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बुधवार, 31 अगस्त 2011

प्रेस क्लब / अनामी शरण बबल-6






बस जल्द ही बढ़ने  वाला है रेल किराया

जनता जर्नादन होशियार,  बा मुलाहिजा सावधान । लालू ममता की दया धार अब बंद होने वाली है। सात साल के बाद एक बार फिर रेल किराया में बढ़ने का दौर चालू होने जा रहा है। बिहार को रसातल में ले जाने के लिए कुख्यात बदनाम लालू राबड़ी राज का कलंक अभी तक बरकरार है, इसके बावजूद एक रेल मंत्री के रूप में लालू ने कमाल किया और लगातार पांच साल तक रेल किराये को बढ़ने नहीं दिया। आय के अन्य संसाधनों को बढ़ाकर रेलवे को घाटे में नहीं आने दिया। लालू के बाद ममता बनर्जी ने भी लालू के पदचिन्हों पर चली, और किराये को नहीं बढ़ाया। मगर ममता पार्टी के प्रेशर से रेल मंत्री बने दिनेश त्रिवेदी ने दया करूणा प्रेम ममता और संवेदना को दरकिनार करते हुए रेल भाड़ा बढ़ाने का गेम चालू कर दिया है। संसाधनों को तलाश कर आय में चौतरफा बढ़ोतरी के उपायों में जुट गए है। रेल घाटे से बेहाल है, क्योंकि ममता दीदी ने रेल की बजाय वेस्ट बंगाल पर तो ध्यान दिया, मगर रेल को लेकर अपने कर्तव्य भूल गई। देश यूपीए और सरदार जी की गद्दी पर कोई खास संकट (अन्नामय की तरह) नहीं आया तो साल 2011 के अंत तक देश की जीवनरेखा माने जाने वाली रेल में सफर करना पहले से कुछ महंगा जरूर हो जाएगा।



युवराज की छवि संवारने और दिखाने की मुहिम

अन्ना अनशन में देश एकजुट हो गया, मगर हमेशा की तरह दिल्ली में मौनी बाबा बने रहने वाले अपने युवराज यानी राहुल बाबा इस बार भी खामोशी के साथ हंगामा देखते रहे। देखते रहे अपनी पार्टी और पीएम की फजीहत। एक तरफ सरकार की पैंट गिल्ली होती रही तो दूसरी तरफ अन्ना की आंधी से पूरी सरकार का दम उखड़ती रही। हालात को हाथ से बाहर होते देख पर्दे के पीछे से कमान थामे राहुल बाबा को संसद में पूरा पक्ष रखना पड़ा। अन्ना के सामने सरकार को मत्था टेकना पड़ा। हालांकि ये सब हुआ तो राहुल बाबा के निर्देश पर ही। मगर जब पूरा देश अन्नामय होकर उल्लास मना रहा है तो सरकार को अगले साल होने वाले कई चुनावों की चिंता सताने लगी। लिहाजा लोकपाल बिल पर सरकार कोशिश करसरही है कि कुछ चक्कर इस तरह का चलाए कि लोकपाल मामले में अन्ना की जगह राहुल बाबा को भी पूरा श्रेय मिले, ताकि पार्टी सीना चौड़ा करके अन्ना का काउंटर कर सके।


भाई ने भाई को मारा( पछाड़ा)


कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी किसी भी पार्टी के नेता से मात खा जाए या पस्त हो जाए तो चलता है। मगर खासतौर पर अपने चचेरे भाई वरूण गांधी से पस्त हो जाए यह खुद राहुल प्रियंका सोनिया समेत पार्टी को कतई बर्दाश्त नहीं होता। कई मामलों में वरूण से मात गए राहुल बाबा  की अपने भाई के सामने बोलती ही बंद हो गई। खासकर कई साल तक इंतजार के बाद भी शादी नहीं करने पर इसी साल छोटे भाई ने बनारस में शादी करके बड़ी मम्मी के दुखते रग पर हाथ रख दिया। पूरे देश में इस शादी से ज्यादा चर्चा सोनिया राहुल प्रियंका के इसमें शरीक नहीं होने से हुआ। अब ताजा मामला अन्ना आंदोलन का है कि युवा भीड़ अंत तक अपने युवा नेता राहुल बाबा को तलाशती ही रही, मगर वे नहीं आए, मगर वरूण की सक्रिय मौजूदगी ने एक बार फिर अपने बड़े भाई को पछाड़ ही दिया।.


बहनजी की सक्रियता आई काम

पंजा पार्टी में मैडम अम्मा हैं तो प्रियंका वाड्रा गांधी पूरे पार्टी के लिए बहनजी है। हालांकि वे राहुल गांधी की सगी बहन है, पर पूरे पार्टी ने इन्हें अपनाया और माना। इस समय पार्टी सुप्रीमों और इनका मम्मी जब देश से बाहर है तो पार्टी का सारा काम पर्दे के पीछे बहनजी के हाथ में है। देश की जनता के मूड को भांपना और अन्ना की ताकत के सामने सरकार के घुटने टेकने की कवायद और चालाकी सब भाई-बहनों के निर्देश पर हुए। हालांकि पार्टी सुप्रीमों द्वारा गठित कोर कमेटी को साथ लेकर तमाम फैसले हुए मगर कुल मिलाकर पार्टी और टीम पीएम के कोरे ज्ञान ने दिखा और बता दिया कि अपन सरदार जी विवेक पूर्वक और अपने मन से काम करने में एकदम कोरे कागज है। पीएम के नासमझी पर बहनजी ने कई बार रोष भी जताया। अब देखना है कि देश में खराब हुई पार्टी और सरकार की छवि को युवराज के सहारे ठीक करने की मुहिम में क्या अपने सरदार जी भी कदमताल कर पाएंगे ?  

पार्टी का आत्ममंथन

अन्ना हजारे का अनशन भले ही खत्म हो गया हो, मगर पंजा पार्टी में आत्ममंथन का दौर चालू हो गया है। अन्ना हजारे को हल्केपन से आंकने की भूल से लेकर अनशन के दौरान गलत बयानी और नेताओं के उग्र तेवर से होने वाले नुकसाल की समीक्षा की जा रही है। कपिल सिब्बल, मनीष तिवारी,से लेकर प्रणव मुखर्जी,लुबोधकांत सहाय दिग्गी राजा से लेकर तमाम नेताओं के बयानों पर यही वोग समीक्षा करने में लगे है। खासकर प्रियंका और राहुल नेताओं द्वारा अन्ना की फौज को कमतर आंकने की भूल को माफ करने के मूड में नहीं है। अगले साल होने वाले यबपी समेत कई राज्यों के चुनाव और समाज में पार्टी की इमेज को लेकर एक गुप्त रिपोर्ट मंगवा रही है। इस बाबत एक सर्वे भी कराने पर जोर दिया जा रहा है। खासकर यूपी में अन्ना के बाद की हालात को जानने के लिए बाबा उतावले है कि सालों की मेहनत का कोई असर अभी बाकी है या अन्ना की आंधी में सब धुल(उखड़) गया। (खबर लिखने के बाद पता चला कि बेकाबू होकर बोलने में उस्ताद अपने मनीष तिवारी पर कैंची चल गई है)


अन्ना के सामने सब ढेर


महाराष्ट्र में जनसंघर्ष करने वाले अन्ना हजारे की मार्च 2011 तक नेशनल इमेज होने के बाद भी लोकप्रिय नहीं थे। खासकर धाक और प्रभाव के मामले में भी अन्ना को कोई खास महत्व नहीं दिया जाता था। मगर, एक गांधीवादी अहिंसक आंदोलनकारी की साफ सुथरी छवि होने के कारण ही दिल्ली के नेताओं को अन्ना की जरूरत पड़ी। अप्रैल में अपने मजबूत इरादे और आत्मबल से सरकार को मजबूर करने वाले अन्ना रातोरात इतने लोकप्रिय हो गए कि लोग इन्हें आज तो गांधी जैसा मानने लगे है। देश विदेश की मीडिया में सराहे जा रहे अन्ना के सामने सारे धूमिल से हो गए है। चाहे खिलाड़ी हो या अभिनेता कोई भी इनके सामने टीक नहीं पा रहा । अन्ना के पीछे पूरा देश देखकर तो सारे हैरान है कि इस 74 साल के नौजवान ने इतनी बड़ी लकीर खिंच दी है कि इसके सामने तो अभी कोई नहीं ठहरता।
           
ये तो होना ही था

अन्ना हजारे की दादागिरी नुमा गांधीगिरी जिसे अब अन्नागिरी के नाम से पुरा देश जानता, मानता और अपनाया है। अन्ना की छवि देश के दूसरे गांधी के रूप में उभरी। लोकप्रियता के चरम पर स्थापित अन्ना की इस लोकप्रियता से बौखलाए टीम अन्ना के (खुद को अन्ना से ज्यादा महान मानने वाले) सदस्यों में स्वामी अग्निवेश और रामदेव बाबा का हश्र सारा देश देख रहा है।  बंधुआ मुक्ति मोर्चा और अंग्रेजी विरोध समेत पांच तारा होटलों के बाहर प्रदर्शन करने वाले को तरजीह देने की बजाय अन्नागान सो तो बौखलाना ही था। इस भीड़ में कोई घास भी ना डाले इससे बेहतर है कि कपिल (?) मुनि की गोद में बैठकर मलाई ही चाटे। यही हाव योगगुरू रामदेव का हुआ। अन्ना के अप्रैल वाले अन्नागिरी से परेशान बाबा कालाधन के खिलाफ जोरदार हंगामे के साथ अन्ना को डाउन दिखाना चाहते थे। पर रामलीला मैदान में राम(देव) लीला क्या हुआ  यह सारा देश जानता है। अपने लालच और स्वार्थ वश अन्ना के साथ आने वालों का राज खुल गया। वाचाल रामदेव की बोलती ही बंद हो गई है। देखना है कि सरकारी मेहमान बनने की लालसा वाले अग्निवेश का क्या होता है। चाहे जो हो , मगर बंधुआ मुक्ति मोर्चा के पुरोधा अब खुद सरकारी बंधुआ होते जा रहे है।

मनमोहन पर मनमोहनी कविता

अन्ना आंदोलन के दौरान युवाओं ने कविता पैरोडी और हास्य व्यंग्य से जमकर उल्लास मनाया। अपने सरदारजी यानी पीएम मनमोहन सिंह सबों के सबसे पंसदीदा थे। मुन्नी बदनाम होने के बाद मुन्ना बदनाम हुआ की तर्ज पर लोगों ने अपने मुन्ना यानी मनमोहन जी पर कुछ इस तरह वार किया।

मुन्ना बदनाम हुआ मैडमजी आईसी(कांग्रेस आई) के लिए।
अपनी इज्जत का फलूदा बनाया मैडमजी आईसी के लिए।।

 राजा ने जमकर टूजी मे इजी करप्शन किया
 सुरेश शीला पर आपने एक्शन नहीं लेने दिया
 सालों की इमेज का काम तमाम किया मैडमजी आईसी के लिए।।

मनमोहन पर एक और गाने का मजा ले

अली बाबा 40 चोर की बात हुई पुरानी।
नए जमाने में है अब तो नयी कहानी .।।
मॅाल मोबाइल मेट्रो की मौज है
और सबसे ईमानदार पीएम की टोली में 40 चोरों की फौज है।।  



और जो अन्नागिरी से बच गए (लात जूता खाने से)

अन्ना हजारे भले ही सरकार के लिए सिरदर्द बन गए हो, मगर कुछेक लोगों के लिए तो अन्ना तारणहार बन गए। उनके मन में यह सोचकर ही दिल बैठ जाएगा कि यदि अन्ना महाराज का अनशन नहीं चल रहा होता तो इंगलैंड में गोरों के हाथों बुरी तरह शर्मनाक मात खाने के बाद अपन हिन्दुस्तान के पागल क्रिकेट प्रेमी इन क्तिकेटरों की क्या गत करते। अगर आपको कुछ याद नहीं है तो 2007 में विश्वकप के पहले ही दौर में बाहर होने के बाद तो सारे क्रिकेटरों को अपने फैन से चोर की तरह छिपछिपा कर घर पहुंचना  पड़ा था। किसी के घर के बाहर होलिका दहन की गई को किसी के घर को ही फूंकने की कोशिश की गई। मगर धोनी के धुरंधरों का ये सौभाग्य ही रहा कि हारे भी इस कदर कि खुद ही शर्मसार हो गए मगर अन्ना की आंधी में ज्यादातर भारतीय युवाओं ने क्रिकेट में देश की भारी पराजय को कोई भाव ही नहीं दिया।

कामनवेल्थ के चोरों मिला जीवनदान

पानी अब इतना महंगा औक दुर्लभ होता जा रहा है कि पानी की तरह पैसा बर्बाद करने का मुहाबरा भी गलत दिखने लगा है। सरकारी पैसे को अनाप शनाप खर्चे करने वालों में दिल्ली की सीएम शीला दीक्षित भी अन्ना अनशन से बच गई। एक तरफ अन्ना और दूसरी तरफ सोनिया का इलाज कराने अमरीका जाना भी शीला को लाईफ मिलने का कारण बन गया। अपन पीएम साहब तो दबंग है नहीं कि मैडम के बगैर कुछ कर सके। यानी अन्ना को सरकार चाहे जितना कोस ले मगर वाकई अन्ना कितनों के लिए धन्ना बन गए। जय हो जय हो अन्ना हजारे जी जय हो।



नवाकुंरों के जज्बे को सलाम

करीब पांच माह (एक्जाम और एडमिशन) के अंतराल के बाद वर्ष 2011-12 में मीडिया छात्रों को पढ़ाने का खाता दयालबाग एजूकेशनल इंस्टीट्यूट (डीइआई) से शुरू हुआ। दिल्ली की अपेक्षा छोटे और मीडिया के लिहाज से बेहद कम साधनों वाले शहर में रहकर  मीडिया में कैरियर बनाने की तैयारी करना हमेशा कठिन होता है। पत्रकारिता के बारे में सैद्धांतिक तौर से ज्यादा नहीं जानने के बाद भी इनके उत्साह और कुछ कर गुजरने की लालसा देखकर मन संतुष्ट हुआ। चाहे अतुल से लेकर पवन बघेल, पूजा मनवानी, मोनिका ककरवानी, श्वेता सारस्वत, रेणु सिंह, अंशिका चतुर्वेदी हो या नेहा सिंह। यानी कुल आठ छात्रों के मिजाज को देखना उत्साहवर्द्धक लगा। वहीं मीडिया के प्रति लड़कियों की जीवटता उत्साह (भले ही लगन कहना अभी जल्दबाजी होगी) को देखना और भी ज्यादा अनोखा और सुखद लगा कि इस बार आठ छात्रों में छह लड़कियां है। इनके जज्बे को सलाम करता हूं। साथ ही इनके हेड ज्योति कुमार वर्मा जी और इनके तमाम साथियों से  अपेक्षा करूंगा कि वे इन्हें इस तरह तराशें ताकि उत्साह ज्ञान और अनुभव से ये भावी पत्रकार खुद को निखार सके। सबों के उज्जवल और बेहतर भविष्य की कामना के साथ मीडिया या पत्रकारिता में स्वागत है।

यमुना किनारे यमुना संग एक सप्ताह




मन ना माने मन की बात / हरदम बह जाए मन के साथ
मन निराला मन मतवाला मन का नहीं कोई ऱखवाला
यमुना तेरा रूप निराला, तेरी आभा तेरी धार दूर दूर तक केवल रफ्तार
आगरा की भीड़ भाड़ से दूर यमुना नदी के किनारे यमुना पंप के किनारे एक सप्ताह का बसेरा। जहां पर यह कहा जाए कि दुनियां की खबरें केवल छन छन कर आ रही थी तो भी कोई हर्ज  नहीं। यमुना नदी को यदि यही एक दो माह छोड़ दे तो दिल्ली में यमुना सड़े हुए नाले की तरह दिखती रही है। मगर यहां पर तो यमुना की जवानी रवानी धार ऱफ्तार देखकर तो लगता ही नही है कि हम उसी यमुना के पास है, जिसके लिए मन में ना भाव है ना ही कोई चाव है।
मगर आगरा के इसी यमुना कोदेखकर मेरा मन मयूर नाच उठा। अपने टेंट वाले कमरे में  गप्प शप्प के बीच भी कलरव करने की बजाय बेकल बेकाबू दूर दूर तक आर्तनाद करती यमुना की आवाज मुझे हमेशा लुभाती और मैं सुबह दोपहर शाम यमुना किनारे कुएं पर खड़ा होकर उसकी प्यास बेकली सबको अपने साथ ले जाने की पागलपन को देखता रहता। पानी के खेल में रोजाना उतरती और चढ़ती यमुनाको देखना भाता। पल पल रंग और रूप बदलती यमुना की आभा में गजब का सिंगार लगता। कभी पास बुलाने का मनुहार लगता कभी नेह निमंत्रण तो कभी देह निमंत्रण सा लगता। उसकी धार के साथ प्यार भरा आमंत्रण मानो यमुना में समाहिता होने का दे रहा था निमंत्रण।
 मैं भीकब तलक रूक पाता इसके सामने। मेरे मन में भी उठने लगा सुनामी महसूस होने लगा मानो मैं भी उतरकर उसमें अपना रूप अपनी ताकत वल शौर्य कला और सौंदर्य से रोक दूं उसकी विह्वलता। होकर साकार उसमें हो जाउं समाहित। लेकर अंगड़ाई रोक दूं नदी की बेकली। बुझा दूं और सबकुछ मिटा देने की अनबुझ प्यास, फिर शांत कर दूं यमुना की ज्वाला। दूर खड़ा मैं उसके किनारे महसूस कर रहा हूं,. मानो तेज धार और लहरों के बीच मैं खड़ा होकर कर रहा हूं मंगल प्रतिवाद। तेज थपेड़ों और अपने में मिलाने मिटाने  अंगीकार कर लेने की बेताबी बेकली के साथ  वो ले जाना चाहती है दूर दूर बहुत दूर तक अपने लिए अपना बनाकर अपनी धार में रफ्तार में प्यार में करके गिरफ्तार। हमेशा के लिए अपना बनाकर।
मैं भी हार सा रहा था इस बार उस बेकाबू बेजार धार केसमीप. सदियों से विह्वल और बेताबी से करती रही संहार। आज मन मे भी किसी बाल गोपाल सा बांध देने की लालसा जागी। मेरे भीतर मानो फन उठाकर कालिया जागने लगा हो। करने संहार और टीस देकर  उसको पीने की करने लगा हो कोशिश. लगा मानो उसके संग उतराता धार में कभी होकर पस्त बह जाता साथ साथ तो कभी मैहोकर सवार रोकने में सफल हो जाता उसकी बेचैनी को। कभी होकर समाहित उसके संग धार में खो जाता तो कभी लगता मानो आनंद तृप्ति सुख संतोष समर्पण से होकर आतुर लबरेज एकाएक बाहर निकलता उसकी ठंड़ी जल मगन शीतल कोमल आगोश से। एक सप्ताह तक रोजरोज मानो करता रहा उसके संग रास लीला। अठखेलियों के साथ करता उसकोतंग।लगता मानो उसने भी अपना मानकर,अपना बनाकर सबकुछ सहती रही, झेलती रही खेलती रही मेरे संग संग होकरमचलती उछलती कूदती रहीमेरे अंग अंग को करके सराबोर करती रही भरती रही तरंग उमंग।
ना जाने कैसै और कब बीत चला एक सप्ताह का प्रवास। उदास सा मैं खड़ा किनारे लेना चाह रहा था विदाई। लगा मानो पानी के उतार से उदास है मेरी यमुना। धार में रफ्तार में नरमी आ गई थी। शांत होकर कलरव करती मानो होकर उदास दे रही हो फिर आने के भावबिह्वल निमंत्रण के साथ विदाई। कह रही हो मानो लोग आते है देखकर चले जाते है, मगर तुमने किया मेरे संग संवाद तेरा आना तेरी लीला मुझे भी लगा प्रिय। शांतदेखकर मेरा मन होकर विह्वल होचाहे जो विनाश हो, पर तेरे रंग रूप के निराले की आभा तेरा सौंदर्य मुझे हमेशा भाता और लुभाता है।
जाने से एक दिन पहले फिर चढने लगी यमुना। दिल्ली और हरियामा की बारिश ने फिर से भर दी हो जान। मेरे जैसे ही और की टेंटो मे रह रहे हरियाणा डेढगांवा पंजाब यूपी और दिल्ली के टेंटों के भीतर पानी आ गया।केवल राजस्थानी लोगों ने टेंट के चारो तरफ पहले ही गड्ढा बनाकर यमुना को रोक दिया था। दयालबाग के निर्मल रासलीला के दरवाजे को पार करते ही यमुना नदी का तट दिखता। एक तरफ दूर से ताजमहल के गुबंद मानो बाय करता हुआ दिखता.तो दूसरी तरफ रोजाना यमुना मेरे भीतर आती और अपने संग ले जाती। प्यार से दुलार कर . आखिरी दिन चढाव के बाद भी पानी की धार को देखने मैं चला। एक तरफ दिल्ली जाने की बेकली के बाद भी यमुना को देखने और विदा लेने का लोभ नहीं छोड पाया। देखते ही मानो वह बोल पड़ी। लोग आते है और छोड़ जाते है बहुत कुछ।मगर तुम हो जो छोड़ कर जा रहे हो अपनी छाप। बादलों के अपने प्रेमी से मिलने की बेताबी और पागल रफ्तार के नीचे यमुना भी मानो मेरे भीतर उतर कर मुझे अपने लायक अपने ढंग से बनाकर ले चलना चाह रही हो बांहो में भरकर निगाहों में बसाकर दूर रहकर भी शायद अपना बनाकर.
फिर आने की लालसा के साथ लौट रहा हूं तो रास्ते भर आती रही यमुना की याद जो इस बार मन में बस गई मन में उतर गई मानो हमेशा-हमेशा के लिए।










शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

प्रेस क्लब / अनामी शरण बबल-5

शुक्रवार, १९ अगस्त २०११







युवराज की फटकार के बाद  जागी टीम मनमोहन

अन्ना की आंधी इतनी विकराल होगी, शायद इसका अनुमान तो टीम अन्ना समेत अन्ना को भी नहीं थी। दिल्ली पुलिस द्वारा तमाम नियम कानून को ठेंगे पर ऱखकर जो कुछ किया गया, उसके खिलाफ देशव्यापी जनसैलाब को देखकर भी पहले तो वकील साहब ने मनुजी को यकीन दिला दिया कि बस चार छह घंटे का ये तमाशा है शाम ढलते-ढलते सब कुछ सामान्य हो जाएगा। अपने बेस्ट माइंड पर भरोसा करके मनु साहब बेफ्रिक थे, मगर पूरे देश में आंधी देखकर टीम मनमोहन का दम उखड़ने लगा। अपने युवराज को भी मुगली घूंटी 555 की तरह हर बार समझा बूझा लेने वाले वकील साहब ने इस बार भी राहुल बाबा को कोरा बाबा मानकर दिलासा बंधाया। मगर बेकाबू हाल देखकर अपने सौम्य और सुकुमार बाबा का खून खौला और शाम की मीटिंग में सबको जमकर लताड़ा। लताड़ के बाद ही अपने चेहरे पर मुस्कान लपेटकर टीम मनु की त्रिमूर्ति सोनी पी.चिंद और वकील साहब प्रेस के सामने आकर डैमेज कंट्रोल में लगे कैमरों के सामने मुस्कुराते दिखे। खासकर वकील साहब का खिलखिलाता स्माईली फेस (चेहरा) देखना तो वाकई हैरतनाक लगा।

कहां से कहां तक

एक कहावत मशहूर है कि चौबे जी गए छौब्बे बनने और दुबे होकर लौटे। इसका सार ये है कि चालाकी के फेर में बेवकूफ बने। कमसे कम अन्ना के मामल में सरकार और इसकी पीछलग्गू दिल्ली पुलिस को एक बार फिर ( दो माह में दूसरी बार)  किरकिरी का सामना करना पड़ा। मगर मरता क्या नहीं करता। सरकारी नौकरी जो ठहरी। सरकार के आदेश का तो पालन करना ही था। सरकारी निर्देश पर ही रामदेव को चूहा बनाया गया  और अन्ना को भी चूहेदानी में बंद करने के लिए ही आमादा अहिंसा प्रिय मनमोहन साहब ने तो अन्ना को मयूर विहार से ही उठाकर मुबंई भेजने की योजना तय कर रखी थी। जिसमें पुलिस ही फेल हो गई. तिहाड में भी किसी बहाने गाड़ी में बैठाकर दिल्ली से बाहर करने की सरकारी षड़यंत्र का पर्दाफाश हो गया। अपने सबसे ईमानदार पीएम की ईमानदारी का दम पूरी तरह जगजाहिर हो गया। लोग तो यह कहने भी लगे है कि जब मैडम के फरमान के बगैर पीएम साहब सांस नहीं ले सकते तो आपके लिए आपके साथ दिल्ली पलिस की क्या मजाल कि वो अपने मन से अन्ना को छू ले। यानी अन्ना लहर में यूपीए और युवराज के डैमेज कंट्रोल की सारी नौटंकी पर से राज उठ गया है कि सबकुछ सरकार के संकेत पर ही हो रहा था।

जिद्दी नहीं संजीदा बने अन्ना

यूपीए सरकार का बाजा बजाने और तमाम नेताओ और नौकरशाहों को चूहा बना देने के बाद अब बारी आपकी है अन्ना। एक माह के अनशन से भी जनता में वो मैसेज नहीं जाता जो मात्र 48 घंटे में हो गया। अब जब सरकार घुटनों के बल आ गई है तो फिर क्यों जिद्द ? सरकार ने बिना शर्ते जब 15 दिन की मोहलत दी है तो इसमें भूखे रहने से ज्यादा जरूरी है जनलोकपाल बिल को बहस का एक मुद्दा बनाया जाए। सभी दलों को इसमें संशोधन और बेहतर बनानेकी पहल शुरू कराने की। अब अपनी टीम के साथ इसको सर्वमान्य बनाने पर जोर देने की ताकि सरकार को एक मजबूत लोकपाल लाना पड़े। अन्ना दा एक कहावत है काठ की हांड़ी बार बार नहीं। एक ही मुद्दे पर देश भर में बारम्बार खून नहीं खौलता। इस बार जब सारा देश आपके पीछे है तो अनशन, अन् जल त्याग से भी ज्यादा जरूरी है इस मौके को सार्थक बनाने की, जिसका मौका समय हर बार नहीं देता है ना देगा।


अपने ही फंदे में सरकार

रंग बदलने में गिरगिट को भी मात देने वाले तेज (स्मार्ट) कांग्रेसियो ने यह पूरे देश को जता दिया कि मनमोहन सरकार में कौशल पूर्ण रणनीति बनाने वालों का वाकई अकाल हो गया है। कमसे कम अन्ना हजारे के आंदोलन के मामले में तो पीएम से लेकर वकालती अंदाज में पोलटिक्स करने वाले नेताओ तक में समय की नब्ज भांपने की कितनी कमी है। रामदेव को कुचलने वाली यूपीए सरकार के हौसले नादिरशाहों जैसी हो गई थी। लगता था मानो एचएमवी की मुद्रा में बैठी दिल्ली पुलिस से वो कोई भी जुल्म को समय की मांग बताकर करवा लेंगे। अन्ना की आंधी को रोकने के लिए मनु सरकार ने योजना तो सुपर बनाई थी, मगर अपनी टीम में रामदेव एकल थे जिन्हें पुलिसिया शिकार बनना पड़ा, मगर अन्ना की टीम के लोगों को देखकर मनु जी अपने ही फंदे में फंस गए। सरकार की फजीहत देखकर तो वाकई सोनिया की सेहत खराब हो जाती। सचमुच विदेश में जाकर इलाज कराने का कारण अब पता चल गया कि मनु के भरोसे देश को तो छोड़ा जा सकता है, मगर किसी बीमार को नहीं।

यह कैसी चुनौती ?

अपने दिवगंत पिताजी के नाम और काम की वैशाखी पर सवार होकर जिस उम्र में सचिन पायलट मंत्री बन गए है, अगर उनके पीछे पापा की लाठी नहीं होती तो शायद दर्जनों जूतियां घीस जाने के बाद भी वे सांसद तो दूर विधायक बनना भी बस सपना ही रहता। योगगुरू रामदेव आज भले ही मात खा गए हो, मगर लोकप्रियता और असर के मामले में तो वो राजेश पायलट पर भी भारी ही पड़ते। बच्चा पायलट ने रामदेव को संसदीय चुनाव में खड़ा होने की चुनौती देकर अपने आपको जता दिया कि बाप के नाम का साथ होना एक बात है, मगर मंजा होना अलग बात है। रामदेव को तो छोड़ो ( वो तो देश के किसी भी क्षेत्र से किसी के लि्ए भी आज बड़ी चुनौती बन सकते है) मगर फारूक अब्दुल्ला के दामाद पायलट साहब गैर गूर्जर वोट वाले देश के किसी भी संसदीय इलाके से अपनी किस्मत ही आजमा कर तो दिखा दे कि क्या वहां से (पर) पायलट साहब की उड़ान मुमकिन हो पाएगी या......?

कांग्रेस के असली दुश्मन

कांग्रेस के असली दुशमन रामदेव अन्ना हजारे या विपक्षी दल के वो नेता तो कतई नहीं है, जिससे मनु सरकार की नींद हराम हो गई है। मनु सरकार को दरअसल सबसे ज्यादा नुकसान करने वालो में वकील कपिल सिब्बल, दिग्गी राजा(बिना किसी स्टेट के ), मनीष तिवारी है। बगैर कुछ सोचे समझे बेकाबू होकर बोलने वाले इन नेताओं से मनु जी के  साथ युवराज बाबा सोनिया गांधी से लेकर हर उस आदमी को निराशा हो रही , जिसने मनु सरकार से अपनी उम्मीदें बांध रखी थी। सच में मनु जी आप थोड़ा बोलने का रियाज करें, ताकि मौके पर लोग आपकी वाणी सुनकर आपके मुखार बिंद को पहचानने लगे। बोलने के नाम पर रोने वाले मनु जी कुछ करो । अपनी नहीं तो देश के बारे में विचार करे, जिसकी इज्जत का गुब्बारा खतरे में है।

जनता के बीच जाना है

अन्ना हजारे ने नेताओं को एकसूत्र में बांधकर एक कतार में अपने लिए खड़ा कर दिया। कल तक अन्ना के आंदोलन की खिल्ली उड़ा रहे लालू भाई भी सोनिया का दामन छोड़कर अपना सूर बदल दिया। मुलायम, मायावती और लेफ्ट तो पहले ही आ चुके थे। कमल छाप भी शुरू से अन्ना के साथ था। गैर यूपीए के तमाम घटक एक साथ हो गए। खासकर चारा मामले में अभी तक फंसे और जगन्नाथ मिश्र के साथ एक और मामले में नवाजे गए लालू के बदले रूख पर मैं चौंक गया। पाला बदल पर लालू ने कहा क्या करे चुनाव में तो जनता के बीच जाना होता है, और अन्ना की आंधी से बचना ही इस समय की पोलिटिकल मांग है.....।

कुछ करिए गुलाम जी

लोकसभा में केवल रोने और मगरमच्छ वाला आंसू बहाने से काम नहीं चलेगा। सरकार से कोई जीत सकता है क्या ? अगर डाक्टरी की पढ़ाई के बाद कोई एक साल के लिए भी गांवों में नहीं जाता है तो यह आपके और आपकी सरकार के लिए ज्यादा शर्मनाक है। एडमिशन के समय ही एक साल का एग्रीमेंट और पालन नहीं करने पर अयोग्य करार कर देने की चेतावनी का अनिवार्य कानून बना देने के बाद गुलाम साहब क्या मजाल कि कोई गांव में ना जाए ? मगर गावों को तो आप और आपकी सरकार ने केवल चुनाव के समय देखा और रोया। फिर भूल गए। गावों में संसाधन देने के नाम पर मनु साहब का बजट खराब होने लगता है, और प्रणव दा के टसूए चूने लगते है। अस्पतालों की बेहतर हालात और डाक्टरों की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था रहे तो आज का युवा अपनी मिट्टी से तो जुड़ना चाहता है, मगर सरकार की नीतियों से जमीन क्रंकीट में बदलते जा रहे है। सारा विकास शहरी हो गया है, वहां पर जान जोखिम में डालकर कौन जाएगा गुलाम साहब ?  रोने की बजाय अपने गिरेबान में झांककर देखेंगे तो आजाद ख्याल के गुलाम साहब असलीयत का अंदाजा लगेगा।


फेसबुकिया दोस्ती से जरा बचके

निसंदेह फेसबुक लोगों को जोड़ने का एक बड़ा माध्यम बन चुका है। नए दोस्तों के साथ पुराने लोग भी एक जीवंत रिश्तों से जुड़ जाते हैं। मगर अपन 46 साल के कलम घिस्सू को बड़े बुरे अनुभव से गुजरना पड़ा। पंजाब के एक इंजीनियरिंग कालेज की एक 24 साल की लड़की (शायद वो लड़का हो) नीरू शर्मा ने दोस्ती मैसेज में रिलेशन बनाने का आफर दिया। वहीं, अभी चार पांच दिन पहले राकेश गर्ग नामक एक युवक ने फ्रेंडशिप करके रोजाना चैट करने लगा। और चौथे या पांचवे दिन गर्ग ने कहा कि क्या हमलोग सेक्स की बाते कर सकते है ? मेरे द्वारा लताड़ने और फिर बात ना करने की हिदायत पर कहीं पिंड छूटा। अपने से 20-22 साल कम उम्र के युवाओं से इस तरह की बातें सुनकर खुद पर शर्म आती है। प्लीज फेसबुक(पर) से जरा बच के भी रहना दोस्तों।

और क्रिकेट की आंधी थम गई

अन्ना की जोरदार आंधी में यह खबर दब गई कि बिहार की तरफ से रणजी खेलने वाले ताबड़तोड़ खब्बू बल्लेबाज रमेश सक्सेना की टाटा( जमशेदपुर) में गुमनाम सी मौत हो गई। हालांकि कई सीएम और खिलाड़ियों ने शोक जताया। आज से 42-44 साल पहले 1967 में इंग्लैंड़ के खिलाफ एकमात्र टेस्ट खेलने वाले(17 और 16 रन)  रमेश ने कोई धमाका तो नहीं किया, मगर दो तीन साल तक कई देशों में टीम के साथ ले जाए जाने के बाद भी फिर कभी मौका नहीं मिला। युसूफ पठान धोनी और याद करे कपिलदेव की हंटर बल्लेबाजी(175 रन)  से भी उम्दा खेलने वाले रमेश के पीछे कोई (गाड) फादर नहीं होना ही इसकी चमक को खा गया। मुझे जमशेदपुर मे आज से 30 साल पहले कालीचरण की वेस्टइंडीज टीम  के खिलाफ सक्सेना की खेली धुंआधार पारी आज भी याद है (तब मैं केवल 15 साल का था और जिद करके घर से 350 किलोमीटर दूर टाटा केवल मैच देखने गया था) कि सक्सेना की 86 रनों की पारी में हर छक्के( 8 छक्के) पर कप्तान कालीचरण सक्सेना के बल्ले को आकर बार बार देखते थे। और जब सक्सेना आऊट हुए तो कालीचरण ने उन्हें अपनी बांहों में जकड़ लिया। आज अगर सक्सेना खेल रहे होते तो इसमें कोई शक नहीं कि इन्हें अपनी टीम में ऱखने के लिए विजय माल्या और शाहरूख खान के बीच करोड़ों की जंग होती। गुमनामी के बाद भी केवल 149 मैचों में 17 शतक और 61 अर्द्धशतक की मदद से 8141 बनाने वाले सक्सेना के दमदार रिकार्ड आज भी चयनकर्ताओं को शर्मसार करने लिए काफी है। बिहार के इस चमकदार और मेरे हीरो रहे रमेश सक्सेना को श्रद्धासुमन के साथ नमन। 

नोट-- एक सप्ताह के लिए मैं दिल्ली से बाहर (असली भारत) में रहूंगा, जहां पर आज भी कम्प्यूटर और लाईट का होना एक स्वप्न है। लिहाजा प्रेसक्लब-6 समय पर प्रस्तुत नहीं कर सकता। इसका इलसा पोस्ट दो या तीन सितम्बर को करूंगा। इसके लिए क्षमायाचना सहित --सधन्यबाद
आपका 
अनामी शरण बबल
20.09.2011 सुबह 3.23 मिनट

शनिवार, 13 अगस्त 2011

प्रेस क्लब / अनामी शरण बबल-4





और इस साल भूत भी हो सकते हैं मनु साहब
मनमोहन जी के दिन लगभग लद चुके हैं। सहन और बर्दाश्त करने की भी सारी लक्ष्मण रेखाएंपार हो गयी है। पंजा पार्टी में लोगों का सब्र टूट रहा है। लोगों की निगाह मैड़म की तरफ है कि कुछ करो। ज्यादातरों को राहुल बाबा के संत भाव से भी बड़ी शिकायत है। देश भर में (प्रायोजित) हंगामा करने वाले बाबा से भी इनके रसोईघर के बैठकियों ने कहना चालू कर दिया है कि अभी नहीं तो कभी नही। अभी ढाई साल बाकी है। युवा फेस और युवा तेवर से जनता सब भूल जाएगी। रही बात संगठन की तो मन साहब के रहते तो जब पार्टी ही ना रहेगी  तो फिर संगठन का क्या होगा। यंग सलाहकारों ने तो यहां तक कहने का (दुस्साहस) कर दिया कि अभी नहीं तो 2019 से पहले का चांस नहीं लगता। तब तक तो आपके यंग फेस का जादू भी उतर जाएगा। बेडरूम में भी बेधड़क प्रवेश करने वाली एक सूत्र की माने तो मैड़म भी सब जान और मान भी रही है। सारे हालात ठीक रहे तो इस साल दीपावली तक जोरदार हंगामा हो सकता है।  यानी देश भर मे भाई बहन की जोड़ी सत्ता में आकर देश को फिर से मोहित (ठगने) की कोशिश करेंगी, यानी अपने मनु साहब जल्द ही भूत (पूर्व) हो सकते हैं।।
किसके भरोसे बैतरणी
मनमोहन सरकार अब देश को मोहित करने वाली मनमोह(ना)  सरकार नहीं रही। यूपीए के तमाम घटकों में यह सुगबुगाहट जोर पकड़ने लगी है कि 2014 की वैतरणी किसके सहारे ?  मैडम के देश से बाहर होने की वजह से मनमोहन के बाद की संभावनाओं पर भी सुगबुगाहट जोर पकड़ रही है। (भीतर) घाघों को भी मात देने में माहिर पंजा छाप के चेलों समेत कमल सरीखे साफ सुथरे नेताओं वाली पार्टी में भी नये चेहरों की तलाश शुरू हो गयी है। एक तरफ मनमोहन के गिरते ग्राफ को दिखाकर  अपने ना- ना कहने वाले राहुल बाबा को फोकस किया जा रहा है, तो दूसरी तरफ पीएम प्रत्याशी के रूप में गुजरात के नरेन्द्र मोदी के नाम हवा में है। गोधरा में भले ही मोदी के नाम होने की वजह से ज्यादातर भाजपाईयों को ही मोदी नागवार लगे, मगर देश भर में मोदी के नाम पर एक माहौल तो बन ही सकता है। खासकर एक सख्त और दबंग प्रशासक (भले ही अपनों को यह पसंद ना हो) के रूप में जनता की पंसद हो सकते है। यानी भावी चेहरों की तलाश का क्या अर्थ निकाले ? मिडटर्म पोल या 2014 का पूर्वाभ्यास ?
किससे खतरा है मन साहब
यूपीए सरकार इस समय अधर में है। बहुत अधिक बोलने की नौकरी करने वाले कुछ नेताओं की वजह से (जरूरत से भी कम) बोलने वाले अपने (बे अ) सरदार मनमोहन सिंह सांसत में है। इन पर रोजाना आरोपों की माला पहनाने का सिलसिला चालू हो गया है। इनकी ईमानदारी का ग्लोबल फेम ढोलक भी फट कर पैच से भर चुका है। इनका भोलापन भी अब बमभोला सा दिखने लगा है। इनके शासन को आजादी के 65 साल का सबसे (बे) ईमान (दारो) शासन काल माना जाने लगा है।  एक तरफ अन्ना का लोकपाल आंदोलन सिरदर्द बना है तो दूसरी तरफ विपक्ष भी लंगोटी लेकर सरकार पर पिल पड़ी है। मनू भैय्या इतने घबराएं हुए है कि लोकतांत्रिक तमाम संस्थाओं को ही सत्ता विरोधी मान चले हैं। उस पर आग में घी डालने का काम वकील साहब करके मन साहब के रक्तचाप को आसमान पर बैठाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ा है। मनू जी खुद फैसला करो कि कौन से वे लोग हैं जिनसे आपको सबसे ज्यादा खतरा है। आस्तीनों से या बाहर देश भर में हंगामा करने वालों से। विवेक के साथ इसका तो आप फैसला कर ही सकते है। क्यों ?
घिर गए कलमाडी
आमतौर पर दुश्मनो से घिर जाने पर बच कर निकलने की उम्मीद कम हो जाती है, मगर (आस्तीनों में छिपे) अपनों से घिर जाने पर तो बच निकलने की सारी उम्मीदें खत्म हो जाती है। इस बार अपनो से कलमाडी बाबू घिर गए है। कांग्रेस को हमेशा एक टोपी की जरूरत पड़ती है। कामनवेल्थ गेम में तो हजारों करोड़ रूपए का घोटाला हुआ है। सारा पैसा तो कलमाडी न खा सकते थे ना खाए है, मगर सरकारी धन को अपने बाप की जागीर समझकर कलमाडी ने खूब होली दीवाली खेली.। इस गोलमाल में तो पीएम से लेकर तमाम देशी विदेशी लोगों पर भी आंच आने लगी है। तब करप्शन में माहिर कांग्रेसियों ने सारा ठीकरा कलमाडी के मत्थे फोड़ने का गेम चालू कर दिया। और तो और दिल्ली की सीएम को भी पूरी बेशर्मी से बचाने में कई लोग आगे आ गए। पार्टी अब बेफ्रिक सी है क्योंकि सुरेश कलमाडी को भीतर करके इस करप्शन के तमाम असली खिलाड़ियों और बंदरबांट में सबसे ज्यादा हिस्सा  लेने वालों को पर्दे में ही छिपाकर रखने का पंजा खेल जो सेफ्टी के साथ कर लिया जाएगा।
कलमाडी को लेकर
संसद में आजकल हंगामा बरपा है। विपक्ष का आक्रमण जारी है और कामनवेल्थ (करप्शन) गेम के आयोजन समिति के मुखिया को किसने बनाया इस पर हमला और बचाव का खेल हो रहा है। कांग्रेसी एनडीए सरकार पर कलमाडी को बनाने का आरोप लगा रही है। अरे पंजा भाई गेम हुआ 2010 में और माना कि अप्वाईंटमेंट का प्रोसेस अटल बिहारी के टाईम में हुआ होगा, मगर सवाल ये ज्यादा प्रमुख है भैय्या कि इस खेल में नोटों की हेराफेरी करने में सुरेश कलमाडी के पीछे और कौन कौन थे। माना कि अटल बिहारी जी ने ही मुखिया बनाया मगर सारा गोलमाल तो अपन ईमानदारी के दालमोठ खाने वाले वाले मनु साहब के समय मे हुआ है क्यों ?  इस पर क्यों पर्दा डाला जा रहा है यारों ?
अन्ना के संग आंख मिचौली
जन लोकपाल बिल के नाम पर अन्ना एंड कंपनी और यूपीए सरकार के मुखिया( यदि कोई एक हैं तो) के बीच तू डाल डाल मैं पात पात का खेल चल रहा है। सरकार की उहापोह और दुविधा के चलते आज पूरा देश अन्ना को नायक (गांधी भी) मान कर सरकार की कार्रवाई पर नजर गड़ये है। अन्ना सरकार के लिए सिरदर्द बन गए है, और सरकार जाने ना जाने पर देश के लोग यह समझ रहे है कि सरकारी सख्ती से एक ही साथ मैडम की इमेज के अलावा सरदारजी, वकील साहब समेत तमाम लोगों पर जनता की सोच बदल सकती है। अन्ना और सरकार के बीच अपनी अपनी पसंद के लोकपाल को लेकर जिद लगी है। अनशन के लिए कई स्थान बदलने के बाद सरकार ने अब अन्ना को केवल तीन दिन के अनशन की अनुमति दी है। अन्ना हीरो बने हो या ना हो मगर धन्य हो सरदार जी कि आपके चंगू-मंगूओ ने अन्ना को वाकई देश का हीरो बना दिया। मनु साहब अपने सलाहकारों को सलाह देना चालू करे नहीं तो ये लोग आपकी भी एक दिन लुटिया डूबो कर ही मानेंगे।
विकिलिप्स का कमाल या धमाल
 जनता के बीच धमाल करके अपना कमाल (जौहर) कर दिखाने में माहिर भारतीय नेताओं पर तो फिलहाल विकिलिप्स वाले ज्यादा भारी पड़ते दिख रहे है। कंबल ओढ़कर घी पीने वाले इन नेताओं को राजनीति का खोटा धंधा बनाए रखने के लिए अपनी गरीब (फटेहाल) जनता के सामने अपनी भी गरीब और दरिदर छवि रखनी पड़ती है। एक वोट और एक नोट के नाम पर चुनाव के समय अपनी कंगाल जनता को भी चूसने वाले इन चमोकन जोंक छाप नेता पीछे नहीं रहते। विकिलिप्स ने विदेशी बैंकों में जमा करके छिपा रखने वाले नेताओ की पहली सूची जारी की है। इसमें कारपोरेट सेक्टर से लेकर नेताओं, बिचौलियों और नौकरशाहों की रखैल की तरह कुख्यात नीरा राडिया के नाम सबसे ज्यादा 289 लाख करोड काली कमाई का काला धन जमा है। देश के पीएम खानदान के पीएम रह चुके पायलट साहब भारतरत्न मि. क्लीन के खाते में 198 लाख करोड रूपए जमा है। जेट एयर के मालिक नरेश गोयल के नाम 145 लाख करोड है। चरवाहा स्कूल के जनक और बिहार के धरती पुत्र के नाम 29 हजार करोड़ की मामूली रकम जमा है। दागदार चेहरो वाले इन कालिया नेताओो और नौकरशाहों दलालों बिचौलियों से भरे इस देश में गरीब जनता तू धन्य है जो इन हरामखोरों को बारम्बार हजारों बार लगातार माफ 
देती है।
गांधी खानदान की संपति
 विकिलिप्स द्वारा काला धन रखने वाले तमाम बेशर्म काले चोरो के नाम का खुलासा क्या हुआ कि चारो तरफ गांधी परिवार की संपति को लेकर यह चर्चा गरम हो गया है कि अगर बेशुमार धन है तो इसका वे (बाबा दीदी अम्मां और मुरादाबादी गेस्ट) करते क्या है ? इस पर एक चम्मच छाप नेता( युवा) ने कहा यार एक दारोगा या एक करप्ट बाबू इतना कमा लेता है कि दो एक पुश्त जीवन बशर(हरामजादगी के साथ ) तो कर ही लेती है, फिर ये तो खानदानी पीएम है. नाना, दादा बाप से लेकर जो बनता है वो भी तो मत्था टेकू ही होता है। यानी पैसों की होली भी खेले तो देश के नंबर एक पैसे वाले नामी (खानदानी) अमीर रईस पर भी ये लोग (गांधी बाबाखानदान के) बीस ही साबित होंगे। यानी राम( पंजा- पंजा) जपना और पूरा देश अपना ही सबसे माकूल चुनावी पोएम भी रखा जाए तो कोई हर्ज नहीं ?
यशवंती आरोप या अनुभव
वित मंत्री रह चुके यशवंत सिंन्हा अपन झारखंड से है। लोकसभा में कभी झारखंड प्रभारी रहे अजय माकन और अरबों रूपए के घोटालों के दागदार पूर्व सीएम मधु कोड़ा पर थैली देने का आरोप लगाते लगाते खुद शिकार हो गए। मैकू पर चुटकी लेते हुए यशवंत ने यशवंत ने निशाना साधा कि वे जब भी रांची आते तो कोड़ा पर हटाने का कोड़ा चलाते हुए बेदखल करने का डेट बताकर जाते। इनके पीछे पीछे कोड़ा दिल्ली जाते और थैली में शहद-मधु का प्रसाद माकन के घर पर पहुंचा देते। थैली कभी बड़ी कभी छोटी होती रहती थी, जिससे मधु का सत्ता पर कोड़ा चलता रहा। इस आरोप पर एक ही साथ माकन और कोड़ा यशवंत पर पिल पड़े। थैली को लेकर यशवंती सफाई की बारी थी। मगर पूरे सदन में इसे यशवंती पीड़ा (अनुभव) करार दिया गया कि माकन के बहाने यशवंत को अपने काल की यशवंती थैली की याद आ रही है। यानी लालाजी आरोप लगाकर साफ निकल भी ना सके।
जे डी का रिर्हसल
इस बार एकदम सिर पर 15 अगस्त है और संसद में हंगामा (गदर) ऐसा कि स्वतंत्रता दिवस और लाल किला से देश को संबोधित करने का मन ही मन साहब का नहीं बचा है। उस पर अच्छी हिन्दी का रियाज कराके मन साहब के लिए सरलतम हिन्दी  के सस्ता सरल सुंदर सुगम और बोलचाल में आसान हिन्दी भाषा का उपयोग करने वाले हिन्दी के मास्टर साहब जेडी यानी जर्नादन द्विवेदी जी सांसत में है। देश को संबोधित करना जरूरी है, कि इसे इग्नोर भी नहीं किया जा सकता है। पीएम साहब का अभ्यास छूटा हुआ है, और जेडी का ब्लडप्रेशर हाई है कि रक्षा करो प्रभू इस बार सरदार जी तो लालकिला से देश को संबोधित करेंगे या श्रद्धाजंलि देंगे इसका खुलासा तो लाल किला पर ही होगा।
मीडिया से परहेज
मीडिया वालों को देखते ही अपन बतीसी( नकली) निकालकर हाल चाल लेने के बहाने अपनी खबर इडियट बाक्स पर चलवाने में एक्सपर्ट     शीला दीक्षित फिलहाल मीडिया से दूर भाग रही है। वो भी इस कदर कि प्रेस कांफ्रेस में भी खुद ना आकर अपने जूनियर मंत्री लवली को बतौर खड़ाऊं भोंपू बनाकर भेजा। बेसब्र भोपू ताव खाने के लिए कुख्यात है। शीला की तरफ से प्रेस को संबोदित कर रहे लवली लवली बात ना करके मीडिया पर ही भड़क उठे और बीच में ही फरार हो गए। 13 साल से सत्ता सुख ले रही शीला को अभी ये भी पहचान नहीं है कि कब कहां कैसे किस समय किसको भेजा जाए ?, जो बिगड़ी बात बनाकर आए, ना कि बस नाम के लवली पूरे माहौल को ही अगली (बदसूरत) बनाकर ही छोड़े। मामला चापलूसो के भरोसे नहीं छोड़ने का है आंटीजी पैसा खाने में जब कोई शर्म नहीं तो फिर चेहरा छिपाने में क्यों (बे) शर्म।
सत्ता का मुर्शरफी (करण) सेवा
पाकिस्तान के मुर्शरफ साहब पिछले 11 साल से भारत में हैं, और मौज मस्ती के साथ रह रहे है। इनकी सेवा में तीन शिफ्ट में 12 पुलिस वाले लगे है। इनकी देखरेख और सेवासुश्रुषा में सरकार हर माह 25 हजार खर्च करती है। अभी तक इन पर 33 लाख रूपए खर्च हो चुके है। मगर बुरा हो पाक सरकार की कि वो अपने मुर्शरफ साहब को वापस लेने पर राजी ही नहीं है। जी हां यहां पर मुर्शरफ साहब यानी पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुर्शरफ साहब की बात नहीं हो रही है। हम बात कर रहे है है पाकिस्तान के एक ऊंट की कर रहे है, जिसका नाम मुर्शरफ है और 11 साल से वो एक घुसपैठिया के रूप में बोर्डर पर पकड़ा गया। भारत सरकार मुर्शरफ की वापसी के लिए लगातार दम लगा रही है, मगर पाक सरकार की बेरूखी से भारत सरकार इस मेहमान की आवभगत में लगी है। और कमसे कम अगले पांच साल तक यानी 15 लाख रूपए की सेवा करनी ही होगी, क्योंकि ऊंटों की उम्र 22 साल होती है। और भारतीयों के हाथ लगा मुर्शरफ तब केवल छह साल का था। यानी अभी पांच छह साल की उम्र अभी अल्ला की दुआ से बाकी है। 
लंदन से लेकर मुरादाबाद तक
 मुझे यह जानकर बड़ी हैरानी हो रही थी कि इंगलैंड़ के कई शहरों में आगजनी. दंगा के नाम पर लूटपाट हो रहा है फिर भी अपना भारत और पाकिस्तान में खून नहीं खौल रहा है।  दंगाईयों की शराफत पर मैं बड़ा शर्मिंदा सा हो रहा था कि खाम ही खा में मैं दंगाईयों (भाईयों) पर पिल पड़ता हूं। तभी अलीगढ में धारा 144 लागू हो गया, और मुरादाबाद  में तो बाकायदा दंगे का खेल शुरू हो गया। यूपी के कई शहरों में टेंशन है। हालांकि माना जा रहा है कि कांवड़ियों की वजह से ज्यादातर इलाकों में टेंशन है। बनारस आजमगढ़ में भी दंगे की खुश्बू फैलने के इंतजार में है। पाकिस्तान के मुलतान से लेकर लाहौर और करांची में भी दंगे जैसे हालात बने हुए है. यानी हमारे अनुकरण करते करते जब यूरोप में आग फैली तो हम कैसे पीछे रहते। दंगों का चलन ही एशिया और भारत पाक की सरजमी से जो हुआ है.।
मौजमस्ती का पुलिसिया आफर
दिनभर गप शप करके मन थक सा जाता है फिर भी रोचक मनोरंजक उतेजक बातचीत और दोस्ती के लिए किसी नेहा 0041799772989 तो मोबाईल नंबर 009609711100 पर कोई प्रीति तो 006745599983 पर कोई सिमरन मुझसे बातें या रोमांस करने के लिए बेताब है। मौजभरी रसभरी रसीली चुटीली मनमोहक मनभावक और नुकीली उतेजक बातें और रोमांस के लिए ना जाने क्या क्या कहेगी। इस नंबर को देखकर मैने अपने एक  पुलिसिया मित्र को बताया कि जरा प्यार भरी नुकीली चुटीली बातें करके तो देख लो । नंबक को अपने पास रखने की बजाय एक टेलीफोन डायरी निकालकर मेरी तरफ बढ़ाया। लो शरीफजादे जितने चाहो नंबर लिख लो और फोन करके एक कोड बोल देना।  फिर तो तेरी मौज हो जाएगी। सेवा में सलमा सितारा से लेकर तमाम सिमरन नेहा पुतुल तेरे पास होटल में आ जाएगी। वो भी फ्री। मेरे कंधों पर धौल जमाते हुए पुलिसिया रौब में वो  बोल पड़ा कि  बेटा हम पुलिस वालों से दोस्ती करोगे तो हमारा भी कोई फर्ज बनता है कि नहीं। मैं तो चकित ही रह गया। बस फटाफट उठकर भागने में ही अपनी ज्यादा भलाई माना।. मैं सोच रहा था कि हजारों पुलिस वालों को अपना यार बनाकर ही तो कोई जूही नेहा सिमरन जैसी शरीफजादी रंड़िया खुलेआम धंधे का बेधड़क निमंत्रण देती फिर रही है, वो भी बेधडक।
मर्डर बाला का दुख
एक कहावत ह कि सौ चूहा खाकर बिल्ली चली हज को।  एक और बिहारी कहावत मशहूर है कि सूप तो सूप अब तो छलनी भी एक दूसरे को दूसने (चिढ़ाने लगे, जिनमें सैकड़ों छेद होते है)। हरियाणा की मर्डर बाला यानी महेश भट्ट के साथ कैरियर स्टार्ट करके अपनी अदाओं और (जो माने या समझे) से अब तक सैकड़ों को लुभा और (पट) पटा कर मर्डर कर चुकी मल्लिका शहरावत को अपने लिए  लायक (मनभावन) कोई दुल्हा ही नहीं मिल रहा है। बड़ा अफसोस है कि दिल को हाथ में लेकर घूमने वाले फिल्मी दुनिया में इस मल्लिका को अपने लिए अपने ही लायक ईमानदार पत्नीव्रता एकनिष्ठ कोई विश्वसनीय (?) जीवनसाथी  (कितने दिनों के लिए) खोज नहीं पा रही है। दरअसल जो जो मल्लिका के पास नहीं है वहीं अपने  दुल्हा में तलाश रही है। मैड़म देर ना हो जाए कहीं। थोड़ा लिबरल हो लो तो फिर इतने मिल जाएंगे कि फिर किसी को मर्डर करने की भी नौबत पड़ सकती है।
सुपर हिट आरक्षण
 आरक्षण का सुपर हिट होना तय है। इसके लिए अब प्रकाश झा से लेकर बिग बी भी मस्त हो गए है। यह तो प्रकाश की किस्मत है कि आरक्षण को लेकर पहले तमिलनाडू में और बाद में तो यूपी से लेकर पंजाब और ना जाने कौन कौन राज्य में कहीं सरकार तो कहीं किसी संगठन के चलते इस पर फिलहाल रोक लगा दी गई। प्रचार पर फिर प्रकाश क्यों खर्च करे। करोड़ो लूटाकर भी प्रकाश बाबू जितना प्रचार नहीं कर पाते उससे ज्यादा तो आरक्षम का प्रचार कोर्ट कचहरी से हो गया यानी सुपर हिट के लिए आरक्षण को आरक्षित कर लिया गया है। तू और तेरे बुलंद सितारे धन्य है झा जी। अब देखने वाली तो यह बात है कि आरक्षण की कमाई दबंग से ज्यादा होती है या......।

बुधवार, 10 अगस्त 2011

भयावह है कल की तस्वीर




-लिमटी खरे
दुनिया की आबदी जिस द्रुत गति से बढ रही है, उसे देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि आने वाले समय की कल्पना मात्र से रोंगटे खडे हो रहे हैं। दुनिया के पास महज बीस साल का तेल और सौ साल तक उपयोग करने के लिए कोयले का भंडार बचा है, समय रहते अगर इस मामले में कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया तो हमारी आने वाली पीढियां आधुनिकता का लबादा तो ओढ सकेंगी पर वे जीवन का निर्वाह आदिकाल के संसाधनों में ही करने को मजबूर होंगी। पेट्रोलियम के भंडार के समाप्त होते ही वाहनों के पहिए थम जाएंगे। सुपर सोनिक विमान का अत्याधुनिक वर्जन तो इजाद कर लिया जाएगा पर उसे किससे उडाया जाए यह विकराल समस्या होगी। हवा में तैरने वाली कार या बाईक तो बन जाएंगी पर उन्हें चलाया किससे जाए यह सबसे बडी समस्या होगी। आलम यही होगा जिस तरह अस्सी के दशक की शुरूआत तक शहरों में लगने वाले मेले ठेले, प्रदर्शनी आदि में लोग खडी मोटर सायकल पर बैठकर फोटो खिचाया करते थे। कहने का तातपर्य तब लोगों की खरीदने की ताकत कम थी, पर आने समय में ताकत होगी पर किस चीज से उसे चलाया जाए यह सबसे बडी समस्या होगी।
तेल के मामले मेें ही अगर देखा जाए तो मध्य एशिया में विश्व भर का तकरीबन साठ फीसदी तेल भंडार है। एनजी वॉच गु्रप 2007 के प्रतिवेदन पर नजर डाली जाए तो यहां जो तेल शेष है वह आज की आबादी और साधनों के मुताबिक तीस वर्षों के लिए ही है, यह आबादी जैसे ही बढेगी तेल की खपत बढते ही भंडार तेजी से समाप्त होता जाएगा। भारत गणराज्य के परिदृश्य में अगर देखा जाए तो 2005 के मुकाबले आने वाले दस वर्षों बाद अर्थात 2020 में इसकी जरूरत तीन गुना बढ चुकेगी। वर्ष 2009 के आंकडों पर अगर गौर फरमाया जाए तो भारत में तेल की खपत 2 करोड, 72 लाख 22 हजार बेरल प्रतिदिन है। वर्ल्ड एनर्जी के 2007 के प्रतिवेदन में साफ कहा गया है कि इस हिसाब से अगर खपत का अनुमान लगाया जाए तो तेल महज बीस सालों के लिए ही शेष बचा है।
कोयले का भंडार भी कमोबेश यही इशारा कर रहा है। भारत की खुले आसमान तले (ओपन कास्ट) और जमीन के अंदर वाली (अंडर ग्राउंड) खदानों में आने वाले सौ सालों के लिए पर्याप्त कोयले का भंडार है। भारत का रिजर्व कोयला भण्डारण लगभग 197 बिलियन टन है। कोयले के भण्डारण में भारत का स्थान विश्व में चौथा है। वैश्विक परिदृश्य में अगर देखा जाए तो वर्ल्ड एनर्जी काउंसिल की 2007 की रिपोर्ट में कहा गया है कि कोयले के दो तिहाई रिजर्व स्टाक का भण्डारण अमेरिका, चीन, रूस, और आस्ट्रेलिया में ही है। कोल ईंधन का प्रमुख इस्तेमाल बिजली का उत्पादन ही माना जाता है। चालीस फीसदी कोयला इसमें खर्च किया जाता है।
यूरेनियम के मसले पर अगर गौर फरमाया जाए तो विश्व भर में होने वाली यूरेनियम की खपत का आधा हिस्सा मुख्यत: कनाडा, कजाकिस्तान और आस्ट्रेलिया से ही आता है। आंकडों पर बारीक नजर डाली जाए तो पता चलता है कि 2007 में महज ढाई प्रतिशत बिजली नाभकीय उर्जा से प्राप्त हुई थी। वर्तमान में भारत गणराज्य में 17 नाभिकीय रिएक्टर चार हजार एक सौ बीस मेगावाट बिजली का उत्पादन करते हैं। कहते हैं कि रामसेतु के नीचे भी यूरेनियम का अथाह भण्डार छिपा हुआ है।
अब सवाल यह उठता है कि प्रकृति द्वारा अपने आंचल में छिपाई इस बेशकीमती संपदा के समाप्त होने के उपरांत क्या किया जाएगा? इसका जवाब यह है कि प्राकृतिक तौर तरीकों को ही हमें अंगीकार कर इसमें ही भविष्य तलाशना होगा, बजाए समाप्त होने वाले भण्डारों के! वैज्ञानिक इस दिशा मे ंप्रयासरत अवश्य हैं पर विश्व की आवाम इस दिशा में न तो संवेदनशील ही है और न ही उसे जागरूक किया जा रहा है।
हवा, पानी और सूर्य तीनों चीजें न कभी समाप्त होंगी और न ही विलुप्त, चाहे कितने भी प्रयास कर लिए जाएं। आज आवश्यक्ता इस बात की है कि हम इनके दोहन और सही उपयोग के बारे में सोचें और लोगों को जगरूक बनाएं। शीत ऋतु में आज भी भारत गणराज्य में निन्यानवे फीसदी इलाकों में नहाने के पानी को गरम करने के लिए बिजली, कोयला या लकडी का उपयोग किया जाता है। वेकल्पिक स्त्रोतों के बारे में लोगों का ध्यान नहीं है।
उर्जा का सबसे बडा स्त्रोत हमारा सूर्य है। इस दिशा में सोचना बहुत ही आवश्यक है। सौर उर्जा का सही दिशा में उपयोग कर हम तेल और कोयले के भण्डार को सालों साल सुरक्षित रख सकते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार अगर भारत गणराज्य जो कि उष्णकटिबंदीय है यहां पांच हजार ट्रिलियन किलोवाट घंटा सूर्य के प्रकाश के एक प्रतिशत हिस्से को भी परिवर्तित कर सकें तो भारत की जनता को पूरे साल उर्जा की कमी महसूस ही नहीं होगी। तब अघोषित बिजली कटौती से लोगों को पूरी तरह निजात मिल सकती है। सौर उर्जा के मामले में अगर वैश्विक परिदृश्य देखा जाए तो विश्व में धरती की सात वर्ग मीटर सतह को सूर्य की 29 किलोवाट उर्जा हर समय मिलती ही रहती है। सूर्य प्रतिमिनिट 2 किलोवाट घंटा उर्जा प्रतिवर्गमीटर धरती को देताा है।
इसके बाद बारी आती है हवा की। हवा को बहने से कोई रोक नहीं सकता है, हवा का उपयोग सही दिशा में करने की महती आवश्यक्ता है आज के समय में। ग्लोबल विण्ड एनर्जी काउंसिल के अनुसार अगर हवा संबंधी नीतियों को सही तरीके से अपना लिया जाए तो इससे 2030 तक 29 फीसदी बिजली की आपूर्ति सिर्फ वायू के सही उपयोग से सुनिश्चित की जा सकती है। भारत में स्थापित पवन उर्जा सेक्टर की क्षमता 10 हजार 242 दशमलव 3 मेगावाट है। भारत में लगे इन संयंत्रों की क्षमता छ: फीसदी है पर उत्पादन महज एक दशमलव छ: फीसदी ही है। विश्व में भारत का स्थान इस मामले में पांचवां है।
कल कल बहते जल स्त्रोतों और बारिश के पानी को अगर सही दिशा में उपयोग कर लिया जाए तो इस समस्या से काफी हद तक निजात पाई जा सकती है। भारत में हाईड्रो आधारित प्लांटस के लिए काफी उपजाउ माहौल है। भारत सरकार ने इस हेतु अलग से मंत्रालय भी बनाया है, पर नतीजा ढाक के तीन पात ही है। एशिया में पहली मर्तबा दार्जलिंग और शिमला में हाईड्रो पावर प्लांट की स्थापना की गई थी। वर्ष 2008 तक भारत गणराज्य में इंस्टाल क्षमता 36 हजार 877 दशमलव सात छ: थी। वहीं दूसरी ओर अगर सारे देशों में बहने वाले पानी का दोहन किया जाए तो हाईड्रोपावर प्लांट हर साल सोलह हजार पांच सौ टेरावॉट उर्जा का उत्पादन करने में सक्षम होंगे। विश्व में चीन ने इसका सबसे अधिक और अच्छा दोहन का उदहारण प्रस्तुत किया जा रहा है, जहां हर साल पानी से दो हजार 474 टेरावाट उर्जा उत्पादन किया जा रहा है।
इन आंकडों पर अगर बारीकी से गौर फरमाया जाए तो निश्चित तौर पर स्थिति आने वाले समय में बहुत भयावह हो सकती है। अभी समय है, इस संकट को जल्द ही अलविदा कहने के लिए यह माकूल समय है। विश्व भर के देश सर जोडकर इस समस्या के बारे में सोचें। विश्व में सोचा जाए अथवा नहीं पर भारत गणराज्य को तो इस मामले में आज से ही आत्मनिर्भर होने के प्रयास आरंभ करना ही होगा, वरना आने वाली पीढियां जो संकट भोगेंगी और इतिहास सुनहरा इतिहास भी उनके सामने होगा, किन्तु उनके हाथों में अंधकारमय भविष्य ही होगा, उन परिस्थियों में वे हमें याद तो करेंगी पर बहुत अच्छे तरीके और सम्मान के साथ तो कतई नहीं। हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि हमें स्वार्थी समझा जाएगा, हमने अपने जीवनकाल में तो सुख भोग लिए किन्तु आने वाली पीढियों के लिए दुश्वारियां ही पैदा करते गए. . .।

पर्यावरण के सवाल पर सभी दल खामोश




427963632_95bd5f52d3_mमौसम में बढ़ती गर्मी, सूखते बादल और हवाओं का बदलता रूख….हर तरफ धूल-धक्कड़ और चलती लू के थपेड़े…और फिर प्रतिद्वंद्वियों की चुनौतियों के बीच चुनाव की बढ़ती सरगर्मी और चिलचिलाती धूप….मौसम की इस बेरुखी ने नेता व जनता दोनों को बेहाल कर रखा है।जी! चुनाव के इस मौसम में सूरज की तपिश अपने उफान पर है। इसने कई जगह चुनावी गर्मी को ठंडा करने की कोशिश भी की है। चुनाव का द्वितीय चरण भी सूरज की तपिश के कारण फीका ही रहा। अब अगले चरण में दिल्ली की बारी है। जहां चुनावी गर्मी से एक ओर नेता परेशान हैं, तो वहीं दूसरी ओर प्राकृतिक गर्मी ने आम लोगों का जीना दुभर कर दिया है।
ज़रा सोचिए! यह तो अप्रैल का ही महीना है, और पारा 40-42 के पार जा चुकी है। मई-जून की गर्मी तो अभी बाकी ही है। आगे हमारा क्या हाल होगा, यह उपर वाला ही जानता है।
आखिर यह गर्मी हो क्यों ना…? पेड़ों की अंधाधुंध कटाई जो जारी है। यदि आंकड़ों की बात करें तो दिल्ली में विभिन्न विकास कार्यो के नाम पर पिछले 5 सालों में लगभग 50 हज़ार पेड़ काट डाले गए। खैर यह आंकड़े तो सरकारी आंकड़े हैं, जिसे सूचना के अधिकार के तहत लेखक को दिल्ली सरकार के वन एवं वन्यप्राणी विभाग ने उपलब्ध कराया है। अवैध रुप से कटने वाले पेड़ों की संख्या तो लाखों में होगी। लेखक ने स्वयं महरौली के आर्कियोलॉजिकल पार्क में हो रही पेड़ों की अंधाधुंध कटाई को देखा है। जंगल के जंगल साफ कर दिए गए हैं। लेकिन इसकी खबर प्रशासन को नहीं है।
सूचना के अधिकार के माध्यम से मिले आंकड़ों के मुतबिक वर्ष 2004-05 में 16,552 पेड़, वर्ष 2005-06 में 10,692 पेड़, वर्ष 2006-07 में 5,627 पेड़, वर्ष 2007-08 में 10,460 पेड़ और वर्ष 2008-09 में 17 अप्रैल तक 2,321 पेड़ काटे गए हैं। यही नहीं, कॉमनवेल्थ गेम्स के नाम पर जनवरी 2008 से मार्च 2009 तक 2986 पेड़ काटे गए। वहीं दिल्ली मेट्रो के नाम पर 387 पेड़ों की बलि चढ़ाई गई।
हालांकि विभाग के मुताबिक इन पेड़ों को काटने के बाद पेड़ लगाए भी गए हैं। लेकिन इस बात में कितनी सच्चाई है, ये किसी से छिपा नहीं है। बहरहाल, विभाग के मुताबिक वर्ष 2004-05 में 93,755 पेड़, वर्ष 2005-06 में 3,815 पेड़, वर्ष 2006-07 में 22,723 पेड़ और वर्ष 2007-08 में 10,722 पेड़ लगाए गए हैं। इन में से 12889 पौधे दिल्ली मेट्रो कॉरपोरेशन के शामिल हैं, जिसे ग़ाज़ीपूर- हिंडन कट में लगाया गया है। और दिल्ली मेट्रो ने इस कार्य हेतु 14,92,068 रुपये (चौदह लाख बानवे हज़ार अड़सठ रुपये) खर्च किए। बाकी के पेड़ों को लगाने में कितना खर्च हुआ है, इसका ब्यौरा विभाग के पास मौजूद नहीं है।
बात यहीं खत्म नहीं होती। जहां दिल्ली सरकार के विभिन्न विभागें विज्ञापन के नाम पर करोड़ों खर्च कर देती हैं, वहीं दिल्ली सरकार के इस विभाग ने लोगों को पर्यावरण के संबंध में जागरुक करने हेतु पिछले 5 सालों में कोई विज्ञापन जारी नहीं किया है।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस मसले पर तमाम राजनीतिक दल खामोश हैं। हालांकि इस बार कुछ राजनैतिक विचारधाराओं ने पहली बार जलवायु परिवर्तन के संकट को अपनी प्राथमिकताओं में शामिल किया है। भाजपा ने जलवायु परिवर्तन के नियंत्रण को समुचित महत्व देने का वायदा किया है, लेकिन हिन्दुत्व के शोर में यह मुद्दा भी नदारद हो गया है। दुखद बात तो यह है कि जो विचार और वायदे कांग्रेस, भाजपा, वामपंथी सहित कुछ दलों ने अपने घोषणा पत्रों में दर्ज किए हैं उन्हें मतदाता तक पहुंचाने की कोई जद्दोजहद नजर नहीं आई।
जबकि यह घोर चिंता का विषय है कि मानव अस्तित्व की रक्षा के लिए पर्यावरण के बारे में राजनीतिक दलों को जितनी गंभीरता से सोचना चाहिए, उतनी गंभीरता से नहीं सोचा जा रहा है। शायद राजनीतिक दल यह भूल रहे हैं कि जब मानव का अस्तित्व बचेगा, तभी राजनीति भी हो सकती है अन्यथा वह भी संभव नहीं है।
-अफ़रोज़ आलम साहिल
H-77/14, चतुर्थ तल, शहाब मस्जिद रोड,
बटला हाउस, ओखला, नई दिल्ली-25.

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

लोककथाएं


सारांश:


दो शब्द

क्षेत्रीय पैमाने पर लोक-कथाओं के कई संग्रह हिंदी में निकल चुके हैं। यह पहला संग्रह है जिसका पैमाना अखिल भारतीय ढंग का है। सम्पादक ने कथाओं को विषयवार सजाया है। इस प्रकार 26 शीर्षकों के अन्दर इस संग्रह में 96 कहानियां संगृहीत हैं।
लोक-कथाओं और लोकोक्तियों में जनता की युग-युग की अनुभूतियों का निचोड़ संचित रहता है। अतएव राष्ट्र के सांस्कृतिक नवोत्थान में उनका बड़ा भारी महत्व है।
इस संग्रह की कथाएं सहज शैली में रोचक ढंग से लिखी गई हैं। अतएव, मुझे विश्वास है कि ये जनता द्वारा सोत्साह पढ़ी जाएंगी।
भारती जी की स्वच्छ-बुद्धि और मंगलमयी भावना का मुझ पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है। इस अत्यंत रोचक और उपयोगी साहित्य के लिए मैं उनका अभिनन्दन करता हूँ।

चिंतन के सूत्र


आज के संदर्भ में ‘लोक’ शब्द का अर्थ बड़ा व्यापक हो गया है। उस से जनसाधारण तथा सम्पूर्ण मानव समाज का बोध होता है। ‘लोक’ शब्द का अंग्रेजी पर्यायवाची फोक (FOLK) है और पाश्चात्य विद्वानों ने नगरेत्तर संस्कृति अथवा ग्रामीण-गंवार सांस्कृतिक धारा को इसके अंतर्गत माना है। ‘लोक’ को इस प्रकार गाँव की परिधि में बांधा जाय, इस से मैं सहमत नहीं हूं।
विश्व के सभी भागों में लोक-कथाएं कही–सुनी जाती हैं। जर्मन विद्वान बेनाफी (1859) के अनुसार- ‘विश्व में व्यापक लोक-कथाओं का मूल उद्गम स्थान भारत ही है।’ लेकिन भारत में इन्हें संकलित करने की दिशा में बहुत कम काम हो सका है। फिर भी अभी तक भारत तथा उस के निकटतम देशों में लगभग साढ़े तीन हजार लोककथाएं लिपिबद्ध की जा चुकी हैं।
वेद, उपनिषद् और पुराणों में दो व्याख्यान हैं, लोककथाओं के बीज उन्हीं में हैं। देवर्षि नारद ने रामकथा का एक ही स्वरूप वाल्मीकि के सम्मुख रखा था, लेकिन उसी को आधार बनाकर वाल्मीकि के जन-जन के बीच अथवा लोक-प्रचलित रामकथा के अनेक रूपों का अन्वेषण किया। महाभारत तो ऐसी कथाओं का भंडार ही है। बौद्ध और जैन दर्शन ग्रन्थों में भी ऐसी अनेक कथाओं का समावेश है। पंचतंत्र, हितोपदेश, बेताल पच्चीसी तथा जातक कथाओं की गणना भी लोक-कथाओं के अन्तर्गत करना ही समी-चीन होगा।

कई विद्वानों ने आख्यान साहित्य को दो वर्गों में बांट दिया है- नीतिकथा एवं लोककथा। मेरी दृष्टि में ऐसा वर्गीकरण नितान्त भ्रामक तथा अवैज्ञानिक है। लोककथाओं के पात्र मनुष्य ही हो, इस मान्यता का भी कोई ठोस आधार नहीं है।
लोक-कथाएं लिखने का आरंभिक प्रयास आंध्र के विद्वान गुणाढ्य ने ईसवी की प्रथम शती में किया था। उन का लिखा ग्रन्थ ‘बृहत्कथा’ तो मूल रूप से अब उपलब्ध नहीं है, लेकिन संस्कृत में रचित बृहतकथा मंजरी तथा ‘कथा सरित्सागर’ में उस के प्रमाण प्राप्य हैं। काफी अन्तराल के पश्चात कुछ अंग्रजों तथा उन की कृतियों के नाम उभर कर सामने आते हैं- मिस फेयर (ओल्ड डेक्कन डेज), सर रिचर्ड टेम्पल (लीजेन्ड्स आफ पंजाब), श्रीमती डेकार्ट (शिमला विलेज टेल्स)। इन के अलावा जिन भारतीयों के नाम हमें स्मरण आते हैं, वे है- लालबिहारी दे, तोरुदत्त (एनशयंट बेलेड्स एण्ड लीजेन्ड्स आफ हिंदुस्तान), शोभना देवी (ओरियंटल पर्ल्स) तथा रामास्वामी राजू (इंडियन फेबल्स)। डा. वेरियर एल्विन के ‘फोक-टेल्स आफ महाकौशल’ पुस्तक में लगभग डेढ़ सौ कथाएं संगृहीत की गई हैं। इस के अलावा उन्होंने कुछ और लोक कथाएं भी एकत्र कीं।

इधर के दो दशकों में जिन विद्वानों ने इस दिशा में विशेष रूप से हिन्दी में कार्य किया है, वे हैं- सर्व श्री रामनरेश त्रिपाठी, अगर चन्द नाहटा, डा. सत्येन्द्र, शिवसहाय चतुर्वेदी, डॉ. कन्हैयालाल सहल, डा. कृष्णचन्द्र शर्मा ‘चन्द्र’, डा. गोविन्द चातक तथा विजयदान देथा आदि। यहाँ मैं श्री रामलाल पुरी के नाम का उल्लेख अवश्य करना चाहूँगा जिन्होंने बड़े साहस के साथ लोक-कथाओं के प्रकाशन का यज्ञ रचाया है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कोई उनका उल्लेख करे या न करे लेकिन लोक-साहित्य के उन्नायक के रूप में उनका नाम अमर रहेगा।

फिर भी जो कार्य हुआ है, वह क्षेत्र विशेष तक सीमित रहा है। इस महादेश में ऐसे व्यक्ति आगे नहीं आए जो ‘रमते जोगी’ बनकर देवेन्द्र सत्यार्थी अथवा राहुल सांकृत्यायन की तरह दूर-दूर तक घूम सकते और लोककथाओं के मोती बीन कर माला में पिरो देते। यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि हमारे विश्वविद्यालयों ने लोक-साहित्य के साथ न्याय नहीं किया। जो शोध प्रबंध सामने आए हैं, उनमें से अधिकांश सतही हैं और हास्यास्पद भी।
साहित्य के आधुनिक बोधी लोक-साहित्य को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं, किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि अनेक आधुनिक कहानियों पर लोककथाओं की छाया है। कई उपन्यास संशोधित लोककथाओं की बैसाखियों पर आगे खिसके हैं। लोककथाओं में जो ऐतिहासिक तत्व, समकालीन परिस्थितियों का जो प्रभाव है, उसे नकारा नहीं जा सकता। इन का मनोरंजानात्मक पक्ष तो विशेष है ही।
प्रस्तुत संकलन के बारे में मुझे कोई दावा नहीं करना है, लोक-साहित्य के अध्ययन-अनुशीलन का जो भवन आगामी वर्षों में खड़ा होना है, उस में यह भी नींव का एक पत्थर बन सके, यही मेरे संतोष के लिए पर्याप्त है।

साप्ताहिक हिन्दुस्तान नई दिल्ली

जयप्रकाश भारती


लोक-कथाएँ और जन-मानस



कहानी कहने की परंपरा हमारे यहाँ अनन्त काल से चली आ रही है। दु:खी मानव इन कथाओं को सुनकर अपने संताप भूलता आया है। लोक कथाएँ सदियों से मानव-मात्र के मनोरंजन का साधन बन रही हैं। इन कथाओं से मनुष्य ने अपनी-अपनी कल्पनाओं के सहारे सुन्दर चित्र संजोये हैं। ये कथाएँ ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना पैदा करती रही हैं। इन कथाओं की शैली अत्यंत ही आकर्षक और मोहक रही है।
विदेशी विद्वान् श्री मिल्ड्रेड आर्चन ने एक स्थान पर संथाल की लोककथाओं के संबंध में अपने विचार इस प्रकार प्रगट किये हैं : ‘‘इन लोक-कथाओं में जिन आवश्यकताओं की पूर्ति होती है वे महत्त्वपूर्ण हैं जो कालान्तर में उपयोगी सिद्ध होने वाली हैं। इनके द्वारा गरीबी, बीमारी और दैनिक चिन्ताओं को काफी राहत मिलती है। जन-जातियों का परिचय देती हैं, उनके रीति-रिवाजों के महत्त्व पर भी प्रकाश डालती हैं। ये कथाएं केवल मनोरंजन करने तक ही सीमित नहीं रहती हैं अपितु जन मानस में आत्म-विश्वास की भावना जागृत करती हैं, उनमें शक्ति प्रदान करती हैं और जीवन में संघर्ष, और आपदाओं में स्थिर रहने की शक्ति को भी जन्म देती हैं।
भारत में प्राचीन काल से यह भावना रही है कि कहानियों या कथाओं को केवल मनोरंजन का साधन मात्र न समझा जाए। सतत् यह प्रयत्न रहा है कि मनोविनोद के साथ-साथ कथाएँ चरित्र-सुधार, नैतिक विकास और परामर्श की भावना भी पैदा करने में सफल रहें।
बंगला के विद्वान् लेखक श्री दिनेशचन्द्र सैन ने इन कथाओं के संबंध में विचार प्रगट करते हुए उल्लेख किया है- ‘‘प्राचीन काल से ही अपने देश में कहानी कहने और सुनने की परम्परा रही है और उनका पूरा उपयोग होता रहा है। प्राचीन काल में राज-घरानों में ऐसी महिलाओं को रखा जाता था जिनका काम कथा करना मात्र होता था।

माफ करना


 

नही भूल पाता 

चाहे 

संभोग हो या समाधि 

साधना से सत्संग तक

प्रणय से पूजा तक
हर समय साथ साथ साथ साथ बना रहता है साथ
सच है कि नाम का जादू है, चेहरा शरीर सब रह गए पीछे
फिर भी
पता नहीं तुम क्या मानों
पर देह से भी हो रहा है लगाव
खवाब में ही सही
मिलन की चाह से उठ रही है निगाह
दूर दूर दूर बहुत दूर दूर तक है अंतहीन फासला,
फिर भी
चाहत पूरी हो सकती है
क्या तुम राजी हो (सपनों में)
बताना 
माफ करना
चाह की मेरी हर निगाह की ....की कोई राह की
हम अब दूर नहीं रह सकते प्रिय
पर तुम
राजीनामा द
तभी 
महसूस करूंगा (देह) गंध में तेरी सुगंध
जो मेरे पास बिखर कर खुशबू से कर देती है तरोताजा
तरोताजा-तरोताजा रोज रोज
रोज की तरह
ख्वाब में ही सहीं देखना चाहता हूं
एक होने का सुख
क्या तुम राजी हो ?
माफ करना चाह की मेरी निगाह की।

आर्थिक विकास मॉडल बदलने से बचेगा पर्यावरण




कुन्दन पाण्डेय
दुनिया भर के मानव सम्मिलित रुप से एक वर्ष में करीब 8 अरब मीट्रिक टन कार्बन पर्यावरण में उत्सर्जित करते हैं, जबकि बदले में पर्यावरण का पारिस्थितिकी तंत्र, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की ताजा रिपोर्ट के अनुसार विश्व मानवता को लगभग 3258 खरब रुपये से भी कही अधिक मूल्य की सेवाएं प्रदान करता है। कितना आश्चर्यजनक तथ्य है कि मानव सभ्यता के कांटों के सौगात के बदले, प्रकृति अब भी मानव को फूलों का गुलदस्ता बिना रुके, बिना थके भेंट करती जा रही हैं। क्या सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति मानव, पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुंचाकर सृष्टि की सबसे विकृत कृति बनता जा रहा है? मानव तो नहीं, लेकिन मानव द्वारा अंगीकृत आर्थिक विकास मॉडल जरूर विकृत है।
यह आर्थिक विकास मॉडल अधिकतम से अधिकतम उपभोग पर आधारित है। विश्व के लगभग सभी देश इसी विकास मॉडल से विकास की राह पर चलने के कारण प्रकृति के साथ न्याय नहीं कर पा रहे हैं। कम्युनिस्ट चीन ने विश्व से कह दिया कि वह पर्यावरण के लिए अपनी ऊर्जा उपभोग को कम नहीं करेगा, चाहे भले ही इससे पर्यावरण को क्षति होती रहे। अन्य देशों का भी लगभग यही जवाब है। कभी कभी ऐसा प्रतीत होता है कि हम एक तरफ तो विकास कर रहे हैं तो दूसरी तरफ न्यूटन के मुताबिक उसके बराबर परन्तु विपरीत दिशा में अपने विनाश का इंतजाम भी कर रहे हैं ग्लोबल वार्मिंग जैसे दानव को बढ़ाकर।
भारत और चीन तथा हिमालय के चारों तरफ के देशों के लिए हिमालय व गंगोत्री, यमुनोत्री के ग्लेशियरों के 2035 तक पिघलकर समाप्त होने की संभावना चिंताजनक है। वर्तमान में हिमालय के ग्लेशियर 18 मीटर प्रतिवर्ष की दर से पिघल रहे हैं। इससे एशिया की एक तिहाई जनसंख्या को पानी देने वाली बड़ी नदियां समाप्त हो जायेंगी। गंगा के न होने पर भारत और बंग्लादेश के धान के कटोरे हमेशा के लिए न केवल सूख जायेंगे बल्कि सूखे से भी ग्रस्त हो जायेंगे। क्या भारत के लोग गंगा नदी और अपने धान की फसल से हमेशा हमेशा के लिए महरुम होना पसंद करेंगे? परन्तु संतोषजनक बात यह है कि एक तरफ तो भारत, चीन और नेपाल ने संयुक्त रूप से मिलकर कैलाश पर्वत के पारिस्थितिकी तंत्र को संवारने का फैसला किया है। तो दूसरी तरफ भारत और बंग्लादेश सुंदरवन में संसार का सबसे बड़ा नदी डेल्टा तंत्र बनाने पर सहमत हो गये हैं। इसके लिए दोनों देश शीघ्र ही ऐसा समझौता करेंगे जिसके तहत इसके लिए पारिस्थितिकी फोरम विकसित किया जाएगा।
अभी तक मानव पृथ्वी के करीब 45 प्रतिशत वनों को नष्ट कर चुका है। गत 20 वीं सदी में अब तक सबसे अधिक वनों को नष्ट किया गया है। तापमान में यदि 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है तो पृथ्वी पर पायी जाने वाली प्रजातियों में से लगभग 15 से 40 फीसदी प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर होंगी। वनों की अंधाधुंध कटाई और जलवायु परिवर्तन से 17,291 जन्तुओं और पादपों की प्रजातियां वर्तमान समय में ही विलुप्त होने की कगार पर हैं।
पर्यावरण के लिए अपरिहार्य जल के प्रदूषण की बात करे तो देश में जल प्रदूषण की स्थिति स्तब्धकारी है। मोक्षदायिनी मानी जाने वाली गंगा की स्थिति अत्यंत चिंतनीय है। कारण कि गंगा नदी के प्रति 1000 मिलीलीटर जल में 60 हजार मल बैक्टीरिया पाये जाते हैं, यह स्नान करने योग्य जल की अपेक्षा 120 गुना अधिक प्रदूषित है। देश की केवल 89 प्रतिशत जनसंख्या के पास पीने के पानी का स्रोत है जबकि देश के 2.17 लाख घरों में शुद्ध पेयजल उपलब्ध नहीं है। एक अनुमानित आंकड़े के अनुसार प्रतिदिन भारत में प्रदूषित जल से होने वाले डायरिया से 1000 बच्चे मरते हैं। देश में 33 प्रतिशत वायु प्रदूषण वाहनों से निकलने वाले धुएं से होता है।
ग्लोबल वार्मिंग पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने पन्द्रहवां अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन कोपेनहेगन में कराया। गौरतलब है कि यू एन ओ सन् 1972 से जलवायु सम्मेलन आयोजित कर रहा है। परन्तु अभी तक केवल जापान के क्योटो में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन पर रोक लगाने के लिए एक ठोस समझौता हुआ था। इस समझौते को फरवरी 2005 से लागू करना था। संसार के न केवल 141 देशों ने इस पर अपने हस्ताक्षर किए बल्कि अधिकतर देशों की संसद ने भी इसका अनुमोदन कर दिया। परन्तु इन देशों की संसदों की सारी कवायदें तब धरी की धरी रह गयी जब अमेरिका की सीनेट ने इसका अनुमोदन नहीं किया।
बिल क्लिंटन के हस्ताक्षर पर मुहर नहीं लगने का कारण यह था कि क्योटो प्रोटोकॉल विकसित और औद्योगिक देशों के लिए बाध्यकारी थी जिसमें एक निश्चित सीमा तक कार्बन उत्सर्जन में कमी न करने पर दण्ड तक का प्रावधान था। क्योटो प्रोटोकॉल में 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में 5.2 प्रतिशत कमी करने का बाध्यकारी लक्ष्य था। क्योटो प्रोटोकॉल तथा गत कोपेनहेगन की असफलता से अब तो शायद ही विकसित देशों, भारत की सदस्यता वाले बेसिक देशों तथा तीसरी दुनिया के देशों में कोई सर्वमान्य समझौता हो। गौरतलब है कि क्योटो प्रोटोकॉल 2012 में समाप्त हो जाएगा।
दरअसल सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश अमेरिका के सहयोग के बिना सारे समझौते बेमानी हैं। लेकिन अमेरिका अपनी जिम्मेदारी से लगातार पीछे हट रहा है। हालांकि बीते लगभग 200 वर्षों से ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए केवल विकसित देश ही जिम्मेदार हैं। वैश्विक ऊष्णता का एक मात्र कारण मानव का उपभोक्तावादी आर्थिक विकास मॉडल है जिसे बदलना नामुमकिन प्रतीत हो रहा है।
भारत सहित विकासशील देशों का कहना है कि उनके देश में तो अभी तक अधोसंरचना ही विकसित नहीं हो पायी है। इन देशों की महत्तम जनसंख्या की मूलभूत आवश्यकता ही अभी तक पूरी नहीं हो पायी है। ऐसी सूरत में अमेरिका की भारत और चीन से कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए दबाव देना अनुचित है। अमेरिका सहित सभी विकसित देश विकासशील और तीसरी दुनिया के देशों से व्यावहारिक शर्तों पर एक बाध्यकारी वैश्विक समझौता करके अभी भी पर्यावरण और पृथ्वी को बचा सकते हैं।
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पनघटों पर पसरा सन्नाटा




बुजुर्गों की विरासत को भूल गये लोग जल स्तर गिरने से सूखे कुएं बावड़ी/ कचरा पात्र बने प्राचीन जल स्त्रोत
रघुवीर शर्मा
किसी दौर में एक गाना चला था -
…सुन-सुन रहट की आवाजें यूं लगे कहीं शहनाई बजे, आते ही मस्त बहारों के दुल्हन की तरह हर खेत सजे…
जिस दौर का यह गाना है उस वक्त गांवों के कुएं बावड़ियों पर ऐसा ही नजारा होता था। शायद यही नजारा देख गीतकार के मन में यह पंक्तियां लिखने की तमन्ना उठी होगी। लेकिन अब परिस्थितियां बदल गई है, गांवों में पनघटों पर पानी भरने वाली महिलाओं की पदचाप और रहट की शहनाई सी आवाज शांत है, और पनघट पर पसरा सन्नाटा है।
लोगों की जीवन रेखा सींचने वाले प्राचीन कुएं, बावड़ियां जो हर मौसम में लोगों की प्यास बुझाने थे कचरा डालने के काम के हो गये है। इन परंपरागत जलस्त्रोतों की इस हालत के लिए आधुनिक युग के तकनीक के साथ-साथ सरकारी मशीनरी और हम स्वयं जिम्मेदार है जिन्होंने इनका मौल नहीं समझा। आज भी इनकी कोई फिक्र नहीं कर रहा है। ना तो आम नागरिकों को भी इनकी परवाह है, और नाही सरकार व पेयजल संकट के लिए आंदोलन करने वाले जनप्रतिनिधियों और नेताओं को इनकी याद आती है। सभी पेयजल समस्या को सरकार की समस्या मान कर ज्ञापन सौपते है चक्काजाम करते है और अपनी जिम्मेदारी की इति मान कर चुप बैठ जाते है। सरकार भी जहां पानी उपलब्ध है वहां से पानी मंगाती है लोगों में बंटवाती है और अपने वोट सुरक्षित कर अपनी जिम्मेदारी पूर्ण कर अगले साल आने वाले संकट का इन्तजार करती रहती है।
सिर्फ बातें ही करते हैं
राजस्थान के कई कई कुओं, बावड़ियों में लोग कूड़ा-कचरा फेंक रहे हैं। सरकारी बैठकों में पानी समस्या पर चर्चा के समय कभी-कभी जनप्रतिनिधि और अधिकारी इन कुओं और बावड़ियों की उपयोगिता इसकी ठीक से सार सम्भाल पर बतिया तो लेते हैंं, लेकिन बैठक तक ही उसे याद रखतें हैंं। बाद में इन कुओं, बावड़ियों को सब भूल जाते हैं।
पेयजल स्त्रोत देखरेख के अभाव में बदहाल हो गए है व अब महज सिर्फ कचरा-पात्र बनकर के काम आ रहे है। वैसे तो राज्य व केन्द्र सरकार ने प्राचीन जलस्त्रोतों के रखरखाव के लिए कई योजनाएं बना रखी है लेकिन सरकारी मशीनरी की इच्छा शक्ति और राजनैतिक सुस्ती के चलते यह महज कागजी साबित हो रही हैं। इसी कारण क्षेत्र में प्राचीन जलस्त्रोतों का अस्तित्व समाप्त सा होता जा रहा है।
हैण्डपंपों व ट्यूबवेलों को कुआं मान पूजन करने लगे है
हाड़ोति समेत राजस्थान के हजारों प्राचीन कुएं, बावड़ियां जर्जर हालत में है। अनेक तो कूड़ा से भर चुके हैं। इनका पानी भी दूषित हो चुका है।
कुंए- बावड़ी जैसे जलस्त्रोतों का समय-समय पर होने वाले धार्मिक आयोजनों में भी विशेष महत्व होता था। शादी विवाह और बच्चों के जन्म के बाद कुआं पूजन की रस्म अदा की जाती थी लेकिन अब लोग कुओं की बिगड़ी हालत के कारण धार्मिक आयोजनों के समय हेण्डपंपों व ट्यूबवेलों को कुआं मान पूजन करने लगे है।
अकाल में निभाया था साथ
क्षेत्र में यह कुंए करीब डेढ सौ -दो सौ वर्ष पुराने हैं। कस्बे के बुजुर्ग लोगों ने बताया कि सन 1956 के अकाल में जब चारों और पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची थी, उस समय भी इन कुंओ में पानी नहीं रीता था और लोगों ने अपनी प्यास बुझाई थी।
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लेखक रघुवीर शर्मा कोटा के रहने वाले हैं. बचपन अभावों और संघर्षों के बीच गुजरा. ऑपरेटर के रूप में दैनिक नवज्‍योति से काम शुरू किया. मेहनत के बल पर संपादकीय विभाग में पहुंचे. लेखन और चिंतन करने का शौक है. वैचारिक स्‍वतंत्रता के समर्थक रघुवीर ब्‍लागर भी हैं. अपनी भावनाओं को अपने ब्‍लाग पर उकेरते रहते हैं.