शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

अक्षर पर्व कहे या शब्दों का उत्सव उल्लास







अनामी शरण बबल

1.


वर्धा आने का एक बार फिर मौका मिला, जब प्रो, अनिल ने फोन करके एक अगस्त से 12 अगस्त 2014 तक वर्धा में आने का न्यौता दिया। इस बार आयोजन था पत्रकारिता एंव मुद्रण शब्दावली के निर्माण का था, जिसमें एक विशेषज्ञ के रूप में सलाह देने और शब्दावली के निर्माण को बेहतर बनाना था. भला इस काबिल मैं कहां कि पत्रकारिता के इस महत्वपूर्ण कार्य में कोई योगदान कर सकू। एक बार मेरा मन अनिल जी के प्रति मोहित हो गया और उनके विश्वास पर मन झुक सा गया. मगर मैं इस कार्य को कर सकूंगा, इसको लेकर आशंकित था। इसी शंका के चलते मेरा मन रोजाना दुविधा में रहा कि क्या करूं। और दुविधा के चलते ही मैं वर्धा जाने को लेकर आश्वस्त नहीं था। रोजाना मन से युद्ध करने के बाद भी वर्धा जाने का साहस बटोर नहीं पा रहा था, और 29 जुलाई तक आरक्षण नहीं कराया था.कि अंत समय में प्रो. अनिल से कोई बहाना गढ़कर ना पहंच पाने के ले क्षमा मांग कर खेद जता दूंगा.। मेरी बेटी और पत्नी भी चकित थी कि वर्धा को लेकर हमेशा त्साहित रहने वाला मैं इस बार जाने को लेकर ठंडा क्यों हूं।
 29 जुलाई को रात में अपना कम्प्यूटर खोला और जीमेल में अनिल जी और शब्दावली आयोग की वैज्ञानिक अधिकारी चक्रम बिनोदिनी देवी के पत्र को देखा. इस बैठक में आ रहे लोगों की सूची को देखा तो मन में वर्धा जाने की लालसा एकाएक तेज हो गयी। प्रो. प्रदीप माथुर यानी आज से 27 साल पहले भारतीय जनसंचार संस्थान में इनके छात्र होने की याद ताजी हो गयी।  प्रो. माथुर के अलावा अहमदाबाद के किशोर वासवानी , भोपाल से महावीर सिंह बनारस से बृजभूषण शर्मा  नागपुर से वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश चंद्रायन जी के अलावा नागपुर विश्वविद्यालय के धर्मेश डावोलकर के साथ दिल्ली से अपने मित्र अनिल गुप्त और अपने घर से एकदम करीब वसुधंरा इनक्लेब में स्थित महाराजा अग्रसेन कॉलेज से से आ रहे सुधीर के नाम को देखकर मन में यकीन हुआ कि मुझे भी वर्धा में होना चाहिए। आनन फानन में रात साढे दस बजे टिकट आरक्षण के जुगाड में लगा और किसी तरह तत्काल सेवा के तहत 30 जुलाई को रात में चलने वाली दक्षिण एक्सप्रेस में टिकट कटवा ही लिया। अगले दिन फटाफटा सारी तैयारी की और 31 जुलाई की रात में वर्धा की पहाडियों पर निर्मित महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के अतिथि घर नागार्जुन सराय  के कमरा नंबर 203 में जा टिका। जहां पर मुझे 12 दिन रूकना था, लिहाजा रात में ही कमरे की साज सज्जा में फेरबदल कर अपने लायक बना डाला।
.. अगले दिन यानी  एक जुलाई को प्रो, अनिल ने शब्दावली की रूपरेखा और इसकी जरूरत पर प्रकाश डाला । जिसके बाद बिनोदिनी ने प्रो. माथुर को करीब 1600 शब्दों का पैकेट थमा दिया। जिसको देखकर प्रो. माथुर ने इसको कार्यरूप देने का कार्यक्रम बनाया. मगर अगले दो दिन तक यह तय नहीं हो पा रहा था कि एक ही टीम में काम करे या दो टीम बनाकर काम किया जाए।  टीमों के चक्कर के गपशप्प, ना नुकूर,विवाद झड़प और गरमा गरमी के बीच में शब्दावली का काम भी होता रहा।.
1980 में प्रकाशित शब्दकोष को 34 साल के बाद संशोधित किया जा रहा था। इस शब्दावली में करीब 8500 मीडिया के तकनीकी शब्दों को शामिल किया जाएगा। मोटे तौर पर  पत्रकारिता के आरंभिक दौर से लेकर मुद्रण विकास में उपयोगी करीब एक हजार शब्दों को लेकर भी मतभेद उभरा।. खासकर प्रो. माथुर इन शब्दों को शब्दकोष से हटाने के पक्ष में थे,, जबकि मैं इनको शब्दकोष में रखने का हिमायती था। मेरा मानना था कि इनको ना रखने का कोई कारण ही नहीं है। मेरा तर्क था कि इल अनुपयोगी हो चुके शब्दों को तो रखना ज्यादा जरूरी है ताकि मीडिया में रूचि रखने वालों को 150 साल के दौरान क्रमिक विकास को कालखंड़ों के अनुसार प्रचलित शब्दों का ज्ञान हो सके।
इस शब्दावली में करीब दो हजार एकदम नए शब्दों को रखा जा रहा है जो खासकर न्यू मीडिया से संबंधित है। ज्यादातर इन  तकनीकी शब्दों से हमलोग

एकदम  अनजान निकले। न्यू मीडिया के शब्दों को लेकर कम हम सबकी पीड़ा को नागपुर से आए एकदम सौम्य नौजवान धर्मेश ने खत्म की।  न्यू मीडिया पर ही शोध करने वाले धर्मेश ने न्यू मीडिया के उहापोह को संभाला और ज्यादातर शब्दों को खासकर परिभाषित किया। जिसके आधार पर टीम के सारे लोग मिलकर उसको सार्थक नामकरण करने या नाम देने की दिक्कत को सरल बना दिया।
एक एक शब्द को लेकर होने वाली माथापच्ची उहापोह दुविधा और किसी शब्द को लेकर सोच रहे सात आठ लोगों के सामूहिक प्रयास का चित्रण करना कठिन है. किसी ने कोई एक शब्द उछाला और लोगों को पंसद आ गया तो इस पर खुश होने या उल्लास का यह सामूहिक पल दुर्लभ सा था। शब्दों के चयन को लेकर टीम के सारे लोग एकदम उदार थे, किसी ने शब्द पर प्रतिवाद कर कोई दूसरा शब्द रखा या किसी ने और सभ्द रखा तो सारे लोगों ने मिलकर सराहा या स्वीकारा या और बेहतर सांचे में कस दिया। शब्दों की इस प्रतियोगिता में किसी को समय फिसलने का हसास ही नहीं हो पाया. रोजाना नाश्ते के बाद नौ बजे से (आधिकारिक समय 10 बजे था) से लेकर दोपहर दो बजे और खाने के बाद तीन बजे से लेकर शाम सात सात बजे समय समापन का समय सांय पांच था) तक शब्दों के इस मेले में अक्षर पर्व सा उल्लास जारी रहता था.। रात को खान के बाद एक घंटे तक पूरे कैंपस की घुमक्कड़ी के बीच भी अक्षर उत्सव का ही माहौल रहता।  यानी टीम के सारे लोग भी शब्दकोष के खुमार से त्रस्त से थे।
शब्दावली बैठक में बिनोदिनी देवी ने पिछली बैठक के संशोधित करीब 700 शब्दों को भी ठीक करने का आग्रह किया जिस पर दो दिवन पूरा समय लगाकर लगभग नया रूप दे दिया गया। मेरे साथ मिलकर अनिल गुप्ता ने शब्दावली के तमाम शब्दों को कंप्यूटर में अंकित करने की कोशिश की. । तभी बिनोदिनी ने 12 दिवसीय बैठक में केवल 1600 शब्दों के शब्दार्थ होने पर चिंतित हो उठी. इन्होने 700 शब्दों का एक  पैकेट थमाकर इसको भी संशोधित करने की जुगत में लग गयी। जिस पर प्रो. माथुप एकदम उखड़ गए.। वे इस पर काम करने को एकदम राजी नहीं थे। वहीं हम सारे लोग दूलरों को काम पर समय जाया करने और कंप्यूटरीकृत करने के बेकार काम पर खासे नाराज थे. मगर तभी महाबीर सिंह साहब और बृजभूषण शर्मा जी ने हालात को शांत करने की पहल की । माहौल इतना खराब हो गया था कि लंच के बाद काम करने की बजाय हम सारे लोग प्रो. अनिल के साथ गांधी बाबा के सेवाधाम और बिनोवा भावे जी के पवनार आश्रम के लिए निकल गए.।
माथुर साहब का गुस्सा भी थम चुका था और हम सारे लोगो ने मिलकर 11 अगस्त को ही काम तमाम करके शब्दावली के काम को तमाम कर दिया . वर्धा की पहाड़ियों पर स्थित विश्वविद्यालय  की खूबसूरती और प्राकृतिक नजारा मन को मोहित कर देता है। केवल एक दिन में अपने दोस्त अशोक मिश्र संपादक बहुबचन के अलावा राजेश यादव के अलावा और किसी से मिल नहीं पाया। हां नजीर बनारसी बाजार में या मेन सड़क पर घूमते घामते कुछ पुराने स्टूडेंट्स से मेल जोल हो गया। हमलोग से मिलने नाटक स्कूल के डीन सुरेश शर्मा जी खुद नागार्जुन सराय आए मगर दो बार उनके दफ्तर में जाकर भी मिल नहीं पाया.। अक्षर उत्सव के समापन के साथ ही मैं और प्रो. प्रदीप माथुर 12 जुलाई को नागपुर से शाम को राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली के लिए रवाना हुए और सुबह सूरज उगने से पहले दिल्ली अपने घर पहुंच गए।  एक दिन तो सोकर अपनी थकान खत्म की और अपनी टीम के 70 साल पार कर चुके सबसे यंग मैन के रूप में विक्यातभोपाल के महावीर सिंह जी और बनारस वाले शर्मा जी को फोन कर सकुशल गर पहुंचने का हाल चाल लिया।  और अब शब्दों के मेला के साक्षी होने का अनुभव दूसरों के साथ शेयर करने में जुट गया हूं। अरे हां इस यात्रा वृतांत में मीडिया स्टूडेंट राकेश कुमार गांधी का उल्लेख ना करना तो एक अपराध सा ही होगा। बिहार जहानाबाद के राकेश के घर में नक्सलियों ने हमला किया था और इसके कई सगे संबंधियों को काट डाला गया था। अपने कमरे में बुलाकर जब इससे पूरी कहानी सुनी तो खांटी मध्यबिहार के औरंगाबादी होने के बाद भी राकेश की पीड़ा से मर्माहत हुआ। राकेश को आदेश देकर ही वापसी का टिकट मंगवाया था, और आने से एक दिन पहले देर रात तक राकेश और इसके एक और दोस्त के साथ बात करता रहा। टिकट का पैसा के साथ पत्रकारिता की दो तीन  किताबों को देकर राकेश गांधी को विदा किया। और इस बार भी मेरे मन में वर्धा की ढेर सारी मनमोहक यादें जुड़ गयी.।  




2

वर्धा, नागपुर में स्थापित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विवि. के प्रति मेरे मन में कई सालों से लगाव था। भारी भरकम अंक के लिए (कु) विख्यात बहुवचन पत्रिका के पाठक होने अलावा वर्धा से दिल्ली में इसको स्थानांतरित होने की खबरों या अफवाहों के चलते भी इस हिन्दी विवि को लेकर मन में काफी उत्सुकता रहती थी. खासकर पुलिसिया नौकरी में रहने की बजाय वर्धा में कुलपति बने विभूति नारायण रॉय के पदस्थापन को लेकर भी मन में रोमांच जागा। वहीं मित्रो में रहे अनिल चमड़िया के प्रोफेसर के रूप में यहां नियुक्त होना और चंद माह में ही बाहर हो जाने की खबरों से लगा कि विवि कैंपस में राजनीति का बाजार गरम है। अनिल चमड़िया के प्रोफेसर बनने के बाद लगा कि खास डिग्री के बिना भी कोई  यहां प्रोफेसर बन सकता है। प्रोफेसर और अधिष्ठाता (डीन) के रूप में काम कर रहे प्रो. अनिल कुमार अंकित मेरे 20 साल पुराने दोस्त है। वे जब दिल्ली में शोधरत्त थे।  उसी समय से जान पहचान थी।. प्रो. अनिल द्वारा पिछले 2013 जनवरी में एक सप्ताह के एक संगोष्ठी में बुलाया तो उस समय मैं अहमदाबाद में था। मेरे छोटे भाई आत्म स्वरूप के बेटे की हालत नाजुक थी और वह एक हादसे में बुरी तरह जख्मी हो गया था।. बुलावे के बाद भी वर्धा जाने का मेरा सपना साकार नहीं हो पाया, मगर मेरा बेटा एकदम सही सलामत घर लौट आया.। इसकी खुशी के आगे वर्धा न जाने का मन में कोई मलाल नहीं था।
तभी प्रो. अनिल जी ने जुलाई 2013 में फोन करके अगस्त में एक सप्ताह के लिए आने का न्यौता दिया, तो मेरा मन खुशियों से भर उठा।  हालांकि कई शहरों के करीब सात आठ मीड़िया संस्थानों और विश्वविद्यालयों में जाकर मीडिया के छात्रों से मिलने और क्लास लेने का मौका मिलता रहा है, मगर दिल्ली से काफी दूर एक अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय में जाने का यह मौका मन को आशंकित भी कर रहा था. इस कारण मैंने यहां के लिए दूसरे ढंग से अपनी तैयारी की और एक पत्रकार को पत्रकार बनने के मामूली टिप्स पर काम किया। पत्रकारिता के एकदम सामान्य बुनियादी जरूरतों पर ही होमवर्क करने के लिए छात्रों को प्रोत्साहित करने का फैसला किया। एक सप्ताह यानी पांच दिन तक मैं यहां के स्टूडेंट्स के साथ जमकर बाते की र सबसे पहले पत्रकार बनने के लिए तैयारी करने को कहा. मेरा मानना है कि सभी छात्रों को पहले पत्रकार बनना चाहिए पत्रकार बनने के बाद ही खबार रेडियो या टेलीविजन में काम करना सरल और संभव हो पेगा। पत्रकार बनन के ले क्या करना चाहिए यही क्लास में मैं फोकस करतका था। पहले दिन से ही मेरा क्लास लंबा चला और यह सिलसिला पूरे सप्ताह तक जारी रहा. मैंने बच्चों को क्या पढ़ाया इसका पत्ता नहीं पर कुछ ठीक ठाक सा ही रहा होगा कि ज्यादातर स्टूडेंट आज भी मेरे साथ फेसबुक पर जुड़ें है।



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