गुरुवार, 7 अप्रैल 2011

ग्रामीण विकास की लगातार अनदेखी चिंताजनक-Anand Rana

Anand Rana
ग्रामीण विकास की लगातार अनदेखी चिंताजनक
बजट प्लान आउट-ले में रूरल डवलपमेंट हेतु मात्र 162 करोड़ रुपए
दिल्ली सरकार को देहात की बदहाली पर ध्यान देने की जरूरत

नई दिल्ली। यूनिटी फॉर डवलपमेंट संस्था ने दिल्ली सरकार के बजट में ग्रामीण क्षेत्र की लगातार अनदेखी पर चिंता व्यक्त की है। संस्था के अध्यक्ष आनंद राणा ने कहा है कि मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने 22 मार्च मंगलवार को पेश किए बजट में 13 हजार 600 करोड़ के प्लान आउट-ले में से मात्र 1.19 फीसदी यानि 162 करोड़ रुपए की धनराशि ग्रामीण विकास की मद में रखी है। वर्ष 2010-11 के पिछले बजट में यह आंकड़ा 1.46 फीसदी यानि 163 करोड़ रुपए था। पिछले वित्त वर्ष का प्लान आउट-ले 11 हजार 200 करोड़ रुपए का था। इस वर्ष प्लान आउट-ले में 2 हजार 400 करोड़ का इजाफा किया गया है लेकिन निराशाजनक यह है कि ग्रामीण विकास के लिए निर्धारित धनराशि पिछले वित्त वर्ष के मुकाबले कम कर दी गई है। श्री राणा ने आरोप लगाया है कि दिल्ली सरकार लगातार ग्रामीण क्षेत्र की उपेक्षा कर रही है। शहरी क्षेत्र में ढांचागत विकास लगातार हो रहा है जबकि दिल्ली के गांव बदहाली की कगार पर पहुंच चुके हैं। वर्ष 2011-12 के प्लान आउट-ले में शहरी विकास के लिए 1466 करोड़ रुपए की राशि निर्धारित की गई है। वर्ष 2010-11 के प्लान आउट-ले में शहरी विकास के लिए 1305 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे। जाहिर है कि शहरी क्षेत्र के विकास के मुकाबले अगर ग्रामीण क्षेत्र के विकास की धनराशि की तुलना करें तो यह ऊंट के मुंह में जीरा जैसी स्थिति है।
देहात की सड़कें पिछले चार-पांच सालों से टूटी पड़ी हैं, टयूवबैल का कच्चा पानी पेयजल के तौर पर मुहैया कराया जा रहा है, ज्यादातर स्कूलों और डिस्पेंसरियों में सुविधाओं की कमी बनी हुई है। दिल्ली सरकार ने पिछले वित्त वर्ष 2010-11 में परिवहन क्षेत्र को प्लान आउट-ले का 37.71 फीसदी यानि 4224 करोड़ रुपए आवंटित किया था। वर्ष 2011-12 के प्लान आउट-ले में भी परिवहन क्षेत्र को सबसे ज्यादा धनराशि यानि 3348 करोड़ रुपए दी गई है। दु:खद पहलू यह है कि धनराशि शहरी क्षेत्र में ही परिवहन को बढ़ावा देने में खर्च की जा रही है। दिल्ली देहात के सभी डीटीसी बस डिपो में पुरानी खटारा बसें चलाई जा रही हैं। देहात के गांवों से मेट्रो कोसों दूर है। यूनिटी फॉर डवलपमेंट संस्था ने मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से आग्रह किया है कि ग्रामीण क्षेत्र की बदहाली और जरूरत के मद्देनजर प्लान आउट-ले में ग्रामीण विकास की धनराशि में बढ़ोत्तरी की जाए।

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

आलोक तोमर/ गुमशुदा संपादक की तलाश

गुमशुदा संपादक की तलाश

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आलोक तोमर
एक सवाल जो पूछने में भी डर लगता है वह कई लोगों को विचित्र नजर आएगा। सवाल यह है कि हिंदी पत्रकारिता में संपादक नाम की प्रजाति का और खास तौर पर प्रिंट मीडिया में लोप क्यों होता जा रहा है? राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी के बाद दो चार नामों के अलावा आप शुद्व संपादकों की गिनती नहीं कर सकते। बाकी संपादक अशुद्व नहीं हैं लेकिन या तो खुद मालिक हैं या उन्हें अखबार चलाने का इंतजाम भी करना पड़ रहा हैं जिसकी वजह से विचार और विमर्श की जगह अर्थशास्त्र और प्रबंध विज्ञान ले लेते हैं।
 
इसकी एक वजह शायद यह है कि अखबार, आप माने या न माने, असल में उपभोक्ता वस्तुओं में शामिल हो गया है। लोकतंत्र का चौथा, पांचवा, छठवां खंभा पत्रकारिता को सिर्फ आंदोलनों और शोक सभाओं में कहा जाता है। वरना अखबार चलाने वाली संस्थाओं को भी प्रतियोगिता से ले कर बाजार में अपने आपको स्थापित करने और बनाए रखने की चिंता होती है और वह चिंता नाजायज नहीं है।
 
इसके अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि जब से अखबारों को दिन रात बढ़ते टीवी चैनलों से मुकाबला करना पड़ रहा है और धंधे में दृश्य जीतता है तब से संपादक और अखबार के व्यावसायिक संरक्षक की भूमिका मिला दी गई है। यही वजह है कि ज्यादातर संपादक जब मुख्यमंत्रियों और उद्योगपतियों से मिलते हैं तो खबर- समाचार के अलावा विज्ञापनों और प्रायोजनों की भी बात कर लेते हैं। कई समाचार पत्र समूह हैं जिनके सहायक उद्योग भी हैं। इस सिलसिले में सबसे बड़ा उदाहरण इंडियन एक्सप्रेस समूह के संस्थापक रामनाथ गोयनका का दिया जा सकता है जिन्होंने अखबार चलाए रखने के लिए एक ऐसा फार्मूले का अविष्कार किया कि उसे बाद में कई अखबार मालिकों ने अपनाया।
 
रामनाथ गोयनका ने चेन्नई से शुरू कर के कोलकाता तक पूरे देश में संपत्तियां खरीदी। जहां मौका मिलता था और सौदा जमता था, रामनाथ जी जमीन या इमारत खरीद लेते थे। इंडियन एक्सप्रेस समूह के शायद ही कोई ऐसे कार्यालय हो जो किराए की भारत में चल रहे हैं। मुंबई के एक्सप्रेस टॉवर्स, दिल्ली की एक्सप्रेस बिल्डिंग और बंगलुरु और चेन्नई की एक्सप्रेस एस्टेट अपने आप में पूरे समूह को बगैर किसी बाहरी मदद के चलाए रखने में कामयाब है। इसीलिए रामनाथ गोयनका प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों से जब चाहा, पंजा लड़ा सके और जन आंदोलनों को समर्थन देने और प्रायोजित करने वाले अकेले अखबार मालिक वे ही थे। एक्सप्रेस समूह को पेड न्यूज के धंधे में भी इसीलिए नहीं पड़ना पड़ा।
 
ऐसे में संपादकों को आजादी मिलती ही है। यह संपादकीय आजादी जरूर उतनी ही होती है जितनी एक सचेत मालिक चाहे। लेकिन समाचार और विचार पर संस्था की नीति के तहत एक सीमा में अपने आप पर निषेध लगा कर संपादक काम करते भी रहे हैं और उन्हें महान संपादकों की श्रेणी में गिना भी जाता रहा है। अब गणेश शंकर विधार्थी, विष्णु पराडकर या माखन लाल चतुर्वेदी का जमाना नहीं है। इनकी तस्वीरों पर मालाएं चढ़ चुकी है। लेकिन जमाना चाकर संपादकों का भी नहीं है। समाचार और विचार के बीच जो संतुलन और पाठक के प्रति जो जिम्मेदारी संपादक शब्द में ही निहित है, उसे निभाए बगैर आप कैसे काम चला सकते हैं? गणेश शंकर विधार्थी, पराडकर और माखन लाल चतुर्वेदी अपने अपने अखबारों के मालिक भी थे। उन्हें अखबार चलाने के लिए चंदा जमा करने से ले कर विज्ञापन, जिन्हें तब इश्तिहार कहा जाता था, का भी इंतजाम करना पड़ता था। लेकिन ये लोग साथ में अंग्रेज सरकार से लड़ भी रहे थे। इनके अखबार हजारों और लाखों में नहीं बिकते थे लेकिन इनका असर गजब का था।
 
भारत के सबसे प्रभावशाली पत्रकारों और संपादको में अगर किसी की गिनती करनी हो तो आसानी से महात्मा गांधी का नाम लिया जा सकता है। जिन्हें यह अटपटा लग रहा हो वे किसी संग्रहालय या पुस्तकालय में जा कर महात्मा गांधी द्वारा संपादित कई अखबार देख सकते हैं। जो अखबार पांच हजार से ज्यादा नहीं छपता हो और जिसमें विज्ञापन होते ही न हो, उसमें लिखा हुआ एक संपादकीय पूरे देश में आंदोलन खड़ा कर दे या चल रहे आंदोलन को रोक दे यह कमाल सिर्फ अखबार का नहीं, संपादक की नैतिक शक्ति का भी होता है। महात्मा गांधी में यह शक्ति थी।
 
अखबार चलाना बच्चों का खेल नहीं हैं। कागज महंगा आता है, स्याही के दाम बढ़ गए हैं, आधुनिकतम ऑफसेट मशीने हवाई जहाज की तरह महंगी हैं, पत्रकारों का बाजार भी अब अपनी सही कीमत मांगता हैं, लेकिन ये सब वे बहाने नहीं हो सकते जिनकी वजह से यह कहा जाए कि आज अखबारों को संपादक नहीं चाहिए। संपादक के सक्रिय और सार्थक हस्तक्षेप के बगैर निकलने वाला अखबार राजपत्र के अलावा कुछ नहीं हो सकता।

अनामी भाषा

अनामी भाषा

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वियतनामी भाषा वियतनाम की राजभाषा है। जब वियतनाम फ्रांस का उपनिवेश था तब इसे अन्नामी (Annamese) कहा जाता था। वियतनाम के ८६% लोगों की यह मातृभाषा है तथा लगभग ३० लाख वियतनामी बोलने वाले यूएसए में रहते हैं। यह आस्ट्रेलियायी-एशियायी परिवार की भाषा है।
वियतनामी भाषा की अधिकांश शब्दराशि चीनी भाषा से ली गयी है। यह वैसे ही है जैसे यूरोपीय भाषाएं लैटिन एवं यूनानी भाषा से शब्द ग्रहण की हैं उसी प्रकार वियतनामी भाषा ने चीनी भाषा से मुख्यत: अमूर्त विचारों को व्यक्त करने वाले शब्द उधार लिये हैं। वियतनामी भाषा पहले चीनी लिपि में ही लिखी जाती थी (परिवर्धित रूप की चीनी लिपि में) किन्तु वर्तमान में वियतनामी लेखन पद्धति में लैटिन वर्णमाला को परिवर्तित (adapt) करके तथा कुछ डायाक्रिटिक्स (diacritics) का प्रयोग करके लिया जाता है।