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सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

media/ इंटरनेट के जरिए जनक्रांति मुश्किल !

इंटरनेट के जरिए जनक्रांति मुश्किल !

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पीयूष पांडे, साइबर पत्रकार
 
अमेरिका समेत कई मुल्कों की सरकारों की नींद उड़ा देने वाली वेबसाइट ‘विकीलीक्स’ को साल 2011 के नोबेल शांति पुरस्कारों के लिए नामांकित किया गया है। नॉर्वे की सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी के सदस्य स्नोरे वेलेन ने विकीलीक्स को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित करते हुए कहा कि उसके खुलासों ने दुनिया के कई देशों को जिम्मेदार होने के लिए बाध्य किया है। वेलेन ने कहा-“मुझे लगता कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बहस शुरु होनी चाहिए क्योंकि किसी भी जंग के वक्त सबसे पहला हमला सत्य पर होता है।“
 
निश्चित तौर पर यह बहस का मुद्दा हो सकता है कि क्या जूलियन असांजे और विकीलीक्स को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया जाना चाहिए? लेकिन, इस बहस से आगे का बड़ा सवाल यह है कि क्या इंटरनेट पर जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला बार-बार दिया जाता है-उसका मतलब क्या है? क्या इंटरनेट के खुलेपन की वकालत के बावजूद अभिव्यक्ति की आज़ादी को सापेक्षिक नहीं बना दिया गया है? ‘विकीलीक्स’ के खुलासों ने अमेरिकी सरकार की नींद उड़ायी तो सरकार ने इंटरनेट सेवा प्रदाताओं के जरिए साइट ठप करा डाली। विकीलीक्स को फंडिंग में मदद करने करने वाली अमेजन और पेपाल जैसी तमाम कंपनियों को चेता दिया कि संबंध तोड़ लिए जाएं। यहां तक कि ट्विटर और फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट पर भी आरोप लगे कि उन्होंने विकीलीक्स के पक्ष में किए ट्वीट्स और स्टेटस मैसेज को प्रसारित करने में अडंगा लगाया।
 
लेकिन, यही फेसबुक, ट्विटर और यूट्यूब जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट्स कई मुल्कों में लोकतांत्रिक मूल्यों का झंडा बुलंद किए घूम रही हैं। निश्चित रुप से ईरान से लेकर ट्यूनीशिया और मिस्र में इन सोशल नेटवर्किंग साइट की ताकत भी दिखी है। ईरान में 2009 में राष्ट्रपति चुनावों में धांधली के विरोध के स्वर सोशल मीडिया के जरिए ही दुनिया तक पहुंचे। ट्यूनीशिया में तानाशाह जाइन अल आबीदीन बेन अली की सरकार के खिलाफ जनमत तैयार करने में सोशल मीडिया के औजारों ने बड़ी भूमिका निभायी। मिस्र में तो वर्चुअल दुनिया से उठी क्रांति की लहर सड़कों तक इस तरह पहुंची की राष्ट्रपति होस्नी मुबारक ने इंटरनेट पर ही पूर्ण प्रतिबंध लगा डाला। इससे पहले ऐसा सिर्फ एक बार हुआ था। साल 2007 में म्यांमार की सरकार ने इंटरनेट पर पूरी तरह पाबंदी लगायी थी।
 
मिस्र में इंटरनेट पर पूर्ण पाबंदी की खबर ने दुनियाभर में खूब सुर्खियां बटोरी। इसके चलते देश को करीब 100 मिलियन डॉलर के नुकसान की खबर भी खूब प्रकाशित-प्रसारित हुई। पर सच यह है कि मिस्र में इंटरनेट सेंसरशिप का पुराना इतिहास है। पूर्ण पाबंदी भले कभी न रही हो लेकिन इंटरनेट सेंसरशिप हमेशा रही है। मीडिया की आज़ादी को लेकर काम करने वाली साइट ‘रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स’ ने साल 2010 में इंटरनेट के ‘दुश्मनों’ की जो सूची जारी की है, उनमें एक मिस्र है। बाकी देशों में सऊदी अरब, म्यांमार, चीन, उत्तरी कोरिया, क्यूबा, ईरान, उज़बेकिस्तान, सीरिया, ट्यूनीशिया, तुर्कमेनिस्तान और विएतमान हैं। हां, इस लिस्ट में अमेरिका नहीं है। आखिर अमेरिका तो लोकतांत्रिक मूल्यों का सबसे बड़ा समर्थक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अलबंदार है ! 
लेकिन, यहां बड़ा सवाल अमेरिका की इंटरनेट सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर दोमुंहे रवैये का नहीं है। बड़ा सवाल सरकारी हठधर्मिता के बीच इंटरनेट के जरिए लोकतांत्रिक मूल्यों की लड़ाई का है। सवाल यह भी है कि कहीं नेट पर क्रांति का हो-हल्ला भ्रामक तो नहीं? इतना ही नहीं, कहीं वर्चुअल दुनिया से उपजी क्रांति के नारे तानाशाह सरकारों के लिए रणनीतिक तैयारी के पाठ तो नहीं हैं?  
दरअसल, बेलारुस में जन्मे अमेरिकी स्कॉलर एवगेनी मोरजोव की ताजा किताब ‘द नेट डेल्यूसन : द डार्क साइड ऑफ इंटरनेट फ्रीडम’ में इसी बात को रेखांकित किया गया है। मोरजोव इस तथ्य से सहमत नहीं है कि सिर्फ वर्चुअल दुनिया में एकजुटता क्रांति को अंजाम दे सकती है। इसके लिए कई दूसरे कारक जिम्मेदार होते हैं। मोरजोव का मानना है कि इन कथित क्रांतियों ने जरुर सरकारों को चेता दिया है और अब इन मंचों से लड़ाई लड़ने की रणनीति में जुट गई हैं।
 
ईरान में सोशल मीडिया पर उपजी चंद दिनों की लहर के बाद सरकार को इन्हीं के बीच कई सबूत हाथ लगे। यूट्यूब के वीडियो के जरिए कई प्रदर्शनकारियों की पहचान हुई। सीरिया में तो फेसबुक सरकार के लिए बड़ा डाटाबेस है। चीन की सरकार ने कई राजनीतिक विश्लेषकों को बाकायदा शिक्षित किया है कि वो सोशल मीडिया के तमाम मंचों पर सरकार के पक्ष में बात कहें। वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज तो खुद ट्विटर पर आ गए हैं ताकि जनता की नब्ज पढ़ सकें और अपनी ब्रांडिंग भी। उनके 12 लाख से ज्यादा फॉलोवर्स हैं। उनका ट्विटर पर अंदाज कुछ ऐसा है कि वो अपने एक आलोचक के ट्वीट का जवाब देते हुए लिखते हैं-“हैलो मरीआना, सच्चाई यह है कि मैं एंटी डिक्टेटर हूं। लोल ! “
 
कई मुल्कों में अब सरकारें फेसबुक-ट्विटर पर लगातार नज़र रख रही हैं ताकि इन मंचों से कोई क्रांति सिर न उठा पाए। ‘द गार्जियन’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक मिस्र के कैरो में आंदोलनकारियों के बीच चंद दिनों पहले अज्ञात नाम से हज़ारों पर्चे बांटे गए, जिनमें प्रदर्शनकारियों को कुछ अहम सुझाव दिए गए थे। लेकिन, इन्हीं पर्चों में लिखा गया कि इन्हें सिर्फ ई-मेल व फोटोकॉपी के जरिए आगे बढ़ाएं क्योंकि फेसबुक और ट्विटर पर सरकार की नज़र है। खास बात यह कि दूध का धुला कोई नहीं है। न अमेरिका और न भारत। हाल में एफबीआई के निदेशक ने सिलिकॉन वैली पहुंचकर कंपनियों से कहा कि वो पिछले दरवाजे की व्यवस्था करें,जहां से ऑनलाइन कहे जाने वाली बातों पर नज़र रखी जा सके।
 
इसमें संदेह नहीं है कि सोशल मीडिया के तमाम औजारों के जरिए लोग अपनी बात दूर तक पहुंचाने में कामयाब हुए हैं। निश्चित ही एक खास मकसद के लिए लोगों की ‘नेटवर्किंग’ को सोशल मीडिया ने नयी रफ्तार दी है। लेकिन, क्या आने वाला वक़्त ऐसा होगा? सरकार के दबाव और पैसे के खेल के बीच लोकतांत्रिक मूल्यों का झंडा बुलंद करने वाले मंच कितने पारदर्शी व जिम्मेदार रह पाते हैं-ये भी देखना होगा। आखिर, मिस्र में सरकार ने वोडाफोन समेत सभी अंतरराष्ट्रीय टेलीकॉम कंपनियों को कानून का हवाला देकर अपने पक्ष में एसएमएस कराए। चीन में मानवाधिकारों का हनन अभी हाल में शुरु नहीं हुआ, लेकिन गूगल ने चीन में तब तक कारोबार किया जब तक संभव था। सोशल मीडिया के जरिए बनते जनमत पर नजर रखना सरकार के लिए बाकी माध्यमों से आसान है क्योंकि यहां जांच ‘की-वर्ड’ से होती है। चीन ने इसी प्रक्रिया के आधार पर कई विषयों से जुड़ी खबरें ही प्रतिबंधित कर रखी हैं।
ईरान,ट्यूनीशिया और मिस्र की उठापटक में सोशल मीडिया की भूमिका के बाद सरकारों का खुद इन मंचों के सटीक इस्तेमाल को लेकर सजग होना तय है। यानी अब वर्चुअल दुनिया में जंग दोतरफा होगी। इंटरनेट और सोशल मीडिया की जनमत तैयार करने और जनक्रांति में खास भूमिका के मद्देनज़र इनके सावधानीपूर्ण इस्तेमाल की बहस आवश्यक है। इंटरनेट सेंसरशिप भले न हो, लेकिन इंटरनेट पर एकतरफा हवा बहना भविष्य में आसान नहीं होगी। चुनौती देती तकनीक से खेलने का हुनर सत्ता भी सीख रही है, लिहाजा इंटरनेट को जनक्रांति का हथियार बनाने का खेल अब लगातार मुश्किल होगा। देखना यही होगा कि इन हालात में उम्मीदों की राह किस तरह निकलेगी। 

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