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शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

नौकरशाहों की लोकतंत्र में आस्था नहीं




देश के आला अफसरों की लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई आस्था नहीं है. नौकरशाह मनमाने ढंग से प्रशासन चलाना चाहते हैं और चला भी रहे हैं. संवैधानिक बाध्यता के कारण विधानसभा एवं मंत्री परिषद आदि संस्थाओं की कार्यवाही में वे औपचारिकता ही पूरी करते हैं. राज्य में भाजपा के शासन में तो विधानसभा के सत्र भी केवल संवैधानिक औपचारिकता पूरी करने के लिए बुलाए जाते हैं. यही कारण है कि विधानसभा में विधायकों के प्रश्नों के उत्तर देने में अधिकारी लापरवाही दिखाते हैं. ज़्यादातर प्रश्नों के उत्तर के लिए जानकारी एकत्रित की जा रही है, जैसी सूचना देकर टाल दिए जाते हैं. विधायकों द्वारा अधिकारियों-कर्मचारियों या सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार, नियम विरुद्ध काम होने और वित्तीय अनियमितताओं आदि विषयों पर प्रश्न पूछे जाते हैं, लेकिन इन असुविधाजनक प्रश्नों का उत्तर समय पर नहीं मिलता. ग्रीष्मकालीन सत्र में विपक्ष के साथ-साथ सत्तापक्ष के विधायकों ने भी इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की. अध्यक्ष ईश्वर दास रोहाणी ने विधायकों के प्रश्नों के उत्तर न दिए जाने पर शासन से स्पष्टीकरण मांगा है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सदन में आश्वासन दिया कि भविष्य में विधायकों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर उन्हें उपलब्ध कराए जाएंगे, लेकिन दूसरे ही दिन सदन में जब प्रश्नोत्तरी बांटी गई तो विधायक यह देखकर आश्चर्यचकित रह गए कि 20 से ज़्यादा प्रश्नों के उत्तर में शासन की ओर से यही सूचना दी गई कि जानकारी एकत्रित की जा रही है.
प्रशासन में ऊपर से नीचे तक ज़बरदस्त एकता है. इसीलिए भ्रष्टाचार का मामला चाहे आईएएस अफसर का हो या फिर मामूली पंचायत सचिव का, संबंधित प्रश्नों के उत्तर विधानसभा में टाल दिए जाते हैं. इसी तरह तमाम घपलों, घोटालों, वित्तीय एवं प्रशासनिक अनियमितताओं, घटिया निर्माण कार्यों आदि से संबंधित प्रश्नों के उत्तर देने से सत्तापक्ष बचता है. नौकरशाह अपने बचाव के लिए सत्तापक्ष पर दबाव बनाए रखते हैं.
प्रशासन में ऊपर से नीचे तक ज़बरदस्त एकता है. इसीलिए भ्रष्टाचार का मामला चाहे आईएएस अफसर का हो या फिर मामूली पंचायत सचिव का, संबंधित प्रश्नों के उत्तर विधानसभा में टाल दिए जाते हैं. इसी तरह तमाम घपलों, घोटालों, वित्तीय एवं प्रशासनिक अनियमितताओं, घटिया निर्माण कार्यों आदि से संबंधित प्रश्नों के उत्तर देने से सत्तापक्ष बचता है. नौकरशाह अपने बचाव के लिए सत्तापक्ष पर दबाव बनाए रखते हैं. संसदीय प्रणाली में प्रशासन पर जनता की पकड़ बनाए रखने और प्रशासन को विधायिका के प्रति जवाबदेह बनाने के लिए विभागीय परामर्शदात्री समितियां वर्षों से काम करती आई हैं. इन समितियों की बैठक में विधायक, चाहे वे किसी भी दल के क्यों न हो, प्रशासनिक अधिकारियों एवं मंत्रियों से किसी भी विभागीय विषय पर चर्चा करते हैं, सुझाव देते हैं और शिकायतें रखते हैं. इन बैठकों में मंत्रियों एवं अधिकारियों को जवाब देना होता है. मध्य प्रदेश में भी सभी सरकारी विभागों के लिए परामर्शदात्री समितियां बनाई गई हैं और उनके गठन-संचालन के नियम भी तैयार किए गए हैं, लेकिन पिछले पांच वर्षों में उक्त परामर्शदात्री समितियां प्रभावी भूमिका अदा नहीं कर पाई हैं. अनेक विभागों में मंत्री और अफसरों की मिलीभगत से परामर्शदात्री समिति की बैठक ही नहीं बुलाई जाती या औपचारिकता के लिए कभीकभार बैठक बुला ली जाती है.
सरकारी विभाग विधायकों के नियंत्रण से मुक्त रहना चाहते हैं. उन्हें न तो विधायकों की सलाह की ज़रूरत है और न ही उनकी शिकायतों की परवाह. इस कारण विभिन्न विभागों में बनी 38 परामर्शदात्री समितियां कागजों में कैद होकर रह गई हैं. 27 समितियों की अब तक एक भी बैठक नहीं हुई. सिर्फ ग्यारह समितियों की एक-एक बैठक हुई. जबकि हर दो महीने में बैठक होना तय है. हाल यह है कि न तो इनकी अध्यक्षता करने वाले विभागीय मंत्री इच्छुक हैं और न ही आला अफसर. इस कारण अधिकांश समितियों की कई सालों से बैठकें नहीं हुईं. संसदीय कार्य विभाग ने 6 अगस्त 2009 को 38 परामर्शदात्री समितियां गठित की थीं. इनमें कुछ विभागों की संयुक्त समितियां बनाई गई हैं. इनमें पक्ष और विपक्ष दोनों के विधायक सदस्य और अध्यक्ष विभागीय मंत्री हैं. सभी दलों के सदस्य बैठक के माध्यम से संबंधित विभाग को बेहतर काम करने के सुझाव देते हैं. इसलिए समितियों की हर दो महीने में बैठक करने का नियम है, ताकि सभी सदस्य विभाग की योजनाओं पर विचार-विमर्श कर सकें. जिन 11 समितियों की सिर्फ एक-एक बैठक हुई है, उनमें सामान्य प्रशासन, वन, ऊर्जा, पशुपालन, विधि-विधायी एवं संसदीय कार्य, सहकारिता, पंचायत एवं ग्रामीण विकास, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति, आवास एवं पर्यावरण, लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी और जल संसाधन विभाग शामिल हैं.
सामान्य प्रशासन विभाग की 4 नवंबर को हुई पहली बैठक में भी नियमित बैठकें न होने का मुद्दा उठा था. तब सभी विभागों को बैठक करने के निर्देश दिए गए थे. बावजूद इसके आज तक खुद सामान्य प्रशासनिक विभाग की दूसरी बैठक नहीं हुई. नियमानुसार विभाग को बैठक की व्यवस्था करनी होती है. कई विभागों की समितियों की बैठकें पिछले 10-11 साल से नहीं हुई हैं. यह समितियां कागजों में बनती-मिटती रहीं, लेकिन बैठकें नहीं हुईं. इनमें जनसंपर्क, जनशिकायत निवारण, संस्कृति, पर्यटन, गृह, विमानन, वित्त योजना एवं सांख्यिकी, बीस सूत्रीय कार्यक्रम, स्कूल शिक्षा, राजस्व, वाणिज्य, उद्योग एवं रोजगार, सार्वजनिक उपक्रम, किसान कल्याण, स्वास्थ्य, चिकित्सा शिक्षा, लोक निर्माण, वाणिज्यिक कर, नगरीय प्रशासन, धार्मिक न्यास एवं धर्मस्व तथा पुनर्वास आदिम जाति, अनुसूचित जाति कल्याण, अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग कल्याण, श्रम, महिला एवं बाल विकास, खनिज साधन, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी, जेल, तकनीक़ी शिक्षा, परिवहन, खेल एवं युवक कल्याण, ग्रामोद्योग जैव विविधता और भोपाल गैस त्रासदी आदि विभाग शामिल हैं.

नियम क्या कहता है

  • समितियों का कार्यकाल दो साल रहेगा.
  • हर दो महीने में बैठक अनिवार्य.
  • संबंधित विभाग द्वारा समिति अध्यक्ष से चर्चा कर बैठक की तिथि निर्धारित करना और एक महीने पहले संसदीय कार्य विभाग को अवगत कराना, जहां से बैठक से बीस दिन पहले सदस्यों को सूचित किया जाना.
  • बैठक की कार्यसूची दो दिन पहले सदस्यों तक पहुंचाना.
  • बैठक में विभाग से सिर्फ विभागाध्यक्ष और सचिव ही उपस्थित रहेंगे.
  • अध्यक्षता मंत्री या राज्यमंत्री कर सकेंगे.

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