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रविवार, 10 जुलाई 2011

अमरिका में हिन्दी पढा़ई, कुछ पहलू








डॉ. मधुसूदन
अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति के क्लिवलॅन्ड (यू.एस.ए) अप्रैल २९-३० और १ मई के अधिवेशन के अवसर पर डॉ. मधुसूदन की प्रस्तुति। {सीमित समय के कारण निबंध के कुछ अंश ही प्रस्तुत कर पाया था- यहां, पूरा पाठ प्रस्तुत है।}
कौन हितैषी अभिभावक, अपने बालकों को मेधावी बनाना नहीं चाहेगा? उन्हें प्रतिभाशाली बनाना नहीं चाहेगा? उनकी दत्त-चित्तता (Presence of mind) विकसित करना नहीं चाहेगा? यह सारी उपलब्धियां दो या अधिक भाषाओं के जानकारों को सहजता से प्राप्त होती है। मनोवैज्ञानिक (neuroscience researchers) शोध-कर्ता इन्हीं निष्कर्षों पर पहुंच रहे हैं। जैसे, एक ही गंतव्य स्थान के लिए आप दो रास्ते जानने पर गलती की संभावना कम हो जाती है; कुछ वैसा ही तर्क इस सत्य के पीछे होने की संभावना दीखती है।
वास्तव में कोई भी दो भाषाओं के जानकारों के लिए यह निष्कर्ष निकला है। अंग्रेज़ी तो बिन पढाए भी पढी जाएगी, पर हिन्दी पढाने के भी कुछ लाभ है। तीन भाषाएं जानने के तो और भी लाभ होते होंगे।
इस लेख में, कुछ पहलुओं को प्रस्तुत करना चाहता हूं। पहले हिन्दी शिक्षा के कुछ सर्वाधिक महत्व के पहलुओं पर विचार रखता हूं।
हिन्दी शिक्षा के पहलू
सर्वाधिक महत्व का पहलू है (१) ”उच्चारण शुद्धि”
उच्चारण शुद्धि के लिए हमारे पूर्वज इतने सावधान थे, कि गुरूकुलों में (८ से लेकर २० वर्ष की आयु तक) १२ वर्ष प्रत्यक्ष पाठ हुआ करता था। प्रति दिन ८ सूक्त कंठस्थ करते थे। दूसरे दिन और ८ नये जोड़कर १६ का पाठ होता था। ऐसे जोड़ते चले जाते थे। और, एक तो जिसके उच्चारण में भ्रम और दुविधा नहीं हो सकती, ऐसी (ब्राह्मी) देवनागरी लिपि से वे सज्ज थे। दूसरी ओर प्रति दिन अनुशासन से पाठ हुआ करता था। उच्चारण में दोष प्रतीत होने पर गुरू उच्चारण ठीक करवाते थे। इस प्रकार गुरू-शिष्य परम्परा के कारण १८ वी शती तक उच्चारण अबाधित रहा।
मुझे भी स्मरण है, कि मेरे शिक्षक क्ष, ज्ञ, ण, ळ, इत्यादि को मुख विवर के किस स्थान से उच्चारित करना, यह समझाकर उसका अभ्यास करवाते थे। उच्चारण की ऐसी परंपरा के कारण ही उच्चारण-भ्रष्ट होने की भी कोई संभावना नहीं थी।
ध्यान रहे, केवल लेखित हिंदी पर ही ध्यान देने पर हमारी साधना सफल नहीं (हिंदी शिक्षक इस बिंदु को ध्यान में रखें।) वास्तव में अवैतनिक काम करने वाले ही समर्पित होते हैं।
(२) पर जो शुद्ध उच्चारण की परंपरा, विकृत करने का काम इस्लाम नहीं कर पाया, वह काम अंग्रेज़ों ने हमारी शिक्षा की गुरूकुल प्रणाली को कुटिल छद्म षड्‍यंत्रों से धीरे-धीरे समाप्त करते हुए किया। शायद इसी लिए; ज्ञ, ऋ, ॠ, लृ, लॄ, क्ष, और श और ष इत्यादि उच्चारण भ्रष्ट होने की संभावना नकारी नहीं जा सकती।
अभी भी संभव है, और आवश्यक है कि गणमान्य संस्कृत विद्वानों का आयोग प्रतिष्ठापित कर इस काम को किया जाए। यदि करें तो उच्चारण शुद्धि अक्षुण्ण रहेगी। भारत की अन्य प्रादेशिक भाषाओं को भी, लाभ ही होगा; सारी जो संस्कृतजन्य ठहरी। और साथ में मंत्र शक्ति का जागरण, जो शुद्ध उच्चारण का ही गुण है, उसका भी ह्रास रूकेगा। यज्ञों की परिणामकारकता इसी मंत्र शक्ति का गुण है। मानक उच्चारों को मौखिक और ध्वनि मुद्रित दोनों प्रकार से टिकाने की आवश्यकता है।
यह काम भारत में किया जाए, अमरिका की समिति इस आधारभूत काम को प्रोत्साहित करे, यह मेरा नम्र सुझाव है। मेरी सीमित जानकारी में इस आधारभूत काम को कोई कर नहीं रहा है।
(३) ”उच्चारण शुद्धि अभ्यास की अवधि”
शुद्ध उच्चारण शिक्षा का दूसरा पहलू है, उच्चारण सीखने की उचित अवधि। यह अवधि, बचपन के कुछ ६-७ (अधिकाधिक १०) वर्ष तक हुआ करती हैं। अभिभावकों को इस तथ्य का उपयोग करते हुए लाभ लेने का अनुरोध एवं आग्रह करता हूं। ध्यान रहे कि *यदि बालपन का, अवसर चूके तो, शुद्ध उच्चारण, कठिन ही नहीं, असंभव भी हो जाने की भारी संभावना है। इसलिए, उच्चारण शीघ्र सीखाइए-कराइए। ६-७ वर्ष की आयु तक ही उच्चारण सहजता से आता है। बाद में नए शब्द सीख सकते हैं, पर उच्चारण कठिन हो जाता है। कहावत है, कि, आषाढ़ का चूका किसान, और डालका चूका बंदर कहीं का, नहीं रहता। हिन्दी उच्चारण के लिए यह आषाढ़, बचपन के पहले छः सात वर्ष ही है। इसको न चूकने का परामर्श देता हूं। बचपन में बालकों की वाणी लचीली भी होती है। बच्चे शीघ्रता से सीख लेते हैं। शोधकर्ताओं का निम्न कथन ध्यान देने योग्य है।
According to the critical period hypothesis, there’s a certain window in which second language acquisition skills are at their peak. Researchers disagree over just how long that window is — some say that it ends by age 6 or 7, while others say that it extends all the way through puberty — but after that period is over, it becomes much harder for a person to learn a new language. बचपन का अवसर चूक गए, तो फिर सारा जीवन उच्चारण की कोशिश करते रहिए, और फिर कुछ विमान परिचारिकाओं जैसे हिन्दी उच्चारण से संतुष्ट होइए। अचरज की बात है, कि कुछ विद्वानों की अगली पीढी़ भी, ऐसे उच्चारण पर गौरव अनुभव करती हैं। फिर हमारे à ��ी, बालक गीता भी पढेंगे तो –॥ढर्म क्षेट्रे कुरू क्षेट्रे समवेटा युयुट्सवः॥ कुछ अतिशयोक्ति जान बूझकर, मित्रता के अधिकार से कर रहा हूं, कि आप जान जाएं कि, यह हमने स्वयं होकर स्वीकार किया हुआ, हिन्दी भाषा की परम्परा टिकाने का ध्येय, अगली पीढियों के लिए कितना निर्णायक है, इसकी प्रतीति आप बंधुओं को हो।
४) विशेष उच्चारण सूचि देख लें। ख, घ, च, छ, झ, ठ, ढ, ण, त, थ, द, ध, फ, भ, ष, ळ, क्ष, ज्ञ ; यह १८ उच्चार अंग्रेज़ी प्रत्यक्ष रूपसे नहीं है। माता, पिता, पालकों से अनुरोध है, कि ऐसे सुभाषित, श्लोक, छंद, गीत, कविताएं, दोहे इत्यादि चयन करें, जिन में इस सूचि के कुछ अक्षर हो। अलग अलग कडियों से कुल मिलाकर सारे उच्चारण आ जाएं, ऐसा चयन करें। बच्चोंसे ऐसे सुभाषित याद कराइए। वे संस्कृत के संगीतमय श्लोकों से और उसके मनोरञ्जक जीवनोपयोगी अर्थ से भी आनन्द प्राप्त करेंगे। ऐसे सुभाषित पाठ करवाते रहिए, जैसे हम बचपन में पहाडे़ पाठ करते थे। मैं ने मेरी (५-६ वर्ष की) नातिन को संस्कृत के श्लोक कंठस्थ करते हुए, शुद्ध उच्चारण सहित पाठ करते हुए सुना है। आप बंधुओं से अनुरोध है कि आप भी ऐसा प्रयोग करें।
(५) स्पष्ट सत्य है, कि, देवनागरी का उच्चारण आने पर अंग्रेज़ी उच्चारण, विशेष कठिन नहीं होगा। पर, अंग्रेज़ी उच्चारण पूरा आने पर भी, हिंदी उच्चारण बहुत कठिन हो जाता है।
(६) भाषा विज्ञान के अनुसार, संसार की सर्व श्रेष्ठ लिपि, पूर्णातिपूर्ण (Perfect) लिपि, देवनागरी ही मानी जाती है। जिसकी बराबरी संसार की कोई लिपि नहीं कर सकती। यह लिखते लिखते भी, मेरा गौरव जाग जाता है। उस लिपि में संक्षिप्तता है, स्पेलिंग की झंझट नहीं है, उच्चारण की सरलाति सरल प्रणाली है। क्या, हम अपने बच्चों को इस दैवी लिपि से वंचित रखेंगे?
(७) भाग्य मानिए कि हमारी लिपि चीनियों की लिपि जैसी नहीं है। चीनी लिपि को तो, प्राथमिक स्तर पर ही, सीखते सीखते सात आँठ वर्ष लग जाते हैं। इस लिए चीनियों के लिए अंग्रेज़ी भाषा और उसकी रोमन लिपि सीखना बहुत सरल है। पर भाग्य है हमारा, कि हमें परम्परा प्राप्त दैवी देव-नागरी विरासत में मिली है।
(८) जानता हूं, कि आप व्यस्त हैं, प्रकल्प ( प्रोजेक्ट ) की अंतिम तिथि मंडरा रही है। आंगन की घास काटनी है। दो दो नौकरियां करते हैं। श्रीमती भी तो व्यस्त हैं। समय कहां है? झंझट भी तो बहुत है। हिंदी की कक्षाओं में, बच्चोंको पहुंचाना, वापस लाना, क्या क्या? और क्या नहीं? सब कुछ करना पडता है। पर, कुछ उनके बारे में तो सोचिए जो स्वयंसेवी जन समय का योगदान दे कर उत्साह से हिंदी पढा रहे हैं। शायद आप �¤ �ो तो केवल बच्चों को लाना-ले जाना ही है।
(९) कुछ मित्र कहते हैं, कि भाई हमारी रोटी रोजी कमायी जाती है, अंग्रेज़ी के कारण ही। हिन्दी पढने ,पढाने में क्यों समय व्यर्थ किया जाए? यह कोई भारत तो है नहीं, कि हिन्दी के बिना बच्चों का काम नहीं चलेगा। उन्हें हिन्दी सीखने से कोई लाभ भी तो नहीं है।
मैं सोच में पड़ जाता हूं कि, सचमुच हिन्दी सीखने से कोई लाभ भी है? क्या, हम लकीर के फ़कीर की भांति लकीर ही पीटते चले जा रहें हैं।
(११) वैसे बात सही है, कि इस जीवन की इस धकपेल में समय किसे है? कि एक और झंझट मोल ले लें? ना सीखने से कोई हानि भी तो नहीं दिखती ।
(१२) मैं केवल मित्रता के अधिकारसे ही आप मित्रों को पूछता हूं, कि, क्या रोटी रोजी से बढकर कोई और भी जीवन मूल्य होता है? और, क्या रोटी कपडा और आवास मिलने पर मनुष्य सभी प्रकारसे परितृप्त हो जाता है? परम सुखी हो जाता है?
(१३) रोटी रोजी की भाषा अंग्रेज़ी है, यह मान भी लिया जाए, तो क्या, हमारे बच्चे, मात्र रोटी रोजी से ही जीवित रहने वाले हैं? क्या आप केवल यही चाहते हैं, कि, आप की संतति , और आगे पोते पोतियां, नाती नातिनें, मात्र भौतिक स्तर पर ही जीवित रहें?
(१४) वैसे तो चींटी मकोडे भी जीवित रहते हैं। कुत्ते बिल्ली भी जीवित रहते हैं, खाते हैं, पीते हैं, बच्चे भी पैदा करते हैं, और एक दिन मर भी जाते हैं।
नहीं बंधुओं, आप इस वर्ग में निश्चित नहीं है।
मनुष्य को शरीर ही नहीं मन भी होता है, बुद्धि भी होती है, और माने या ना माने आत्मा भी होती है।
(१५) मानव शब्द की संस्कृत व्याख्या है, मनः अस्ति स मानवः ॥ अर्थात मानव वह है जिसे मन है। शरीरसे मानव दिखने वाले पशु जैसे भी व्यवहार कर सकते हैं।
और एक अत्यंत विशेष बात देखी है। आजकल जो बेकारी की समस्या चल रही है, उसकी चपेट में जब युवा बच्चों को निराशा आती है; तो जीवन की मनः शांति बनाए रखने के लिए, परमात्मा से बिनती या प्रार्थना करने के लिए, हिंदी-संस्कृत (या प्रादेशिक भाषाएं ही) काम आती है। अंग्रेज़ी में प्रार्थना तो की जा सकती है, पर मन को शांति देनेकी क्षमता हमारी अपनी भाषा में ही अधिक होती है। मेरे बच्चे शिविरों से हिन्दी किर्तनों की ध्वनिकाएं लाए थे। जो, संगीतमय होने के कारण सुनने में, बहुत लुभावनी थीं। जब कभी कठिनाई आती, तो बार बार सुनते, साथ गाते भी। आर्तता से गाया हुआ किर्तन-भजन गाने वाले के मन-मस्तिष्क को भी स्वस्थ और प्रसन्न रखने में सक्षम होता है।
(१६) आप बाहर भले अंग्रेज़ी में व्यवहार करें, पर प्रेम की भाषा का व्यवहार, श्रद्धा और भक्ति की भाषा का व्यवहार, मित्रों के कठिन प्रसंग में उनका दुःख हलका करने के लिए कहे गए शब्द, दुःख निवारणार्थ कहे गए वचन अपनी मातृ भाषा में या हिन्दी में होने की बहुत संभावना है।
किसी के स्वर्ग सिधार जाने पर सांत्वना भरे शब्द, या जय जगदीश हरे की आरति, भजन, किर्तन, कठिनाई आनेपर ईश्वर से याचना, हिंदी में ही होने की संभावना अधिक है।
(१७) मेरे गुजराती परिवार में भी सारा व्यवहार गुजराती में होता है, पर भगवान की मूर्ति के सामने दीप जला कर गायत्री मंत्र और अन्य मंत्रोच्चार संस्कृत में होते हैं। आरति, जब भी होती है, ”जय जगदिश हरे” हिन्दी में ही होती है। किर्तन हिन्दी में ही होते हैं। यह हिन्दी का सूक्ष्म धागा हमें भगवान से ही नहीं भारत से भी, जोडता है।
(१८) हिंदी में लिखित तुलसी रामायण ही मुरारी बापु सारे गुजरात भर में प्रवचनो द्वारा फैलाते हैं। प्रवचन गुजराती में होता है, पर, तुलसी रामायण की चौपाइयां तो, हिन्दी में गाकर सुनाते हैं, अर्थ गुजराती में समझाते हैं। कभी-कभी गुजराती शैली की हिन्दी का प्रयोग भी होता है। बीच बीच में भजन भी हिन्दी में होते हैं।
(१९) वैसे भगवान तो सुना हैं, कि भाव का चाहक है, पर जैसे हम अपनी माँ के साथ, ग्रीक या लॅटिन में नहीं बोल सकते, भगवान से भी अपनी भाषा में ही, बोल पाएंगे। वे तो कोई भी भाषा समझ जाएंगे, पर हमारा अपना भाव, और श्रद्धा भी तो जगनी चाहिए।
(२०) जब हमारे अपने बंधु जो देढ़ सो वर्ष पहले करिबियन टापुओं पर बंधुआ श्रमिकों के रूप में ले जाए गए, तो जल्दी जल्दी में भी, वें तुलसी रामायण ले जाना नहीं भूले। उसी रामायण के साथ साथ हिंदी भी गई। कुछ टुटी फुटी हिन्दी के आधार पर आज भी वे संस्कृति टिकाए हुये हैं, और स्वतः टिके हुए हैं।। वे तो, अनपढ ही थे, पर श्रद्धा से टिक गए; पर, हम पढे लिखे यदि भौतिक-वादी हो जाएंगे, तो जब निराशाएं आयेंगी, बेकारी आयेगी, बिमारियां आयेंगी, और भी कठिनाइयां आयेंगी; तो बंधुओं तब हमारी अपनी हिन्दी ही सांत्वना देने में, इश्वर से निवेदन करने में अधिक काम आएगी। हिन्दी का झीना धागा भी इतना सक्षम है। ऐसी सक्षम विरासत से अगली पीढी को वंचित रखना, अपने उत्तरदायित्व से मुंह फेर लेना ही माना जाएगा। क्या आप ऐसा करना ठीक समझते हैं?

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