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मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

iimc/ media/ ramji prasad singh ki yaad me

वे व्यक्ति ही नहीं, संस्थान थे

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अनामी शरण बबल, वरिष्ठ पत्रकार
राम जी प्रसाद सिंह की मौत एक ऐसे प्रतिबद्ध पत्रकार की मौत है जो आज के माहौल में बहुत कम बचे हैं। ‘हिन्दुस्तान’ समाचार से लेकर देश के तमाम बड़े समूहों के साथ काम करने वाले राम जी प्रसाद सिंह की ये खामोश मौत, हम सभी पत्रकारों के लिए एक बड़ी चिंता का विषय है। जिन्दगी भर दूसरों को प्रकाश में लाने वाले एक पत्रकार की मौत, क्या इतनी गुमनाम हो सकती है? राम जी प्रसाद जी से मेरा नाता एक शिष्य और गुरू का रहा है। 1987 में जब मैंने भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) में दाखिला लिया, तब हमारी पहचान राम जी प्रसाद जी से हुई। हम लोग उनके कॅरियर के आभामंडल को नहीं जानते थे, तब केवल एक गुरू के रूप में जानते थे। अपने घर से दूर महानगर में एक गुरू के साथ ही एक अभिभावक, शुभचिंतक और पिता समान प्यार देने वाला अगर हमारे सामने कोई खड़ा था तो वह केवल राम जी प्रसाद सिंह जी थे। राम जी प्रसाद सिंह एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि दूसरे शब्दों में कहें तो एक संस्थान थे। उन्होंने न केवल गुरू के रूप में हमें शिक्षा-दीक्षा दी बल्कि बारीकियों से लेकर उसके तिकड़म और इसकी प्रतिस्पर्धा के बारे में भी हम लोगो को तैयार किया, ताकि हमें भविष्य में कभी मात न खाना पड़े।
 
आईआईएमसी में दस माह के दौरान न केवल हम लोगों को तराशने और निखारने का कार्य किया बल्कि अपने घर में बुला-बुलाकर की गई खातिरदारी ने कभी घर की कमी न खलने दी। उनका यह प्यार कितना सच्चा था इसका अहसास मुझे फरवरी, 89 में तब हुआ जब 11 दिसंबर 1988 को सहारनपुर में हुये एक सड़क हादसे के बाद जब लगभग डेढ़ माह तक कोमा में रहने के बाद मैं सामान्य हुआ तब मेरे पापा से लेकर मेरे मित्रों ने राम जी प्रसाद सिंह द्वारा की गई सेवा और उनकी चिंताओं के बारे में मुझे बताया। मेरे मन में उनके प्रति प्यार और आदर ने एक नया रूप ले लिया था और मेरे मन में राम जी के प्रति आस्था काफी बढ़ चुकी थी। मुझे यह स्वीकारते हुये संकोच सा हो रहा हैं कि पिछले 20 साल के दौरान दूरभाष पर संपर्क तो हमारा बना रहा लेकिन मिलने-जुलने के अवसर दो–तीन बार से ज्यादा नहीं आये। हर बार उनकी यह शिकायत बनी रहती थी, कि बबल तुम नहीं आते हो।
 
मैं उस समय और ज्यादा शर्मिंदा हो जाता था जब रामपुर का मेरा पत्रकार दोस्त मुजफ्फर उल्ला खान मुझे फोन करके यह बताता था कि राम जी बाबू तुम्हें याद कर रहे हैं। हालांकि मुजफ्फर के फोन रखते ही, मैं तुरंत राम जी बाबू को फोन कर लेता था फिर कभी मिलने का वादा भी करता था। मगर एक पोलिटिशयन की तरह ही मैं अपने वादे पर कभी खरा नहीं उतर सका। मैं उनके प्यार की उष्मा को हमेशा महसूस करता था मगर उनके सांचे में कभी नहीं ढ़ल पाया, जिसका मुझे हमेशा अफसोस रहेगा। अचानक 3 फरवरी की रात में रोहित का फोन आया और उसने यह सूचना दी कि पापा जी अब नहीं रहे तो मैं एक दम स्तब्ध सा रह गया मगर मैं एक ऐसी दुविधा में फंसा हुआ था कि चार तारीख को यानी अगले ही दिन आगरा जाना मुझे बहुत ही आवश्यक था क्योंकि बिहार से मेरे मम्मी-पापा आगरा आ रहे थे और घर की चाभी मेरे पास  थी। मै अगर नहीं जाता हूं तो उन लोगों के सामने रात 10 बजे आगरा वाले घर पर आकर रहने का संकट खड़ा हो जाता है और अगर जाता हूं तो अपने गुरू के साथ मेरा यह छल ही होगा कि मैं अंतिम दर्शन करने भी उनके पास नहीं पहुंच सका। अंतत: एक बार फिर स्वार्थ की ही जीत हुई और अगले दिन रामजी प्रसाद जी के दर्शन करने के बजाय मैं आगरा चला आया, पिछले चार दिनों से मेरे मन में राम जी प्रसाद जी की यादें साये की तरह चिपकी हुई हैं।
 
जब आगरा में मैंने अपने पापा जी को उनकी मृत्यु की सूचना दी तो वे एक दम स्तब्ध रह गये और उनकी पहली टिप्पणी थी कि बेटा वे मनुष्य नहीं महा-मानव थे। पापा जी ने मुझे बताया कि मेरे एक्सीडेंट के बाद राम जी प्रसाद सिंह ने कितनी सेवा और चिंता की थी। पापा ने उनके द्वारा मेरे उपचार के बारे में विस्तार से बताया तो मेरा अंतिम समय में भी उनका दर्शन न करना गुनाह में बदल गया। हालांकि मेरे एक्सीडेंट के बाद जिस लगन से मेरी सेवा करने वालों में पत्रकार दोस्त पार्थिव कुमार, परमानंद आर्य, सुनीता, सुविधा और राम जी के प्रति मैं इन सभी का उऋण नहीं हो सकता क्योंकि इनकी सेवा मेरे लिए दोस्ती का एक बेमिसाल उदाहरण है। जिसे धन्यवाद कहकर मैं अपमानित नहीं कर सकता। एक स्वार्थी पत्रकार की तरह हर संकट की घड़ी में, हर जरूरत के समय, एक ढाल की तरह मैंने रामजी प्रसाद जी का उपयोग किया, उनके मार्गदर्शन लिये और एक अधिकार के साथ विचार-विमर्श भी कर लेता रहा मगर कर्तव्य निभाने के हर पैमाने पर मैं फेल हो गया।
 
अब जब उनकी स्मृति ही केवल हमारे साथ है, मुझे महसूस हो रहा है अब भविष्य में अगर जरूरत पड़ी तो मुझे कौन सलाह देगा? एक अधिकार के साथ मुझे कौन डांटेगा? उनका जाना केवल एक वरिष्ठ पत्रकार की मौत नहीं है बल्कि मेरे लिए तो एक निजी क्षति हैं। हमारे सामने उनकी स्मृतियों को जीवित रखना एक बड़ी चुनौति है अब देखना है कि हम लोग उसे कितना कामयाब रख पाते हैं। इसका जवाब अभी हमारे पास नही हैं। अलबत्ता रोहित हम लोगों के साथ जरूर हैं जिसे हम लोग स्नेह और संरक्षण देकर इस काबिल बना सके कि वह अपने पिता की स्मृति को जीवित रख सके क्योंकि उनकी याद के रूप में केवल रोहित और मोहत ही हैं जिसके प्रति हम लोग कुछ करके उनकी आत्मा को सच्ची श्रद्धांजलि दे सकते हैं।

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