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बुधवार, 27 जुलाई 2011

अरविंद कुमार -शब्द

--अरविंद कुमार


शब्द
 भाषा की सर्वाधिक महत्वपूर्ण और अपरिहार्य कड़ी है. जब हम वाचिक या लिखित भाषा की बात करते हैँ तो शब्द का केवल एक अर्थ होता है : एकल, स्वतंत्र, सार्थक ध्वनि. वह ध्वनि जो एक से दूसरे तक मनोभाव पहुँचाती है. संसार की सभी संस्कृतियोँ मेँ इस सार्थक ध्वनि को बड़ा महत्व दिया गया है. संस्कृत ने शब्द को ब्रह्म का दर्जा दिया है. शब्द जो ईश्वर के बराबर है, जो फैलता है, विश्व को व्याप लेता है. ग्रीक और लैटिन सभ्यताओँ मेँ शब्द की, लोगोस की, महिमा का गुणगान विस्तार से है. ईसाइयत मेँ शब्द या लोगोस को कारयित्री प्रतिभा (क्रीएटिव जीनियस) माना गया है. कहा गया है कि यह ईसा मसीह मेँ परिलक्षित ईश्वर की रचनात्मकता ही है.
आज भाषा सीखने की क्षमता या कुछ कहने की शक्ति आज के मानव, होमो सैपिएंस, के मन मस्तिष्क का, यहाँ तक कि अस्तित्व का, अंतरंग अंग है. लगभग 50,000 साल पहले इस शक्ति के उदय ने मानव को सामाजिक संगठन की सहज सुलभ क्षमता प्रदान की और आदमी को प्रकृति पर राज्य कर पाने मेँ सक्षम बनाया. इसी के दम पर सारा ज्ञान और विज्ञान पनपा. शब्दोँ और वाक्योँ से बनी भाषा के बिना समाज का व्यापार नहीँ चल सकता. आदमी अनपढ़ हो, विद्वान हो, वक्ता हो, लेखक हो, बच्चा हो या बूढ़ा हो सभी को कुछ कहना है तो शब्द चाहिए, भाषा चाहिए. वह बड़बड़ाता भी है तो भी शब्दोँ मेँ, भाषा मेँ. धरती से बाहर अगर कभी कोई बुद्धियुक्त जीव जाति पाई गई तो उस मेँ संप्रेषण का रूप कुछ भी हो, उस के मूल मेँ किसी प्रकार की व्याकृता वाणी ज़रूर होगी, शब्द ज़रूर होगा.
शब्द के बिना भाषा की कल्पना करना निरर्थक है. शब्द हमारे मन के अमूर्त भाव, इच्छा, आदेश, कल्पना का वाचिक प्रतीक, ध्वन्यात्मक प्रतीक है-- दूसरोँ से कुछ कहने का माध्यम, भाव के संप्रेषण का साधन.
शब्द का मूल अर्थ है ध्वनि. शब्द जब मौखिक था, तो मात्र हवा था. उस का अस्तित्व क्षणिक था. वह क्षणभंगुर था. शब्द को लंबा जीवन देने के लिए कंठस्थ कर के, याद कर के, वेदोँ को अमर रखने की कोशिश की गई थी. वेदोँ को कंठस्थ करने वाले वेदी, द्विवेदी, त्रिवेदी और चतुर्वेदी ब्राह्मणोँ की पूरी जातियाँ बन गईँ जो अपना अपना वेद पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखती थीँ. इसी प्रकार क़ुरान को याद रखने वाले हाफ़िज कहलाते थे.

लिपि का आगमन और लेखन विधियोँ का विकास

शब्द को याददाश्त की सीमाओँ से बाहर निकाल कर देशकालांतरीय करने के लिए, लंबा जीवन देने के लिए, लिपियाँ बनीँ. लिपियोँ मेँ अंकित हो कर शब्द निराकार से साकार हो गया. वह ताड़पत्रोँ पर, पत्थरोँ पर, अंकित किया जाने लगा. काग़ज़ आया तो शब्द लिखना और भी आसान और सुलभ हो गया. ताड़पत्रोँ के मुक़ाबले काग़ज़ अनेक सुविधाएँ ले कर आया. ताड़पत्र का आकार सीमित था. काग़ज़ को इच्छानुसार साइज़ मेँ बनाया जा सकता था. ताड़पत्र पर लिखने के लिए अकसर उकेरा जाता था. काग़ज़ पर लिखने के लिए स्याही से काम चल जाता था.
लिपि ने ही शब्द को स्थायित्व दिया. काल और देश की सीमाओँ से बाहर निकल कर शब्द व्यापक हो गया. अब वह एक से दूसरे देश और एक से दूसरी पीढ़ी तक आसानी से ले जाया जा सकता था. मुद्रण कला के आविष्कार से मानव ज्ञान के विस्तार के महाद्वार खुले, तो अब इंटरनेट सूचना का महापथ और ज्ञान विज्ञान का अप्रतिम भंडार बन गया है. बिजली की गति से हम अपनी बात सात समंदर पार तत्काल पहुँचाते हैँ. (यही नहीँ, एक बार जो सूचना इंटरनैट पर डाल दी गई, वह जब तक इलैक्ट्रोनिक मीडियम है, और जब तक उसे जान बूझ कर डिलीट नहीँ किया जाता, तो वह सब को उपलब्ध रहेगी. उस के आवागमन पर किसी सरकार का कोई अधिकार नहीँ रहता. हालाँकि अब यह देखने मेँ आ रहा है कि कुछ सरकारेँ उस पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश कर रही हैँ.)
हमारा संबंध केवल वाचिक और लिखित शब्द मात्र से है, लिपि कोई भी हो, भाषा कोई भी हो, हिंदी हो, अँगरेजी हो, या चीनीएक लिपि मेँ कई भाषाएँ लिखी जा सकती हैँ. जैसे देवनागरी मेँ हिंदी और मराठी, और नेपालीहिंदी के लिए मुंडी जैसी पुरानी कई लिपियाँ थीँहिंदी के कई काव्य ग्रंथ उर्दू लिपि मेँ लिखे गए. आज उर्दू कविताएँ देवनागरी मेँ छपती और ख़ूब बिकती हैँ. रोमन लिपि मेँ यूरोप की अधिकांश भाषाएँ लिखी जाती हैँ. रोमन मेँ हिंदी भी लिखी जाती है. ब्रिटिश काल मेँ सैनिकोँ को रोमन हिंदी सिखाई जाती थी. आज इंटरनेट पर कई लोग हिंदी पत्र व्यवहार रोमन लिपि मेँ ही करते हैँ. अरविंद लैक्सिकन इंटरनेट पर मिलने वाला हमारा नवीनतम और सदा नवीकरण की दशा मेँ रहने वाला महा ई-कोश है. उस मेँ हिंदी शब्दोँ के रोमन रूप भी दिए गए हैँ. यह इस लिए किया गया है कि देवनागरी न जानने वाले लोग भी हिंदी शब्द जान सकेँ. रोमन मेँ आजकल संसार की कई अन्य भाषाएँ लिखने के कई विकल्प मिलते हैँ.
चीनी, जापानी या प्राचीन मिस्री भाषाएँ चित्रोँ मेँ लिखी जाती हैँ. चित्रोँ मेँ लिखी लिपि का आधुनिकतम रूप शार्टहैंड कहा जा सकता है. चित्र लिपियोँ मेँ अक्षरोँ का होना आवश्यक नहीँ है. लेकिन जो बात अक्षर अक्षर जोड़ कर लिखी जाने वाली सब भाषाओँ और लिपियोँ मेँ कामन है, एक सी है, समान है, वह है शब्द. ऐसी हर भाषा शब्दोँ मेँ बात करती है. शब्द लिखती सुनती और पढ़ती है.
हर भाषा का अपना एक कोड होता है. इसी लिए भाषा को व्याकृता वाणी भी कहा गया है, नियमोँ से बनी और बँधी सुव्यवस्थित क्रमबद्ध बोली. शुरू मेँ यह कोड लिखा नहीँ गया था. सब मन ही मन यह कोड जानते थे. पढ़ेँ या नहीँ फिर भी हम सब यह कोड जानते हैँ. यह कोड किसी भी समाज के सदस्योँ के बीच एक तरह का अलिखित अनुबंध है. लिखना पढऩा सीखने से पहले बच्चा यह कोड समझ चुका होता और भाषा बोलने लगता है.
आम आदमी भाषा बनाता है, बाद मेँ विद्वान मग़ज़ खपा कर उस के व्याकरण और कोश बनाते हैँ. एक बार फिर आम आदमी उन कोडोँ को तोड़ता हुआ नए शब्द बनाने लगता है, शब्दोँ के रूप और अर्थ बदलता रहता है. कोडोँ की सीमाएँ लाँघती, बाढ़ मेँ आई नदियोँ की तरह किनारे तोड़ती भाषाएँ नई धाराएँ बना लेती हैँ. पहले तो विद्वान माथा पीटते हैँ, इस प्रवृति को उच्छृंखलता कहते हैँ, भाषा का पतन कहते हैँ, फिर बाद मेँ नए कोड बनाने मेँ जुट जाते हैँ. अपनी ज़बान के मामले मेँ आम आदमी विद्वानोँ की क़तअन परवाह नहीँ करता...
भाषाओँ को विकारोँ से बचाने के लिए विद्वान व्याकरण बनाते हैँ, शब्दकोश बनाते हैँ. जानसन और वैब्स्टर जैसे कोशकारोँ ने लिखा है कि उन का उद्देश्य था इंग्लिश और अमरीकन इंग्लिश को स्थाई रूप देना, उसे बिगडने से बचाना. उन के कोश आधुनिक संसार के मानक कोश बने. लेकिन हुआ क्या? उन के देखते देखते भाषा बदल गई, नए शब्द आ गए. फिर कोशोँ के नए संस्करण बनने लगे. आजकल अँगरेजी के कोशोँ मेँ हर साल हजारोँ नए शब्द डाले जाते हैँ. यही जीवित भाषाओँ का गुण है. हिंदी भी नए शब्द बनाने और ज़रूरी शब्द बाहर से लेने मेँ किसी से पीछे नहीँ रही है. अंतर केवल इतना है कि हमारे यहाँ अभी तक कोशोँ मेँ नए शब्द हर साल डालने की प्रथा नहीँ चली है.
यहाँ यह कहना अनुचित न होगा कि हमारा ई-कोश अरविंद लैक्सिकन वार्षिक नवीकरण से भी आगे बढ़ कर सतत नया होता रहेगा. हमारा संपादन विभाग उस मेँ नए शब्द डालता रहेगा, और हर कमी को दूर करता रहेगा. कारण यह है कि वह मुद्रित या सीडी/डीवीडी पर लेखांकित न हो कर इंटरनैट पर होगा. जब भी कोई सुधार होगा, वह हर यूज़र को तत्काल उपलब्ध हो जाएगा...

कोशकारिता का जन्म कब और कहाँ

पश्चिमी देश हमेशा दावा करते हैँ कि कोशकारिता का आरंभ वहाँ हुआ था. वहाँ कोशोँ के किसी इतिहास मेँ भारत का ज़िक्र नहीँ होता. रोजट भी इस भ्रम मेँ थे कि उन का थिसारस संसार का पहला थिसारस है. पुस्तक छपते छपते उन्हों ने सुना कि संस्कृत मेँ किसी अमर सिंह ने यह काम छठी सातवीँ सदी मेँ ही कर लिया था. कहीं से अमर कोश का कोई अँगरेजी अनुवाद उन्हों ने मँगाया, इधर उधर पन्ने पलट कर देखा और भूमिका मेँ फ़ुटनोट मेँ टिप्पणी कर दी कि मैँ ने अभी अभी अमर कोश देखा, बड़ी आरंभिक क़िस्म की बेतरतीब बेसिरपैर की लचर सी कृति है. काश, वह यह बात समझ पाए होते कि हर कोश की तरह अमर कोश भी अपने समसामयिक समाज के लिए बनाया गया था.
असल मेँ सभ्यता और संस्कृति के उदय से ही आदमी जान गया था कि भाव के सही संप्रेषण के लिए सही अभिव्यक्ति आवश्यक है. सही अभिव्यक्ति के लिए सही शब्द का चयन आवश्यक है. सही शब्द के चयन के लिए शब्दोँ के संकलन आवश्यक हैँ. शब्दोँ और भाषा के मानकीकरण की आवश्यकता समझ कर आरंभिक लिपियोँ के उदय से बहुत पहले ही आदमी ने शब्दोँ का लेखा जोखा रखना शुरू कर दिया था. इस के लिए उस ने कोश बनाना शुरू किया. कोश बनाने की शानदार भारतीय परंपरा वेदोँ जितनी, कम से कम पाँच हज़ार साल पुरानी है. प्रजापति कश्यप का निघंटु संसार का प्राचीनतम शब्द संकलन है. इस मेँ 1800 वैदिक शब्दोँ को इकट्ठा किया गया था. निघंटु पर महर्षि यास्क की व्याख्या निरुक्त संसार का पहला शब्दार्थ कोश और विश्वकोश यानी एनसाइक्लोपीडिया है. इस महान शृंखला की सशक्त कड़ी है छठी या सातवीँ सदी मेँ लिखा अमर सिंह कृत नामलिंगानुशासन या त्रिकांड जिसे सारा संसार अमर कोश के नाम से जानता है.
भारत के बाहर संसार मेँ शब्द संकलन का एक प्राचीन प्रयास अक्कादियाई संस्कृति की शब्द सूची है. यह शायद ईसा पूर्व सातवीँ सदी की रचना है. ईसा से तीसरी सदी पहले का चीनी भाषा का कोश है ईर्या.
आधुनिक कोशोँ की नीँव डाली इंग्लैंड मेँ 1755 मेँ सैमुएल जानसन ने. उन की डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज (Samuel Johnsons Dictionary of the English Language) ने कोशकारिता को नए आयाम दिए. इस मेँ परिभाषाएँ भी दी गई थीँ.
असली आधुनिक कोश आया इक्यावन साल बाद 1806 मेँ. अमरीका मेँ नोहा वैब्स्टर की ए कंपैंडियस डिक्शनरी आफ़ इंग्लिश लैंग्वेज (Noah Websters A Compendious Dictionary of the English Language) प्रकाशित हुई. इस ने जो स्तर स्थापित किया वह इंग्लिश मेँ इस से पहले कभी नहीँ हुआ था. साहित्यिक शब्दावली के साथ साथ कला और विज्ञान क्षेत्रोँ को स्थान दिया गया था. कोश सफल हुआ. वैब्स्टर के बाद अँगरेजी मेँ कोशोँ के रिवीज़न और नए कोशोँ के प्रकाशन का व्यवसाय तेज़ी से बढ़ने लगा. आज छोटे बड़े हर शहर मेँ, विदेशोँ मेँ तो हर गांव मेँ, किताबों की दुकानेँ हैँ. हर दुकान पर कई कोश मिलते हैँ. हर साल कोशोँ मेँ नए शब्द शामिल किए जाते हैँ.
अपने कोशोँ के लिए वैब्स्टर ने 20 भाषाएँ सीखीँ ताकि वह अँगरेजी शब्दोँ के उद्गम तक जा सके. उन भाषाओँ मेँ संस्कृत भी थी. तभी उस कोश मेँ अनेक अँगरेजी शब्दोँ का संस्कृत उद्गम तक वर्णित है. मैँ पिछले तीस सालों से वैब्स्टर कोश का न्यू कालिजिएट संस्करण काम मेँ ला रहा हूँ. मुझे इस मेँ मेरे काम की हर ज़रूरी सामग्री मिल जाती है. यहाँ तक कि यूरोपीय मूल वाले अँगरेजी शब्दोँ के संस्कृत स्रोत भी. समांतर कोश के द्विभाषी संस्करण द पेंगुइन इंग्लिश–हिंदी/हिंदी–इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी पर काम करते करते कई बार तो अनपेक्षित जगहोँ पर भी शब्दोँ के संस्कृत मूल मिल गए. पता चला कि ईक्विवैलेंट, बाईवैलेंट जैसे शब्दोँ के मूल मेँ है संस्कृत का वलयन. एअर यानी हवा का मूल संस्कृत ईर मेँ है, सोनिक के मूल मेँ हैँ संस्कृत के स्वन और स्वानिक. कई बार मैँ सोचता था काश, डाक्टर रघुवीर की टीम ने और बाद मेँ तकनीकी शब्दावली बनाने वाले सरकारी संस्थानोँ ने ये संस्कृत मूल जानने की कोशिश की होती. उन के बनाए शब्दोँ को एक भारतीय आधार मिल जाता और लोकप्रियता सहज हो जाती. ख़ैर, उन लोगोँ ने जो किया वह भी भागीरथ प्रयास था.

कोश कई तरह के होते हैँ

किसी भाषा के एकल कोश, जैसे अँगरेजी कोश या हिंदी से हिंदी के कोश. इन मेँ एक भाषा के शब्दोँ के अर्थ उसी भाषा मेँ समझाए जाते हैँ. कोश द्विभाषी भी होते हैँ. जैसे संस्कृत से अँगरेजी के कोश. सन् 1872 मेँ छपी सर मोनिअर मोनिअर-विलियम्स की (बारीक़ टाइप मेँ 8.5”x11.75” आकार के तीन कालम वाले एक हज़ार तीन सौ तैंतीस पृष्ठों की अद्वितीय) संस्कृत इंग्लिश डिक्शनरी इस का अनुपम उदाहरण है. या आजकल बाज़ार मेँ मिलने वाले ढेर सारे अँगरेजी हिंदी कोश और हिंदी अँगरेजी कोश. एक भाषा जानने वाले को दूसरी भाषा के शब्दोँ का ज्ञान देना इन का उद्देश्य होता है. जिस को जिस भाषा मेँ पारंगत होना होता है या उस के शब्दोँ को समझने की ज़रूरत होती है, वह उसी भाषा के कोशोँ का उपयोग करता है.)
किसी भी तरह का ज्ञान प्राप्त करने की कुंजी कोश है. मोनिअर विलियम्स के जमाने मेँ अँगरेज भारत पर राज करने मेँ सुविधा के लिए हमारी संस्कृति और भाषाओँ को पूरी तरह समझना चाहते थे, इस लिए उन्हों ने ऐसे कई कोश बनवाए. आज हम अँगरेजी सीख कर सारे संसार का ज्ञान पाना चाहते हैँ तो हम अँगरेजी से हिंदी के कोश बना रहे हैँ. हमारे समांतर कोश और उस के बाद के हमारे ही अन्य कोश भी हमारे देश की इसी इच्छा आकांक्षा के प्रतीक हैँ, प्रयास हैँ.

मुझे शब्दकोश बनाने का विचार कब ओर कैसे आया

मैँ मेरठ शहर के म्युनिसिपल स्कूल मेँ पढ़ा. सन् 45 मेँ दिल्ली से मैट्रिक किया. मैट्रिक का इम्तहान देते ही मुझे कनाट सरकस मेँ दिल्ली प्रैस मेँ छापेख़ाने का काम सीखने बालश्रमिक के रूप मेँ जाना पड़ा. उस समय मेरी उम्र पंदरह साल थी. बोर्ड के दसवीँ के परिणाम आने पर चार विषयोँ मेँ हिंदी, संस्कृत, गणित और अँगरेजी मेँ डिस्टिंक्शन आई थी. मैँ आगे पढ़ना चाहता था, लेकिन आर्थिक कारणोँ से संभव नहीँ हो सका. मुझे नौकरी करने के लिए विवश होना पड़ा.
मेरे भावी समांतर कोश और हाल ही मेँ प्रकाशित द पेंगुइन इंग्लिश–हिंदी/हिंदी–इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी की दिमाग़ी नीँव वहीँ पड़ी. मैँ ने वहाँ देखा और सीखा (उस ज़माने की तकनीक मेँ) एक एक अक्षर या उस का टाइप कैसे ख़ानोँ मेँ रखा होता है, जुड़ जुड़ कर छपता है, छप जाने के बाद फिर उन्हीं ख़ानोँ मेँ वापस रख दिया जाता है. मैँ ने सीखा कैसे हम अपनी आवश्यकता के अनुसार ये टाइप रखने के ख़ाने और ख़ानोँदार केस कम ज़्यादा कर सकते हैँ. टाइपोँ का वर्गीकरण कर सकते हैँ, रैकोँ मेँ रख सकते हैँ, मुद्रण मेँ काम आने वाली अन्य सामग्री रखने के लिए डिब्बे बना सकते हैँ. फिर जब कंपोज़िंग करने लगा, तो मैँ ने सीखा कैसे एक एक अक्षर जोड़ा जाता है, कैसे एक के बाद एक शब्द रख कर पंक्तियाँ बनती हैँ. कैसे ये पंक्तियाँ पैरा बनती हैँ, गेली बनती हैँ, पेज बनते हैँ और बनते हैँ पूरा लेख, किताब, पत्रिका, अख़बार.
छापेख़ाने मेँ कई काम किए. कई काम सीखे. कंपोज़िंग, मशीन मैनी, बुक बाइंडिंग, ख़ज़ाँचीगीरी, अँगरेजी हिंदी टाइपिंग आदि. इस के साथ साथ शाम के समय मैट्रिक से आगे की पढ़ाई. ऐफ़ए, बीए, और अँगरेजी साहित्य मेँ एमए..
इस बीच मैँ छापेख़ाने मेँ प्रूफ़ रीडर बना. मेरे लिए नए दरवाजे खुलने लगे. धीरे धीरे सरिता, कैरेवान पत्रिकाओँ के संस्थापक संपादक विश्वनाथ जी मुझे बढ़ावा देने लगे. पहले सरिता मेँ उप संपादक बनाया. अब लेखकोँ की रचनाएँ पढऩे लगा, उन पर कमैँट देने लगा. रचना अच्छी हो या बुरी, पढ़नी पड़ती. अच्छे बुरे का विवेक जागने लगा. स्वीकृत रचनाओँ का संपादन करने लगा. अँगरेजी से हिंदी मेँ अनुवाद.
जब विश्वनाथजी आश्वस्त हो गए कि मैँ अच्छी खासी हिंदी लिख लेता हूँ और अँगरेजी की समझ मुझ मेँ पनपने लगी है, जब उन्हों ने देखा कि मैँ ने शाम को बीए मेँ दाख़िला ले लिया है और मेरी रुचि अँगरेजी के साथ साथ विश्व साहित्य और आधुनिक ज्ञान विज्ञान मेँ हो गई है, तो उन्हों ने मुझे हिंदी से अँगरेजी मेँ धकेल दिया. पहले मैँ सरिता मेँ था, अब मैँ अँगरेजी की कैरेवान पत्रिका मेँ उप संपादक बन गया.
मेरे बहुत से कामोँ मेँ एक था हिंदी से अँगरेजी मेँ अनुवाद. हिंदी से अँगरेजी कोश बहुत अच्छे नहीँ थे. अब भी कुल एक दो कोश हैँ जो कामचलाऊ कहे जा सकते हैँ. उन मेँ मुझे संतोषप्रद अँगरेजी के शब्द न मिलते थे. मात्र इतना संतोष था कि मुझे यह पता चलने लगा था कि कौन सा शब्द मेरे संदर्भ मेँ उपयुक्त नहीँ है.
इन्हीँ दिनोँ मुझे एक अनोखी पुस्तक के बारे मेँ पता चला. पुस्तक का पूरा नाम था रोजट्स थिसारस ऑफ इंग्लिश वर्ड्स एण्ड फ़्रेज़ेज़. संक्षेप मेँ उसे रोजट्स थिसारस ही कहते हैँ. मैँ ने यह छोटी सी किताब तुरंत ख़रीद ली. फ़्राँसीसी मूल के कला नाटक समीक्षक, इंजीनियर, वैज्ञानिक पीटर मार्क रोजट ने इस किताब मेँ शब्दोँ का संकलन एक बिल्कुल नए क्रम से किया था. रोजट की हालत भी मेरे जैसे ही हुआ करती थी. उसे शब्द चाहिए होते थे, मिलते नहीँ थे. उस ने अपने निजी काम के लिए जो सूची बनाई, वही बाद मेँ महान पुस्तक बन गई. 1852 मेँ छपते ही यह पुस्तक लोकप्रिय हो गई थी. इस के छपने के 101 साल बाद दिल्ली मेँ मैँ ने इस का जो संस्करण ख़रीदा वह लगभग इसी आउटडेटड संस्करण का पुनर्मुद्रण था.
यह था मेरे जीवन का सबसे बढिय़ा ख़ज़ाना जो मुझे मिला. मानो किसी ने मुझे अली बाबा की शब्दोँ की रत्नोँ की गुफ़ा मेँ घुसने का सिम सिम खुल जा मंत्र बता दिया हो. दिन मेँ कैरेवान के संपादन विभाग मेँ काम करता था, रात मेँ बीए मेँ पढ़ रहा था. सारी पढ़ाई अँगरेजी मेँ होती थी. हिंदी से अँगरेजी मेँ अनुवाद करना होता था. दूसरोँ के अँगरेजी मेँ लिखे को जहाँ तक हो सके सुधारना होता था. नए नए शब्दोँ की ज़रूरत होती. लेखक के किसी एक शब्द के लिए मैँ दूसरा कौन सा शब्द डालूँ, इस मेँ कोशोँ से सहायता मिलती ही नहीँ थी. अब रोजट मेँ मुझे अधिकाधिक शब्द मिलने लगे.
पहले तो मैँ रोजट की किताब केवल शब्द खोजने के लिए खोलता था. कोई भी पन्ना खोलता और ठगा सा रह जाता. फिर तो जब चाहे किताब खोलना, पढऩा, पढ़ते रहना मेरे लिए लाभप्रद मनोरंजन बन गया.
परिस्थितियोँ ने कुछ ऐसा मोड़ लिया कि 1963 मेँ टाइम्स आफ़ इंडिया की नई फ़िल्मी पत्रिका माधुरी का संपादक हो गया. यहाँ काम करते करते दस साल हो गए थे. मेरे मन मेँ आया कि हिंदी मेँ किसी ने थिसारस नहीँ बनाया है तो इस का मतलब मुझे बनाना है. इच्छा मेरी है तो मुझे ही पूरी करनी होगी. मैँ सुबह घूमने के लिए हैँगिंग गार्डन जाता था. 26 दिसंबर 1973 की उस सुबह मैँ ने अपनी पत्नी कुसुम कुमार से इस योजना का ज़िक्र किया. वह तुरंत तैयार हो गईँ.
19 अप्रैल 1976 की सुहावनी सुबह नासिक तीर्थ मेँ गोदावरी नदी मेँ स्नान करने के बाद पहला कार्ड बनाया और काम बाक़ायदा शुरू हो गया. इस काम को पूरा करने मेँ 20 साल लगे. समांतर कोश का प्रकाशन नेशनल बुक ट्रस्ट ने किया. इस की पहली प्रति मैँ ने और कुसुम ने तत्कालीन राष्टपति डा. शंकरदयाल शर्मा को 13 दिसंबर 1996 को भेँट की.

शब्दकोश और थिसारस मेँ अंतर

अच्छा कोश हमेँ शब्द का मर्म समझाता है. एक से अधिक अर्थ देता है, और कभी एक से ज़्यादा समानार्थी शब्द भी. लेकिन ये एकाधिक शब्द कोई बहुत ज़्यादा नहीँ होते. बड़े कोश भाषा समझने के लिए शब्दोँ की व्युत्पत्ति भी बताते हैँ. कुछ कोश प्रिस्क्रिपटिव या निदानात्मक/निदेशात्मक कहलाते हैँ. वे यह भी बताते हैँ कि अमुक शब्द आंचलिक है, सभ्य है या अशिष्ट. वे शब्द के उपयोग की विधि भी बताते हैँ. ऐसे अधिकारिक कोश मैँ ने हिंदी मेँ नहीँ देखे हैँ.
कोशकारिता पूरी तरह सामाजिक प्रक्रिया है. हर कोश अपने समसामयिक संदर्भ मेँ रचा जाता है. कोशकार को ध्यान रखना पड़ता है कि उस का उपयोग करने वाले लोगोँ की ज़रूरतें क्या हैँ, वे कोश को किस संदर्भ मेँ देखेँगे, उस से लाभ उठाएँगे. जो कोश बच्चोँ के लिए लिखा गया है वह एमए के छात्र के लिए नाकाफ़ी है. वनस्पति शास्त्र या भौतिकी के विद्यार्थी को जो कोश चाहिए उस मेँ किसी भी फल, पेड़, वस्तु के बारे मेँ वैज्ञानिक जानकारी होनी चाहिए. बच्चोँ के कोश मेँ किसी शब्द के मोटे मोटे अर्थ लिखे जा सकते हैँ. उच्च स्तर के कोश मेँ परिभाषाएँ भी होनी चाहिए. यह अलग बात है कि अभी तक हिंदी के किसी कोश मेँ परिभाषाओँ का स्तर संतोषजनक नहीँ है. न हिंदी के किसी एकल कोश मेँ, न किसी अँगरेजी हिंदी कोश मेँ. अब हम अपने अरविंद लैक्सिकन मेँ यह कमी पूरी कर रहे हैँ.
मैँ ने अपने संपादन काल मेँ अनुभव किया कि शब्दकोश से हमेँ लेखन मेँ, संपादन मेँ बहुत सहायता नहीँ मिलती. अनुवाद मेँ भी जो सहायता मिलती है वह आधी अधूरी होती है. संक्षेप मेँ कह सकते हैँ कि शब्दार्थ कोश लेखक के लिए नहीँ होता. वह उस के काम आता है जो किसी अज्ञात शब्द का अर्थ जानना चाहता है या वह विद्यार्थियोँ के काम की चीज़ है.
कोश और थिसारस के क्षेत्र अलग अलग हैँ. शब्दकोश और थिसारस मेँ बहुत अंतर होता है.
एक सूत्र वाक्य मेँ कहें तो शब्दकोश शब्द को अर्थ देता है, थिसारस अर्थ को, विचार को,
शब्द देता है.
मुझे रात के लिए अँगरेजी शब्द चाहिए तो मैँ हिंदी अँगरेजी कोश खोलूँगा. यदि नाइट की हिंदी चाहिए तो इंग्लिश हिंदी डिक्शनरी काम मेँ लाऊँगा. लेकिन मुझे रात का पर्यायवाची चाहिए, या दिन का या राम का या रावण काया मुझे समय बताने वाले किसी उपकरण का नाम चाहिए, तो इस दिशा मेँ कोई कोश हमारी कैसी भी मदद नहीँ करता. यहाँ काम आता है थिसारस.
थिसारसकार यह मान कर चलता है कि थिसारस को काम मेँ लाने वाले किसी लेखक, अनुवादक, विज्ञापन लेखक, या आप को और मुझे भाषा आती है. लेकिन हमेँ किसी ख़ास शब्द की तलाश है. वही रात वाला उदाहरण आगे बढ़ाता हूँ. मुझे रात नहीँ तो रात का कोई और शब्द आता होगा, जैसे रजनी. नहीँ तो मुझे शाम याद होगी, सुबह याद होगी. या दिन याद होगा. अब मुझे क्या करना है? बस थिसारस के अनुक्रम खंड मेँ इन मेँ से कोई एक शब्द खोज कर उस का पता नोट करना है. हमारे थिसारसों मेँ क्योँकि थिसारस खंड और अनुक्रम अलग अलग जिल्दोँ मेँ हैँ, तो बस वह पेज खोल कर अपने सामने रखना है जहाँ वह शब्द है और उस का पता लिखा है. उस पते पर थिसारस मेँ ढेर सारे शब्द मिल ही जाएँगे. रजनी से तो हम सीधे रात तक पहुँचेंगे जहाँ रात के सारे शब्द लिखे हैँ. ये सभी उदाहरण मैँ ने अपने समांतर कोश से लिए हैँ.

थिसारस मेँ शब्द संकलन का आधार

थिसारसों मेँ सामाजिक संदर्भ भी होता है. थिसारस बनाने वाले का काम है कि इन संदर्भोँ की तलाश करे और अपनी किताब मेँ इन का संकलन करे. उसे अपने समाज की मानसिकता के आधार पर काम करना होता है. एक चीज़ के लिए बहुत सारे लिंक बनाने होते हैँ, ताकि किताब का उपयोग करने वाला किसी भी जगह से, कोण से, मनवांछित शब्द तक पहुँच सके. कई बार ये लिंक फ़ालतू से अनावश्यक लग सकते हैँ. पर यही थिसारस की जान होते हैँ.
अमर कोश पर अपनी टिप्पणी देते समय रोजट इसी तथ्य को नज़रअंदाज कर गए थे. मुझे शक़ है कि जीवन भर वह थिसारस के इस मर्म को समझ भी पाए या नहीँ. अमर कोश का गठन प्राचीन भारत मेँ वर्णोँ पर आधारित समाज मेँ हुआ था. उस मेँ से सामाजिक सरोकार के एक दो उदाहरण देता हूँ. अमर कोश मेँ संगीत नैसर्गिक गतिविधि है, वह हमेँ स्वर्ग वर्ग मेँ मिलता है. लेकिन संगीतकार की गिनती शूद्र वर्ग मेँ की गई है. गाय की गिनती जानवरोँ मेँ नहीँ है वैश्य वर्ग मेँ है क्योँकि गोपालन तब वैश्योँ का कर्म था. इसी प्रकार हाथी राजाओँ की सवारी होने के कारण क्षत्रिय वर्ग मेँ है. यह उचित ही था. उस जमाने के भारतीय हर चीज़ को वर्णों के आधार पर याद रखते थे.
19वीँ सदी के ब्रिटेन मेँ शब्दोँ के वर्गीकरण वैज्ञानिक आधार पर करने का फ़ैशन था. लिहाज़ा रोजट के थिसारस मेँ परस्पर संदर्भ मनोस्वाभाविक न हो कर वैज्ञानिक हैँ. कई बार उस मेँ मनो संबंध नहीँ बनते. एक दो उदाहरण काफ़ी हैँ. गेहूँ और केले की गणना घासों मेँ की गई है. परिणाम यह है कि गेहूँ और केला आपस मेँ संबद्ध हैँ, जबकि आम आदमी गेहूँ को अनाज और केले को फल से जोड़ कर देखता है. लोहे की गिनती धातुओँ मेँ है और इस्पात की मिश्र धातुओँ मेँ. दोनोँ एक दूसरे से बहुत दूर रखे गए हैँ, और हमेँ एक से दूसरे तक नहीँ ले जाते.
हमने समांतर कोश को मानव मन मेँ रहने वाले सहज परस्पर संबंधों के आधार पर बनाया. जैसे रात को ही लें रात, अंजन, अंधकार, अंधेरा, निशा आदि.
अमावस : अंधेरी रात,
पूर्णिमा : चौदहवीँ रात,
कालरात्रि : काली रात, भयानक रात.
इस तरह बहुत से परस्पर संबंध लिए गए हैँ. रात शब्द हमेँ अमावस, पूर्णिमा, कालरात्रि आदि भाव और सूचना देता है.

द पेंगुइन इंग्लिश–हिंदी/हिंदी–इंग्लिश थिसारस ऐंड डिक्शनरी

हिंदी को भारत के बाहर मारीशस, फिजी, गुयाना, सूरीनामा, त्रिनिदाद, अरब मुल्कोँ, इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा आदि अनेक देशोँ मेँ लोग दैनिक प्रयोग मेँ लाते हैँ. दूसरी ओर, अँगरेजी बोलने वालोँ की संख्या अँगरेजी भाषी देशोँ की अपेक्षा भारत मेँ अधिक है. इस लिए ऐसे थिसारस की ज़रूरत महसूस हुई, जो दोनोँ भाषाओँ के लिए उपयोगी हो और दोनोँ भाषाओँ को निकट लाए. बहुत सारी शब्द कोटियाँ अँगरेजी मेँ होती हैँ, हिंदी मेँ नहीँ. दूसरी ओर बहुत सी कोटियाँ हिंदी मेँ हैँ, अँगरेजी मेँ नहीँ. जैसे ब्रह्मचर्य, आश्रम, निष्काम कर्म हिंदी मेँ हैँ, अँगरेजी मेँ नहीँ. अब यूटोपिया शब्द को लेँ. यूटोपिया को हिंदी मेँ स्वर्णकाल या स्वर्णयुग कह सकते हैँ. वास्तव मेँ यूटोपिया एक मनोकल्पना का नाम है कि कभी ऐसा समय आएगा, जब हज़ार साल तक सब कुछ बढ़िया रहेगा. इस तरह मुहावरे, देवी देवताओँ के नाम आदि बहुत सी चीज़ेँ हैँ, जो केवल हिंदी मेँ या अँगरेजी मेँ हैँ अथवा दोनोँ मेँ अलग अलग हैँ. इन सभी बातोँ को ध्यान मेँ रख कर यह थिसारस बनाया गया है. इस के तीन खंड हैँ.
पहला खंड इंग्लिश–हिंदी/हिंदी–इंग्लिश थिसारस है. इस मेँ शब्दोँ का संकलन विषय या संदर्भ क्रम मेँ किया गया है. पाठक स्वाभाविक ढंग से एक विषय से दूसरे पर जा सकता है, मानो उस के सामने इनसाइक्लोपीडिया खोल दिया गया हो, जो एक के बाद दूसरी संबद्ध जानकारी सामने रखता रहता है. इस मेँ 988 शीर्षकोँ के अंतर्गत 25,565 उपशीर्षक हैँ, यानी किसी एक कोटि के अधीन अनेक उपकोटियाँ. इन सब मेँ कुल मिला कर 5,48,330 स्वतंत्र अभिव्यक्तियाँ हैँ. इन मेँ से 2,57,853 अँगरेजी की हैँ और 2,90,477 हिंदी की. और संबद्ध तथा विपरित कोटियोँ के क्रास रैफरेंसों की भरमार है. परिणाम यह होता है कि हम चाहें तो अंगे्रजी के माध्यम से या हिंदी के द्वारा किसी भाव से संबद्ध विशाल पर्याय शब्द को पाते ही हैँ. उन की कोटियाँ भी, जैसी सृष्टि से संबद्ध ब्रह्मांड, तारे, आकाश आदि. इस के साथ ही विपरीत शब्द भी हैँ, जैसे दिन के साथ रात, सुबह के साथ शाम, सौंदर्य के साथ कुरूपता. एक एक चीज़ को समझाने के लिए तरह तरह से दर्शाया गया है. जैसे सौंदर्य को ही लें. सौंदर्य का भाव समझाने के लिए पहले तो अँगरेजी और हिंदी के ढेर सारे शब्द हैँ. अगर एक से बात समझ मेँ न आए तो किसी दूसरे से आएगी. फिर तरह तरह की उपमाएँ उदाहरण देने के लिए सुंदर पुरुषोँ और स्त्रियोँ की सूचियाँ. मेनका, अप्सरा, परी से सुंदरता का भाव साफ़ होगा, बाद मेँ सुंदर के लिए 175 शब्द और उन के क्रास रैफ़रेंस, तो हिंदी के 302 शब्द और उन के क्रास रैफ़रेंस. दोनोँ भाषाओँ मेँ इतने सारे शब्दोँ की छटा इस से पहले कभी और कहीं और एक साथ नहीँ मिलती थी.
दूसरा खंड इंग्लिश हिंदी कोश ऐंड इंडैक्स है. हर इंग्लिश शब्द के साथ हिंदी अर्थ और अन्य संबद्ध शब्द पहले खंड मेँ मिलने का पता.
तीसरा खंड हिंदी इंग्लिश कोश ऐंड इंडैक्स है. हर हिंदी शब्द के साथ इंग्लिश अर्थ, और अन्य संबद्ध शब्द पहले खंड मेँ मिलने का पता इस मेँ दिया गया है.
अगर दूसरी भाषा का कुल एक शब्द चाहिए तो खोज यहीँ पूरी हो जाती है. वांछित विषय से संबद्ध कोटियाँ भी यहीँ मिल जाती हैँ. यदि ढेर सारे शब्द और शब्द कोटियाँ चाहिए तो इन खंडोँ मेँ प्रदत्त पते पर जाने से मिल जाएँगी.
ए-4 साइज़ के हर पेज पर चार कालमोँ मेँ छोटे टाइप मेँ तीन खंडोँ मेँ कुल शब्दोँ की संख्या तीस लाख से भी अधिक है. इतना समृद्ध कोई भी द्विभाषी थिसारस या शब्दकोश अभी तक नहीँ है. शब्दोँ की जगमग मणियोँ का यह भंडार हिंदी और अँगरेजी के लिए बहुउपयोगी है.

कोशकारिता मेँ संभावनाएँ

मुझे इस कोश से कई भावी संभावनाएँ नज़र आ रही हैँ. कुछ देर के लिए हम इसे रा मैटीरियल (raw material) मान लेँ और सोचेँ कि अब हमारे पास एक कामचलाऊ ढाँचा है. इस के अँगरेजी डाटा के सहारे हम हिंदी को एक तरफ़ सभी विदेशी भाषाओँ, जैसे फ्रांसीसी, जरमन, रूसी आदि से जोड़ सकते हैँ. तो हिंदी डाटा के सहारे तमाम भारतीय ही नहीँ दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया की भाषाओँ से जोड़ सकते हैँ.
आज जब यूनिकोड ने कंप्यूटर पर जापान चीन से ले कर सुदूर पश्चिम की हवाई तक लिपियोँ से जोड़ दिया है तो भाषाएँ क्योँ नहीँ जोड़ी जा सकतीं? लेकिन यह काम दस बीस साल मेँ होने वाला नहीँ है. हमारे सामने डच भाषा के कोश हेतु वूर्डनबीक डेर नीडरलांड्ष ताल (het woorden book der Nederlandsche Taal (WNT) का उदाहरण है. इस पर काम 1864 मेँ शुरू हुआ था और 134 साल बाद पूरा हुआ 1998 मेँ. अगर हमेँ बहुभाषी कोश बनाने मेँ सौ साल भी लग जाएँ तो इस की उपयोगिता को देखते हुए यह अधिक समय नहीँ है.
कोश कर्म मेँ शुरू से ही मुझे पूरे परिवार का पूरा समर्थन और सहयोग मिला. पहले ही दिन पत्नी कुसुम कुमार सहकर्मी बन गई. बाद मेँ बेटे डा. सुमीत ने कोश के डाटा के कंप्यूटरीकरण का ज़िम्मा ले लिया. बेटी मीता ने समांतर कोश के हिंदी मुख शब्दोँ के अँगरेजी समकक्ष लिख कर द्विभाषी थिसारस की नीँव डाली. और अब वह अरविंद लैक्सिकन का झंडा उठाए आगे बढ़ रही है. मुझ से ज़्यादा सुखी कौन परिवार प्रमुख होगा!

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