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शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

बी.जे.पी. ने की समीक्षा--यूपीए : आजादी के बाद की भ्रष्टतम सरकार

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Published on June 4, 2011 by   ·   1 Comment Print This Post Print This Post सुरेंदर अग्निहोत्री ,,
आई.एन.वी.सी.
लखनऊ ,
प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिहं के नेतृत्व में यूपीए-2 सरकार ने अपने दो साल पूरे कर लिए है। उक्त अवसर पर प्रधानमन्त्री डॉ. मनमोहन सिंह और यूपीए की अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गान्धी दोनों ने भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का संकल्प व्यक्त किया। इससे बड़ी विडम्बना नहीं हो सकती क्योंकि एक ऐसी सरकार भ्रष्टाचार से लड़ने का संकल्प कर रही है, जिसका हाल तक का एक मन्त्री, एक वरिष्ठ कांग्रेसी सांसद और यूपीए के एक महत्वपूर्ण घटक के नेता की पुत्री भ्रष्टाचार के गम्भीर आरोपों पर तिहाड़ जेल में बन्द हैंं। यह बात काफी अहम है कि ये गिरफ्तारियां भाजपा के अभियान, सतर्क मीडिया, के दबाव तथा सर्वोच्च न्यायालय की सतत निगरानी के कारण सम्भव हो सकीं। वस्तुत: इसके लिए डॉ. मनमोहन सिंह या उनकी सराकर कोई श्रेय नहीं ले सकती क्योंकि कार्रवाई करने की बजाए उन्होंने तो इनमें से कुछ को निर्दोष होने का प्रमाणपत्र दे दिया था। यह जाहिर है कि डॉ. मनमोहन सिंह आजादी के बाद की देश की सर्वाधिक भ्रष्ट सरकार के मुखिया हैं। इसमें पारदÆशता की कमी है, उच्च स्तर पर संलिप्तता है, किसी प्रकार का कोई अंकुश नहीं है, पूरा तन्त्र ढह चुका है तथा रोज-रोज नए घोटाले सामने आ रहे हैं। दरअसल, यह प्रधानमन्त्री की `षड्यन्त्रकारी चुप्पी´, `अपराधी उदासीनता´, और `घोर लापरवाही´ थी की उनकी नाक के नीचे उनका एक मन्त्री देश के खजाने को लूटता रहा और वे उसकी अनदेखी करते रहे। इसमें यूपीए की सर्वशक्तिमान नेता श्रीमती सोनिया गान्धी की चुप्पी भी उल्लेखनीय थी।
घोटालों और राष्ट्रीय सम्पित्त की लूटा का यह सिलसिला काफी बड़ा है। लेकिन, उनमें से कुछ प्रमुख का यहां उल्लेख किया जा रहा है।
2जी स्पेक्ट्रम के आबण्टन और लाइसेंस जारी करने में घोटाला
संचार मन्त्रालय, भारत सरकार में 2जी लाइसेंसों के आबण्टन में हुआ घोर भ्रष्टाचार स्वतन्त्र भारत के इतिहास की सबसे शर्मनाक घटना है। यह तन्त्र के दुरूपयोग, गलतबयानी और धोखाधड़ी का एक गम्भीर मामला है, जिसमें बहुमूल्य स्पेक्ट्रम और लाइसेंस आबण्टन में भारी राशि के एवज में चुनिन्दा लोगों को फायदा पहुंचाया गया। यह तथ्य सर्वविदित है कि कैसे लाइसेंसों के लिए आवेदन सार्वजनिक रूप से 1/10/2007 तक मंगाए गए थे, उसके बाद एक नकली कट-ऑफ तिथि 25/9/2007 बनाई गई और 25/9/2007 तथा 1/10/2007 के बीच किए गए सभी आवेदनों को निरस्त कर दिया गया। खेल शुरू होने के बाद खेल के नियमों में बदलाव होने पर प्रधानमन्त्री चुप्पी साधे रहे। इस पर कोर्ट ने भी प्रतिकूल टिप्पणी की।
प्रधानमन्त्री ने तब भी चुप्पी साधे रखी जब तत्कालीन मन्त्री ए. राजा ने 02 नवम्बर, 2007 के उनके पत्र की खुली अवहेलना की, जिसमें उन्होंने स्पेक्ट्रम के उचित मूल्य के लिए पारदशÊ प्रक्रिया अपनाने पर बल दिया था क्योंकि 2007 में इसे 2001 के मूल्य पर बेचा जा रहा था, जबकि देश में टेलीडेंसिटी कई गुणा बढ़ चुकी थी। देश को यह जानने का हक है कि सरकार के मुखिया के रूप में प्रधानमन्त्री ने हस्तक्षेप करते हुए सारी प्रक्रिया को रोका क्यों नहीं जब सभी नियमों को ताक पर रख स्पेक्ट्रम कम मूल्य पर बेचा जा रहा था। क्या डॉ मनमोहन सिंह स्वयं जानकारी के बावजूद नहीं कार्यवाही करने और देश के राजस्व को हानि पहुंचाने के दोषी हैं कि नहीं। एक दिन के भीतर 120 लाइसेंस जारी किए गए तथा स्पेक्ट्रम का आबण्टन किया गया, जिसमें कई अपात्र कम्पनियों को भी लाइसेंस मिल गया।
चौंकाने वाली बात यह है कि एक नियमित सीबीआई मामला दर्ज हो जाने के बाद भी, डॉ. मनमोहन सिंह ने 26, जुलाई, 2009 को यह सार्वजनिक बयान दिया कि संचार मन्त्री ए. राजा के खिलाफ आरोप सही नहीं है। यह कह कर वे सीबीआई को क्या सन्देश देना चाह रहे थे, जो सीधे उन्हीं के तहत काम करती है। जब उच्चतम न्यायालय ने इस मामले की निगरानी शुरू की तो ये वही भूतपूर्व मन्त्री थे, जो सबसे पहले गिरफ्तार हुए।
प्रधानमन्त्री को इसका जवाब देना होगा कि समय-समय पर जिम्मेदार लोगों की आपित्तयों के बावजूद उन्होंने इतना बड़ा घोटाला कैसे होने दिया। इसके उलट वे 2010 के मध्य तक तत्कालीन मन्त्री ए. राजा को बेगुनाही का प्रमाणपत्र देते रहे। तत्कालीन वित्त मन्त्री श्री पी. चिदम्बरम की भूमिका भी कई सवाल खड़े करती है। उनके विभाग द्वारा केबिनेट के 2003 के निर्णय के आलोक में ये आपत्ति बार-बार उठाई गई कि स्पैक्टम के कीमत एक पारदशीZ प्रक्रिया के अनुसार तय की जाए जिसमें उसकी सार्वजनिक नीलामी भी हो सकती है। ये बड़े आश्चर्य का विशय है कि 15 जनवरी 2008 को श्री चिदम्बरम ने तथाकिथ्त रूप से यह निर्णय कि चूंकि 10 जनवरी को लाइसेंस और स्पैटम दोनों का आबण्टन हो चुका है। अत: इस मामले को अब बन्द किया जाए। श्रीमती सोनिया गान्धी को भी कई जवाब देने हैं। यूपीए तथा कांग्रेस पार्टी की अध्यक्षा होने के नाते उस सरकार में जिसकी वो सर्वोच्च नेता है, जब राष्ट्र का धन लूटा जा रहा था उस समय उनकी क्या जिम्मेवारी बनती थी र्षोर्षो
जब सीएजी ने लाइसेंस निर्गत करने तथा स्पेक्ट्रम के आबण्टन के बारे में एक विस्तृत ऑडिट रिपोर्ट तैयार की तथा 1.76 लाख करोड़ रूपए के नुकसान का अनुमान लगाया तो भरसक कोशिश की गई कि इस निष्कर्ष को झुठलाया जाए और वर्तमान संचार मन्त्री श्री कपिल सिब्बल ने सार्वजनिक रूप से संसद में कहा कि कोई घाटा नहीं हुआ है। अब सीबीआई ने भी अपनी जांच के दौरान पाया है कि हजारों करोड़ रूपए का नुकसान हुआ है और वह भी तदर्थ आधार पर। नुकसान का प्रथम दृष्टया अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 3जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में सरकार को 35,000 करोड़ रूपए के लक्ष्य की तुलना में लगभग 67,000 करोड़ रूपए का जबर्दस्त मुनाफा हुआ और इसके अलावा ब्राडबैण्ड वायरलैस एक्सेस सÆवसेज के लिए स्पेक्ट्रम की नीलामी से उसे 38,000 कराड़ रूपए का और फायदा हुआ इसके बावजूद, जहां तक 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले का प्रश्न है तो प्रधानमन्त्री ने किसी समीक्षा के आदेश नहीं दिए।
जब डॉ. मुरली मनोहर जोशी लोक लेखा समिति के अध्यक्ष के रूप में इस मामले की जांच कर रहे थे तो तब शुरू में डॉ. मनमोहन सिंह ने स्वयं श्री जोशी की एक अनुभवी संसदीय नेता के रूप में प्रशंसा की तथा कहा था कि वे अच्छा काम कर रहे हैं। तथापि, जब डॉ. जोशी की अध्यक्षता वाली समिति ने कैबिनेट सचिव तथा प्रधानमन्त्री के सचिव को पूछताछ के लिए बुलाया तो सभी संसदीय और संवैधानिक नियमों की अवहेलना करते हुए कई केन्द्रीय मन्त्रियों द्वारा इसमें बाधा पहुंचाई गई। जाहिर है कि यह सरकार बहुत कुछ छुपाना चाहती है। डॉ जोशी ने लोकसभा के स्पीकर को अपनी रिपार्ट सौम्प दी है। हम यह मांग करते हैं कि उससे संसद के आगामी सत्र के पहले दिन संसद में प्रस्तुत करते हुए सार्वजनिक किया जाए।
अब वर्तमान कपड़ा मन्त्री और मई, 2004 से मई, 2007 तक दूरसंचार मन्त्री रहे दयानिधि मारन की भूमिका भी सन्देह के घेरे में आ गई है। उन्होंने जोर दिया और डॉ. मनमोहन सिंह आसानी से मान गए कि स्पेक्ट्रम का मूल्य निर्धारण मन्त्री समूह के अधिकार क्षेत्र से बाहर रहना चाहिए क्योंकि इस बारे में डीएमके से समझौता हुआ है। इसका देश को बहुत नुकसान उठाना पड़ा। अब गम्भीर आरोप लग रहे हैं कि एक खास मोबाइल कम्पनी की 74 प्रतिशत इिक्वटी जब एक विदेशी कम्पनी ने खरीद ली तो उसे फायदा पहुंचाया गया और तत्पश्चात् यह पैसा तथाकथित रूप से एक सहायक कम्पनी के माध्यम से श्री मारन के परिवार के बिजनेस में निवेश किया गया। हितों के स्पष्ट टकराव तथा अधिकार के दुरूपयोग के अलावा यह स्पष्ट था कि सरकारी निर्णयों की बिक्री हो रही थी। जाहिर है, उनकी भूमिका की भी जांच होनी चाहिए।
हमें उम्मीद है कि संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी इस घोटाले की तह तक जाएगी और देषियों को सजा मिलेगी। गठबन्धन राजनीति की मजबूरियों को भ्रष्ट लोगों का गठबन्धन नहीं बना देना चाहिए। भाजपा की यह मांग है कि धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार के ऐसे गम्भीर मामले का जिम्मा यूपीए के सिर्फ एक सहयोगी (डीएमके) के ऊपर नहीं डाला जा सकता। सरकार में शीर्ष और वरिष्ठ पदों पर बैठे ऐसे लोग हैं जो इस लूट में शामिल रहे हैं। जाहिर है, उनकी भूमिका की भी जांच होनी चाहिए और जांच एजेंसी को पूरी छूट दी जानी चाहिए।
राष्ट्रमण्डल खेलों में आम जनता के धन की लूट
किसी भी अन्तर्राष्ट्रीय खेल का आयोजन उपलब्धि और उत्सव का मौका होता है। हांलाकि, कुछ महीने पहले दिलली में आयोजि राष्ट्रमण्डल खेलों में हमारे खिलाड़ियों ने देश को गौरवािन्वत किया, लेकिन बड़े पैमाने पर हुए भ्रष्टाचार से देश को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर शमÊन्दगी और नाराजगी झेलनी पड़ी। भाजपा ने खासतौर पर हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री नितिन गडकरी ने राष्ट्रमण्डल खेलों में लूट को सराहनीय ढंग से तथ्यों और आकड़ों के साथ देशभर में उजागर किया है। आज, श्री सुरेश कलमाड़ी आयोजन समिति के अपने अनेक सहयोगियों के साथ जेल में हैं। लेकिन, मामला यहीं खत्म नहीं होता। वे इसके मोहरे मात्र हैं। प्रत्येक फाइल को कैबिनेट, कैबिनेट सब-कमीटी, मन्त्री समूह, सम्बन्धित मन्त्रालय, यय वित्त समिति, पीएमओ और अन्तत: प्रधानमन्त्री की मञ्जूरी मिली थी।
प्रधानमन्त्री ने श्री वी.के. शंगुलू की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया और घोषणा की कि इसकी रिपोर्ट पर कार्रवाई की जाएगी। पांचवी रिपोर्ट में इसकी पुन: पुष्टि हुई कि गम्भीर घपले हुए हैं, जिससे ठेकेदारों को अनुचित फायदा पहुंचा है और अपव्यय तथा सरकार को नुकसान हुआ है। रिपोर्ट में पाया गया है कि ठेके देने में गम्भीर अनियमितताएं हुई हैं क्योंकि शुरूआत से ही साजिश थी कि परियोजनाओं को पूरा करने में विलम्ब किया जाए, लागत बढ़ाई जाए और पैसा मांगा जाए और समय कम होने के कारण ऊंची लागत में ठेके दिए जाएं। समिति ने श्रीमती शीला दीक्षित की दिल्ली सरकार जिनके हाथ में सारी वित्तीय शक्तियां थीं, विभिé एजेंसियों जैसे डीडीए, सीपीडब्लयूडी इत्यादी, श्री सुरेश कलमाडी की अध्यक्षता वाली आयोजन समिति की कड़ी आलोचना की है। चाहे वह राष्ट्रमण्डल खेल गांव हो, यहां तक कि एयर कण्डीशनरों, कुÆसयों, टॉयलेट पेपर तक खरीद में बड़े पैमाने पर घपले हुए हैं।
इस रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि Þबीमारी अन्दर तक फैली है और इसे अपवाद नहीं माना जा सकता, जिसके लिए सिर्फ कनिष्ठ पदाधिकारी जिम्मेदार हैं। इसमें शामिल अधिकारियों की आगे और जांच के आधार पर पहचान की जानी चाहिए और उपयुक्त कार्रवाई की जानी चाहिए।ß समिति ने आगे कहा है, Þएक प्रकार की कुटिलता से काम किया गया और परियोजनाओें में अनुचित विलम्ब शायद जानबूझकर किया गया, जिससे कि दहशत का माहौल उत्पé हो तथा सभी सम्बन्धितों को लाभ पहुंचाया जा सके।ß
राष्ट्रमण्डल खेलों के आयोजन में करदाता के कुल पैसों का नुकसान लगभग 70,000 करोड़ रूपए है। यह सर्वविदित है कि वित्तीय अनुमोदनों में पीएमओ के कुछ अधिकारी शामिल थे। अब कार्रवाई करने की बजाए दिल्ली की मुख्यमन्त्री श्रीमती शली दीक्षित ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया है और प्रधानमन्त्री पुन: चुप्पी साधे हुए हैं। जैसा कि शुंगलू समिति ने सिफारिश की है, भाजपा यह मांग करती है कि उच्च पदों पर आसीन उन सभी लोगों की पहचान की जाए, उनकी जांच हो तथा उन्हें पर्याप्त दण्ड दिया जाए। भाजपा की यह मांग है कि सीबीआई को दिल्ली सरकार और राष्ट्रमण्डल खेल घोटाले में मुख्यमन्त्री श्रीमती शीला दीक्षित की भूमिका की भी जांच करनी चाहिए। इसमें उनकी संलिप्तता भी स्पष्ट है।
केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) की संस्थागत गरीमा और नैतिकता से समझौता
यपीए सरकार ने केन्द्रीय सतर्कता आयोग के अध्यक्ष के रूप में पीजी थॉमस की नियुक्ति में नैतिकता की सभी सीमाओं को पार कर दिया। वे दागदार थे क्योंकि पामोलीन घोटाले से जुड़े मामलों में उन पर चार्जशीट की गई थी, जो केरल में एक कोर्ट के समक्ष लम्बित थी। जो समिति अनंशंसा करने वाली थी, उसमें प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री के अलावा लोकसभा में विपक्ष की नेता भी शामिल थीं। श्रीमती सुषमा स्वराज ने श्री थॉमस की नियुक्ति का विरोध किया क्योंकि वे भ्रष्टाचार के एक मामले में आरोपी थे। गृहमन्त्री ने गलत बयानी की कि वे दोषमुक्त हो चुके हैं। श्रीमती सुषमा स्वराज का यह अनुरोध कि नियुक्ति को एक दिन के लिए टाल दिया जाए और तथ्यों का पता लगाया जाए या किसी और नाम पर विचार किया जाए, नहीं माना गया। प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री दोनों ने जबर्दस्ती श्री थॉमस की नियुक्ति कर दी। यहां यह उल्लेखनीय है कि पहले दूरसंचार सचिव के रूप में उन्होंने 2जी लाइसेंस देने के बारे में सीएजी की ऑडिट का यह कह कर विरोध किया थ्ज्ञा कि यह एक नीतिगत मामला है और इसका ऑडिट नहीं हो सकता। उसके बाद जो हुआ वह सबको पता है।
सीवीसी एक नैतिक गरिमायुक्त संस्था है। उनकी नियुक्ति को चुनौती देने वाली याचिका पर विचार करते समय उच्चतम न्यायालय ने पाया कि क्व्च्ज् की 2000 से 2004 के बीच की कई नोटिंग, जिसमें श्री थॉमस के विरूद्ध विभागीय कार्रवाई शुरू करने की अनुशंसा की गई थी, चयन आयोग की जानकारी में नहीं लाई गई। कोर्ट ने कहा कि जब सीवीसी जैसी किसी संस्था की नैतिक गरिमा का प्रश्न हो तब जनहित को सर्वोपरि रखा जाना चाहिए और वैयक्तिक नैतिकता और गरिमा का Þनिश्चय ही संस्थागत की नैतिकता गरिमा से सम्बन्ध है।ß तदनुसार, कोर्ट ने कहा कि इस प्रक्रिया में पारदर्शिता का पालन नहीं किया गया तथा यदि किसी सदस्य का विरोध है और बहुमत उसे अस्वीकार करता है तो उसे अवश्य ही इसका कारण बताना चाहिए।
एक प्रधानमन्त्री के रूप में और चयन समिति के अध्यक्ष के रूप में एक दागी अधिकारी की सीवीसी के रूप में नियुक्ति थोपने के लिए डॉ. मनमोहन सिंह पूरी तरह जिम्मेवार हैं। उन्होंने अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि आखिर उन्होंने श्री थॉमस के विरूद्ध नेता प्रतिपक्ष श्रीमती सुषमा स्वराज की एक वैद्य आपित्त को दरकिनार क्यों कियार्षोर्षो
आदर्श कोऑपरेटिव सोसाइटी घोटाला
यह भी भ्रष्टाचार का एक कॉपीबुक मामला था। आदर्श कोऑपरेटिव सोसाइटी को रक्षा मन्त्रालय के नियन्त्रण वाली जमीन कारगिल के नायकों और उनकी विधवाओं के लिए फ्लैट बनाने हेतु मुम्बई के एक महंगे इलाके में दी गई थी। लेकिन, घपलेबाजी और धोखाधड़ी के जरिए इसे नौकरशाहों और राजनीतिज्ञों ने हड़प लिया। जब चव्हाण राजस्व मन्त्री और विलासराव देशमुख मुख्यमन्त्री थे तो सभी नियमों से छेड़छाड़ की गई। यहां तक कि वर्तमान केन्द्रीय मन्त्री और भूतपूर्व मुख्यमन्त्री सुशील कुमार शिन्दे की भूमिका भी सन्देह के घेरे में है। इसके लाभाÆथयों में कांग्रेस के मुख्यमन्त्रियों सहित बड़े नेताओं के अनेक रिश्तेदार शिामल हैं।
यदि कारगिल के नायकों की याद के साथ हुए ऐसे अपमान पर देशभर में क्षोभ उत्पé न हुआ होता तो शायद इसकी भी जांच मुश्किल होती। हालांकि, अभी भी सन्देह कायम है क्योंकि रक्षा विभाग द्वारा प्लाट के स्वामित्व सम्बन्धी फाइल गायब हो गई है। यहां तक कि पर्यावरणीय स्वी—ति वाली फाइल केन्द्रीय पर्यावरण मन्त्रालय से गायब हो चुकी है।
एण्ट्रिक्स कॉरपोरेशन लिमिटेड – देवास मल्टीमीडिया घोटाला
एक और घोटाला अन्तरिक्ष विभाग में प्रकाश में आया है, जो सीधे प्रधानमन्त्री के अधीन है। 2005 में एण्ट्रिक्स कारपोरेशन लि., इसरो की वाणििज्यक शाखा, ने देवास मल्टीमीडिया के लिए दो सैटेलाइट लांच किए और बगैर निलामी या उपयुक्त मूल्य निर्धारण किए सिर्फ 1000 करोड़ रूपए में मोबाइल टेलीफोनी सहित दुर्लभ एस-बैण्ड के बीस वषो± तक 70 डभ्Z के असीमित उपयोग का बड़ा फायदा दिया। यह महत्वपूर्ण है क्योंकि पिछले साल सरकार ने 3जी मोबाइल सेवाओं हेतु इसी तरह की वायु तरंगों हेतु 15 डभ्Z की नीलामी से 67719 करोड़ रूपए कमाए तथा 38000 करोड़ रूपए की उगाही ब्राडबैण्ड वायरलेस एक्सेस सÆवसेज की नीलामी से हुई। इसमें न तो सरकार का कोई अनुमोदन लिया गया और न इसकी निगरानी हुई। इस सौदे के पांच वर्ष बाद इसे निरस्त करने का निर्णय जुलाई, 2010 में लिया गया। राष्ट्रीय खजाने को हुए इस नुकसान की देशव्यापी प्रतिक्रिया के बाद, इस सौदे को अन्तत: फरवरी, 2011 में रद्द किया गया। इसके पूर्व देवास मल्टीमीडिया के अधिकारी सरकार के तथा पीएमओ के उच्चाधिकारियों के सम्पर्क में थे।
अन्तरिक्ष विभाग सीधे प्रधानमन्त्री के अधीन है। जब इस भारी घपले के बारे में उनसे पूछा गया तो उनका जवाब वही था कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं थी। यह बात विचित्र लगती है कि जब कभी किसी अनियमितता के बारे में उनसे पूछा जाता है तो वे अनभिज्ञता का रोना रोते हैं। डॉ. मनमोहन सिंह से हम ये पूछना चाहेंगे कि क्या आप कोई निगरानी नहीं करते अथवा जब कभी कोई भ्रष्टाचार होता है तो उससे आप मुंह फेर लेते हैं।
विदेशी बैंकों में जमा भारतीय नागरिकों का काला धन
भारतीय नागरिकों द्वारा अपराध और भ्रष्टाचार से उपÆजत काले धन को विदेशी बैंकों में जमा करने के सवाल पर सरकार की उदासीनता से लेकर देशभर में गहरी नाराजगी है। पहले जब लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा संसदीय दल के नेता श्री लाल—ष्ण आडवाणी ने यह मुद्दा उठाया था तो कांग्रेस ने इसे चुनावी स्टण्ट बताया था। बाद में कहा गया कि सत्ता में आने के बाद सार्थक कदम उठाए जाएंगे। इस मुद्दे से जुड़े एक पीआईएल में जिस प्रकार उच्चतम न्यायालय ने प्रतिकूल टिप्पणियां की है उससे सरकार की नीयत का पता लगता है। हम सिर्फ बहुविषयी समिति द्वारा अध्ययन और पांच बिन्दुओं वाली रणनीति की बातें सुन रहें हैं। ये सिर्फ दिखावा है और इसमें ऐसा कोई इरादा नहीं कि एक समय-सीमा के भीतर कालेधन का पता लगाया जाए और देशवासियों को बताया जाए। अमेरिका दोहरी कर नीति के बावजूद टैक्स चोरों के नाम जाहिर करने के लिए स्वीस अधिकारियों को मजबूर कर सकता है। भारत अब कोई तीसरी दुनिया की अर्थव्यवस्था नहीं बल्कि एक उभरती हुई आÆथक महाशक्ति है, जिसकी जी-20 राष्ट्रों में अच्छी दखल है। इसका इस्तेमाल आखिर सरकार क्योंकि नहीं करती। भ्रष्टाचार के विरूद्ध संयुक्त राष्ट्र सन्धि जो दिसम्बर 2005 में प्रभावी हुई थी, उसका अनुसमर्थन भारत ने अभी पिछले सप्ताह ही किया है। यह वैश्विक भ्रष्टाचार से लड़ने का एक व्यापक उपकरण है। यदि उच्चतम न्यायालय की निगरानी नहीं होती तो प्रवर्तन निदेशालय और अन्य एजेंसियों को हसन अली की निष्पक्ष जांच नहीं करने दी जाती जो लगभग 76,000 करोड़ रूपए का कर चोर है तथा जिसके कई विदेशी खाते हैं। इसका कारण स्पष्ट है, आरोपित व्यक्तियों की जांच के दौरान कुछ बड़े कांगेसी नेताओं के विरूद्ध भी आरोप लगे हैं।
यूपीए सरकार में घोटाले एक के बाद एक चौंकाने वाली नियमितता से प्रकट होते रहते हैं। अनाज और खाद्य के आयात निर्यात में जितनी भयंकर अनियमितताएं हुई हैं उसकी जानकारी सार्वजनिक है। एफ.सी.आई. के गोदामों में रखा लाखों टन अनाज सड़ गया और गरीब जनता भूख से कराहती रही, ये भी देश जानता है। अब कोयला के ब्लॉक के आबण्टन में भी भयंकर अनिमतताओं की िशकायत सामने आ रही है, जो निजी हाथों में दिए गए हैं। ये आबण्टन उस समय के भी हैं जब डॉ मनमोहन सिंह स्वंय कोयला मन्त्री थे। ऐसे महंगे कोल ब्लॉक गैर सार्वजनिक निजी कम्पनियों और सार्वजनिक प्रतिश्ठानों को आबण्टित किए गए। जिनका काम सवालों के घेरे में था और जिनकी योजनाएं सिर्फ कागज पर थीं।
उपरोक्त उदाहरण यूपीए-1 तथा यूपीए-2 सरकारों की भ्रष्टाचार की सिर्फ मिसालें हैं। नि:सन्देह आजादी के बाद से आज तक किसी भी सरकार पर भ्रष्टाचार के इतने आरोप नहीं लगे। देश ने देखा कि किस तरह शर्मनाम ढंग से रिश्वतखोरी के जरिए डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने लोकसभा में विश्वास प्रस्ताव जीता। आज तक भी दोषियों के विरूद्ध कोई दण्डात्मक कार्रवाई नहीं हुई है। समूची यूपीए सरकार ओटैवियो क्वात्रोच्ची को बचाने में जुटी हुई थी, सिर्फ इसलिए कि गान्धी परिवार से उनकी करीबी थी। सभी को पता है कि कैसे एक सरकारी विधि अधिकारी की गलतबयानी के आधार पर बोफोर्स घोटाले के रिश्वत का पैसा उसके लन्दन बैंक खाते से मुक्त किया गया था। इन घोटालों के कारण देश की जो तबाही हुई है, इसकी जिम्मेवारी से श्रीमती सोनिया गान्धी और डॉ. मनमोहन सिंह बच नहीं सकते। उन्हें जवाब देना होगा। देश को अपने निष्कर्ष निकालने का हक है।
भाजपा इन घपलों और घोटालों को उजागर करती रहेगी और इनके खिलाफ लड़ती रहेगी। भाजपा की मांग है कि अपराध और भ्रष्टाचार से अÆजत भारतीय नागरिको का समस्त काला धन जो विदेशी बैंकों में जमा है, एक निश्चित समय-सीमा के भीतर भारत लाया जानाचाहिए और पर्याप्त कार्रवाई की जानी चाहिए। यह भी जरूरी है कि यूपीए सरकार के विभिé घोटालों में शामिल सभी बड़े-बड़े लोगों पर कोर्रवाई होनी चाहिए।
जिस शर्मनाक तरीके से डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने सार्वजनिक सम्पत्ति और कर दाताओं के पैसे के लूट की छूट दी उस आधार पर उसने शासन करने के सारे नैतिक आधार को खो दिया है। इस कारण भारत और भारतीयों का सिर शर्म से झुक गया है और पूरी दुनिया में देश की बदनामी हुई है।
भारतीय जनता पार्टी देश की जनता का आह्वान करती है कि वह यूपीए सरकार और शासन के दौरान जितने आयोजित और प्रायोजित भ्रष्टाचार हुए हैं उनके खिलाफ निर्णायक संघर्ष के लिए तैयार हो क्योंकि यूपीए का भ्रष्टाचार देश की राजनीति और शासन व्यवस्था को अन्दर से कमजोर और खोखला कर रहा है। जनमत का दबाव इसलिए भी आवश्यक है कि जो दोषी हैं( भले ही उनका कद अथवा पद कुछ भी हो के खिलाफ कार्यवाई हो सके और उन्हें दण्ड मिले।

फेसबुक हाय रे हाय फेसबुक

दिन भर चिपक के बैठे वेवजह बिना तुक
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक

दिन भर लिखे दीवार पे गन्दा किया करे
अलसाये पड़े काम न धंधा किया करे
अपनी अमोल आँखों को अंधा किया करे
प्रोफ़ाइलें निहारीं किसी की किसी का लुक
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक

हर ग्रुप किसी विचार का धड़ा खड़ा करे
रगड़ा खड़ा करे कभी झगड़ा खड़ा करे
मुद्दा कोई हल्का कोई तगड़ा खड़ा करे
कुछ हल न मिला ज्ञान की मुर्गी हुई कुडु़क
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक

किस बात को बिछाएं क्या बात तह करें
कितना विचार लाएं कितनी जिरह करें
किस बात को किस बात से कैसे जिबह करें
तब तक मगज निचोड़ा जब तक न गया चुक
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक

स्क्रीन पे नज़रें गड़ाए जागते रहे
छोड़ी पढाई और ज्ञान बाँटते रहे
पुचकारते रहे किसी को डाँटते रहे
जब इम्तहान आया दिल बोल उठा ‘धुक’
तौबा ऐ फेसबुक मेरी तौबा ऐ फेसबुक

लाइक करूँ कि टैग करूँ या शेयर करूँ
चैटिंग से किसी की भला कितनी केयर करूं
( इसके कवि का नाम नहीं डाल पा रहा हूं क्योंकि यह भूल गया कि इसे कहां से उठाया था। माफ करना दोस्त कविता चूंकि ठीक है इस कारण..........................)

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

: मछलियों की पचास प्रजातियां विलुप्त




मध्य प्रदेश की जीवनरेखा कही जाने वाली पवित्र नदी नर्मदा में प्रदूषण का स्तर घातक स्थिति में पहुंच चुका है. पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि नर्मदा नदी में बढ़ते प्रदूषण और छोटे-बड़े बांधों से पानी में ठहराव के कारण कई स्थानों पर मछलियों के जीवन पर संकट मंडरा रहा है. यह जानकारी नर्मदा समग्र बांद्राभान (होशंगाबाद) में आयोजित अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव में आए विशेषज्ञों ने दी. जलजन्य जीवों पर अध्ययन करने वालों का कहना है कि नर्मदा नदी के निचले इलाक़ों में होशंगाबाद के आसपास मछलियों की 95 प्रजातियां पाई जाती थीं, लेकिन अब उनकी संख्या घटकर 46 रह गई है. छोटी और अल्पजीवी मछलियों की प्रजातियां जल प्रदूषण के कारण नष्ट हुई हैं. यह स्थिति मात्र 15 वर्षों में बनी है. इंदौर की शोध छात्रा बबीता मालाकार के अनुसार, महाशिर प्रजाति की मछलियां एक दशक पहले तक बहुतायत में पाई जाती थीं, लेकिन अब वे कहीं-कहीं कम मात्रा में पाई जाती हैं. महाशिर प्रजाति की मछलियां उथले सा़फ बहते पानी में ही रहने की अभ्यस्त होती हैं और पानी में ही प्रजनन करती हैं. अब इन मछलियों के लिए नदी में उथला बहता सा़फ पानी कहीं-कहीं मुश्किल से बचा है. डॉ. विपिन व्यास ने नर्मदा की अनेक मछली प्रजातियों के विलुप्त होने पर चिंता जताते हुए कहा कि विकास के लिए हमने नदी के प्राकृतिक बहाव को बुरी तरह बदला और प्रदूषित किया है, इसलिए अनेक जलजन्य जीवों और वनस्पतियों की प्रजातियां सदा के लिए विलुप्त हो रही हैं. जैव विविधता भंडार में होने वाली यह क्षति कालांतर में मानव के लिए मुसीबत खड़ी कर सकती है.

आदिवासी क्षेत्रों में बदहाल शिक्षा व्यवस्था

मध्य प्रदेश सरकार आदिवासियों के कल्याण और विकास के भले ही बड़े-बड़े दावे करती हो, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त कुछ और है. तमाम सरकारी प्रयासों के बावजूद आदिवासियों में साक्षरता का प्रतिशत 40 है, जबकि राज्य में साक्षरता का औसत प्रतिशत 63 है. कहने को तो आदिवासी क्षेत्रों में बड़ी संख्या में स्कूल खोले और बच्चों को शिक्षित करने के लिए प्रोत्साहनकारी कार्यक्रम शुरू किए गए हैं, लेकिन आदिवासी बच्चे इनका लाभ नहीं उठा पाते,  क्योंकि सरकारी अमला लापरवाह है. प्राथमिक स्तर पर 60 प्रतिशत और माध्यमिक स्तर पर 55 प्रतिशत बच्चे बीच में ही स्कूल छो़ड देते हैं. सरकारी तर्क है कि ग़रीबी के चलते खेती एवं पशुपालन का काम करने के लिए बच्चे स्कूल छा़ेड देते हैं. आदिवासी स्कूलों में पांच हज़ार से ज़्यादा शिक्षक हैं, इनमें से 638 तो प्राचार्य हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि 638 स्कूल बिना प्राचार्य के चल रहे हैं. हायर सेकेंडरी स्तर के स्कूलों की हालत ऐसी है कि विज्ञान विषय पढ़ाने का काम हिंदी या संस्कृत के शिक्षक को करना पड़ता है. कहीं-कहीं तो पढ़ाई केवल परीक्षा के समय में कुछ दिनों पहले होती है. जहां स्कूल हैं, वहां शिक्षक नहीं हैं. जहां शिक्षक हैं, वहां छात्र नहीं हैं. कहीं ज़रूरत से ज़्यादा शिक्षक हैं तो कहीं बहुत कम. शिक्षा सामग्री, छात्रवृत्ति, गणवेश, बालिकाओं को साइकिल एवं मध्याह्न भोजन आदि प्रोत्साहनकारी सरकारी कार्यक्रमों में भ्रष्टाचार का बोलबाला है.

दलित परिवार क़र्ज़ नहीं लौटाते

मध्य प्रदेश अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम के अधिकारियों की शिक़ायत है कि ग़रीबी रेखा के नीचे के स्तर के अनुसूचित जाति वर्ग के लगभग 16000 व्यक्तियों को बांटे गए 300 करोड़ रुपये के क़र्ज़ में से ज़्यादातर धनराशि वापस नहीं आई है. इस कारण लगभग 150 करोड़ रुपये का क़र्ज़ डूबने की स्थिति में आ गया है. निगम के अधिकारियों का यह भी कहना है कि क़िस्तों में वसूली के लिए क़र्ज़दारों से लगातार संपर्क भी किए जाते हैं, लेकिन फिर भी वे क़र्ज़ नहीं लौटाते. कई क़र्ज़दार अपने दिए गए पते से कहीं और चले गए हैं. निगम ने अब क़र्ज़ देने में बहुत सावधानी बरतनी शुरू कर दी है. कई मामलों में वह क़र्ज़ देने से मना भी करने लगा है. लगता है कि राज्य में रहने वाले लाखों ग़रीब दलित परिवारों से प्रदेश सरकार का भरोसा ख़त्म हो गया है, क्योंकि उनके पुनर्वास एवं स्वरोज़गार के लिए राष्ट्रीय निगमों से मिलने वाले क़र्ज़ पर वित्त विभाग ने गारंटी देने से इंकार कर दिया है. राज्य सरकार के ताज़े रु़ख के बाद राष्ट्रीय निगमों ने भी चालू वित्तीय वर्ष में चल रही योजनाओं के तहत कोई राशि जारी नहीं की है. केंद्र द्वारा दलितों के पुनर्वास एवं स्वरोज़गार के लिए प्रदेश में क़रीब आधा दर्ज़न से ज़्यादा योजनाएं संचालित की जा रही हैं. इनमें स़फाई कामगार पुनर्वास और विकलांगों के स्वरोज़गार की कई बड़ी परियोजनाएं शामिल हैं. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम इन योजनाओं के लिए प्रति वर्ष 50 करोड़ रुपये से ज़्यादा की राशि क़र्ज़ के रूप में उपलब्ध कराता रहा है, लेकिन यह राशि राज्य सरकार की गारंटी पर दी जाती थी. एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि इसे लेकर वित्त विभाग के साथ बैठक भी की गई थी, लेकिन वह गारंटी के लिए राजी नहीं हुआ.

बाज़ार में आने वाला है बीटी आलू

बॉयो टेक्नोलॉजी द्वारा जेनेटिकली मोडिफाइड बैंगन (बीटी बैंगन) का विरोध थमा नहीं कि अब बाज़ार में बीटी आलू उतारने की तैयारी चल रही है. जानकारी के अनुसार, बीटी आलू तैयार हो गया है, लेकिन अभी उसे बाज़ार में उतारने के लिए सही समय और अनुकूल वातावरण की प्रतीक्षा है. पता चला है कि भारत सरकार की आनुवांशिक अभियंत्रण मंजूरी समिति (जीईएसी) के पास इसकी मंजूरी के लिए कोई आवेदन नहीं किया गया है. वैसे भी ताक़तवर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत सरकार की किसी भी संस्था की कोई परवाह नहीं है. यह उन कंपनियों और उनके समर्थक वैज्ञानिकों एवं कृषि विशेषज्ञों का कमाल है. उन्होंने 2002 में भारत सरकार से बीटी कॉटन, बीटी बैंगन आदि के बीजों का कारोबार करने की अनुमति ली थी. बाद में इसका विरोध भी हुआ, लेकिन अभी तक भारत सरकार ने इस मामले में कोई कड़ी कार्यवाही नहीं की है, जबकि मध्य प्रदेश समेत कुछ राज्य सरकारों ने बीटी बैंगन पर प्रतिबंध लगाया है. बीटी आलू के पक्षधरों का कहना है कि इसके बाज़ार में आ जाने से बच्चों में कुपोषण की समस्या से निपटने में मदद मिलेगी. प्रचार किया जा रहा है कि यह आलू पौष्टिक और शरीर के लिए लाभदायक ज़रूरी तत्वों से भरपूर है. यह विटामिन ए की कमी को भी दूर करेगा और इससे भारत में रतौंधी के शिकार लाखों ग़रीबों की आंखों को नया जीवन मिलेगा. जेनेटिकली मोडिफाइड आलू पर अभी तक सभी प्रयोग उसके उत्तकीय प्रजनन पर किए गए हैं. आशय यह कि आलू के टुकड़े काटकर उसे ज़मीन में बोया जाता है. उत्तर भारत में इसे आलू की आंखें लगाना कहते हैं. लैंगिक बीज (फूल-फल लगने) के उपरांत इस प्रजाति के गुण-दोषों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. अभी अंतर आनुवांशिक आलू की स्थिरता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसके लिए लैंगिक प्रजनन के प्रयोगों की ज़रूरत होती है, जो अभी तक नहीं किए गए.

वनभूमि पर अधिकार के दो तिहाई दावे निरस्त

भारत सरकार द्वारा लागू वनाधिकार मान्यता क़ानून के तहत मध्य प्रदेश में वनभूमि पर क़ाबिज़ आदिवासियों-वनवासियों को भू-अधिकार के पट्टे देने की कार्यवाही के तहत बड़ी संख्या में दावों को निरस्त किया जा रहा है. जानकारी के अनुसार, अब तक शासन को लगभग साढ़े तीन लाख दावे प्राप्त हुए हैं, लेकिन उसने केवल एक लाख सात हज़ार दावों को ही मान्य किया है और उनके आधार पर भू-अधिकार देने की कार्यवाही की जा रही है. जबकि दो लाख 41 हज़ार दावे शासन द्वारा निरस्त किए जा चुके हैं. वनमंत्री सरताज सिंह का कहना है कि वनाधिकार कानून में उन्हीं लोगों को भू-अधिकार के पट्टे देने का प्रावधान है, जो 75 वर्षों से वनभूमि पर क़ाबिज़ रहे हैं. 75 वर्षों से भूमि पर अपना क़ब्ज़ा सिद्ध करने में असफल रहने वाले दावेदारों के पट्टे और दावे निरस्त किए जाएंगे. कांग्रेस प्रवक्ता अरविंद मालवीय का कहना है कि शासन वनभूमि को उद्योगों एवं अन्य उपयोग के लिए अपने क़ब्ज़े में रखना चाहता है, इसलिए वर्षों से वनभूमि पर क़ाबिज़ लोगों के दावे निरस्त किए जा रहे हैं. भू-माफिया और खदान मा़फिया के दबाव में आकर पट्टे देने में जानबूझ कर गड़बड़ी की जा रही है. भोपाल संभाग में 8959 दावे मान्य किए गए, जबकि 44,122 दावे निरस्त कर दिए गए. संभाग के रायसेन, सीहोर एवं विदिशा आदि ज़िलों में बड़ी संख्या में आदिवासी सदियों से  वनभूमि पर क़ाबिज़ हैं. नवाबी दौर में भी इन वनवासियों को उनके क़ब्ज़े की भूमि से बेद़खल नहीं किया गया. जबकि आज भारत सरकार द्वारा क़ानून बना दिए जाने के बाद अधिकारी अनपढ़ आदिवासियों और वनवासियों को 75 वर्ष का प्रमाण न मिलने के बहाने भूमि से बेद़खल कर रहे हैं. मालवीय ने कहा कि वन और राजस्व विभाग के छोटे अधिकारी दावेदारों के मामले ग्रामसभा में ले जाने की औपचारिता शरारती तरीक़े से पूरी कर रहे हैं. दावेदारों को इसकी ख़बर नहीं लग पाती और न ही उन्हें ग्रामसभा की बैठकों का पता चलता है. इसलिए निरस्त दावों की दोबारा जांच और समीक्षा की जानी चाहिए.

प्लास्टिक कचरे का ईंधन के रूप में इस्तेमाल

प्लास्टिक कचरे की समस्या से निजात दिलाने के लिए एक आसान हल निकाला गया है. इस कचरे को सीमेंट कारखानों में ईंधन के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा है और इसके अच्छे नतीजे भी मिल रहे हैं. मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की वार्षिक रिपोर्ट 2008-09 के अनुसार, इस वर्ष राज्य के सतना, नीमच, कटनी, दमोह और रीवा के कारखानों में 300 टन प्लास्टिक कचरा बतौर ईंधन उपयोग किया गया है. इससे कोयले की बचत भी हुई और अनुपयोगी प्लास्टिक कचरा सुरक्षित रूप से नष्ट भी कर दिया गया. मध्य प्रदेश के शहरों में प्रतिदिन औसतन 44 मैट्रिक टन से अधिक ठोस कचरा निकलता है, जिसमें 2 से 8 प्रतिशत तक प्लास्टिक कचरा होता है. कम तापमान पर प्लास्टिक जलाने से ज़हरीली और हानिकारक गैसें निकलती हैं, जो प्राणी और वनस्पति जगत के लिए हानिकारक होती हैं. सीमेंट कारखानों में 1400 से 1450 डिग्री तक तापमान में यह कचरा जलाने से हानिकारक गैसें आग के साथ ही नष्ट हो जाती हैं. इसलिए प्रदूषण का ख़तरा भी नहीं रहता.

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बुधवार, 27 जुलाई 2011

नीतीश जी के सुशासन का खुल गया पोल

 नालंदा का डी.एम.संजय कुमार अग्रवाल

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के घर-जिले नालंदा में आज एक चौंकाने वाली बात उभरकर सामने आई है. यहाँ पदास्थापित डी.एम. संजय कुमार अग्रवाल जो श्री कुमार के अत्यंत विश्वासपात्र प्रशासनिक आला अधिकारी माने जाते है.उनकी भी सारी गतिविधियाँ महज मीडीया की चौखट तक ही सीमित नज़र आती है और इस सन्दर्भ में विश्लेषक उन्हेंमीडीया मैनेजमेंटके माहिर अधिकारी बताते है.
वहारहाल, आज नालंदा में डी.एम. श्री अग्रवाल नेजनता दरबारलगाई थी.यह दरबार जनसमस्याओं को लेकर कम और स्थानीय अखबारों में सुर्खियाँ पाने को लेकर अधिक चर्चित रहा है.यहाँ सबसे दुर्भाग्यजनक पहलू है कि अखबारों से जुड़े लोगों के लिए भी पत्रकारिता कोई व्यवसाय नहीं अपितु धंधा बन गया है.
कहते हैं कि जिले के हिलसा अनुमंडल के नगरनौसा प्रखंड-अंचल के रामपुर पंचायत अंतर्गत लोदीपुर गांव निवासी एक व्यक्ति ने जनता दरबार में डी.एम. संजय कुमार अग्रवाल से शिकायत करते हुये बताया कि एन.एच.३०() अवस्थित बोधीबिघहा रामघाट से रामपुर पंचायत भवन तक प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क निर्माण योजना के तहत मार्ग-निर्माण में ठेकेदार ने रात्रिकाल में अपनी दवंगता दिखाते हुये उनकी रैयती जमीन के एक हिस्से को गढ्ढा कर दूसरे हिस्से को भर दिया.जबकि सरकारी तौर पर उसे इस सन्दर्भ में कोई आदेश-निर्देश नहीं दिया गया था.जिला प्रशासन के अधिकारिओं ने तब उक्त ठेकेदार की दबंगई को सही करार देते हुये शिकायतकर्ता के कुल १४ डीसमील जमीन पर जबरन कार्य करने की पुष्टि की थी और न्यायोचित कार्रवाई करने का भरोसा दिया था.लेकिन आज जब जनता दरबार में जिले के डी.एम. का लिखित ध्यान इस ओर दिलाया गया तो इस श्रीमानजी का जबाब समूचे शासन व्यवस्था को झकझोर कर रख देता है.शिकायतकर्ता को डी.एम.साहेब का कहना था कि कार्रवाई करना या जमीन का मुआबजा देना सरकार का काम है और वे सरकार नहीं हैं. इसके आगे डी.एम.अग्रवाल साहेब ने जो जबाब दिया उसे सुनने पर किसी का भी माथा ठनक जाएगा. इस साहब का कहना था कि वे अधिक से अधिक शिकायतकर्ता की जमीन वापस कर सकते हैं.
सच पूछिए तो नालंदा के डी.एम.संजय कुमार अग्रवाल ने जिस लहजे में शिकायतकर्ता की समस्या को सुलझाने/टरकाने का प्रयास किया.,उस तरह का अंदाज किसी आईपीएस अधिकारी से उम्मीद नहीं की जा सकती और हीं शोभा ही देता है.यह तो एक चपरासी को भी मालूम होता है कि एक जिले में डी.एम. का पद तथा उसकी जबाबदेही किस तरह की होती है

अरविंद कुमार -शब्द

--अरविंद कुमार


शब्द
 भाषा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण और अपरिहार्य कड़ी है. जब हम वाचिक या लिखित भाषा की बात करते हैँ तो शब्द का केवल एक अर्थ होता है : एकल, स्वतंत्र, सार्थक ध्वनि. वह ध्वनि जो एक से दूसरे तक मनोभाव पहुँचाती है. संसार की सभी संस्कृतियोँ मेँ इस सार्थक ध्वनि को बड़ा महत्व दिया गया है. संस्कृत ने शब्द को ब्रह्म का दर्जा दिया है. शब्द जो ईश्वर के बराबर है, जो फैलता है, विश्व को व्याप लेता है. ग्रीक और लैटिन सभ्यताओँ मेँ शब्द की, लोगोस की, महिमा का गुणगान विस्तार से है. ईसाइयत मेँ शब्द या लोगोस को कारयित्री प्रतिभा (क्रीएटिव जीनियस) माना गया है. कहा गया है कि यह ईसा मसीह मेँ परिलक्षित ईश्वर की रचनात्मकता ही है.
आज भाषा सीखने की क्षमता या कुछ कहने की शक्ति आज के मानव, होमो सैपिएंस, के मन मस्तिष्क का, यहाँ तक कि अस्तित्व का, अंतरंग अंग है. लगभग 50,000 साल पहले इस शक्ति के उदय ने मानव को सामाजिक संगठन की सहज सुलभ क्षमता प्रदान की और आदमी को प्रकृति पर राज्य कर पाने मेँ सक्षम बनाया. इसी के दम पर सारा ज्ञान और विज्ञान पनपा. शब्दोँ और वाक्योँ से बनी भाषा के बिना समाज का व्यापार नहीँ चल सकता. आदमी अनपढ़ हो, विद्वान हो, वक्ता हो, लेखक हो, बच्चा हो या बूढ़ा हो सभी को कुछ कहना है तो शब्द चाहिए, भाषा चाहिए. वह बड़बड़ाता भी है तो भी शब्दोँ मेँ, भाषा मेँ. धरती से बाहर अगर कभी कोई बुद्धियुक्त जीव जाति पाई गई तो उस मेँ संप्रेषण का रूप कुछ भी हो, उस के मूल मेँ किसी प्रकार की व्याकृता वाणी ज़रूर होगी, शब्द ज़रूर होगा.
शब्द के बिना भाषा की कल्पना करना निरर्थक है. शब्द हमारे मन के अमूर्त भाव, इच्छा, आदेश, कल्पना का वाचिक प्रतीक, ध्वन्यात्मक प्रतीक है-- दूसरोँ से कुछ कहने का माध्यम, भाव के संप्रेषण का साधन.
शब्द का मूल अर्थ है ध्वनि. शब्द जब मौखिक था, तो मात्र हवा था. उस का अस्तित्व क्षणिक था. वह क्षणभंगुर था. शब्द को लंबा जीवन देने के लिए कंठस्थ कर के, याद कर के, वेदोँ को अमर रखने की कोशिश की गई थी. वेदोँ को कंठस्थ करने वाले वेदी, द्विवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी ब्राह्मणोँ की पूरी जातियाँ बन गईँ जो अपना अपना वेद पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखती थीँ. इसी प्रकार क़ुरान को याद रखने वाले हाफ़िज कहलाते थे.

लिपि का आगमन और लेखन विधियोँ का विकास

शब्द को याददाश्त की सीमाओँ से बाहर निकाल कर देशकालांतरीय करने के लिए, लंबा जीवन देने के लिए, लिपियाँ बनीँ. लिपियोँ मेँ अंकित हो कर शब्द निराकार से साकार हो गया. वह ताड़पत्रोँ पर, पत्थरोँ पर, अंकित किया जाने लगा. काग़ज़ आया तो शब्द लिखना और भी आसान और सुलभ हो गया. ताड़पत्रोँ के मुक़ाबले काग़ज़ अनेक सुविधाएँ ले कर आया. ताड़पत्र का आकार सीमित था. काग़ज़ को इच्छानुसार साइज़ मेँ बनाया जा सकता था. ताड़पत्र पर लिखने के लिए अकसर उकेरा जाता था. काग़ज़ पर लिखने के लिए स्याही से काम चल जाता था.
लिपि ने ही शब्द को स्थायित्व दिया. काल और देश की सीमाओँ से बाहर निकल कर शब्द व्यापक हो गया. अब वह एक से दूसरे देश और एक से दूसरी पीढ़ी तक आसानी से ले जाया जा सकता था. मुद्रण कला के आविष्कार से मानव ज्ञान के विस्तार के महाद्वार खुले, तो अब इंटरनेट सूचना का महापथ और ज्ञान विज्ञान का अप्रतिम भंडार बन गया है. बिजली की गति से हम अपनी बात सात समंदर पार तत्काल पहुँचाते हैँ. (यही नहीँ, एक बार जो सूचना इंटरनैट पर डाल दी गई, वह जब तक इलैक्ट्रोनिक मीडियम है, और जब तक उसे जान बूझ कर डिलीट नहीँ किया जाता, तो वह सब को उपलब्ध रहेगी. उस के आवागमन पर किसी सरकार का कोई अधिकार नहीँ रहता. हालाँकि अब यह देखने मेँ आ रहा है कि कुछ सरकारेँ उस पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश कर रही हैँ.)
हमारा संबंध केवल वाचिक और लिखित शब्द मात्र से है, लिपि कोई भी हो, भाषा कोई भी हो, हिंदी हो, अँगरेजी हो, या चीनीएक लिपि मेँ कई भाषाएँ लिखी जा सकती हैँ. जैसे देवनागरी मेँ हिंदी और मराठी, और नेपालीहिंदी के लिए मुंडी जैसी पुरानी कई लिपियाँ थीँहिंदी के कई काव्य ग्रंथ उर्दू लिपि मेँ लिखे गए. आज उर्दू कविताएँ देवनागरी मेँ छपती और ख़ूब बिकती हैँ. रोमन लिपि मेँ यूरोप की अधिकांश भाषाएँ लिखी जाती हैँ. रोमन मेँ हिंदी भी लिखी जाती है. ब्रिटिश काल मेँ सैनिकोँ को रोमन हिंदी सिखाई जाती थी. आज इंटरनेट पर कई लोग हिंदी पत्र व्यवहार रोमन लिपि मेँ ही करते हैँ. अरविंद लैक्सिकन इंटरनेट पर मिलने वाला हमारा नवीनतम और सदा नवीकरण की दशा मेँ रहने वाला महा ई-कोश है. उस मेँ हिंदी शब्दोँ के रोमन रूप भी दिए गए हैँ. यह इस लिए किया गया है कि देवनागरी न जानने वाले लोग भी हिंदी शब्द जान सकेँ. रोमन मेँ आजकल संसार की कई अन्य भाषाएँ लिखने के कई विकल्प मिलते हैँ.
चीनी, जापानी या प्राचीन मिस्री भाषाएँ चित्रोँ मेँ लिखी जाती हैँ. चित्रोँ मेँ लिखी लिपि का आधुनिकतम रूप शार्टहैंड कहा जा सकता है. चित्र लिपियोँ मेँ अक्षरोँ का होना आवश्यक नहीँ है. लेकिन जो बात अक्षर अक्षर जोड़ कर लिखी जाने वाली सब भाषाओँ और लिपियोँ मेँ कामन है, एक सी है, समान है, वह है शब्द. ऐसी हर भाषा शब्दोँ मेँ बात करती है. शब्द लिखती सुनती और पढ़ती है.
हर भाषा का अपना एक कोड होता है. इसी लिए भाषा को व्याकृता वाणी भी कहा गया है, नियमोँ से बनी और बँधी सुव्यवस्थित क्रमबद्ध बोली. शुरू मेँ यह कोड लिखा नहीँ गया था. सब मन ही मन यह कोड जानते थे. पढ़ेँ या नहीँ फिर भी हम सब यह कोड जानते हैँ. यह कोड किसी भी समाज के सदस्योँ के बीच एक तरह का अलिखित अनुबंध है. लिखना पढऩा सीखने से पहले बच्चा यह कोड समझ चुका होता और भाषा बोलने लगता है.
आम आदमी भाषा बनाता है, बाद मेँ विद्वान मग़ज़ खपा कर उस के व्याकरण और कोश बनाते हैँ. एक बार फिर आम आदमी उन कोडोँ को तोड़ता हुआ नए शब्द बनाने लगता है, शब्दोँ के रूप और अर्थ बदलता रहता है. कोडोँ की सीमाएँ लाँघती, बाढ़ मेँ आई नदियोँ की तरह किनारे तोड़ती भाषाएँ नई धाराएँ बना लेती हैँ. पहले तो विद्वान माथा पीटते हैँ, इस प्रवृति को उच्छृंखलता कहते हैँ, भाषा का पतन कहते हैँ, फिर बाद मेँ नए कोड बनाने मेँ जुट जाते हैँ. अपनी ज़बान के मामले मेँ आम आदमी विद्वानोँ की क़तअन परवाह नहीँ करता...
भाषाओँ को विकारोँ से बचाने के लिए विद्वान व्याकरण बनाते हैँ, शब्दकोश बनाते हैँ. जानसन और वैब्स्टर जैसे कोशकारोँ ने लिखा है कि उन का उद्देश्य था इंग्लिश और अमरीकन इंग्लिश को स्थाई रूप देना, उसे बिगडने से बचाना. उन के कोश आधुनिक संसार के मानक कोश बने. लेकिन हुआ क्या? उन के देखते देखते भाषा बदल गई, नए शब्द आ गए. फिर कोशोँ के नए संस्करण बनने लगे. आजकल अँगरेजी के कोशोँ मेँ हर साल हजारोँ नए शब्द डाले जाते हैँ. यही जीवित भाषाओँ का गुण है. हिंदी भी नए शब्द बनाने और ज़रूरी शब्द बाहर से लेने मेँ किसी से पीछे नहीँ रही है. अंतर केवल इतना है कि हमारे यहाँ अभी तक कोशोँ मेँ नए शब्द हर साल डालने की प्रथा नहीँ चली है.
यहाँ यह कहना अनुचित न होगा कि हमारा ई-कोश अरविंद लैक्सिकन वार्षिक नवीकरण से भी आगे बढ़ कर सतत नया होता रहेगा. हमारा संपादन विभाग उस मेँ नए शब्द डालता रहेगा, और हर कमी को दूर करता रहेगा. कारण यह है कि वह मुद्रित या सीडी/डीवीडी पर लेखांकित न हो कर इंटरनैट पर होगा. जब भी कोई सुधार होगा, वह हर यूज़र को तत्काल उपलब्ध हो जाएगा...

कोशकारिता का जन्म कब और कहाँ

पश्चिमी देश हमेशा दावा करते हैँ कि कोशकारिता का आरंभ वहाँ हुआ था. वहाँ कोशोँ के किसी इतिहास मेँ भारत का ज़िक्र नहीँ होता. रोजट भी इस भ्रम मेँ थे कि उन का थिसारस संसार का पहला थिसारस है. पुस्तक छपते छपते उन्हों ने सुना कि संस्कृत मेँ किसी अमर सिंह ने यह काम छठी सातवीँ सदी मेँ ही कर लिया था. कहीं से अमर कोश का कोई अँगरेजी अनुवाद उन्हों ने मँगाया, इधर उधर पन्ने पलट कर देखा और भूमिका मेँ फ़ुटनोट मेँ टिप्पणी कर दी कि मैँ ने अभी अभी अमर कोश देखा, बड़ी आरंभिक क़िस्म की बेतरतीब बेसिरपैर की लचर सी कृति है. काश, वह यह बात समझ पाए होते कि हर कोश की तरह अमर कोश भी अपने समसामयिक समाज के लिए बनाया गया था.
असल मेँ सभ्यता और संस्कृति के उदय से ही आदमी जान गया था कि भाव के सही संप्रेषण के लिए सही अभिव्यक्ति आवश्यक है. सही अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द का चयन आवश्यक है. सही शब्द के चयन के लिए शब्दोँ के संकलन आवश्यक हैँ. शब्दोँ और भाषा के मानकीकरण की आवश्यकता समझ कर आरंभिक लिपियोँ के उदय से बहुत पहले ही आदमी ने शब्दोँ का लेखा जोखा रखना शुरू कर दिया था. इस के लिए उस ने कोश बनाना शुरू किया. कोश बनाने की शानदार भारतीय परंपरा वेदोँ जितनी, कम से कम पाँच हज़ार साल पुरानी है. प्रजापति कश्यप का निघंटु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है. इस मेँ 1800 वैदिक शब्दोँ को इकट्ठा किया गया था. निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या निरुक्त संसार का पहला शब्दार्थ कोश और विश्वकोश यानी एनसाइक्लोपीडिया है. इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीँ सदी मेँ लिखा अमर सिंह कृत नामलिंगानुशासन या त्रिकांड जिसे सारा संसार अमर कोश के नाम से जानता है.
भारत के बाहर संसार मेँ शब्द संकलन का एक प्राचीन प्रयास अक्कादियाई संस्कृति की शब्द सूची है. यह शायद ईसा पूर्व सातवीँ सदी की रचना है. ईसा से तीसरी सदी पहले का चीनी भाषा का कोश है ईर्या.
आधुनिक कोशोँ की नीँव डाली इंग्लैंड मेँ 1755 मेँ सैमुएल जानसन ने. उन की डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज (Samuel Johnsons Dictionary of the English Language) ने कोशकारिता को नए आयाम दिए. इस मेँ परिभाषाएँ भी दी गई थीँ.
असली आधुनिक कोश आया इक्यावन साल बाद 1806 मेँ. अमरीका मेँ नोहा वैब्स्टर की ए कंपैंडियस डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज (Noah Websters A Compendious Dictionary of the English Language) प्रकाशित हुई. इस ने जो स्तर स्थापित किया वह इंग्लिश मेँ इस से पहले कभी नहीँ हुआ था. साहित्यिक शब्दावली के साथ साथ कला और विज्ञान क्षेत्रोँ को स्थान दिया गया था. कोश सफल हुआ. वैब्स्टर के बाद अँगरेजी मेँ कोशोँ के रिवीज़न और नए कोशोँ के प्रकाशन का व्यवसाय तेज़ी से बढ़ने लगा. आज छोटे बड़े हर शहर मेँ, विदेशोँ मेँ तो हर गांव मेँ, किताबों की दुकानेँ हैँ. हर दुकान पर कई कोश मिलते हैँ. हर साल कोशोँ मेँ नए शब्द शामिल किए जाते हैँ.
अपने कोशोँ के लिए वैब्स्टर ने 20 भाषाएँ सीखीँ ताकि वह अँगरेजी शब्दोँ के उद्गम तक जा सके. उन भाषाओँ मेँ संस्कृत भी थी. तभी उस कोश मेँ अनेक अँगरेजी शब्दोँ का संस्कृत उद्गम तक वर्णित है. मैँ पिछले तीस सालों से वैब्स्टर कोश का न्यू कालिजिएट संस्करण काम मेँ ला रहा हूँ. मुझे इस मेँ मेरे काम की हर ज़रूरी सामग्री मिल जाती है. यहाँ तक कि यूरोपीय मूल वाले अँगरेजी शब्दोँ के संस्कृत स्रोत भी. समांतर कोश के द्विभाषी संस्करण द पेंगुइन इंग्लिश–हिंदी/हिंदी–इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी पर काम करते करते कई बार तो अनपेक्षित जगहोँ पर भी शब्दोँ के संस्कृत मूल मिल गए. पता चला कि ईक्विवैलेंट, बाईवैलेंट जैसे शब्दोँ के मूल मेँ है संस्कृत का वलयन. एअर यानी हवा का मूल संस्कृत ईर मेँ है, सोनिक के मूल मेँ हैँ संस्कृत के स्वन और स्वानिक. कई बार मैँ सोचता था काश, डाक्टर रघुवीर की टीम ने और बाद मेँ तकनीकी शब्दावली बनाने वाले सरकारी संस्थानोँ ने ये संस्कृत मूल जानने की कोशिश की होती. उन के बनाए शब्दोँ को एक भारतीय आधार मिल जाता और लोकप्रियता सहज हो जाती. ख़ैर, उन लोगोँ ने जो किया वह भी भागीरथ प्रयास था.

कोश कई तरह के होते हैँ

किसी भाषा के एकल कोश, जैसे अँगरेजी कोश या हिंदी से हिंदी के कोश. इन मेँ एक भाषा के शब्दोँ के अर्थ उसी भाषा मेँ समझाए जाते हैँ. कोश द्विभाषी भी होते हैँ. जैसे संस्कृत से अँगरेजी के कोश. सन् 1872 मेँ छपी सर मोनिअर मोनिअर-विलियम्स की (बारीक़ टाइप मेँ 8.5”x11.75” आकार के तीन कालम वाले एक हज़ार तीन सौ तैंतीस पृष्ठों की अद्वितीय) संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी इस का अनुपम उदाहरण है. या आजकल बाज़ार मेँ मिलने वाले ढेर सारे अँगरेजी हिंदी कोश और हिंदी अँगरेजी कोश. एक भाषा जानने वाले को दूसरी भाषा के शब्दोँ का ज्ञान देना इन का उद्देश्य होता है. जिस को जिस भाषा मेँ पारंगत होना होता है या उस के शब्दोँ को समझने की ज़रूरत होती है, वह उसी भाषा के कोशोँ का उपयोग करता है.)
किसी भी तरह का ज्ञान प्राप्त करने की कुंजी कोश है. मोनिअर विलियम्स के जमाने मेँ अँगरेज भारत पर राज करने मेँ सुविधा के लिए हमारी संस्कृति और भाषाओँ को पूरी तरह समझना चाहते थे, इस लिए उन्हों ने ऐसे कई कोश बनवाए. आज हम अँगरेजी सीख कर सारे संसार का ज्ञान पाना चाहते हैँ तो हम अँगरेजी से हिंदी के कोश बना रहे हैँ. हमारे समांतर कोश और उस के बाद के हमारे ही अन्य कोश भी हमारे देश की इसी इच्छा आकांक्षा के प्रतीक हैँ, प्रयास हैँ.

मुझे शब्दकोश बनाने का विचार कब ओर कैसे आया

मैँ मेरठ शहर के म्युनिसिपल स्कूल मेँ पढ़ा. सन् 45 मेँ दिल्ली से मैट्रिक किया. मैट्रिक का इम्तहान देते ही मुझे कनाट सरकस मेँ दिल्ली प्रैस मेँ छापेख़ाने का काम सीखने बालश्रमिक के रूप मेँ जाना पड़ा. उस समय मेरी उम्र पंदरह साल थी. बोर्ड के दसवीँ के परिणाम आने पर चार विषयोँ मेँ हिंदी, संस्कृत, गणित और अँगरेजी मेँ डिस्टिंक्शन आई थी. मैँ आगे पढ़ना चाहता था, लेकिन आर्थिक कारणोँ से संभव नहीँ हो सका. मुझे नौकरी करने के लिए विवश होना पड़ा.
मेरे भावी समांतर कोश और हाल ही मेँ प्रकाशित द पेंगुइन इंग्लिश–हिंदी/हिंदी–इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी की दिमाग़ी नीँव वहीँ पड़ी. मैँ ने वहाँ देखा और सीखा (उस ज़माने की तकनीक मेँ) एक एक अक्षर या उस का टाइप कैसे ख़ानोँ मेँ रखा होता है, जुड़ जुड़ कर छपता है, छप जाने के बाद फिर उन्हीं ख़ानोँ मेँ वापस रख दिया जाता है. मैँ ने सीखा कैसे हम अपनी आवश्यकता के अनुसार ये टाइप रखने के ख़ाने और ख़ानोँदार केस कम ज़्यादा कर सकते हैँ. टाइपोँ का वर्गीकरण कर सकते हैँ, रैकोँ मेँ रख सकते हैँ, मुद्रण मेँ काम आने वाली अन्य सामग्री रखने के लिए डिब्बे बना सकते हैँ. फिर जब कंपोज़िंग करने लगा, तो मैँ ने सीखा कैसे एक एक अक्षर जोड़ा जाता है, कैसे एक के बाद एक शब्द रख कर पंक्तियाँ बनती हैँ. कैसे ये पंक्तियाँ पैरा बनती हैँ, गेली बनती हैँ, पेज बनते हैँ और बनते हैँ पूरा लेख, किताब, पत्रिका, अख़बार.
छापेख़ाने मेँ कई काम किए. कई काम सीखे. कंपोज़िंग, मशीन मैनी, बुक बाइंडिंग, ख़ज़ाँचीगीरी, अँगरेजी हिंदी टाइपिंग आदि. इस के साथ साथ शाम के समय मैट्रिक से आगे की पढ़ाई. ऐफ़ए, बीए, और अँगरेजी साहित्य मेँ एमए..
इस बीच मैँ छापेख़ाने मेँ प्रूफ़ रीडर बना. मेरे लिए नए दरवाजे खुलने लगे. धीरे धीरे सरिता, कैरेवान पत्रिकाओँ के संस्थापक संपादक विश्वनाथ जी मुझे बढ़ावा देने लगे. पहले सरिता मेँ उप संपादक बनाया. अब लेखकोँ की रचनाएँ पढऩे लगा, उन पर कमैँट देने लगा. रचना अच्छी हो या बुरी, पढ़नी पड़ती. अच्छे बुरे का विवेक जागने लगा. स्वीकृत रचनाओँ का संपादन करने लगा. अँगरेजी से हिंदी मेँ अनुवाद.
जब विश्वनाथजी आश्वस्त हो गए कि मैँ अच्छी खासी हिंदी लिख लेता हूँ और अँगरेजी की समझ मुझ मेँ पनपने लगी है, जब उन्हों ने देखा कि मैँ ने शाम को बीए मेँ दाख़िला ले लिया है और मेरी रुचि अँगरेजी के साथ साथ विश्व साहित्य और आधुनिक ज्ञान विज्ञान मेँ हो गई है, तो उन्हों ने मुझे हिंदी से अँगरेजी मेँ धकेल दिया. पहले मैँ सरिता मेँ था, अब मैँ अँगरेजी की कैरेवान पत्रिका मेँ उप संपादक बन गया.
मेरे बहुत से कामोँ मेँ एक था हिंदी से अँगरेजी मेँ अनुवाद. हिंदी से अँगरेजी कोश बहुत अच्छे नहीँ थे. अब भी कुल एक दो कोश हैँ जो कामचलाऊ कहे जा सकते हैँ. उन मेँ मुझे संतोषप्रद अँगरेजी के शब्द न मिलते थे. मात्र इतना संतोष था कि मुझे यह पता चलने लगा था कि कौन सा शब्द मेरे संदर्भ मेँ उपयुक्त नहीँ है.
इन्हीँ दिनोँ मुझे एक अनोखी पुस्तक के बारे मेँ पता चला. पुस्तक का पूरा नाम था रोजट्स थिसारस ऑफ इंग्लिश वर्ड्स एण्ड फ़्रेज़ेज़. संक्षेप मेँ उसे रोजट्स थिसारस ही कहते हैँ. मैँ ने यह छोटी सी किताब तुरंत ख़रीद ली. फ़्राँसीसी मूल के कला नाटक समीक्षक, इंजीनियर, वैज्ञानिक पीटर मार्क रोजट ने इस किताब मेँ शब्दोँ का संकलन एक बिल्कुल नए क्रम से किया था. रोजट की हालत भी मेरे जैसे ही हुआ करती थी. उसे शब्द चाहिए होते थे, मिलते नहीँ थे. उस ने अपने निजी काम के लिए जो सूची बनाई, वही बाद मेँ महान पुस्तक बन गई. 1852 मेँ छपते ही यह पुस्तक लोकप्रिय हो गई थी. इस के छपने के 101 साल बाद दिल्ली मेँ मैँ ने इस का जो संस्करण ख़रीदा वह लगभग इसी आउटडेटड संस्करण का पुनर्मुद्रण था.
यह था मेरे जीवन का सबसे बढिय़ा ख़ज़ाना जो मुझे मिला. मानो किसी ने मुझे अली बाबा की शब्दोँ की रत्नोँ की गुफ़ा मेँ घुसने का सिम सिम खुल जा मंत्र बता दिया हो. दिन मेँ कैरेवान के संपादन विभाग मेँ काम करता था, रात मेँ बीए मेँ पढ़ रहा था. सारी पढ़ाई अँगरेजी मेँ होती थी. हिंदी से अँगरेजी मेँ अनुवाद करना होता था. दूसरोँ के अँगरेजी मेँ लिखे को जहाँ तक हो सके सुधारना होता था. नए नए शब्दोँ की ज़रूरत होती. लेखक के किसी एक शब्द के लिए मैँ दूसरा कौन सा शब्द डालूँ, इस मेँ कोशोँ से सहायता मिलती ही नहीँ थी. अब रोजट मेँ मुझे अधिकाधिक शब्द मिलने लगे.
पहले तो मैँ रोजट की किताब केवल शब्द खोजने के लिए खोलता था. कोई भी पन्ना खोलता और ठगा सा रह जाता. फिर तो जब चाहे किताब खोलना, पढऩा, पढ़ते रहना मेरे लिए लाभप्रद मनोरंजन बन गया.
परिस्थितियोँ ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि 1963 मेँ टाइम्स आफ़ इंडिया की नई फ़िल्मी पत्रिका माधुरी का संपादक हो गया. यहाँ काम करते करते दस साल हो गए थे. मेरे मन मेँ आया कि हिंदी मेँ किसी ने थिसारस नहीँ बनाया है तो इस का मतलब मुझे बनाना है. इच्छा मेरी है तो मुझे ही पूरी करनी होगी. मैँ सुबह घूमने के लिए हैँगिंग गार्डन जाता था. 26 दिसंबर 1973 की उस सुबह मैँ ने अपनी पत्नी कुसुम कुमार से इस योजना का ज़िक्र किया. वह तुरंत तैयार हो गईँ.
19 अप्रैल 1976 की सुहावनी सुबह नासिक तीर्थ मेँ गोदावरी नदी मेँ स्नान करने के बाद पहला कार्ड बनाया और काम बाक़ायदा शुरू हो गया. इस काम को पूरा करने मेँ 20 साल लगे. समांतर कोश का प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट ने किया. इस की पहली प्रति मैँ ने और कुसुम ने तत्कालीन राष्टपति डा. शंकरदयाल शर्मा को 13 दिसंबर 1996 को भेँट की.

शब्दकोश और थिसारस मेँ अंतर

अच्छा कोश हमेँ शब्द का मर्म समझाता है. एक से अधिक अर्थ देता है, और कभी एक से ज़्यादा समानार्थी शब्द भी. लेकिन ये एकाधिक शब्द कोई बहुत ज़्यादा नहीँ होते. बड़े कोश भाषा समझने के लिए शब्दोँ की व्युत्पत्ति भी बताते हैँ. कुछ कोश प्रिस्क्रिपटिव या निदानात्मक/निदेशात्मक कहलाते हैँ. वे यह भी बताते हैँ कि अमुक शब्द आंचलिक है, सभ्य है या अशिष्ट. वे शब्द के उपयोग की विधि भी बताते हैँ. ऐसे अधिकारिक कोश मैँ ने हिंदी मेँ नहीँ देखे हैँ.
कोशकारिता पूरी तरह सामाजिक प्रक्रिया है. हर कोश अपने समसामयिक संदर्भ मेँ रचा जाता है. कोशकार को ध्यान रखना पड़ता है कि उस का उपयोग करने वाले लोगोँ की ज़रूरतें क्या हैँ, वे कोश को किस संदर्भ मेँ देखेँगे, उस से लाभ उठाएँगे. जो कोश बच्चोँ के लिए लिखा गया है वह एमए के छात्र के लिए नाकाफ़ी है. वनस्पति शास्त्र या भौतिकी के विद्यार्थी को जो कोश चाहिए उस मेँ किसी भी फल, पेड़, वस्तु के बारे मेँ वैज्ञानिक जानकारी होनी चाहिए. बच्चोँ के कोश मेँ किसी शब्द के मोटे मोटे अर्थ लिखे जा सकते हैँ. उच्च स्तर के कोश मेँ परिभाषाएँ भी होनी चाहिए. यह अलग बात है कि अभी तक हिंदी के किसी कोश मेँ परिभाषाओँ का स्तर संतोषजनक नहीँ है. न हिंदी के किसी एकल कोश मेँ, न किसी अँगरेजी हिंदी कोश मेँ. अब हम अपने अरविंद लैक्सिकन मेँ यह कमी पूरी कर रहे हैँ.
मैँ ने अपने संपादन काल मेँ अनुभव किया कि शब्दकोश से हमेँ लेखन मेँ, संपादन मेँ बहुत सहायता नहीँ मिलती. अनुवाद मेँ भी जो सहायता मिलती है वह आधी अधूरी होती है. संक्षेप मेँ कह सकते हैँ कि शब्दार्थ कोश लेखक के लिए नहीँ होता. वह उस के काम आता है जो किसी अज्ञात शब्द का अर्थ जानना चाहता है या वह विद्यार्थियोँ के काम की चीज़ है.
कोश और थिसारस के क्षेत्र अलग अलग हैँ. शब्दकोश और थिसारस मेँ बहुत अंतर होता है.
एक सूत्र वाक्य मेँ कहें तो शब्दकोश शब्द को अर्थ देता है, थिसारस अर्थ को, विचार को,
शब्द देता है.
मुझे रात के लिए अँगरेजी शब्द चाहिए तो मैँ हिंदी अँगरेजी कोश खोलूँगा. यदि नाइट की हिंदी चाहिए तो इंग्लिश हिंदी डिक्शनरी काम मेँ लाऊँगा. लेकिन मुझे रात का पर्यायवाची चाहिए, या दिन का या राम का या रावण काया मुझे समय बताने वाले किसी उपकरण का नाम चाहिए, तो इस दिशा मेँ कोई कोश हमारी कैसी भी मदद नहीँ करता. यहाँ काम आता है थिसारस.
थिसारसकार यह मान कर चलता है कि थिसारस को काम मेँ लाने वाले किसी लेखक, अनुवादक, विज्ञापन लेखक, या आप को और मुझे भाषा आती है. लेकिन हमेँ किसी ख़ास शब्द की तलाश है. वही रात वाला उदाहरण आगे बढ़ाता हूँ. मुझे रात नहीँ तो रात का कोई और शब्द आता होगा, जैसे रजनी. नहीँ तो मुझे शाम याद होगी, सुबह याद होगी. या दिन याद होगा. अब मुझे क्या करना है? बस थिसारस के अनुक्रम खंड मेँ इन मेँ से कोई एक शब्द खोज कर उस का पता नोट करना है. हमारे थिसारसों मेँ क्योँकि थिसारस खंड और अनुक्रम अलग अलग जिल्दोँ मेँ हैँ, तो बस वह पेज खोल कर अपने सामने रखना है जहाँ वह शब्द है और उस का पता लिखा है. उस पते पर थिसारस मेँ ढेर सारे शब्द मिल ही जाएँगे. रजनी से तो हम सीधे रात तक पहुँचेंगे जहाँ रात के सारे शब्द लिखे हैँ. ये सभी उदाहरण मैँ ने अपने समांतर कोश से लिए हैँ.

थिसारस मेँ शब्द संकलन का आधार

थिसारसों मेँ सामाजिक संदर्भ भी होता है. थिसारस बनाने वाले का काम है कि इन संदर्भोँ की तलाश करे और अपनी किताब मेँ इन का संकलन करे. उसे अपने समाज की मानसिकता के आधार पर काम करना होता है. एक चीज़ के लिए बहुत सारे लिंक बनाने होते हैँ, ताकि किताब का उपयोग करने वाला किसी भी जगह से, कोण से, मनवांछित शब्द तक पहुँच सके. कई बार ये लिंक फ़ालतू से अनावश्यक लग सकते हैँ. पर यही थिसारस की जान होते हैँ.
अमर कोश पर अपनी टिप्पणी देते समय रोजट इसी तथ्य को नज़रअंदाज कर गए थे. मुझे शक़ है कि जीवन भर वह थिसारस के इस मर्म को समझ भी पाए या नहीँ. अमर कोश का गठन प्राचीन भारत मेँ वर्णोँ पर आधारित समाज मेँ हुआ था. उस मेँ से सामाजिक सरोकार के एक दो उदाहरण देता हूँ. अमर कोश मेँ संगीत नैसर्गिक गतिविधि है, वह हमेँ स्वर्ग वर्ग मेँ मिलता है. लेकिन संगीतकार की गिनती शूद्र वर्ग मेँ की गई है. गाय की गिनती जानवरोँ मेँ नहीँ है वैश्य वर्ग मेँ है क्योँकि गोपालन तब वैश्योँ का कर्म था. इसी प्रकार हाथी राजाओँ की सवारी होने के कारण क्षत्रिय वर्ग मेँ है. यह उचित ही था. उस जमाने के भारतीय हर चीज़ को वर्णों के आधार पर याद रखते थे.
19वीँ सदी के ब्रिटेन मेँ शब्दोँ के वर्गीकरण वैज्ञानिक आधार पर करने का फ़ैशन था. लिहाज़ा रोजट के थिसारस मेँ परस्पर संदर्भ मनोस्वाभाविक न हो कर वैज्ञानिक हैँ. कई बार उस मेँ मनो संबंध नहीँ बनते. एक दो उदाहरण काफ़ी हैँ. गेहूँ और केले की गणना घासों मेँ की गई है. परिणाम यह है कि गेहूँ और केला आपस मेँ संबद्ध हैँ, जबकि आम आदमी गेहूँ को अनाज और केले को फल से जोड़ कर देखता है. लोहे की गिनती धातुओँ मेँ है और इस्पात की मिश्र धातुओँ मेँ. दोनोँ एक दूसरे से बहुत दूर रखे गए हैँ, और हमेँ एक से दूसरे तक नहीँ ले जाते.
हमने समांतर कोश को मानव मन मेँ रहने वाले सहज परस्पर संबंधों के आधार पर बनाया. जैसे रात को ही लें रात, अंजन, अंधकार, अंधेरा, निशा आदि.
अमावस : अंधेरी रात,
पूर्णिमा : चौदहवीँ रात,
कालरात्रि : काली रात, भयानक रात.
इस तरह बहुत से परस्पर संबंध लिए गए हैँ. रात शब्द हमेँ अमावस, पूर्णिमा, कालरात्रि आदि भाव और सूचना देता है.

द पेंगुइन इंग्लिश–हिंदी/हिंदी–इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी

हिंदी को भारत के बाहर मारीशस, फिजी, गुयाना, सूरीनामा, त्रिनिदाद, अरब मुल्कोँ, इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा आदि अनेक देशोँ मेँ लोग दैनिक प्रयोग मेँ लाते हैँ. दूसरी ओर, अँगरेजी बोलने वालोँ की संख्या अँगरेजी भाषी देशोँ की अपेक्षा भारत मेँ अधिक है. इस लिए ऐसे थिसारस की ज़रूरत महसूस हुई, जो दोनोँ भाषाओँ के लिए उपयोगी हो और दोनोँ भाषाओँ को निकट लाए. बहुत सारी शब्द कोटियाँ अँगरेजी मेँ होती हैँ, हिंदी मेँ नहीँ. दूसरी ओर बहुत सी कोटियाँ हिंदी मेँ हैँ, अँगरेजी मेँ नहीँ. जैसे ब्रह्मचर्य, आश्रम, निष्काम कर्म हिंदी मेँ हैँ, अँगरेजी मेँ नहीँ. अब यूटोपिया शब्द को लेँ. यूटोपिया को हिंदी मेँ स्वर्णकाल या स्वर्णयुग कह सकते हैँ. वास्तव मेँ यूटोपिया एक मनोकल्पना का नाम है कि कभी ऐसा समय आएगा, जब हज़ार साल तक सब कुछ बढ़िया रहेगा. इस तरह मुहावरे, देवी देवताओँ के नाम आदि बहुत सी चीज़ेँ हैँ, जो केवल हिंदी मेँ या अँगरेजी मेँ हैँ अथवा दोनोँ मेँ अलग अलग हैँ. इन सभी बातोँ को ध्यान मेँ रख कर यह थिसारस बनाया गया है. इस के तीन खंड हैँ.
पहला खंड इंग्लिश–हिंदी/हिंदी–इंग्लिश थिसारस है. इस मेँ शब्दोँ का संकलन विषय या संदर्भ क्रम मेँ किया गया है. पाठक स्वाभाविक ढंग से एक विषय से दूसरे पर जा सकता है, मानो उस के सामने इनसाइक्लोपीडिया खोल दिया गया हो, जो एक के बाद दूसरी संबद्ध जानकारी सामने रखता रहता है. इस मेँ 988 शीर्षकोँ के अंतर्गत 25,565 उपशीर्षक हैँ, यानी किसी एक कोटि के अधीन अनेक उपकोटियाँ. इन सब मेँ कुल मिला कर 5,48,330 स्वतंत्र अभिव्यक्तियाँ हैँ. इन मेँ से 2,57,853 अँगरेजी की हैँ और 2,90,477 हिंदी की. और संबद्ध तथा विपरित कोटियोँ के क्रास रैफरेंसों की भरमार है. परिणाम यह होता है कि हम चाहें तो अंगे्रजी के माध्यम से या हिंदी के द्वारा किसी भाव से संबद्ध विशाल पर्याय शब्द को पाते ही हैँ. उन की कोटियाँ भी, जैसी सृष्टि से संबद्ध ब्रह्मांड, तारे, आकाश आदि. इस के साथ ही विपरीत शब्द भी हैँ, जैसे दिन के साथ रात, सुबह के साथ शाम, सौंदर्य के साथ कुरूपता. एक एक चीज़ को समझाने के लिए तरह तरह से दर्शाया गया है. जैसे सौंदर्य को ही लें. सौंदर्य का भाव समझाने के लिए पहले तो अँगरेजी और हिंदी के ढेर सारे शब्द हैँ. अगर एक से बात समझ मेँ न आए तो किसी दूसरे से आएगी. फिर तरह तरह की उपमाएँ उदाहरण देने के लिए सुंदर पुरुषोँ और स्त्रियोँ की सूचियाँ. मेनका, अप्सरा, परी से सुंदरता का भाव साफ़ होगा, बाद मेँ सुंदर के लिए 175 शब्द और उन के क्रास रैफ़रेंस, तो हिंदी के 302 शब्द और उन के क्रास रैफ़रेंस. दोनोँ भाषाओँ मेँ इतने सारे शब्दोँ की छटा इस से पहले कभी और कहीं और एक साथ नहीँ मिलती थी.
दूसरा खंड इंग्लिश हिंदी कोश ऐंड इंडैक्स है. हर इंग्लिश शब्द के साथ हिंदी अर्थ और अन्य संबद्ध शब्द पहले खंड मेँ मिलने का पता.
तीसरा खंड हिंदी इंग्लिश कोश ऐंड इंडैक्स है. हर हिंदी शब्द के साथ इंग्लिश अर्थ, और अन्य संबद्ध शब्द पहले खंड मेँ मिलने का पता इस मेँ दिया गया है.
अगर दूसरी भाषा का कुल एक शब्द चाहिए तो खोज यहीँ पूरी हो जाती है. वांछित विषय से संबद्ध कोटियाँ भी यहीँ मिल जाती हैँ. यदि ढेर सारे शब्द और शब्द कोटियाँ चाहिए तो इन खंडोँ मेँ प्रदत्त पते पर जाने से मिल जाएँगी.
ए-4 साइज़ के हर पेज पर चार कालमोँ मेँ छोटे टाइप मेँ तीन खंडोँ मेँ कुल शब्दोँ की संख्या तीस लाख से भी अधिक है. इतना समृद्ध कोई भी द्विभाषी थिसारस या शब्दकोश अभी तक नहीँ है. शब्दोँ की जगमग मणियोँ का यह भंडार हिंदी और अँगरेजी के लिए बहुउपयोगी है.

कोशकारिता मेँ संभावनाएँ

मुझे इस कोश से कई भावी संभावनाएँ नज़र आ रही हैँ. कुछ देर के लिए हम इसे रा मैटीरियल (raw material) मान लेँ और सोचेँ कि अब हमारे पास एक कामचलाऊ ढाँचा है. इस के अँगरेजी डाटा के सहारे हम हिंदी को एक तरफ़ सभी विदेशी भाषाओँ, जैसे फ्रांसीसी, जरमन, रूसी आदि से जोड़ सकते हैँ. तो हिंदी डाटा के सहारे तमाम भारतीय ही नहीँ दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया की भाषाओँ से जोड़ सकते हैँ.
आज जब यूनिकोड ने कंप्यूटर पर जापान चीन से ले कर सुदूर पश्चिम की हवाई तक लिपियोँ से जोड़ दिया है तो भाषाएँ क्योँ नहीँ जोड़ी जा सकतीं? लेकिन यह काम दस बीस साल मेँ होने वाला नहीँ है. हमारे सामने डच भाषा के कोश हेतु वूर्डनबीक डेर नीडरलांड्ष ताल (het woorden book der Nederlandsche Taal (WNT) का उदाहरण है. इस पर काम 1864 मेँ शुरू हुआ था और 134 साल बाद पूरा हुआ 1998 मेँ. अगर हमेँ बहुभाषी कोश बनाने मेँ सौ साल भी लग जाएँ तो इस की उपयोगिता को देखते हुए यह अधिक समय नहीँ है.
कोश कर्म मेँ शुरू से ही मुझे पूरे परिवार का पूरा समर्थन और सहयोग मिला. पहले ही दिन पत्नी कुसुम कुमार सहकर्मी बन गई. बाद मेँ बेटे डा. सुमीत ने कोश के डाटा के कंप्यूटरीकरण का ज़िम्मा ले लिया. बेटी मीता ने समांतर कोश के हिंदी मुख शब्दोँ के अँगरेजी समकक्ष लिख कर द्विभाषी थिसारस की नीँव डाली. और अब वह अरविंद लैक्सिकन का झंडा उठाए आगे बढ़ रही है. मुझ से ज़्यादा सुखी कौन परिवार प्रमुख होगा!