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मंगलवार, 15 सितंबर 2020

लघुकथा के विभिन्न पहलू

 लघुकथा के प्रति 

(1) लघुकथा क्या है 

 * लघुकथा ‘गागर में सागर’ भर देने वाली विधा है। लघुकथा एकसाथ लघु भी है और कथा भी। यह न लघुता को छोड़ सकती है और न कथा को ही। 

 - भारत-दर्शन 

* यह विधा सामाजिक यथार्थ,आडंबरों, विसंगतियों और मनोभावों को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है जो शैली की सूक्षमता, अभिव्यक्ति के पैनेपन और तीव्र संप्रेषणीयता के कारण देखते-देखते अत्यंत लोकप्रिय विधा हो गयी है। 

 - डॉ शमीम शर्मा 

 * लघुकथा ऐसी ग़ज़ल है जिसकी बह्र भी खुद लेखक को लिखनी पड़ती है, क्योंकि लघुकथा किसी बने-बनाये साँचे में फिट हो जाने वाली विधा नहीं है। 

 - योगराज प्रभाकर 

(2) लघुकथा के तत्व 

लघुकथा के तीन तत्व 1- क्षणिक घटना, 2- संक्षिप्त कथन तथा 3- तीक्ष्ण प्रभाव हैं। इन में से कोई एक भी न हो या कमजोर हो तो लघुकथा प्रभावहीन होगी जो न होने के समान है। 

 - संजीव वर्मा सलिल 

 (3) लघुकथा के लक्षण 

 * शीर्षक पढ़ने कि जिज्ञासा उत्पन्न करे * भूमिका न हो * शब्दों की मितव्ययिता हो * सूक्ष्मतम आकार हो * चिंतन हेतु उद्वेलित करे * क्षणिक घटना हो * सीमित पात्र हों * एक ही काल-खंड हो * इकहरापन हो * चरित्र-चित्रण न हो और यदि हो तो सांकेतिक हो * लेखकीय हस्तक्षेप न हो * लेखकीय प्रवेश न हो * प्रतीकों में बात की जाये * शब्द की अभिधा शक्ति के साथ लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग हो * मारक पंक्ति या पंच लाइन प्राणवान हो * मध्यांतर न हो * अन्त का पूर्वाभास न हो * संदेश ध्वनित हो, शब्दायित नहीं … 

 (4) लघुकथा का शीर्षक 

 * रचना की सफलता में शीर्षक का बहुत बड़ा योगदान होता है। किसी भी रचना को शीर्षक ही प्रथम दृष्टि में पाठक को पढ़ने हेतु उत्प्रेरित करता है। शीर्षक ऐसा होना चाहिए जो अपनी सार्थकता सिद्ध करने के साथ-साथ आकर्षक,विचित्र और जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला हो कि पाठक तुरंत उसे पढ़ना आरंभ कर दे। 

 - डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र 

 (5) लघुकथा का प्रसव 

 * लघुकथा विसंगतियों की कोख से उत्पन्न होती है। हर घटना या हर समाचार लघुकथा का रूप धारण नहीं कर सकता। किसी विशेष परिस्थिति या घटना को जब लेखक अपनी रचनाशीलता और कल्पना का पुट देकर कलमबंद करता है तब एक लघुकथा का खाका तैयार होता है। 

 - योगराज प्रभाकर 

 * लघुकथा हठात् जन्म नहीं लेती, अकस्मात् पैदा नहीं होती। दूसरे शब्दों में कहें तो लघुकथा तात्क्षणिक प्रतिक्रिया का परिणाम नहीं होती। जब कोई कथ्य–निर्देश देर तक मन में थिरता है और लोक–संवृत में अँखुआ उठता है, तब जाकर जन्म ले पाती है लघुकथा, जैसे सीपी में मोती जन्म लेता है।

 - गौतम सान्याल 

 * सृजन के लिए चिंतन की कोख चाहिए। बीज को फूटने के लिए गर्भ में उसे धारण करना होगा, चाहे वह जीव मात्र का शरीर हो या मिट्टी। बौद्धिक चिंतन सृजनात्मक अभिव्यक्ति को साहित्यिक पृष्ठभूमि पर पोषित कर फूटने का अवसर देता है। 

 - कान्ता रॉय 

 (6) लघुकथा का आकार 

 * (31 और 38 शब्दों की श्रेष्ठ लघुकथाओं के उदाहरण देने के बाद) इसलिए कम-से-कम शब्दों की सीमा की बात नहीं की जा सकती, संभव है इससे भी कम शब्दों की कोई श्रेष्ठ लघुकथा लिखी गयी हो या लिखी जाये। अब आइए अधिकतम शब्दों की सीमा की बात पर। अब तक लिखी गईं अधिकतर लघुकथाएँ 450-500 शब्दों तक जाती हैं, लेकिन कुछ लघुकथाएँ 700 शब्दों के पार जाती हैं और उम्दा रचनाएँ हैं। ... इस सीमा को हमें खुला ही छोड़ना होगा। 

 - डॉ. अशोक भाटिया 

* किसी भी लेखक की लघुकथा सम्बन्धी धारणा में लघुता के प्रति आग्रह स्पष्ट दिखाई देता है। इस लघुता की निम्नतम और अधिकतम शब्द-सीमा पर आम सहमति नहीं है। कहानी में अधिकतम शब्द-सीमा 1000 शब्द की है। अतः लघुकथा की अधिकतम सीमा इससे बढ़ कर तो नहीं हो सकती। वास्तव में हजार शब्दों की लघुकथा शायद ही पढ़ने को मिले। अधिकतर रचनाएँ 150 से 500 शब्दों तक ही सीमित हो जाती हैं। 

 - भगीरथ परिहार 

 (7) लघुकथा का कालखंड 

 * लघुकथा एक एकांगी-इकहरी लघु आकार की एक गद्य बानगी है जिसमें विस्तार की अधिक गुंजाइश नहीं होती है। लघुकथा किसी बड़े परिप्रेक्ष्य से किसी विशेष क्षण का सूक्ष्म निरीक्षण कर उसे मैग्नीफ़ाई करके उभारने का नाम है। यह क्षण कोई घटना हो सकती है, कोई संदेश हो सकता है, अथवा कोई विशेष भाव भी हो सकता है। यदि लघुकथा किसी विशेष घटना को उभारने वाली एकांगी विधा का नाम है तो जाहिर है कि लघुकथा एक ही कालखंड में सीमित होती है। अर्थात लघुकथा में एक से अधिक कालखंड होने से वह कालखंड-दोष से ग्रसित मानी जाएगी तथा लघुकथा न रह कर एक कहानी (शॉर्ट स्टोरी) हो जाएगी। 

 - योगराज प्रभाकर 

* कथा-प्रस्तुति की आवश्यकतानुरूप इसमें (लघुकथा में) लंबे कालखंड का आभास भले ही दिलाया गया हो लेकिन उसका विस्तृत व्यौरा देने से बचा गया हो। लघुकथा में जिसे हम क्षण कहते हैं वह द्वंद्व को उभारने वाला या पाठक-मस्तिष्क को उस ओर प्रेरित करने वाला होना चाहिए। 

 - डॉ बलराम अग्रवाल 

* लघुकथा के कथानक का आधार जीवन के क्षण विशेष के कालखंड की घटना पर आधारित होना चाहिए। 

* एक श्रेष्ठ लघुकथा में जिन आवश्यक तत्वों की दरकार आक कल की जाती है, मसलन वह आकार में बड़ी न हो, कम पात्र हों, समय के एक ही कालखंड को समाहित किए हो। 

 - सुभाष नीरव 

* एक क्षण की रचना कह कर हम ही लघुकथा को बौना बना रहे हैं। … रचना में उद्देश्य (कथ्य) की सूत्रबद्धता हो, और विषय की तारतम्यता हो, तो लघुकथा में बड़े से बड़ा समय सहज रूप में समा सकता है। बस लेखकीय कौशल की आवश्यकता है। 

 - डॉ अशोक भाटिया 

 (8) लघुकथा में लेखकीय प्रवेश 

* लघुकथा में जो कहना हो वह या तो पात्र कहें या फिर परिस्थितियाँ। किन्तु जब इन्हें पीछे धकेल कर लेखक स्वयं व्याख्यान देने लगे तो उसे रचना में लेखक का अनाधिकृत प्रवेश माना जाता है। 

 - योगराज प्रभाकर 

 * लघुकथा के अंत में चौंका देने वाली स्थिति आने के बाद लघुकथा का विस्तार करना लेखकीय प्रवेश है। यह लघुकथा के प्रभाव को कम कर देता है। 

 - मुकेश शर्मा 

 (9) लघुकथा में प्रतीक-विधान 

 * मानवेतर पात्र जब प्रतीक रूप में आकर लघुकथा को संचालित करते हैं तो रचना की रोचक बुनावट देखते ही  - डॉ अशोक भाटिया 

* संकेतों की कथानक में उल्लेखनीय भूमिका होती है। संकेत मील का पत्थर होते हैं। मील का पत्थर करते कुछ नहीं हैं पर दिशा और दूरी का पूरा संकेत कर देते हैं जिससे यात्रा सुगम हो जाती है। वैसे ही लघुकथा में संकेत चरित्रांकन और प्रतिपाद्य-उदघाटन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते हैं। 

 - डॉ शमीम शर्मा 

 (10) लघुकथा की इकहरी और एकांगी प्रकृति 

* कहानी या उपन्यास के विपरीत लघुकथा में उपकथा की कोई प्रावधान नहीं है। जी कारण इसे इकहरी अथवा एकांगी विधा कहा जाता है। 

- योगराज प्रभाकर 

* लघुकथा एक व्शय विशेष पर केन्द्रित होती है, जैसे ही उस विषय का प्रतिपादन पूर्ण हो जाता है, वह समाप्त हो जाती हयाह उस विषय से न तो भटकती है, न उस विषय के साथ किसी अन्य विषय को जोड़ती है। इसलिए हम इसे इकहरी या एकांगी विधा कहते हैं। 

- सतीश राठी 

 (11) लघुकथा का अंत 

 * लघुकथा का अंत करना एक हुनर है लघुकथा का अंत उसके स्तर और कद-बुत को स्थापित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अधिकतर सफल लघुकथाएँ अपने कलात्मक अंत के कारण ही पाठकों को प्रभावित करने में सफल रहती हैं। 

- योगराज प्रभाकर 

* चरमोत्कर्ष पर ही लघुकथा का अंत होना चाहिए। कथ्य-उदघाटन के साथ लघुकथा समाप्त होती है। लघुकथा में अंत का बहुत महत्व है। अंत अतिरिक्त परिश्रम और लेखकीय कौशल की मांग करता है। 

 - सुकेश साहनी 

 (12) लघुकथा में पंच-लाइन (मारक-पंक्ति) 

 ‘पंच’ शब्द इस समय बहुत चलन में है जिसका अर्थ प्रायः कथा में तड़ाक-फड़ाक अथवा विस्फोटक-पूर्ण समापन से लिया जा रहा है। वस्तुतः उसका अर्थ है कथा में वह बात जो पाठक के मन को उद्वेलित करे, विसंगति के प्रति मन में विद्रोह पैदा करे। यह भी अनिवार्य शर्त नहीं, न ही सायास लाये जाने हेतु लेखक बाध्य है बल्कि स्वाभाविक रूप से लेखक अपनी बात को इस अंदाज़ से कहे कि वह पाठक को भीतर तक प्रभावित करे। 

 - डॉ लता अग्रवाल 

 (13) लघुकथाकार 

 * स्तरीय लघुकथाकार वह है जो अपनी लेखनी की कमियों को जानता है और उन्हें दूर करने के लिए रचना-दर-रचना प्रयत्नशील रहता है। 

 - बलराम अग्रवाल 

 (14) लघुकथा की रचना प्रक्रिया 

* रचना-प्रक्रिया, अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का एक लंबा सफर है। … रचना-प्रक्रिया कोई जड़ यंत्र नहीं है, बल्कि वह रचनाकार की मानसिक संवेदना, सामाजिक परिवेश, तथा उसके कलात्मक अनुभवों से संबन्धित एक जागरूक प्रक्रिया है जिसमें रचनाकार न केवल अपने रचनात्मक अनुभवों को संप्रेषित करता है, बल्कि इस रचनात्मक लेखन को जीवन और यथार्थ के जटिल अनुभवों की तीव्रतम पीड़ा से अपने को मुक्त करने का साधन भी मानता है। 

कुमार विकल के मतानुसार रचना-प्रक्रिया की मुख्यतः दो अवस्थाएँ होती हैं- भावन की मानसी अवस्था और रूपाकार-बद्ध अवस्था। गजानन माधव मुक्तिबोध ने रचना प्रक्रिया के तीन पड़ावों का उल्लेख किया है- (1) जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव क्षण (2) अपने कसकते-दुखते मूलों में इस अनुभव की प्रथकता और आँखों के सामने कल्पना (फैंटेसी) में रूपान्तरण (3) इस कल्पना के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया का प्रारम्भ। 

 - योगराज प्रभाकर 

 (15) लघुकथा की समीक्षा 

* समीक्षकों की पैनी नज़र और निष्पक्ष टिप्पणियाँ ही लघुकथा के भविष्य को सुरक्षित कर सकती हैं। 

 - अज्ञात 

* हर विधा को स्वीकारने में समय लगता है। उसकी गहराइयों को नापने का साहस अपेक्षित होता है, उसकी ऊंचाइयों में विचरण की हमेशा माँग होती है। फिर यह तो सत्य है कि कोई बड़ा किसी छोटे के गुणों की तारीफ कब स्वीकारता है,उसे तो अपने अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लगता महसूस होता है। लघुकथा के समीक्षा पक्ष को स्पष्ट और पुष्ट करने के लिए स्वस्थ और खुले मन की जरूरत है। 

 - डॉ इन्दु बाली 

* क्या हम जाने-अनजाने लघुकथा के नैसर्गिक स्वरूप और विशिष्टता से विमुख तो नहीं होते जा रहे हैं?कहीं कृत्रिम कलात्मकता के प्रति आग्रहता अथवा अतार्किक नियमावली के बंधन लघुकथा के विकास को अवरुद्ध तो नहीं कर रहे हैं? आखिर इस भ्रम की स्थिति का कोई कारण तो अवश्य होगा। कहीं इस स्थिति के लिए नित नये बन रहे आचार्यविहीन मठ तो उत्तरदायी नहीं जो नवोदितों को दिग्भ्रमित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं? ऐसे मठों और मठाधीशों से बच कर रहने में ही भलाई है। 

 - योगराज प्रभाकर  

(16) लघुकथा में संवाद शैली 

संवाद शैली में ऐसी लघुकथाएँ लिखी जा सकती हैं, जिनमें किसी भी और वर्णन के बिना काम चल सकता है ऐसी लघुकथाओं का प्रभाव भी बहुत रहता है, क्योंकि पाठक सीधे-सीधे पात्रों से रू-ब-रू होता है। ... वैसे एक ही लघुकथा में विभिन्न शैलियों का एक साथ भी प्रयोग रहता है। 

 संदर्भ ग्रंथ 

(1) लघुकथा कलश, प्रथम-द्वितीय-तृतीय-चतुर्थ महाविशेषांक, संपादक- योगराज प्रभाकर, संपर्क- 9872568228 

(2) समय की दस्तक, संपादक- कान्ता रॉय, चलभाष- 9575465147  

(3) परिंदे पूछते हैं, लेखक- डॉ अशोक भाटिया, चलभाष- 9416152100

… … … (क्रमशः)

शुक्रवार, 4 सितंबर 2020

*शिक्षक-दिवस*

 *कुण्डलिया* / *शिक्षक-दिवस*


                           (१)


शिक्षक एक महान थे,उद्भट थे विद्वान।

राधा कृष्णन नाम था,सागर जैसा ज्ञान।।

सागर जैसा ज्ञान, परम वैज्ञानिक उनका।

करना शिक्षा-दान,कर्म सम्मानित जिनका।

भारत के थे रत्न,देश के उत्तम दीक्षक।

जन्मदिवस पर हर्ष,मनाते मिलकर शिक्षक।।


                         (२)


पाँच सितंबर तिथि हुआ,जन्मदिवस अनुमन्य।

शिक्षक दिवस स्वरूप में,राधाकृष्णन धन्य।

राधा कृष्णन धन्य,समर्पित शिक्षक नेता।

धर्म और विज्ञान,उभय के थे समवेता।।

धवल कीर्ति यशगान,सुशोभित धरती अम्बर।

शिक्षक दिवस 'दिनेश',आज है पाँच सितंबर।।


                           (३)


जाते शिक्षक बन मगर,शिक्षा से मुँह मोड़।

समय बिताते खेत में,विद्यालय को छोड़।।

विद्यालय को छोड़,बने नेता हैं फिरते।

करें न शिक्षा-कर्म,काम निज घर का करते।।

शिक्षक का जो धर्म,कभी वे नहीं निभाते।

ऐसे भी कुछ लोग,यहाँ शिक्षक बन जाते।।


                        (४)


शिक्षा अब बिकने लगी,शिक्षा के बाज़ार।

व्यापारी करने लगे,शिक्षा का व्यापार।।

शिक्षा का व्यापार,यहाँ करता है जो भी।

फलता है दिन-रात,बना व्यापारी लोभी।।

जो बालक धनहीन,नहीं पाते हैं दीक्षा।

कहता सत्य 'दिनेश', हुई अब महँगी शिक्षा।।


                           (५)


शिक्षक बन मत कीजिए, शिक्षा का व्यापार।

शिक्षा को मत बेचिए,सरेआम बाज़ार।।

सरेआम बाज़ार, बात है कड़वी सच्ची।

करिए यह स्वीकार,नहीं हो माथा-पच्ची।।

कहता सत्य 'दिनेश',परम पावन पद दीक्षक।

फैले जगत प्रकाश,बनो तुम ऐसा शिक्षक।।


                         (६)


शिक्षक बनकर राष्ट्र में,सदा निभाना धर्म।

प्राणवान भारत बने,करना ऐसा कर्म।।

करना ऐसा कर्म,छात्र के हित में होए।

शिक्षा के जो मूल्य,नहीं शिक्षार्थी खोए।।

सदा उठाकर शीश,खड़ा हो भारत तनकर।

अपना धर्म 'दिनेश', निभाओ शिक्षक बनकर।।


                        (७)


शिक्षक दिवस मनाइए,मचा हुआ है शोर।

शिक्षा के भी क्षेत्र में,दिखते हैं कुछ चोर।।

दिखते हैं कुछ चोर,काम चोरी जो करते।

बिना काम के दाम,सदा झोली में भरते।।

कहता सत्य दिनेश,इन्हें तुम समझो भिक्षक।

लगती मुझको शर्म,कहूँ जो इनको शिक्षक।।        

    

                        ( ८)


सरकारी शिक्षक बनो,शिक्षा से मुँह मोड़।

करिए कार्य तमाम हैं,केवल शिक्षा छोड़।।

केवल शिक्षा छोड़,पोलियो-ड्यूटी करिए।

कभी चुनावी बॉक्स,आप माथे पर धरिए।।

तरह-तरह के कर्म,कराते हैं अधिकारी।

शिक्षक होते त्रस्त, ख़ासकर जो सरकारी।।


                    दिनेश श्रीवास्तव             

                    @ दिनेश श्रीवास्तव

                      ग़ाज़ियाबाद

ये उन दिनों की बात हैं

 ये उन  दिनों  की बात हैं 

पांचवीं तक स्लेट की बत्ती को जीभ से चाटकर कैल्शियम की कमी पूरी करना हमारी स्थाई आदत थी लेकिन इसमें पापबोध भी था कि कहीं विद्यामाता नाराज न हो जायें ।


*पढ़ाई का तनाव हमने पेन्सिल का पिछला हिस्सा चबाकर मिटाया था ।*


"पुस्तक के बीच  *पौधे की पत्ती* *और मोरपंख रखने* से हम होशियार हो जाएंगे ऐसा हमारा दृढ विश्वास था"। 


कपड़े के थैले में किताब कॉपियां जमाने का विन्यास हमारा रचनात्मक कौशल था ।


*हर साल जब नई कक्षा के बस्ते बंधते तब कॉपी किताबों पर जिल्द चढ़ाना हमारे जीवन का वार्षिक उत्सव था ।*


*माता पिता को हमारी पढ़ाई की कोई फ़िक्र नहीं थी , न हमारी पढ़ाई उनकी जेब पर बोझा थी* । 

सालों साल बीत जाते पर माता पिता के कदम हमारे स्कूल में न पड़ते थे । 


*एक दोस्त को साईकिल के डंडे पर और दूसरे को पीछे कैरियर पर बिठा* हमने कितने रास्ते नापें हैं , यह अब याद नहीं बस कुछ धुंधली सी स्मृतियां हैं । 


*स्कूल में पिटते हुए और मुर्गा बनते हमारा ईगो हमें कभी परेशान नहीं करता था , दरअसल हम जानते ही नही थे कि ईगो होता क्या है ?*


पिटाई हमारे दैनिक जीवन की सहज सामान्य प्रक्रिया थी ,

"पीटने वाला और पिटने 

वाला दोनो खुश थे" , 

पिटने वाला इसलिए कि कम पिटे , पीटने वाला इसलिए खुश कि हाथ साफ़ हुवा। 


*हम अपने माता पिता को कभी नहीं बता पाए कि हम उन्हें कितना प्यार करते हैं,क्योंकि हमें "आई लव यू" कहना नहीं आता था* ।


आज हम गिरते - सम्भलते , संघर्ष करते दुनियां का हिस्सा बन चुके हैं , कुछ मंजिल पा गये हैं तो कुछ न जाने कहां खो गए हैं ।


*हम दुनिया में कहीं भी हों लेकिन यह सच है , हमे हकीकतों ने पाला है , हम सच की दुनियां में थे ।*


कपड़ों को सिलवटों से बचाए रखना और रिश्तों को औपचारिकता से बनाए रखना हमें कभी नहीं आया इस मामले में हम सदा मूर्ख ही रहे ।


अपना अपना प्रारब्ध झेलते हुए हम आज भी ख्वाब बुन रहे हैं , शायद ख्वाब बुनना ही हमें जिन्दा रखे है, वरना जो जीवन हम जीकर आये हैं उसके सामने यह वर्तमान कुछ भी नहीं ।


*हम अच्छे थे या बुरे थे पर हम एक साथ थे, काश वो समय फिर लौट आए ।*


*👨‍🎨👩🏻‍🚒"एक बार फिर अपने बचपन के पन्नो को पलटिये, सच में फिर से जी उठेंगे”...✍*

गुरुवार, 20 अगस्त 2020

अनामी शरण बबल / बलबीर दत्त की नजर में आपातकाल

 आपातकाल को परिभाषित करने की पहल 


इतिहास कभी पुराना नहीं  होता.  वह ज़ब तब हमारे सामने किताबों में चर्चाओं में यादों में जीवित रहता है.   समय गुजरने  के साथ ही  इतिहास की कोई घटना हरदम एक सबक सीख सरोकार या संदेश की तरह ही आसपास को समाज को सतर्क करता है.   सावधान करता है. और  मौजूदा समय से तुलना करने का मौका भी   देता है .  आज से 45 साल पहले देश के पहले प्रधानमंत्री  जवाहरलाल  नेहरू  की अक्खड़ पुत्री इंदिरा गाँधी ने अपनी सत्ता सामर्थ  सनक को एक नया सार्थक आयाम देने के लिए 25-26 जून 1975 की  रात में देश में आपातकाल जिसे (emergency ) इमरजेंसी  कहा जाता हैँ,  को देश पर लाद  दिया.  लोकतंत्र के इस काले अध्याय का कालखंड 21 माह का रहा.  इस दौरान  देश की अर्थव्यवस्था का जमकर दुरूपयोग  किया गया .  Media का गला सेंसर से नेस्तनाबूद कर दिया gya. देश के सारे विपक्षी नेताओं को जबरन  जेल में ठूसा  गया.  देश  के 86 वर्षीय सबसे वरिष्ठ और आज भी सक्रिय  पत्रकार  संपादक बलबीर दत्त  ने 45 साल  के बाद आपातकाल पर गहन चिंतन और तमाम दस्तावेजो  को एकत्रित करके अपनी नयी  किताब को सामने लाया है.  472 पेजी इमरजेंसी  का कहर  और सेंसर का  जहर.  पुस्तक को प्रभात  प्रकाशन  के प्रभात पेपरबैक्स ने छापा  है. यू  तो हिंदी में आपातकाल  पर छिटपुट कुछ किताबें आयी है,  मगर शोधपरक दस्तावेजों को कार्टूनो,  चित्रों  व्यंगचित्रो  पेपर कतरनों  सरकारी कागज़ो आदेशपत्रो से सुसज्जित इस तरह की कोई भी किताब हिंदी में नहीं है. रांची एक्सप्रेस  अख़बार  के संपादक  के रूप में इनका संग्रह शोध और संकलन  hai,  मगर ज़ब यह किताब आज सबके सामने है तो पदम् श्री सम्मान से सम्मानित बलबीर जी अपनी पकी हुई  उम्र में भी  झारखंड  की राजधानी रांची में देशप्राण नामक  एक नये अख़बार को पिछले  तीन साल से नया  आकर दें रहे है. बलबीर  दत्त की लेखनी की सबसे बड़ी खूबी यह है की किसी अध्याय को एकसार देते हुए  लम्बा बोरिंग करने की बजाय छोटे छोटे प्रसंगो को सूत्रबद्ध करतें hai.  इस तरह एक ही किताब में  सैकड़ो  रोचक घटनाओं  किस्से  कहानियो को पिरो देते hai.  जिससे सामान्य पाठको को भी चटकारे लेकर पढ़ने में मजा आता है तो वही गंभीर पाठको को सुनी अनसुनी ढेरों घटनाओं की जानकारी हो जाती है. इस तरह इमरजेंसी जैसी किताब को पढ़ते हुए कभी लोककथा कभी रोचक गपशप  तो कभी अनहोनी प्रसंगो को जानकर ज्यादातर पाठक मुग्ध हो jayenge. किताब में इतना कुछ हसि की सबका  उल्लेख करना संभव नहीं.  निसंदेह प्रामाणिक दस्तावेजों के साथ यह हिंदी की सबसे बेहतरीन किताब  है.  हालांकि  बिहार के कांग्रेसी  सांसद रहे दिवंगत शंकर दयाल सिंह की किताब इमरजेंसी : क्या सच क्या झूठ  इस घटना की राजनितिक सरगर्मियों का जीवंत उल्लेख hai,  मगर बलबीर दत्त की किताब में इसके सामाजिक राजनीतिक  प्रभाव और जनता के असंतोष  को स्वर दियस hai. यह किताब एक तरह से आज़ादी के बाद राजनीति के विकृत चेहरे की कलई  खोलती है .  भले ही 45 साल के बाद आपातकाल  पर यह किताब  आयी है मगर आने के साथ ही  आपातकाल साहित्य की एक बड़ी कमी को खत्म  करती  है. बलबीर दत्त को श्रेय दिया जा सकता है. देर  से ही सही इस किताब ने आपातकाल को नये तरह से परिभाषित करके शून्यता को भर  दिया  है.  472 पेजी किताब को आकर्षक साज सज्जा के साथ छापा गया है और इसकी क़ीमत 500/- भी कोई खास अधिक नहीं लगती hai.

शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

हरि कृपा से हरिवंश का बढ़ता रुतबा /अनामी शरण बबल

: हरि कृपा से हरिवंश जी को याद करते हुए / अनामी शरण बबल


 कोलकाता से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका रविवार के पाठक होने के कारण हरिवंश नामक एक पत्रकार को जानता था जो संभवत मुख्य उपसंपादक थे शायद। ( पद गलत लिख दिया हो तो माफ करेंगे) । केवल नाम से तो मैं परिचित था पर कोई लेख रिपोर्ट पर नजर कभी नहीं गयी। इस मामले में उदयन शर्मा राजकिशोर राजीव शुक्ला का रविवार पर एकाधिकार सा होता था। रविवार के  ही एक गुमनाम पत्रकार एके ठाकुर का नाम तो दिमाग में अंकित था मगर ठाकुर को भी रविवार में शायद कभी देखा हो मगर यह याद नही।

हां तो रविवार के बंद होने पर तत्काल पता चला कि वे रांची से प्रकाशित हिंदी के सर्वोत्तम अखबारों में एक प्रभात खबर में अब हरिवंश बतौर संपादक आसीन हो गये हैं।

: यह बात कोई 1987 या 1988के आरंभिक महीनों की होगी। उस समय मैं नयी दिल्ली के भारतीय जनसंख्या संस्थान ( आईएमईआई) में हिंदी स्नातकोत्तर पत्रकारिता का छात्र था। हिंदी पत्रकारिता का यह पहला बैच था। 1983 में कपिलदेव की अगुवाई में विश्व विजेता बनने के बाद 1987 में क्रिकेट का विश्वकप का आयोजन भारत में हो रहा था। जेएनयू के बगल में या  एक ही कैम्प्स के लास्ट में निर्मित आईएमईआई के छात्रावास में रंगीन टेलीविजन होने के कारण जमकर टीवी देखने की चाहत से मन भर गया। अन्यथा अपने गाँव देव में तो आसमान की ऊंचाई तक एंटीना को हिलाने घुमाने में ही समय बीत जाता था। हां तो हरिवंश को लेकर मन में कोई प्यार लगाव कुछ नहीं था। बस एक उत्कृष्ट समाचार पत्रिका के संपादकीय टीम में शामिल होने के कारण उनको केवल जानता था और मन मे एक सम्मान भर था।

उधर एस एन विनोद के संपादन में आरंभ प्रभात खबर मेरे ख्याल से जनसता के बाद सबसे नियोजित तरीके से निकलने वाला एक बहुत सुंदर अखबार सा था दिल्ली और रांची में दूरी थी इस कारण यदा कदा ही यह अखबार कभी नजर में आता था। उधर एस एन विनोद प्रभात खबर के बाद नागपुर से लोकमत आरंभ करने गये। यह पेपर आज भी यदा-कदा ही दिखता है।

हा  तो क्रिकेट के विख्यात कमेंटेटर रवि चतुर्वेदी के साथ हम छात्रों को कमेंट्री बॉक्स मे जाने की सुविधा मिली हुई थी। मजे की बात तो यह हे कि रवि चतुर्वेदी की गाड़ी में सवार होकर ही स्टेडियम तक जाता था।

प्रैक्टिस के दौरान मदनलाल मनिंदर सिंह रमण लांबा  सुरेन्द्र खन्ना मोहिन्दर अमरनाथ सुरेंद्र अमरनाथ सरीखे दर्जनों खिलाडियों के आसपास रहने का सुख अकल्पनीय था।  आराम के क्षण या क्षणों में पत्रकार और आईएमसीसी स्टूडेंट्स कहने पर ज्यादातर खिलाड़ी सहजता के साथ बातचीत भी कर ले रहे थे।

यशपाल शर्मा सुनील वाल्सन आदि आठ दस खिलाड़ियों के इंटरव्यू लिख लेने के बाद सबसे बड़ी समस्या यह थी कि इसे कहां-कहां पर प्रिंट करवाया जाए। दिल्ली के लिए अनजान और पत्रकारिता में एकदम कोंपल होने के कारण ज्यादा ज्ञान भी नहीं था। तभी मेरे मन मे हरिवंश का नाम बिजली की तरह अनायास कौंधा। और मैंने सारे के सारे इंटरव्यू लिखकर हरिवंश के पास प्रभात खबर रांची बिहार के पते पर भेज डाला। ढेरों इंटरव्यू के साथ हरिवंश जी को एक पत्र भी भेजा। जिसका सही-सही मजमून तो अब याद नहीं पर उसका सार यही था कि इन खिलाड़ियों के इंटरव्यू भेज रहा हूं। मूलतः बिहारी होने के कारण प्रभात खबर को इसलिए भी चुना कि आपको रविवार काल से जानता हूँ। अंत में मैंने लिखा कि इन इंटरव्यू को आप छापें। यदि पारिश्रमिक की व्यवस्था ना भी  हो तब भी कोई बात नही। सारे इंटरव्यू भेज तो दिया था पर देखने की या सूचना तक मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी।

कोई 15-17 दिन के बाद आईएमसीसी कै पते पर संपादक हरिवंश जी का एक पत्र मिला। जिसमें इंटरव्यू मिलने पर आभार जताया और सभी इंटरव्यू को छापने के साथ साथ पारिश्रमिक देने का भी भरोसा दिया।

संपादक हरिवंश का पत्र मेरे लिए अनमोल था। सबों से छिप छिपाकर इसे मैंने कितनी बार दोहराया यह बता नहीं सकता। हालांकि प्रभात खबर में प्रकाशित अपने इंटरव्यू को तो मैं आज तक नहीं देख पाया, पर पहले पत्र मिलने कोई 15-20 दिन के बाद चार सौ रुपये का एक मनीआर्डर जरुर मिला। जिससे मन में यह विश्वास पक्का हो गया कि प्रभात खबर में मेरे इंटरव्यू जरूर प्रकाशित हुए होंगे।

उस समय 400की बडी़ वैल्यू थी भाई। अपन दिल्ली मे रहना छात्रावास भोजन आदि और जेबखर्च पर हर माह 600 का खर्च होता था इस हाल में 400रूपये पर जेएनयू के पूर्वांचल कैंपस के कैंटीन में हम कुछ मित्रों की पार्टी होती रही।

मार्च 88 में सहारनपुर के एक अखबार में पहली नौकरी लगी। तो व्यस्तताओं के साथ संपादक हरिवंश की याद भले ही कम हो गयी हो पर मन मे एक सम्मान का भाव था। बाद में 1993 में ज़ब मेरी शादी हजारीबाग में हुई। तब जब कभी भी हजारीबाग जाता तो ससुराल में बेकार पडे पुराने अखबारों को टटोलता खासकर प्रभात खबर साज सज्जा में पहले अखबार भले ही सुंदर हो पर खबरों के चयन प्रस्तुतिकरण में यह एक थका हुआ उबाऊं औऱ बोरियत भरा पेपर जान पडा। खासकर किस्तवार खबरों में बोरियत और जानबूझकर न्यूज को रबर की तरह लम्बा करने वाला फालतू सा भी महसूस हुआ। खबरों को रबर की तरह खिंचने की कला आजकल इस पेपर के हेडिंग में आ गया है। 2016 मे करीब तीन माह तक रांची में रहने का संयोग मिला। और प्रभात खबर के प्रति मेरे मन का सारा लगाव जाता रहा। रबर की तरह न्यूज इंट्रो की प्रस्तुतिकरण के बाद भी यह पेपर रांची में सबसे अधिक बिकाऊ है। मेरे जाने से काफी पहले हरिवंश इसे छोड़कर नीतिश कुमार दरबार में पधार चुके थे।  दिल्ली और पटना में रहते हुए भी रही और पत्रकारों के साथ नीरसता के नीतिश कुमार पत्रकारों के न चहेते रहे और न पहल की। मगर इस रसहीन कथित सुशाशन कुमार के साथ हरिवंश जी की नजदीकियां विस्मयकारी है। पहले सूचना निदेशक और बाद में राज्यसभा सांसद बनवाने के पीछे आगे केवल जेडीयू सुप्रीमो  नीतिश कुमार का ही बल और  संबल रहा।

 मगर राज्यसभा के उपसभापति के लिए नीतिश कुमार द्वारा हरिवंश के नाम को प्रस्तावित करना और उपसभापति बनवाने की भूमिका में कुमार ही अंपायर रहे। निसंदेह हरिवंश एक सुंदर कुशल और सुयोग्य पात्र हैं। मगर इस पद का लालीपॉप लेकर भाजपा मुखिया अमित शाह शिवसेना के कुंवर उद्धव ठाकरे के दरबार मातृ श्री के चक्कर काटते रह गये।

उपसभापति का आफर भी उछाला गया, मगर शाह की एक न चली। लोकसभा टिकट वितरण और तालमेल के लिए उपप्रधानमंत्री और चार प्रमुख मंत्रालयों की शर्त पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी सहमत नही हुए । और गस तरह ठाकरे की ओर फेंके इये इस आफर को ठुकराने के बाद ही प्रधानमंत्री ने किसी के झोली में डालने से इंकार नहीं किया, और इस तरह हरि कृपा से हरिवंश हरि का नाम जाप करते हुए देश ऊ नामी पत्रकार सुयोग्य संपादक और सहज मिलनसार सुकोमल ह्रदय के हरिवंश की यह पदोन्नति मान्य है।

एक कलमघसीट का यह सफर हैरतनाक और विस्मित करती है। आज तक पत्रकारिता से दर्जनों लोग राजनीति में आए मगर नीतिश कुमार सरीखे सहयोगी बिरले को मिलते हैं और इस मामलें में हरिवंश बिरले है कि वे इस पद पर विभूषित होकर अपने चाहनेवालो को भाव विभोर कर दिया। बहुत-बहुत नमस्कारके साथ मुबारकबाद बधाई और शुभकामनाएं. 

रविवार, 12 जुलाई 2020

बाल साहित्य पर काम करके मैं संतुस्ट हूँ - प्रकाश मनु





विख्यात साहित्यकार प्रकश मनु  से अनामी  शरण  बबल की बातचीत.

बाल साहित्य का इतिहास आज समूचे हिंदी संसार की धरोहर बन चुका है...!

वरिष्ठ साहित्यकार और बाल साहित्य के इतिहास के लेखक प्रकाश मनु से अनामीशरण बबल की बातचीत
*
अनामीशरण बबल – मनु जी, आप बाल साहित्य के जाने-माने हस्ताक्षर हैं। कृपया बताएँ कि आप बाल साहित्य को किस तरह परिभाषित करेंगे?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, एकदम सीधे-सादे शब्दों में कहना हो तो बाल साहित्य का मतलब है बच्चों का साहित्य—बच्चों का अपना साहित्य, जिसे पढ़कर वे आनंदित हों, उसके साथ नाचें, झूमें-गाएँ और खेल-खेल में जीवन के महत्त्वपूर्ण पाठ भी सीख लें। यों यह बाल साहित्य ही है, जिसके जरिए किसी बच्चे का संपूर्ण और संतुलित विकास होता है, इसी के जरिए उसे जरूरी मानसिक खुराक मिलती है, और प्रेम, सहानुभूति, परदुखकातरता जैसे बुनियादी संस्कार भी, जो हर पल उसके साथ रहते हैं...उसे सही राह दिखाते हैं और कभी भटकने नहीं देते। बरसों पहले मैं पुरानी पीढ़ी के एक बड़े बाल साहित्यकार कन्हैयालाल मत्त जी से मिला था। बातों-बातों में मैंने उनसे पूछा कि मत्त जी, आपके खयाल से कोई अच्छी बाल कविता कैसी होनी चाहिए? सुनकर उन्होंने जवाब दिया था कि मनु जी, मैं तो उसी को अच्छी बाल कविता मानता हूँ जिसे पढ़ या सुनकर बच्चों के हदय की कली खिल जाए। मैं समझता हूँ, यह केवल अच्छी बाल कविता ही नहीं, समूचे बाल साहित्य की भी कसौटी है। कोई अच्छी कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक—यहाँ तक कि जीवनी और ज्ञान-विज्ञान साहित्य भी जब तक इस तरह न लिखा जाएगा कि वह बच्चों को आनंदित करे, तब तक वे उसे पढ़ने के लिए उत्साहित न होंगे, भले ही आपने उसमें कितने ही अच्छे-अच्छे विचार क्यों न जड़ दिए हों। बच्चे अपने लिए लिखी रचनों से आनंदित हों, यह पहली शर्त है। हाँ, पर इससे यह भी न समझ लेना चाहे कि बाल साहित्य केवल बच्चों के मनोरंजन के लिए है। बच्चे अपने लिए लिखी रचनाओं से आनंदित होंगे तो वे खेल-खेल में जीवन के बहुत से जरूरी पाठ भी सीख लेंगे। यही अच्छे बाल साहित्य का उद्देश्य भी है।
अनामीशरण – मनु जी, कृपया बताएँ कि बाल साहित्य क्या है और उसमें किन-किन विधाओं में प्रचुरता से लिखा गया है?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, बाल साहित्य क्या है, इसका जवाब तो मैंने अभी-अभी दिया ही है। आम तौर से बड़ों के साहित्य में जो विधाएँ हैं, वे सभी बाल साहित्य में भी आपको नजर आएँगी। बाल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, ज्ञान-विज्ञान साहित्य सबमें काफी काम हुआ है। हालाँकि संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत वगैरह में जितना काम होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ। ऐसे ही कछ और विधाएँ हैं, जिनमें काम करने के लिए पूरा मैदान खाली है।
अनामीशरण - बाल साहित्य और इसकी सतत प्रवहमान धाराओं में आपको ऐसा क्या प्रतीत हुआ कि आपको लगा, बाल साहित्य का भी इतिहास लिखा जाना चाहिए?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, मोटे तौर से बीसवीं शताब्दी का प्रारंभिक काल ही बाल साहित्य के प्रारंभ का समय भी है। तब से कोई सौ-सवा सौ बरसों में बाल साहित्य की हर विधा में बहुत काम हुआ है। बाल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, बाल जीवनी और ज्ञान-विज्ञान साहित्य—सबमें बहुत साहित्य लिखा गया है और उनमें कुछ कृतियाँ तो इतनी उत्कृष्ट और असाधारण हैं कि चकित रह जाना पड़ता है। बाल साहित्य के इतिहास की भूमिका में मैंने लिखा है कि बाल साहित्य जिसे एक छोटा पोखऱ समझा जाता है, वह तो एक ऐसा अगाध समंदर हैं, जिसमें सृजन की असंख्य उत्ताल तरंगें नजर आती हैं। बीच-बीच में बहुत उज्जवल और चमकती हुई मणियाँ भी दिखाई दे जाती हैं।...एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि हिंदी साहित्य के बड़े से बड़े दिग्गजों ने बाल साहित्य लिखा और उस धारा को आगे बढ़ाया है। आपको आश्चर्य होगा, हिंदी का पहला बाल उपन्यास प्रेमचंद ने लिखा था। ‘कुत्ते की कहानी’ उस बाल उपन्यास का नाम है, और वह प्रेमचंद ने तब लिखा, जब वे ‘गोदान’ लिख चुके थे और अपने कीर्ति के शिखर पर थे। क्या पता, अगर वे और जीते रहते तो कितनी अनमोल रचनाएँ बच्चों की झोली में डालकर जाते। आपको पता होगा, प्रेमचंद के समय मौलिक उपन्यास तो न थे, पर अनूदित उपन्यास बहुत थे। पर प्रेमचंद को उनसे संतोष न था। उन्हें लगा कि पराई भाषा के उपन्यासों से बच्चों का उतना जुड़ाव नहीं हो पाता, और उन्हें सही परिवेश भी नहीं मिल पाता। इसलिए हिंदी में बच्चों के लिए कोई ऐसा उपन्यास लिखना चाहिए, जो उन्हें बिल्कुल अपना सा लगे। और तब लिखा उन्होंने बाल उपन्यास ‘कुत्ते की कहानी’, जिसका नायक एक कुत्ता कालू है। उपन्यास में उसके कमाल के कारनामों का वर्णन है, पर इसके साथ ही प्रेमचंद ने भारतीय समाज की जाने कितनी विडंबनाएँ और सुख-दुख भी गूँथ दिए हैं। यहाँ तक कि गुलामी की पीड़ा भी। उपन्यास के अंत में कालू कुत्ते को हर तरह का आराम है। उसे डाइनिंग टेबल पर खाना खाने को मिलता है। तमाम नौकर-चाकर उसकी सेवा और टहल के लिए मौजूद हैं। पर तब भी वह खुश नहीं है। वह कहता है, मुझे सारे सुख, सारी सुविधाएँ हासिल हैं, पर मेरे गले में गुलामी का पट्टा बँधा हुआ है और गुलामी से बड़ा दुख कोई और नहीं है। ऐसे कितने ही मार्मिक प्रसंग और मार्मिक कथन हैं जो उपन्यास पढ़ने के बाद मन में गड़े रह जाते हैं। यह है प्रेमचंद के उपन्यास-लेखन की कला, जो उनके लिखे इस बाल उपन्यास में भी देखी जा सकती है।
पर अकेले प्रेमचंद नहीं हैं, जिन्होंने बच्चों के लिखा लिखा। अमृतलाल नागर, रामवृक्ष बेनीपुरी, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, सुभदाकुमारी चौहान, दिनकर, जहूरबख्श, मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेंद यादव, मन्नू भंडारी, शैलेश मटियानी, बच्चन, भवानी भाई, प्रभाकर माचवे, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय—सबने बच्चों के लिए लिखा और खूब लिखा।...तो जैसे-जैसे मैं बाल साहित्य के इस अगाध समंदर में गहरे डूबता गया, बाल साहित्य की एक से एक सुंदर और चमकीली मणियों से मैं परचता गया। और बहुत बार तो लगा कि ऐसी दमदार कृतियाँ तो बड़ों के साहित्य में भी नहीं हैं, जैसी बाल साहित्य में हैं। तब मुझे लगा कि यह बात तो दर्ज होनी चाहिए, कहीं न कहीं लिखी जानी चाहिए। पर मैं देखता था कि ज्यादातर बाल साहित्यकार इस चीज को लेकर उदासीन थे, या कम से कम वैसी व्याकुलता उनमें नहीं महसूस होती थी, जैसी मैं महसूस करता था और भीतर-भीतर तड़पता था।
तो अनामी भाई, उसी दौर में कहीं अंदर से पुकार आई कि प्रकाश मनु, तुम यह काम करो। बेशक यह काम बहुत चुनौती भरा है, पर तुम इसे कर सकते हो, तुम्हें करना ही चाहिए। और मैं इसमें जुट गया। मैं कितना कामयाब हो पाऊँगा या नहीं, इसे लेकर मन में संशय था। पर जैसे-जैसे काम में गहरे डूबता गया, यह संशय खत्म होता गया। मुझे लगा कि यह तो मेरे जीवन की एक बड़ी तपस्या है. और सारे काम छोड़कर मुझे इसे पूरा करना चाहिए। तो सारे किंतु-परंतु भूलकर मैं इस काम में लीन हो गया।
ऐसा नहीं कि बाधाएँ कम आई हों। मेरे पास कुछ अधिक साधन भी न थे। फिर भी किताबें खरीदना तो जरूरी था। बिना इसके इतिहास कैसे लिखा जाता? इन बीस बरसों में कोई डेढ़-दो लाख रुपए मूल्य की पुस्तकें खरीदनी पड़ीं। जो सज्जन कंप्यूटर पर मेरे साथ बैठकर घंटों कंपोजिंग और निरंतर संशोधन भी करते थे, वे बहुत धैर्यवान और मेहनती थे। पर उन्हें उनके काम का मेहनताना तो देना ही था। कोई बीस बरस यह काम चला और दो-ढाई लाख रुपए तो कंपोजिंग आदि पर खर्च हुए ही। हर बार नई किताबें आतीं तो मैं उन्हें बीच-बीच में जोड़ता। इतिहास का विस्तार बहुत अधिक न हो, इसलिए बार-बार उसे तराशना पड़ता। लिखना और संपादन, काट-छाँट...फिर लिखना, फिर संपादन, यह सिलसिला बीस बरस तक चलता रहा। इस पूरे महाग्रंथ के कोई सौ के लगभग प्रिंट लिए गए। हर बार काट-छाँटकर फिर नया प्रिंट।...सिलसिला कहीं रुकता ही न था। कभी-कभी तो लगता था कि मैं मर जाऊँगा और यह काम पूरा न होगा।...पर अंततः पिछले बरस यह काम पूरा हुआ और लगा कि सिर पर से कोई बड़ा भारी पहाड़ उतर गया हो। काम पूरा होने के बाद भी यकीन नहीं हो रहा था कि मैंने सच ही इसे पूरा कर लिया है।
अनामीशरण - आपसे पहले भी क्या बाल साहित्य के इतिहास पर काम हुआ है?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, यह हिंदी बाल साहित्य का पहला इतिहास है। हाँ, इससे पहले सेवक जी ने हिंदी बाल कविता का इतिहास लिखा था, ‘बालगीत साहित्य : इतिहास एवं समीक्षा’ शीर्षक से। सन् 2003 में मेधा बुक्स से खुद मेरा इतिहास-ग्रंथ आया था, ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’। बाल साहित्य के इस बृहत् इतिहास-ग्रंथ से पहले अभी तक कुल दो ही इतिहास छपे थे, पर ये दोनों केवल बाल कविता तक सीमित थे। हिंदी बाल साहित्य का पहला इतिहास-ग्रंथ तो यही है, जो सन् 2018 में प्रभात प्रकाशन से बड़े खूबसूरत कलेवर में छपकर आया है। इसे लिखने में मेरे जीवन के कोई बीस-बाईस वर्ष लगे।
अनामीशरण - बाल साहित्य का इतिहास न सही, पर क्या ऐसा कोई और बड़ा काम हुआ है, जिसमें बाल साहित्य के सिलसिलेवार विकास को दर्शाया गया हो?
प्रकाश मनु – इस इतिहास-ग्रंथ से पहले अनामी जी, मेरी एक पुस्तक ‘हिंदी बाल साहित्य : नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ’ आ चुकी थी, जिसमें अलग-अलग विधाओं में बाल साहित्य की विकास-यात्रा को दरशाया गया था। काफी लंबे-लंबे इतिहासपरक लेख इसमें हैं। यह पुस्तक सन् 2014 में आई थी। इसी तरह शकुंतला कालरा जी की एक संपादित पुस्तक ‘बाल साहित्य : विधा विवेचन’ भी आ चुकी थी, जिनमें बाल साहित्य की अलग-अलग विधाओं पर अलग-अलग साहित्यकारों ने लिखा। पर बाल साहित्य का कोई विधिवत और संपूर्ण इतिहास अब तक नहीं आया था। इसलिए मेरे ग्रंथ ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ ने, मैं समझता हूँ, एक बड़े अभाव की पूर्ति की। मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना तो यह था ही कि मैं हिंदी बाल साहित्य का इतिहास लिखूँ। पर मेरे साथ-साथ यह बाल साहित्य के सैकड़ों लेखकों का भी सपना था कि ऐसा इतिहास-ग्रंथ सामने आए।...तो मैं समझता हूँ, मैंने केवल अपना ही नहीं, सैकड़ों बाल साहित्यकारों का सपना भी पूरा किया है। और यह काम हो सका, इसका श्रेय मैं अपने मित्रों, शुभचिंतकों और उन सैकड़ों बाल साहित्यकारों को देता हूँ जिनकी शुभकामनाएँ मेरे साथ थीं, और उसी से मुझे इतनी हिम्मत, इतनी शक्ति मिली कि यह काम पूरा हो सका। सच पूछिए तो अनामी जी, मुझे लगता है कि यह काम करने की प्रेरणा मुझे ईश्वर ने दी और उसी ने मुझसे यह काम पूरा भी करा लिया। मैं तो बस एक निमित्त ही था। इतनी सारी सद्प्रेरणाएँ मेरे साथ न होतीं तो मैं भला क्या कर सकता था? एक पुरानी कविता का सहारा लेकर कहूँ तो—‘कहा बापुरो चंद्र...!!’
अनामीशरण – ‘नंदन’ जैसी लोकप्रिय बाल पत्रिका में काम करने के अनुभव और बाल कथाओं के विपुल संसार से दो-चार होते रहने की सतत प्रकिया ने क्या आपके जीवन दर्शन, सोच-विचार और गहन वैचारिक मंथन पर गहरा प्रभाव डाला है? इतिहास लेखन में आपके ‘नंदन’ कार्यानुभव का असर पड़ा है?
प्रकाश मनु – निस्संदेह अनामी भाई, बाल पत्रिका ‘नंदन’ से जुड़ने पर ही मुझे पता चला कि बाल साहित्य का विस्तार कितनी दूर-दूर तक है। साथ ही उसमें बचपन की ऐसी खूबसूरत बहुरंगी छवियाँ हैं, कि उनका आनंद लेने के लिए आप फिर से बच्चा बन जाना चाहते हैं।... ‘नंदन’ में काम करते हुए जब भी मुझे फुर्सत मिलती, मैं पत्रिका की पुरानी फाइलें उठा लेता और पढ़ने लगता। मुझे यह बड़ा आनंददायक लगता था। इसलिए कि उन्हें पढ़ते हुए बरसों पहले ‘नंदन’ में छपे रचनाकारों से मेरी बड़ी जीवंत मुलाकात हो जाती और मैं अभिभूत हो उठता।... फिर ‘नंदन’ के शुरुआती अंक देखे तो मेरी आँखें खुली की खुली रह गईं। उनमें ऐसा अपूर्व खजाना था कि मैं झूम उठा। अमृललाल नागर के ‘बजरंगी पहलवान’ और ‘बजरंगी-नौरंगी’ ऐसे जबरदस्त उपन्यास थे कि पढ़ते हुए मैं किसी और ही दुनिया में पहुँच गया। इसी तरह कमलेश्वर की ‘होताम के कारनामे’ एक विलक्षण कहानी थी। मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘आओ करें चाँद की सैर’ भी ऐसा ही अद्भुत था। यहाँ तक कि राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी और मोहन राकेश की बड़ी दिलचस्प कहानियाँ पढ़ने को मिलीं। मोहन राकेश ने बच्चों के लिए कुल चार कहानियाँ लिखी हैं, और वे चारों आपको ‘नंदन’ के पुराने अंकों में मिल जाएँगी। हरिशंकर परसाई, वृंदावनलाल वर्मा, रघुवीर सहाय, सबने बच्चों के लिए लिखा और जमकर लिखा। इनकी रचनाएँ मुझे ‘नंदन’ के पुराने अंकों में पढ़ने को मिलीं।
मैं अकसर सुना करता था कि हिंदी में बड़े साहित्यकारों ने बच्चों के लिए नहीं लिखा, पर यह तो उलटा ही मामला था। यानी मैं देखता कि भला कौन बड़ा साहित्यकार है जिसने बच्चों के लिए नहीं लिखा!...यह एक विलक्षण चीज थी मेरे लिए। मुझे लगता, यह बात तो किसी को पता ही नहीं। तो किसी न किसी को तो यह सब लिखना चाहिए। मैं बाल साहित्य पर विस्तृत लेख लिखता और उनमें इन बातों का जिक्र करता। धीरे-धीरे मुझे लगा कि हिंदी बाल साहित्य का इतिहास लिखने के लिए जमीन खुद-ब-खुद तैयार हो गई है और फिर मैं इस काम में जुट गया।...तो इसमें शक नहीं, अनामी भाई, कि मैं ‘नंदन’ में था, इस कारण हिंदी बाल साहित्य का इतिहास लिख पाया। नहीं तो शायद मेरे लिए इतना बड़ा काम कर पाना कतई संभव न हो पाता।
अनामीशरण – मनु जी, आपने बाल साहित्य का इतिहास लिखा है, पर मेरा प्रश्न है कि बाल कविता, कहानी और पौराणिक कथाओं, लोककथाओं समेत अन्य कई विधाओं में लिखे गए बाल साहित्य को किस कसौटी पर साहित्य कहा और माना जा सकता है?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, इसका जवाब तो मैं पहले दे ही चुका हूँ। बच्चों के लिए लिखी गई कविता, कहानियाँ, उपन्यास, नाटक और दूसरी विधाओं में रचे गए साहित्य का एक बड़ा हिस्सा बच्चों को एक गहरी रचनामक संतुष्टि और आनंद देता है, और अपने साथ बहा ले जाता है। वह जाने-अनजाने बाल पाठकों के व्यक्तित्व को निखारता और उन्हें जीवन जीने की सही दिशा और सकारात्मक ऊर्जा देता है। साथ ही उनके आगे विचार और कल्पना के नए-नए अज्ञात झरोखे खोलकर, उनके व्यक्तित्व का विकास करता है, उनके सामने नई संभावनाओं के द्वार खोलता है। यह काम ऊँचे दर्जे का साहित्य ही कर सकता है। मैं समझता हूँ कि बच्चों के लिए लिखी गई कविता कहानी, उपन्यास, नाटकों आदि की परख के लिए यह एक सही कसौटी है, जिसके आधार पर उनका मूल्यांकन किया जाना चाहिए, और यही काम मैंने बाल साहित्य के इतिहास में किया है। बेशक बच्चों के लिए लिखी गई सभी रचनाएँ समान महत्त्व और ऊँचाई की नहीं हैं। बहुत सी साधारण रचनाएँ भी हैं। पर बाल साहित्य का इतिहास लिखते हुए मेरी निगाह बच्चों के लिए लिखी गई श्रेष्ठ और कलात्मक रूप से सुंदर रचनाओं पर ही रही है। मैं समझता हूँ कि उनके आधार पर ही बाल साहित्य का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
और यह तो बड़ों के साहित्य में भी है। वहाँ भी साधारण रचनाओं की काफी भीड़ है, पर हम किसी भी विधा की उत्कृष्ट रचनाओं के आधार पर ही उसका मूल्यांकन करते हैं, तथा उसकी शक्ति और संभावनाओं की पड़ताल करते हैं।...हाँ, जहाँ तक लोककथाओं और पौराणिक कथाओं का सवाल है, तो वे बाल पाठकों के लिए तो लिखी नहीं गई थीं। तो उनमें ऐसा बहुत कुछ है, जो बच्चों के काम का नहीं है। इसलिए लोककथाओं और पुराण कथाओं को बाल साहित्य नहीं माना जा सकता। हाँ, कुछ लेखकों ने लोककथाओं और पुराण कथाओं को बच्चों के लिए बड़ी कल्पनाशीलता के साथ नए और सर्जनात्मक रूपों में ढालकर प्रस्तुत किया है। मैं समझता हूँ, बच्चों के लिए विशेष रूप से पुनःसर्जित रचनाओं को ही बाल साहित्य के अंतगत लेना चाहिए। बाकी रचनाओं को भ्रमवश बाल साहित्य भले ही समझ लिया जाए, पर सच पूछिए तो उन्हें बाल साहित्य मानना एक बड़ी भूल होगी। मैंने अपने इतिहास-ग्रंथ में उन्हीं लोककथाओं और पुराण कथाओं की खासकर चर्चा की है, जिनका सच में ही बाल पाठकों के लिए पुनःसृजन किया गया है।
अनामीशरण - बाल साहित्य के इतिहास पर आपके लंबे शोध और साधना का साकार रूप एक बृहत् ग्रंथ के रूप में सन् 2018 में सामने आया है। पर यह कितने वर्षों के निरंतर विचार-मंथन, शोध, अनुसंधान, खोज और अंततः नियोजन का प्रतिफल है?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, मोटे तौर से इस इतिहास-ग्रंथ को पूरा करने में मुझे कोई बीस-बाईस बरस लगे। शुरू में पता नहीं था कि काम इतना बड़ा है कि मैं इसके नीचे बिल्कुल दब जाऊँगा।...धीरे-धीरे जब पुस्तकों की खोज में जुटा तो समझ में आया कि यह काम कितना कठिन है। हर कालखंड की सैकड़ों पुस्तकों को खोजना, गंभीरता से उन्हें पढ़ना, फिर उनके बारे में अपनी राय और विचारों को इस इतिहास-ग्रंथ में शामिल करना खेल नहीं था। बीच-बीच में साँस फूल जाती और लगता था कि यह काम कभी पूरा हो ही नहीं पाएगा। पर इसे ईश्वरीय अनुकंपा ही कहूँगा कि अंततः यह काम पूरा हुआ...और मुझे लगा कि सच ही मेरे जीवन का एक बड़ा सपना पूरा हो गया है।
अनामीशरण – यह इतिहास-ग्रंथ लिखने का विचार आपके मन में कब आया? फिर विचारों की इस पूरी पटकथा को मन से कॉपी पर उतारकर सामने लाना—यह एक लंबा सिलसिला रहा होगा। आपने ही अभी बताया, कोई बीस-बाईस वर्ष। तो इस बाबत अपने उन चंद मित्रों के नाम बताएँ, जिनसे आपने इतिहास लेखन की भावी योजनाओं पर गंभीरता से बात की। उन मित्रों की क्या प्रतिकिया रही?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, यह काम मोटे तौर से सन् 1997 से शुरू हुआ था, जब मैंने बाल साहित्य पर पत्र-पत्रिकाओं में खूब लंबे-लंबे लेख लिखने शुरू किए थे। वे लेख ऐसे थे, जिनके पीछे काफी तैयारी थी, और जो महीनों की मेहनत से तैयार किए गए थे। सन् 2003 में मेरा लिखा हुआ इतिहास-ग्रंथ ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’ आया। वह भी इसी योजना का एक हिस्सा था। कहना न होगा कि इस इतिहास को खूब सराहा गया। दामोदर अग्रवाल और डा. श्रीप्रसाद सरीखे बाल साहित्यकारों ने बड़े उत्साहवर्धक पत्र लिखे। दामोदर अग्रवाल जी का कहना था कि यह ऐसा काम है, जिसे आगे आने वाले सौ सालों तक भुलाया नहीं जा सकता। दूरदर्शन ने एक विशेष कार्यक्रम इस पर केंद्रित किया, जिसमें मेरे अलावा डा. शेरजंग गर्ग और बालस्वरूप राही जी भी सम्मिलित थे। यह एक स्मरणीय विचार-गोष्ठी थी। डा. शेरजंग गर्ग और राही जी ने बड़े सुंदर अल्फाज में इस इतिहास के महत्त्व पर प्रकाश डाला। कुल मिलाकर हिंदी बाल कविता के इतिहास का बहुत उत्साहपूर्वक स्वागत हुआ। इससे जाहिर है, मेरी हिम्मत भी बढ़ी। सन् 2003 में मैंने निश्चय कर लिया कि अब चाहे जितनी भी मुश्किलें आएँ, पर समूचे हिंदी बाल साहित्य का इतिहास लिखना है। यह सिर पर पहाड़ उठा लेना है, तब यह न जानता था। पर एक थरथराहट भरे पवित्र संकल्प के साथ यह काम विधिवत मैंने शुरू कर दिया था।
तब से इसके कई प्रारूप बने और बदले गए। बीच-बीच में सैकड़ों नई-पुरानी पुस्तकें जुड़ती गईं। बच्चों के लिए लिखी गई जो भी अच्छी और महत्त्वपूर्ण पुस्तक मुझे मिलती, मैं गंभीरता से उसे पढ़ता, फिर पुस्तक का संक्षिप्त ब्योरा और उस पर अपनी राय वगैरह दर्ज कर लेता। यों इस इतिहास-ग्रंथ का कलेवर भी समय के साथ-साथ बढ़ता गया। इसलिए बीच-बीच में लगातार संपादन भी जरूरी था। शुरू में इतिहास की जो परिकल्पना मन में थी, वह भी बाद में जाकर कुछ बदली, और इसमें बहुत कुछ नया जुड़ता और घटता रहा। यों इस इतिहास-ग्रंथ को पूरा करने में मुझे कोई बीस-बाईस बरस लगे।
मेरे निकटस्थ साथियों और आत्मीय जनों में देवेंदकुमार, रमेश तैलंग और कृष्ण शलभ ऐसे करीबी मित्र थे, जिनसे लगातार इसे लेकर बात होती थी। इतिहास-ग्रंथ की पूरी परिकल्पना की उनसे दर्जनों बार चर्चा हुई। इसमें आ रही कठिनाइयों की भी। सबने अपने-अपने ढंग से मेरी मदद की। उन्होंने कुछ दुर्लभ पुस्तकें तो उपलब्ध कराईं ही, बीच-बीच में जब मेरी हिम्मत टूटने लगती थी, तो वे हौसला बँधाते। बाद के दिनों में श्याम सुशील भी जुड़े और उनका बहुत सहयोग मिला। उन्होंने यह पूरा इतिहास-ग्रंथ पढ़कर कई उपयोगी सुझाव दिए। संपादन में भी मदद की। सच पूछो तो ऐसे प्यारे और निराले दोस्त न मिले होते, तो यह काम शायद कभी पूरा ही न हो पाता। और अगर पूरा होता भी, तो शायद इतने सुचारु ढंग से संपन्न न होता। मेरा मकसद केवल इतिहास लिखना ही न था। बल्कि मैं चाहता था कि इस इतिहास-ग्रंथ की जो परिकल्पना मेरे मन में है, यह ठीक उसी रूप में पूरा हो। इस बृहत् कार्य में किसी भी तरह का समझौता मैं नहीं करना चाहता था। ऐसा भी हुआ कि लाखों रुपए खर्च करके जो पुस्तकें मैं खरीदकर लाया, उनमें से किसी पर सिर्फ दो-चार लाइनें ही लिखी गईं, किसी पर मात्र दो-एक पैरे। पर मुझे संतुष्टि थी कि हर पुस्तक को मैंने खुद पढ़ा और अपने ढंग से अपने विचारों को दर्ज किया। दूसरों के विचार मैं उधार नहीं लेना चाहता था, और वह मैंने नहीं किया। पुस्तकें खुद पढ़कर राय बनाई और फिर उसे उचित क्रम में तसल्ली से लिखा। इससे काम कई गुना बढ़ गया, पर इसी का तो आनंद था। इसीलिए जब यह इतिहास-ग्रंथ पूरा हुआ तो लगा, मेरी जीवन भर की तपस्या पूरी हो गई, और मेरी आँखों से आनंद भरे आँसू बह निकले।
अनामीशरण – मनु जी, क्या आपके आसपास के लेखकों और मित्रों की मिली-जुली प्रतिकियाओं ने भी इतिहास लेखन की धारणा और आपकी योजनाओं को सबल बनाया है?
प्रकाश मनु – हाँ, अनामी भाई, मैं बहुत खुले दिल और खुले विचारों का आदमी हूँ। मेरे जीवन में कुछ भी दबा-ढका नहीं है, और जो भी है वह सबके सामने है। इसलिए जो भी लेखक या मित्र मिलते, मैं इनसे खुलकर इस काम की चर्चा करता। फिर उनकी जो प्रतिक्रिया होती, उस पर भी पूर्वाग्रह मुक्त होकर खुले दिल से विचार करता। जो भी सुझाव मुझे काम के लगते, उन्हें मैं अपनाने की कोशिश करता। जाहिर है कि इससे मुझे बहुत लाभ हुआ और इतिहास कहीं अधिक मुकम्मल रूप में सामने आया।
अनामीशरण - जब आपने इस इतिहास की रूपरेखा पर काम आरंभ किया तो उस समय आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास लेखन, काल-विभाजन और अलग-अलग कालखंडों के नामकरण आदि को भी क्या आपने ध्यान में रखा? आपने बाल साहित्य के इतिहास में काल-विभाजन किस आधार पर और किन तार्किक मानदंडों पर रखकर निर्धारित किया?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में काल-विभाजन किया है। पर उनके और मेरे काल-विभाजन में बहुत फर्क है। इसलिए भी कि हिंदी साहित्य की परंपरा कई सदियों पुरानी है, जबकि हिंदी में बाल साहित्य की शुरुआत मोटे तौर से बीसवीं शताब्दी से ही हुई। तो मुझे केवल सौ-सवा सौ साल की कालावधि में ही वर्गीकरण करना था। शुक्ल जी ने अलग-अलग कालखंडों में हिंदी साहित्य की प्रवृत्तियों के अनुसार काल-विभाजन किया, जबकि मेरा काल-विभाजन हिंदी बाल साहित्य की विकास-यात्रा या उसके ग्राफ को लेकर था। इसलिए बीसवीं सदी के प्रारंभ से आजादी हासिल होने तक के कालखंड, यानी स्वतंत्रता-पूर्व काल को मैंने हिंदी बाल साहित्य का प्रारंभिक दौर या आदि काल माना। आजादी के बाद हिंदी बाल साहित्य की ओर बहुत से साहित्यिकों का ध्यान गया और इस कालखंड में बहुत उत्कृष्ट रचनाएँ सामने आईं। खासकर छठे दशक से आठवें दशक तक का बाल साहित्य बड़ी ही अपूर्व कलात्मक उठान वाला बाल साहित्य है, जिसमें बाल साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में एक से एक उम्दा रचनाएँ लिखी गईँ। इसलिए इस दौर को मैंने हिंदी बाल साहित्य का गौरव काल कहा।
सन् 1981 से लेकर अब तक के बाल साहित्य में बहुत विस्तार है। बहुत से नए लेखकों का काफिला बाल साहित्य से जुड़ा और काफी लिखा भी गया गया। पर इस दौर में वह ऊँचाई नहीं है, जो विकास युग में नजर आती है। इस कालखंड को मैंने विकास युग का नाम दिया। इस तरह हिंदी बाल साहित्य के इतिहास में मेरा काल- विभाजन प्रवृत्तिगत न होकर, बाल साहित्य की विकास-यात्रा को लेकर है। मोटे तौर से यह अध्ययन की सुविधा के लिए है। इस पर कोई बहुत अधिक मताग्रह मेरा नहीं है कि इन कालखंडों के नाम और कालावधि बस यही हो सकती है। पर मैं देखता हूँ कि सामान्यतः सभी बाल साहित्य अध्येताओं ने इसे खुले मन से स्वीकार कर लिया है, और इसी आधार पर बाल साहित्य के अध्ययन की परंपरा चल निकली है। मुझे निश्चित रूप से यह सुखद लगता है। इसलिए कि काल-विभाजन पर निरर्थक विवाद के बजाय हमारा ध्यान तो बाल साहित्य की विकास की गतियों को जाँचने और आँकने में होना चाहिए।
अनामीशरण – मनु जी, बाल लेखन और बाल साहित्य के बीच क्या फर्क है, और किस मापदंड पर यह तय होता है कि अमुक रचना बाल साहित्य के अंतर्गत आएगी या नहीं?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, जो बाल लेखन है, या खास तौर से बच्चों के लिए लिखी गई रचनाएँ हैं, वही कुल मिलाकर बाल साहित्य है, अगर वे रचनाएँ बाल पाठकों को आनंदित करने के साथ-साथ एक तरह की रचनात्मक संतुष्टि दे पाती हैं। साथ ही उनकी शख्सियत को सँवारने और उसके सर्वांगीण विकास में अपनी अहम भूमिका निभाती हैं।
अनामीशरण – यानी आपके खयाल से बाल साहित्य वह है जो बच्चों को आनंदित करने के साथ ही उसे संस्कारित भी करे और कोई दृष्टिकोण भी दे?
प्रकाश मनु – बिल्कुल...। अनामी भाई, आपने एकदम ठीक कहा।
अनामीशरण - साहित्य की परिभाषा आपकी नजर में क्या है?
प्रकाश मनु – मोटे तौर से कहूँ तो साहित्य भाषा में मनुष्य के मन की अभिव्यक्ति है, जिसमें अपना और समाज का सुख-दुख, भविष्यत, सपनों की उड़ान, आकांक्षाएँ और जीवन यथार्थ प्रतिबिंबित होता हो। कोई अच्छा साहित्य हमें सृजनात्मक संतुष्टि तो देता ही है, पर इसके साथ ही वह जीवन की सहज आलोचना भी है, जिसमें हमारे आगत की दिशा, भीतर का मर्म और आदर्श छिपा होता हो। इस तरह वह हमें नैतिक आदर्शों की राह पर ले जाने में मार्गदर्शक का काम भी करता है।
अनामीशरण - यहाँ पर जब बाल साहित्य की बात चल रही है, तो कृपया बताएँ कि बड़ों के लिए लिखे गए साहित्य और बाल साहित्य के बीच मूल अंतर क्या है?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, मूलतः दोनों के बीच कोई अंतर नहीं है। बस, एक ही अंतर है कि बाल साहित्य बच्चों के लिए लिखा जाता है, इसलिए इसकी भाषा और अभिव्यक्ति बाल मन के अनुकूल सीधी, सरल होती है, जिससे बच्चे उसका आनंद ले सकें। बाल साहित्य में उलझाऊ बिंब, कल्पना, अमूर्त भाषा और पेचीदा अभिव्यक्ति के लिए कोई जगह नहीं है। हमारी दादी-नानियाँ बोलचाल की भाषा और लय में जो बातें कहती हैं, बच्चे उन्हें बड़ी आसानी से ग्रहण कर लेते हैं और उसी रौ में बहने लगते हैं। बाल साहित्य में भी इसी बोलचाल की भाषा और लय की दरकार है। और जहाँ तक किसी लेखक की रचनात्मक संतुष्टि या किसी रचना की अद्वितीयता और पूर्णता की बात है, वह बड़ों का साहित्य हो या बाल साहित्य, दोनों में समान ही होती है।
अनामीशरण - बाल साहित्य के आरंभिक काल और उसकी विकास-यात्रा को आपने किस तरह अपने इतिहास-ग्रंथ में रेखांकित किया है?
प्रकाश मनु – बहुत मोटे तौर से कहूँ तो अनामी भाई, बाल साहित्य के प्रारंभिक दौर में अभिव्यक्ति सीधी-सादी थी, बाल साहित्य की चौहद्दी भी बहुत बड़ी नहीं थी। बहुत थोड़े से विषय थे जिन पर कविता, कहानियाँ, नाटक लिखे जाते थे। फिर वह दौर हमारी पराधीनता का काल था, इसलिए बच्चों में देशराग और देश के गौरव की भावना भरना भी जरूरी था, ताकि ये बच्चे बड़े होकर आजादी की ल़ड़ाई के वीर सिपाही बनें और देश के लिए बढ़-चढ़कर काम करें। आजादी के बाद के बाल साहित्य में बहुत कलात्मक उठान के साथ ही अभिव्यक्ति के नए-नए रास्ते खुले और बाल साहित्य का परिदृश्य भी बड़ा होता गया। सन् 80 के बाद तो हमारे समाज में बड़ी तेजी से परिवर्तन हुआ और उसकी सीधी अभिव्यक्ति बाल साहित्य में देखने को मिलती है। इस कालखंड में बाल साहित्य में कहीं अधिक खुलापन आया और बाल मन की अभिव्यक्ति के नए-नए रास्ते दिखाई पड़े। कहीं बच्चे कंधों पर लटके भारी बस्ते की शिकायत कर रहे हैं, कहीं वे खेलकूद की आजादी माँगते दिखाई देते हैं और कभी विनम्रता से बड़ों से कह रहे हैं कि वे उन्हें दोस्तों के सामने न डाँटें, क्योंकि इससे उन्हें बहुत कष्ट होता है। मोबाइल फोन, कंप्यूटर, गूगल, ईमेल तथा रोबोट समेत आधुनिक प्रोद्योगिकी की बहुत सी चीजें भी इधर बाल साहित्य में आई हैं। आजादी से पहले इनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।
अनामीशरण - बाल लेखन में क्या आपको कोई ऐसा मोहक तत्व मिला, जिससे आपको बहुत आनंद और संतुष्टि मिली हो, और आपको लगा हो कि बाल साहित्य के इतिहास लेखन की आपकी लगन और मेहनत सार्थक हो गई है?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, बाल सहित्य में मैं जैसे-जैसे गहरे उतरता गया, मुझे लगा, कि अरे, यहाँ तो एक से एक सुंदर और कलात्मक कृतियों का भंडार है, जिसका किसी को पता ही नहीं है। अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘बजरंगी पहलवान’ और ‘बजरंगी नैरंगी’ ऐसे ही थे, जिन्हें आप पढ़ लें तो बिल्कुल बच्चे ही बन जाएँ। प्रेमचंद की ‘कुत्ते की कहानी’ का मैंने ऊपर वर्णन किया है। वह एक अद्भुत उपन्यास है। भूपनारायण दीक्षित के ‘नानी के घर में टंटू’ और ‘बाल राज्य’ भी ऐसे ही अनूठे उपन्यास हैं, जिनमें बड़ा रस, बड़ा कौतुक है। इसी तरह बच्चों के लिए लिखी गई बड़ी ही अद्भुत कहानियाँ और नाटक मुझे मिले, जो मेरे लिए किसी अचरज से कम न थे। और बाल कविता की बात करें तो दामोदर अग्रवाल, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, शेरजंग गर्ग, डा. श्रीप्रसाद, निरंकारदेव सेवक, द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी, इनके यहाँ ऐसी कविताओं का अनमोल खाना है जिसे हम दुनिया की किसी बड़ी से बड़ी भाषा के बाल साहित्य के समने बड़े गर्व से रख सकते हैं। सच कहूँ तो उनमें ऐसी बहुत सी चीजें भी थीं, जिन्हें पढ़ते हुए लगा कि शायद बड़ों के साहित्य में भी रचनात्मक ऊँचाई वाली वाली ऐसी सुंदर और भावपूर्ण रचनाएँ न होंगी।
हालाँकि बाल साहित्य में भी साधारण चीजों का बड़ा जखीरा है। उसे देखते हुए बार-बार लगता था कि बाल साहित्य में जो उत्कृष्ट है, उसे अलगाकर दिखाने और मूल्यांकन की बहुत जरूरत है, क्योंकि असल में तो यही बाल साहित्य है। मुझे लगता, किसी न किसी को तो यह काम करना चाहिए। पर मैंने अपने आसपास देखा, किसी को इस काम में रुचि नहीं थी। लोग कविता लिख रहे थे, कहानी लिख रहे थे, या और भी ऐसी ही चीजें। पर अपने लेखन के छोटे से दायरे के बाहर वे झाँकना भी नहीं चाहते थे। उनसे कहा जाता कि बाल साहित्य में एक से एक बड़ी निधियाँ हैं और उन्हें सबके लाने की दरकार है, तो वे ऊपर से हाँ-हाँ करते और फिर अपनी उसी छोटी सी दुनिया में लीन हो जाते। मैं समझ गया कि यह काम बड़ा है, इसलिए कोई हाथ में नहीं लेना चाहता। लोग यह तो चाहते हैं कि यह काम जरूरी है और होना चाहिए, पर वे चाहते हैं कि इस उलझाऊ और पेचीदा काम को कोई और करे, वे स्वयं इस पचड़े में न पड़ें। तब मुझे लगने लगा कि यह काम मुझे करना है, करना ही है, चाहे कितनी ही परेशानियाँ क्यों न आएँ, पर करना है। यों एक बड़ा सपना मन में पैदा हुआ और यह किसी ईश्वरीय अनुकंपा से कम नहीं है कि आखिर वह पूरा भी हुआ।
अनामीशरण - हिंदी साहित्य का इतिहास सबसे पहले तो शुक्ल जी ने लिखा, मगर बाद में उसकी बाढ़ आ गई। कइयों ने शुक्ल जी की ही पटकथा में दो-चार अध्याय काट-जोड़कर नई किताब लिख दी। अगर इसी तरह की स्थितियों से तुलना करते हुए, आपके इतिहास की चर्चा की जाए तो...? क्या आपको लगता है कि आपके बाद बाल साहित्य के कई और इतिहास भी लिखे जाएँगे, जो सीधे-सीधे आपसे प्रेरित होंगे?
प्रकाश मनु – हाँ, यह ठीक है अनामी भाई, कि आचार्य शुक्ल के बाद हिंदी साहित्य के इतिहास बहुत लिखे गए। थोड़ा फेर-फार करके नया इतिहास लिख देने का खेल भी बहुत चला। पर इससे आचार्य शुक्ल के इतिहास-ग्रंथ का महत्त्व तो कम नहीं हो जाता। बल्कि समय के साथ-साथ उसका महत्त्व निरंतर बढ़ता ही गया है। हो सकता है कि मेरे इतिहास-ग्रंथ ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ को पढ़कर और लोग भी बाल साहित्य का इतिहास लिखने के लिए उत्साहित हों। अगर ऐसा है, तो उनका स्वागत। चूँकि इस क्षेत्र में जमीनी काम मैंने बहुत कर दिया, इसलिए हो सकता है कि उनका बहुत श्रम बच जाए। जिस काम को करने में मेरे बीस बरस लगे, उसे वे थोड़े कम समय में भी कर सकते हैं। पर मेरा कहना है कि किसी इतिहास लेखक को गंभीर अध्येता भी होना चाहिए, और उसे इतिहास लिखते समय निज और पर की बहुत सी सीमाओं से ऊपर उठना चाहिए। किसी इतिहास लेखक के अपने विचार तो हो सकते हैं, होने चाहिए भी, पर उसे निजी संबंधों के घेरे से तो यकीनन ऊपर उठना होगा, क्योंकि अंततः तो महत्त्व कृति का है। इतिहास लेखक का मूल्यांकन जितना तटस्थ होगा, पूर्वाग्रहों से परे होगा, उतना ही उसके इतिहास को मान-सम्मान भी मिलेगा। मुझे खुशी है कि मेरे इस इतिहास-ग्रंथ को लेकर एक बड़ी हलचल दिखाई पड़ी तथा लेखकों और पाठकों की बड़े व्यापक स्तर पर प्रतिकियाएँ मिलीं। अधिकतर लेखकों ने बड़े उत्साह से इसका स्वागत किया। मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ।
अनामीशरण - मेरे खयाल से इतनी तितर-बितर, बिखरी हई उपेक्षित बाल रचनाओं और उनके लेखकों की तलाश और उनकी रचनात्मकता को प्रकाश में लाना काफी कठिन काम था। खासा दुरूह। नहीं...?
प्रकाश मनु – निस्संदेह यह एक बड़ी तपस्या थी, अनामी भाई। इस इतिहास-ग्रंथ को लिखने के लिए पुस्तकें कहाँ-कहाँ से जुटाई गईं, अगर मैं यह बताने बैठूँ तो यह खुद में एक इतिहास हो जाएगा। मैंने आपको बताया कि कोई डेढ़-दो लाख रुपए की पुस्तकें मैंने खरीदीं। दिल्ली में जहाँ भी कहीं पुस्तक-पदर्शनी होती, मैं वहाँ जाता। जेब में डेढ़-दो हजार रुपए होते। उनसे जितनी अधिकतम पुस्तकें मैं खरीद सकता था, खऱीद लेता। बस, वापसी के लिए बस या रेलगाड़ी के टिकट के पैसे बचा लेता, ताकि घर पहुँच सकूँ। फिर दोनों हाथों में भारी-भारी थैले पकड़े हुए, पसीने से लथपथ मैं घर आता। उन किताबों को अपनी अलमारी में सहेजकर रखता। फिर उन्हें पढ़ने का सिलसिला चलता, और पढ़ने के बाद अलग-अलग विधा की पुस्तकों का वर्गीकरण करता। फिर इन पुस्तकों को इतिहास-ग्रंथ में उपयुक्त स्थान पर शामिल करने की मुहिम में जुट जाता। यह एक अंतहीन सिलसिला था। इसीलिए मैंने इसे अपने जीवन की सबसे बड़ी तपस्या कहा।
अनामीशरण - आपने जब इतिहास लेखन पर काम करना आरंभ किया, तो बहुत से ऐसे प्रतिभाशाली लेखक होंगे, जिन पर पहले किसी का ध्यान न था, पर आपके इतिहासपरक लेखों आदि के जरिए वे एकाएक चर्चा में आ गए। या कहें कि उन्हें नया जीवन मिला। आपके खयाल से कितने ऐसे साहित्यकार हैं, जिनको इस इतिहास से नया जीवन मिला और उनके लेखन को कालजयी माना गया?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, मैंने इस तरह गिना तो नहीं। पर निश्चित रूप से दर्जनों ऐसे साहित्यकार होंगे, जिनके लिखे पर पहले लोगों का ध्यान नहीं गया था, पर इतिहास में विशेष चर्चा और फोकस होने पर बहुतों का ध्यान उनकी तरह गया। ऐसा बहुत से पुराने प्रतिभाशाली लेखकों के साथ हुआ और नए उभरते हुए लेखकों के साथ भी। पुराने लेखकों में भी बहुत से समर्थ रचनाकार किन्हीं कारणों से अलक्षित रह जाते हैं। उनकी रचना की शक्ति और विलक्षणता पर लोगों का ध्यान नहीं जाता। एक इतिहासकर का काम उन्हें खोजकर सामने लाना है, और बेशक वह काम मैंने किया। ऐसा करके मैंने किसी पर उपकार नहीं किया, बल्कि इतिहासकार का एक स्वाभाविक कर्तव्य है यह। आजादी से पहले के लेखकों में स्वर्ण सहोदर और विद्याभूषण विभु बड़े ही समर्थ बाल साहित्यकार हैं, जिनकी कविताओं में बड़ी ताजगी है, जो आज भी हमें लुभाती है। और भी ऐसे लेखक हैं, जिनकी तरफ पहले अधिक ध्यान नहीं गया था। पर पहले मेरे हिंदी बाल कविता के इतिहास, और अब इस इतिहास-ग्रंथ में भी उनके महत्त्व की इस ढंग से चर्चा हुई, जो आँखें खोल देने वाली है। इसी तरह बहुत से नए उभरते हुए, लेकिन समर्थ लेखकों की ओर भी मेरा ध्यान गया। प्रदीप शुक्ल, अरशद खान, फहीम अहमद, शादाब आलम ऐसे ही साहित्यकार हैं, जिनके महत्त्व को मैंने बाल साहित्य में एक नई संभावना के रूप में रेखांकित किया। उनकी रचनाओं की शक्ति, नएपन और ताजगी की चर्चा की। मैं समझता हूँ, इससे उनका हौसला तो बढ़ा ही होगा, औरों को भी इसी तरह बढ़-चढ़कर कुछ कर दिखाने की चुनौती मिली होगी। या उनके आगे एक नया मार्ग खुला होगा।...और अगर ऐसे और भी नए समर्थ लेखक आगे आए, तो मैं सबसे पहले उनका नोटिस लूँगा और इतिहास के अगले संस्करण में उन्हें शामिल करूँगा। इतिहास-लेखक के रूप में यह मेरा दायित्व है, इसलिए इससे मैं बच नहीं सकता। बल्कि सच पूछिए तो मुझे इसमें आनंद आता है।
अनामीशरण – मनु जी, आपका यह चिर प्रतीक्षित ग्रंथ अब आ गया है, और पिछले कई महीनों के दौरान इस पर ढेरों प्रतिकियाएँ आपको मिली होंगी। उनमें कोरी तारीफ और सराहना वाली औपचारिक टिप्पणियों को छोड़ दें, तो ऐसे कितने गंभीर सुझाव या प्रतिकियाएँ मिलीं, जिनसे आपको लगा कि अब भी कुछ काम बाकी है? क्या लेखकों की प्रतिक्रियाओं में कुछ ऐसे मुद्दे भी उभरे, जिन पर इतिहास लिखते समय आपका ध्यान तो गया, पर आपने कोई खास महत्त्व नहीं दिया था?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, आपने ठीक कहा। इस ग्रंथ के आते ही पाठकों और बाल साहित्यकारों की प्रतिकियाओं की मानो बाढ़ आ गई। ज्यादातर साहित्यकारों ने मुक्त कंठ से इसकी सराहना की, और इसे बाल साहित्य में ‘एक मील का पत्थर’ कहा। एक वरिष्ठ साहित्यकार ने तो आचार्य रामचंद शुक्ल के इतिहास से इसकी तुलना करते हुए कहा कि मनु जी, जिस तरह आचार्य शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखकर एक बड़ा और ऐतिहासिक काम किया, उसी तरह हिंदी बाल साहित्य का इतिहास लिखकर आपने भी ऐसा काम किया है, जिसका महत्त्व समय के साथ निरंतर बढ़ता जाएगा। आज से सौ साल बाद भी लोग इतनी ही उत्सुकता और जिज्ञासा भाव के साथ इसे पढ़ेंगे। इसी तरह एक और बड़े साहित्यकार की टिप्पणी थी कि मनु जी, आपने बाल साहित्य के विशाल समंदर को मथकर उसकी सबसे उज्ज्वल मणियाँ और दुर्लभ खजाना खोज निकाला है और उसे इस बृहत् इतिहास-ग्रंथ के रूप में प्रस्तुत किया है।...ऐसी और भी ढेरों प्रतिक्रियाएँ थीं। पर अनामी भाई, सच तो यह है कि मैं खुद को आचार्य शुक्ल के पैरों की धूल भी नहीं समझता। हाँ, इतना जरूर है कि आचार्य शुक्ल के इतिहास समेत हिंदी साहित्य के अन्यान्य इतिहास-ग्रंथों को मैंने बड़ी गभीरता से पढ़ा है, और उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। बाल साहित्य का इतिहास लिखते हुए वह मेरे बहुत काम आया।
इस ग्रंथ को लेकर निस्संदेह ऐसे सुझाव और प्रतिकियाएँ भी मिलीं, अनामी भाई, जिनसे आगे के काम की दिशाएँ भी खुलती जान पड़ीं। मेरी बहुत कोशिशों के बावजूद कुछ नए-पुराने लोगों की कृतियाँ मुझे उपलब्ध नहीं हो पाई थीं। इसलिए मैं जिस तरह उन पर लिखना चाहता था, नहीं लिख पाया। इस इतिहास के आने पर बहुत से लेखकों ने अपना प्रकाशित साहित्य मुझे भेजा, जो पहले बहुत प्रयत्न करने पर भी मुझे हासिल नहीं हो पाया था। मैं इन कृतियों को पढ़कर नोट्स ले रहा हूँ, ताकि आगे चलकर इन्हें भी इतिहास में शुमार किया जाए। मुझे खेद है कि ये चीजें मुझे पहले नहीं मिलीं। पर अब मिली हैं तो मेरी पूरी कोशिश होगी कि इनमें से अच्छी कृतियों को उचित महत्त्व देते हुए, मैं इस इतिहास-ग्रंथ में शामिल करूँ तथा उनकी विशेषताओं को रेखांकित करूँ।
अनामीशरण - क्या अभी से आपने काम आरंभ कर दिया है, जिसे दूसरे संस्करण में समायोजित करेंगे?
प्रकाश मनु – जी हाँ, मैंने काम शुरू कर दिया है, और इस इतिहास-ग्रंथ के दूसरे संस्करण में वे सब चीजें शामिल हों, जो छूट गई थीं—मेरी यह पूरी कोशिश होगी। इसके अलावा इक्कीसवीं सदी के बाल साहित्य पर भी मेरी एक बड़ी पुस्तक आ रही है। उसमें भी इनमें से बहुत सी चीजों की चर्चा आपको मिलेगी।
अनामीशरण - इस इतिहास के लेखक प्रकाश मनु के बजाय, एक जाने-माने साहित्यकार तथा बच्चों के प्रिय लेखक और संपादक के तौर पर कृपया इस इतिहास के सबसे सबल और निर्बल पक्ष पर विस्तार से प्रकाश डालें।
प्रकाश मनु – अनामी भाई, इस तरह अपने को अलग-अलग हिस्सों में बाँटकर तो मैं नहीं देखता। मैं बच्चों के लिए लिखूँ या बड़ों के लिए, बाल साहित्य का इतिहास लिखूँ या बच्चों के लिए कविता, कहानियाँ, नाटक और उपन्यास, बंदा तो मैं एक ही हूँ, और वही रहूँगा। एक रचनाकार के रूप में मैं यह लिखूँ या वह लिखूँ, उसमें जीवन और रस भी वही होगा, भाषा की रवानगी, कल्पना का वितान और मेरे भीतर की चिंताएँ भी वही रहेंगी। यहाँ तक कि मेरी उधेड़बुन और सुख-दुख भी वही रहेंगे, जो कहीं न कहीं मेरी हर रचना का हिस्सा बनते हैं। बस, थोड़ा-थोड़ा लिखने का ढंग बदलता है, और यह भी बड़े सहज ढंग से होता है। इसके लिए मैं कोई लबादा नहीं ओढ़ता और न इसकी कोई जरूरत पड़ती है।...अलबत्ता इस इतिहास-ग्रंथ के सबल और निर्बल पक्षों की बात करनी हो, तो मैं कहूँगा कि इस इतिहास-ग्रंथ में मैंने मन का इतना रस डाल दिया है कि कोई चाहे तो इस इतिहास को इतिहास के साथ-साथ एक रोचक उपन्यास के तौर पर भी पढ़ सकता है, और उसे इसमें वाकई आनंद आएगा। उसे लगेगा कि वह एक ऐसी फुलवारी से गुजर रहा है, जिसमें तरह-तरह के रंग और गंधों वाले बेशुमार फूल खिले हैं और तरह-तरह की मोहक वीथियाँ हैं। बाल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, ज्ञान-विज्ञान साहित्य—बाल साहित्य की ये अलग-अलग विधाएँ ही जैसे उस सुंदर उद्यान की अलग-अलग सरणियाँ हैं। इनमें घूमते हुए पाठक एक रचनात्मक आनंद से भीगता है और उसका मन प्रफुल्लित होता है। इसलिए कि हर विधा की शक्ति और खूबसूरती को मैंने जगह-जगह बड़े आत्मीय ढंग से उजागर किया है।
इसी तरह अगर इस इतिहास-ग्रंथ की निर्बलता की बात करनी हो, तो अपनी एक कमजोरी की मुझे स्वीकारोक्ति करनी चाहिए। और वह यह, कि मैं कुछ फूलों की सुंदरता पर इतना मुग्ध हो जाता हूँ कि उनके रस-माधुर्य का वर्णन करते हुए भूल ही जाता हूँ कि इस चक्कर में कुछ दूसरे उपेक्षित भी हो रहे हैं। एक इतिहासकार के नाते मैंने भरसक तटस्थ रहने की कोशिश की, पर मैं अपने मन और विचारों का क्या करूँ? जिन रचनाकारों की रचनाओं से मैं अधिक मुग्ध होता हूँ, तो जाहिर है, इतिहास में उनका प्रमुखता से और बार-बार जिक्र होता चलता है। मैं चाहूँ या न चाहूँ, इससे बच ही नहीं सकता। शायद एक अच्छे इतिहासकार के नाते मुझे अपनी रुचियों से थोड़ा और ऊपर उठना चाहिए था।...हालाँकि अनामी, मैं देखता हूँ, कि अगर इस तरह की दुर्बलता की बात की जाए तो आचार्य शुक्ल भी इससे परे नहीं हैं। वहाँ भी तुलसी की बात हो तो शुक्ल जी का मन जैसे बह उठता है, पर वही जब कबीर की बात करते हैं, तो उनका लहजा हमें बदला-बदला सा नजर आता है। फिर इतिहासकार कोरा इतिहासकार तो नहीं। इसके साथ-साथ वह एक मनुष्य, एक रचनाकार, आलोचक और साहित्य का पाठक भी तो है। वह अपने विचारों से तटस्थ कहाँ तक हो सकता है? हाँ, निजी संबंधों के घेरे से बेशक उसे ऊपर उठना चाहिए, और यह शुक्ल जी के इतिहास में भी आपको नजर आएगा, और सौभाग्य से मेरे बाल साहित्य के इतिहास में भी।
अनामीशरण – प्राचीन काल से लोककथाओं के विविध स्वरूपों से हम परिचित रहे हैं। तो क्या इसी तरह बाल काव्य की भी प्राचीन काल में सृजनात्मक परंपरा रही है और रही है, तो समय के साथ उसमें किस तरह के बदलाव आते गए? आपने अपने इतिहास में इसे किस तरह समेटा?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, लोककथाओं की तरह बच्चों के खेलगीतों की परंपरा भी सदियों पुरानी है। ‘खेल कबड्डी आल-ताल, मेरी मूँछें लाल-लाल...’ सरीखे गीत हमारे यहाँ बरसोंबरस से गाए जाते रहे हैं। कितनी ही पीढ़ियों का बचपन इन्हें गाते हुए गुजरा। इसी तरह ‘बरसो राम धड़ाके से, बुढ़िया मर गई खाके से...’, ‘सूख-सूख पट्टी, चंदन गट्टी...’, ‘चंदा मामा दूर के, खोए पकाए दूर के...’ ऐसे गीत हैं, जिनका आज से साठ-पैंसठ बरस पहले मैंने अपने बचपन में आनंद लिया था। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे पिछले तीन-चार सौ बरसों से तो चल ही रहे हैं। पिछली जाने कितनी पीढ़ियों का बचपन इन्हें गाते-गुनगुनाते हुए, इनके साथ झूमते-गाते हुए बड़ा हुआ, और आज के बच्चे भी इन्हें भूले नहीं हैं। हम नहीं जानते कि कब से यह परंपरा चली आती है, शायद पाँच-छह सौ बरस पहले से या शायद और भी पहले थे।...कहना चाहिए कि यह मौखिक बालगीतों की परंपरा थी। बीसवीं सदी में आकर वही नए-नए बालगीतों में ढलकर एक नया साहित्यिक कलेवर ले लेती है और बच्चों के गले का हार बन जाती है। यों इससे पहले सूर, तुलसी के वात्सल्य वर्णन में, या फिर अमीर खुसरो की पहेलियों में बहुत कुछ ऐसा है, जो बालगीतों के बहुत नजदीक है। पर इसकी कोई अनवरत परंपरा नहीं बन पाई। मेरा मानना है कि यह बाल साहित्य की पूर्व पीठिका है। बाल साहित्य की सुव्यवस्थित परंपरा तो बीसवीं सदी के प्रारंभ से ही बन पाई। मैंने अपने इतिहास में प्रमुख रूप से उसी की चर्चा की है। बाल साहित्य की मौखिक परंपरा और मध्यकाल में सूर, तुलसी आदि की बाल छवियों और क्रीड़ा आदि के वर्णन को मैंने शामिल नहीं किया।
अनामीशरण - बाल साहित्य से जुड़े लेखकों को आज भी हमारे आलोचक लेखक नहीं मानते। खासकर बालगीतकारों के साथ तो कुछ ज्यादा ही उपेक्षा और नजरअंदाज करने का रवैया रहा है। बड़ों और बाल साहित्य के रचनाकारों के बीच इस अनुचित भेदभाव के तरीके पर आपकी क्या टिपणी है?
प्रकाश मनु – असल में अनामी भाई, यह हमारे समाज के कुंठित होने की निशानी है, जिसमें न बच्चे के लिए सम्मानपूर्ण स्थान है और न बाल साहित्य के लिए। हालाँकि दुनिया की हर संपन्न भाषा में बाल साहित्य और बाल साहित्य रचने वालों के लिए बहुत गहरे आदर और सम्मान की भावना है। फिर हमारे यहाँ बाल साहित्य और बाल साहित्यकारों के प्रति यह दुर्भाव क्यों है, यह समझना मुश्किल है।...जरूर इसके पीछे हमारे आलोचकों की कोई कुंठा है। हालाँकि प्रेमचंद सरीखे हिंदी के दिग्गज कथाकार ने बच्चों के लिए एक से एक सुंदर कहानियाँ लिखीं, बल्कि ‘कुत्ते की कहानी’ सरीखा उपन्यास भी, जिसे हिंदी का पहला बाल उपन्यास होने का गौरव हासिल है। पर पता नहीं क्यों, ज्यादातर लोग इस बात से अनजान हैं। इसी तरह आपको शायद पता नहीं कि प्रेमचंद की ‘ईदगाह’, ‘गुल्ली-डंडा’, ‘बड़े भाईसाहब’, ‘दो बैलों की कथा’ सरीखी कहानियाँ असल में बड़ों के लिए लिखी गई थीं। यह अलग बात है कि बच्चे भी इनका आनंद लेते हैं।...पर आपको आश्चर्य होगा कि प्रेमचंद ने विशेष रूप से बच्चों के लिए ‘गुब्बारे में चीता’ सरीखी कई सुंदर और भावपूर्ण कहानियाँ लिखी थीं, जो उनकी पुस्तक ‘जंगल की कहानियाँ’ में शामिल हैं। ये इतनी सुंदर और रसपूर्ण कहानियाँ हैं कि इन्हें पढ़ते हुए आपका भी बच्चा बन जाने का मन करेगा, ताकि आप इनका भरपूर आनंद ले सकें। और अकेले प्रेमचंद ही क्यों, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, सुभद्राकुमारी चौहान, रामनरेश त्रिपाठी और आगे चलकर निराला, पंत, महादेवी वर्मा, भवानी भाई, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना—सबने बच्चों के लिए लिखा और खूब लिखा। यह परंपरा आगे भी चलती आई और आज के दौर के कई बड़े और प्रतिभाशाली लेखक भी बच्चों के लिए लिख रहे हैं। निराला की ‘भिक्षुक’ जैसी मर्मस्पर्शी कविताएँ तो बच्चे पढ़ते ही हैं। पर उन्होंने बच्चों के लिए सुंदर जीवनियाँ भी लिखी हैं। इसी तरह निराला ने अपनी ‘सीख भरी कहानियाँ’ पुस्तक में ईसप की कथाओं को बच्चों के लिए बड़े ही खूबसूरत कलेवर में पेश किया है। इस पुस्तक की भूमिका भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, जिसमें निराला कहते हैं, कि वही लेखक अमर हो पाता है, जिसकी रचनाएँ बच्चे रस लेकर पढ़ते हैं। यानी जो साहित्य बच्चों के दिल में उतर जाता है, वही अमर साहित्य है। बाल साहित्य के लिए ये सम्मानपूर्ण अल्फाज किसी और के नहीं, महाप्राण निराला के हैं, जो हमारे शीर्षस्थ साहित्यकार हैं, और बीसवीं सदी के सबसे बड़े कवि। फिर भी अगर आलोचकों को बाल साहित्य का यह विशाल वैभव नहीं नजर आता तो यह हमारी आलोचना का दुर्भाग्य है, हिंदी के बाल साहित्य का नहीं।
वैसे अनामी भाई, आपको हैरानी होगी, हमारे आलोचक इतने कुंठित हैं कि जब वे रामनरेश त्रिपाठी, दिनकर, महादेवी वर्मा, रघुवीर सहाय या सर्वेश्वर के रचनाकार व्यक्तित्व की चर्चा करते हैं तो उनके बाल साहित्य को एकदम ओट कर देते हैं। पर वे नहीं जानते कि बाल साहित्य की चर्चा के बगैर इनमें से किसी भी साहित्यकार के व्यक्तित्व और संवेदना को वे ठीक से समझ ही नहीं सकते। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हिंदी की आलोचना अपनी पिछली भूल-गलतियों और सीमाओं से उबरेगी और बाल साहिय के महत्त्व को स्वीकारेगी। हालाँकि मैं फिर कहूँगा कि आलोचक स्वीकारें या नहीं, इससे हिंदी बाल साहित्य की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। वह तो है और अपने मीठे रस से लाखों बालकों को आनंदित कर रहा है, उनके व्यक्तित्व को दिशा दे रहा है। यह अपने आप में बड़ी बात है। आज आलोचना भूल कर रही है तो यकीनन कल वह भूल-सुधार भी करेगी, और तब उसे समझ में आएगा कि जिस बाल साहित्य को वह छोटा पोखर समझ रही थी, वह तो एक महासिंधु है। बस, आँखें खोलकर उसे देखने, समझने और सराहने की जरूरत है।
अनामीशरण – मनु जी, मेरे खयाल से बाल पाठकों के लिए करीब दर्जन भर बाल पत्रिकाएँ आज भी ठीक-ठाक निकल रही हैं, जिनके लाखों पाठक हैं। क्या आप इस स्थिति से संतुष्ट है?
प्रकाश मनु – पूरी तरह तो नहीं अनामी भाई, इसलिए कि इतने बड़े देश में हिंदी के बाल पाठकों के लिए कोई पचास-साठ पत्रिकाएँ तो होनी ही चाहिए। और कितना अच्छा हो, अगर उनकी ग्राहक संख्या लाखों में हो और वे देश के कोने-कोने में बैठे बच्चों तक पहुँचे। सच पूछिए तो मैं इन बाल पत्रिकाओं को, सिर्फ पत्रिका नहीं, बल्कि देश भर में फैले बाल पाठकों के लिए ओपन एयर यूनिवर्सिटी मानता हूँ। जीवन के ऐसे खुले विश्वविद्यालय, जिनमें नाम लिखाने की दरकार नहीं है। अगर आप नियमित पत्रिका पढ़ते हैं तो आप खुद-ब-खुद संस्कारित होंगे। आपकी भाषा, विचार, बल्कि कहना चाहिए समूचे व्यक्तित्व में निखार आएगा। इसलिए अनामी भाई, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे देश-समाज के बचपन को सँवारने में बाल पत्रिकाओं की बहुत बड़ी भूमिका है। हो सकता है, आज नहीं तो कल देश के विचारशील लोगों का ध्यान बाल पत्रिकाओं की ओर जाए, और यह बड़ी सुखद स्थिति होगी।
यों बाल पत्रिकाओं का वर्तमान भी कम उत्साहजनक नहीं है। बाल साहित्य बच्चों का साहित्य है और वह इन सुंदर, सुरुचिपूर्ण रूप-सज्जा वाली बाल पत्रिकाओं के जरिए उन तक पहुँच रहा है, तो संवाद अपने आप पूरा हो जाता है। बाल साहित्य के अच्छे आलोचक और पारखी हों तो यह और भी अच्छी बात है, पर अगर यह काम उतनी बड़ी मात्रा में नहीं हो पा रहा, तो भी अच्छा बाल साहित्य किसी सुंदर गुलदस्ते जैसी सजी-धजी, बहुरंगी पत्रिकाओँ के माध्यम से बच्चों तक पहुँचे, उनके व्यक्तित्व और रुचियों को सँवारे और उनके संपूर्ण विकास में अपनी भूमिका निभाए, तो यह भी कोई छोटी बात नहीं है। मेरा निश्चित मत है कि आज के निराशा भरे दौर में भी, अगर हमारे यहाँ बचपन अधिक भटका नहीं है, तो इसका श्रेय हमें अच्छी बाल पत्रिकाओं को देना होगा।
अनामीशरण – मनु जी, बाल साहित्य के समकालीन हालात पर आपकी प्रतिकिया?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, सच कहूँ तो वर्तमान दौर बाल साहित्य की सर्वांगीण उन्नति और बहुमुखी विकास का दौर है, जब कि उसकी पताका आसमान में ऊँची लहरा रही है। ‘नंदन’ के यशस्वी संपादक जयप्रकाश भारती जी बड़े जोर-शोर और उत्साह से इक्कीसवीं सदी को बालक और बाल साहित्य की सदी कहा करते थे। तब उनकी बात हमें ज्यादा समझ में नहीं आती थी। पर यह एक सुखद आश्चर्य है कि समय ने इसे सच कर दिया है। निस्संदेह इक्कीसवीं सदी बाल साहित्य के असाधारण उत्कर्ष की सदी है। इसे आज बड़ों के साहित्यकार भी महसूस कर रहे हैं और वे खुद बड़ी जिम्मेदारी के साथ बच्चों के लिए लिख रहे हैं। अगर कोई खुली आँखों से देखे तो उसे आज बाल साहित्य की विजय-गाथा हवाओं के मस्तक पर लिखी हुई नजर आ सकती है। जो लोग आज इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे, वे कल इसे स्वीकार करेंगे। इसके अलावा उनके पास दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है।
अनामीशरण - कई दशक तक देश की सबसे अच्छी और सबसे अधिक बिकने वाली पत्रिका ‘नंदन’ के साथ आप जुड़े रहे। आपके खयाल से उस समय के ‘नंदन’ का सबसे सबल पक्ष क्या था? ऐसे ही, ‘नंदन’ में और क्या सुधार होना चाहिए था, ताकि इसका महत्त्व और बेहतर साख रहती?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, आपका यह सवाल बहुत अच्छा है। मैं कोई पच्चीस वर्षों तक ‘नंदन’ के संपादन से जुड़ा रहा। लगभग अपना पूरा जीवन ही मैंने ‘नंदन’ के जरिए बाल साहित्य की सेवा में लगाया है, और ये दिन मेरे लिए कितने आनंद भरे थे, मैं आपको बता नहीं सकता। इसलिए कि ‘नंदन’ के जरिए देश भर के बच्चों और बाल साहित्य दोनों से जुड़ने का आनंद मुझे मिला। इससे मेरा मन ही नहीं, आत्मा भी शीतल होती थी और कहीं अंदर लगता था कि बच्चों के लिए लिखकर हम उनके नन्हे हृदयों में उजाला कर रहे हैं। ऐसे असंख्य दीप जलाकर मानो हम ईश्वर का ही अधूरा काम पूरा कर रहे हैं, जिससे यह दुनिया कुछ और सुंदर और आनंदपूर्ण हो जाएगी! अनामी भाई, आपने ‘नंदन’ के सबसे सबल पक्ष के बारे में पूछा है। मेरे खयाल से ‘नंदन’ का सबसे सबल पक्ष यह था कि उसमें बच्चों के लिए ऐसी सामग्री हम लोग देते थे, जिसे पढ़कर वे आनंदित हों और खेल-खेल में बहुत कुछ सीखें भी। उसमें छपने वाली कहानियाँ हों, कविताएँ, लेख या फिर विविध किस्म की जानकारियाँ, ये सब इतनी आसान भाषा में और इतने रुचिकर ढंग से हम लोग प्रस्तुत करते थे, कि अगर किसी बच्चे के सामने ‘नंदन’ पत्रिका रखी हो, तो वह उसे उठाए बगैर रह ही नहीं सकता था। और एक बार हाथ में लेने के बाद वह उसे पढ़े बिना नहीं छोड़ सकता था। यह बहुत बड़ी चीज थी, जिसने ‘नंदन’ को लाखों बच्चों की सबसे लोकप्रिय और चहेती पत्रिका बना दिया।...उन दिनों जयप्रकाश भारती जी ‘नंदन’ के संपादक थे और उनके प्राण जैसे ‘नंदन’ में ही बसते थे। पत्रिका में छपने वाली रचनाओं का एक-एक शब्द उनकी आँखों से गुजरता था, तभी वह छपने जाता था। वे हमें सिखाते कि हम बच्चों के लिए जो भी लिखें, वह बेहद आसान भाषा में हो। वाक्य छोटे-छोटे, रोजमर्रा के जीवन में स्तेमाल होने वाले आसान शब्द...पर उन्हीं में हम चाहें तो बहुत गहरा प्रभाव ला सकते हैं। यह ‘नंदन’ की एक बड़ी विशेषता थी, जो आज भी बनी हुई है। इसी तरह भारती जी पत्रिका में ज्ञान या उपदेश ठूँसने के खिलाफ थे। वे कहते थे, ज्ञान की यह भारी गठरी तो बच्चों की पाठ्य पुस्तकों में ही बहुत है। हमें उसके सिर पर रखे बोझे को और बढ़ाना नहीं है, बल्कि कम करना है। बच्चा ‘नंदन’ की रचनाएँ उत्फुल्ल होकर पढ़ेगा तो उसके भीतर पढ़ने-लिखने की ऐसी ललक पैदा होगी कि स्कूल की किताबें भी वह बड़ी रुचि से पढ़ेगा, जीवन में बहुत कुछ सीखेगा और आगे चलकर देश का एक जिम्मेदार नागरिक बनेगा, जिसके मन में दूसरों के लिए प्यार और हमदर्दी होगी। ऐसा सहृदय और संवेदनशील बच्चा किसी के साथ बेईमानी नहीं करेगा, किसी को धोखा नहीं देगा। सच पूछिए तो ‘नंदन’ बच्चों के भीतर बड़े-बड़े जीवन-मूल्य भरने वाली पत्रिका थी, पर यह सब इतना अनायास होता था कि बच्चे को पता ही नहीं चलता था कि वह खेल-खेल में कैसे जीवन की बड़ी-बड़ी बातें सीखता जा रहा है। मैं समझता हूँ, ‘नंदन’ की सबसे बड़ी खासियत शायद यही थी।
आपने उस दौर के ‘नंदन’ में सुधार की बात पूछी है, तो बस एक ही बात हम लोग महसूस करते थे कि इसमें परीकथाओं और पुराण कथाओं की अधिकता है। उस समय ‘नंदन’ पत्रिका अगर इस अति से बच पाती और साथ ही आधुनिक कथाएँ भी उसमें शामिल होतीं, जिनमें बच्चे अपने जीवन में नित्यपति जो देखते और झेलते हैं, उसके अक्स सामने आते, तो पत्रिका का रूप कुछ अधिक संतुलित हो जाता। इसी तरह खेल, विज्ञान आदि का महत्त्व दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, उनके बिना आज के जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। पर ‘नंदन’ में उनकी उपस्थिति उतनी न थी, जितनी होनी चाहिए थी। पत्रिका में बच्चों को खेल-खेल में विज्ञान की जानकारी दी जाती, तो जरूर वे रुचि से पढ़ते और बहुत कुछ सीखते भी। विज्ञान भी उनके लिए खेल की तरह ही होता। इसी तरह खेलों के इतिहास आदि की जानकरी उन्हें दी जाती तो यह बहुत आनंददायक होता। पर ‘नंदन’ में ये चीजें बहुत कम देखने को मिलती थीं और कभी-कभार ही नाम-मात्र के लिए उनके दर्शन हो जाते थे। बाद में भारती जी के सेवामुक्त होने पर जब क्षमा शर्मा जी कार्यकारी संपादक बनीं, तो ‘नंदन’ का रूप बदला। हम सबने उसके नए कलेवर के बारे में खुले मन से विचार किया। फिर ‘नंदन’ में बड़े अनूठे ढंग से नई-नई चीजें शुरू की गईं। बाल पाठकों ने इस बदलाव को बहुत पसंद किया। हम लोगों ने पत्रिका के एक से एक सुंदर विशेषांक निकाले, जिन पर बच्चो की बहुत उत्साहपूर्ण प्रतिक्रियाएँ देखने को मिलती थीं।...काश, यह कुछ बरस पहले भारती जी के समय में ही हो जाता, तो ‘नंदन’ का जलवा आज कुछ और ही होता, और बेशक उसकी प्रसार संख्या भी बढ़ती।
अनामीशरण – मनु जी, देश में इस समय प्रकाशित हो रही बाल पत्रिकाओं के हाल पर आपकी क्या राय है?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, इस समय देश में हिंदी की कई अच्छी बाल पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं, जिनका जुदा-जुदा व्यक्तित्व है और अपने ढंग से सभी बाल साहित्य की सेवा कर रही हैं। इनमें ‘नंदन’ और ‘बाल भारती’ पत्रिकाएँ तो बहुत पुरानी हैं। उन्होंने एक तरह से अपना पुराना चोला उतारकर आज के समय से अपना रिश्ता बनाया है और पुनर्नवा होकर बच्चों और बाल साहित्य की महत्त्वपूर्ण संदेशवाहिका बनी हुई हैं। इनमें ‘बाल भारती’ पत्रिका सन् 1948 में प्रारंभ हुई थी और ‘नंदन’ सन् 1964 से निकल रही है। समय के बहुत थपेड़े झेलकर और बहुत सारे परिवर्तनों से होते हुए भी वे अच्छा बाल साहित्य बच्चों तक पहुँचा रही हैं, यह अच्छी बात है। इसी तरह ‘चकमक’ एक अलग तरह की पत्रिका है, जिसकी सोच काफी अलग है और उसने लीक से हटकर बहुत से अच्छे काम किए हैं। इन सबसे अलग एक बेहद महत्त्वपूर्ण पत्रिका, जिसके पीछे कोई बड़ा आर्थिक अवलंब नहीं है और जो बहुत कम साधनों से निकल रही है, वह है ‘बालवाटिका’, जिसने पिछले कुछ वषों में अपनी एक नई सबल पहचान बनाई है, और उसे बाल साहित्य की सर्वाधिक प्रतिनिधि पत्रिका होने का गौरव हासिल है। ‘बालवाटिका’ की विशेषता है कि उसके साथ देश भर के बाल साहित्यकार जुड़े हैं और पत्रिका के बड़े ही विनम्र और समर्पित संपादक भैरूँलाल गर्ग बड़े आदर के साथ नए-पुराने सभी बाल साहित्यकारों की रचनाएँ प्रकाशित करते हैं। बाल साहित्य और बाल साहित्यकारों का परिवार कितना बड़ा और रचनात्मक रूप से समृद्ध है, यह ‘बालवाटिका’ पढ़ने से ही पता चल जाता है।
‘बालवाटिका’ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ न सिर्फ बाल साहित्यकारों की अच्छी से अच्छी रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं, बल्कि बाल साहित्य विमर्श की भी यह बड़ी महत्त्वपूर्ण पत्रिका है। बाल साहित्य से जुड़े हुए मुद्दों को वह बड़ी गंभीरता से उठाती है। इसी तरह अपना पूरा जीवन लगाकर बच्चों का साहित्य लिखने वाले बड़े और दिग्गज साहित्यकारों पर ‘बालवाटिका’ में समय-समय पर बड़े गंभीर और पठनीय लेख पढ़ने को मिल जाते हैं। इतना ही नहीं, पिछले कुछ वर्षों से बाल साहित्य के शिखर पुरुषों निरंकारदेव सेवक, द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी, हरिकृष्ण देवसरे, जयप्रकाश भारती, डा. श्रीप्रसाद, आनंदप्रकाश जैन, ठाकुर श्रीनाथ सिंह, शकुंतला सिरोठिया, मनोहर वर्मा, राष्ट्रबंधु आदि पर इतने सुंदर और स्मरणीय विशेषांक ‘बालवाटिका’ के निकले कि शायद कुछ बरस पहले इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। निश्चित रूप से ‘बालवाटिका’ का यह एक ऐतिहासिक अवदान है। इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है। इसी तरह ‘बालवाटिका’ बाल साहित्य की एकमात्र पत्रिका है, जिसमें निरंतर बाल साहित्य की विविध विधाओं पर बड़ी रोचक सामग्री पढ़ने को मिल जाती है। यह भी, मैं समझता हूँ, बड़ी प्रशंसनीय कोशिश है। बच्चों के लिए बड़े ही सरस और भावपूर्ण संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, आत्मकथा-अंश, उपन्यास-अंश, एकांकी आदि जितनी बहुलता से ‘बालवाटिका’ में छपते हैं, वैसा कहीं और देखने को मिलेगा, यह कल्पना तक मुश्किल है। शकुंतला सिरोठिया, द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी जी और निरंकारदेव सेवक जी की जन्मशती पर किसी और पत्रिका में शायद दो पंक्तियाँ भी नहीं छपीं, पर ‘बालवाटिका’ ने सुंदर विशेषांक निकालकर उनका स्मरण किया। इससे बाल साहित्य का गौरव बढ़ा है, इसलिए देखते ही देखते ‘बालवाटिका’ बाल साहित्य की सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रतिनिधि पत्रिका के रूप में उभरकर आई है, जिसके साथ बाल साहित्यकारों का एक बड़ा कारवाँ नजर आता है। आगे भी यह इसी तरह चले तो कोई शक नहीं कि बाल साहित्य की कीर्ति-पताका दूर-दूर तक लहराती नजर आएगी।
हालाँकि यह खुद में बड़े आश्चर्य की बात है कि इतने सीमित साधनों से ऐसा असंभव लगता काम गर्ग जी ने इतनी विनमता और समर्पण भाव के साथ कर दिखाया। उनके आग्रह पर रचनाकार अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए विकल रहते हैं। निस्संदेह इस सबने ‘बालवाटिका’ को बाल पत्रिकाओं की कतार में सबसे अलग और वरेण्य स्थान पर काबिज कर दिया है। यों सभी पत्रिकाएँ अपने-अपने ढंग से काम कर रही हैं, पर ‘बालवाटिका’ कई मामलों में बेनजीर है और अपने ढंग से बाल साहित्य की अनथक सेवा कर रही है। कुछ पत्रिकाएँ सिर्फ पत्रिकाएँ होती हैं और इतिहास में उनका नाम दर्ज होता है, पर कुछ पत्रिकाएँ आगे बढ़कर इतिहास निर्मित करती हैं। ‘बालवाटिका’ को भी मैं इस दृष्टि से, बाल साहित्य का इतिहास गढ़ने वाली पत्रिका कहता हूँ।
अनामीशरण - आज जब बाल साहित्य के इतिहास पर आपने काम कर लिया है तो आपकी नजर में बच्चों के लिए एक सार्थक, रचनात्मक और सर्वोत्तम बाल पत्रिका कैसी होनी चाहिए? इसकी रूपरेखा पर कृपया प्रकाश डालें।
प्रकाश मनु – मैंने बताया न, ‘नंदन’, ‘बाल भारती’, ‘चकमक’ और ‘बालवाटिका’—ये सभी पत्रिकाएँ अपने-अपने ढंग से बाल साहित्य की सेवा कर रही हैं। सभी का जुदा-जुदा व्यक्तित्व है, पर सभी में कुछ न कुछ ऐसा है जो औरों से अलग और विशिष्ट है। इसलिए इन सभी पत्रिकाओं की विशेषताएँ शामिल करके अगर कोई आदर्श पत्रिका बन सके, तो वह शायद मेरे ही नहीं, हर बच्चे और बाल साहित्यकार की भी सबसे प्रिय पत्रिका होगी, जो उसके दिल के बहुत करीब होगी। मेरे सपनों की इस आदर्श पत्रिका में ‘नंदन’ और ‘चकमक’ सरीखी पत्रिकाओं की मोहक सज्जा और आकर्षण होगा तो ‘बाल भारती’ सरीखा परंपरा और आधुनिकता का सम्मिलन भी। साथ ही उसमें ‘बालवाटिका’ सरीखी वैचारिक ऊर्जा, प्रखरता और रचनात्मक समृद्धि होगी। इतना ही नहीं, ‘बालवाटिका’ में बाल साहित्य के साथ-साथ बाल साहित्यकारों के प्रति भी असीम सम्मान का भाव नजर आता है। मेरी आदर्श पत्रिका में यह चीज जरूर होगी। इसी तरह ‘बालवाटिका’ में कहानी, कविता के साथ-साथ बड़े ही भावपूर्ण संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, आत्मकथा, उपन्यास-अंश, एकांकी आदि भी पढ़ने को मिल जाते हैं। मैं चाहूँगा कि मेरी आदर्श पत्रिका में बाल साहित्य की ये सभी विधाएँ शामिल हों, ताकि वह समस्त बाल साहित्य की सर्वाधिक प्रतिनिधि पत्रिका कहला सके।...यों बेशक उसमें ‘बालवाटिका’ का अंश सबसे अधिक होगा, इसलिए कि गर्ग जी उसमें बाल साहित्यकारों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ आग्रह कर-करके मँगवाते, और उतने ही आदर के साथ सँजोते भी हैं। ‘बालवाटिका’ और उसके उत्साही संपादक भैरूँलाल गर्ग जी के मन में लेखकों और साहित्यकारों के प्रति जो सम्मान का भाव है, उसका सौवाँ अंश भी मुझे किसी और पत्रिका में नजर नहीं आता। पर इसे मैं इन पत्रिकाओं की बड़ी कमजोरी मानता हूँ। अगर बाल साहित्यकारों के प्रति आपके मन में सम्मान नहीं है, तो बाल साहित्य के प्रति आपका अनुराग भी सच्चा नहीं हो सकता।
यों एक बात तो निश्चित है कि मेरी आदर्श बाल पत्रिका में बाल साहित्य के लिए जीवन अर्पित करने वाले साहित्यिकों की आपको निरंतर उपस्थिति देखने को मिलेगी। उनकी कालजयी रचनाओं के जरिए उन्हें याद करने का सिलसिला भी चलता रहेगा। मेरी वह आदर्श पत्रिका कब निकलेगी, कैसे निकलेगी और मेरे जीवन काल में निकलेगी भी कि नहीं, मैं नहीं जानता। पर कम से कम उसका सपना तो मैं देख ही सकता हूँ, और अनामी भाई, मैं अपने जीवन के आखिरी पल तक ऐसी सुंदर और सर्वांगपूर्ण पत्रिका का सपना देखता रहूँगा।
अनामीशरण – बड़ों के साहित्य के समकालीन परिदृश्य पर आपकी टिप्पणी? उसकी तुलना में बाल साहित्य के वर्तमान हालात को आप किस तरह देखते हैं?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, मोटे तौर से बड़ों के साहित्य और बाल साहित्य के समकालीन परिदृश्य में कोई बहुत अंतर नहीं है। दोनों ही रचनात्मक दृष्टि से खासे समृद्ध हैं और एक उत्साह भरा माहौल दोनों में ही नजर आता है। जिस तरह बड़ों के लिए लिखी जा रही कहानियों, कविताओं, उपन्यासों आदि में नई पीढ़ी बहुत प्रचुरता से हिस्सा ले रही है और एक ताजगी भरी फिजाँ दिखाई देती है, लगभग वही मंजर बाल साहित्य में भी है, जिसमें एक साथ तीन या चार पीढ़ियों के साहित्यकार निरंतर लिख रहे हैं और हर ओर खासी सक्रियता नजर आती है। शायद बड़ों के लिए लिखे जा रहे साहित्य का ही बाल साहित्य पर यह प्रभाव पड़ा कि अभी तक उपेक्षित रही विधाओं संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, रेखाचित्र, आत्मकथा आदि में भी अब खासी हलचल दिखाई देती है। और यहाँ तक कि जीवनी और ज्ञान-विज्ञान साहित्य में भी बहुत कुछ नयापन और कलातमक ताजगी नजर आती है। खासकर युवा पीढ़ी की सक्रियता दोनों ही जगह उत्साह भरा मंजर उपस्थित करती दिखाई देती है। इससे कई जगह तो पुरानी पीढ़ी के अंदर भी थोड़ी सक्रियता और कुछ नया करने की ललक पैदा हुई है। इसे मैं शुभ संकेत मानता हूँ।
इसी तरह बड़ों का साहित्य हो या बाल साहित्य, दोनों ही जगह अगर एक ओर उत्कृष्ट साहित्य नजर आता है तो दूसरी ओर बहुत सी साधारण चीजों की बाढ़ भी है, जिनके बीच से श्रेष्ठ और उत्कृष्ट को निरंतर अलगाने की जरूरत है। पर बड़ों के साहित्य को समीक्षा, आलोचना आदि के जैसे सुअवसर मिल जाते हैं, वैसा बाल साहित्य में बहुत कम है, और इसका कुछ खमियाजा भी उसे सहना पड़ता है। इसके कारण बाल साहित्य में जो श्रेष्ठ है, उस पर हमारा ध्यान नहीं जाता, और कई बार औसत साहित्य इतनी जगह घेर लेता है कि बहुत लोग पूछते हैं कि मनु जी, क्या यही है वह बाल साहित्य, जिसके आप इतने गुण गाते हैं? तब उन्हें समझाना पड़ता है कि देखिए, बाल साहित्य में बहुत सी साधारण चीजें भी हैं। जैसे कोई भूसे से भरी कोठरी हो, जिसमें बीच-बीच में बहुत मीठे रसभरे दाने भी नजर आ जाते हैं। पर किसी भी साहित्य का मूल्यांकन तो उसकी श्रेष्ठ रचनाओं से ही होना चाहिए। यह जितना बड़ों के साहित्य के बारे में सच है, उतना ही बाल साहित्य के बारे में भी। तो कुल मिलाकर अनामी भाई, हिंदी में बड़ों के लिए लिखा जाने वाला साहित्य और बाल साहित्य—ये दोनों दो समांतर चलती निरंतर प्रवहमान नदियाँ हैं, जो एक-दूसरे को भी कुछ न कुछ प्रेरणा देती हैं। मैं समझता हूँ, यह किसी भी भाषा के लिए बड़े गौरव की चीज है।
अनामीशरण – आपका यह महाग्रंथ बाल लेखन का इतिहास है या बाल साहित्य का इतिहास? यदि बाल साहित्य का इतिहास है तो बाल साहित्य क्या है, या साहित्य में बालपन क्या है, जिसके महत्त्व को निरंतर उपेक्षित किया जाता रहा है?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, बाल साहित्य और बाल लेखन में कोई फर्क तो है नहीं। वैसे मेरा इतिहास-ग्रंथ हिंदी बाल साहित्य का इतिहास है। यों भी बाल साहित्य, मेरे खयाल से, बाल लेखन की तुलना में कहीं अधिक व्यापक और मानीखेज भी है। फिर बाल लेखन से कुछ ध्वनि इस तरह की भी निकलती है कि यह केवल बच्चों दारा लिखा गया साहित्य है, जबकि बाल साहित्य असल में तो बड़ों द्वारा बच्चों के लिए लिखा गया साहित्य है। इसमें कुछ हिस्सा बच्चों द्वारा खुद भी लिखा गया है, पर मोटे तौर से तो बड़ों ने बच्चों के लिए जो सुंदर, मोहक और आनंदपूर्ण रचनाएँ लिखीं, वे ही बाल साहित्य के अंतर्गत आती हैं।
अनामीशरण - इतिहास लेखन के सिलसिले में बरसोंबरस जो गहरी खोजबीन आपने की, उसमें आपको क्या ऐसा अनोखा और रोमांचित करने वाला मिला, या कि अभी तक अज्ञात रहे कौन-कौन से ऐसे अनमोल रत्न हासिल हुए, जिन्हें अब आप किसी और तरह से सामने लाने की योजना पर काम कर रहे हैं?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, इतिहास लिखते समय जो सबसे अद्भुत चीजें मुझे मिलीं, वे थीं हमारे बड़े साहित्यकारों द्वारा बच्चों के लिए लिखी गई एक से एक मनोरम रचनाएँ। हिंदी बाल साहित्य का यह पक्ष बहुतों के लिए अज्ञात है। पर वह इतना सुंदर, मोहक, अनुपम और रोमांचित करने वाला है कि सच पूछिए तो मैं हैरान रह गया। हिंदी में बार-बार यह कहा जाता है कि बड़े साहित्यकारों ने बाल साहित्य नहीं लिखा, पर इतिहास लिखते समय निरंतर अध्ययन और खोजबीन से यह धारणा गलत साबित हुई। लगा कि हिंदी के एक से एक दिग्गज कवियों, कथाकारों ने बच्चों के लिए लिखा है। और बहुत अच्छा लिखा है। मैं प्रेमचंद क जिक्र तो पहले कर ही चुका हूँ, जिन्होंने बच्चों के लिए पहला उपन्यास ‘कुत्ते की कहानी’ लिखा, और इसे मैं बाल साहित्य का बहुत बड़ा गौरव और सौभाग्य मानता हूँ। इसी तरह प्रेमचंद ने ‘जंगल की कहानियाँ’ शीर्षक से बच्चों के लिए विशेष रूप से कुछ कहानियाँ लिखीं, जिनका आज भी बहुतों को पता नहीं है। बाल साहित्य के प्रांरंभिक काल में हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, सुभदाकुमारी चौहान, रामनरेश त्रिपाठी सरीखे कवियों ने बच्चों के लिए एक से एक सुंदर कविताएँ लिखीं। ये कविताएँ सचमुच निराले और अनमोल रत्नों सरीखी हैं। इसी तरह मैथिलीशरण गुप्त की लिखा एक बड़ी सुंदर बाल कहानी भी मुझे मिली, जो ‘बाल भारती’ पत्रिका में छपी थी। कहानी का नाम है, ‘जगद्देव’ और यह वाकई मन को बाँध लेने वाली कहानी है, जिसमें जगद्देव का त्यागमय, उदात्त चरित्र भूलता नहीं है। बाद के दौर में भवानी भाई, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना सरीखे कवियों ने एक से एक अद्भुत कविताएँ लिखीं। पंत और महादेवी ने भी बच्चों के लिए रसपूर्ण कविताएँ लिखीं और निराला की ‘सीख भरी कहानियाँ’ तो बहुत ही दमदार हैं। निराला ने बच्चों के लिए सुंदर जीवनियाँ भी लिखीं, जिनका बहुतों को पता नहीं है। इसी तरह कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, शैलेश मटियानी, कृष्ण चंदर, कृष्ण बलदेव वैद, हरिशंकर परसाई सरीखे लेखकों ने बच्चों के लिए खूब लिखा। बल्कि आपको हैरानी होगी, मैंने कृष्णा सोबती के कुछ सुंदर कल्पनापूर्ण शिशुगीत भी पढ़े हैं, जो ‘नंदन’ के पुरानी फाइलों में सुरक्षित हैं। मैंने उनका जिक्र इस इतिहास-ग्रंथ में किया है। इसी तरह बाद के दौर में रमेशचंद्र शाह, राजेश जोशी, नवीन सागर समेत बहुत से लेखकों-कवियों ने बच्चों के लिए लिखा, जिनका कोई जिक्र नहीं करता और बहुतों को इसकी जानकारी भी नहीं है। पर इस इतिहास-ग्रंथ में उनके लिखे बाल साहित्य का मैंने बड़े सम्मान से जिक किया है। इसी तरह श्रीलाल शुक्ल ने रवींद्रनाथ ठाकुर की एक पद्यकथा के आधार पर इतना अद्भुत हास्य-विनोदपूर्ण बाल नाटक लिखा है कि उसे पढ़कर बच्चा बन जाने का मन करता है। यह नाटक है, ‘आविष्कार जूते का’। पढ़ते जाइए और खुदर-खुदर हँसते जाइए। मैं समझता हूँ, इस इतिहास-ग्रंथ में ऐसे एक से एक अनमोल नगीने हैं, जिन्हें पढ़कर बहुतों की आँखें खुल जाएँगी और बाल साहित्य की सीमाएँ कहाँ-कहाँ तक जा पहुँची हैं, जानकर वे अचरज में पड़ जाएँगे।...मेरा मन है कि बाल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि के बड़े संचयन निकालूँ, जिसमें मौजूद दौर के रचनाकारों के साथ-साथ पुराने साहित्य महारथियों के ऐसे अनमोल नगीनों को भी शामिल करूँ। वह कब तक हो पाएगा, हो पाएगा भी कि नहीं, मैं नहीं जानता। इसलिए कि अब मेरी शक्तियाँ क्षीण हो रही हैं। पर अगर साँसों की डोर चलती रही, तो ऐसे कुछ बड़े और यादगार काम तो मैं जरूर करना चाहूँगा।
अनामीशरण – मनु जी, अपने इतिहास लेखन की कुछ प्रेरणादायी बातों को आप पाठकों को बताना चाहेंगे?
प्रकाश मनु – हाँ, अनामी भाई। और इसमें सबसे प्रमुख बात यह है कि बाल साहित्य हर दौर में बच्चों से और अपने समय से करीबी तौर से जुड़ा रहा है और उसमें लगातार आशा, जिजीविषा के स्वर सुनाई देते रहे हैं, जिनसे बच्चों में कुछ कर दिखाने का हौसला पैदा होता है। फिर एक बड़ी बात है, बाल साहित्य की शाश्वत अपील की। आज से साठ बरस पहले की पीढ़ी जिस बाल साहित्य को पढ़कर बड़ी हुई, उसे उनके बच्चों ने और आगे चलकर नाती-पोतों ने भी पढ़ा और वही आनंद हासिल किया। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि बाल साहित्य हमारी भाषा और हमारे देश-समाज की स्थायी धरोबहर है। वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे देश के बचपन को सँवार रहा है। बच्चों को बचपन की उत्फुल्लता से जोड़ने के साथ-साथ बाल साहित्य उनके अनुभव-क्षितिज का भी निरंतर विस्तार करता है और उनकी आत्मा को उजला करता है। ऐसे बच्चे बड़े होकर निश्चित रूप से देश के बहुत सजग, जिम्मेदार और संवेदनशील नागरिक बनेंगे और बड़े-बड़े काम कर दिखाएँगे।
और सबसे बड़ी बात तो यह है कि बाल साहित्य हमें अच्छा मनुष्य बनाता है। ऐसे बच्चे बड़े होकर इंजीनियर बने तो वे अच्छे और कुशल इंजीनियर साबित होंगे, डाक्टर बने तो अच्छे और सहानुभूतिपूर्ण डाक्टर बनेंगे और अध्यापक बने तो बड़े स्नेहिल और जिम्मेदार अध्यापक बनेंगे। मैं समझता हूँ, बाल साहित्य की यह बहुत बड़ी सेवा है। अनामी भाई, यह इतिहास लिखते हुए मैंने पाया कि ऐसा सुंदर, कल्पनापूर्ण और सुंदर भावों से भरा बाल साहित्य हमारे देश में हर काल में लिखा गया और उसने पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे बचपन को सँवारा। इसका सीधा मतलब यह है कि इस देश को समृद्ध करने और सही दिशा में आगे बढ़ाने में बाल साहित्य की बहुत बड़ी भूमिका रही है। यह निस्संदेह बड़ी सुखद और रोमांचित करने वाली बात है, जो हमारे भीतर आशा और उम्मीदों का उजाला भर देती है।
अनामीशरण - इस इतिहास लेखन के बाद क्या बाल लेखन के प्रति आपकी धारणा में कोई बदलाव आया है? बाल साहित्य को लेकर आपकी सबसे बड़ी चिंता क्या है?
प्रकाश मनु – हाँ, अनामी भाई, बाल साहित्य का इतिहास लिखने के बाद एक बड़ा परिवर्तन तो आया है मेरे विचारों में। बल्कि एक नहीं, कई परिवर्तन। सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह है कि इतिहास लेखन के बाद बाल साहित्य की शक्ति, रचनात्मक समृद्धि तथा बच्चों के भीतर भाव और संवेदना के विस्तार की उसकी अपरिमित सामर्थ्य को लेकर मेरे भीतर आस्था कहीं अधिक गहरी हुई है। मुझे लगता है कि आज जब हमारे समाज में चारों ओर निराशा का पसारा है, तो ऐसे माहौल में बाल साहित्य एक बड़ी संभावना है, जो हमारे दिलों में उम्मीद के दीए जलता है। यहीं एक बात और जोड़नी जरूरी लगती है कि बाल साहित्य बच्चों के लिए तो जरूरी है ही, पर वह केवल बच्चों के लिए ही नहीं, बड़ों के लिए भी उतना ही जरूरी है। बड़े उसे पढ़ते हैं तो उन्हें अपना भोला बचपन याद आता है। बचपन की उस निश्छल दुनिया में पहुँचना उन्हें कहीं अंदर से निमज्जित करता है और पवित्र बनाता है। फिर एक बात और। बड़े जब बाल साहित्य पढ़ेंगे, तो बच्चों के मन और संवेदना को अच्छी तरह समझ पाएँगे। इससे उन्हें यह भी समझ में आएगा कि हम कोई ऐसा काम न करें, जिससे बच्चों के कोमल हृदय को चोट पहुँचे। वे बच्चों के मन की उमंग और सपनों को बेहतर ढंग से समझ पाएँगे और उसे पूरा करने के लिए दोस्त बनकर मदद करेंगे। इससे बच्चों का व्यक्तित्व तो निखरेगा ही, बड़ों का व्यक्तित्व भी निखरेगा। वे अच्छे माता-पिता, अभिभावक और स्नेहशील अध्यापक बन सकेंगे।
अनामीशरण – पर मनु जी, यहीं एक सवाल है मेरा। आपको क्या लगता है, बाल लेखन क्या बच्चों की पहुँच में है?
प्रकाश मनु – हाँ, हिंदी में बच्चों के लिए अच्छी पत्रिकाएँ तो हैं ही, इसके अलावा उनके लिए बहुत पुस्तकें छपती हैं और वे बिकती भी हैं। यह एक संकेत तो है कि बाल साहित्य बच्चों तक पहुँच रहा है और पढ़ा जा रहा है। फिर राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, साहित्य अकादेमी तथा सूचना और प्रसारण मंत्रालय का प्रकाशन विभाग—ये सभी संस्थान बच्चों के लिए सुंदर ढंग से पुस्तकें छापकर उन्हें बच्चों तक पहुँचाने में बड़ी मदद कर रहे हैं। खुद मेरे पास अकसर बच्चों के फोन आते हैं कि अंकल, हमने आपकी यह कहानी पढ़ी और हमें अच्छी लगी।...वे दूर-दराज के बच्चे हैं, कोई बिहार, कोई छत्तीसगढ़ का—पर कोई अच्छी रचना पढ़कर लेखक से बात करने की इच्छा उनके भीतर जोर मारती है। इसका मतलब यह है कि बाल साहित्य पढा जा रहा है और वह बच्चों के दिलों मे भी अपनी जगह बना रहा है। मैं समझता हूँ, यह बड़ा शुभ संकेत है, जो मन को सुकून देता है।
अनामीशरण – आप कई दशकों तक ‘नंदन’ के संपादन से जुड़े रहे हैं तो बच्चों और उनके सृजन से भी परिचित हैं। इस लिहाज से कृपया बताएँ कि बाल लेखन में क्या बच्चों का कोई सृजनात्मक हाथ है या सभी वरिष्ठ और युवा लोग ही बाल लेखन में सक्रिय हैं?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, ‘नंदन’ में हम बच्चों के लिए कई प्रतियोगिताएँ रखते थे। उनमें वे कोई चित्र देखकर कहानी लिखते थे या फिर कविता की कुछ पंक्तियाँ जोड़ते थे। आज का तो मैं नहीं जानता, पर उन दिनों इन प्रतियोगिताओं में भाग लेने वाले बच्चों के उत्साह का ठिकाना न था। किसी एक प्रतियोगिता के लिए हजारों प्रविष्टियाँ हर महीने आती थीं। उनमें से किसे प्रथम, किसे द्वितीय या तृतीय स्थान पर रखा जाए, यह तय कर पाना बड़ा मुश्किल काम था। हम सभी साथी मिलकर बैठते थे और तब यह निर्णय होता था। काफी विचार-विमर्श और पूरी जिम्मेदारी के साथ। हमें बड़ी खुशी होती थी, जब उनमें से कई लोग बाद में आकर मिलते थे। तब वे बड़े लेखक या किसी और रूप में प्रसिद्धि पा चुके होते थे और कृतज्ञता से भरकर इसका श्रेय ‘नंदन’ को देते थे। ऐसा भी होता कि जिन्होंने बरसों पहले बच्चे के रूप में ‘नंदन’ की प्रतियोगिताओं में हिस्सा लिया, बाद में बड़े होने पर उनकी रचनाएँ ‘नंदन’ में सम्मानपूर्वक छपीं। बच्चों की लिखी छोटी-छोटी कविताएँ भी कभी-कभार ‘नंदन’ में ‘नन्ही कलम’ शीर्षक से छपती थीं।
यों ‘नंदन’ में हम ज्यादातर बड़ों की रचनाएँ, या जाने-माने लेखकों की रचनाएँ ही देते थे। इसका कारण यह था कि बच्चों की कविताओं, कहानियों आदि में भाषा आदि की अनगढ़ता और लापरवाही होती थी। कविताओं में छंद, लय आदि की गड़बड़ियाँ भी होती थीं। दूसरे बच्चे इन्हें पढ़ें और इसी को मॉडल मानकर ग्रहण करें, तो वे भी अशुद्ध चीजें ही सीख लेंगे। इससे उनके मन में जो भ्रांति पैदा होगी, वह दूर तक उनके साथ रहेगी। यह तो अच्छी बात नहीं है। तो हमारी कोशिश यह रहती थी कि उनके लिए जो कविताएँ, कहानियाँ और दूसरी रचनाएँ ‘नंदन’ में छपें, वे बड़े और सिद्ध लेखकों की हों, जो बच्चों को लुभाएँ और पढ़ने पर खुद उन्हें भी रचनात्मक रूप से समृद्ध करें। इसलिए अनामी भाई, यह बात आपकी ठीक है कि ज्यादातर बाल साहित्य बड़ों का ही लिखा हुआ है। यह केवल हिंदी में ही नहीं, देश-दुनिया की सारी भाषाओं में है।
अनामीशरण – मनु जी, बाल लेखन का सबसे सबल पक्ष क्या है जो प्रायः सभी लेखकों की रचनाओं में देखा जा सकता है?
प्रकाश मनु – अनामी भाई, बाल साहित्य का सबसे सबल पक्ष तो वह रस-आनंद है, जो बच्चों के लिए लिखी गई प्रायः सभी रचनाओं में मिलता है, और पढ़ने वाले को अपने साथ बहा ले जाता है। इसी तरह बाल साहित्य आशा और उम्मीद का साहित्य है, और यह बात भी प्रायः सभी लेखकों की कविताओं और कहानियों में नजर आ जाती है। बड़ों के साहित्य और बाल साहित्य में एक बड़ा फर्क ही यह है कि बाल साहित्य उम्मीद के दीए जलाकर हमारी आत्मा को उजला और प्रकाशित करता है। इसीलिए मैं बार-बार आग्रह करता हूँ कि बाल साहित्य केवल बच्चों के लिए नहीं है, उसे बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी पढ़ना चाहिए। और अगर बड़े उसे पढ़ेंगे तो वे नाउम्मीदी के अँ

बुधवार, 8 जुलाई 2020

आपातकाल पे सबसे शानदार और प्रामाणिक गाथा / अनामी शरण बबल




आपातकाल को परिभाषित करने की पहल

इतिहास कभी पुराना नहीं  होता.  वह ज़ब तब हमारे सामने किताबों में चर्चाओं में यादों में जीवित रहता है.   समय गुजरने  के साथ ही  इतिहास की कोई घटना हरदम एक सबक सीख सरोकार या संदेश की तरह ही आसपास को समाज को सतर्क करता है.   सावधान करता है. और  मौजूदा समय से तुलना करने का मौका भी   देता है .

Y आज से 45 साल पहले देश के पहले प्रधानमंत्री  जवाहरलाल  नेहरू  की अक्खड़ पुत्री इंदिरा गाँधी ने अपनी सत्ता सामर्थ  सनक को एक नया सार्थक आयाम देने के लिए 25-26 जून 1975 की  रात में देश में आपातकाल जिसे (emergency ) इमरजेंसी  कहा जाता हैँ,  को देश पर लाद  दिया.

लोकतंत्र के इस काले अध्याय का कालखंड 21 माह का रहा.  इस दौरान  देश की अर्थव्यवस्था का जमकर दुरूपयोग  किया गया .  Media का गला सेंसर से नेस्तनाबूद कर दिया gya. देश के सारे विपक्षी नेताओं को जबरन  जेल में ठूसा  गया.  देश  के 86 वर्षीय सबसे वरिष्ठ और आज भी सक्रिय  पत्रकार  संपादक बलबीर दत्त  ने 45 साल  के बाद आपातकाल पर गहन चिंतन और तमाम दस्तावेजो  को एकत्रित करके अपनी नयी  किताब को सामने लाया है.  472 पेजी इमरजेंसी  का कहर  और सेंसर का  जहर.  पुस्तक को प्रभात  प्रकाशन  के प्रभात पेपरबैक्स ने छापा  है.

 यू  तो हिंदी में आपातकाल  पर छिटपुट कुछ किताबें आयी है,  मगर शोधपरक दस्तावेजों को कार्टूनो,  चित्रों  व्यंगचित्रो  पेपर कतरनों  सरकारी कागज़ो आदेशपत्रो से सुसज्जित इस तरह की कोई भी किताब हिंदी में नहीं है. रांची एक्सप्रेस  अख़बार  के संपादक  के रूप में इनका संग्रह शोध और संकलन  हैं,   मगर ज़ब यह किताब आज सबके सामने है तो पदम् श्री सम्मान से सम्मानित बलबीर दत्त जी अपनी पकी हुई  उम्र में भी  झारखंड  की राजधानी रांची में देशप्राण नामक  एक नये अख़बार को पिछले  तीन साल से नया  आकर दें रहे है.

 बलबीर  दत्त की लेखनी की सबसे बड़ी खूबी यह है की किसी अध्याय को एकसार देते हुए  लम्बा बोरिंग करने की बजाय छोटे छोटे प्रसंगो को सूत्रबद्ध करतें हैं .  इस तरह एक ही किताब में  सैकड़ो  रोचक घटनाओं  किस्से  कहानियो को पिरो देते हैं.   जिससे सामान्य पाठको को भी चटकारे लेकर पढ़ने में मजा आता है तो वही गंभीर पाठको को सुनी अनसुनी ढेरों घटनाओं की जानकारी हो जाती है.

इस तरह इमरजेंसी जैसी किताब को पढ़ते हुए कभी लोककथा कभी रोचक गपशप  तो कभी अनहोनी प्रसंगो को जानकर ज्यादातर पाठक मुग्ध हो जाएंगे . किताब में इतना कुछ हैं  की सबका  उल्लेख करना संभव नहीं.  निसंदेह प्रामाणिक दस्तावेजों के साथ यह हिंदी की सबसे बेहतरीन किताब  है.

हालांकि  बिहार के कांग्रेसी  सांसद रहे दिवंगत शंकर दयाल सिंह की किताब इमरजेंसी : क्या सच क्या झूठ  इस घटना की राजनितिक सरगर्मियों का जीवंत उल्लेख हैं ,  मगर बलबीर दत्त की किताब में इसके सामाजिक राजनीतिक  प्रभाव और जनता के असंतोष  को स्वर दिया  है.  यह किताब एक तरह से आज़ादी के बाद राजनीति के विकृत चेहरे की कलई  खोलती है .

 भले ही 45 साल के बाद आपातकाल  पर यह किताब  आयी है मगर आने के साथ ही  आपातकाल साहित्य की एक बड़ी कमी को खत्म  करती  है. बलबीर दत्त को श्रेय दिया जा सकता है. देर  से ही सही इस किताब ने आपातकाल को नये तरह से परिभाषित करके शून्यता को भर  दिया  है.  472 पेजी किताब को आकर्षक साज सज्जा के साथ छापा गया है और इसकी क़ीमत 500/- भी कोई खास अधिक नहीं लगती है.  इस किताब का न केवल स्वागत  होना चाहिए,   बल्कि  आपातकाल के अनसुनी  कहानियो  का  जनसंचार की जरुरत है ताकि आज की पीढ़ी जनता के हितैषियों की असली सूरत और मकसद को कभी भूल ना सके. आज़ाद भारत की राजनीति के सबसे काले अध्याय पड़ किताब लाकर  बलवीर दत्त जी ने अपने मकसद को साकार किया हैऔर
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गुरुवार, 21 मई 2020

अनामी शरण बबल / प्रेमनगर में प्रेम की तलाश

वेश्याओं के गांव में कई बार जाने की यातना / अनामी शरण बबल



(लड़की को लेकर इन गलियों में घूमते देखकर यौनकर्मियों को बड़ी हैरानी हो रही थी. कई तरह की भद्दी और अश्लील टिप्पणियों से वे लोग हमें नवाजती रहीं और बोलीं ऐसी-ऐसी बहुत सारी थूथनियों को हम देख चुकी हैं.....)
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नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास जीबीरोड यानी  जिस्म की मंडी है, जहां पर सरकार और पुलिस के तमाम दावों के बावजूद पिछले कई सदियों से जिस्म का बाजार चल रहा है. मगर दिल्ली के एक गांव में भी जिस्म का धंधा होता है. क्या आपको यौनकर्मियों के इस बस्ती के बारे में पता है?

बाहरी दिल्ली के रेवला खानपुर गांव के पास प्रेमनगर एक ऐसी ही बस्ती है, जो शाम ढलते ही रंगीन होने लगती है. हालांकि पुलिस प्रशासन और कथित नेताओं द्वारा इसे उजाड़ने की यदा-कदा कोशिश भी होती रहती है, इसके बावजूद बदनाम प्रेमनगर की रंगीनी में बहुत अँधेरा नहीं है. अलबत्ता, महंगाई और आधुनिकता की मार से प्रेमनगर में क्षणिक प्यार का यह धंधा अब उदास सा जरूर होता जा रहा है.


आज से करीब 16 साल पहले अपने दोस्त और बाहरी दिल्ली के अपने सबसे मजबूत संपर्क सूत्रों में एक थान सिंह यादव के साथ इस प्रेमगनर बस्ती के भीतर जाने का मौका मिला. ढांसा रोड की तरफ से एक चाय की दुकान के बगल से निकल कर हमलोग बस्ती के भीतर दाखिल हुए. चाय की दुकान से ही एक बंदा हमारे साथ हो लिया. कुछ ही देर में हम उसके घर पर थे.

उसने स्वीकार किया कि धंधा के नाम पर बस्ती में दो फाड़ हो चुका है. एक खेमा इस पुश्तैनी धंधे को बरकरार रखना चाहता है, तो दूसरा खेमा अब इस धंधे से बाहर निकलना चाहता है. हमलोग किसके घर में बैठे थे, इसका नाम तो अब मुझे याद नहीं है, मगर (सुविधा के लिए उसका नाम राजू रख लेते हैं) राजू ने बताया प्रेमनगर में पिछले 300 से हमारे पूर्वज रह रहे है. अपनी बहूओं से धंधा कराने के साथ ही कुंवारी बेटियों से भी धंधा कराने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता.

आमतौर पर दिन में ज्यादातर मर्द खेती, मजदूरी या कोई भी काम से घर से बाहर निकल जाते है, तब यहां की औरते( लड़कियां भी) ग्राहक के आने पर निपट लेती है. इस मामले में पूरा लोकतंत्र है कि मर्द(ग्राहक) द्वारा पसंद की गई यौनकर्मी के अलावा और सारी धंधेवाली वहां से फौरन चली जाती हैं. ग्राहक को लेकर घर में घुसते ही घर के और लोग दूसरे कमरे में या बाहर निकल जाते है. यानी घर में उसके परिजनों की मौजूदगी में ही धंधा होने के बावजूद ग्राहक को किसी प्रकार का कोई भय नहीं रहता है.

देखने में बेहद खूबसूरत तीन बच्चों की मान पानी लाकर हमलोग के पास रखा. एकदम सामान्य शिष्टाचार और एक अतिथि की तरह सत्कार कर रही धन्नो और उसके पति से अनुरोध कर हमलोग करीब एक घंटे तक वहां रहकर जानकारी लेते रहे. इस दौरान हमने राजू और धन्नों के यहां चाय पी.

राजू ने बताया कि रेवला खानपुर में कभी प्रेमबाबू नामक कोई ग्राम प्रधान हुआ करते थे, जिन्होंने इन कंजरों पर दया करके रेवला खानपुर ग्रामसभा की जमीन पर इन्हें आबाद कर दिया. ग्रामसभा की तरफ से पट्टा दिए जाने की वजह से यह बस्ती पुरी तरह वैधानिक और मान्य है. अपना पक्का मकान बना लेने वाले राजू से धंधे के विरोध के बाबत पूछे जाने पर वह कोई जवाब नहीं दे पाया.

हालांकि उसने यह माना कि घर का खर्च चलाने में धन्नों की आय का भी एक बड़ा हिस्सा होता है. घर से बाहर निकलते समय थान सिंह ने धन्नों के छोटे बच्चे को एक सौ रूपए का एक नोट थमाया. रूपए को वापस करने के लिए धन्नो और राजू अड़ गए. खासकर धन्नो बोली, नहीं साब मुफ्त में तो हम एक पैसा भी नहीं लेते.
काफी देर तक ना नुकूर करने के बाद अंततः वे लोग किसी तरह नोट रखने पर राजी हुए.

धंधे का भी लिहाज होता है

करीब एक साल के बाद प्रेमनगर में फिर दोबारा जाने का मौका मिला. 1998 में दिल्ली विधानसभा चुनाव के मतदान के दिन बाहरी दिल्ली का चक्कर काटते हुए हमारी गाड़ी रेवला खानपुर गांव के आसपास थी. हमारे साथ हरीश लखेड़ा (अभी अमर उजाला में) और कंचन आजाद (अब मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के पीआरओ) साथ थे. एकाएक चुनाव के प्रति यौनकर्मियों की रूचि को जानने के लिए मैनें गाड़ी को प्रेमनगर की तरफ ले चलने को कहा.

हमारे साथ आए दो पत्रकार मित्रों के संकोच के बावजूद धड़धड़ाते हुए मैं वहां पर जा पहुंचा, जहां पर सात-आठ महिलाएं बैठी थीं. मुझे देखते ही एक उम्रदराज महिला का चेहरा खिल उठा. मुझे संबोधित करती हुई एक ने कहा का बात है राजा, बहुत दिनों के बाद इधर आना हुआ ? तभी महिला ने टोका ये सब बाबू (दूर खड़ी कार से उतरकर हरीश और कांचन मेरा इंतजार कर रहे थे) भी क्या तुम्हारे साथ ही है ? एक दूसरी महिला ने चुटकी ली. आज तो तुम बाबू फौज के साथ आए हो.

बात बदलते हुए मैंने कहा आज चुनाव है ना, इन बाबूओं को कहां कहां पर मतदान कैसे होता है, यहीं दिखाने निकला था. अपनी बात को जारी रखते हुए मैंने सवाल किया क्या तुमलोग वोट डालकर आ गई ? मैने एक को टोका बड़ी मस्ती में बैठी हो, किसे वोट दी. मेरी बात सुनकर सारी महिलाएं (और लड़कियां भी) खिलखिला पड़ी.

खिलखिलाते हुए किसी और ने टोका बड़ा चालू हो बाबू एक ही बार में सब जान लोगे या कुछ खर्चा-पानी भी करोगे. गलती का अहसास करने का नाटक करते हुए फट अपनी जेब से एक सौ रूपए का एक नोट निकालकर मैनें आगे कर दिया. नोट थामने से पहले उसने कहा बस्सस. मैने फौरन कहा, ये तो तुमलोग के चाय के लिए है, बाकी बाद में. मैंने उठने की चेष्टा की भी नहीं कि एक बहुत सुंदर सी महिला ने अपने शिशु को किसी और को थमाकर सामने के कमरे के दरवाजे पर जाकर खड़ी हो गयी.

उधर जाने की बजाय मैं वहीं पर खड़ा होकर दोनों हाथ ऊपर करके अपने पूरे बदन को खोलने की कोशिश की. इस पर एक साथ कई महिलाएं एक साथ सित्कार सी उठी, हाय यहां पर जान क्यों मार रहे हो. बदन और खाट अंदर जाकर तोड़ो ना. फिर भी मैं वहीं पर खड़ा रहा और चुनाव की चर्चा करते हुए यह पूछा कि तुमलोगों ने किसे वोट दिया ? मेरे सवाल पर मेरी मौजूदगी को बड़े अनमने तरीके से लेती हुई सबों ने जवाब देने की बजाय अपना मुंह बिदकाने लगी. तभी मैने देखा कि 18-20 साल के दो लडके न जाने किधर से आए और इतनी सारी झुंड़ में बैठी महिलाओं की परवाह किए बगैर ही दनदनाते हुए कमरे में घुस गए.

दरवाजे पर मेरे इंतजार में खड़ी यौनकर्मी भी कमरे में मेरे इंतजार को भूलकर फौरन कमरे के भीतर चली गई. दरवाजा अभी बंद नहीं हुआ था, लिहाजा मैं फौरन कमरे की तरफ भागा. इसपर एक साथ कई महिलाओं ने आपत्ति की और जरा सख्त लहजे में अंदर जाने से मुझे रोका. सबों की अनसुनी करते हुए दूसरे ही पल मैं कमरे में था. जहां पर लड़कों से लेनदेन को लेकर मोलतोल हो रहा था.

एकाएक कमरे में मुझे देखकर उसका लहजा बदल गया. उसने बाहर जाकर किसी और के लिए बात करने पर जोर देने लगी. फौरन 100 रूपए का नोट दिखाते हुए मैनें जिद की, जब मेरी बात हो गई है, तब दूसरे से मैं क्यों बात करूं ? इसपर सख्त लहजे में उसने कहा मैं किसी की रखैल नहीं हूं जो तुम भाव दिखा रहे हो. फिलहाल तेरी बारी खत्म, अब बाहर जाओ.

कमरे से बाहर निकलते ही मैंने गौर किया कि तमाम यौनकर्मियों का चेहरा लाल था. बाबू धंधे का कोई लिहाज भी होता है? किसी एक ने मेरे उपर कटाक्ष किया क्या तुम्हें वोट डालना है या किसे वोट डाली हो यह पूछते ही रहोगे ? इस पर सारी खिलखिला पड़ी. मैं भी ठिठाई से कहा यहां पर नहीं किसी को तीन चार घंटे के लिए हमारे साथ भेजो गाड़ी में और पैसा बताओ ?

इस पर सबों ने अपनी अंगूली को दांतों से काटते हुए बोल पड़ी. हाय रे दईया, पैसे वाला लाला है. किसी ने पूरी सख्ती से कहा कोई और मेम को ले जाना अपने साथ गाड़ी में. प्रेमनगर की हम औरतें कहीं बाहर गाड़ी में नहीं जाती. इस बीच कहीं से चाय बनकर आ गई. तब वे सारी औरतें फौरन नरम हो गई और सभी यौनकर्मियों ने चाय पीने का अनुरोध किया.

मैनें नाराजगी दिखाते हुए फिर कभी आने का घिस्सा पीटा जवाब दोहराया. इस बीच अब तक खुला कमरा भीतर से बंद हो चुका था. लौटने के लिए मैं ज्यों ही मुड़ा तो दो एक ने चीखकर कटाक्ष किया. वर्मा (तत्कालीन मुख्यमंत्री साहब सिंह वर्मा) हो या सोलंकी (तत्कालीन स्थानीय विधायक धर्मदेव सोलंकी) सब भीतर से खल्लास हैं, खल्लास. एक ने मेरे ऊपर तोहमत मढ़ा कही तुम भी तो kवर्मा- सोलंकी नहीं हो ?

इस पर कोई प्रतिवाद करने की बजाय वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई दिखी. प्रेमनगर को लेकर मेरे द्वारा दो-तीन खबरें लिखने के बाद तब पॉयनीयर में (बाद में इंडियन एक्सप्रेस) में काम करने वाली ऐश्वर्या (अभी कहां पर है, इसकी जानकारी नही) ने मुझसे प्रेमनगर पर एक रिपोर्ट कराने का आग्रह किया. यह बात लगभग 2000 की है. हमलोग एक बार फिर प्रेमनगर की उन्ही गलियों की ओर निकल पड़े.

साथ में एक लड़की को लेकर इन गलियों में घूमते देखकर यौनकर्मियों को बड़ी हैरानी हो रही थी. कई तरह की भद्दी और अश्लील टिप्पणियों से वे लोग हमें नवाजती रहीं. मैंने कुछ उम्रदराज यौनकर्मियों को बताया कि ये एक एनजीओ से जुड़ी हैं और यहां पर वे आपलोग की सेहत और रहनसहन पर काम करने आई हैं. ये एक बड़ी अधिकारी है, और ये कई तरह से आपलोग को फायदा पहुंचाना चाहती है.

prostitutes-indiaमेरी बातों का उनपर कोई असर नहीं पड़ा. उल्टे टिप्पणी की कि ऐसी-ऐसी बहुत सारी थूथनियों को मैं देख चूकी हूं. कईयों ने उपहास के साथ कटाक्ष भी किया कि अपनी हेमा मालिनी को लेकर जल्दी यहां से फूटो अपना और मेरा समय बर्बाद ना करो.


मैंने जोर देकर कहा कि चिंता ना करो, हमलोग पूरा पैसा देकर जाएंगे. इतना सुनते ही कई यौनकर्मी आग बबूला हो गईं. एक ने कहा बाबू यहां पर रोजाना मेला लगता है, जहां पर तुम जैसे डेढ़ सौ बाबू आकर अपनी थैली दे जाते है. पैसे का रौब ना गांठों. यहां तो हमारे मूतने से भी पैसे की बारिश होती है, अभी तुम बच्चे हो. हमलोगों की आंखें नागिन की होती है, एक बार देखने पर चेहरा नहीं भूलती. तुम तो कई बार शो रूम देखने यहां आ चुके हो. दम है तो कमरे में चलकर बातें कर.

मैनें फौरन क्षमा मांगते हुए किसी तरह यौनकर्मियों को शांत करने की गुजारिश में लग गया. एक ने कहा कि हमलोगों को तुम जितना उल्लू समझते हो, उतना हम होती नहीं है. बड़े बड़े फन्ने तीसमार खांन भी यहां आकर मेमना बन जाते है. हम ईमानदारी से केवल अपना पैसा लेती है. एक यौनकर्मी ने जोड़ा, 'हम रंडियों का अपना कानून होता है, मगर तुम एय्याश मर्दो में तो कोई ईमान ही नहीं होता.'

यौनकर्मियों के एकाएक इस बौछार से मैं लगभग निरूतर सा हो गया. महिला पत्रकार को लेकर फौरन खिसकना ही उचित लगा. एक उम्रदराज यौनकर्मी से बिनती करते हुए मैंने पूछा कि क्या इसे (महिला पत्रकार) पूरे गांव में घूमा दूं? उसकी सहमति मिलने पर हमलोगों ने प्रेमनगर की गलियों को देखना शुरू किया. अब हमलोगों ने फैसला किया कि किसी से उलझने या सवाल जवाब करने की बजाय केवल माहौल को देखकर ही हालात का जायजा लेना ज्यादा ठीक और सुरक्षित है.

मर्द आते इज्ज़त उतरवाने

हमलोग अभी एक गली में प्रवेश ही किए थे कि गली के अंतिम छोर पर दो लड़कियां और दो लड़कों के बीच पैसे को लेकर मोलतोल जारी था. 18-19 साल के लड़के 17-18 साल का मासूम सी लड़कियों को 20 रूपए देना चाह रहे थे, जबकि लड़कियां 30 रूपए की मांग पर अड़ी थी. लगता है जब बात नहीं बनी होगी तो एक लड़की बौखला सी गई और बोलती है. साले जेब में पैसे रखोगे नहीं और अपना मुंह लेकर सीधे चले आओगे अपनी अम्मां के पास आम चूसने. चल भाग वरना एक झापड़ दूंगी तो साले तेरा केला कटकर यहीं पर रह जाएगा.

शर्म से पानी पानी से हो गए दोनों लड़के हमलोगों के मौके पर आने से पहले ही निकल लिए. मैं बीच में ही बोल पड़ा, क्या हुआ इतना गरम क्यों हो. इस पर लगभग पूरी बदतमीजी से एक बोली मंगलाचरण की बेला है, तेरा हंटर गरम है तो चल वरना तू भी यहां से फूट. मैने बड़े प्यार से कहा कि चिंता ना कर तू हमलोग से बात तो कर तेरे को पैसे मिल जाएंगे. मैनें अपनी जेब से 50 रूपए का एक नोट निकाल कर आगे कर दिया. नोट को देखकर हुड़की देती हुई एक ने कहा सिर पर पटाखा बांधकर क्या हमें दिखाने आया है, जा मरा ना उसी से.

sex-workers-indiaमैंने झिड़की देते हुए टोका इतनी गरम क्यों हो रही है, हम बात ही तो कर रहे है. गंदी सी गाली देती हुई एक ने कहा हम बात करने की नहीं नहाने की चीज है. कुंए में तैरने की हिम्मत है तो चल बात भी करेंगे और बर्दाश्त भी करेंगे. दूसरी ने अपने साथी को उलाहना दी, तू भी कहां फंस रही है साले के पास डंड़ा रहेगा तभी तो गिल्ली से खेलेगा. दोनों जोरदार ठहाका लगाती हुई जानें लगीं.

मैं भी बुरा सा मुंह बनाते हुए तल्ख टिप्पणी की, तुम लोग भी कम बदतमीज नहीं हों. यह सुनते ही वे दोनों फिर हमलोगों के पास लौट आयीं और उनमें से एक ने कहा, 'वेश्या के घर में इज्जत की बात करने वाला तू पहला मर्द है. यहां पर आने वाला मर्द हमारी नहीं हमलोगों के हाथों अपनी इज्जत उतरवा कर जाता है.' मैंने बात को मोड़ते हुए कहा कि ये बहुत बड़ी अधिकारी है और तुमलोग की सेहत और हालात पर बातचीत करके सरकार से मदद दिलाना चाहती है. इस पर वे लोग एकाएक नाराज हो गई. बिफरते हुए एक ने कहा हमारी सेहत को क्या हुआ है. तू समझ रहा है कि हमें एड(एड़स) हो गया है. तुम्हें पता ही नहीं है बाबू हमें कोई क्या चूसेगा, चूस तो हमलोग लेती है मर्दों को.

तपाक से मैनें जोड़ा अभी लगती तो एकदम बच्ची सी हो, मगर बड़ी खेली खाई सी बातें कर रही हो. इस पर रूखे लहजे में एक ने कहा जाओ बाबू जाओ तेरे बस की ये सब नहीं है, तू केवल झुनझुना है. गंदी गंदी गालियों के साथ वे दोनों पलक झपकते गली पार करके हमलोगों की नजरों से ओझल हो गई.मूड उखड़ने के बाद भी भरी दोपहरी में हमलोग दो चार गलियों में चक्कर काटते हुए प्रेमनगर से बाहर निकल गए.

करीब तीन साल पहले 2009 में एक बार फिर थान सिंह यादव के साथ मैं प्रेमनगर में था. करीब आठ-नौ साल के बाद यहां आने पर बहुत कुछ बदला बदला सा दिखा. ज्यादातर कच्चे मकान पक्के हो चुके थे. गलियों की रंगत भी बदल सी गयी थी. कई बार यहा आने के बाद भी यहां की घुमावदार गलियां मेरे लिए हमेशा पहेली सी थी. गांव के मुहाने पर ही एक अधेड़ आदमी से मुलाकात हो गई.

हमलोंगों ने यहां आने का मकसद बताते हुए किसी ऐसी महिला या लोगों से बात कराने का आग्रह किया, जिससे प्रेमनगर की पीड़ा को ठीक से सामने रखा जा सके. पत्रकार का परिचय देते हुए उसे भरोसे में लिया. हमने यह भी बता दिया कि इससे पहले भी कई बार आया हूं, मगर अपने परिचय को जाहिर नहीं किया था. अलबता पहले भी कई बार खबर छापने के बावजूद हमने हमेशा प्रेमनगर की पीड़ा को सनसनीखेज बनाने की बजाय इस अभिशाप की नियति को प्रस्तुत किया था.

यह हमारा संयोग था कि बुजुर्ग को मेरी बातों पर यकीन आ गया, और वह हमें साथ लेकर अपने घर आ गया. घर में दो अधेड़ औरतों के सिवा दो और जवान विवाहिता थी. कई छोटे बच्चों वाले इस घर में उस समय कोई मर्द नहीं था. घर में सामान्य तौर तरीके से पानी के साथ हमारी अगवानी की गई. दूसरे कमरे में जाकर मर्द ने पता नहीं क्या कहा होगा.

थोड़ी देर में चेहरे पर मुस्कान लिए चारों महिलाएं हमारे सामने आकर बैठ गई. इस बीच थान सिंह ने अपने साथ लाए बिस्कुट, च़ाकलेट और टाफी को आस पास खड़ें बच्चों के बीच बाट दिया. बच्चों के हाथों में ढेरो चीज देखकर एक ने जाकर गैस खोलते हुए चाय बनाने की घोषणा की. इस पर थान सिंह ने अपनी थैली से दो लिटर दूध की थैली निकालते हुए इसे ले जाने का आग्रह किया. इस पर शरमाती हुई चारों औरतों ने एक साथ कहा कि घर में तो दूध है.

बाजी अपने हाथ में आते देखकर फिर थान सिंह ने एक महिला को अपने पास बुलाया और थैली से दो किलो चीनी के साथ चाय की 250 ग्राम का एक पैकेट और क्रीम बिस्कुट के कुछ पैकेट निकाल कर उसे थमाया. पास में खड़ी महिला इन सामानों को लेने से परहेज करती हुई शरमाती रही. सारी महिलाओं को यह सब एक अचंभा सा लग रहा था.

एक ने शिकायती लहजे में कहा अजी सबकुछ तो आपलोगों ने ही लाया है तो फिर हमारी चाय क्या हुई. मैने कहा अरे घर तुम्हारा, किचेन से लेकर पानी, बर्तन, कप प्लेट से लेकर चाय बनाने और देने वाली तक तुम लोग हो तो चाय तो तुमलोग की ही हुई. अधेड़ महिला ने कहा बाबू तुमने तो हमलोगों को घर सा मान देकर तो एक तरीके से खरीद ही लिया. दूसरी अधेड़ महिला ने कहा बाबू उम्र पक गई. हमने सैकड़ों लोगों को देखा, मगर तुमलोग जैसा मान देने वाला कोई दूसरा नहीं देखा. यहां तो फौरन भागने वाले मर्दो को ही देखते आ रहे है.

इस बीच हमने गौर किया कि बातचीत के दौरान ही घर में लाने वाले बुजुर्ग पता नहीं कब बगैर बताए ही घर से बाहर निकल गए. वजह पूछने पर एक अधेड़ ने बताया कि बातचीत में हमलोग को कोई दिक्कत ना हो इसी वजह से वे बाहर चले गए. हमलोगों ने बुरा मानने का अभिनय करते हुए कहा कि यह तो गलत है मैंने तो उन्हें सबकुछ बता दिया था. खैर इस बीच चाय भी आ गई.

बोलने का नहीं, यहां खोलने का रिवाज़

चारों ने लगभग अपने हथियार डालते हुए कहा अब जो पूछना है बाबू बात कर सकते हो. बातचीत का रूख बताते ही एक ने कहा बाबू तुम तो चले जाओगे, मगर हमें परिणाम भुगतना पड़ेगा. एक बार फिर इमोशनल ब्लैकमेलिंग करते हुए मैने साफ कहा कि यदि तुम्हें हमलोगों पर विश्वास नहीं है तो मैं भी बात करना नहीं चाहूंगा यह कहकर मैंने अपना बोरिया बिस्तर समेटना चालू कर दिया.

तभी एक जवान सी वेश्या ने तपाक से मेरे बगल में आकर बैठती हुई बोली अरे तुम तो नाराज ही हो गए. हमने तो केवल अपने मन का डर जाहिर किया था. शिकायती लहजे में मैंने भी तीर मारा कि जब मन में डर ही रह जाए तो फिर बात करने का क्या मतलब? इस पर दूसरी ने कहा बाबू हमलोगों को कोई खरीद नहीं सकता, मगर तुमने तो अपनी मीठी मीटी बातों में हमलोगों को खरीद ही लिया है. अब मन की सारी बाते बताऊंगी. फिर करीब एक घंटे तक अपने मन और अपनी जाति की नियति और सामाजिक पीड़ा को जाहिर करती रही.

gb-roadबुजुर्ग सी महिला ने बताया कि हमारी जाति के मर्दो की कोई अहमियत नहीं होती. पहले तो केवल बेटियों से ही शादी से पहले तक धंधा कराने की परम्परा थी, मगर पिछले 50-60 साल से बहूओं से भी धंधा कराया जाने लगा. हमारे यहां औरतों के जीवन में माहवारी के साथ ही वेश्यावृति का धंधा चालू होता है, जो करीब 45 साल की उम्र तक यानी माहवारी खत्म(रजोनिवृति) तक चलता रहता है.

इनका कहना है कि माहवारी चालू होते ही कन्या का धूमधाम से नथ उतारी जाती है. गुस्सा जाहिर करती हुई एक ने कहा कि नथ तो एक रस्म होता है, मगर अब तो पुलिस वाले ही हमारे यहां की कौमा्र्य्य को भंग करना अपनी शान मानते है. नाना प्रकार की दिक्कतों को रखते हुए सबों ने कहा कि शाम ढलते ही जो लोग यहां आने के लिए बेताब रहते हैं,वही लोग दिन के उजाले में हमें उजाड़ने घर से बाहर निकालने के लिए लोगों कों आंदोलित करते है.

एक ने कहा कि सब कुछ गंवाकर भी इस लायक हमलोग नहीं होती कि बुढ़ापा चैन से कट सके. हमारे यहां के मर्द समाज में जलील होते रहते हैं. बच्चों को इस कदर अपमानित होना पड़ता है कि वे दूसरे बच्चों के कटाक्ष से बचने के लिए हमारे बच्चे स्कूल नहीं जाते और पढ़ाई में भी पीछे ही रह जाते है. नौकरी के नाम पर निठ्ठला घूमते रहना ही हमारे यहां के मर्दो की दिनचर्या होती है. अपनी घरवाली की कमाई पर ही ये आश्रित होते है.

एक ने कहा कि जमाना बदल गया है. इस धंधे ने रंगरूप बदल लिया है, मगर हमलोग अभी पुराने ढर्रे पर ही चल रहे है. बस्ती में रहकर ही धंधा होने के चलते बहुत तरह की रूकावटों के साथ साथ समाज की भी परवाह करनी पड़ती है. एक ने बताया कि हम वेश्या होकर भी घर में रहकर अपने घर में रहते है. हम कोठा पर बैठने वाली से अलग है. बगैर बैलून (कंडोम) के हम किसी मर्द को पास तक नहीं फटकने देती. यही कारण है कि बस्ती की तमाम वेश्याएं सभी तरह से साफ और भली है.

यानी डेढ सौ से अधिक जवान वेश्याओ के अलावा, करीब एक सौ वेश्याओं की उम्र 40पार कर गई है. एक अधेड़ वेश्या ने कहा कि लोगों की पसंद 16 से 25 के बीच वाली वेश्याओं की होती है. यह देखना हमारे लिए सबसे शर्मनाक लगता है कि एक 50 साल का मर्द जो 10-15 साल पहले कभी उसके साथ आता था , वही मर्द उम्रदराज होने के बाद भी आंखों के सामने बेटी या बहू के साथ हमबिस्तर होता है और हमलोग उसे बेबसी के साथ देखती रह जाती है.

एक ने कहा कि उम्र बढ़ने के साथ ही वेश्या अपने ही घर में धोबी के घर में कुतिया जैसी हो जाती है. इस पर जवान यौनकर्मियों ने ने ठहाका लगाया, तो मंद मंद मुस्कुराती हुई अधेड़ वेश्याओं ने कहा कि हंमलोग भी कभी रानी थी, जैसे की तुमलोग अभी हो. इसपर सबों ने फिर ठहाका लगाया.

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद फिर मैनें कहा कुछ और बोलो? किसी ने बेबसी झलकाती हुई बोली और क्या बोलूं साहब ? बोलने का इतना कभी मौका कोई कहां देता है? यहां तो खोलने का दौर चलता है. दूसरी जवान वेश्या ने कहा खोलने यानी बंद कमरे में कपड़ा खोलने का ? एक ने चुटकी लेते हुए कहा कि चलना है तो बोलो. एक अधेड़ ने समर्थन करती हुई बोली कोई बात नहीं साब, मेहमान बनकर आए हो चाहों तो माल हलाल कर सकते हो.

एक जवान ने तुरंत जोड़ा साब इसके लिए तुमलोग से कोई पैसा भी नहीं लूंगी? हम दोनों एकाएक खड़े हो गए. थान सिंह ने जेब से दो सौ रूपए निकाल कर बच्चों को देते हुए कहा कि अब तुमलोग ही नही चाहती हो कि हमलोग तुमसे बात करें. इस पर शर्मिंदा होती हुई अधेड़ों ने कहा कि माफ करना बाबू हमारी मंशा तुमलोगों को आहत करने की नहीं थी. खैर दुआ सलाम और मान मनुहार के बाद घर से बाहर निकल गए थे.

लगभग दो घंटे तक प्रेमनगर के एक घर में अतिथि बनकर रहने के बाद हमलोग बस्ती से बाहर हो गए. मगर इस बार इन यौनकर्मियों की पीड़ा काफी समय तक मन को विह्वल करती रही. इस बस्ती की खबरें यदा-कदा आज भी आती रहती हैं. ग्लोबल मंदी से भले ही भारत समेत पूरा संसार उबर गया हो, मगर अपना सबकुछ गंवाकर भी प्रेमनगर की यौनकर्मी शायद ही कभी अर्थिक तंगी से उबर पाएंगी ?

anami-sharan-babalपिछले दो दशक से पत्रकारिता कर रहे अनामी शरण बबल बाहरी दिल्ली से सम्बंधित मामलों के विशेष जानकार हैं.
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+1 #2 Nirmal Gorana 2012-06-14 12:48
Zanab aap realy super reporter hai or aap jaise reporter ko samaj ki jarurat hai. **** worker ki samaj me badi dardnak situation hai hame milkar en sabhi **** workers ke sath work shop karni chahiye......or kuch socio economic development per focus kar income generation activity start karni chahiye...
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0 #1 Nirmal Gorana 2012-06-14 12:48
Zanab aap realy super reporter hai or aap jaise reporter ko samaj ki
jarurat hai. **** worker ki samaj me badi dardnak situation hai hame
milkar en sabhi **** workers ke sath work shop karni chahiye......or
kuch socio economic development per focus kar income generation
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