अनामी शरण बबल
दशरत मांझी के बारे में बहुत कुछ सुना था, मगर कभी भी इस माउन्टेन मैन को देखने या मिलने का मौका नहीं मिला था। बिहार के गया से मात्र 60 किलोमीटर दूर देव औरंगाबाद में रहने के बाद भी बोधगया राजगीर नालंदा या दशरथ मांझी के बेमिशाल कारनामे को नहीं देखा था। करीब 10-11 साल हो गए होंगे (एकदम ठीक ठीक साल और घटना भी याद नहीं ) एक दिन मैं जनपथ के धरना स्थल की तऱफ से गुजर रहा था ( यों भी धरनास्थल के आस पास से गुजरते हुए मैं एक एक बोर्ड और पोस्टर पर नजर डालकर ही बढ़ता था) कि किसी ने बताया कि दशरथ मांझी भी बैठे है। मांझी का नाम सुनते ही एकाएक मेरा मन चहक उठा और पूरे उत्साह के साथ मैं बेताब सा उनको खोजने लगा। पास में जाकर देखा तो नाटा कद और झुर्रियों से भरे चेहरे पर एक गजब तेज सा अनुभव हुआ। वे किसी धरने के समर्थन मे आए थे। मै उनके निकट पहुंचते ही पांव पर मत्था टेका और दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में लेकर सबसे पहले चूमा। बहुत देर तक उनकी हथेलियों को अपने हाथों में लेकर थामे रखा। उम्र के साथ कमजोर और झुर्रीदार हो गए थे हाथ। मेरे उतावलेपन को कुछ मिनटों तक तो वे सहते या झेलते रहे, फिर ठठाकर हंस पड़े। हंसते हुए ही पूछा क्या देख रहे हो बाबू ? मैं भी संयमित होकर तब तक सहज हो गया था, मैंने कहा कि पहाड़ को भी दो फाड़ कर देने वाले इन हथेलियों की ताकत और गरमी को महसूसना चाहता हूं। बडे ही निर्मल भाव से वे फिर हंस पड़े, और मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए अपना वात्सल्य जाहिर किया। कुछ पल के लिए मैं भी भूल सा बैठा कि एक पत्रकार हूं और उस समय मेरी उम्र भी कोई 36- 37 की रही होगी। मैं आधुनिक जमाने में मजनू फरहाद को जीवित अपने सामने बैठा देख रहा था यों कहे कि महसूस कर रहा था। थोड़ी देर के बाद मैंने बताया कि मैं भी औरगाबाद जिले में देव नामक जगह का रहने वाली हूं ,तो वे एकदम घरेलू से हो गए। घर परिवार का हाल चाल पूछा। धरने पर बैठे समस्त लोगों से क्षमा मांगते हुए उनको लेकर मैं जंतर मंतर धरना स्थल के साउथ इंडियन डोसा दुकान की तरफ चला। करीब एक घंटे तक मैं उनके साथ रहा और साथ में ही हम दोंनों ने ड़ोसा खाया और चाय पी। मैंने उनको एक दिन के लिए अपने घर चलने का आग्रह किया, जिसे वे फिर कभी आने का वादा कर मेरा फोन नंबर और घर का पता लिया। हालांकि वे तो नहीं मेरे घर कभी नहीं आ सके, मगर दशरथ मांझी के रिश्ते में कोई प्रमोटी आइएएस भाई के बेटे से फोन पर बात हुई और जंतर मंतर पर हमलोग की मुलाकात भी हुई। लड़के का या इनके प्रमोटी आइएएस भाई के बारे में भी कोई याद नहीं. है, मगर हां इतना याद हैं कि वे कभी हजारीबाग में आयकर आयुक्त रहे थे। लड़का दिल्ली में परीक्षा की तैयारी कर रहा था, मगर उसके मन में अपने ताउ दशरथ मांझी को लेकर एक सम्मान और गौरव का अहसास सा था। मैं भी दशरथ मांझी को लगभग भूल सा गया था, कि एक दिन किसी दिन इनके देहांत की खबर किसी टीवी चैनल के टीकर में चलते हुए देखा। खबर देखते ही मैं गया के बेहतरीन छायाकार और पत्रकार प्यासा रूपक को फोन लगाकर पूछा तो रुपक खुद दशरथ मांझी की मौत को लेकर अनजान निकला। लगातार 22 साल तक पहाड़ को तोड़ते हुए पहाड़ की छाती को चीर देने वाले इस अदम्य साहसी और प्यार की उर्जा से भरपूर मेहनती दशरथ मांझी की गुमनाम मौत पर मन आहत सा हुआ।
अपनी मौत के कई सालों के बाद स्वर्गीय दशरथ मांझी एक बार फिर सुर्खियों में है, क्योंकि इस बार सत्यमेव जयते धारावाहिक के लिए अभिनेता आमिर खान ने इस बार दशरथ मांझी को अपना हीरो माना और चुना है। अमिर के बहाने लोग एक बार फिर माउंटन मैन को याद कर रहे है । लोग यह जानकर दांतो तले अपनी अंगूली दबा रहे है कि 22 साल तक लगातार मेहनत करके क्या एक आदमी ने एक पहाड़ को काट डाला था। जिससे मेन सड़क तक जाने वाली 45 किलोमीटर की दूरी को केवल सात किलोमीटर का कर दिखाया । सरकार इस काम को असंभव मान कर हार गयी थी। और अगर कभी सड़क बनती भी तो कई सौ करोड़ की लागत के बाद भी क्या सड़क बन जाती., जिसे एक 24 साल के मजदूर ने पूरी जवानी झोंककर पहाड़ को परास्त कर दिया। प्यार के इस नायाब हीरो को मेरा सलाम । आज दशरथ मांझी भले ही ना हो मगर मेरे जीवन का वह पल अनमोल पल है और आज भी मैं खुद को गौरव सा महसूस रहा हूं कि मैं कभी ना टायर्ड होने वाले इस माउण्टन मैन से मिला था। अपनी पत्नी से बेपनाह मुहब्बत करने वाले दशरथ मांझी अपनी पत्नी से भी ज्यादा प्यार अपने गांव समाज और अपने लोगों से करते थे. मेरे मन में अब दशरथ मांझी से परास्त हो जाने वाले पराजित पहाड़ को देखने की ललक जाग गयी है। शायद उनके गाव में कभी जाकर पराजित पहाड़ियों को ठेंगा दिखाकर ही उनकी समाधि पर माथा टेकना ही उचित होगा। देखता हूं कि कब समाधि स्थल पर मेरा मत्था टेकना संभव होता है ?