गुरुवार, 25 अगस्त 2016

अन्ना का जंतर मंतर आंदोलन 2011





नई दिल्ली (विवेक शुक्ला)। 2011 में अन्ना हजारे जब जंतर-मंतर पर बैठे तो उनके जजंतरम-ममंतरम का असर पूरे देश में दिखाई दिया। क्योंकि भ्रष्टाचार से हर कोई आजिज़ था। तब दुनिया भर का मीडिया भी यहां जम कर बैठ गया था। आज एक अलग प्रकार का धरना इसी जंतर-मंतर पर चल रहा है, लेकिन मीडिया को फिक्र नहीं तो जनता तो दूर की बात है।

Historic movement for the rights of Indian languages
जी हां जंतर-मंतर पर इन दिनों कड़ाके की सर्दी में ‘भारतीय भाषाओं को लागू करो, अंग्रेजी की गुलामी नहीं चलेगी ... नहीं चलेगी /भारत सरकार शर्म करो -शर्म करो' के गगनभेदी नारे लगाते हुए बहुत से लोग धरने पर बैठे है।
विगत ढाई दशक से चल रहा ऐतिहासिक भारतीय भाषा आंदोलन 21 अप्रैल 2013 से संसद की चैखट जंतर मंतर पर भाषा आंदोलन के पुरोधा पुष्पेन्द्र चोहान व महासचिव देवसिंह रावत के नेतृत्व में चल रहा है।
चौपाल भी
शीतकाल में इन दिनों भाषा आंदोलन में देश की विभिन्न ज्वलंत समस्याओं पर विशेष चर्चा व समाधान के लिए भाषा चैपाल का भी आयोजन प्रतिदिन किया जा रहा है।
कौन-कौन बैठा धरने में
भाषा आंदोलन के धरने को इन दिनों जीवंत बनाये रखने में पुरोधाओं में पुष्पेन्द्र चैहान, महासचिव देवसिंह रावत, पत्रकार चंद्रवीरसिंह, अनंत कांत मिश्र, धरना प्रभारी महेष कांत पाठक, सुनील कुमार सिंह, चैधरी सहदेव पुनिया, मध्य प्रदेश के रीवा प्रो सचेन्द्र पाण्डे, सुशील खन्ना, कल्याण योग के स्वामी श्रीओम, रमाषंकर ओझा, पत्रकार सूरवीरसिंह नेगी, गोपाल परिहार, सत्यप्रकाष गुप्ता, देवेन्द्र भगत जी, सम्पादक बाबा बिजेन्द्र, महेन्द्र रावत, राकेष जी, ज्ञान भाष्कर, मन्नु, वेदानंद, वरिश्ठ समाजसेवी ताराचंद गौतम, मोहम्मद सैफी, अंकुर जैन, रघुनाथ, यतेन्द्र वालिया, गौरव षर्मा, ज्ञानेश्वर प्रधान, बंगाल से रवीन्द्रनाथ पाल, गोपाल परिहार,भागीरथ, नरूल हसन, पत्रकार अपर्णा मिश्रा, खेमराज कोठारी, आदि प्रमुख है।
जिन्हें नहीं दिख रहा धरना
वरिष्ठ पत्रकार अनामी शरण बबल ने इस बात पर दुख जताया कि अधिकांश समाचार चैनलों व समाचार पत्रों को देश के स्वाभिमान, लोकशाही व आजादी का असली आंदोलन दिख ही नहीं रहा है। ये लोकशाही के चोथे स्तम्भ के नाम पर नंगई, गुडई, आशाराम, केजरीवाल का हर पल बेशर्मी से अंधा जाप करके देश की संस्कृति व लोकशाही की जड्डों में मठ्ठा डाल रहे है।
उल्लेखनीय है कि भारतीय भाषा आंदोलन 1988 से भाषा आंदोलन के पुरोधा पुष्पेन्द्र चोहान व स्व. राजकरण सिंह सहित सैकडों साथियों के साथ संघ लोकसेवा आयोग से देश के पूरे तंत्र में अंग्रेजी थोपने के विरोध में अलख जगाने का ऐतिहासिक आंदोलन किया।
जैल सिंह से वाजपेयी तक
भारतीय भाषा के इस ऐतिहासिक आंदोलन में जहां देश के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह, पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी व विश्वनाथ प्रताप सिंह,उप प्रधानमंत्री देवीलाल, रामविलास पासवान व चतुरानन्द मिश्र सहित 4 दर्जन से अधिक देश के अग्रणी राजनेताओं ने भाग लेते हुए संसद से धरने तक इस मांग का पूरा समर्थन किया।
भाषा आंदोलन के महासचिव देवसिंह रावत द्वारा 1989 व पुरोधा पुष्पेन्द्र चैहान द्वारा 1991 में संसद दीर्घा से भारतीय भाषा आंदोलन की आवाज को गूंजायमान करने का कार्य किया। छटे दशक में लोहिया के नेतृत्व में चले भारतीय भाषा आंदोलन के दवाब की तरह ही इसके बाद 1991 में संसद ने सर्वसम्मति से भाषायी संकल्प पारित किया गया।
English summary
Historic movement for the rights of Indian languages not getting due from media.
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बुधवार, 10 अगस्त 2016

नगर सुदंरियों से अपनी प्रेम कहानी- 6 (संशोधित)









चादर और रखैल (साथी) प्रथा का टूटता तिलिस्म

अनामी शरण बबल

उत्तर प्रदेश में आगरा शहर का खास महत्व है। दुनियां में इसकी पहचान एक प्रेमनगरी की है। भले ही एक सामान्य आम आदमी का प्यार ना होकर यह एक बादशाह के प्यार की दीवानगी की कथा है। जिसमें प्यार के उत्कर्ष को अपने स्तर पर बादशाह ने एक ऐसी इमारत बनवा कर दी जिसे लोग ताजमहल के रूप में जानते है। और लगभग 360 साल से भी अधिक समय हो जाने के बाद भी इसके प्रति लोगों का लगाव कम नहीं हुआ है। मगर ज्यादातर लोग ताजमहल के साथ साथ आगरा को बसई गांव के लिए भी जानते है। जहां पर प्यार के सबसे बेशर्म बाजारू चेहरा देहव्यापार को माना जाता है। वेश्याओं के इस गांव में भले ही आजकल धंधा नरम सा है। इसके बावजूद इस गांव को लेकर लोगों में सैकड़ों तरह की कहानियां है।  पुलिस की तथाकथित सख्ती को लेकर रोष भी है तो शाम ढलते ही पुलिसिया संरक्षण में कारोबार की चांदी की बाते भी हवा में है। मगर सूरज की रौशनी में तो कथित तौर पर वेश्याओं के चादर और रखैल प्रथा के जादूई दिन लद से गए हैं।

वैसे तो मैं मूलत देव औरंगाबाद बिहार का रहने वाला हूं फिर भी आगरा से भी मेरा जन्म जन्म का नाता है। अब तक इस प्रेमनगरी में पांच सौ दफा से ज्यादा बार ही आ चुका हूं 1 मगर धन्य हो भाजपा के शीर्षस्थ पुरूष लाल कृष्ण आडवाणी जी का जिन्होने 1989 से 1992 तक बाबरी मस्जिद हटाओं और राम मंदिर बनाओं का नारा बुलंद करके पूरे देश में हिन्दू और मुस्लमानों की एकता में आग लगा दी थी।  पूरे देश के माहौल में जहर बोया गया सो अलग। इन तीन सालों के अंदर मेरठ मथुरा सहारनपुर मुजफ्फरनगर हरिद्वार आगरा में भी माहौल को बिषैली बनाने मे कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ी गयी थी। इस कारण चाहे मैं जिस अखबार में भी रहा उनके लिए पश्चिमी उतर प्रदेश के राजनीतिक सामाजिक और धार्मिक तापमान को जानने के लिए लगभग एक दर्जन दफा पूरे पश्चिमी उतर प्रदेश का दौरा करके लंबी लंबी रिपोर्ट करने का सुअवसर मिला। इसी का नतीजा रहा कि आगरा के भगवान सिनेमा से दो किलोमीटर दूर दयालबाग में जाकर वहीं तक सालों साल सीमित रहने वाले इस पत्रकार को आगरा के भी हर लेबल के दर्जनों नेता दलाल और पत्रकारों से घुलने मिलने और दोस्ती करने का नायाब मौका मिला। जिसमें कई तो आज भी दोस्त की ही तरह है, तो कई सड़क छाप नेता राज्य मंत्री भी बने तो कई सांसद बनकर दिल्ली तक अपनी धमक पैदा की। तो कुछ नेता मंत्री बनकर रखैलों के चक्कर में फंसकर नाम धाम के साथ साथ परिवार से भी अलग होना गए। 
यहां पर इनका उल्लेख करना बहुत जरूरी नहीं था पर जब गांव बसई पर काम करने की बारी आई तो मैने अपने इन तमाम दोस्तों से किस तरह काम की जाए इसके बारे में सलाह ली। लगभग सभी लोकल नेताओं ने पुलिस की गुंडागर्दी की बढ़ चढ़ कर बखान किया। मगर तमाम नेताओं ने मुझे भरोसा दिया कि चिंता ना करे हमलोग बसई में साथ साथ रहेंगे। इन नेताओं को अपने साथ टांग कर वेश्याओं के गांव पर काम करने के लिए सोचना भी बड़ा अटपटा सा लगा, मगर मेरे लिए सैकड़ों रूपये की तेल फूंकने और घंटो साथ साथ रहने के लिए प्रतिबद्ध इन मित्रों को यूं भी टरकाना ठीक नहीं लगा। सहारनपुर में 1988 के दौरान एसएसपी रहे बी.एल. यादव से मेरी बहुत अच्ची याराना थी। मीडिया से प्यार करने वाले श्री यादव ही उन दिनों आगरा मंडल के डीआईजी थे।  मैने दिल्ली से ही फोन लगाकर बसई जाने के लिए पूछा, तो हंसने लगे और पूछा कि वेश्याओं से मिलने के बाद या पहले मुझसे मिलोगे मगर अजीब संयोग रहा कि सुबह सुबह जब मैं आगरा पहुंचा तो श्री यादव उसी दिन लखनऊ के लिए निकल चुके थे। मगर बसई चौकी और अपने स्टाफ को हर संभव सहायता करने का निर्देश दे कर ही गए थे। मोबाइल का जमाना था नहीं लिहाजा जब आदमी घर या दफ्तर से बाहर हो तो फिर उसको पकड़ पाना लगभग असंभव सा होता था।
उल्लेखनीय है कि मुगलकाल में ही वेश्याओं के गांव बसई को बसया गया था। सैनिकों के जमावड़े मुगल राज्य के अधीन प्रशासको और व्यापारियों और सत्ता के दलालों के मनोरंजन तफरीह के लिए बसई की रंगीन हसीन नमकीन तितलियों के उपयोग का चलन था। निसंदेह मुगलों की राजधानी दिल्ली ले जाने के बाद भी बसई गांव की रौनक बरकरार रही। मुगलों के सैनिकों का बड़ा जमावड़ा आगरा में ही था मुगलों साम्राज्य के पत्तन के बाद भी अंग्रेजों ने अपने सैनिकों और नौकरशाहों की बड़ी मंडली को आगरा में ही बनाए रखा, लिहाजा समय सत्ता और शासन में पूरी तरह बदलाव आने के बाद भी बसई की रौनक पर कोई असर नहीं पड़ा। आगरा के अपने लोकल नेताओं की फौज के साथ उनकी ही गाड़ी में सवार होकर ताजमहल से चार किलोमीटर पीछे बसई गांव के लिए निकल पड़े। साथ में दो दो फोटोग्राफरों का भी दल बल हमारे था। इन छायाकारों ने बसई के लिए खासकर चलने की इच्छा जाहिर की थी।

बसई गांव में घुसते ही मार्च माह के आखिरी सप्ताह में ही गलियं विरान नजर आई। मगर ज्यादातर घर पक्के और अच्छी हालत में ही दिखे। हमलोगों ने फैसला किया कि गांव की चौकी पर ही सबसे पहले धमका जाए। आगरा के छह नेताओं और साथ के दो छायाकारों समेत मेरे साथ आठ लोगों की फौज थी। गाड़ी से उतरते ही सभी चौकी इंचार्ज के सामने लगी कुर्सियों पर बैठ गए.। मैने चौकी इंचार्ज से  डीआईजी बी.एल.यादव के फोन के बारे में बताया, तो वह एकदम खड़ा होकर सेवा करने की अनुमति मांगी। मैने उन्हें बैठने को कहा और किसी भी सेवा के लिए कोई कष्ट ना करने का ही आग्रह किया। इस पर वह एक मेजबान की तरह स्वागत करने के लिए अड़ा रहा। तब मैने कहा कि ये सब हमारे आगरा को दोस्त हैं आप इनकी जो मन में आए चाहे सेवा करें पर हम तीनों बसई गांव घूमन चाहते हैं। कुछ वेश्याओं के घर के भीतर भी जाने की तमन्ना है। इस पर वह तुरंत दो एक सिपही को साथ लगाने की हांक मारी। इस पर हंसते हुए मुझे किसी के साथ नहीं चलने के लिए मनाना पड़ा। कब इंचार्ज नें तुरंत दो तीन दलालों को चौकी में बुलाकर गांव में ले जाने का आदेश दिय। आगरा के दोस्तों से मैने आग्रह किया कि आप दो तीन घंटे तक यही पुलिसिया मेहमानबाजी का मजा ले। एक आंख दबाकर एक नेता को कहा कि यदि यादव जी का फोन आए या डीआईजी कोठी से फोन आए तो आप कह देना कि मैं अपने काम में लगा हूं और काम निपटाते ही  बात करूंगा।

आगरा के मेरे तमाम दोस्तों ने भी मेरी बातचीत करने के मतलब को समझकर हां जी हां जी की झड़ी लगा दी। और मैं अपने छायाकार मित्रों के साथ बसई की गलियों में दो चार दलालों के संग निकल पड़ा। पुलिस द्वारा गरम गरम गरमागरम आतिथ्य पर ये दलाल भी कुछ राज नहीं समझ पा रहे थे। एक ने पूछा आपलोग कहां से हैं बाबू। मैं भी जरा भाव मारते हुए कहा कि ये जो डीआईजी यादव है न वे हमारे सहारनपुर से मित्र है। अरे वो तो आज लखनऊ निकल गए नहीं तो मैं उनको ही लेकर यहां आता। मेरी बातों पर सहमति जताते हुए कहा वो तो लग रहा है साहब नहीं तो यहां की पुलिस एकदम दम निकाल कर धंधे को बेदम कर चुकी है।  मैने तुरंत काटा साला मुझसे ही झूठ मार रहा है। यहां रात को तो धंधा हो ही रहा है।. यहां की औरतें और लड़कियां कॉलगर्ल बनकर इधर उधर तो जा ही रही है. और तमाम होटल वाले तुमलोग से ही बढिया बढिया लड़कियों को फोन कर मंगवती है. यह सब क्या मुझसे छिपा है ? जहं पत्रकारो को देखा नहीं कि धंदा खत्म हो रहा है और भूखे मरने की कहानी करने लगते हो। ये पुलिस वाले क्या तुम लोग की तरह ही ग्राहकों को खोजकर लाए। एक दलाल ने कहा कि माफ करना बाबू ई सब थानेदार बाबू को मत कहना । इस पर मैने धौंस मारी यदि शराफत से घूमाना है तो साथ रहो और अपनी वकालत बंद कर।  एक ने टोका कि आप पहले भी यह आ चुके है का ? दिल्ली में रहता हूं इसका मतलब थोड़े कि शहर से अनजान नहीं हूं। आगरा के दयालबाग नगलाहवेली में ही 20 साल से रहता हूं, और तू हमें ही चूतिया बना रहा है। चौकी पर बैठे सारे आगरा के नेता है। इसपर हमलोगों के साथ साथ घूम रहे तीनो दलाल खामोश हो गए। मैने उनलोगों को अपने साथ नहीं चलने की बजाय चौकी पर ही रहने को कहा कि हमलोग अभी घूमकर आते है। इस पर दलालों ने कहा कि इंचार्ज बाबू हमलोग को मारेंगे साहब। मैने कहा नहीं साथ रहोगे तब भी मैं तुम्हरी शिकायत करूंगा। मुझे जासूस लेकर गांव में नहीं घूमना है। और किसी तरह उनलोगों को अपने से दूर किया। मेरे साथ चल रहे दोनों फोटोग्राफरों ने दे दनादन इन दलालों की कई फोटो भी ले ली, तो वे न चाहते हुए भी हमलोग से दूर हो गए। मेरे फोटोग्राफर दोस्तों ने भी इनके हट जाने पर खुशी जाहिर की। तुमवे इनको हटाकर एकदम सही किया ये साले पुलिस के इनफॉर्मर सारी बातें चौकी में जाकर उगलता।

बिना किसी दलाल के हमलोग सामने वाली गली के ही एक पक्के दो मंजिली मकान में जा घुसे। अंदर जाते ही सामान्य साज सज्जा के एक बड़े हॉल में बैठी दो उम्रदराज महिलाओं ने स्वागत किया। मेरे साथ वाले छायाकारों ने दनादन इनकी तस्वीर समेत हॉल के रंग रूप को कैमरे में बंद कर ली। इस पर ये महिलाएं एकदम घबरा सी गयी। ये क्य कर रहे हो बाबू ? मैने इन्हें भरोसा दिलाया कि आप एकदम चिंता ना करो कुछ नहीं होगा। फिर भी ये अंदर से डर जाहिर करने लगी। जब हमलोगों ने अपना परिचय और कार्ड धराया तो उनके मन का डर दूर हुआ। मैने कहा कि कोई तुम्हे तंग करे तो मेरे को फोन पर बताना मैं दिल्ली से ही तेरा काम करवा दूंग। फिर जोडा कोई बहुत जरूरी काम हो तो मेरा कार्ड लेकर तुम डीआईजी यादव के पास भी चली जाओगी तो वे तेरी सुनवाई करेंगे,मगर बहुत टेढा आदमी हैं गलत शिकयत करोगी तो हमें भी तेरे ही साथ गालियां देगा। । वे मेरे सहारनपुर से दोस्त हैं।

मेरी बातों से उसको भरोसा होने लगा था। उसने फौरन किसी को आवाज लगाकर चाय के लिए बोली। इस पर हमलोगों ने हाथ जोड़कर चाय के लिए मना किया, तो वह बोली आपलोग मेरे मेहमान हो बाबू बिना जल दाना ग्रहण किए तो जा ही नहीं सकते। अजीब सा धर्मसंकट खड़ा हो गया था। उसने कहा कि हम ग्राहकों के साथ चादर का रिश्ता बनाते हैं। जब तक वह साथ में रहता है तो वह एक दामाद की तरह हमारा अतिथि होता है। उसके जाने के साथ ही चादर और संबंधों का खात्मा होता है। महिला ने कहा कि मेरे यहां तो दर्जनों नियमित ग्राहक हैं जो माह में दो तीन बार दो चार दिन रहकत जाते हैं।  इनके लिए लड़कियं भी रखैल की तरह एक ही होती है। वे लोग अपनी लाडली की देखरेख और खान पान के लिए हर माह दो चार पांच हजार दे भी जाते है। वो लोग एक तरह से हमारे घर के सदस्य की तरह है। किसी कोठे पर रखैल और किसी ग्राहक के यहां दो चार दिन रूकने की बात एकदम अटपटी सी लगी। मैने इस पर हैरानी प्रकट की। तो दोनों महिलएं हंसने लगी। इसमें हैरान होने की क्या बात है बाबू  अब तो कहो कि यह प्रथा खत्म होने के कगार पर है, नहीं तो पहले हमलोग केवल माहवारी सदस्यों के लिए ही होती थी। और राजस्थान पंजाब हरियाणा यूपी से आने वाले लोग यहां न केवल ठहरते थे बल्कि हमारे घर की देखभाल भी करते थे। हम सब एक तरह से उनकी बांदिया थी। मैं इस रहस्योद्घाटन पर चौंक पड़ा। तो यह बताओं कि कोई ग्राहक बनकर तुम्हारे यहां आता है वो किस तरह घर का सदस्य या दामाद सा बन जाता है। इस पर वे खिलखिला पड़ी। अरे बाबू इसमें क्या हैं हमारी लड़कियां पूरी ईमनदारी से सेवा करती हैं तो मुग्ध होकर वे हमारे यहां ही नियमित आने लगते है और कईयों के साथ रहने के बाद दो एक से अपना लगातार वाला रिश्ता बना लेते है। एक ने कहा कि हमलोग के समय के भी कुछ मर्द कभी कभार अभी भी आकर कुछ रुपए और घंटो बैठकर हाल चाल पूछ कर चले जाते हैं।
इस पर मैं हंस पड़ा अरे तब तो तुमलोग की तो चांदी ही चांदी है कि जो यहां आया वो बस तुमलोग का ही होकर रह जाता है। मेरी बात पर वे दोनों हंसने की बजाय बोली कि यह तो बाबू हमलोग की सेवा और ईमानदारी का फल है कि लोग भूल नहीं पाते। मैने फिर पूछा कि अभी तुम बोल रही थी कि माहवारी सदस्यों की संख्या  लगातार कम होती जा रही है। इस पर रूआंसी सी होकर वे बोल पड़ी कि अब जमाना बदल रह है बाबू नए लोगों में रिश्तों को लेकर ईमानदारी कहां रह गयी है। अब के लोग तो केवल दो चार घंटे की ही मौज चाहते है । अब तो जो बहुत पहले से यहां आते रहने वाले लोग ही रह गए है, जो आज भी हमारे सदस्य हैं । नया तो कोई अब कहां ग्राहक बन पाता है। मैं तुरंत बोल पड़ा इसका कारण तुमलोग क्या मानती हो? अरे बाबू शहर ज्यादा आधुनिक और बड़ा हो गया है। रात में रूकने के लिए होटल धर्मशाला भी काफी हो गए है जिससे लोगों को यहां आकर रूकने की अब जरूरत नहीं पड़ती। पहले तो वे यहां आकर खुद सुरक्षित हो जाते थे।
चादर और रखैल प्रथा के बारे में पूछा कि जो तुम्हारे यहां की कईयों के दिल की रानी कहो या रखैल सी है। यह तो बताओं कि क्या वे लोग जो दो चार घंटे के लिए आने वाले ग्राहक के लिए भी राजी होती है? इस पर दोनों एक साथ बोल पड़ी क्यों नहीं हमलोग किसी की अमानत नहीं हैं। हमारा रिश्ता तो केवल चादर वाला है जब तक वे लोग हैं तो हर तरह से हमारी लडकियां उनकी है। मैने जिज्ञासा प्रकट की एक महिला के करीब कितने यार होते हैं जो माहवरी देते है ? इस सवाल पर वह हंसने लगी ,यह कोई तय नहीं होता, मगर दो तीन यार तो होते ही है। इस रखैल प्रथा पर मेरी उत्सुकत और बढ गयी थी मैने फिर पूछा क्या कभी इस तरह का भी धर्मसंकट आ खडा होता है क्या कि एक साथ ही किसी के दो दो आशिक आ जाते हो तब जबकि वह किसी और की रखैल बन अपने माहवारी आशिक के साथ हो ? इस पर दोनों औरतें फिर हंस पड़ी।  क्या करे बाबू इस तरह की दिक्कत तो हमेशा आ खड़ी होती है। इसीलिए तो हमलोग किसी एक को दो दो के साथ चादर वाला रिश्ता बनाने को कहते हैं ताकि कोई दिक्कत ना हो। रखैल प्रथा के इस अजीब त्रिकोण में मैं भी उलझता जा रहा था। मैने फिर पूछ डाला कि अच्छा यह बताओं कि किसी के साथ दो दो का रिश्ता हो और एक समय में दोनों खाली हो तब उनके एक आशिक के आने के बाद रखैलों का चुनाव किस तरह होता है? इस पर महिलाओं ने कहा कि यह तो बाबू पर है कि वो किसके साथ रहना चाहे,  मगर एक साथ वह किसी एक के ही चादर में रह सकता है। यदि वह दो या किसी और से भी चादर बदलना चाहे तो? इस पर महिलाएं खीज सी गयी तू यहां के कानून को नहीं जानते हो बाबू। ये मर्द एय्याश तो होते हैं मगर यहां पर वे दिल हार कर ही सालों साल तक आते जाते हैं, क्योंकि बहुत सारे मामले में वो काफी ईमानदर भी होतो है।
क्या तुमलोग से रिश्ता रखने मे उन्हें कोई खतरा नहीं होता? हमलोग से तो कोई खतरा नहीं होता है कि हमलोग उनके घर में जाकर हंगामा करेंगे या पेट रह गया है का नाटक करेंगे। अरे बाबू यह तो एक दुकान है जब तक चाहो आ सकते हो, ना चाहो ना आओ, मगर हमारे आतिथ्य और प्यार को वे हमें नहीं भूल पाते।

जिस तरह की बातें तुमने मेरे साथ कर रही है तो क्या यही कानून और रस्मोरिवाज सबों के यहां भी है या इसमें कुछ अंतर भी आ रहा है ? इस पर विलाप करती हुई महिलाओं ने कहा कि मैं पहले ही बोल रही थी न बाबू कि जमाना बदल रहा है। कुछ तो कॉलगर्ल बन होटलों में जाती है। आगरा में इतने लोग बाहर से आते हैं कि चारो तरफ से इनकी मांग है। मैने उनसे पूछा कि क्या तुम अपनी सुदंरियों को हमलोगों को नहीं दिखाओगी ? इस पर चहकती हुई बोल पड़ी अरे तुमलोग से ही तो उनकी रौनक हैं बेटा मैं तुमलोग से बात कर रही हूं और वे सारी अंदर अंदर हमें गरिया रही होंगी कि लगता है कि ये बुढिया ही इन सबको खा जाएगी। अभी बुलाती हूं पर क्या कुछ .......। इसका तात्पर्य मैं समझ गया। मैने अपने फोटोग्राफरों की तरफ देखा फिर इनसे कहा कि एक शर्ते है कि इनकी फोटो उतारने दो? वे हंस पड़ी और बोली जो चाहो करो। मेने तुरंत प्रतिवाद किया लगता है कि तुम गलत ट्रेन पकड़ रही है। हमलोग केवल बात करेंगे । फिर तुरंत बोल पड़ा अरे बात भी क्या करेंगे तुमलोग ने तो इनका पूरा इतिहास भूगोल तो सब बता ही दी।  इस पर उनलोग ने कहा कोई बात नहीं बाबू जो चाहों बात कर लो। पर अब तो चाय पी सकते हो न ? यहां आए करीब एक घंटा हो चुका था। दिन के 11 बज गए थे, लिहाजा आंख मारकर मैने फोटोग्राफरों से यहां से अब रूखसत होने का संकेत दिया। इन महिलाओं ने कहा कि मैं यहां पर ही बुला दूं कि तुमलोग उनके पास जाओगे ? मैने फौरन कहा नहीं नहीं हमलोग ही वहां जाएंगे, तो दोनों हाथ फैलाकर हंसने लगी। मैने पूछा क्य दूं तू ही बोल न। हम तो तेरे ग्राहक है नहीं तेरी बात सुनने वाले है, जो तेरी मर्जी पर यह तो एक दुकान हैं न बोहनी तो होनी ही चाहिए। हम तीनो दोस्त उसकी बात सुनकर हंस पड़े, और जेब से मैने अपनी जेब से दो सौ रूपया निकलकर उनके हाथों में रख दिए। वे लोग मायूष होने की बजाय खुश हो गयी, और हमलोग उनके पीछे पीछे एक दूसरे कमरे में चले गए।
कमाल है देखते ही आंखे चौंधिया गयी। एकदम सामान्य साज सज्जा और सामान्य पहनावा में वे लोग कहीं से भी वेश्या या रंडी नहीं लग रही थी। सात आठ वेश्याओं में ज्यादातर 30 पार कर चुकी थी, मगर कम उम्र वाली भी 20 से 25 के बीच होगी। मैं इनको देखकर यही तय नहीं कर पा रहा था कि सामने बैठी कन्याएं क्य सचमुच मे रंडियां है या आंखो को धोखा देने के लिए ही हमे रंडी बताया गया है। इन्हें गांव से बाहर कहीं भी आगरा में इन्हें कोई न रंडी कह सकता है और न ही मान सकता है। मैने तुरंत टिप्पणी की कमाल है यार तुमलोग तो एकदम मेनका रंभा जैसी बेजोड अप्सराएं सी हो। मैने तो कहीं और कभी सोचा तक नहीं था कि बसई की वेश्याएं दिल फाड़कर घुस जाने वाली होती है। मेरी बातों को सुनकर सब हंसने लगी । इससे क्या होता है बाबू हैं तो हमलोग नाली के ही कीड़े। मैने फिर पूछा क्या केवल तुमलोग ही इतनी हसीन रंगीन हो कि यहां कि और भी तुम जैसी ही इतनी ही मस्त है? मेरी बात सुनते ही सब खिलखिलवा पड़ी। एक ने कहा एक औरत कभी दूसरी औरत की तारीफ नहीं करती बाबू तुम तो एकदम बमभोलो हो, फिर हम तो  वेश्याए है कैसे कह दें कि हमसे भी कोई सुदंर हैं यहां। यह कहकर सभी फिर जोर से हंसने लगी। और मैं इनकी बातें सुनकर झेंप सा गया। फिर एक बार पूछा कि धंधा कैसा चल रहा है यहां के लोग तो कह रहे हैं कि बड़ी मंदी का दौर है। मेरी बात सुनकर ये लोग फिर जोर से हंस पड़ी। अरे बाबू खाना के बगैर लोग रह सकते हैं मगर ....। हमारा धंधा ना कल कम था न आज कम है और मान लो कि हम बुढिया भी जाएंगी न तो भी यह कम नहीं होगा। हां  रंग रूप  अंदाज जरूर बदल जाएगा। इससे पहले कि मैं कुछ और पूछने के लिए मुंह खोलता उस,पहले ही दो तीन वेश्याओं ने बड़ी अदा से गुनगुना चालू कर दिया कि या तो साथ चलो उपर नहीं तो चले चलो चले चलो चले चलो चले चलो..... गाते हुए सब कमरे से बाहर निकल गयी।
हमलोग भी कमरे से बाहर होकर फिर आंटियों की शरण में थे।  मैने फिर आंटी से कहा आह कहे या वाह कहे आंटी तुमने तो पूरे चांद को ही अपने कोठे पर बैठा लिया है। इस पर वो भी हंसने लगी। बेटा इनको देखकर तो लोग अपने घर का रास्ता ही भूल जाते हैं। मैने  फौरन पूछा इनको  लाई कहां से ? यह सुनते ही दोंनों उकता सी गयी। चल बाबू चल तू भी चल इनको देखते ही ये तेरे दिमाग में नाचने लगी है और अब तू केवल अंड शंड बकेगा। वेश्याओं की मालकिन की गुर्राहट पर हम तीनों जोर से हंसे और घर से बाहर निकल पडे।। तभी मुझे कुछ याद आया तो हम तीनों फिर अंदर आ गए। । हमलोगों को देखकर वो सवालिया नजर से देखने लगी। मैं आराम से जाकर बैठ गय। अपने स्वर को नरम करती हुई पूछी कुछ सामानव छूट गया क्या बाबू ? मैने कहा आंटी तुम घर में घुसते ही बोली थी कि हम मेहमनों से दाना पानी का रिश्ता बनाते है। तो हमारे लिए बन रही चाय किधर गयी ? बस यही चाय पीने  आ गया नहीं तो तुम बाद में चाय फेंकने पर हमलोग को ही गरियाती। मेरी बाते सुनकर वो एकदम मस्त हो गयी। और हंसते हुए बोली हाय री मर ही जावा क्या मस्त है तू भी इन हसीनाओं से कम नहीं है रे बात करने और छेड़ने में। इस पर मैं झेंपते हुए बोला अरी आंटी मेरे से तुलना करके तू उन रूपसियों की बेइज्जती कर रही है कहां वे और कहां मैं। मैं मुंहफट वाचाल बक बक करने वाला। कहकर हंस पडा। मेरे उपर निहाल होती हुई बोली सब कहां बोल पाते हैं बेटा तेरे दिल में किसी तरह का लोभ नहीं है न तभी इतना साफ और सीधे कह डालता है। मैं भी माहौल को जरा मस्तानी बनाने के लिए कहा अरे तेरे चरण किधर हैं आंटी मेरी इस तरह तारीफ करने वाली तू दुनियं की पहली औरत है लाओ तेरे पैर छू ही लूं।  मेरी बातों को सुनकर वो बाहर भाग गयी और कमरे के बाहर ठहके लगाने लगी। मैं प्रसंग को मोड़ने के लिए जरा हड़बड़ाते हुए कहां आंटी चाय पिलानी है तो जरा जल्दी कर नहीं तो हम लोग निकल रहे है।  एकदम एक मिनट के अंदर चाय आ गयी। बेटा मैं सैकड़ो लोगों को चाय पीला चुकी हो मगर जिस प्यार लगाव और स्नेह से तुम्हें पीला रही हूं वह आज से पहले कभी नहीं । मैं भी गद गद होते हुए उन पर मोहित सा था और बिन चाय को पीए ही बोल पड़ा आहा क्या स्वाद है चाय का। तभी दूर खड़ी एक जवान वेश्या ने फौरन आंटी को बताया कि बिना चाय पीए ही तारीफ करने लगे है। मै उसकी तरफ देखकर बोला चाय को पीने की क्या जरूरत हैं आंटी के प्यर से चाय तो बेमिशाल हो गयी है। तू चाय पी रही है और मैं तो आंटी के प्यर को पी रहा हूं। इस पर वे उठकर मुझे गले लगा ली। जीते रहो बेटा जीवन भर फलो फूलो। उनके इस आशीष पर मैं भी झुककर उनके पैर छू ही लिए तो वो मुझसे लिपटकर रोने लगी।  मैने उनको चुप्प कराय और बोल पड़ा पता नहीं क्यों आंटी मुझसे लिपटकर ज्यादातर लोग रो ही जाते है। इस पर वो मेरे को साफ दिल का नेक इंसान बोली। तब मैं भी ठठाकर बोला कि तेरे यहां तो लोग लड़कियों से चादर वाला रिश्ता बनाते हैं और मैं तेरे संग ही रिश्ता बना गया। इस पर वो बैठे बैठे सुबक पड़ी। और मेरे लिए न जाने कौन कौन सी दुआएं देने लगी। बेटा लोग यहां पर तो दिल हार कर जाते हैं पर तू तो सबके दिल को लेकर जा रहे हो। इस पर मैने अपना थैला तुरंत खोलकर फर्श पर रख दिया कि भाई जिसका जिसका भी दिल मेरे साथ जा रहा है वे निकाल ले। इस पर हॉल में ठहाकों की गूंज फैल गयी और दोनो उम्रदराज आंटियों ने अपने हाथ से मेरे चेहरे को लेकर जितना हो सकता था लाड प्यार जताया। प्यार का नाटक खत्म होते ही मैने उनसे पूछा कि किस किस घर मे चलूं आप कुछ बताएंगी। इस पर वे दोनों अपनी एक खास सहेली के यहां अपने साथ लेकर चलने को राजी हो गयी।
इस बार हम तीनों आंटियों के संग इस घर के पीछे वाले एक मकान मे घुस गए। वहां की भी दो तीन उम्र दराज महिलओं ने इनका भरपूर स्वागत किय। एक आंटी ने मेरा नाम पूछ तो मैने कहा बबल। इस पर वह अपनी सहेली को बताने लगी है तो ये सब पत्रकार मगर (मेरी तरफ संकेत करती हुई) यह बबली बहुत मस्त है। हमारे यहां तो लोग दिल हार कर जाते हैं मगर इस बबली ने सबक दिल ही जीत लिय। मैं भी जरा ज्यादा शिष्ट सभ्य और सुकुमार दिखाने के लिए इस ने कोठे की तीनों उम्र दराज आंटियों के पैर छू लिए और हाथ जोड़कर कहा कि एकदम खरा और तीखा पत्रकार हूं आंटी पर यह तो इनका प्यार दुलार है कि ये हमें इनना मान दे रही है। नए कोठेवाली आंटियों ने कहा कि बेटा हम तो मर्दो की चाल से पूरा हाल जान लेती हैं पर जब ये तुम्हें इतना दुलार दे रही हैं तो जरूर तू खास है। मैं लगभग पूरी तरह उनके सामने झुकते हुए हाथ जोड दी। इस पर मोहित होती हुई नयी आंटी ने कहा वाह बेटा क्य सलीका और शिष्टाचार है तुममें। मैं तुरंत एकदम टाईट होकर खड़ा होकर बोला कि आंटी यह सब दिखावा है। न आज इसका कोई मोल है न कोई पूछ रहा है। मगर आंटी का प्रलाप जारी रहा। तब मैने उनसे पूछा कि आपके यहां कोई बड़ा थैला होगा। तो एक साथ कईयों ने पूछ किस लिए। इस पर मैं बोल पड़ा कि आंटी के घर के सारे लोगों का दिल तो इस थैले में बंद हैं और अभी जो आपलोग के दिल को ले जाने के लिए भी तो एक थैला चहिए न। इस पर पूरे घर में हंसी फैल गयी। सब पेट पकड़ पक़ड़ कर हंसने मे लगी रही। थोडी देर में चाय आ गयी। फिर आंटियों ने बताया कि हमलोग यहां करीब 200 साल से रह रहे है। धंधा कैसा है तुम जानते ही हो, मगर अब इससे बाहर निकलना भी चाहें तो यह सरल नहीं हैं। अपने घर की बेटियों को दिखाया और बताया  किस तरह पुलिस की सख्ती के कारण यह धंधा काफी मंद सा हो भी गया है। इस घर की आंटियों ने भी बताया कि केवल चादर और रखैल कहो या साथी वाला ही रिश्ता मान लो कि हर घर में रौनक और हंसी मजाक है।
बसई गांव के ज्यादातर घरों में आज भी चादर और साथी कहे या रखैल वाला रिश्ता ही मुख्य है। मगर लड़कियों की लगातार बढती मांग के चलते आगरा शहर में देह के धंधे का कारोबर भी खूब चमक रहा है। बसई की लड़कियों समेत शौकिया तौर पर भी इस धंधे मे उतर रही युवतियों के कारण भी रंग रूप पहिचान छिपाने से  इस धंधे का पूरा नक्शा ही बदल गया है। और इनकी चमक के पीछे बसई जैसे परम्परागत गांवों की चमक धुंधली होती पड़ रही  है।  
बसई की देवियों के दर्शन करके जब हमलोग बाहर निकले तो शाम के साढ़े चार बज चुके थे। खुद पर लज्जित होते हुए जब मैं पुलिसचौकी पर पहुंचा तो आगरा के मेरे सारे लोकल दोस्त नेताओं की फौज पूरे आराम से मेरा इंतजर कर रही थी। मैने व्यग्रता से कहा चलो यार कुछ खाते पीते हैं। आपलोग को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा होगा। मेरी बात सुनकर चौकी इंचार्ज चंद्रशेकर सिंह समेत मेरे सारे दोस्त हंस पड़े। मैं भौचक्का सा देखता रहा कि क्या माजरा है। यादव जी की कोठी से बार बार खाने के लिए फोन आने पर सबों को इंचार्ज ने खाना खिलाया और पिछले छह घंटे से चाय और सिगरेट के बेरोकटोक दौर को झेलता रहा। इतने लंबे उबाऊ इंतजार के बाद भी मेरे तमाम मित्रों के चेहरे पर न कोई शिकन थी और ना ही शिकायत थी। और जब हमलोग बसई से बाहर निकले तो आगरा के मेरे सारे मित्र बहुत सारे पुलिस वालों के पक्के यार बन चुके थे। अलबत्ता लखनऊ से ही यादव साहब ने मेरे लिए मिलकर ही जाने का ही फरमान जारी कर दिया था। एक दिन आगरा में रूकना पडा। अगले दिन पांच साल के बाद दोपहर में मिले बगैर दिल्ली लौटना मुझे भी ठीक नहीं लगा और सहारनपुर की बहुत सारी बातों यादों को आगरा  में याद करके हमलोग कई घंटे तक बहुत मस्त रहे।




मंगलवार, 9 अगस्त 2016

दिल्ली को क्यों भूल गए प्रधानमंत्री जी






अनामी शरण बबल


शहीदे आजम चंद्रशेखर आजाद के गांव भाबरा में जाकर आज श्रद्धाजंलि अर्पित करेंगे यह एक शुभ शुभारंभ है। यानी देश के लिए कुर्बान होने वाले शहीदों पर सरकार को अब नाज के साथ लाज भी आने लगी है। और उनकी दुर्दशा को सुधारने की यह पहल वंदनीय है। बशर्ते इसमें करप्शन का घुन नहीं लगा तो 2017 में आप भी प्रधानमंत्री जी नाज करेंगे अपने इस अभियान की कामयाबी पर?

पर प्रधानमंत्री जी चंद्रशेखर आजाद को ही इस मुहिम के लिए क्यों चुना? देश पर मर मिटने वाले ऐसे हजारों शहीद हैं जिनका कोई नाम लेवा तक नहीं है। हालांकि आपका इसमें कोई दोष नहीं है, क्योंकि दिल्ली के भूगोल को तो आप जानते ही कहां है? पर 1857 के गदर में यानी जालियांवाल बाग नरसंहार से करीब 62 साल पहले दिल्ली में भी एक नरसंहार हुआ था। दिल्ली के अलीपुर गांव के पार्क , जिसको अब शहीद पार्क भी कहा जाता है में अंग्रेजों नें आस पास के 150 से भी अधिक देशभक्तों को भून दिया था। जमाना फिरंगियों का था और उस समय तक गांधी बाबा भी पैदा नहीं हुए थे लिहाजा सालों तक इसका विरोध और ग्रामीणों में असंतोष होने के बाद भी सैकड़ों लोगों का यह बलिदान इतिहास में जगह भी नहीं पा सकी।

इस घटना के 90 साल के बाद जब देश आजाद हुआ तो 1954 में शहीद पार्क को शहादत स्थल घोषित किया गया और उस समय के तेजतर्रार महानगर पार्षद चौधरी प्रेम सिंह ने इस शहादत शिला काो लगवाया था। इसके बावजूद दिल्ली समेत केंद्र की समस्त सरकारे इस शहादत और नरसंहार की ओर झांकना भी नहीं गया। सरकारी और सामाजिक उपेक्षा के चलते यह शहीद पार्क एक भूतहा पार्क के रूप में कुख्यात है। सालो हो गए इस शहादत को लोग बिसरा दिए। और सबसे हैरत तो देश के तमाम और दिल्ली में ही रहने वाले इतिहासकारो को भी दोषी माना जाना चाहिए कि आजादी के संघर्ष के पहले नरसंहार को भूल गए। और तो और शहादत शिलालेख को अनावृत करने वाले नेता चौधरी प्रेम सिंह जीवन में कभी चुनाव नहीं हारने की वजह से गिनीज बुक में स्थान पाने वाले देश के इकलौते नेता है। मगर उम्र के 80 बसंत आते आते प्रेम सिंह भी अलीपुर शहीद पार्क को भूल चुके थे।

प्रधानमंत्री जी आप तो गुजरात से हैं 1922 में पालचितरिया में हुए भीलों के नरसंहार को आप भी क्यों याद नही किए ? 1500 से ज्यादा भीलों (जिन्हें आज दलित भी कहकर सहानुभूति पा सकते थे) का बलिदान भी आज आपसे सवाल करता होगा। 94 साल के बादभी पालचितरिया भील नरसंहार इतिहास का एक खोया हुआ प्रसंग ही है। अपने इतिहास कारों और सोशल मीडिया के धुरंधरो को कहेंगे तो पल भर में यह अंकड़ा हाजिर हो जाएगा कि स्वतंत्रता संग्राम में जालियावाला बाग जैसे नरसंहार दो दर्जन से अधिक हुए मगर इसको भारतीय इतिहासकारों के निकम्मेपन की वजह से ये तमाम नरसंहार इतिहास में स्थान नहीं पा सकी और सैकड़ों देशभक्तों का बलिदान सम्मान नहीं पा सका।
अरे मैं तो बहकने लगा पर इसके लिए माफ करेंगे मैं केवल दिल्ली पर ही खुद को नियंत्रित रख रहा हूं।

1857 के लोकयुद्ध में दिल्ली के गांव नजफगढ़ के पास बाकरगढ़ गांव के सिरफिरे ग्रामीणों पर आजादी की लड़ाई का ऐसा खुमार चढ़ा कि अंग्रेज अधिकारी की बीबी को ही कोठी से उठाकर अपने गांव में ले आए। उसके साथ कोई बदसलूकी तो नहीं कि मगर दिल्ली के जाट बहुल दो तीन गांवों के दबंगों को मौका मिल गया। और अंग्रेजों के कान भर कर पूरे गांव के प्रति ही दोगली राजनीति कर डाली। जिसके फल में कई ग्रामीणो को तो रॉलर से रौंदवा मार डाला गया। जिससे भयभीत होकर पूरा गांव पलायन कर गया और अपने संबंधियों के छिपते छिपाते करीब 90 साल तक गुमनामी में ही कई पीढियों तक गुमनाम ही रहे।

1947 में आजादी के बाद पूरा गांव एक बार फिर बाकरगढ़ लौटा तो यहां का नजारा ही बदला हुआ था। अपने ही गांव में जमीन खरीद खरीद कर फिर से आबाद हुए और आजादी के करीब 69 साल के बाद भी इन्हें अपनी जमीन वापस नहीं मिल सकी। बाकरगड़ गांव की जमीन तीन गांवों में अंग्रेजों ने बॉट दी थी जिसकी कीमत आज करोड़ों अरबों की है। और बाहरी दिल्ली के ज्यादातर सांसद विधायक जाट होते हैं जो इस पर आंखें बंद रखना ही उचित मानकर खामोश रह जाते है। हरियाणा के कुछ गांवों में भी इसी तरह की घटनाएं हुई थी जिसको हरियाणा के दबंग मुख्यमंत्री वंशीलाल ने कुछ माह में ही सुलझा दिए थे। मगर अफसोस कि दिल्ली के पास वंशीलाल जैसा कोई जीवट वाला नेता नहीं है जो आजादी में सूरमा बनने की सजा 90 साल के बाद भी भोग ही रहे है, जो इनके घावों पर मरहम लगा सके।

और गांव वजीरपुर और चंद्रावल समेत आस पास के 8-10 गांवो के हजारों ग्रामीणों के जुनून ने अंग्रेजों का जीना हराम कर दिया था । अंग्रेज इनकी छापामार युद्ध से पार नहीं पा रही थाी कि इससे निपटने के लिए फिरंगियों ने खतरनाक कुतों की फौज लेकर इन गांवों में टूट पड़ी। और यह कहना बेमानी है कि इसके बाद क्या हुआ होगा? हर उम्र के सैकड़ो बच्चों से लेकर उम्रदराज महिलाए और महिलाओं का क्या हुआ होगा। सैकड़ों लोग कुतो के काटने से मारे गए। यह मौत कितनी दर्दनाक रही होगी इसकी कल्पना भी डराती है। 500 से ज्यादा लोग कुत्तों की भेट चढगए। मगर इस अमानवीयता पर भी कहीं और कभी भी इतिहास में दर्ज नहीं है। इनकी मौत न शहादत है और ना ही इसे स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष में इनको रखा गया।

दिल्ली पर अभी एकदर्जन और ऐसे मामले हैं जिनकी शहादत आज भी इंसाफ मांग रही है। मगर एक और शर्मनाक प्रसंग को रखकर ही मैं अपनी बात खत्म कर रहा हूं। आजाद हिंद फौज यानी (आईएनए) के मुखिया नेताजी सुभाषचंद्र बोस थे। जिनकी मौत आज भी एक रहस्य है तो इसे भी शर्मनाक मामला यह है कि दिल्ली में आजाद हिंद फौज को एक दफ्तर तक नहीं मिला। 82 दरियागंज में तो आजाद हिंद फौज का दफ्तर सालों तक मुफ्त में बिन किराये का रहा, मगर जब मकान मालिक ने आजाद हिंद फौज वालों को किराए से बेदकल कर दिया। तो यह दफ्तर रोहिणी में आजाद हिंद फौ के सार्जेंट एसएस यादव के मकान मे बंद हो गया। आजाद हिंद फौज का पूरा दस्तावेज एक बंद अंधेरी कोठरी में सीलन ग्रस्त हो रही है।

उल्लेखनीय है कि जब मशहूर फिल्मकार सत्यजीत रॉय नेताजी पर फिल्म बनाने के लिए तैयार हो गए तो अपनी बेटी के साथ रोहिणी मे रहते हुए आजाद हिंद फौज के दस्तावेजों सहित नेताजी के बाबत किस्से कहानियां सुनते रहे। भाजपा नेताओं को नेताजी अपने से लगते हैं और इनके प्रति वे अपना प्यार और भावनात्मक लगाव दर्शाती भी है। बाहरी दिल्ली मे तो नेताजी के लिए एक पर्यटक गांव भी बसा डाला मगर नेताजी के उल्लेखनीय कागजों की रक्षा करना किसी भी सरकारों ने गवारा नहीं किया।


अनामी शरण बबल /
09082016