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सोमवार, 19 दिसंबर 2011

प्रजातंत्र, तानाशाही और अन्न स्वराज


बीटी-बैगन के मुद्दे पर भारत में छिड़ी बहस ने यह स्पष्ट कर दिया है कि देश का कृषक और उपभोक्ता वर्ग जीएम फूड्‌स के पक्ष में नहीं है. सेंटर फॉर एंवायरमेंट एजूकेशन, जिसने पर्यावरण मंत्रालय की ओर से इस बहस का आयोजन किया, के अतुल पांड्या ने इससे संबंधित रिपोर्ट पेश की. बहस में देश भर के किसानों ने भाग लिया और अपने अनुभव बांटे. 9 फरवरी, 2010 को पर्यावरण मंत्री ने बीटी-बैगन पर फिलहाल रोक की घोषणा की. केरल, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, गुजरात, मिजोरम और तमिलनाडु की सरकारों ने भी यह स्पष्ट कर दिया कि वे अपने राज्यों में बीटी-बैगन की अनुमति नहीं देंगी.
जीएमओ पर इस विवाद का एक पक्ष विज्ञान से भी ताल्लुक रखता है. अहम सवाल यह है कि जैविक सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा के लिए कौन सा विज्ञान अपनाया जाना चाहिए. जीएमओ को इस तर्क के आधार पर थोपने की कोशिश की जा रही है कि आनुवांशिक रूप से परिवर्द्धित बीजों के इस्तेमाल से उत्पादन ज़्यादा होता है और ज़्यादा सुरक्षित भी है.
मॉन्सेंटो एवं उसके जैसे अन्य बड़ी व्यवसायिक संस्थाओं द्वारा जीएम (जेनेटिकली मोडिफायड या आनुवांशिक रूप से परिवर्द्धित) बीजों एवं खाद्य पदार्थों के व्यवसायीकरण की कोशिशों के बाद दुनिया भर में लोग और सरकारें अपने खाद्यान्न और कृषि को जीएम से मुक्त रखने के लिए संगठित होने लगे हैं. यूरोप महाद्वीप में पांच देश और 49 इलाक़े ऐसे हैं, जो जीएमओ से पूरी तरह मुक्त हैं.मारिया ग्रेजिया ममूसिनी, जो तस्कनी क्षेत्र में एग्रीकल्चरल रिसर्च एजेंसी की मुखिया हैं और जिन्होंने यूरोप में जीएम मुक्त क्षेत्रों का संगठन तैयार किया है, को सम्मेलन में शामिल होने के लिए वीजा नहीं मिला, लेकिन उनकी अनुपस्थिति में भी उनके विचारों को सम्मेलन में पेश किया गया.
यूरोप में जीएमओ मुक्त आंदोलन के नेता बेनी हरलिन ने भी अपनी कामयाबी के अनुभव बांटे. उन्होंने बताया कि जीएमओ मुक्त होने का मतलब कॉरपोरेट घरानों के एकाधिकार और असुरक्षित खाद्यान्न से मुक्त होना है. जीएमओ मुक्त आंदोलनों की शुरुआत से वास्तविक और रहने लायक़ लोकतांत्रिक व्यवस्था का विकास हो रहा है.
जीएमओ पर इस विवाद का एक पक्ष विज्ञान से भी ताल्लुक रखता है. अहम सवाल यह है कि जैविक सुरक्षा और खाद्य सुरक्षा के लिए कौन सा विज्ञान अपनाया जाना चाहिए. जीएमओ को इस तर्क के आधार पर थोपने की कोशिश की जा रही है कि आनुवांशिक रूप से परिवर्द्धित बीजों के इस्तेमाल से उत्पादन ज़्यादा होता है और ज़्यादा सुरक्षित भी है. लेकिन आईसीएआरडीए के प्रोफेसर सेसारेली ने पार्टिसिपेटरी ब्रीडिंग को इसका एक बेहतर विकल्प बताया. आंध्र प्रदेश सरकार के लिए एक ग़रीबी निवारण परियोजना का संचालन करने वाले टी विजय कुमार ने अपने अनुभवों के आधार पर यह साबित किया कि खाद्य सुरक्षा के लिए न तो जीएम फसलों की ज़रूरत है और न ही कीटनाशकों की.
नेटवर्क ऑफ इंडिपेंडेंट साइंटिस्ट ऑफ यूरोप के सदस्य मार्सिलो बुयाटी को भी सम्मेलन में भाग लेने के लिए वीज़ा तक नहीं दिया गया, जबकि यूरोप के कई देशों और इलाक़ों में जीएम फूड्‌स पर लगा प्रतिबंध इसी संगठन के शोधों का परिणाम है. बुयाटी ने अपने अनुभवों के आधार पर यह संदेश दिया है कि आनुवांशिकी इंजीनियरिंग अविश्वसनीय और जोख़िम भरी तकनीक है.
मॉन्सेंटो और जीएमओ के ख़िला़फ अनेक अदालती कार्यवाहियों का नेतृत्व करने वाले सेंटर फॉर फूड सेफ्टी की डेबी बार्कर ने कहा कि एक दशक तक अमेरिका में जीएम फूड्‌स के उत्पादन के बाद इससे जुड़ी भ्रांतियों से अब पर्दा उठ चुका है. यह स्पष्ट हो चुका है कि इससे उत्पादकता में वृद्धि नहीं होती है. कीटनाशकों के इस्तेमाल में बढ़ोत्तरी हुई है और बीजों को सुरक्षित रख उसे दोबारा बोने का अधिकार भी अमेरिकी किसान खो चुके हैं.
जीएम फूड्‌स पर यूरोप में लगे प्रतिबंध के बाद मॉन्सेंटो ने 13 फरवरी, 2010 को डब्ल्यूटीओ में यूरोप के ख़िला़फ कार्रवाई के लिए अमेरिका का सहारा लिया. यूरोप ने जीएम फूड्‌स पर चल रहे शोधों के परिणाम आने तक इसके इस्तेमाल पर पाबंदी लगा दी थी. इसके प्रतिकार के लिए हमने ग्लोबल सिटिजंस जीएमओ चैलेंज को संगठित किया, वह भी डब्ल्यूटीओ को यह बताने के लिए कि सुरक्षित खाद्यान्न और अपने फूड सिस्टम को जीएम से मुक्त रखने के मामले में हम स्वतंत्र हैं. हांगकांग में हुई डब्ल्यूटीओ की मंत्रिस्तरीय बैठक के दौरान वंदना शिवा, जोस बोवे एवं सुसान जॉर्ज ने सौ से भी ज़्यादा देशों और विश्व भर के 740 से भी ज़्यादा संस्थाओं के एक लाख पैंतीस हज़ार हस्ताक्षरों से युक्त एक प्रतिवेदन सौंपा था. इसी का परिणाम था कि जीएमओ पर प्रतिबंध के बावजूद डब्ल्यूटीओ यूरोपीय देशों के ख़िला़फ कोई क़दम उठाने में नाकाम रहा.
आज भारत में बीटी-बैगन पर लगे प्रतिबंध के बाद जैव प्रौद्योगिकी से जुड़ी कंपनियों की ऐसी ही प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है. जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक नए क़ानून की मांग करते हुए बायोटेक्नोलॉजी रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (बीआरएआई) के गठन के लिए भी आवाज़ें उठ रही हैं. इसका उद्देश्य एक ही है, नियामक कार्यों को पर्यावरण मंत्रालय के बजाय उसे बायोटेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट को सौंपना, जो देश में आनुवांशिक इंजीनियरिंग के विकास के लिए धन की व्यवस्था करता है. पर्यावरण मंत्रालय आम लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए जैविक सुरक्षा पर बल देता है. लेकिन यदि बीआरएआई का गठन होता है तो जीएमओ के उपयोग को अनुमति देने की प्रक्रिया में तेज़ी आएगी.
आरोप है कि बायोटेक्नोलॉजी उद्योग को नया स्वरूप देने की कोशिश में बीआरएआई आम लोगों की आवाज़ को दबाना चाहता है. इस प्रस्तावित क़ानून की धारा 63 में कहा गया है, किसी साक्ष्य या वैज्ञानिक शोध के बिना यदि कोई शेड्यूल 1 के अंतर्गत पार्ट-1, पार्ट-2 या पार्ट-3 में उल्लेखित संगठनों या उनके उत्पादों की सुरक्षा को लेकर आम लोगों में भ्रम फैलाने की कोशिश करता है तो उसे कम से कम छह महीनों या अधिकतम एक साल तक के कारावास और दो लाख रुपये तक के आर्थिक दंड या दोनों सजाएं हो सकती हैं.
डॉ. वंदना कहती हैं कि नागरिक स्वतंत्रता के लिहाज़ से बीआरएआई एक फासीवादी क़ानून है. बायोटेक इंडस्ट्री के इस फासीवादी रवैये ने अरपाद पुट्‌जई और पुष्पा भार्गव जैसे प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों को ख़ास तौर पर निशाने पर लिया है. दरअसल, बायोटेक इंडस्ट्री चाहती है कि उसके द्वारा प्रचारित किए जाने वाले भ्रमित विज्ञान को ही असली विज्ञान माना जाए और उसके ख़िला़फ बोलने वाले वैज्ञानिकों की आवाज़ दबी रहे. साथ ही यह भी कि अपना भोजन चुनने के मामले में आम जनों की स्वतंत्रता भी ख़त्म होनी चाहिए.
डॉ. वंदना शिवा ने कहा कि यह स्पष्ट है कि जीएमओ का विस्तार फासीवाद के माध्यम से ही हो सकता है. हमें अपना रास्ता ख़ुद चुनना होगा. हमें या तो बायोटेक उद्योग की तानाशाही को स्वीकार करते हुए उसके द्वारा थोपे गए असुरक्षित खाद्यान्न को चुनना होगा या फिर अपनी स्वतंत्रता बरक़रार रखते हुए जीएम मुक्त खाद्यान्न को अपनाना होगा.
अन्न स्वराज के उद्देश्य की पूर्ति के लिए नवदान्य के माध्यम से हमने खाद्यान्नों के चुनाव में पूर्ण स्वतंत्रता का विकल्प चुना है.
वैश्विक स्तर पर जीएमओ-मुक्त आंदोलन के भविष्य पर नवदान्य द्बारा जारी घोषणापत्र, जिसे सम्मेलन में आम सहमति से पारित किया :-
  • वैश्विक स्तर पर जीएमओ-मुक्त आंदोलन के प्रसार और मज़बूती के लिए हम प्रतिबद्ध हैं.
  • बायोटेक इंडस्ट्री द्वारा विज्ञान की भ्रमित व्याख्या के माध्यम से दुनिया पर खाद्यान्न थोपे जाने के प्रयासों का हम विरोध करते हैं.
  • हम पूरी दुनिया में कहीं भी अलोकतांत्रिक ढंग से जीएम फूड्‌स के थोपे जाने के प्रयासों का विरोध करते रहेंगे.
  • हमारी मांग है कि खाद्यान्न और कृषि से संबंधित कोई भी फैसला सर्वसम्मति से और अलग-अलग परिस्थितियों को ध्यान में रखकर लिया जाना चाहिए.
  • अन्य उपलब्ध विकल्पों को छोड़कर, जैव प्रौद्योगिकी के विकास की कोशिश कर रही सरकारें पूर्वाग्रह का शिकार हैं, जो पर्यावरण, जन स्वास्थ्य और ख़ुद लोकतंत्र के लिए ख़तरनाक है. सरकारों को चाहिए कि इस क्षेत्र में होने वाले शोधों को कॉरपोरेट घरानों से दूर रखे ताकि जैव विविधता की सुरक्षा संभव हो और दीर्घकालिक रूप से वहनीय खेती के तरीक़े का विकास हो सके.
  • दुनिया भर में हुए शोधों से यह साबित हो चुका है कि विविधता पूर्ण परिस्थिति का तंत्र हरित क्रांति अथवा जेनेटिक इंजीनियरिंग पर आधारित खेती के तरीक़ों से कहीं ज़्यादा बेहतर है. इसकी उत्पादकता ज़्यादा होती है और यह क्लाइमेट चेंज के ख़तरे से मुक़ाबला करने में भी ज़्यादा सक्षम है. सच तो यह है कि खाद्यान्न और पर्यावरण सुरक्षा के लिहाज़ से विविधतापूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र बेहद महत्वपूर्ण है.

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