शनिवार, 7 नवंबर 2015

चट्टानों पर ये मूर्तियाँ किसने बनाई






सैकड़ों साल पहले इन चट्टानों पर ये मूर्तियाँ किसने बनाई



लहरदार पगडंडियां, घने जंगल और घाटियां और संकरी नदियां और सोतों के मनोरम दृश्‍य, अनोखी वनस्‍पतियां और वन्‍य जीवों के आसपास होने का अहसास, और अपनी शहरी जिंदगी की रेलमपेल से भागे हुए जंगल के अभयारण्‍यक। ऐसा ही है उनाकोटि का प्राकृतिक भंडार, जो इतिहास, पुरातत्‍व और धार्मिक खूबियों के रंग, गंध से पर्यटकों को अपनी ओर इशारे से बुलाता है। यह एक औसत ऊंचाई वाली पहाड़ी श्रृंखला है, जो उत्‍तरी त्रिपुरा के हरे-भरे शांत और शीतल वातावरण में स्थित है।
त्रिपुरा की राजधानी से 170 किलोमीटर की दूरी पर स्थित उनाकोटि की पहाड़ी पर हिन्दू देवी-देवताओं की चट्टानों पर उकेरी गई अनगिनत मूर्तियां और शिल्‍प मौजूद हैं। बड़ी-बड़ी चट्टानों पर ये विशाल नक्‍काशियों की तरह दिखते हैं, और ये शिल्‍प छोटे-बड़े आकार में और यहां-वहां चारों तरफ फैले हैं। पौराणिक कथाओं में इसके बारे में दिलचस्प कथा मिलती है, जिसके अनुसार यहां देवी-देवताओं की एक सभा हुई थी। भगवान शिव, बनारस जाते समय यहां रुके थे, तभी से इसका नाम उनाकोटि पड़ा है।
उनाकोटि में चट्टानों पर उकेरे गए नक्‍का‍शी के शिल्‍प और पत्‍थर की मूर्तियां हैं। इन शिल्‍पों का केंद्र शिव और गणेश हैं। 30 फुट ऊंचे शिव की विशालतम छवि खड़ी चट्टान पर उकेरी हुई है, जिसे ‘उनाकोटिस्‍वर काल भैरव’ कहा जाता है। इसके सिर को 10 फीट तक के लंबे बालों के रूप में उकेरा गया है। इसी के पास शेर पर सवार देवी दुर्गा का शिल्‍प चट्टान पर उकेरी हुई है, वहां दूसरी तरफ मकर पर सवार देवी गंगा का शिल्‍प भी है। यहां नंदी बैल की जमीन पर आधी उकेरे हुए शिल्‍प भी हैं।
image (74)शिव के शिल्‍पों से कुछ ही मीटर दूर भगवान गणेश की तीन शानदार मूर्तियां हैं। चार-भुजाओं वाले गणेश की दुर्लभ नक्‍काशी के एक तरफ तीन दांत वाले साराभुजा गणेश और चार दांत वाले अष्‍टभुजा गणेश की दो मूर्तियां स्थित हैं।इसके अलावा तीन आंखों वाला एक शिल्‍प भी है, जिसके बारे में माना जाता है कि वह सूर्य या विष्णु भगवान का है। चतुर्मुख शिवलिंग, नांदी, नरसिम्‍हा, श्रीराम, रावण, हनुमान, और अन्‍य अनेक देवी-देवताओं के शिल्‍प और मूर्तियों यहां हैं। एक किंवदंती है कि अभी भी वहां कोई चट्टानों को उकेर रहा है, इसीलिए इस उनाकोटि-बेल्‍कुम पहाड़ी को देवस्‍थल के रूप में जाना जाता है, आप कहीं से भी, किधर से भी गुजर जाइए आपको शिव या किसी देव की चट्टान पर उकेरी हुई मूर्ति या शिल्‍प मिलेगा। पहाडों से गिरते हुए सुंदर सोते उनाकोटि के तल में एक कुंड को भरते हैं, जिसे ‘’सीता कुंड’’ कहते हैं। इसमें स्‍नान करना पवित्र माना जाता है। हर साल यहां अप्रैल के महीने में ‘अशोकाष्‍टमी मेला’ लगता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु आते हैं और ‘सीता कुंड’ में स्‍नान करते हैं।
इसे एक आदर्श पर्यटन स्‍थल के रूप में विकसित करने के लिए केंद्रीय पर्यटन मंत्री ने 2009-10 में उनाकोटि डेस्टिनेशन डेवलेपमेंट प्रोजेक्‍ट के तहत यहां 5 किलोमीटर के दायरे में पर्यटक सूचना केंद्र, कैफेटेरिया, सार्वजनिक सुविधाएं, प्राकृतिक दृष्‍यों के लिए व्‍यूप्‍वाइंट आदि के निर्माण के लिए 1.13 करोड़ रुपए मंजूर किए हैं। त्रिपुरा पर्यटन विकास के योजना अधिकारियों के अनुसार, यह योजना एएसआई को सौंप दी गई है, और जल्‍दी ही इस पर काम शुरू होने की संभावना है।
माना जाता है कि उनाकोटि पर भारतीय इतिहास के मध्यकाल के पाला-युग के शिव पंथ का प्रभाव है। इस पुरातात्विक महत्‍व के स्‍थल के आसपास तांत्रिक, शक्ति, और हठ योगी जैसे कई अन्य संप्रदायों का प्रभाव भी पाया जाता है। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण (एएसआई) के अनुसार उनाकोटि का काल 8वीं या 9वीं शताब्दी का है। हालांकि, इसके शिल्‍पों के बारे में, उनके समय-काल के बारे अनेक मत हैं।
देखा जाए तो ऐतिहासिक रूप से और उनकोटि की कथाएं अभी भी एएसआई और ऐसी ही अन्‍य संस्‍थाओं से इस पर समन्वित अनुसंधान की मांग कर रही हैं, ताकि भारतीय सभ्‍यता के लुप्‍त अध्‍याय के रहस्‍य को उजागर किया जा सके।
(*सुभाशिष चंद्रा पीआईबी, अगरतला में मीडिया एवं संचार अधिकारी हैं)

पत्थरों से पानी निकालते हैं रितेश आर्य

image_pdfimage_print
29 अक्टूबर, 1915 को अफगानिस्तान में बनी थी आजाद हिन्द सरकार, राजा महेंद्र प्रताप थे पहले राष्ट्रपति

You may use these HTML tags and attributes: <a href="" title=""> <abbr title=""> <acronym title=""> <b> <blockquote cite=""> <cite> <code> <del datetime=""> <em> <i> <q cite=""> <s> <strike> <strong>

सम्बंधित लेख
 

रंग बिरंगे त्यौहार





PICS: ऐसे त्योहार जिनके बारे में आप शायद ही जानते होंगे
Posted by: Neeti Sudha Published: Wednesday, October 8, 2014, 15:24 [IST] Share this on your social network: Facebook Twitter Google+ Comments Mail बेंगलौर। भारत विभिन्न रंगों, त्योहारों, धर्म एवं जातियों का संगम है। यहां लोग सैकड़ों परंपराओं और संस्कृति के साथ मिलकर रहते हैं। सभी संस्कृतियों की अपनी अपनी अलग पहचान और रीति रिवाज होते हैं। ठीक उसी तरह हर राज्य, हर जातियों का भिन्न त्योहार होता है, जिसे पूरे धूमधाम के साथ मनाया जाता है। कई त्योहार काफी लोकप्रिय हैं, जो पूरे देश में मनाया जाता है, जैसे कि होली, दिवाली, दशहरा, ईद आदि। लेकिन कई पर्व ऐसे भी हैं जो किसी विशेष समुदाय द्वारा ही मनाया जाता है। जिसमें सिर्फ स्थानीय लोग ही हिस्सा लेते हैं। लेकिन इन पर्व- त्योहारों का भी अलग जोश और उत्साह होता है। यहां हम आपको ऐसे ही त्योहारों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसकी जानकारी से शायद ही आप कभी रूबरू हुए होगें। तो फिर, बढ़ाइए स्लाइडर और देखिए ऐसे त्योहार जिनके बारे में आप शायद ही जानते होंगे: Auto Play

Read more at: http://hindi.oneindia.com/news/features/see-pics-unknown-festivals-india-324151-pg11.html

सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

अनामी रिपोर्ट-8




 

 

26 अक्टूबर 15

 

1 यहां होती है योनि की पूजा


 

 

असम के गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से मात्र 10 किलोमीटर दूर नीलांचल पहाड़ी पर स्थित है देश का सबसे अधिक शक्तिशाली शक्तिपीट कामाख्या मंदिर है। यह मंदिर देवी कामाख्या को समर्पित है। यह सबसे पुराना शक्तिपी है। जब सती  के  पिता  दक्ष  ने भगवान शंकर को  यज्ञ में अपमानित किया था। जिससे दुःखी होकर सती ने आत्म-दाह कर ली थी। तब भगवान शंकर  ने सती कि  मॄत-देह को उठा कर संहारक नृत्य किया।  जिसमें सती के शरीर के 51 हिस्से अलग-अलग स्थान पर जाकर गिरे। जिसे ही 51 शक्ति पीठ  माना जाता है। लोकमान्यता है कि सती का योनिभाग कामाख्या में गिरा। उसी स्थल पर कामाख्या मन्दिर का निर्माण हुआ। मंदिर के गर्भगृह मेंयोनि के  आकार का एक कुंड  है जिसमे से निरंतर जल निकलता रहता है। इसे  योनिकुंड  कहा जाता है। लाल कपडे व फूलो से योनिकुंड ढका रहता है। यहां केवल योनि की पूजा होती है, और तमाम तांत्रिक अघोरी और सिद्धी हासिल करने वाले हजारों सिद्धि इसी मंदिर में योनि सिद्दि के बूते ही तंत्र मंत्र की दीक्षा में पारंगत होते है।


कामाख्या मंदिर का योनिमूर्ति











2 नाटक ही जीवन है

बिहार के पटना से मात्र एक सौ किलोमीटर दूर बाढ़ जिले के पंडारक गांव में नाटक ही जीवन है। नाटक की परंपरा सौ साल से भी ज्यादा पुरानी है। 1922 से ही नाटकों की शुरुआत बांस-बल्ले के अस्थाई मंच पर हुआ था। यहां पर अब दो स्थायी मंच हैं। यहां के सैकड़ों कलाकारों की धूम पटना समेत पूरे बिहार में है। नुक्कड नाटक की शुरूआत का श्रेय इसी गांव को जाता है। पंडारक के रंगकर्मी अजय कुमार के अनुसार मंचन की शुरुआत 1912 में स्वतंत्रता सेनानी चौधरी राम प्रसाद शर्मा ने की थीउन्होंने गांव और उसके आस-पास के इलाके में देशभक्ति की जन-जागृति की अलख जगाने के लिए नाटक का माध्यम चुना।
नाटकों के लिए मशहूर गांव की ख्याति को सुनकर मशहूर अभिनेता पृथ्वीराज कपूर यहां दलबल के साथ एक सप्ताह तक रहे और कलाकारों के संग कई नाटकों का मंचन किया था। इस उपलब्धि पर पूरा गांव आज भी नाज करता है । यहां के दर्शक ग्रामीमों को भी नाटकों के अभिनय संवाद की समझ चकित कर देती है। नाटकों के प्रति ग्रामीणों की दीवानगी ही संजीवनी है।यहां के कलाकारों की सबसे बड़ी देन नुक्कड नाटक है। साधनहीन कलाकारों ने मंच के बगैर ही गांव की गली मोहल्लें में यहां वहां जहां तहां नुक्कडों पर नाटक करने लगे। लोगों के बीच नुक्कड पर नाटकों की शुरूआत की। जिसे नाट्य समीक्षकों ने इसे स्वीकारा और सराहा। कई मंडली के कलाकार एक साल में लगभग 250 से ज्यादा नाटक और 500 से भी ज्यादा नुक्कड नाटक प्रस्तुत करते है.।




3
जारवा आदिवासी

आधुनिक जीवन में लगातार हो  रहे बदलावों के बावजूद अंडमान निकोबार के जनजातियों की संख्या लगातार सिकुड रही है। बुनियादी जरूरतों की कमी के चलते अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के ज्यादातर आदिवासी मुख्य धारा में नहीं है। अलग-अलग दुर्गम टापुओं के विरान जंगलों में समूह रहने वाली अन्य जनजातियां भी घट रही है। जारवा आदिवासियों की कुल तादात अब केवल 400 से बी कम रह गयी है। एक अन्य टापू पर रहने वाले ग्रेट अंडमानी जनजाति के आदिवासियों की तादाद तो एक सौ से भी कम रह गयी है। दो दशक पहले यानी 1990-95 तक ये लोग पूरी तरह निर्वस्त्र रहते थे। हालांकि इन लोगों ने थोड़े-बहुत कपडे़ पहनने अथवा पत्ते लपेटने शुरू कर दिया। इनकी हालात आज भी भगवान भरोसे ही है।

4 दापा प्रथा
प्राचीन काल में राजस्थान के मीणा समुदाय में विवाह के लिए कन्याओं की खरीद बिक्री की जाती थी। विवाह से पहले कन्या का मूल्य लेने की परंपरा सर्वमान्य थी।  जिसे दापा या चारी कहा जाता था। कमजोर आर्थिक स्थिति वाले माँ-बाप रूपये लेकर अपनी कन्या का विवाह कर देते थे। उस समय कन्या को बोझ नहीं समझा जाता था । दक्षिण राजस्थान में यह कन्या-विक्रय का कार्य दापा व दक्षिण-पूर्व राजस्थान में चारी के नाम से जाना जाता था । परंतु अब में शिक्षा एवं दहेज़ के कारण मीणा जाति में ये दोनों प्रथाएं कम हो गयी हैं। अलबत्ता लड़कियों की तादाद कम होने के चलते छिपे तौर पर आज भी दापा का दबदबा है. जरूरतमंद लोग पैसा देकर आज भी लड़कियों को खऱीदकर शादी के लिए घर में लाते है। लोग  या


5 धराडी प्रथा

राजस्थान में मीणा समुदाय भी आरंभ में प्रकृति और प्र्यावरण से काफी समीप था। ये सदियों से  पेड़-पौधों को अपना कुल वृक्ष एवं अपना आराध्य मानकर पूजा करते थे| मीणा आदिवासी कबीलों की अनोंखी आदिम परम्परा धराडी प्रथा है।

 


धराड़ी यानी पृथ्वी की रक्षा करने की रीति नीति। आदिम काल से आदिम कबीलों की पालनहार पृथ्वी रही है| उसके साथ आदिवासी कबीलों का नाता मां बेटा सा है। वे प्रकृति में अपनी मात्रदेवी का निवास मानकर उसकी आराधना और संरक्षण करते रहे है। प्रकृति का आदिवासियों से यह नाता ही धराड़ी प्रथा है।  






6 मुर्गा मार लड़ाई


(


"मुर्गा मार लडाई" देखने में बहुत रोमांचक सा है। गांव कस्बों में अभी भी यह मनोरंजन का साधन है । खासकर  झारखंड के ज्यादातर शहरी बाजारों और मेलों में "मुर्गा मार लडाई" का आयोजन होता है।  कई इलाकों में मुर्गामार प्रतियोगिता होती है। ल़डने के लिए मुर्गा को खास तौर से प्रशिक्षित किया जाता है। उसके खान-पान पर भी विशेष ध्यान दिया जाता है। झारखंड के लोहरदगा, गुमला, पूर्वी सिंहभूम, पश्चिमी सिंहभूम, सिमडेगा कोडरमा, लातेहार चतरा रामगढ, धुर्वा सहित कई जिलों में इस ल़डाई को आदिवासियों की संस्कृति से जुड़ा है। मुर्गा मार ल़डाई के लिए खास मुर्गा बाजार लगाया जाता है। इतिहास में मुर्गा मार ल़डाई की कोई जानकारी नहीं है,  लेकिन आदिवासी समाज में मुर्गा मार ल़डाई कई पीढि़यों से मनोरंजन का साधन बना हुआ है। इस मुर्गामार युद्ध के चलते हर साल लाखों मुर्गे  मनोरंजन के नाम पर बेमौत मारे जाते है।


 

 

,


7 मंदिरों का शहर इचाक

झारखंड के दूमका जिले में मलूटी गांव जैसा ही हजारीबाग से मात्र 20 किलोमीटर दूर एक गांव है इचाक। इसे मंदिरों का शहर कहा जाता है। 200  से भी अधिक वर्षों तक इस क्षेत्र पर शासन करने वाले सिंह परिवार ने इचाक गांव में अनगिनत मंदिरों का निर्माण कराया। बाद में इचाक से हटकर रामगढ़ में अपनी राजधानी स्थापित  किया। एक समय इचाक में करीब 174 मंदिर थे। देखरेख के भाव में ज्यादातर मंदिर खंडहर से हो गए है।
शायद जल्दी 18 वीं सदी के बारे में मंदिर की इमारत वास्तुकला के लिए उनके शानदार योगदान के सबूत हैं। मंदिरों की शैली नगारा और मस्जिद गुबदों पर मुगल प्रभाव प्रकट होता है।  
  











 सीता, राम और लक्ष्मण  की संमरमरी मूर्ति







नीचे आम जनता और सरकार की ओर से सूना और किसी का ध्यान नहीं जो झूठ कई मंदिरों में से केवल कुछ की तस्वीरें हैं:



इचाक का विख्यात 'सूर्य मंदिर'




महादेव मंदिर

भैरव मंदिर

महिमा मंडित महादेव मंदिर


भैरव मंदिर में एक कुत्ते पर बैठे भगवान भैरव


इराक का प्राचीन भैरव मंदिर


महादेव मंदिर



भगवती मंदिर परिसर


मस्जिद शैली  में भगवती मंदिर परिसर का एक मंदिर है


एक अज्ञात प्राचीन मंदिर खंडहर हाल में है।



कई टैंकों में से रानी तालाब  



एक मंदिर जिसे ब्रिटिश काल के डीसी कार्यालय बना दिया गया ।

 

8   केले के पेड़ से शादी :
भारत में कन्याओं के मांगलिक दोष को सबसे बड़ा दोष माना जाता है। अगर किसी व्‍यक्ति या लड़की को यह दोष होता है तो उसकी शादी में आम तौर पर बड़ी दिक्कते आती है. वैधव्य से बचाने के ले मांगलिक (मंगली और मंगला)दुल्हा दुल्हन की खओज की जाती है। माना जाता है कि जो मांग्लिक नहीं होगा तो मंगल के प्रकोप से आसामयिक मर जाएगा। इसके निवारण के लिए बहुतसे कठिन उपाय किए और कराए जाते है, मगर लड़के को पहले केले के पेड़ से शादी  कराई जाती , र लड़की को आमतौर पर कुता या किसी पखु से ब्याहा जाका है। ताकि उसके ऊपर से मांगलिक दोष खत्म हो जाए। आमतौर पर लोक मान्यत्ता है कि दोष को दूर करने का यह सबसे अच्‍छा तरीका है।