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रविवार, 6 जून 2021

ऑपरेशन ब्लूस्टार की 37 वीं बरसी पर / रेहान फ़ज़ल

 कैसे थे जरनैल सिंह भिंडरावाले की ज़िदगी के आख़िरी पल / रेहान फ़ज़ल 


अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले भिंडरावाले ने तीन पत्रकारों से बात की थी. एक थे बीबीसी के मार्क टली. दूसरे टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सुभाष किरपेकर और तीसरे मशहूर फ़ोटोग्राफ़र रघु राय. सीआरपीएफ़ ने ऑप्रेशन ब्लूस्टार शुरू होने से चार दिन पहले यानि 1 जून को स्वर्ण मंदिर पर फ़ायरिंग शुरू कर दी थी. 2 जून को मार्क टली की भिंडरावाले से आखिरी मुलाकात हुई थी. वो अकाल तख़्त में बैठे हुए थे. मार्क टली और सतीश जैकब अपनी किताब ‘अम़ृतसर मिसेज़ गाँधीज़ लास्ट बैटिल’ में लिखते हैं, ‘जब मैंने भिडरावाले से फ़ायरिंग के बारे में पूछा तो उन्होंने जवाब दिया. फ़ायरिंग बताती है कि सरकार स्वर्ण मंदिर का अपमान करने पर तुली हुई है और सिखों और उनके रहने के तरीके को बर्दाश्त नहीं कर सकती है. अगर सरकार ने मंदिर में घुसने की कोशिश की तो उसका  माकूल जवाब दिया जाएगा. लेकिन उस दिन भिंडरावाले सहज नहीं दिख रहे थे. ज़ाहिर है वो तनाव में थे. आमतौर से वो अपनेआप को फ़िल्म किया जाना पसंद करते थे लेकिन उस दिन उन्होंने उख़ड़ कर कहा था, आप लोग जल्दी कीजिए. मुझे और भी ज़रूरी काम करने हैं.’

भिंडरावाले को विश्वास था कि सेना अंदर नहीं आएगी

टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सुभाष किरपेकर अकेले पत्रकार थे जो सेना द्वारा स्वर्ण मंदिर को घेर लिए जाने के बाद जरनैल सिंह भिंडरावाले से मिले थे. तब भी जरनैल सिंह का मानना था कि सेना मंदिर के अंदर नहीं घुसेगी. किरपेकर ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद छपी किताब ‘द पंजाब स्टोरी’ में लिखते हैं, ‘मैंने  भिंडरावाले से पूछा क्या सेना के सामने आपके लड़ाके कम नहीं पड़ जाएंगे ? उनके पास बेहतर हथियार भी हैं. भिंडरावाले ने तुरंत जवाब दिया था, ‘भेड़ें हमेशा शेरों से ज़्यादा संख्या में होती हैं. लेकिन एक शेर हज़ार भेड़ो का सामना कर सकता है. जब शेर सोता है तो चिड़ियाँ चहचहाती हैं. लेकिन जब वो उठता है तो चिडियाँ उड़ जाती हैं.’ जब मैंने उनसे पूछा कि आपको मौत से डर नहीं लगता तो उनका जवाब था ‘कोई सिख अगर मौत से डरे तो वो सच्चा सिख नहीं है.’  भिंडरावाले के बगल में स्वर्ण मंदिर की सुरक्षा की योजना बनाने वाले मेजर जनरल शहबेग सिंह भी खड़े थे. जब मैंने उनसे पूछा कि आपको क्या उम्मीद है, एक्शन कब शूरू होगा ? तो उन्होंने जवाब दिया शायद ‘आज रात ही.’’


मशहूर फ़ोटेग्राफ़र रघु राय ने मुझे बताया था कि वो भिडरावाले से उनकी मौत से एक दिन पहले मिले थे. ‘उन्होंने मुझसे पूछा तू यहाँ क्यों आया है ? मैंने कहा पाजी मैं आपसे मिलने आया हूँ. मैं तो आता ही रहता हूँ. उन्होंने फिर ‘पूछा  अब क्यों आया है तू ?’  मैंने जवाब दिया ‘देखने के लिए कि आप कैसे हैं.’ मैं देख सकता था कि उनकी आँखे लाल सुर्ख़ थीं.  मैं उनमें गुस्सा और डर दोनों पढ़ पा रहा था.’


6 जून को दोपहर चार बजे से लाउडस्पीकर से लगातार घोषणाएं की जा रही थीं कि जो चरमपंथी अभी भी कमरों या तयख़ानों में हैं, बाहर आकर आत्मसमर्पण कर सकते हैं.  लेकिन तब तक  भिडरावाले का कोई पता नहीं था. ऑप्रेशन ब्लूस्टार के कमाँडर लेफ़्टिनेंट जनरल बुलबुल बरार अपनी किताब  ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार द ट्रू स्टोरी’ में लिखते हैं, ‘जब 26 मद्रास के जवान अकालतख़्त में घुसे तो उन्होंने दो चरमपंथियों को भागने की कोशिश करते पाया. उन्होंने उनपर गोली चलाई. उनमें से एक व्यक्ति तो मारा गया लेकिन दूसरे शख़्स को उन्होंने पकड़ लिया. उससे जब सवाल किए गए तो उसने सबसे पहले बताया कि भिंडरावाले अब इस दुनिया में नहीं हैं. फिर वो हमारे सैनिकों को उस जगह ले गया जहाँ भिंडरावाले और उनके 40 अनुयायियों की लाशें पड़ी हुई थीं. थोड़ी देर बाद हमें तयख़ाने में जनरल शहबेग सिंह की भी लाश मिली. उनके हाथ में अभी भी उनकी कारबाइन थी और उनके शरीर के बगल में उनका वॉकीटॉकी पड़ा हुआ था.’ बाद में जब मैंने जनरल बरार से बात की तो उन्होंने मुझे बताया, ‘अचानक तीस चालीस लोगों बाहर निकलने के लिए ने दौड़ लगाई. तभी मुझे लग गया कि भिडरावाले नहीं रहे, क्योंकि तभी अंदर से फ़ायर आना भी बंद हो गया. तब हमने अपने जवानों से कहा कि अंदर जा कर तलाशी लो. तब जा कर हमें उनकी मृत्यु का पता लगा. उसके बाद उनके शव को  उत्तरी विंग के बरामदे में ला कर रखा गया जहाँ पुलिस, इंटेलिजेंस ब्यूरो और हमारी हिरासत में आए चरमपंथियों ने उनकी शिनाख़्त की.’


ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद प्रकाशित हुई किताब ‘द पंजाब स्टोरी’ में शेखर गुप्ता लिखते हैं, ‘अफ़सरों ने मुझे बताया कि जब वो लोग अकाल तख़्त के अंदर घुसे तो पूरे इलाके में बारूद की गंध भरी हुई थी और दो इंच तक फ़र्श इस्तेमाल हो चुके कारतूसों से अटा पड़ा था. कुछ अफ़सर तो इस बात को लेकर अंचंभे में थे कि चरमपंथी इतनी ज़्यादा फ़ायरिंग कैसे कर पाए. ऑटोमेटिक फ़ायरिंग आप लगातार नहीं कर सकते, क्योंकि आपके हथियार में समस्या उठ खड़ी होती है और अगर आप बीच में अंतराल न रखे तो कभी कभी तो उसकी नाल भी गर्म और कभी कभी पिघल भी जाती है. अगर भारतीय सेना के जवान इस तरह की भीषण फ़ायरिंग करते तो उन्हें कारतूस बरबाद करने के लिए अपने अफ़सरों की डाँट खानी पड़ सकती थी. भारतीय सेना के अफ़सरों ने मुझे बताया कि कई चरमपंथियों के कंधों पर नीले निशान थे जो बताता था कि उनमें तर्कसंगत होने की कमी भले ही हो लेकिन उनके जोश में कोई कमी नहीं निकाली जा सकती थी.’


भिडरावाले के आखिरी क्षणों का वर्णन दो जगह मिलता है. अकाल तख़्त के तत्कालीन जत्थेदार किरपाल सिंह ने अपनी किताब ‘आई विटनेस अकाउंट  ऑफ़ ऑपरेशन ब्लूस्टार’ में  अकाल तख़्त के प्रमुख ग्रंथी ज्ञानी प्रीतम सिंह को कहते हुए बताया हैं, ‘मैं तीन सेवादारों के साथ अकाल तख़्त के उत्तरी किनारे  में बैठा हुआ था. करीब 8 बजे फ़ायरिंग थोड़ी कम हुई तो मैंने संत जरनैल सिंह भिडरावाले को अपने कमरे के पास शौचालय की तरफ़ से आते देखा. उन्होंने नल में अपने हाथ धोए और वापस अकाल तख़्त की तरफ़ लौट गए. करीब साढ़े आठ बजे भाई अमरीक सिंह ने अपने हाथ धोए और हम सब को सलाह दी कि हम सब लोग निकल जाएं. जब हमने उनसे उनकी योजना के बारे में पूछा. उन्होंने मुझे बताया कि संत तयख़ाने में हैं. पहले उन्होंने 7 बजे शहीद होना तय किया था लेकिन फिर उन्होंने उसे साढ़े नौ बजे तक स्थगित कर दिया था. फिर मैंने संत के  लोगों से लोहे के दरवाज़े की चाबी ली और फिर मैं अपने 12 साथियों के साथ बोहार वाली गली में निकल आया और दरबार साहब के एक दूसरे सेवादार भाई बलबीर सिंह के घर में शरण ली.’

एक और किताब ‘द गैलेंट डिफ़ेडर’ में ए आर दरशी अकाल तख़्त के सेवादार हरि सिंह को कहते बताते हैं, ‘मैं 30 लोगों के साथ कोठा साहब में छिपा हुआ था.  6 जून को करीब साढ़े सात बजे  भाई अमरीक सिंह वहाँ आए और हमसे कहा कि हम कोठा साहब छोड़ दें क्योंकि अब सेना द्वारा लाए गए टैंकों का मुकाबला नहीं किया जा सकता. कुछ मिनटों बाद संत भिडरावाले अपने 40 समर्थकों के साथ कमरे में दाखिल हुए. उन्होंने गुरुग्रंथ साहब के सामने बैठ कर प्रार्थना की और अपने समर्थकों को संबोधित करते हुए कहा जो लोग शहादत लेना चाहते हैं, मेरे साथ रुक सकते हैं. बाकी लोग अकालतख़्त छोड़ दें.’


जब भिंडरावाले मलबे पर पैर रखते हुए अकाल तख़्त के सामने की तरफ़ गए तो उनके पीछे उनके 30 अनुयायी भी थे. जैसे ही वो आँगन में निकले उनका स्वागत गोलियों से किया गया. मार्क टली और सतीश जैकब अपनी किताब ‘अमृतसर मिसेज़ गाँधीज़ लास्ट बैटिल’ में लिखते हैं, ‘बाहर निकलते ही अमरीक सिंह को गोली लगी लेकिन कुछ लोग आगे दौड़ते ही चले गए. फिर फ़ायर का एक और बर्स्ट आया जिससे भिंडरावाले के 12 या 13 साथी धराशाई हो गए. मुख्य ग्रंथी प्रीतम सिंह भी उस कमरे में छिपे हुए थे. अचानक कुछ लोगों ने अंदर आ कर कहा कि  अमरीक सिंह शहीद हो गए हैं. जब उनसे संत के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि उन्होंने उन्हें मरते हुए नहीं देखा है. मार्क टली और सतीश जैकब लिखते हैं,  ‘राष्ट्पति ज्ञानी ज़ैल सिंह के सलाहकार रहे त्रिलोचन सिंह को अकाल तख़्त के एक ग्रंथी ने बताया था कि जब भिंडरावाले बाहर आए थे तो उनकी जाँघ में गोली लगी थी. फिर उनको दोबारा भवन के अंदर ले जाया गया. लेकिन किसी ने भी भिंडरावाले को अपनी आँखों के सामने मरते हुए नहीं देखा.’


एक और ग्रंथी ज्ञानी पूरन सिंह को सैनिकों ने बताया था कि  उन्हें भिडरावाले और अमरीक  सिंह के शव सात तारीख की सुबह अकाल तख़्त के आँगन में मिले थे. स्वर्ण मंदिर के बरामदे में इन तीनों के शव की तस्वीरे हैं. लेकिन एक तस्वीर में ये साफ़ दिखाई देता है कि शहबेग  सिंह  की बाँह में रस्सी बँधी हुई है जिससे पता चलता है कि उनके शव को अकाल तख़्त से खींच कर बाहर लाया गया था. ये भी हो सकता है कि  वो सैनिक सिर्फ़ ये बताना चाह रहे हों कि उन्होंने शवों को अकाल तख़्त के सामने देखा था और उनको ये पता ही न हो कि शव पहले कहाँ पाए गए थे.


 भिंडरावाले की मौत 6 जून को ही हो गई थी. मार्क टली और सतीश जैकब अपनी किताब ‘अमृतसर मिसेज़ गाँधीज़ लास्ट बैटिल’ में लिखते हैं, ‘जब एक अफ़सर ने बरार को सूचना दी कि भिंडरावाले का किला ढ़ह गया है तो उन्होंने एक गार्ड की ड्यूटी वहाँ लगा दी. उन्होंने प्राँगड़ की तलाशी लेने के लिए सुबह होने का इंतेज़ार किया. 7 जून की सुबह तलाशी के दौरान भिंडरावाले, शहबेग सिंग और अमरीक सिंह के शव तयखाने में पाए गए.  ब्रिगेडियर ओंकार एस गोराया भी अपनी किताब  ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार एंड आफ़्टर एन आईविटनेस अकाउंट’ में लिखा हैं,  ‘भिंडरावाले के शव की सबसे पहले शिनाख़्त डीएसपी अपर सिंह बाजवा की. मैं भी बर्फ़ की सिल्ली पर लेटे हुए जरनैल सिंह भंडरावाले के शव को पहचान सकता था, हाँलाकि पहले मैंने उन्हें कभी जीवित नहीं देखा था. उनका जूड़ा खुला हुआ था और उनके एक पैर की हड्डी टूटी हुई थी. उनके जिस्म पर गोली के कई निशान थे.’


भिडरावाले के शव का अंतिम संस्कार 7 जून की शाम को साढ़े सात बजे किया गया. मार्क टली लिखते हैं, ‘उस समय मंदिर के आसपास करीब दस हज़ार लोग जमा हो गए थे लेकिन सेना ने उनको आगे नहीं बढ़ने दिया. भिंडरावाले, अमरीक सिंह और दमदमी टकसाल के उप प्रमुख थारा सिंह के शव को  मंदिर के पास चिता पर रखा गया. चार पुलिस अधिकारियों ने भिंडरावाले के शव को लॉरी से उठाया और सम्मानपूर्वक चिता तक लाए. एक अधिकारी ने मुझे बताया कि वहाँ मौजूद बहुत से पुलिसकर्मियों की आँखों में आँसू थे.’


जनरल शहबेग सिंह का शव भी अकाल तख्त के तहख़ाने में पाया गया था.  संभव है कि वो 5 या 6 जून की रात को ही घायल हो गए हों. जब शहबेग सिंह के बेटे प्रबपाल सिंह  ने पंजाब के राज्यपाल को फ़ोन कर  अपने पिता के अतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति माँगी तो राज्यपाल ने कहा हज़ारों और लोग भी अंतिम संस्कार में शामिल होने का अनुरोध कर रहे हैं. अगर उन्होंने शहबेग सिंह के बेटे को ये अनुमति दी तो उन्हें अन्य लोगों को भी अनुमति देनी पड़ेगी. जब प्रबपाल सिंह ने कहा कि क्या उन्हें उनकी अस्थियाँ मिल सकती हैं तो राज्यपाल का जवाब था, उन्हें भारत की पवित्र नदियों में प्रवाहित कर दिया जाएगा.  शहबेग सिंह के अंतिम संस्कार का कोई आधिकारिक रिकार्ड नहीं मिलता.

भिंडरावाले का अंतिम संस्कार हो जाने के बावजूद कई दिनों तक ये अफवाह फैली रही कि वो जीवित हैं. जनरल बरार ने मुझे बताया, ‘अगले ही दिन कहानियाँ शुरू हो गई कि भिंडरावाले उस दिन सुरक्षित निकल गए थे और पाकिस्तान पहुंच गए थे. पाकिस्तान का टेलिविजन अनाउंस कर रहा था कि भिंडरावाले हमारे पास हैं और 30 जून को हम उन्हें टेलिविजन पर दिखाएंगे. मेरे पास सूचना और प्रसारण मंत्री मंत्री एच के एल भगत और विदेश सचिव एमके रस्गोत्रा के फ़ोन आये कि आप तो कह रहे हैं कि भिंडरावाले की मौत हो गई है लेकिन पाकिस्तान कह रहा है कि वो उनके यहाँ हैं. मैंने उन्हें बताया उनके शव की पहचान हो गई है. उनका शव उनके परिवार को दे दिया गया है और उनके समर्थकों ने आ कर उनके पैर छुए हैं.’ पंजाब के गाँवों में रहने वाले लोगों ने 30 जून का बहुत बेसब्री से इंतेज़ार किया.  उन्हें उम्मीद थी कि वो अपने हीरो को टीवी पर साक्षात देख पाएंगे लेकिन उनकी ये मुराद पूरी नहीं हुई.  जनरल बरार अपनी किताब ‘ऑपरेशन ब्लूस्टार द ट्रू स्टोरी’ में स्वीकार करते हैं, ‘मैंने भी कौतुहलवश उस रात अपना टेलिविजन सेट खोला क्योंकि इस तरह की अफवाहें थीं भिंडरावाले की शक्ल से मिलते जुलते किसी शख़्स को प्लास्टिक सर्जरी कर पाकिस्तानी टीवी पर दिखाया जाएगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.’

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