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मंगलवार, 26 जुलाई 2011

वीएन राय के वीडियो इंटरव्यू को अभिषेक आनंद ने शब्दों में उतारा

अभिषेक आनंद भड़ास4मीडिया - इंटरव्यू

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विभूति नारायण राय के वीडियो इंटरव्यू को शब्दों में ढालने का काम अभिषेक आनंद ने किया है. अभिषेक पटना में पत्रकारिता के छात्र हैं. उन्होंने वीडियो इंटरव्यू को हूबहू लिखा है, सो, कई जगह वाक्य की बनावट में गलती नजर आ सकती है पर इसे इगनोर करें. इस इंटरव्यू में कुछ और कमियां दिख सकती हैं, जिसे संपादित नहीं किया गया है, उसे भी इगनोर करें क्योंकि कोशिश यही रही है कि जिसने इंटरव्यू को टेक्स्ट में जैसा भी ढाला हो, उन टेक्स्ट को उसी रूप में प्रकाशित किया जाए.
अभिषेक को इस मेहनत भरे काम के लिए बधाई. उन्होंने काफी पहले या यूं कहिए कई महीने पहले वीएन राय के वीडियो इंटरव्यू को टेक्स्ट में करके भड़ास4मीडिया के पास भेज दिया था लेकिन उन्हें एक बार वापस लौटा दिया गया ताकि दुबारा वे फाइल को री-चेक कर सकें. अब उन्होंने दुबारा भेजा है तो इसे एज इट इज प्रकाशित किया जा रहा है. अभिषेक आनंद को उनके इस काम के लिए एक हजार रुपये का पुरस्कार दिया जाएगा. और यह पुरस्कार खुद अपने हाथों से देंगे विभूति नारायण राय. जब कभी वीएन राय का पटना जाने का प्रोग्राम बनेगा तो वो अभिषेक आनंद को अपने हाथों से यह ईनाम देंगे. अगर किसी को नीचे दिए गए टेक्स्ट से कहीं भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो तो वे वीडियो इंटरव्यू देख-सुन कर क्रासचेक कर सकते हैं. अभिषेक आनंद से संपर्क उनके फेसबुक प्रोफाइल के जरिए किया जा सकता है, जो इस लिंक ''फेसबुक पर अभिषेक'' पर उपलब्ध है. -एडिटर, भड़ास4मीडिया

विभूति जी, दो दिनों का आयोजन बड़ा शानदार रहा. सेमिनार आयोजन और इसके पीछे विजन क्या था, कैसे प्लान किया आपने?
-देखिये ब्लॉगिंग एक बहुत महत्वपूर्ण माध्यम के रूप में उभरने जा रही है. ये एक महत्वपूर्ण माध्यम बन ही गयी है. हिंदी में भी आप पायेंगे कि धीरे धीरे इसके प्रति अवेरनेस बढ़ रही है. और महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय मुख्य रूप से बना ही इसलिए है कि हिंदी की जो भी रचनात्मकता है उसके लिए समन्वयक का काम कर सके. उस माध्यम में काम करने वाले लोगों को आपस में जोड़ने का काम कर सके. माध्यम को विकसित करने के लिए तकनीक और कंटेंट के स्तर पर जो कुछ संभव हो सके, वह कर सके. तो महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ने ब्लॉगर्स का जो सम्मलेन कराया वह मुख्य रूप से इसी को रेखांकित करने के लिए किया है कि इस माध्यम का ज्यादा बेहतर रचनात्मक इस्तेमाल कैसे हो सकता है और हिंदी को विश्व भाषा बनाने में किस तरह से माध्यम मददगार हो सकता है.
आपका अनुभव कैसा रहा?
-मुझे तो बहुत अच्छा लगा,. मैंने देखा है, और यह एक सच्चाई भी है कि इन्टरनेट पर हिंदी मुख्य रूप से निजी प्रयासों से पहुंची है. जो ब्लॉगर्स हैं उनका बहुत बड़ा योगदान हैं. ये जो फ़ॉन्ट्स विकसित हुए हैं इन्टरनेट पर, उनमें भी आप पायेंगे कि मुख्य रूप से निजी श्रम और निजी पूंजी लगी है. ब्लॉगर्स जो आये थे उनसे बात करके सबसे अच्छा मुझे ये लगा कि इनके मन में हिंदी को लेकर खास तरह की रागात्मक चिंता है. ये चाहते हैं कि हिंदी न सिर्फ एक समृद्ध भाषा बने, हिंदी न सिर्फ अलग अलग माध्यमों को अभिव्यक्त करने का एक मंच बने बल्कि हिंदी सही रूप में एक विश्व भाषा बन सके. आपने देखा होगा इसमें कुछ अंतरराष्ट्रीय ब्लॉगर भी थे, कविता वाचक्कनवी जी थीं, उन सभी से बात करके मुझे लगा कि सचमुच ये लोग हिंदी के लिए कुछ करना चाहते हैं.
ब्लॉग को लेकर आपका निजी तौर पर खट्टा मीठा अनुभव रहा है. इसके भविष्य को किस रूप में देखते हैं?
-दो दिनों के इस कार्यक्रम का जो शीर्षक था, केंद्र में जो चिंता थी वो ब्लॉगिंग के नैतिकता को लेकर थी. ब्लॉगिंग में क्या हम कोई आत्मनुशासन लागू कर पाएंगे? अपनी लक्ष्मण रेखा खुद खीच पायेंगे, या हम सरकारों को मौका देंगे कि सरकार हमारे साथ, हमारे लिए लक्ष्मण रेखा खींचे. अभी हाल में आईटी एक्ट आया भारत में, और वो एक यही प्रयास है. मेरा जो व्यक्तिगत अनुभव है उसे यहां शेयर करना नहीं चाहूँगा, लेकिन वो शायद एक खास तौर की हड़बड़ी थी या खास तौर पर उदंड किस्म का एक माहौल, वो उसकी देन था. क्योंकि आप बिना तथ्यों को जांचे परखे, बिना अपनी भाषा के बारे में सतर्क हुए, कुछ लिखते हैं या कुछ पब्लिश करते हैं ब्लॉग पर, तो आप एक खास तरह का जोखिम अपने लिए भी निमंत्रित कर रहे हैं. क्योंकि जो नया आईटी एक्ट आया है उसमें बहुत सारी चीजे दंडनीय बनाई गयी हैं. आप उस व्यक्ति के साथ निश्चित रूप से ज्यादती कर ही रहे हैं जिसके बारे में आप इस तरह की चीजे लिख रहे हैं, क्योंकि आपका वो उदंड किया हुआ उसका बहुत कुछ डैमेज करती है. साइबर एक्सपर्ट पवन दुग्गल जी ने कुछ उदहारण भी दिए. पवन दुग्गल जी ने बहुत अच्छा बोला, मुझे लगता हैं कि इन दो दिनों के कार्यक्रम की सबसे अच्छी उपलब्धि वही थी. पवन जी ने उन खतरों की तरफ हमारे जो नए ब्लॉगर्स थे, जो उत्साही ब्लॉगर्स हैं उनका ध्यान आकर्षित किया जो इस तरह के असावधानी से उत्पन्न हो सकते हैं, जिसमें आप भाषा के बारे में बहुत सावधान न रहें, जिसमें तथ्यों की पुष्टि करने के बारे में बहुत सावधान न रहें, ऐसा करके आप किस तरह के जोखिम उठा सकते हैं, पवन दुग्गल जी ने उसकी तरफ हमारा ध्यान खींचा.
सांप्रदायिकता के खिलाफ आप अभियान चलाते रहे हैं. फिलहाल इन दिनों क्या कर रहे हैं. और कैसे देखते हैं भारतीय समाज को,  अयोध्या प्रकरण पर हाल-फिलहाल जो फैसला आया है, उसके बाद.
-मैं भारतीय समाज के लिए एक सबसे बड़े नासूर के तौर पर साम्प्रदायिकता की समस्या को मानता हूँ. क्योंकि जो ये एक राष्ट्र-राज्य बनने की प्रक्रिया चल रही है, उसमें ये सबसे बड़ी बाधा है. भारत एक राष्ट्र बन सके और एक ताकतवर राष्ट बन सके और अगर हम इसमें विश्वास रखते हैं, तो हमें साम्प्रदायिकता की समस्या को एक चुनौती के तौर पर लेना चाहिए. दुर्भाग्य से हमारे देश में जो परिस्थितियाँ रही हैं, उसमें खास तौर से अल्पसंख्यक जो इस देश के रहे हैं, उनके मन में कहीं न कहीं ये भाव हमेशा रहा है कि भारतीय राज्य ने उनके लिए वह सब नहीं किया जो उसे करना चाहिए था या बहुत सारे दंगों में आपने पाया होगा कि भारतीय राज्य की सबसे दृश्यमान जो अंग है, पुलिस, उसने वह सब चीजें की जो उसे नहीं करनी चाहिए थी. तो मेरी दिलचस्पी अकादमिक स्तर पर इस समस्या में हुई थी और मैंने अपने छात्र जीवन से भारतीय समाज को समझने की कोशिश की और बाद में जब मैं पुलिस में आया तो मुझे इसका एक प्रैक्टिकल रूप दिखाई दिया. तब मैं तो सिस्टम के बाहर भीतर दोनों तरफ देखता था. जो चीजे मैं अकादमिक स्तर पर सोचता था उससे भी ज्यादा भयानक स्थितियां थी. उससे भी ज्यादा अनास्था थी अल्पसंख्यकों के मन में, भारतीय राज्य को लेकर के और पुलिस को लेकर के, तो अयोध्या उसी की परिणति है. अयोध्या में जो कुछ हुआ, वह नहीं हो सकता. 1949 में चाहे रामलला प्रकट हुए हों, या बाद में अस्सी के दशक में रामजन्म भूमि का ताला खुला हो या 6 दिसम्बर 1992 में मस्जिद गिराई गयी. ये सब नहीं हुआ होता, अगर राज्य ने अल्पसंख्यको के साथ वो व्यवहार किया होता जो एक राज्य से अपेक्षा की जाती है. राज्य का काम क्या है? अपने सारे नागरिकों की जानमाल की हिफाजत करना, तो वहां पर कहीं न कहीं हमसे चूक हुई और हमें उसका, हमें से मेरा मतलब हिंदू समाज से है, बहुसंख्यक समाज इस देश का, उसको कहीं न कहीं इसका पश्चाताप करना चाहिए.
आपका कोई ब्लाग भी है?
-ब्लॉग है. ब्लॉगर के तौर पर मैंने बहुत गंभीर काम नहीं किया क्योंकि मेरा तो दूसरा माध्यम है. मैं मुख्य रूप से कलम के माध्यम से लिखता पढ़ता हूँ. जब कोई दिलचस्पी की चीज मिलती है तो मैं अपने ब्लाग में डाल देता हूँ. मेरे ब्लाग का नाम है विभूतिनारायण.ब्लागस्पाट.कॉम.
आप हमेशा चर्चा में बने रहते हैं किसी न किसी वजह से. लोग कहते हैं कि आप चर्चा में रहने के मामले में राजेंद्र यादव को भी मात दे रहे हैं..
-कोई चीज सायास नहीं करता. ये बात सही है कि साम्प्रदायिकता को लेकर एक खास तरह से मैं सोचता हूं. और पुलिस में आने के बाद भी उस पर लिखता पढ़ता रहा, बोलता रहा. लोगों को कई बार आश्चर्य भी होता था कि सर्विस में रहते हुए एक आईपीएस अफसर कैसे बोल सकता है. उसके अपने जोखिम थे, जाहिर है कि उसके लिए मेरे मन में कोई पश्चाताप नहीं है, क्योंकि वो तो जानबूझकर के उठाया गया जोखिम था. अगर कुछ नुकसान हुआ होगा तो उसके लिए मुझे कोई अफसोस नहीं है. पर ये जो विवाद अभी हाल में उठा नया ज्ञानोदय के मेरे इंटरव्यू को लेकर के, उसके लिए मुझे तो सिर्फ इतना कहना है कि वो एक गंभीर विमर्श का मौका था, जिसे मैं अपनी असावधानी भी मानता हूँ, कुछ शब्दों का मैंने इस्तेमाल किया जिनका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए था और उससे वो गंभीर विमर्श का मौका चला गया. बजाये उस पर गंभीर विमर्श करने के, हम लोग गालीगलौज पर उतारू हो गए. और, कुछ लोगों का व्यक्तिगत एजेंडा था, कालिया जी को कुछ लोग ज्ञानोदय से हटाना चाहते थे. कुछ मुझसे इर्ष्या करते थे. तो वो सारे लोगों ने मिलकर इस तरह का पूरा माहौल बनाया, जिससे लगा कि मैं स्त्री विरोधी हूँ, और पिछले 35-40 सालों का जो मेरा लेखन था, मेरे सोचने का जो तरीका है, उसे खारिज करने की कोशिश की.. जाहिर है कि आप एक लेखक को उसके लेखन से ही पहचानते हैं. बहुत कम लोगों को उसके व्यक्तिगत जीवन में झांकने का या उससे मिलने जुलने का मौका मिलता है. 35-40 साल का, जो कुछ था, उसको नकारने की कोशिश की गयी. लेकिन उसमें मैं अपनी गलती भी स्वीकारता हूँ, कुछ शब्दों का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए था, पर मैं ये भी मानता हूँ कि अब जब ये सब कुछ ठंढा पड़ गया है, और जो शुरुआती आवेग था, जो लोग उसमें लगे हुए थे, विवाद को हवा देने में, उस विवाद के बहाने, कालिया जी को या मुझे नुकसान पहुचाने में, अब ठंढे पड़ गए हैं तो शायद इस पर गंभीर चर्चा हो सकती है.
वर्धा में हम लोगों को दिखाया गया कि आपके समय में विवि में काफी कुछ डेवलपमेंट हुआ है. आपसे पहले कुछ खास नहीं हुआ. क्या सच है.
-उचित नहीं है कि किसी एक कार्यकाल को महत्व दिया जाए क्योंकि मेरा मानना है कि विश्वविद्यालय मेरे पहले भी था और मेरे बाद भी रहेगा, ये जरूर है कि शुरू के पांच साल विवि ने गंवा दिए, और पांच सालों तक यहां कुछ नहीं हो पाया. जब मैं आया तो मुझे लगा कि अगर हम इसका जो भौतिक स्वरूप है, उसको इस लायक नहीं बना पाए कि ये एक धड़कता हुआ आवासीय विश्वविद्यालय बन सके, तो इसमें किसी तरह के इंटेलेक्चुअल कंटेंट के डेवलपमेंट के क्षेत्र में भी हम काम नहीं कर पायेंगे. मैं आते ही इसी बात पर ध्यान देने लगा कि विश्वविद्यालय में सड़के बने, छात्रावास बने, आवासीय परिसर विकसित होना चाहिए, हमारे स्कूलों में इमारते बने और मुझे संतोष है कि पिछले दो सालों में ये काफी हद तक, अब एक आवासीय विश्वविद्यालय दिखने लगा है.
कल कोई कह रहा था कि विवि में जो टीले हैं, उनका नामकरण होना है. क्या ये टीले हैं या पहाड़.
-नहीं पहाड़ तो नहीं कहेंगे, पहाड़ से तो आप एक खास तरह की ऊंचाई का बोध करते हैं, ये जो विदर्भ के क्षेत्र की जो श्रृंखलाएं हैं, टीलों के तौर पर हैं और दुर्भाग्य से पर्यावरण के प्रति जो उपेक्षा का भाव है, उसकी वजह से यहाँ वृक्ष बहुत कटे और ये टीले भी नष्ट हो रहे हैं. जो पांच टीले इस विश्वविद्यालय में हमें मिले हैं, हमें उनको सुरक्षित रखना चाहिए और उन पर घना वृक्षारोपण करके उनको एक खूबसूरत स्थल के रूप में विकसित करना चाहिए. उन्ही में से एक टीले का नाम गांधी जी के नाम पर रखा गया गांधी हिल, दूसरा टीला अब हम विकसित कर रहे हैं जो कबीर हिल है, जिसमें हिंदी के दलित परंपरा के नायकों को, उसके रचनाकारों, जो बड़े आइकन्स हैं उनकी प्रतिमायें लगाईं जाएँ, उनकी मूर्तियां लगाइ जाएँ ताकि उनकी रचनात्मकता से छात्रों को और यहां आने वाले समुदाय को अवगत कराया जा सके.
बाकी टीलों का नामकरण बाकी है?
-बाकी में जैसे भगत सिंह के नाम पर एक टीले को विकसित करने का विचार हैं मेरा, दो और टीलों के नामों के लिए, जो यहां के शैक्षणिक और गैर शैक्षणिक समुदाय के मित्र हैं, उनसे आग्रह किया है कि वे नाम बताएं सुझाएं. मैं पूरे हिंदी समाज से आग्रह करूँगा कि वे हमें सुझाव दें कि बाकी दो टीलों के नाम किनके नाम पर रखे जायें और उन्हें किस तरह से विकसित किया जाये.
विश्वविद्यालय के लिए अभी आपकी योजना क्या है?
-ये विश्वविद्यालय खास तरह के मकसद को लेकर बना था 1975 में. जो पहला विश्व हिंदी सम्मलेन हुआ था नागपुर में, उसकी परिणिति है यह विश्वविद्यालय, और उस सम्मलेन में जो केंद्रीय विषय था वो इस भाषा को एक विश्व भाषा बनाने से सम्बंधित था, उसी के सिलसिले में इस विश्व विद्यालय की परिकल्पना की गयी, और विश्वविद्यालय बना, मेरा मानना है कि ये विश्वविद्यालय, पूरी दुनिया भर में जहां कहीं भी हिंदी पढ़ी-पढाई जा रही है, हिंदी में गंभीर काम हो रहा है, शोध हो रहा है, उन सबके बीच में एक समन्वयक का काम करे. अभी 2011 में हमने दुनिया भर के डेढ़ सौ विश्वविद्यालय में जहाँ हिंदी पढाई जाती है, या हिंदी से सम्बंधित कोई काम होता है, उनके अध्यापकों को निमंत्रित किया है. और उनमें से कुछ ने अपनी सहमति दे दी है, यहाँ आने के लिए, वे यहाँ इकट्ठे होंगे और हम लोग उन क्षेत्रों को रेखांकित करने की कोशिश करेंगे जहाँ ये विश्वविद्यालय उनकी मदद कर सके. वो पाठ्यक्रम के विकास का क्षेत्र हो सकता है वो व्याकरण या वर्तनी से सम्बंधित समस्यायें हो सकती हैं. तो उनके लिए पाठ्यसामग्री तैयार करने का या पुनश्र्चर्या कार्यक्रम आयोजित करने जैसा क्षेत्र हो सकता है. जनवरी में इसको हम अंतिम रूप देंगे.
कोई ऐसी बात आप सोचते हैं जिसे शेयर कर नहीं पाते किसी से.
-देखिये शीर्ष का एकांत अपने आप में बड़ा भयानक होता है. जब किसी ऐसी स्थिति में होते हैं जहां आपके ऊपर कोई नहीं होता तो आपकी जिम्मेदारी भी बढ़ती है और आपका एकांत भी बढ़ता है. वो एक समस्या है, चूंकि मैं तो एक सामाजिक प्राणी हूँ. सामूहिकता में विश्वास करता हूँ. रोज शाम को मैं चाहता हूँ कि लोग मेरे पास बैठें या मैं लोगो के पास जाऊं. तब भी, जो शीर्ष का एकांत है, वह भयावह रूप में कायम रहता है. आप बहुत सारी चीजे जो अपने मित्रों के साथ पहले ठहाकों के साथ शेअर कर सकते थे अब नहीं कर पाते हैं. लेकिन मुझे तो ऐसा लगता है, जो भी मित्र यहाँ, अलग अलग पदों पर, अलग अलग क्षेत्रों में इस विश्वविद्यालय से जुड़े हैं, लगभग सभी जानते हैं कि मैं खुलकर के अपनी बात कहता हूँ और कई बार ऐसी बातें कह देता हूँ जिसे लोग कहते हैं कि आपको नहीं कहना चाहिए. इस तरह से यहां के साथियों की बेबाक राय या खुली राय भी मिलती है और विश्वविद्यालय के भविष्य को लेकर जो योजनाएं बनती हैं, उनमें एक सामूहिक भागीदारी जैसी चीज भी होती है.
विभूति जी, आपका उपन्यास है- शहर में कर्फ्यू, उसके बारे में जानना चाहेंगे. एक पुलिस अधिकारी के रूप में कितना वो आपके यथार्थ अनुभव का हिस्सा था, और कितना एक रचनाकार के रूप में?
-दोनों का मिलाजुला परिणाम है. मेरी दिलचस्पी साम्प्रदायिकता की समस्या में अपने छात्र जीवन से थी. मैं भारतीय समाज को जब भी समझने की कोशिश करता तो यहीं पर जा कर अटक जाता था, क्योंकि बहुत संश्लिष्ट और जटिल जमीन है वो. बाद में जब मैं पुलिस में आया तो, जो कुछ मैंने पढ़ा था, सोचता था, जो मेरा फॉरमुलेशन था, वो और दृढ हुआ. मेरा विश्वास इसमें बढ़ा कि भारतीय राज्य अल्पसंख्यकों के साथ, जिस तरह का व्यवहार करना चाहिए, उस तरह का बहुत सारे मौके पर नहीं करता हैं, और जो गुस्सा या जो ज्यादती का भाव अल्पसंख्यकों के मन में है वो बहुत गलत नहीं है. बाद में सन अस्सी में इलाहाबाद में मैंने अपनी नौकरी शुरू ही की थी, और मेरी तैनाती वहाँ हुई एसपी सिटी के रूप में, तो एक दंगे को देखने का मुझे मौका मिला, जिसके बैकग्राउंड पर ये उपन्यास ''शहर में कर्फ्यू'' लिखा.
ऐसे अनुभव हुए जो मुझे लगता था कि अगर पुलिस में नहीं रहा होता तो मुझे नहीं होते, हालांकि एक पुरानी कहावत है कि लैंग्वेज इज द वेरी पूअर सबस्टीच्युट ऑफ थॉट, आप जो कुछ देखते हैं, सोचते हैं, कई बार जब आप हाथ से लिखने लगते हैं तो फिसल जाते हैं. यथार्थ और भाषा उसको अभिव्यक्त नहीं कर पाती. तो शहर में कर्फ्यू लिखते समय मुझे लगा कि जो कुछ मैंने देखा था, या उन दस पन्द्रह दिनों में जो कुछ भोगा था, उस नर्क को, उसे पूरी तरह से मैं लिख नहीं पाया, बार बार वो चीजे हाथ से फिसल जाती हैं. लेकिन इसके बाद भी सही है कि शहर में कर्फ्यू काफी हद तक उस दंगे के अनुभवों पर आधारित है, और जाहिर है कि जब आप कोई चीज, कोई रचनात्मक प्रयास करते हैं, उसमें कुछ अस्ल हैं, कुछ ख्वाब हैं, कुछ तर्जे बयां हैं.
एक लेखक है, वो संवेदनशील होता है, बाहर से देखता-महसूस करता है. पर आप वहां एक पुलिस अधिकारी के रूप में तैनात थे, लेकिन उनकी अंदर की जो जिन्दगी है, उसके साथ किस तरह आप तादात्म्य स्थापित करते हैं, आइडेंटीफाइड करते हैं, वो कितनी परेशानी में हैं, वो जो पूरा एक घेट्टो है, जिसमें वे रह रहे हैं, जिसमें उनकी मृत्यु हो गयी है, उसको दफनाने के लिए नहीं निकल पा रहे हैं, इतनी जो बहुत ही बेचैनी वाली चीजे हैं, किस तरह से आप उनके साथ अपने को आइडेंटिफाई कर पाएंगे, आप तो एक तरह से फैन्स के इधर हैं.
-ये बात बहुत सही कही कि फैन्स के इधर रहकर के उधर का जीवन देखना, उसको महसूस करना, फिर उसको लिख पाना, निश्चित रूप से मुश्किल काम है, और इसीलिए तो मैं अपनी असफलता भी मान रहा हूँ. कई बार मुझे लगा कि बहुत सारी चीजें जो मैं देख रहा था या सोच रहा था वो मेरे हाथ से फिसल गयीं, वो मेरी भाषा उसको पूरी तरह से अभिव्यक्त नहीं कर पाई, लेकिन उसके साथ साथ, जो कुछ थोड़ा बहुत मैं लिख पाया, मैं समझता हूँ कि अगर मैं सिर्फ पुलिस अधिकारी होता, या सिर्फ लेखक होता तो नहीं लिख पाता. उसमें उस वैज्ञानिक समझ का भी हाथ है, जो छात्र जीवन के दौरान मैंने थोड़ी बहुत हासिल की थी. जिसे मार्क्सवाद भी आप कह सकते हैं. उसने दंगे के दौरान मनुष्य बने रहने में मेरी मदद की. बहुत सारी कठिन परिस्थितियों में मनुष्य बनने में मदद करता है मार्क्सवाद, और खास तौर पर साम्प्रदायिकता जैसी जटिल स्थिति में, बहुत ज्यादा करता है, क्योंकि पहली बार आपको लगता है कि आपने, आप एक हिंदू परिवार में पैदा जरूर हुए हैं लेकिन इस समय आप जब एक ऐसी स्थिति में हैं, जहाँ पर हिंदू ज्यादती कर रहे हैं, वहां आपका फर्ज यह बनता है कि फिर आप हिंदू या मुसलमान न रहें और एक मनुष्य के रूप में आचरण करें, और एक पुलिस अधिकारी के रूप में भी, जाहिर है कि पुलिस अधिकारी से जिस संविधान की उसे शपथ दिलाई जाती है, उससे अपेक्षा तो यही की जा सकती हैं कि वो ऐसे किसी भी परिस्थिति में, मजबूती के साथ खड़ा होगा, और हिंदू या मुसलमान नहीं बनेगा. तो ये वैज्ञानिक समझ जो थोड़ी बहुत विकसित कर पाया, उसने भी मुझे इसमें मदद की.
अक्सर कहा जाता है कि जब कोई फिक्शन लिखते हैं तो बड़े लेखक जो होते हैं, पहले उस बारे में सैद्धांतिक रूप से उनका एक बड़ा अध्ययन करते हैं, आपने भी क्या ये जो साम्प्रदायिकता की समस्या है, अपने उपन्यासों में उठाई है, तो कोई ऐसा सैद्धांतिक काम लंबे समय तक किया जो आपका कनविक्शन बन गया हो. 
-मैंने पहले कहा कि मैं नौकरी में आने के पहले ही इस तरह की चीजों में दिलचस्पी रखता था, जो भारतीय समाज को समझने में मेरी मदद करे, भरतीय समाज अपने आप में जटिल समाज है, आप जानते हैं, व्यवस्था ने उसे और ज्यादा जटिल बना दिया है, लेकिन उसमें ये जो एक खास मुद्दा था साम्प्रदायिकता का, जिसने हमारा पूरा, आप कह सकते हैं, चार पांच सौ साल का इतिहास बिल्कुल रक्तरंजित किया है, इतिहास के साथ साथ हमारा भूगोल भी कलंकित किया है, उस पर जा कर के, मेरी दिलचस्पी का बिंदु टिका. तब जाकर मैंने पढ़ना लिखना शुरू किया. अलग अलग लोगों से जो इस विषय पर काम कर रहे थे, उनके साथ बैठ करके उनसे सीखने का प्रयास किया. और जब मैं पुलिस में आया तो एक तरह से आप कह सकते हैं जो कुछ सैद्धांतिकी मेरे पास थी, उसको एक प्रयोगशाला मिल गयी यहां आ करके. राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते, और राज्य का जो सबसे दृश्यमान अंग हैं पुलिस, आखिर राज्य एक सांप्रदायिक दंगे की स्थिति में जहाँ हिंसा हो रही है, वहां लॉ एंड ऑर्डर जैसी समस्या हो, वहां पुलिस के द्वारा ही, राज्य पहचाना जाता है, तब जो पुलिस और अल्पसंख्यको के रिश्ते थे इस देश में, वो मुझे समझने में, जब मैं इस सेवा में आ गया तो आसानी हुई, और बाद में शहर में कर्फ्यू, उपन्यास लिखा. इससे भी मुझे मदद मिली. मुझे एक शोध का काम मिला. एक फेलोशिप मिली. उसमें भी मैंने सांप्रदायिक दंगों के दौरान जो विभिन्न समुदाय हैं, जो पीड़ित होते हैं, उनके किस तरह से रिश्ते बनते हैं राज्य और पुलिस के साथ, उनको समझने के लिए काम किया.
''शहर में कर्फ्यू'' के बहुत सारे भाषाओं में अनुवाद हुए, ऐसे एक दो अनुवाद जिसने आपको बहुत संतोष प्रदान किया हो?
-'शहर में कर्फ्यू' के करीब दस भाषाओं में अनुवाद हुए, और उर्दू में तो सौ से ज्यादा उसके संस्करण निकले हैं, अलग अलग अखबारों में, अलग अलग पत्रिकाओं ने, प्रकाशकों ने, ज्यादतर ने बिना मुझे सूचना दिए या बिना मुझसे इजाजत लिए उन्हें छापा, मुझे इसका बुरा भी नहीं लगता क्योंकि मैं तो विश्वास करता हूँ कि भाई जब तक वो लेखक के रूप में मेरा नाम न हटा दें या उसके कंटेंट में कोई फेरबदल न करे तो अच्छा है, ज्यादा लोगों तक पहुचने का मौका मिलेगा, तो शहर में कर्फ्यू का उर्दू में एक अनुवाद है वकार नासरी का जिसने मुझे बहुत संतोष दिया, और चौधरी मोहम्मद नईम जो शिकागो में उर्दू पढ़ाते थे, उन्होंने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया वो भी बहुत अच्छा लगा. मतलब एक लेखक के तौर पर मुझे बहुत संतोष हुआ इन दोनों अनुवादों से.
-आपके ताजा उपन्यास 'प्रेम की भूत कथा', ये कहना चाहिए की अदभुत प्रेम कथा, आपके जो बाकी उपन्यास हैं उनसे ये शिल्प के स्तर पर, काफी अलग है. आप अपनी कथा यात्रा में इस उपन्यास को किस तरह लेते हैं?
-ये उपन्यास तो अनायास ही लिखा गया. मैं मसूरी गया हुआ था, और रस्किन बॉड की एक पुस्तक पढ़ रहा था, मसूरी के बारे में, उसमें एक ह्त्या का जिक्र आता है जो 1909 में हुई है, और उसमें छोटे मोटे सन्दर्भ इधर उधर बिखरे पड़े हैं. उनको पढ़ते-पढ़ते एकाएक मुझे लगा कि ये तो, अदभुत प्रेम कथा बन सकती है. प्रेम कथा की जो बुनियादी शर्त है, वो मुझे लगता है कि वो त्याग या बलिदान या दुखांत होना है. मैं इसे थोड़ा सा एक्प्लेंन करूं कि अगर आप, गुलेरी जी के उपन्यास के अन्तिम दृश्य याद कीजिये, जब लहना सिंह घायल है और सूबेदारनी का बेटा भी घायल है. और एम्बुलेंस आती है ले जाने के लिए, गुलेरी जी ने कहीं ये नहीं लिखा, कि उस एम्बुलेंस में सिर्फ एक घायल जा सकता है, उसमें सूबेदारनी का बेटा भी जा सकता था, दिलीप सिंह या नाम मैं भूल रहा हूँ, और लहना सिंह भी जा सकता था लेकिन अगर लहना सिंह चला गया होता और बच जाता तो वो प्रेम कथा नहीं बन सकती थी. प्रभावशाली नहीं बन सकती थी. तो मेरे इस कथा का नायक भी जो एक अंग्रेज फौजी है, वो एक ऐसी हत्या के लिए फांसी चढ़ जाता है, जो पाठकों को पूरा यकीन है लेखक के तौर पर मुझे भी यकीन है. क्योंकि कहानी को खोजने के लिए मैंने बहुत जगह-जगह जा करके वो सरकारी रिकॉर्ड खंगाले, जेल के, अदालतों के, उस जमाने के मसूरी के अखबारों के, फाइलें, और मैं तो पूरी तरह से आश्वस्त था कि ये हत्या इसने नहीं की है, लेकिन अगर एलेन को फांसी नहीं लगती, और एलेन बच गया होता तो ये फिर प्रेम कथा नहीं बन सकती थी, एक विक्टोरियन नैतिकता की बलिबेदी पर जिसमें सिर्फ एक लड़की को रुसवाई से बचाने के लिए, क्योंकि जिस समय हत्या हुई थी, एलेन उसके पास था, और उस लड़की को अदालत में पेश नहीं किया जा सका. वो लड़की खुद भी जाहिर है 1909 का जो माहौल था वो आज का तो था नहीं कि वो अपनी मर्जी से अदालत में आकर के और जज को बताये कि नहीं ये मेरे पास था. और एलेन चुपचाप फांसी पर चढ़ जाता है. जो पादरी उसको कंफेशन कराने के लिए, उसके जीवन के अन्तिम तीन-चार हफ़्तों तक उसके पास जाता है, वो पादरी खुद अंत में बहुत भ्रमित हो करके निकलता है. वो ये भी नहीं समझ पाता कि कैसे इस अंग्रेज हुकूमत ने, जहां पर कि चूंकि वो खुद भी गोरा है, इटली का पादरी है, ये मानता है कि वो न्याय पर टिकी व्यवस्था है, कैसे एक अंग्रेज को, बिना किसी दोष के फांसी पर चढ़ाया जा सकता है. एक तो उसे यही स्वीकार करने में, बड़ी दिक्कत है पादरी को, लेकिन साथ साथ एलेन का जो पूरा का पूरा आँखों का, चेहरे का और उसके बोलने का जो भाव है, उसमें और तथ्य धीरे-धीरे पादरी के सामने खुलते हैं. उसमें ये भी यकीन नहीं कर पाता कि, एलेन सचमुच हत्यारा है, तो वो एक कन्फ्यूज्ड भर्मित व्यक्ति की तरह, एलेन से उसकी अंतिम मुलाकात के बाद निकलता है. जब मैं खुद भी इस कहानी पर शोध कर रहा था, और अलग अलग जगहों से रिकॉर्ड खंगाल रहा था, मैं खुद इस बारे में पूरी तरह से आश्वस्त था कि एलेन हत्यारा नहीं था, लेकिन एक लड़की को रुसवाई से बचाने के लिए वो फांसी चढ जाता है, मुझे सबसे ज्यादा इस चीज ने आकर्षित किया, और मुझे लगा कि एक प्रेम कथा या अदभुत प्रेम कथा है और बन सकती है. शिल्प के स्तर पर जरूर मैंने इसमें वो सारे प्रयोग किये जो इसके पहले के मेरे चार उपन्यासों में कहीं नहीं आते, लेकिन वो तो फिर रचनात्मकता की अपनी मांग है, स्थितियों की अपनी मांग है जिससे की आप एक कहानी, गढते हैं, बुनते हैं और उसे विकसित करते हैं.
प्रेम की भूत कथा एक रहस्य रोमांच का उपन्यास भी लगता है, प्रेम का उपन्यास भी है, नैतिकता का उपन्यास भी है, और काफी हद तक एक प्रयोगशील उपन्यास भी, आप खुद इस उपन्यास को क्या कहेंगे?
-जब राजेन्द्र यादव जी ने इसे पढ़ा तो उन्होंने मुझे एक एसएमएस भेजा कि भाई ये तो पता ही नहीं चलता कि हत्यारा कौन है? जेम्स का हत्यारा कौन है? जेम्स को मारा किसने? और भी बहुत सारे लोगों ने जिसमें हमारे समय के बड़े रचनाकार भी हैं, उन्होंने भी ये बाते मुझसे कही कि अंत तक ये उत्सुकता बनी रहती है कि हत्यारा कौन है? मेरा ये मानना है कि ये कोई मर्डर मिस्ट्री नहीं है, हत्यारा कोई भी हो सकता है. मैं जिस चीज को समझने की कोशिश कर रहा हूँ वो यह है कि कैसे एक व्यक्ति की इतनी उदाम और ऐसी उत्कट भावना हो सकती है जिसमें व्यक्ति अपनी प्रेमिका को रुसवाई से बचाने के लिए, अपनी प्रेमिका को बदनामी से बचाने के लिए फांसी पर चढ़ जाता है, और किसी तरह का कोई प्रोटेस्ट नहीं करता. किसी तरह का उफ़ नहीं करता बल्कि वह जो अंतिम पत्र लिखता है अपनी प्रेमिका को उसमें एक पंक्ति लिखता है नो रिगरेट्स माय लव, मेरे प्रिय मुझे कोई पश्चाताप नहीं मरते हुए, तो मैं इसे समझने की कोशिश कर रहा हूँ और वह किसी भी तरह से मर्डर मिस्ट्री जैसा उपन्यास नहीं है, जिसमें हत्यारा कौन था? हत्या किसने की? और किस हथियार से की? इत्यादि. उपन्यास का शीर्षक ही इस बात को बयां कर देता है कि मूलतः यह प्रेम कथा है.
जैसा कि आपने कहा कि जो नायक है वह एक स्त्री को रुसवाई से बचाने के लिए मौत को गले लगा लेता है. साथ ही आपने एक जगह भूत का जो प्रसंग है, स्त्री भूत को स्त्री भूत कहना पसंद करते हैं, भूतनी कहना पसंद नहीं करते.  एक तरफ ये संवेदनशीलता है और दूसरी तरफ जो ये आरोप है कि आपने बड़े असंवेदनशील होकर लेखिकाओं के बारे में एक टिप्पणी की, इन दोनों को आप किस तरह से देखते हैं?
-मैं पहले भी कह चुका हूँ, फिर कह रहा हूँ जिस इंटरव्यू का आप जिक्र कर रहे हैं उसके माध्यम से कुछ गंभीर चर्चा मैं करना चाहता था, स्त्री विमर्श सिर्फ देह का विमर्श होगा, स्त्री मुक्ति में देह की मुक्ति किस अर्थ तक सहायक है. मैं इन सारी चीजों पर बात करना चाहता था और खुले ढंग से बात करना चाहता था. अब इसमें दो दिक्कतें हुई. मैंने असावधानी से कुछ शब्दों का इस्तेमाल किया, जिनका इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए था. उसके लिए मैंने क्षमा भी अपनी महिला लेखिका मित्र हैं, उन सबसे मांगी. वह तो मुझे लगता है कि मेरी असावधानी थी लेकिन इसका खासा जो दूसरी दिक्कत हुई, इसमें बहुत सारे लोग सायास कूद पड़े. कुछ को कालिया जी का सर चाहिए था. कुछ को मेरा सर चाहिए. और वह शुरू के महीने डेढ़ महीने जब तक उनको लगा. जब तक खून की गंध आती रही तब तक वे हिंसक जानवरों की तरह हमला करते रहे लेकिन वो बहुत छोटी संख्या थी. ज्यादातर जो साहित्यिक समाज के लोग जो हमारे खिलाफ थे, मैं ये मान के चलता हूँ वे सचमुच इमानदारी के साथ इस बात से आहत थे कि मैंने उन शब्दों का इस्तेमाल किया, उन शब्दों के लिए मैंने क्षमा मांग ली. तो अब जब ये सब कुछ खत्म हो गया है. कई महीने बीत चुके हैं और जो लोग विवाद को जिन्दा रखने में, जिनकी दिलचस्पी थी वे भी मुझे लगता है शायद अब थक गए होंगे, और मैंने भी क्षमा मांग ली. तो मुझे लगता है कि अब इस पर कोई गंभीर विमर्श हो सकता है.
शहर में कर्फ्यू बहुत चर्चित रहा और इतना चर्चित रहा कि बाकी आपकी रचनाएं लगभग पृष्ठभूमि में चली गयीं. आगे आपकी क्या योजना है?
-सही कहा कि जब मेरी कहीं भी चर्चा होती है तो ''शहर में कर्फ्यू'' ही सबसे सामने आ जाता है, लेकिन शहर में कर्फ्यू के अलावा चार और मेरे उपन्यास हैं- पहला उपन्यास 'घर', जो अभी भी मैं अपना सबसे महत्वपूर्ण उपन्यास मानता हूँ, उसके बाद दूसरा उपन्यास 'शहर में कर्फ्यू', फिर आया 'किस्सा लोकतंत्र', 'तबादला' और 'प्रेम की भूतकथा'. ये मेरे पांच उपन्यास अभी तक आये हैं. शुरुआती दौर में कहानियाँ भी लिखीं, कुछ कहानियाँ इधर-उधर छपी भी, 'कल्पना' में भी छपी लेकिन जल्द ही मेरी समझ में आ गया कि कहानियाँ लिखना मेरे बस का नहीं है. कविताएं भी लिखी, यह अहसास हो गया, कविताएं मेरे बस की नहीं हैं. फिर मैंने अपने आप को उपन्यास तक सीमित किया और व्यंग्य मैं शुरू से लिखते आया हूँ, अपने छात्र जीवन से. मैं व्यंग्य लेखन करता रहा हूँ. बीच बीच में छिटपुट लिख देता हूँ, इस समय मैं जो काम कर रहा हूँ फिक्शन पीस है.
आपने शायद हाशिमपुरा का नाम सुना हो, 1987 के दंगे में मेरठ में एक बहुत खौफनाक हादसा हुआ था. हालांकि हाशिमपुरा को लोग मलियाना से कन्फ्यूज कर देते हैं, मलियाना अलग चीज है, एक घटना उसी समय वहां भी हुई थी. लेकिन हाशिमपुरा की उससे खराब स्थिति थी, जिसमें तीस से पैंतीस मुसलमानों को ट्रक में भरा और उनको मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले से ला कर के, गाजियाबाद में ही दो जगहों पर मार दिया था. मैं उस समय गाजियाबाद में एसपी था तो मैंने उनके खिलाफ मुक़दमा कायम कराया, और तब से मैं लगातार उसका पीछा कर रहा था. ये मामला अभी दिल्ली के एक अदालत में अपने अंतिम चरण में है, अब देखते हैं उसका क्या फैसला होगा? मुझे हमेशा से ये चीज हंट करती, विचलित करती थी कि आखिर आप कैसे किसी जवान आदमी, पैंतीस-चालीस लोगों को, जो स्वस्थ थे, तंदुरुस्त थे, इनको कैसे, बिना किसी दुश्मनी के आप पकड़ लेंगे और मार देंगे. और जो पीएसी के लोग इसमें शरीक थे, उसमें एक दो लोगों से मेरी विस्तार से बात भी हुई. इसका नायक था सुरेन्द्र पाल सिंह, इत्तेफाक से उसकी मृत्यु हो चुकी है, उससे भी मेरी कभी बात हुई तो मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि क्या क्या चीज है? कौन सी चीज आपको इस तरह के काम करने के लिए मोटिवेट करती है? प्रोत्साहित करती है? और आप बिना किसी झिझक के, बिना किसी पश्चाताप के किसी की जान ले सकते हैं, और उसमें बहुत सारे अनुभव मुझे हुए और मेरे लिए ये हाशिमपुरा एक कर्ज की तरह मेरे सर पर लदा था, मैं अब उसे उतार रहा हूँ, और पेंग्विन ने मुझसे अनुबंध किया है. मैं इस समय उसी पर काम कर रहा हूँ, मुझे लगता हैं कि अगले चार छह महीने में ये काम खत्म हो जाएगा. उन्होंने दोनों भाषाओं, हिंदी और अंग्रेजी में छापने का अनुबंध किया है.
आपके पसंदीदा रचनाकार कौन हैं? क्या आप गाते-गुनगुनाते भी हैं... अकेले में या कभी-कभी?
-मेरी दिलचस्पी का क्षेत्र फिक्शन है, कथा साहित्य है. कविता होता तो एक गुनगुनाने वाली बात जरुर आती, लेकिन जाहिर है कि कथा साहित्य को आप गुनगुना तो नहीं सकते लेकिन आप बार-बार, आप कुछ रचनाओं को पढ़ते हैं. मारखेज मेरे सबसे प्रिय लेखक हैं. मारखेज को मैं बार-बार पढ़ता हूँ, प्रेमचंद को मैं बार-बार पढ़ता हूँ, बावजूद इसके कि कई लोगो को लग सकता है कि हमारे समय की जो भाषा है, हमारे समय का जो शिल्प है, प्रेमचंद उस अर्थ में पुराने पर गए हैं. लेकिन मुझे तो लगातार वो नए लगते हैं, जब-जब मैं पढ़ता हूँ. कवियों में भी मेरी एक खास तरह की दिलचस्पी है. निरंतरता हिंदी कविता में जो है, उसमें कबीर से शुरू होती है, वो धूमिल, मुक्तिबोध, नागार्जुन, त्रिलोचन से होती हुई गोरख पाण्डेय या आज के नए कवियों में दिनेश कुमार शुक्ल, इन सब तक आती है, तो इन सबको मैं जब समय मिलता है, तो पढ़ता हूँ, और इनमें से बहुत सारे लोगों को गुनगुनाता भी हूँ. ये सही हैं कि अच्छी कविता, अच्छा शेर अगर कहीं सुन लें तो आप उसे दोहराते हैं. लेकिन मुख्य रूप से मैं गद्य का आदमी हूँ, तो उस अर्थ में तो गुनगुनाना नहीं कहा जा सकता,
-आखिरी सवाल हैं, आपको गुस्सा ज्यादा आता हैं क्या? या कब आता हैं?
-मैं 35 साल पुलिस में रहा, एक खास तरह की जिंदगी जीने की आदत पड़ी. जिसमें खास तौर से अनुशासनहीनता मैं कहीं देखता हूँ तो झुंझलाहट होती हैं, और अपने को कई बार काबू में नहीं रख पाता हूँ. लेकिन मेरे साथ एक अच्छी स्थिति ये भी है कि मैं बहुत जल्दी ये महसूस कर लेता हूँ कि मैं जिस तरह से रिएक्ट कर रहा हूँ वो उचित नहीं है, तो मैं जल्दी अपने ऊपर नियंत्रण भी कर लेता हूँ.
शुक्रिया आपने बात की, यहाँ पर आने का मौका मिला हमलोगों को. धन्यवाद.
आप लोगों को भी धन्यवाद.
मूल वार्तालाप या वीडियो देखने के लिये यहां चटका लगाएं... पार्ट-एक पार्ट-दो पार्ट-तीन पार्ट-चार पार्ट-पांच

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