पेज

पेज

बुधवार, 13 मई 2015

ना ना ना ना ना नाना (प्रकार) के ना ना संपादक






अनामी शरण बबल


दोस्तों पत्रकारिता मे आजकल नाना प्रकार के संपादकों का भारी जलवा है।  अपने 25 साल के उठापटक खींचतान उतार चढाव बेकारी और बेगारी के तमाम अनुभवों के साथ कई संपादकों  से सामना (पाला) पडा, जिन्हें जिनके साथ काम करने देखने मिलने और आदर देने का महासुख के साथ तकरार करने का भी संयोग प्राप्त हुआ। अपने अनुभवो को फिर कभी लिखूंगा मगर दिल्ली मे किस किस तरह के संपादक आकर अपनी धौंस जमाते हुए पत्रकारिताकी नयी परिभाषा लिखते है अथवा गढ़ते है । अपने आप को सबसे अच्छा सबसे बढ़िया सबसे काबिल और एकदम अनोखे लाल साबित करने की फिराक में लग जाते है।
  दिल्ली से प्रकाशित एक समाचारपत्र के भूत (पूर्व) संपादक   तो एकदम लिखाड थे। संपादक को मय चित्र रोजाना संपादकीय पेज परसुशोभित देखता। संपादक जी ने बाईलाईन  संपादकीय  में  सचित्र आलेख की तरह रोजाना प्रकट होते थे. पेपर में संपादकीय की इस प्रस्तुति को एक नये प्रयोग की तरह देखाौर माना जा रहाथा। उसी प्रजातांत्रिक अखबार के लोकतात्रिक संपादक के बारे में अपने दो चार पत्रकारों से सराहना की। तो, कई मित्र फट पडे। अरे का लिखेंगे उपर से लेकर नीचे तक तलवा चाटने और मीठी भाषा में हडकाने से मौका मिलेगा तो न। संपादकीय आलेख लिखता कोई और हैं, मगर मयफोटो बतौर लेखकावतार के रूप में संपादक जी सुशोभित होते थे।
 कुछ दिनों तक मैंने भी (करीब ढाई माह) इस प्रजातांत्रिक अखबारका पाठन किया, मगर कितने अखबार को पढा जाए।  लिहाजा बहुत सारे मामलों में यह पेपर कसौटा पर खरा (इसका मतलब यह ना माना जाए कि और भी जो पेपर यहां से रोजाना छप रहे हैं वो एकदम सुपर है। यह कतई ना माने मगर एक आदत्त में शुमार होने की वजह से कई अखबार केवल दर्शनार्थ ही घर में मंगाना पड़ता है। बेटी के लिए हिंदू और मिंट बीबी के लिए नभाटा  और घर भर के लिए एचटी और मेरे लिए कोई नही । यही उपरोक्त्त पेपर बतौर खुरचन।  (अखबारों के पसंद के मामले में अपनी पसंद एकदम बदचलन चरित्रहीन सी है। किसी से मन भरता ही नहीं। ( यहां पर तथाकथित संपादकों से ज्यादा अपने मन को पापी मानता हूं कि वो एक से रह नहीं पाता। कभी जागरण तो कभी हिन्दुस्तान कभी भास्कर कभी सहारा कभी किसी दिन जनसत्ता तो कभी नवोदय तो किसी दिन  नेशनल दुनियां तो हर शनिवार कभी सहारा तो कभी कभार अमर उजाला । यानी एक नवभारत टाईम्स का तो हिन्दी पेपरों में जलवा है, मगर मुझसे  ज्यादा श्रीमती जी को यह पसंद है। हालांकि बेहतर सुंदर प्रस्तुति और खबरों के चयन और पेश करने में यह औरों पर भारी रहता है। , मगर इसमें सबसे कम खबरें रहती है। .मतलब खबरों की लिहाज से तो यह सबसे दरिद्र है। ( तमाम अखबारों पर अपन एक लेख चल रहा है जिसमें तमाम पेपर को पाठकीय नजरिए से टीआरपी  दी जाएगी।
,मगर बहरहाल मैं बार बार एकदम रास्ता ही खो दे रहा हूं। यहां मैं नाना प्रकार के नहीं बल्कि एक अखबार के  नानानाना प्रकारेण संपादक पर चर्चा कर रहा था। मुझे ज्ञात हुआ कि  इसी  अखबार में अब कोई नए संपादक जी पधारे है। यह मेरी  अज्ञानता और अल्पज्ञानी होने का प्रमाण है कि नए संपादक जी से मैं अनजान सा था। कभी न नाम से न कभी कोई रपट लेख आदि से भी साबका अथवा पाला  नहीं पडा था। पता लगा कि आजकल संपादक जी तमाम लेखको पत्रकारों उपसंपादकों और खुंर्राट पत्रकारों को भी खबर कैसे लिखी जाती है,इसका ज्ञान  बॉटते फिर रहे है। बकौल संपादक जी ने फरमाया कि जब अपने अखबार को मैं किसी गार्ड चायवाला रिक्शावाला या ले मैन को पढ़ते देखता हूं तो शर्मसार सा हो जाता हूं। संपादकजी ने अपने सहकर्मियों को बताया कि इस तरह के पाठकों वाला अखबार मानक और गुणवत्ता में भी ले मैन सा ही मेनस्ट्रीम से बाहर रहता है। अपनी हांक लगाते हुए तथाकथित महान संपादक जी ने हूंकारा कि मैं इस अखबार को एक क्लास के लिए बनाउंगा। जिसका मासिक वेतन डेढ़लाख यानी 18 लाख सालाना वेतन से कम वेतन पाने वाला वर्ग समाज या लोग हमारे इस पेपर के पाठक नहीं होंगे। इस प्रजातांत्रिक समाज में अपने अखबार को 18 लाखी बनाने में महान संपादक लीन है. तमाम लेखकों को लिखने का कौशल औरगूर बताते हुए तमाम रिपोर्टरों से उनकी बेस्ट रपट लाने और दिखाने का फरमान भी दे रहे हैं।
बहरहाल जबसे मैं इस 18लाखी पाठक समुदाय  वाले महान संपादक के महान विचारों से रूबरू हुआहूं तब से हिन्दी के अल्पज्ञानी मगर ग्लोबल स्टैण्डर्ड वाले जीव जंतुओं के प्रति मन में दया उपजने लगी है। मेरा तो यह साफ मानना है कि  कम पढा लिखा समाज भी यदि आपके अखबार पर अपना समय देता है पढता है तो सही मायने में उसका विश्वास ही किसी अखबार की सबसे बड़ी पूंजी है। इस तरह के पाठकों को देखकर तो किसी भी संपादक का सीना 56 इंची हो सकता है। और रही बात18 लाखी क्लास परिवार समुदाय की  तो यह वर्ग कितना बडा समाज है? अपने आप में मशगूल सा रहने वाला यह तथाकथित समाज या वर्ग तो किसी भी अखबार का पाठक नहीं केवल खरीददार होता है, और मेरे ख्याल से खरीददार सबसे बेईमान होता है, वो केवल लाभ देखता है। इस वर्ग की आस्था इमोशनल जुड़ाव किसी से नहीं होता। जब उन्हें अपनों से कोई लगाव नहीं होता तो अखबार किस खेत की उसके लिए गाजर मूलीहै ?
बहरहाल आजकल संपादक जी अपनी  धौंस जमाने दिखाने के लिए दफ्तर में श्रीलंका कांड का गेमप्लान कर रहे है। इस पेपरके मालिक कितने लाइव चालू पूर्जा या स्मार्ट हैं यह तो आने वाला समय ही बताए। मगर एक साल के भीतर ही कई संपादकों को चलता करने वाला यह चौथा खंभा पेपर इस संपादक को अपने सिर पर कब तक  नाचने देता है,यही देखना दिलचस्प है। .मगर संपादकों की जुबानी शेर पीढी में इस तरह के संपादक ही सर्वत्र दिख रहे है। मीडिया के मानक का क्या होगा यहतो राम जाने मगर अपने महान संपादकजी के बारे में विचार करना एक शोकगीत के गायन सा प्रतीत होता है।

प्रस्तुति-- रिद्धि सिन्हा नुपूर  ।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें