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गुरुवार, 26 मई 2016

मन और नयन का रिश्ता / अनाामी शरण बबल








अनामी शरण बबल

दो माह पहले ही जीवन में मैं पहली बार उनसे फोन पर बात कर रहा था। कुछ ही दिनो के बाद मैने उनके नंबर पर दोबारा फोन लगाया तो उनकी आवाज आती रही कौन है...... कौन है....। पर मेरी आवाज ठीक से उधर नहीं जा रही होगी शायद।  वे मुझे पहचान भी नहीं सकी और बात अधूरी रह गयी।  अभी एक सप्ताह पहले ही फिर मुझे यह पता लगा कि वे अपने पोते की शादी में उदयपुर में कहीं गिर गयी और कमजोर शरीर इस कदर लाचार सा हो गया कि वे खुद को भी नहीं संभाल पा रही है। उम्र के पक जाने पर होने वाली दिक्कतों लाचारियों और मजबूरियों को मैं जानता हूं कि चाहे न चाहे आदमी खुद को ही एक बोझ सा मान लेता है। उनकी सेहत को लेकर मेरे मन में भी बडी जिज्ञासा और चिंता है। वे किस तरह की चिकित्सा से कितना लाभ उठा रही है। औरंगाबाद (बिहार ) के सबसे प्रतिष्ठित कॉलेज सच्चितानंद सिन्हा कॉलेज के सबसे सम्मानित प्रोफेसर डा. प्रताप नारायण श्रीवास्तव की वे धर्मपत्नी श्री मती शांति श्रीवास्तव है। मगर केवल एक प्रोफेसर की पत्नी का परिचय इनकी प्रतिष्ठा को पूरी तरह परिभाषित नहीं करती है। खुद भी वे एक शिक्षिका के साथ साथ सजग सक्रिय और मानवीय कार्यो में दिलचस्पी लेती थी। साहित्य और सामाजिक कार्यो में रूचि इनकी एक अलग पहचान दिलाती है। घरेलू तौर पर भी एक बेहद सौम्य शांत और स्नेहिल महिला के रूप में भी वे पूरे मोहल्ले में काफी लोकप्रिय है। साहित्य मे बहुत कुछ रचने के बाद भी इसे गोपनीय ही रखा। साहित्य के लगभग हर पक्ष कहानी कविता लेख विचार निबंध चिंतन पर भी बहुत कुछ लिखा मगर  इसे सार्वजनिक नहीं कर सकी। एक घरेलू और घर परिवार आस पास पडोस की चिंता करने वाली वे एक बेहद आत्मीय महिला की तरह भी जानी जाती रही है। मैं इनको मां कहता हूं। मेरा और इनके बीच मन और नयन का नाता है। इसके बावजूद मैं पिछले 32 साल से एक अपनापन प्यार स्नेह और ममत्व भरा लगाव हमेशा महसूस करता रहा हूं। भले ही इनसे आखिरी बार की मेरी मुलाकात कोई 16 साल पहले हुई थी।
हालांकि हमारे और प्रोफेसर साहब के परिवार में कोई बडा जीवंत सा रिश्ता नहीं है। सही मायने में तो अपने परिवार की तरफ से आज भी केवल मैं ही हूं। अलबता मैं इनके ज्यादातर परिजनों से परिचित और मिला हूं,। मगर यह भी एक संयोग ही है कि घर के सभी मेहमान या परदेशी सदस्यों में चाहे विज्ञान जी हो या तीनों भाभियां हो में से कभी किसी से भी नहीं मिल सका। । हमारा रिश्ता एक सोए हुए शांत संमदर की तरह है जिसमें प्यार स्नेह लगाव और ममता की धारा तो थी और आज भी है, मगर हिलोर नहीं थी। अमूमन मैं पहुंच गया या कहीं उनसे मुलाकात हो गयी तो संबंधों मे तरंग सा लगता है मगर समय और दूरी से सबकुछ होने पर भी हमारा रिश्ता समंदर में शांति से बिना किसी तरंग के प्रवाहित रहता था।

इंटरमीडिएट पास करने के बाद अपने घर से 14 किलोमीटर दूर औरंगाबाद के नामी सिन्हा कॉलेज में अपना नाम लिखवाया।  जब मैं नाम लिखवा ही रहा था तभी हमारे बेहद प्रतिभाशाली शायर मामा प्रदीप कुमार रौशन के मुख से पहली बार प्रोफेसर साहब का नाम सुना। उन्होने उनके बेटे प्रकाश नारायण का नाम लेकर बताया था कि किसी प्रकार की दिक्कत होगी तो मैं नोट्स आदि दिलवाने का प्रयास करूंगा। मामा ने सलाह दी कि बेटा थोडा गंभीर किस्म के हैं उनसे अदब से पेश आकर अपना एक संपंर्क और रिश्ता बनाओगे तो वे ज्ञान के सागर है।  और वे लंबे समय तक काम आएंगे। इसी तरह रौशन मामा ने कई गुरूजनों के बाबत अपने अनुभव का ज्ञानदान मुझे दिया। 

पढाई शुरू होने के साथ ही मैं पैर छू छूकर तो कई गुरूजनों से करीब आने की पहल की। खासकर हिन्दी में लक्ष्मण प्रसाद सिन्हा से मिला जो दुर्भाग्य से मेरे दाखिला लेते ही यहां से स्थानांतरित होकर विश्वविद्यालय मे चले गए। हमारे परिवार में सबसे बड़ी दीदी के वे जेठ लगते थे। जीजाजी ने उनसे मिलने को कहा था। जाते जाते श्री सिन्हा जी ने भाषा पर प्रकाशित अपनी कई किताबें दी और हिन्दी के नए विभागाध्यक्ष श्री के एन झा जी से मेरा परिचय कराते हुए ध्यान देने को कहा था। और इसमें कोई संदेह नहीं कि झा जी मेरा इतना ख्याल रखा कि मेरी तमाम उदंडताओं को भी हमेशा नजर अंदाज ही कर दिया।
 इतिहास के प्रोफेसर टी.एन.सिन्हा और खासकर श्री प्रताप नारायण जी के साथ मैं अमूमन साथ रहने की चेष्टा करता। संबंधों के मामले में प्रोफेसर सिन्हा जी बेहद घनिष्ठ निकले और मैं इनके स्नेह का पात्र तो बन गया।, मगर हमारे प्रतापी प्रोफेसर साहब किसी को खास तरजीह देने की बजाय इस मामले में एकदम समाजवादी निकले। इनके लिए सारे छात्र एक समान ही थे। खैर बिना किसी शिकवा गिला के मेरा सबो के साथ पट रहा था। अलबता कुछ कविताएं दिखाने पर श्री मती मंजू सिंह जरूर मेरा हाल चाल और नया क्या लिख रहे हो इस बाबत पूछती रहती थी। एक दिन मैंने उनसे हंसकर कहा कि अरे मैं तो अभी लिखने का ककहरा सीख रहा हूं लिहाजा कोई प्लान करके नहीं लिखता तो वे बहुत खुश हुई और कहा कि हर लेखक इसी तरह खुद को विकसित करता है। साथ ही प्रोत्साहन में कहा कि जो लिखो उसे मुझे भी पढाना। मेरे जैसे बाल लेखक के लिए यह बडा सम्मान सा था।

हां तो मैं बात प्रोफेसर प्रताप नारायण जी की कर रहा था क्लास में बने स्टेज पर वे खडा होकर और अपनी आंखे बंद कर दो कदम आगे और दो कदम पीछे जाने की एक मस्त चाल और अदा के साथ क्लास लेते थे। क्लास मे वे इस तरह तन्मय होते कि सचमुच उनकी बातों को शांतचित  से सुना और गौर किया जाए तो यह गारंटी है कि कोई भी लड़का ( या लड़की) राजनीति शास्त्र में कभी मात नहीं खा सकता। वे हर समय आत्मलीन से होते मानो उनके दिमाग में कोई बात या विचार पक रही हो। सामान्य तौर पर वे अपने अन्य सहकर्मियों से भी ज्यादा घुल मिलकर बाते नहीं करते। मगर कद और वरिष्ठता की विराट छवि के चलते ज्यादातर सहकर्मी पास में आकर ही अपना सम्मान जाहिर करते। समय के वे इतने पाबंद थे कि घंटी बजी नहीं कि फौरन क्लास  के लिए उठ जाना इनकी आदत थी। जिसे आज की आधुनिक शब्दावली में बीमारी भी कहा जाता है।

 किसी एक दिन वे क्लास ले रहे थे कि बीच में ही मैने उनको टोक दिया। बाधा सा अनुभव करके वे एकदम रूक गए और आवेश में बोले कौन ? मैं खडा हो गया। उन्होने पूछा आपका परिचय ? तब मैने कहा कि सर मेरा नाम अनामी शरण बबल है और मैं देव से आता हूं। मेरे नाम और देव को प्रोफेसर साहब ने दोहराया  हां बोलो ?  अब तो यह याद नहीं है कि किस प्रसंग पर मैने उनको टोका था पर कोई बात अधूरी सी लगी थी लिहाजा मैने यह खलल डालने की जुर्रत सी कर दी थी। मैने जब अपनी बात कह दी तो वे हंस पड़े। फिर स्नेह के साथ बोले क्लास के बाद तुम मिलना। एकाएक मेरी तरफ मुड़ते हुए पूछा अपना क्या नाम बताया था खड़ा होकर मैने फिर अपना नाम दोहराया। पढाई शुरू करने से पहले उन्होने कहा कि जो मन में शंका हो या जो बात समझ में ना आए तो उसको कॉपी में नोट कर ले ताकि क्लास के बाद में पूछा सको। इस पर मैं फिर खडा हो गया तो वे इस बार मुझे देखकर हंसने लगे कहिए देव वाले............।  लगता था कि वे भूल से गए मेरे नाम को फिर से याद करने की असफल चेष्टा कर रहे हो, और एकाएक खिलखिला उठे। खडा होकर मैने फौरन कहा सर अनामी शरण बबल। और मेरे नाम को उन्होने फिर दोहराया। कठिन नाम है सामान्य नाम से एकदम अलग है। तो यह थी सर की मेरे नाम पर पहली प्रतिक्रिया। क्लास के बहुत सारे छात्र इस बिनोदमय माहौल का मजा ले रहे थे। एकाएक वे गंभीर होते हुए पूछा हां क्यों खड़े हुए थे। मैने कहा कि सर आपकी बातों को तो पूरा क्लास एक साथ समझ कर ही तो आगे बढेगा, नहीं तो क्लास खत्म होने के बाद तो फिर आपके सामने दूसरा क्लास लग जाएगा। यह बात शायद सर को बुरी लगी हो । थोडा तल्ख शब्दों में कहा कि क्लास को गंभीरता से लो और बातों को ठीक से सुनो तो सारे प्रसंग खुद स्पष्ट हो जाएगा।

मेरे साथ वे खुल गए थे, पर मुझे हर बार उनको अपना नाम बताना पड़ता, और वे मेरे नाम को सुनते ही हर बार मुस्कुरा पड़ते। इस तरह मैं धीरे धीरे उनके करीब सा आ गया था। क्लास के बीच में भी वे मुझे अक्सर देव वाले... कहकर ही खोजते थे। एक दिन क्लास में आते ही व्यग्रता के साथ मुझे तलब किया। मेरे उठते ही कहा कि क्लास के बाद आप मुझसे मिलिएगा। क्लास के बाद जब मैं मिला तो उन्होने पूछा कि देव में आप कहां पर रहते हैं, और वहां से हाई स्कूल की दूरी क्या है ? मेरे बताए जाने पर कहा कि मेरे लिए एक कमरा खोज दो। इस बार मैं चौंका कि सर के लिए कमरा । हैरानी जताए जाने पर कहा कि मेरे बेटे का मैट्रिक की परीक्षा है ,उसके रहने की व्यवस्ता करनी है। मैने जोर देते हुए कहा कि सारी व्यवस्था हो गयी सर आप चिंता न करे वे मेरे घर पर रहेंगे। सर ने असमंजस प्रकट करते हुए कहा कि नहीं नहीं .. आपको इसके लिए पैसा लेना होगा। तब मैं हंस पडा और साफ कहा कि फिर तो मैं कोई अलग कमरा ही देख देता हूं। सर को मैने आश्वस्त करने की चेष्टा की कि हो सकता है कि मेरे घर में उनको अपने घर जैसा आराम ना मिले पर बाकी सब चिंता त्याग दीजिए। यह भी एक अजीब संयोग रहा कि मेरे तीसरे नंबर के भाई भाई आत्म स्वरूप (टीटू) की भी परीक्षा गेट स्कूल औरंगाबाद में चल रही थी। लिहाजा रोजाना सुबह सुबह मुझे भी औरंगाबाद जाना होता था। प्रकाश भैय्या से तो केवल एक दिन ही मुलाकात हुई और प्रशांत से रोजाना शाम को औरंगाबाद से लौटने पर बात होती ही थी। मेरे ना रहने पर प्रशांत मेरे अन्य भाईयों या मां की देखरेख होता।

परीक्षा खत्म होते ही सबकुछ सामान्य सा हो गया । मैं भी कॉलेज में दिखने लगा तो बडी बेताबी के साथ सर ने मुझे अपने घर पर आने को कहा। इनके द्वारा दो बार कहे जाने के बाद भी जब मैं उनके घर नहीं जा सका तो उन्होने मुझ पर रोष जताया कि मेरे कहने पर भी आप घर आ नहीं रहे है। मैने हाथ जोडकर क्षमा मांगी और कहा कि सर जिस दिन भी मैं देव जाने की बजाय औरंगाबाद में रह गया तो आपके घर जरूर आउंगा। संभवत: अप्रैल माह के ही किसी दिन मैं शाम के समय संकोच और लज्जापूर्ण विस्मय के साथ प्रोफेसर प्रताप नारायण जी के न्यू एरिया इलाके वाले मकान मे जा पहुंचा। दरवाजे पर ही मुझे प्रशांत दिखा तो वह फौरन बाहर निकला और मुझे बरामदे में बैठाकर अंदर भागा। एक मिनट के अंदर ही मां और नानाजी बाहर निकले और उत्साहमय खुशी प्रकट करते हुए मेरा भरपूर स्वागत किया। मैं सर से तो परिचित था पर घर के अपरिचितों द्वारा प्रेम और उत्साहपूर्ण ललक दिखाने पर मेरा मन भी एकदम खिल उठा। मैने मां और नाना के पैर छूकर प्रणाम किया। मेरे को नाश्ता में और भी न जाने क्या क्या दिया खिलाया इसका तो अब स्वाद भी भूल चुका हूं पर मिठास आज तक मन में बाकी है। खासकर नानाजी की ललक और मेरे प्रति स्नेह दिखाने तथा मां के ममत्व तथा उत्सुकता की मोहक गंध से आज भी मन इस मन और नयन वाले स्नेहिल रिश्तें को रोमांचित और उत्साहित करता है। बहुत देर तक बाते होती रही। तब मां और नाना जी ने मुझे घर पर लगातार आने को कहा। इस परिवार ने मेरे प्रति जो माधुर्य्य दिखाया था कि पता नहीं मैने कौन सा इन पर उपकार कर दिया है। सर से भी मैं मिला तो उनके साथ बैठकर बाते की। काफी देर तक मेरी पढाई के बारे में पूछते रहे और अंत में कहा कि नोट्स आदि की चिंता ना करना । मैं जब उनके कमरे से बाहर निकलने लगा तो मैने फिर हंस कर सर को बताया  अनामी शरण बबल देव से हूं सर। मेरी इस चुहल पर वे हंस पडे और पीठ पर स्नेह से हाथ फेरते हुए कहा कि अब मैं आपका नाम कभी नहीं भूल सकता। बहुत बाद में मुझे यह ज्ञात हुआ कि प्रोफेसर साहब मूलत: छपरा के हैं और नालंदा होते हुए ही वे औरंगाबाद आए थे। मगर औरंगाबाद ने जिस ललक के साथ इस विभूति को अपनाया कि उनकी छपरा वाली पहचान ही धूमिल सी हो गयी, और वे हमेशा हमेशा के लिए औरंगाबाद के ही होकर रह गए। कमरे से बाहर निकला तब तक शाम ढल चुकी थी। मेरे बाहर निकलने की बाट नानाजी जोह रहे थे। उन्होने रात में खाना खाकर ही जाने के लिए दवाब डाला। मगर मैने फिर कभी का बहाने के साथ मां और नानाजी के पैर छूकर बाहर निकल पडा। मां या नानाजी को तो यह नहीं बताया जा सकता था न कि जब देव से बाहर औरंगाबाद में रात काटनी हो तो शहर के इकलौते सिनेमाघर नरेन्द्र टॉकीज में अपने हमउम्र मामाओं के संग नाईट देखने के सुख को कैसे छोडा जा सकता था भला। घर से बाहर निकला तो मेरा मन भी एकदम खुशी से मस्त और अभिभूत था.। खासकर नानाजी की आत्मीयता और मां के निसंकोच स्नेह से मेरे मन की सारी लज्जा खत्म हो गयी। दोनों  की सह्रदयता सरलता से लगा ही नहीं  कोई पहली बार मिल रहा हूं। मां और नाना समेत प्रोफेसर साहब के यहां करीब दो ढाई साल के दौरान मैं 35-40 बार तो जरूर गया।

इस बीच मैं किसी काम से एक दिन सुबह सुबह बाजार डाकघर के पास में ही था कि प्रशांत दिखा। मैं जब उससे मिला तो मेरा परिचय अपने सबसे बडे प्रभात भैय्या से कराया। मैने उनके पैर छुए, मगर हम सब जल्दी में थे लिहाजा दो चार मिनट की औपचारिक बात के बाद अलग हो गए। मेरे ख्याल से उस समय भैय्या नागौर में थे। प्रकाश भैय्या से भी कई बार मेल मिलाप और फोन पर भी बात हुई मगर लगातार का सिलसिला नहीं बना। यदा कदा मेरे कुछ लेख पर प्रकाश भैय्या ने अपनी टिप्पणी जरूर दी।  जितने दिन भी औरंगाबाद में रहा तो यदा कदा ना होकर लगातार ही सही मां  नाना और प्रोफेसर साहब से मिलने के बहाने उनके घर पर जाता रहा। औरंगाबाद में मां से घर से बाहर भी दो बार मिला। एक बार तो वह बराटपुर मोहल्ला की तरफ अपने स्कूल जा रही थी और मैं सामने से मैं आ रहा था । तो रिक्शा रोककर मां ने हाल समाचार पूछा, तो दूसरी दफा मैं मां को नहीं देख सका। तब रिक्शा रुकवाकर मां ने आवाज दी । मुड़कर मैने उनको देखा और पास में जाकर दो चार मिनट बात की। इतनी मिलनसार भावुक और प्यारी मां की सेहत सचमुच एक कष्टदायक संयोग है।  


नानाजी एक बहूमुखी प्रतिभा वाले 72 साल के यंग मैन सार्जेंट थे। मैं कई बार जब घर गया तो पता चला कि वे रूई कातने गए हैं तो कभी कोई संगोष्ठी करवा रहे है, या कभी कोई पुस्तकालय से बच्चों में पुस्तकों के वितरण में लगे होते। तो कभी कोई प्रभातफेरी या सामूहिक श्रमदान के लिए भी हमेशा वे सतर्क और तत्पर होते। समाज और समूह के लिए हमेशा तैयार रहने वाले नानाजी में अदम्य उत्साह और गांधीवाद में गहरी निष्ठा थी। कभी कभी तो मैं यह भी सोचता था कि यदि देव में ना रहकर मैं औरंगाबाद में ही रह रहा होता तो शायद नानाजी के टीम का कैप्टन मैं ही होता ताकि समाज सेवा के इस सामूहिक मौके का कोई और कुछ लाभ का पात्र मैं भी बनता। साहित्य और गांधीवाद पर भी उनसे अक्सर चर्चा होती थी। (संभवत उस समय गांधीवाद और सामाजिक समरसता के प्रसंग को मैं ठीक से समझ भी नहीं पाता था, मगर बाते प्रिय लगती थी) आज मेरे पास गांधी जी से संबंधित करीब 50 किताबें समेत सैकड़ो लेख होंगी मगर मुझे उनका लेखकीय चेहरा ही ज्यादा आकर्षित करता है। गांधीजी की पत्रकारिता पर एक किताब के लिए भी सोचत हूं। मगर उससे भी ज्यादा गांधी जी की यह दिनचर्या प्रभावित करती है कि तमाम व्यस्तताओं के बावजूद वे रोजाना दो चार पेज जरूर लिखते या अनुवाद करते थे। लेखन और अपनी दिनचर्या के प्रति इतना सख्त अनुशासन रखने वाले गांधी जी की ही तरह हमारे नानाजी यानी श्री ब्रजनंदन सहाय की भी निष्ठा लगन और समर्पण असंदिग्ध थी।

देव औरंगाबाद के छूटने के साथ ही मैं दिल्ली मे भले ही खो गया। मगर हमेशा अपने गांव शहर  मोहल्ले में रहने वाले लोगों के मोह से अलग नहीं हो सका। कब हमारे बीच से हमारे सर प्रोफेसर साहब और नानाजी हमेशा के लिए जुदा हो गए, इसकी सूचना भी मुझ तक तब आई जब शोक व्यक्त करना भी शोभा नहीं देता। दिल्ली से जब कभी भी घर लौटा तो प्रोफेसर साहब के घर पर जरूर गया, ताकि शांत समंदर से संबंधों में मुलाकात के कंकर से जल तरंग पैदा हो । आखिरी बार 2000 में किसी दिन जब घर पहुंचा तो मां से मुलाकात हुई। उसी समय सर की बेटी प्रतिभा भी अपने दोनों छोटे बच्चों के साथ औरंगाबाद में ही थी। वही पर इनके मासूम और प्यारे बच्चों से क्षणिक मिला और प्यार जताया। अपने घर के कैंपस से बाहर खाट निकालकर मां आस पास की दो एक महिलाओं के साथ बैठी थी। इस मुलाकात के बाद मैं दो बार और गया। मगर घर में ताला लटका था। मगर एक बार घर की देखरेख करने वाले (इनका नाम याद नहीं है) से जरूर मुलाकात हुई। अलबत्ता आगरा में जब कभी राजा या श्री शिव प्रसाद अंकल से मुलाकात होती तो मां की सेहत समेत सबों का हाल पता मिल जाता है, मगर अब तो शिव अंकल की सेहत भी काफी नरम हो गयी है। हाल ही में कहीं से मुझे प्रशांत और मां का फोन नंबर मिला। तब कहीं जाकर सालो साल यानी 16 साल के बाद मां से बात हो सकी।

इस परिवार में नामो की एकरूपता मुझे हमेशा आकर्षित  करती थी। प्रोफेसर प्रताप नारायण के पुत्रों का नाम प्रभात प्रकाश और प्रशांत है तो इनकी बेटी का नाम प्रतिभा है। एकदम पी-5 । प्रोपेसर साहब के नहीं रहने पर भी सभी के नाम में एक अजीब ललित्य है। कम्प्यूटरी शब्दावली में पेण्टियम 4 । पेण्टियम 4 की तरह ही एक दूसरे से जुड़े और एक साथ एकाकार मौजूदा भाई बहनों का यह परिवार भी आपस में संबद्ध है। आज के इन समकालीन परिजनों से मैं कितना कैसे और कब तक जुडा रह सकता हूं। यह तो मैं भी नहीं जानता। मगर 30-32 साल पहले बने मन और नयन के इस शांत धीर गंभीर सागर समान यह रिश्ता भी संभवत मूक होकर ही कहीं दूर यादों में विलीन हो जाएगा। मां की नरम सेहत को जानकर लगता है मानो मेरे हाथों में एक लंबी रस्सी है। भले ही मैं अपने सर और नानाजी को तो कुछ समय के लिए बचा नहीं सका मगर इस बार मन मे यह भरोसा है कि मां भली चंगी और सेहतमंद होकर अहमदाबाद जरूर जाएगी। जहां पर मैं एक बार मिलकर उनको  देख कर प्रणाम कर सकूंगा। हमलोगों के लिए आपको अभी रहना बहुत जरूरी हैं मां, क्योंकि उम्र के पचासा मोड पर तो मेरे पैर छूने वाले भी सैकडो हो गए हैं मगर किसी के पैर छूकर मैं भी तो आर्शीवाद के लिए हाथ फैला सकूं।  वे लोग अब कितने कम रह गए है भला
( फिर से)
अपने प्रोफेसर साहब और परिजनों पर लिखा गया यह संस्मरण यूं तो यहां पर पूरा हो गया है, मगर एक बात बार बार खटक रही है इस कारण ही इसमें कुछ प्रसंगों को जोड रहा हूं। मैं सर के कंधे पर सवार होकर तो उनके घर आंगन और सभी परिजनों से एक नाता बना लिया मगर अपने सर के साथ ही मैं सर वाला ही रिश्ता रख पाया। आज उनके देहावसान के 22 साल के बाद मैं उनसे एक रिश्ता जोड रहा हूं। हांलंकि रिश्तों की जीवंतता और मान जीवित रहकर ही अदा की जाती है। लोग यूं तो हर किसी से मामा चाचा का रिश्ता बनाते हैं मगर मैं अपने सर के साथ अपने मन की संतुष्टि और अधूरे रिश्तों को सार्थक बनाने के लिए ही अपने सर प्रताप नारायण को पिता की तरह ग्रहण कर रहा हूं। मां और पापा के सम्मान को सार्थक जीवंत और मान देने की मन से मैं एक पहल करता हूं। यह मेरा दुर्भाग्य है कि संबंधों की डोर को पकड़ने में मैंने काफी देर कर दी मगर जो बीत गयी सो बात गयी। मां के समक्ष भी मेरा यह नाता स्वीकार हो जाए तो मैं जीवन भर एक पुत्र की ही तरह मन में आदर की छवि अंकित रखूंगा। पापा के प्रति मेरी यही श्रद्दांजलि है कि एक छात्र के रूप में करीब आने के लगभग तीन दशक के बाद आज मैं उनको पापा की तरह ही मन से ह्रदय से आपको अपना स्वीकर कर रहा हूं। 

( यह एक अजीब संयोग है कि जब मैं इस लेख को लिख ही रहा था कि मेरे पापा की खराब सेहत की जानकारी मिली और पटना ले जाए जाने की तैयारी का पता चला। जिसकी वजह से यह लेख असंपादित और कई जगह से त्रुटिपूर्ण  ही रह गया था। कुछ सुधार तो मैने कर दिया है फिर भी कोई गलती रह गयी हो तो यह मेरी नादानी का परिणाम है।)

अनामी शरण बबल
26 मई 2016

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