरुचि
,
संस्कार तथा सोच...इन सभी पर कुठाराघात किया है और वह आज भी बदस्तूर जारी है।-इस संदर्भ में इस पत्रिका के तकियाकलाम
`
खबरिया चैनलों की कहानियां
`
पर भी प्रश्नचिह्न लगाने के लिए मजबूर होना पडता है। अमूमन खबरिया शब्द नकारात्मक दिशा की ओर संकेत करता है। मानो एक खबरिया
`
कोई मुखबिर हो और किसी साम्राज्य के बारे में किसी अनिष्ठ की आशंका की तरफ इशारा कर रहा हो
`
। खबरें हमेशा नकारात्मक व अफसोसनाक नहीं होती हैं।... खबरें हमेशा अनारा गुप्ता का बलात्कार या बुढिया की गुडिया ही नहीं...वह सानिया मिर्जा की शानदार जीत और प्रीति जिंटा का पुरस्कार भी हो सकती हैं।-कहानी संग्रह में विजय विद्रोही की
`
प्रेत पत्रकारिता
`
उनकी आपबीती जैसी ही लगी। उनके जैसे दबंग पत्रकार का शब्दों के माध्यम से यह गुहार शायद आने वाली पीढी के लिए एक चेतावनी साबित हो। मगर प्रेत पत्रकारिता की परिपाटी को बढावा देने की बजाए एक स्वाभिमानी पत्रकार को उसे लात मारकर बाहर आने का हौसला रखना चाहिए।-राणा यशवंत की
`
ब्रेकिंग न्यूज
`
हर न्यूज चैनल की धमनियों में बहते हुए खून की गरमी का बैरोमीटर है। साथ ही अपने आप को मान-मंडित करने की नई तरकीब भी है।-राकेश कायस्थ नई पीढी के खबरिया पत्रकारिता के आयामों को चित्रित करने की कोशिश में न्यूज रूम की नौंटकी में खो जाते हैं। वैसे जो बात वह कहना चाहते हैं
,
वह काफी कडवी है
,
मगर शायद वह अंततः यह नहीं तय कर पाते कि पहले मुर्गी का जिक्र करें या अंडे का।-संगीता तिवारी का
`
खेल
`
न्यूज रूम के ठेकेदारों द्वारा उठाना-गिराना और नए-नए बॉस की करतूतों का पर्दाफाश करती है। साथ ही एक लडकी की त्रासदियों का सजीव और मर्मस्पर्षी चित्रण भी है।-रवीश कुमार का अंदाजेबयां कुछ और ही है। कई महिला पत्रकारों के बारे में उनके मर्द साथियों द्वारा दिमागी मैथून की प्रवृति पर करारी चोट की है दीवार फांदते स्पाइडरमैन ने।
‘
मिस टकटक
’
का किरदार प्रायः कुकुरमुत्ते की तरह हर चैनल में पाया जाता है। यह अलग बात है कि कई बार
‘
मिस टकटक
’
न्यूज रूम की चौपड में द्रौपदी की तरह बिछ या बिछा दी जाती हैं तो कई बार वह अपने बॉस के प्रकोष्ठ से सत्ता के गलियारे तक शोले की धन्नो की तरह हिनहिनाते दिखाई दे जाती हैं।-क़मर वहीद नकवी अपने लेख में पत्रकार की नहीं
,
बल्कि एक उद्योगपति की भाषा बोलते दिखाई देते हैं।
`
बकवास दिखाना उनकी मजबूरी है
`
और यही उनके चैनल का सरमाया है।
मगर सच्चाई यह भी है कि आज का दर्शक किसी चैनल को पांच मिनट या दस मिनट से ज्यादा नहीं झेल पाता है। अगर नकवी साहब यह समझते हैं कि उनका चैनल ही समाज का सही और सच्चा आइना है तो उनको यह भी याद रखना चाहिए कि आइने में भी बाल उगने में देर नहीं लगती।-राजदीप सरदसाई का लेख
`
हम पागल हो गए हैं
`
शायद बहुत हद तक सच है। बहुत कम पत्रकार ही अपनी मूर्खता पर हंसने की हिम्मत करते हैं। यह सच है कि
`
कैमरा अब हजारों लोगों की आवाज व चेहरा बनता जा रहा है
`
। मगर पहले कैमरे के पीछे
`
एजेंडा के साथ खडे लोगों की नीयत का क्या करें
?`
कालिख लगे हाथों में दस्ताने पहनकर पत्रकारिता की शालीनता और मानवाधिकारों का मापदंड तय करने की बात वैचारिक दीवालियापन ही नहीं
,
बल्कि व्यावहारिक बड़ बोलापन निशानी है।-उदय शंकर अपनी बात हमेशा
`
ओशो-रजनीश-
`
के अंदाज में ही करते हैं और
`
आमने-सामने
`
में भी उन्होंने यही रुख बरकरार रखा है। क्रियटिविटी के दोमुंहेपन से उन्हें गुरेज़ है और वह इस बात से बखूबी वाकिफ हैं कि बदनाम होंगे तो क्या नाम नहीं होगा
?
आजकल के दौर में
`
कुछ ही समय के लिए क्यों न हो
,
मगर ऐसी सोच काम कर जाती है।-इन सब के बीच दिवांग ने अपने लेख में शब्दों की शालीनता बरकरार रखी है और उनका रामबाण हमेशा
`
दर्शकों का भरोसा है।
`
उनके अनुसार टीवी चैनलों की अंगडाई अब तक अपने शबाब पर नहीं आ पाई है और आने वाले दिनों में अपनी हद खुद ढूंढ लेगी
`
। यह एक आदर्शवादी और रोमानी सोच है। मगर पत्रकारिता की नंगी हकीकत अक्सर बदनुमा और भयानक दिखाई देती रही है।-शाजीजमां ने अपने लेख में
`
फास्ट फारवर्ड
`
में चलती जिंदगी के कुछ खुरदुरे तथा संकरे पहलुओं को बेबाकी से छुआ है तो प्रियदर्शन ने टीवी चैनलों में एंकर की सोच तथा ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा से लवरेज न्यूज रूम में सफलता की कुंजी और ताला खोजने और खोलने के महामंत्र पर अच्छा व्यंग्य किया है। प्रियदर्शन की लेखनी में ओज है।-
`
बम विस्फोट
`
नामक लेख में संजीव पालीवाल ने शायद अपने कार्यस्थल की नंगी सच्चाई का बखान कर डाला है। मगर किसी भी पाठक को उनकी भाषा पर ऐतराज हो सकता है। पता नहीं
,
आज से कुछ साल बाद इस लेख को पढकर लोग किसका ज्यादा आंकलन कर पाएंगे-घटना विशेष का या फिर लेखक का
?
क्योंकि कोई भी छपा दस्तावेज कभी-कभार बम से ज्यादा विस्फोटकारी हो जाता है।-दीपक चौबे ने
`
काटो काटो काटो
`
नामक लेख में बडे ही इंकलाबी अंदाज में न्यूज रूम में
`
काटना
`
शब्द की महत्ता और उपयोगिता का पर्दाफाश किया है। काटना न्यूज रूम के कामकाज का एक अहम हिस्सा है
,
जिसमें बात काटने से लेकर एक-दूसरे की जड काटने तक की कवायद शामिल होती है। चैनल के एसाइनमेंट डेस्क में हरकारा
`
नागर
`
एक ऐसा किरदार है जो अपने ध्रुतराष्ट्र के लिए घटोत्कच से लेकर भीम तक भी भूमिका निभाने का स्वांग रचने में शुक्राचार्य को भी मात दे सकता है।
पत्रकार यानी...दोधारी तलवार...चौतरफा वार...एक तीर-तेरह शिकार...।
चौबे ने पत्रकारों की ऐसी नई परिभाषा देकर जैसे अपनी बिरादरी का सरेआम पोल खोल दिया।
दूसरी तरफ उन्होंने चोली और दामन का साथ यह कहते हुए निरस्त कर दिया
`
चोली कसती है
,
तंग होती है
,
भीगती है
,
उतरती है
,
कुछ छुपाती है तो कुछ दिखाती है। दामन तो सिर्फ पकडा या छोडा जा सकता है। चोलियां मांगी जाती है
,
दी जाती हैं
,
डिजाइनर होती हैं और धरती की तरह रंगीन भी
,
जबकि दामन में सिर्फ आसमान सा नीलापन व सूनापन है।
चोली-दामन के बीच का फासला सिक्योरिटी की कसौटी पर समझाते हुए दीपक चौबे का तर्क है कि
`
फैशन के तूफान में दामन-दुपट्टे उडते जा रहे हैं
,
पर चोली कम होगी तो टॉप बनेगी और क्या...यही न कि साइज की गारंटी नहीं
,
मगर टॉपलेस होने तक फ्यूचर तो सेफ है।...चौबे का अंदाजेबयां कि
`
काटना सबके बस की बात नहीं...चाहे राखी सावंत लाइव ही क्यों न मिल रही हो।
`
न्यूज रूम का सबसे बडा और अकाट्य सत्य है। इतने ज्वलंत तथा मर्मस्पर्शी चित्रण के लिए वह बधाई के पात्र हैं।...अगर
`
स्याह-सफेद
`
में शालिनी जोशी ने बडी ही शालीनता से टेलीविजन पत्रकारिता से जुडी महिलाओं की मानसिक स्थिति
,
डर तथा सामाजिक शंकाओं का चित्रण किया है तो अलका सक्सेना
`
आधी जमीन
`
महिला पत्रकारों का अब तक नहीं दिए जाने से परेशान और हैरान हैं। उनकी राय में महिलाओं को भी उनकी सही उपयोगिता को आंकने तथा उनकी भूमिका के सही चयन के पहले पत्रकारिता के कुछ सालों तक उबड-खाबड रास्तों की खाक छानकर तपने का सुझाव तो बडा ही अच्छा और आदर्शवादी है। मगर सच्चाई यह है कि नई उमर की नई फसल सब कुछ चुटकी बजाकर ही पा लेना चाहती है और ऐसे में वरिष्ठ पत्रकारों का गुरुमंत्र बीच सडक पर पडे गोबर का ढेर बनकर रह जाता है।...
`
तमाशा मेरे आगे
`
स्तंभ में वर्तिका नंदा से लेकर श्वेता सिंह
,
ऋचा अनिरुद्व
,
शाजिया इल्मी तथा रुपाली तिवारी ने अपने काबिलियत की कील ठोंकने की भरपूर कोशिश की है। वर्तिका जहां
`
औरतें करती हैं मर्दें का शो
ष
ण
`
की बात करती है
,
वहीं औरतों के लिए मर्द बॉस का हमेशा दोधारी तलवार घुमाने की आदत ऋचा अनिरुद्व के लिए आलोचना व खीज का सबब है।
खासकर शाजिया इल्मी द्वारा
`
शक्ल और अक्ल के बीच
`
छिडी जंग में इल्म की दुहाई पढने में भले ही अच्छा लगे
,
मगर वह भी जानती हैं कि धुआं वहीं उठता है
,
जहां आग जलती है। वैसे भी ......उम्र की अक्ल से निस्बत हो
,
ये जरुरी नहीं
इतने घने बाल तो धूप में भी पक सकते हैं।...अजीत अंजुम फ्राइडे नामक लेख में शब्दों के चयन तथा मुहावरों के इस्तेमाल में शालीनता बरतने के आदी कहीं से भी दिखाई नहीं देते। चैनल के बॉस को नर-पिशाच के रंग में रंगने तथा टीआरपी को इस सदी की सबसे बडी
`
संयोगिता
`
की संज्ञा देने से लेकर अपने-आप का मानमंडित करने और बौद्विक आतंकवाद फैलाने के प्रयास में वह खुद ही
`
मूतो कम-मगर चीखो और हिलाओ ज्यादा
`
परंपरा और संस्कृति के ध्वजवाहक बने दिखाई देते हैं।
ग्यारह पेज लंबी उनकी कहानी का सरमाया यह है कि
`
तुम एक ऐसे ढोल की तरह हो
,
जिस पर हर समय बॉस की थाप पडती रहेगी। बजना तुम्हारी मजबूरी है और बजाना उसकी...
`
खबरों को पकाना
,
सेकना
,
तानना और बेचना...यह जैसे कई टेलीविजन पत्रकारिता के कीचक से लेकर कर्ण तक के महारथियों की पहचान है। वह भी इसी संस्थान की देन है। जहां का महामंत्र
`
सबसे तेज
`
होना है
,
चाहे वह
`
अश्त्थामा हतः-नरो वा कुजरो वा...क्यों न हो।और वैसे भी बबूल के पेड से आम की अपेक्षा बेवकूफ ही कर सकता है।...राजेश बादल का
`
उसका लौटना
`
उनकी अपनी कहानी जैसी दिखाई देती है। किसी चैनल में लंबा समय बिताने के बाद जब वह आदमी मुडकर पीछे देखता है और जब उसके साथ किए गए विश्वासघात का उसे बोध होता है तो वह स्थिति बडी अजीबोगरीब होती है। बादल द्वारा मारुति का चित्रण जिंदगी के किसी मोड पर लगभग हर पत्रकार के सामने आता है और वह सोचने के लिए मजबूर हो जाता है कि एक अदद नौकरी के लिए उसने क्या-क्या खोया।
घटिया पत्रकारिता
,
ओछी राजनीति तथा थोथी दलीलों के साथ मूल्य
,
सिद्वांत और नैतिकता की लडाई लडता हुआ हर संवेदनशील पत्रकार अपने आप को कभी-कभार अकेला भले ही महसूस करने लगे
,
मगर अंततः जीत सच की होती है। राजेश बादल का लेख दिल को छू जाता है और इसी बात को इंगित करता है कि-मनसब तो हमें मिल सकते थे
,
लेकिन शर्त हुजूरी थी।यह शर्त हमें मंजूर नहीं
,
बस इतनी ही मजबूरी थी।।...मुकेश कुमार की कहानी भी कुछ हद तक उनकी अपनी जिंदगी की किताब के पन्ने की तरह दिख जाती है।
`
मिशन से प्रोफेशन से कमीशन तक
`
पत्रकारिता के नए युग में अक्सर ही विवेकशील संपादक ही
`
टारगेट
`
बनते हैं और उसमें कई प्रबंध रिपोर्टरों का भी बडा रोल होता है।राजेश बादल तथा मुकेश कुमार की कहानियों के किरदार न्यूज चैनल के मालिकों की सामंती सोच और आतताई व्यवहार के खिलाफ कुनमुनाते इंकलाब को रेखांकित तो करते हैं
,
मगर उससे लडने का सही विकल्प नहीं तलाश पाते।... यह इंकलाब जाडे की सुबह नंगी पीठ पर खिंचती बेंत की तरह तल्ख है
,
जो शाम होते-होते दाल-रोटी के जुगाड में अपनी पीडा भूलकर पेट की दहकती आग की ज्वाला में दफन हो जाती है।...इस इंकलाब की गुहार उस गडरिए की बीन की तरह है
,
जो अपनी तान से भेडों को एक साथ इकट्ठा तो कर लेती है
,
मगर चारागाहों की मल्कियत का बदलने का लावा नहीं खोल पाती है।...प्रमिला दीक्षित ने
`
एक-दूजे के लिए
`
के माध्यम से टीवी चैनल द्वारा जिंदगी और मौत के खेल को भी नाटकीय ढंग से एक खबर की तरह इस्तेमाल करने के रिवाज पर चोट किया है।...अविनाश दास की
`
गुरुदेव
`
न्यूज रुम के उस विशेष किरदार का चित्रण है जो मोहल्ले की मिट्टी के महानगर तक पहुंचते हुए कई हकीकतों का साक्षात्कार करता हैं और आखिर में सांप-छछूंदर के बीच कुछ और ही बनकर रह जाता है। हैरानी यह है कि इतिहास में जीने के आदी और खबरों के महासागर के बीच में थोथे आदर्श तथा चोचलों के दर्शन की पतवार पकड कर सब की नैय्या पार करने का सपना देखने वाले ऐसे कृपाचार्यों की पूंछ आज भी घटी नहीं है। गुरुदेव जैसे किरदार चोंचलिस्ट प्रथा की सबसे ऊंची कूद लगाने वाले मेढक हैं जो पलक झपकते ही सांमती कोट की जेब में कूद कर पहुंच जाते हैं और वहीं से पूरी दुनिया की चौहद्दी मांपने लगते हैं।...अमिताभ ने
`
होता है शबे-रोज तमाशा मेरे आगे
`
शीर्षक कहानी के जरिए अपने कार्यस्थली के कर्णधारों और धुंधरों की भिनभिनाती सोच का भांडाफोड किया है। जो खबर जैसी चीज को
`
खेल
`
तथा संजीदगी व सच्चाई को बाजीचा-ए-अत्फाल और करोडों का कारोबार समझते हैं। अमिताभ का अंदाजेबयां कि
`
दोस्ती नहीं
,
स्ट्रेटजिक पार्टनर ढूंढते हैं लोग। मर्द हो या औरत
,
तफरी भी इसी स्ट्रेटजी के तहत होती है।
`
न्यूज रूम व चैनलों की संस्कृति का असली चेहरा है। यह कितना कटु क्यों न हो
,
परंतु बहुत हद तक सच है।...
`
चालाक और हमलावर मीडिया
`
में रामशरण जोशी के संकेत को संजीदगी से लेने की आवश्यकता है। बाजारवाद मीडिया पर पहले ही हावी हो चुका है और अगर कहीं मीडिया की मादकता और स्वतंत्रता की हद तय नहीं की गई तो वह दिन दूर नहीं
,
जब मीडिया खुद ही भस्मासुर का रुप अख्तियार कर ले।...आनंद प्रधान का आलेख
`
मीडिया की वर्तमान छवि
`
न्यास तथा नए प्रयोगों का सारगर्भित दस्तावेज है।...पंचायतनामा स्तंभ में समाज व बाजार के बीच समाचार शीर्षक लेख में पुष्पेद्र पाल सिंह ने आशुतोष के दृष्टिकोण से परिचय कराया है जिसे कई नवोदित पत्रकार सफलता का मूल मंत्र मानने लगे हैं।
`
हम करे तो सरकारी और तुम करो तो गद्दारी
`
जैसी बीमारी से ग्रसित कई के पत्रकारों की सोच व्यक्तिगत व्यवहार की नैतिकता और व्यवसाय की विभीषिका के बीच
`
मृगमारिचिका
`
बनकर रह जाती है।
अर्वाचीन पीढी को पुर्न मूषिको भवः की शिक्षा देने वाले तथा अपने आप को इस विधा में अरस्तु मानने वाले पत्रकारों की विडंबना यह है कि न तो वह कौवा बन पाते हैं और न ही हंस। खोजी पत्रकारिता का दं
श
उन्हें लोकप्रियता की यमुना में एक हद तक प्रवाहित तो कर देता है मगर उसके बाद भ्रमक
गं
थियों के महाकुंभ में समाह्ति भी हो जाते हैं।...कितने मरे शीर्षक कहानी में विनोद कापडी ने न्यूज से जुडे एक महत्वपूर्ण- मगर टीवी पर्दें पर कभी नहीं दिखने वाला ओबी ड्राइवर भगवान सिंह के किरदार को बखूबी जिया है। खबरखोरी की होड में भगवानसिंह जैसे किरदार अक्सर मारे जाते हैं और उसके बाद उसके नाम पर
`
शीतल
`
जैसे चहेते फनकार एक सेकेंड तक खर्च करना भी गंवारा नहीं समझते...। चैनल के लिए अपनी जान पर खेल कर रातदिन ओबी भगाने वाले भगवान सिंह की मौके पर मौत होने के बाद भी...यह खबर भी दूसरी खबरों की तरह एक कान से जाकर दूसरे कान से बाहर निकल आती है।
हैरानी की बात यह है कि भगवान सिंह की मौत को चैनल में दस सेकेंड के लिए भी स्क्राल तक में भी जगह नहीं मिल पाती। खबरों के खेल की यही सबसे बडी विडंबना है कि जब तक जिन्दा रहे...कोल्हू के बैल की तरह चलते रहे और जब मौत हो गई...तो उस पर रोने वाला एक कुत्ता भी नहीं...क्योंकि घर की मुरगी हमेशा दाल बराबर ही रह जाती है। मानवीय संवेदना के भौंडेपन की यह सबसे भद्दी मिसाल है।...वीरेंद्र मिश्र प्रसार भारती की हयां से बेहयाई तक के सफर का आइनादार रहे हैं। डीडी न्यूज की रामकहानी में उन्होंने मंडी हाउस की महाभारत के महारथियों के चेहरे से नकाब हटाने का प्रयास तो किया है
,
मगर बीच में जाकर उन्होंने दरवाजे का एक किवाड जैसे बंद कर दिया है। लिहाजा पाठक आधे-अधूरे वाक्यातों और दस्तावेजों से ही रूबरू हो पाता है। मगर जितना भी उन्होंने लिखा
,
वह इस बात का संकेत है कि समाज या देश का आइना दिखाने वालों के लिए उसी आइने में अपनी शक्ल खुद देखने का वक्त आ गया है। प्रसार भारती शायद अपनी पुरानी पहचान इस लिए कायम नहीं कर सकेगा क्योंकि-साहिल पर जो आब गजीदा थे सबके सबदरिया का रुख बदला तो तैराक हो गए ।...ट्रैक शॉट में संजय नंदन तथा सिंडीकेट में प्रभात शुंगलू ने उन्ही किरदारों और उनकी खास अदाओं का जिक्र किया है
,
जिनके बिना न्यूज रुम की रामायण अक्सर अधूरी लगती है। लल्लोचपो की लंका में सुरसा तथा लंकिनी जैसे किरदार रिपोर्टिंग व एंकरिंग की चकाचौध में कुछ समय के लिए भले ही रंभा और मोहिनी की तरह जी लें
,
मगर उसके बाद उनकी स्थिति किसी विधवा की मांग की तरह सीधी व सफेद हो जाती है
,
जिसका कोई वजूद नहीं बचा रह पाता है।...नीरेंद्र नागर
,
रवि प
ा
राशर
,
पम्मी बर्धवाल
,
रवींद्र त्रिपाठी
,
गोविंद पंत राजू तथा देवप्रकाश ने अपनी दुनिया से जुडी कुछ किरदारों की कारस्तानी को लफ्जों का लबादा ओढाकर उन्हें जीवंत करने की कोशिश की है। मगर सुधीर सुधाकर की विस्फोटक
,
पंकज श्रीवास्तव की दिव्या मेरी जान और इकबाल रिजवी के मैनेजर जावेद हसन में जिक्र किए गए किरदारों को खुली आंखों से देखा और समझा भी जा सकता है। ऐसे पात्र अक्सर चैनल के दफ्तर के किनारे पर चाय वाले की दुकान के सामने दोपहर से शाम तक
, `
आकांक्षा से मीमांसा
`
तक का फासला मिनटों में तय करते दिखाई दे जाते हैं।...पूरी पत्रिका पढ जाने के बाद दिल में खुशी नहीं होती
,
बल्कि उसका स्थान क्षोभ ले लेता है और इस पेशे के बारे में आत्म-विवेचना पर मजबूर हो जाता है।
हादसा
,
हत्या
,
बलात्कार
,
विभीषका जैसी खबरों पर अट्टाहास कर खेलने वाले समाज के इन ठेकेदारों की विकृत सोच तथा हमलावर की मानसिकता पर सवालिया निशान लगना अभी से शुरु हो गया है। वह दिन दूर नहीं जब माइक्रोफोन और कैमरा लिए समाचार के सिपहसालारों की हर गली-नुक्कड पर पिटाई होने लगे क्योंकि उनके लिए यह जानना महत्वपूर्ण नहीं होगा कि एक जवान लडकी के साथ सामूहिक बलात्कार किए जाने के बाद उसके बाप की मानसिक स्थिति क्या होगी
,
बल्कि वह यह जानना और रिकार्ड करना चाहेंगे कि उसके बाप की
`
बॉडी लैग्वेंज
`
क्या है।...वाह रे खबरिया चैनलों की न्यूज रूम की महाभारत
,...
वाह रे सामाजिक संवेदना और मानव मूल्यों के परिसीमनकर्ताओं की फौज...एक तो चोरी
,
उस पर से सीनाजोरी...न्यूज चैनलों की महाभारत के महापात्रों की दलील निहायत बेहूदी और बचकानी है कि हम वही दिखाते है जो जनता देखना चाहती है... अगर ऐसा होता तो फिल्म तथा समाचार में कोई फर्क ही नहीं रह जाता और लोग नौंटकियों को ही जिंदगी की नंगी सच्चाई समझकर संतोष कर लेते।सच्चाई यह है कि टीआरपी का हौआ खडा करने वाले और
`
जनता जो चाहे उसे दिखाने वाले
`
न्यूज चैनल के अधिकारियों की सकारात्मक सोच लगभग मरती जा रही है। वह अपना दायित्व ही नहीं
,
बल्कि मानसिक संतुलन भी खोते जा रहे हैं। तभी तो प्राइम टाइम में
`
सांप से शादी
,
एक और झांसी की रानी तथा काल कपाल महाकाल जैसी उलजलूल क्रार्यक्रमों को क्विंटल भर नमक-मिर्च के साथ दिखाया जा रहा है।
न्यूज रुम की महाभारत के यह पात्र शायद इस बात का अहसास नहीं कर पा रहे कि जनता के साथ वह कितना बडा विश्वासघात कर रहे हैं। अगर यह तर्क है कि जनता वही देखना चाहती है जो हम दिखाना चाहते हैं तो फिर जेसिका
,
प्रियदर्शिनी मट्टू
,
मधुमिता शुक्ला
,
जाहिरा शेख सहित कई अन्य विषयों पर टीआरपी आसमान क्यों छूने लगता है
?
मध्यमवर्गीय परिवार बिन ड्राइवर की गाडी जैसे कार्यक्रम देखने के लिए मजबूर इसलिए होता है क्योंकि उसके समक्ष विकल्प ही नहीं होते। अब देखना यह है कि कैस लागू होने के बाद चैनल प्रमुख और संपादकों की फौज ढोल पीटना बंद करेगा या ढोल की तरह खुद पिटेगा
?
वातानुकूलित कमरों में बैठे हुए यह सरस्वतीपुत्र किस आधार कह सकते हैं कि आज की जनता जागरुक नहीं है और सच नहीं देखना चाहती। अगर ऐसा होता तो बीबीसी देखना कबका बंद कर दिए होते या लोग हिन्दू अखबार का प्रयोग चूल्हा जलाने के लिए करते। सच्चाई यह है कि मौलिकता और खबरों की संजीदगी की दुनिया में यह दो उदाहरण आज भी ध्रुवतारा के समान हैं। गुजरात दंगों को देखने के बाद भी नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में नहीं होती। संजय जोशी की सीडी ने उनका राजनीतिक भविष्य समाप्त कर दिया होता
,
जो नहीं हुआ। इस कडी में निठारी कांड का सच सबसे ज्वलंत उदाहरण है।टेलीविजन न्यूज के ठेकेदार और सरमाएदार शायद खून
,
हत्या
,
बलात्कार दिखाकर अपनी पीठ जरुर थपथपाते हैं
,
मगर वह यह नहीं जानते कि इस खेल का शिकार उनकी अपनी औलाद भी हो सकती है। क्या पता कल वह दिन भी आ सकता है
,
जब किसी टेलीविजन न्यूज संपादक या रिपोर्टर का बच्चा अपने स्कूल बस्ते में कलम-किताब की बजाए चाकू-छूरी ले जाता हुआ दिखाई दे और उन्हीं घटनाओं की पुनरावृत्ति करता पाया जाए जो उसने अपने बाप के टेलीविजन चैनल में देखा और सीखा था।
शायद यही वजह है कि आज भी छोटे कस्बों में रहने वाले दर्शक डीडी न्यूज पर
`
जायका
,
मेरे देश की धरती और अहसास
`
जैसे कार्यक्रम देखना पसंद करते हैं। इन कार्यक्रमों का प्रोडक्शन स्तर भले ही कितना खराब क्यों न हो
,
मगर कार्यक्रम पेश करने वाले की नीयत पर तो शक नहीं किया जा सकता।
एक और बात...वह यह है कि टीआरपी का खेल खेलने वाले वह कौन से बुद्विमान प्राणी हैं
,
जिनको यह भ्रम होने लगा कि भारत -इंडिया नहीं- की
107
करोड जनता की पसंद-नापसंद चंद हजार डिब्बों -दर्शक कोष्ठ- में कैद है
?
सच्चाई तो यह है कि टीआरपी का खेल चंद नगरों में साप्ताहिक सट्टे की तरह खेला जाता है और कई मीडिया समीक्षक
`
कुं के मेढक
`
की तरह उसे ही
`
शाश्वत सत्य
`
मान लेते हैं।
इस तरह के भ्रामक और नीम-हकीम खतरे जान वाली सोच से लवरेज बुद्वि के महारथियों के साथ दर्शक क्या सलूक करेंगे
,
यह तो आने वाला कल ही बताएगा
,
फिलहाल इतना तो सच है कि इस पीढी की आबादी का एक बडा हिस्सा खबरों के पीछे खबरों का खेल समझने लगा है। इसीलिए कई ऐसे चैनलों की गिनती आदर से नहीं
,
बल्कि मजाक के तौर पर की जाती है।
विडंबना यह है कि आज पत्रकार उसी को माना जाता है जो लिखता है या फिर दिखता है। लिखने वालों की फौज में अभी भी कुछ ऐसे लोग है
,
जिनकी लेखनी सामयिक विषयों पर द्रवित और उद्वेलित करती है। मगर खबरिया न्यूज चैनलों में अक्सर दिल व दिमाग के बीच पैदल चलने वालों का हुजूम दिखाई देता है। किसी बडे विषय को सबसे कम शब्दों में समझाना बहुत बड़ी कला है
,
लेकिन न्यूज रुम के महारथी अक्सर देश-विदेश की सबसे बडी और संजीदा खबरों के साथ कुछ ही सेकेंड में ऐसा सलूक करते हैं
,
जिसे देख-सुनकर लोगों की रूह फना हो जाए। रोना यह है कि किसी भी विषय के साथ न्याय करने के बदले यह सरस्वतीपुत्र उसकी ऐसी-तैसी करना अपना जन्मसिद्व अधिकार समझते हैं। नुक्ताचीनों के इस फौज को इस बात का अहसास नहीं कि सिर्फ नुक्ता के उपर-नीचे होने से ही खुदा
,
जुदा हो जाता है और अमानत
`
ख्यानत
`
बन जाती है।
पूरे
256
पेज के भारी-भरकम विशेषांक का लब्बोलुआब यह है कि हंस पत्रिका के माध्यम से टेलीविजन की तिलस्मी दुनिया के नामचीन से लेकर नुक्ताचीनी पत्रकारों की टोली ने न्यूजरूम के चंडूखाने में पक
रही खिचडी का ऐसा लोमहर्षक वर्णन किया है
,
मानो मई महीने की दोपहर में चिलचिलाती धूप में मल्लिका शेहरावत को किसी चौराहे पर खडा कर दिया हो...
`
न्यूजरूम की मंडी
`
में नंगी हकीकत दिखाने की होड में जैसे कई लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार खुद नंगे दिखाई दे रहे हों...ऐसे में जनता-...उनके दर्शक और पाठक उनपे ताने या सीटी नहीं मारेंगे
?...
उनकी च्यूटीं नहीं काटेंगे
?...
तो क्या उनकी पूजाकर
`
आशीर्वाद
`
मांगेंगे
?...
अफसोस तो इस बात का है कि-क्या नहीं होता इस तरक्की के जमाने में
अफसोस मगर आदमी
,
इंसान नहीं होता।
आखिर में...जब खबर खेल बनना शुरू हो जाए तो समझ लेना चाहिए कि प्रजातंत्र की चूलें हिलने में अब ज्यादा देर नहीं।यह सही है कि मुझे हमेशा अंग्रेजी पत्रकार के रुप में ही जाना गया और दिल्ली में पत्रकारों के गोल व गिरोहों से भी मेरा कोई वास्ता नहीं रहा
,
मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं अपनी घर की भाषा में अपनी बात न कर पाउं। इसलिए हिन्दी में लिखने की यह मेरी पहली कोशिश है।
प्रस्तुति- ममता शरण
अजय नाथ झा
1980
के दशक से पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय हैं. इन्होने हिंदुस्तान टाइम्स के सहायक संपादक के तौर पर पत्रकारिता की दुनिया में कदम रखा। उसके बाद आज तक
,
बीबीसी
,
दूरदर्शन और एनडीटीवी में भी काम किया. फिलहाल लोकसभा टीवी में बतौर कंसल्टेंट कार्यरत हैं
osted by Anami Sharan Babal at 1:02 AM 0 comments [Image] [Image]
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