शनिवार, 30 अगस्त 2014

नटवर सिंह से एक अचानक मुलाकात








अनामी शरण बबल

भरतपुर राजस्थान के शाही घराने के कुंवर और पूर्व केंद्रीय मंत्री नटवर सिंह आजकल फिर सुर्खियों में है। काबिल और अपनी बात को सलीके से रखने वाले नटवर सिंह अपनी किताब को लेकर विवादों में है। , क्योंकि उन्होनें कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने बौना साबित कर दिया। नटवर जी की इस नटलीला के आगे कांग्रेसियों नें हंगामा खड़ा कर दिया। हालांकि गरमागरम माहौल के दौरान मैं दिल्ली से बाहर था, लिहाजा चाहकर भी नटवर के संग अपनी एक मधुर यादों को लिख नहीं पाया था। दिल्ली वापस आते ही मेरे मन में नटवर सिंह के उपर कुछ लिखने का मन उताबला सा हो गया।
बात 2006 सितम्बर की है। मैं क्नॉट प्लेस के रीगल और रिवोली सिनेमाघर के बीच स्थित खादी की दुकान के पास से गुजर ही रहा था कि एकाएक देखा कि बेतरतीब भीड़ और आपा धापी के बीच एकदम सामान्य  और सहज चाल के साथ पूर्व केंद्रीय मंत्री नटवर सिंह भी इसी भीड़ में शामिल चले जा रहे हैं। सच यही है कि इससे पहले नटवर सिंह को आमने सामने कभी नहीं नहीं देखा था पर पिछले 15-17 साल के दौरान इनकी तस्वीर को हजारों दफा देखा था, और खबरिया चैनलों के चलते भी नटवर सिंह को पहचानने में कोई देर ना हुई। भीड़ में एकदम सामान्य से लाव लश्कर के बिना अकेले जा रहे थे। इनको देखते ही मेरे पांव ठिठक से गए। मैं यह तय नहीं कर पा रहा था कि इस मौके पर एकदम सामान्य से प्रतीत हो रहे नटवर से कुछ नटखटपन किया जाए या इनको यूं ही गुजर जाने दिया जाए ? एक पस की दुविधा को मात देते हुए मैंने तय किया कि नहीं इस तरह के मौके कभी कभार ही आते हैं। मैं पीछे से अपनी रफ्तार को तेज किया, और अगले ही पल मैं नटवर सिंह के सामने था। हाथ जोड़कर नमस्कार करते हुए अपना परिचय दिया। राष्ट्रीय सहारा और अमर उजाला के नाम को उपेक्षित करते हुए उन्होने मुझे देख एक मोहक मुस्कान बिखेर दी, और मेरे हाथ को अपने हाथों में लेते हुए पूछा कि क्या आप फुर्सत में है ? मैं थोड़ा और सहज होते हुए जी कहा, तो मेरे हाथ को पकड़कर आगे बढते हुए कहा फिर आइए मेरे साथ। हालांकि मैं उनके साथ साथ हो तो लिया पर यह अंदाज नहीं लगा पा रहा था कि यह सफर कहां तक की है।  रिवोली सिनेमाघर से आगे बढ़ते ही वे मोहन सिंह कॉफी हाउस वाली बिल्डिंग में घुस गए। तीन मंजिल तक दनदनाते हुए सीढियों पर चढ़ने के बाद वे मेरे साथ कॉफी होम में आ गए थे। मेरे को अपने साथ लेते हुए वे किनारे की एक टेबल कुर्सी पर विराजमान हो गए। इस बीच कॉफी होम में दर्जनों लोगों ने पास आ आ कर तो दूर से ही हाथ उठाकर इनको सलामी ठोकी। जिससे यह तो लग ही गया कि वे इस कॉफी हाउस के पुराने दीवानों में से एक है। उनके बैठते ही दो वेटर एक ही साथ करीब आया और पानी ग्लास रखने के बाद  आर्डर की प्रतीक्षा में खड़ा हो गया।
जान पहिचान के बगैर भी हमलोग मूक संवाद और भावों के जरिए ही खासे परिचित से होकर पूरी तरह सहज हो गए थे। एक बार फिर मेरी तरफ मुखातिब होकर उन्होने कहा कि यह बंदा तो बिना आदेश लिए जाएगा नहीं। एक मेजबान की तरह पुरी सौम्यता के साथ पूछा कि आप क्या खाएंगे यह बताइए ताकि इसको तो रूखसत किया जाए। उम्र दराज और शाही नटवर सिंह की इस नम्रता और सादगी पर तो मैं कुर्बान सा ही हो गया। मुझे लगा कि यह आदमी कितना शालीन और सरल है। इनके सामने तो दंभ और अभिमान के पहाड़ भी शर्मसार हो जाए। इनकी सरलता और सादगी के सामने तो मैं भी संकोची सा हो गया। मैं क्या बोलूं, यह तय नहीं कर पा रहा था। मेरे संकोच को पढ़ते हुए वे मुस्कुरा उठे।, फिर एक बार मेरे हाथ को फिर से पकड़ते हुए कहा क्षमा करेंगे और अपना नाम एक बार फिर से जरा बताइए।  आपके नाम को मैं याद नहीं कर पाया। मैं तब तक संभल चुका था और सहज होकर कहा अनामी शरण बबल। मेरे नाम को सुनते ही उन्होने नाम को दो तीन बार दोहराया। फिर कहा, अरे वाह यह नाम तो बहुत खूबसूरत है अनामी। मगर एकाएक सचेत होते होते हुए वे बोल पड़े कि नाम पर तो अभी गुफ्तगू करेंगे पर पहले यह बताएं कि आप क्या खाएंगे। तब मैने भी चुटकी ली और कहा कि सर मैं आपके साथ एक समान होने का दावा तो कर ही नहीं सकता पर आज मैं वहीं खाउंगा, जो आप खाएंगे।, ताकि मैं अपने दोस्तों को बता सकूं कि एक मामले में मैं नटवर सिंह के समान था। मेरी बात सुनकर वे खिलखिला पड़े। अपने उपर काबू करते हुए उन्होने वेटर को कई प्रकारके व्यजंन लाने को कहकर उसको ऱूखसत किया।
 उसके जाने के साथ ही वे एक बार फिर मेरे नाम अनामी प्रसंग पर आ गए। एकदम अलग तरह का नाम है अनामी .. शरण।   अनामी में तो बड़ा भावनात्मक तरंग है। फिर कौतुहल दर्शाते हुए पूछा कि अनामी शरण तो ठीक है , इसमें गंभीरता लालित्य और सार्थकता है, मगर बबल में तो कुछ भी नहीं है। यह तो महज बबलू डबलू मोनू सोनू सा सामान्य लग रहा है। बबल क्या कोई जाति है ? अपने नाम के इस  ऑपरेशन से मैं तंग सा हो गया था, पर नटवर जी मेरे नाम को लेकर नटलीला करते रहे। तब बताना ही पड़ा कि शरण के बाद तो मेरी जाति सूचक उपनाम सिन्हा (कायस्थ्य) है, मगर बिहार में जाति को लेकर अगाध प्रेम के खिलाफ मैने सिन्हा को काटकर उपनाम बबलू को थोड़ा संशोधित करते हुए बबल बना जोड़ लिया। मेरे स्पष्टीकरण के बाद उनकी जिज्ञासा शांत हो गयी।


अपने नाम की अनामी लीला से बाहर आते ही नटवर जी से बहुत सारे सवाल पूछे। राजनीति गांधी परिवार कांग्रेस राजस्थान और आजादी के बाद भारत के विकास को लेकर दर्जनों सवालों के बीच नटवर जी मुस्कान बिखेरते हुए अपनी बात कही।  बहुत सारे विवादास्पद मुद्दो विवादों को हवा दी और एक साथ खाते पीते (दारू नहीं केवल पानी और शीतलपेय) लगभग डेढ़ घंटे तक एक दूसरे में खोए रहे। इस बीच बगैर पूछे तीन बार कॉफी आ गयी थी। प्यार अपनापन स्नेह, सहजता हास्य ठहाको और मजाक के बीच हम दोनों के बीच उम्र और तमाम असमानताओं का कोई मतलब नहीं रह गया था। जब हमलोग एक दूसरे से पूरी तरह संतुष्ट होकर उठने लगे तब जाकर कहीं नटवर जी मुझसे मेरा मोबाइल नंबर मांगा, और कहा कि मेरी यह बातचीत एक पत्रकार से नहीं हुई है। फिर भी मेरी शालीनता को ध्यान में रखते हुए आप कुछ भी लिखने के लिए आजाद है।
 नमस्कार करके जब मैं विदा हुआ तो मेरे मन में इस सहज आदमी को लेकर आदर भाव था कि बगैर जान पहचान के एकाएक यह आदमी किसी का कितना अपना सा हो जाता है। इस एकाएक मुलाकात के कई साल बीत चुके हैं.। जब कभी भी लानत मलानत या अपनी उपेक्षा से बिचलित होकर भरतपुर नरेश नटवर सिंह जी का एकाएक बौखला उठते हैं तो मैं इनकी पीड़ा में शामिल सा पाता हूं,. और यह तय नहीं कर पाता कि इतना सहज सरल शाही परिवार के मुखिया के ह्रदय के भीतर कितनी आग है, बौखलाहट और असंतोष है। जिसका अंदाजा कांग्रेस और इसके युवराज कभी लगा नहीं पाए।   

रविवार, 24 अगस्त 2014

मीडिया शब्दावली बनाम पत्रकरिता कोष

 

 

 

 मुद्रित, इलेक्ट्रानिक तथा न्यू मीडिया

 लगभग आठ हजार शब्दों का बनेगा पत्रकरिता कोष


मुद्रित, इलेक्ट्रानिक तथा न्यू मीडिया के लगभग आठ हजार शब्दों का बनेगा पत्रकरिता कोष

वर्धा. पत्रकारिता एवं मुद्रण शब्दावली अद्यतन के तहत वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार के अंतर्गत महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में आयोजित बैठक में मुद्रित, इलेक्ट्रानिक तथा न्यू मीडिया के लगभग दो हजार शब्दों को शामिल करते हुए अंगरेजी शब्दों का हिंदी विकल्प तैयार किया गया। 

वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग में सहायक वैज्ञानिक अधिकारी चकप्रम बिनोदनी देवी की देखरेख में देशभर से आए मीडियाविद, पत्रकार, विद्वान  तथा पत्रकारिता विभाग के अध्यापकों ने इस कोश को अंतिम रूप प्रदान किया। नया कोश लगभग आठ हजार शब्दों का बनेगा। न्यू मीडिया में जो नए शब्द आए हैं उनके  हिंदी में शब्द ढूंढना एक चुनौतीभरा कार्य था। 
माध्यमों में आए अंगरेजी शब्दों को हिंदी शब्द प्रदान करते समय परस्पर सहयोग की भावना रही। बैठक में शामिल विद्वानों  का मानना है कि यह कोश मीडिया क्षेत्र में काम करनेवाले लोगों के साथ-साथ पत्रकारिता के अध्यापक एवं शोधार्थियों को दिशा-निर्देश देने के लिए भी लाभप्रद होगा। शब्दों का केवल शब्दानुवाद न कर उसके व्यावहारिक पक्ष को ध्यान में रखते हुए कोश में शामिल किया गया है।  कोश में शब्दों की जटिलता को कम करने की कोशिश की गई है। अंगरेजी से आएं प्रत्येक शब्दों पर गहन विचार-विमर्श के बाद ही उसे सुयोग्य हिंदी शब्द का पर्याय दिया गया है। शब्द के चुनाव इस प्रकार किए गए हैं जिससे पाठकों में रोचकता भी बनी रहे।
इस कोश में पूर्व में प्रकाशित कोश को संशोधित किया गया है। आज के संदर्भ की प्रासंगिकता को देखते हुए उन शब्दों को नए शब्द प्रदान किए गए। आयोग ने करीब पैंतीस साल पहले पत्रकारिता कोश का निर्माण किया था।  पहले के कुछ शब्द ऐसे हैं जो मीडिया बिरादरी से बेदखल हुए हैं या वैसे शब्द जो अपनी उपयोगिता खो चुके हैं, परंतु मीडिया के इतिहास के शोधार्थी एवं जानकारी के लिए उन शब्दों की भी आवश्यकता है।
उन्हें आज की प्रासंगिकता के साथ जोड़ते हुए नया शब्द दिया गया। वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग में सहायक वैज्ञानिक अधिकारी चकप्रम बिनोदिनी देवी ने बताया कि शब्दों को अर्थपूर्ण, सहज और बोधगम्य बनाने और प्रचलित करने के लिए आयोग का यह गंभीर प्रयास है। तीन दशकों के बाद आयोग  ने पत्रकारिता कोश को नया स्वरूप  देने का कार्य शुरू  किया है और इसका प्रारंभ महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय में हो रहा है। यह काम हिंदी के बाद मराठी में भी किया जाएगा और वह शब्दकोश अंग्रेजी-हिंदी-मराठी इस प्रारूप  में बनेगा।
इस बैठक में विश्वविद्यालय के संचार एवं मीडिया अध्ययन केंद्र के निदेशक प्रो. अनिल कुमार राय, आकाशवाणी भोपाल के पूर्व निदेशक डा. महावीर सिंह, महाराजा अग्रसेन महाविद्यालय, नई दिल्ली के सहायक प्रोफेसर सुधीर रीन्टन, इंद्रप्रस्थ विश्व संवाद केंद्र नई दिल्ली के सीईओ अनिल गुप्ता, आईआईएमसी, नई दिल्ली के पूर्व पाठ्यक्रम निदेशक प्रो. प्रदीप कुमार माथुर, ज्ञानवानी वाराणसी के निदेशक बी.बी. शर्मा,  वरिष्ठ  पत्रकार अनामी शरण बबल, भारतीय भाषा संस्कृति संस्थान गुजरात विश्वविद्यालय अहमदाबाद के निदेशक डा. किशोर वासवानी, राष्ट्रसंत तुकड़ोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग के सहायक प्रोफेसर डा. धर्मेश धवनकर, पत्रकार प्रकाश चंद्रायन भाग ले रहे हैं।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

अक्षर पर्व कहे या शब्दों का उत्सव उल्लास







अनामी शरण बबल

1.


वर्धा आने का एक बार फिर मौका मिला, जब प्रो, अनिल ने फोन करके एक अगस्त से 12 अगस्त 2014 तक वर्धा में आने का न्यौता दिया। इस बार आयोजन था पत्रकारिता एंव मुद्रण शब्दावली के निर्माण का था, जिसमें एक विशेषज्ञ के रूप में सलाह देने और शब्दावली के निर्माण को बेहतर बनाना था. भला इस काबिल मैं कहां कि पत्रकारिता के इस महत्वपूर्ण कार्य में कोई योगदान कर सकू। एक बार मेरा मन अनिल जी के प्रति मोहित हो गया और उनके विश्वास पर मन झुक सा गया. मगर मैं इस कार्य को कर सकूंगा, इसको लेकर आशंकित था। इसी शंका के चलते मेरा मन रोजाना दुविधा में रहा कि क्या करूं। और दुविधा के चलते ही मैं वर्धा जाने को लेकर आश्वस्त नहीं था। रोजाना मन से युद्ध करने के बाद भी वर्धा जाने का साहस बटोर नहीं पा रहा था, और 29 जुलाई तक आरक्षण नहीं कराया था.कि अंत समय में प्रो. अनिल से कोई बहाना गढ़कर ना पहंच पाने के ले क्षमा मांग कर खेद जता दूंगा.। मेरी बेटी और पत्नी भी चकित थी कि वर्धा को लेकर हमेशा त्साहित रहने वाला मैं इस बार जाने को लेकर ठंडा क्यों हूं।
 29 जुलाई को रात में अपना कम्प्यूटर खोला और जीमेल में अनिल जी और शब्दावली आयोग की वैज्ञानिक अधिकारी चक्रम बिनोदिनी देवी के पत्र को देखा. इस बैठक में आ रहे लोगों की सूची को देखा तो मन में वर्धा जाने की लालसा एकाएक तेज हो गयी। प्रो. प्रदीप माथुर यानी आज से 27 साल पहले भारतीय जनसंचार संस्थान में इनके छात्र होने की याद ताजी हो गयी।  प्रो. माथुर के अलावा अहमदाबाद के किशोर वासवानी , भोपाल से महावीर सिंह बनारस से बृजभूषण शर्मा  नागपुर से वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश चंद्रायन जी के अलावा नागपुर विश्वविद्यालय के धर्मेश डावोलकर के साथ दिल्ली से अपने मित्र अनिल गुप्त और अपने घर से एकदम करीब वसुधंरा इनक्लेब में स्थित महाराजा अग्रसेन कॉलेज से से आ रहे सुधीर के नाम को देखकर मन में यकीन हुआ कि मुझे भी वर्धा में होना चाहिए। आनन फानन में रात साढे दस बजे टिकट आरक्षण के जुगाड में लगा और किसी तरह तत्काल सेवा के तहत 30 जुलाई को रात में चलने वाली दक्षिण एक्सप्रेस में टिकट कटवा ही लिया। अगले दिन फटाफटा सारी तैयारी की और 31 जुलाई की रात में वर्धा की पहाडियों पर निर्मित महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के अतिथि घर नागार्जुन सराय  के कमरा नंबर 203 में जा टिका। जहां पर मुझे 12 दिन रूकना था, लिहाजा रात में ही कमरे की साज सज्जा में फेरबदल कर अपने लायक बना डाला।
.. अगले दिन यानी  एक जुलाई को प्रो, अनिल ने शब्दावली की रूपरेखा और इसकी जरूरत पर प्रकाश डाला । जिसके बाद बिनोदिनी ने प्रो. माथुर को करीब 1600 शब्दों का पैकेट थमा दिया। जिसको देखकर प्रो. माथुर ने इसको कार्यरूप देने का कार्यक्रम बनाया. मगर अगले दो दिन तक यह तय नहीं हो पा रहा था कि एक ही टीम में काम करे या दो टीम बनाकर काम किया जाए।  टीमों के चक्कर के गपशप्प, ना नुकूर,विवाद झड़प और गरमा गरमी के बीच में शब्दावली का काम भी होता रहा।.
1980 में प्रकाशित शब्दकोष को 34 साल के बाद संशोधित किया जा रहा था। इस शब्दावली में करीब 8500 मीडिया के तकनीकी शब्दों को शामिल किया जाएगा। मोटे तौर पर  पत्रकारिता के आरंभिक दौर से लेकर मुद्रण विकास में उपयोगी करीब एक हजार शब्दों को लेकर भी मतभेद उभरा।. खासकर प्रो. माथुर इन शब्दों को शब्दकोष से हटाने के पक्ष में थे,, जबकि मैं इनको शब्दकोष में रखने का हिमायती था। मेरा मानना था कि इनको ना रखने का कोई कारण ही नहीं है। मेरा तर्क था कि इल अनुपयोगी हो चुके शब्दों को तो रखना ज्यादा जरूरी है ताकि मीडिया में रूचि रखने वालों को 150 साल के दौरान क्रमिक विकास को कालखंड़ों के अनुसार प्रचलित शब्दों का ज्ञान हो सके।
इस शब्दावली में करीब दो हजार एकदम नए शब्दों को रखा जा रहा है जो खासकर न्यू मीडिया से संबंधित है। ज्यादातर इन  तकनीकी शब्दों से हमलोग

एकदम  अनजान निकले। न्यू मीडिया के शब्दों को लेकर कम हम सबकी पीड़ा को नागपुर से आए एकदम सौम्य नौजवान धर्मेश ने खत्म की।  न्यू मीडिया पर ही शोध करने वाले धर्मेश ने न्यू मीडिया के उहापोह को संभाला और ज्यादातर शब्दों को खासकर परिभाषित किया। जिसके आधार पर टीम के सारे लोग मिलकर उसको सार्थक नामकरण करने या नाम देने की दिक्कत को सरल बना दिया।
एक एक शब्द को लेकर होने वाली माथापच्ची उहापोह दुविधा और किसी शब्द को लेकर सोच रहे सात आठ लोगों के सामूहिक प्रयास का चित्रण करना कठिन है. किसी ने कोई एक शब्द उछाला और लोगों को पंसद आ गया तो इस पर खुश होने या उल्लास का यह सामूहिक पल दुर्लभ सा था। शब्दों के चयन को लेकर टीम के सारे लोग एकदम उदार थे, किसी ने शब्द पर प्रतिवाद कर कोई दूसरा शब्द रखा या किसी ने और सभ्द रखा तो सारे लोगों ने मिलकर सराहा या स्वीकारा या और बेहतर सांचे में कस दिया। शब्दों की इस प्रतियोगिता में किसी को समय फिसलने का हसास ही नहीं हो पाया. रोजाना नाश्ते के बाद नौ बजे से (आधिकारिक समय 10 बजे था) से लेकर दोपहर दो बजे और खाने के बाद तीन बजे से लेकर शाम सात सात बजे समय समापन का समय सांय पांच था) तक शब्दों के इस मेले में अक्षर पर्व सा उल्लास जारी रहता था.। रात को खान के बाद एक घंटे तक पूरे कैंपस की घुमक्कड़ी के बीच भी अक्षर उत्सव का ही माहौल रहता।  यानी टीम के सारे लोग भी शब्दकोष के खुमार से त्रस्त से थे।
शब्दावली बैठक में बिनोदिनी देवी ने पिछली बैठक के संशोधित करीब 700 शब्दों को भी ठीक करने का आग्रह किया जिस पर दो दिवन पूरा समय लगाकर लगभग नया रूप दे दिया गया। मेरे साथ मिलकर अनिल गुप्ता ने शब्दावली के तमाम शब्दों को कंप्यूटर में अंकित करने की कोशिश की. । तभी बिनोदिनी ने 12 दिवसीय बैठक में केवल 1600 शब्दों के शब्दार्थ होने पर चिंतित हो उठी. इन्होने 700 शब्दों का एक  पैकेट थमाकर इसको भी संशोधित करने की जुगत में लग गयी। जिस पर प्रो. माथुप एकदम उखड़ गए.। वे इस पर काम करने को एकदम राजी नहीं थे। वहीं हम सारे लोग दूलरों को काम पर समय जाया करने और कंप्यूटरीकृत करने के बेकार काम पर खासे नाराज थे. मगर तभी महाबीर सिंह साहब और बृजभूषण शर्मा जी ने हालात को शांत करने की पहल की । माहौल इतना खराब हो गया था कि लंच के बाद काम करने की बजाय हम सारे लोग प्रो. अनिल के साथ गांधी बाबा के सेवाधाम और बिनोवा भावे जी के पवनार आश्रम के लिए निकल गए.।
माथुर साहब का गुस्सा भी थम चुका था और हम सारे लोगो ने मिलकर 11 अगस्त को ही काम तमाम करके शब्दावली के काम को तमाम कर दिया . वर्धा की पहाड़ियों पर स्थित विश्वविद्यालय  की खूबसूरती और प्राकृतिक नजारा मन को मोहित कर देता है। केवल एक दिन में अपने दोस्त अशोक मिश्र संपादक बहुबचन के अलावा राजेश यादव के अलावा और किसी से मिल नहीं पाया। हां नजीर बनारसी बाजार में या मेन सड़क पर घूमते घामते कुछ पुराने स्टूडेंट्स से मेल जोल हो गया। हमलोग से मिलने नाटक स्कूल के डीन सुरेश शर्मा जी खुद नागार्जुन सराय आए मगर दो बार उनके दफ्तर में जाकर भी मिल नहीं पाया.। अक्षर उत्सव के समापन के साथ ही मैं और प्रो. प्रदीप माथुर 12 जुलाई को नागपुर से शाम को राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली के लिए रवाना हुए और सुबह सूरज उगने से पहले दिल्ली अपने घर पहुंच गए।  एक दिन तो सोकर अपनी थकान खत्म की और अपनी टीम के 70 साल पार कर चुके सबसे यंग मैन के रूप में विक्यातभोपाल के महावीर सिंह जी और बनारस वाले शर्मा जी को फोन कर सकुशल गर पहुंचने का हाल चाल लिया।  और अब शब्दों के मेला के साक्षी होने का अनुभव दूसरों के साथ शेयर करने में जुट गया हूं। अरे हां इस यात्रा वृतांत में मीडिया स्टूडेंट राकेश कुमार गांधी का उल्लेख ना करना तो एक अपराध सा ही होगा। बिहार जहानाबाद के राकेश के घर में नक्सलियों ने हमला किया था और इसके कई सगे संबंधियों को काट डाला गया था। अपने कमरे में बुलाकर जब इससे पूरी कहानी सुनी तो खांटी मध्यबिहार के औरंगाबादी होने के बाद भी राकेश की पीड़ा से मर्माहत हुआ। राकेश को आदेश देकर ही वापसी का टिकट मंगवाया था, और आने से एक दिन पहले देर रात तक राकेश और इसके एक और दोस्त के साथ बात करता रहा। टिकट का पैसा के साथ पत्रकारिता की दो तीन  किताबों को देकर राकेश गांधी को विदा किया। और इस बार भी मेरे मन में वर्धा की ढेर सारी मनमोहक यादें जुड़ गयी.।  




2

वर्धा, नागपुर में स्थापित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विवि. के प्रति मेरे मन में कई सालों से लगाव था। भारी भरकम अंक के लिए (कु) विख्यात बहुवचन पत्रिका के पाठक होने अलावा वर्धा से दिल्ली में इसको स्थानांतरित होने की खबरों या अफवाहों के चलते भी इस हिन्दी विवि को लेकर मन में काफी उत्सुकता रहती थी. खासकर पुलिसिया नौकरी में रहने की बजाय वर्धा में कुलपति बने विभूति नारायण रॉय के पदस्थापन को लेकर भी मन में रोमांच जागा। वहीं मित्रो में रहे अनिल चमड़िया के प्रोफेसर के रूप में यहां नियुक्त होना और चंद माह में ही बाहर हो जाने की खबरों से लगा कि विवि कैंपस में राजनीति का बाजार गरम है। अनिल चमड़िया के प्रोफेसर बनने के बाद लगा कि खास डिग्री के बिना भी कोई  यहां प्रोफेसर बन सकता है। प्रोफेसर और अधिष्ठाता (डीन) के रूप में काम कर रहे प्रो. अनिल कुमार अंकित मेरे 20 साल पुराने दोस्त है। वे जब दिल्ली में शोधरत्त थे।  उसी समय से जान पहचान थी।. प्रो. अनिल द्वारा पिछले 2013 जनवरी में एक सप्ताह के एक संगोष्ठी में बुलाया तो उस समय मैं अहमदाबाद में था। मेरे छोटे भाई आत्म स्वरूप के बेटे की हालत नाजुक थी और वह एक हादसे में बुरी तरह जख्मी हो गया था।. बुलावे के बाद भी वर्धा जाने का मेरा सपना साकार नहीं हो पाया, मगर मेरा बेटा एकदम सही सलामत घर लौट आया.। इसकी खुशी के आगे वर्धा न जाने का मन में कोई मलाल नहीं था।
तभी प्रो. अनिल जी ने जुलाई 2013 में फोन करके अगस्त में एक सप्ताह के लिए आने का न्यौता दिया, तो मेरा मन खुशियों से भर उठा।  हालांकि कई शहरों के करीब सात आठ मीड़िया संस्थानों और विश्वविद्यालयों में जाकर मीडिया के छात्रों से मिलने और क्लास लेने का मौका मिलता रहा है, मगर दिल्ली से काफी दूर एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में जाने का यह मौका मन को आशंकित भी कर रहा था. इस कारण मैंने यहां के लिए दूसरे ढंग से अपनी तैयारी की और एक पत्रकार को पत्रकार बनने के मामूली टिप्स पर काम किया। पत्रकारिता के एकदम सामान्य बुनियादी जरूरतों पर ही होमवर्क करने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करने का फैसला किया। एक सप्ताह यानी पांच दिन तक मैं यहां के स्टूडेंट्स के साथ जमकर बाते की र सबसे पहले पत्रकार बनने के लिए तैयारी करने को कहा. मेरा मानना है कि सभी छात्रों को पहले पत्रकार बनना चाहिए पत्रकार बनने के बाद ही खबार रेडियो या टेलीविजन में काम करना सरल और संभव हो पेगा। पत्रकार बनन के ले क्या करना चाहिए यही क्लास में मैं फोकस करतका था। पहले दिन से ही मेरा क्लास लंबा चला और यह सिलसिला पूरे सप्ताह तक जारी रहा. मैंने बच्चों को क्या पढ़ाया इसका पत्ता नहीं पर कुछ ठीक ठाक सा ही रहा होगा कि ज्यादातर स्टूडेंट आज भी मेरे साथ फेसबुक पर जुड़ें है।