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शनिवार, 8 अक्तूबर 2011

महिला सरपंचो का उत्पीड़न






मध्य प्रदेश में नगरीय निकायों और ग्राम पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था करके राज्य सरकार महिला सशक्तिकरण का दम भर रही है, लेकिन अब तक के अनुभव बताते हैं कि जन प्रतिनिधि बनने और शहरों एवं गांव की सत्ता संचालन करने के बाद भी महिलाओं को मारपीट, प्रताड़ना, अपमान और अत्याचार से मुक्ति नहीं मिली है. पुरुषों के वर्चस्व वाले हमारे समाज की मानसिकता में कोई सुधार नहीं आया है.
2007-08 में एक ग़ैर सरकारी सामाजिक संगठन ने गहन सर्वेक्षण और अध्ययन के बाद एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें बताया गया कि छह महीनों के दौरान राज्य में लगभग एक हज़ार महिला पंचायत प्रतिनिधियों के साथ मारपीट, प्रताड़ना और अपमान के मामले सामने आए! लेकिन इससे कहीं अधिक संख्या में वे महिला जनप्रतिनिधि हैं, जो अपना अपमान उजागर नहीं होने देतीं. महिला सरपंचों को उनके अधिकारों से भी वंचित रखा जाता है. स्वतंत्रता दिवस-गणतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्वों पर उन्हें झंडारोहण तक नहीं करने दिया जाता.
पिछले दिनों शिवपुरी ज़िले में एक आदिवासी महिला सरपंच के साथ सरेआम मारपीट कर उसे अपमानित किया गया. सरपंच का अपराध यह था कि उसने दबंगों का कहना मानने से इंकार कर दिया था. शिवपुरी ज़िले के सतनापाड़ा कला गांव की सरपंच तुलसीबाई ने आदिवासी होकर गांव के तथाकथित बड़े लोगों के सामने मुंह खोलने की हिम्मत की थी. सरपंच की पिटाई ग्राम पंचायत के पंचों ने की. तुलसीबाई बताती है कि दो पंच अपने चार अन्य साथियों के साथ उसके घर आए और पांच हज़ार रुपये एवं एक बोरी गेहूं की मांग करने लगे. इंकार करने पर उसे घसीटते हुए घर से बाहर लाया गया और सरेआम उसकी पिटाई की गई. सभी हमलावर ठाकुर जाति के हैं, जिनका उस गांव में खासा दबदबा है. तुलसीबाई ने थाने में घटना की रिपोर्ट लिखवा दी है, लेकिन अब वह इतनी डर गई है कि सरपंची छोड़ने का विचार कर रही है.
2007-08 में एक ग़ैर सरकारी सामाजिक संगठन ने गहन सर्वेक्षण और अध्ययन के बाद एक रिपोर्ट प्रकाशित की, जिसमें बताया गया कि छह महीनों के दौरान राज्य में लगभग एक हज़ार महिला पंचायत प्रतिनिधियों के साथ मारपीट, प्रताड़ना और अपमान के मामले सामने आए!
यह पहला मामला नहीं है, जब किसी महिला सरपंच के साथ इस तरह की घटना हुई है, बल्कि प्रदेश में लगभग हर दिन कोई न कोई महिला पंच या सरपंच पुरुष प्रधान समाज की प्रताड़ना का शिकार बनती है. सागर ज़िले के केरनवा ग्राम पंचायत की सरपंच संतोष रानी तो आज भी उस दिन को कोसती है, जब उसने घर-परिवार विशेष रूप से श्वसुर के दबाव में आकर सरपंच का चुनाव लड़ने का फैसला किया था. गांव के दबंगों को उसका सरपंच बनना कभी भी रास नहीं आया.
लिहाज़ा चुनाव के दौरान यहां हिंसा से निपटने के लिए पुलिस की देखरेख में मतदान हुए. यही नहीं, चुनावी रंजिश के चलते गांव में हुई एक हत्या के लिए उसके पति को गिरफ़्तार कर लिया गया. अब संतोष रानी पति के बरी होने की आस लगाए बैठी है. वह केवल नाममात्र की सरपंच है. दबंगों के खौ़फ से संतोष रानी गांव के बाहर खेत में बने मकान में रहती है.
सिवनी ज़िले की डुगरिया गांव की स्नातक सरपंच सईजा इईके को भी आएदिन गांव के बड़े लोगों के विरोध का सामना करना पड़ता है. दबंग उसे सरपंच मानने से इंकार करते हैं. यहीं नहीं, सरेआम शराब पीकर गाली-गलौच, अपशब्दों का प्रयोग करना वे अपना अधिकार समझते हैं. अधिकारियों से शिकायत करने पर भी कोई कार्रवाई नहीं होती है. आष्टा की एक अन्य महिला सरपंच को अपने बेटे की बारात निकालने से इसलिए वंचित रहना पड़ा, क्योंकि वह दलित थी. छतरपुर ज़िले के महोईकला गांव में तो अराजकता की सारी हदें पार करते हुए महिला सरपंच इंदिरा कुशवाह के साथ पहले तो कुछ लोगों ने जमकर मारपीट की और फिर उसे निर्वस्त्र करके गांव भर में घुमाया गया. गांव में दो गुटों के बीच वर्षों से चली आ रही रंजिश का खामियाज़ा पिछड़े वर्ग की इस महिला सरपंच को भुगतना पड़ा.
यहां बात स़िर्फ किसी महिला की प्रताड़ना, अपमान अथवा तिरस्कार की नहीं है. विचारणीय तथ्य यह है कि महिला सरपंच किसी पंचायत का प्रतिनिधित्व करती है, जो लोकतंत्र की पहली सीढ़ी है. किसी सरपंच का अपमान गांधी जी के उस सपने का अपमान है, जो उन्होंने पंचायती राज के ज़रिए देखा था.

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