- काश मेरे पास आज टाइम मशीन होती तो अभी पंख लगा कर उड्ड जाती ..... अब त्यौहार भी आने वाले है .........क्या मौसम होगा क्या नज़ारे होंगे ...........कही ढोल कही दमाऊ होंगे सारी प्रक्रति सुंदर सुंदर फूलो से खिली खिली होगी .....वाह पहाड़ की वादियों को मिस कर रही हूँ.....
- वीर शहीद श्रीदेव सुमन— with Mohan Bisht and 49 others.
(शहादत दिवस—25 जुलाई, 1944)
क्रांतिकारी श्रीदेव सुमन का जन्म टिहरी रियासत के बमुण्ड पट्टी के जौल ग्राम में हुआ था। उनके पिता पं. हरिराम बडोनी वैद्य थे। श्रीदेव सुमन जी ने टिहरी स्कूल से मिडिल परीक्षा 1929 में उत्तीर्ण... करने के बाद देहरादून के सनातन धर्म स्कूल में अध्यापन कार्य कीया। इस बीच उन्होंने ‘हिन्दी पत्र बोध’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की और कई समाचार पत्रों का संपादन कीया। सुमन जी के विचार बचपन से ही क्रांतिकारी थे। उन्होंने टिहरी रियासत की दमनकारी नीतियों का विरोध शुरू कर दिया। सन् 1930 में उन्होंने देहरादून में टिहरी राज्य प्रजा मंडल की स्थापना की और टिहरी के सामंतवाद के विरुद्ध लड़ाई छेड़ दी।
सन् 1930 में श्रीदेव सुमन नम सत्याग्रह आंदोलनकारियों के साथ सम्मिलित हो गए और पड़े जाने पर 14 दिन जेल में रखे गये बाद में वे मनुदेव शास्त्री के संपर् में आए और उनके सहयोग से दिल्ली में देवनागरी महाविद्यालय की नींव डाली गई। दिल्ली में अध्ययन व अध्यापन के साथ-साथ श्रीदेव सुमन साहित्यि सेवा में भी लगे रहते थे।
उन्होंने ‘सुमन सौरव’ नाम से अपनी विताओं का संग्रह प्रकाशित की या जो देशभक्ति पूर्ण और समाज सुधार से संबंधित है। प्रसिद्ध साहित्यकार कालेलर जी ने उन्हें राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के कार्यालय में नियुक्त की या जहां श्रीदेव सुमन ने राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। श्रीदेव सुमन ने टिहरी राज्य प्रजामंडल के प्रतिनिधि के रूप में इसमें बढ़-चढ़ कर भाग लिया। 1940 में उन्होंने टिहरी रियासत की दमनकारी नीतियों के विरोध में जनता को जागृत करने का प्रयत्न की या, परन्तु टिहरी में आम सभाओं के आयोजन पर लगे प्रतिबंध के कारण वह वापस देहरादून लौट आए। अगस्त 1942 में राष्ट्रव्यापी ‘भारत छोड़ों आन्दोलन’ के कारण टिहरी रियासत से बाहर प्रजामंडल के सभी कर्यकर्ता गिरफ्तार हो गए और सुमन जी को आगरा सेंट्रल जेल में भेज दिया गया। 19 नवम्बर, 1943 को आगरा सेंट्रल जेल से रिहा कर दिये गये। उन्होंने टिहरी रियासत की जन विरोधी राज-सत्ता को उखाडऩे के लिए अपना आंदोलन तेज की या श्रीदेव सुमन को 30 सितम्बर, 1943 को चम्बा में गिरफ्तार कर लिया गया और वे टिहरी जेल भेज दिए गए। रियासत की जेल में उन्हें ठोर यातनाएं दी गई और उन पर राजद्रोह का झूठा मुकदमा चलाया गा। श्रीदेव सुमन ने कहा की मेरे विरुद्ध जो गवाह पेश कीए गए, वे बनावटी व झूठे हैं। मैं जहां अपने भारत देश लिए पूर्ण स्वाधीनता में विश्वास करता हूं। उन पर दो वर्ष की कठोर कारावास व 200 रु. जुर्माना की या गया। जेल में श्रीदेव सुमन को कठोर यातनाएं दी गई। उन की न्यायोचित मांगे न माने जाने के विरोध में उन्होंने 3 मई, 1944, को अपना ऐतिहासिक आमरण अनशन शुरू कर दिया। इसके बाद टिहरी रियासत के विरुद्ध लड़ा गया उनका शांतिपूर्ण आन्दोलन सुमन जी के व्यक्तित्व का पूरा इतिहास है, गांधी जी सत्याग्रह का सुमन जी एक अति सुन्दर उदाहरण बने। 209 दिनों की जेल की एकान्त यातना और 84 दिन की इस ऐतिहासिक अनशन के बाद मात्र 29 वर्ष की अल्पआयु में 25 जुलाई, 1944, को यह क्रांतिकारी अपने देश, आदर्श और आन के लिए इस संसार से विदा हो गए। टिहरी रियासत के कर्मचारियों ने जनाक्ररोश के भय से 25 जुलाई, 1944 की रात्रि को अमर शहीद श्रीदेव सुमन के शव को बिना उनके परिवार को सूचित कीए टिहरी की भिलंगना नदी में बलपूर्वक जलमग्न कर दिया। यह एक पवित्र आत्मा की हत्या थी। परन्तु जो सम्मान और स्थान ऐसे शहीद को मिलना चाहिए था, वह उन्हें नहीं मिला। श्रीदेव सुमन निर्विवाद रूप से एक महान नेता थे जिन्होंने सरल सुखद जीवन मार्ग त्यागकर सेवा व बलिदान का कठोर रास्ता चुना और अंतिम सांस तक उससे डिगे नहीं। उत्तराखण्ड राज्य को टिहरी झील का नाम ‘सुमन सागर’ प्रस्तावित करना चाहिए, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजली होगी।
आभार - सुरेंदर रावत !
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सोमवार, 30 जुलाई 2012
वीर शहीद श्रीदेव सुमन (शहादत दिवस—25 जुलाई, 1944)
मुंशी प्रेमचन्द की कहानियों की सूची
Contents
मुंशी प्रेमचन्द की इन अमोल कृतियों के संकलन पर आपका स्वागत है। अब यह साइट नए पते premchand.kahaani.org पर उपलब्ध है। हाल में किए गए परिवर्तन और आने वाले परिवर्तनों के विषय में जानने के लिए Updates to the site पर क्लिक करें।
उपन्यासों और कहानियों की सूची नीचे दी गई है। पढ़िए और आनन्द लीजिए।
उपन्यास : निर्मला
English Translations: A Complex Problem
कहानियाँ :
उपन्यासों और कहानियों की सूची नीचे दी गई है। पढ़िए और आनन्द लीजिए।
उपन्यास : निर्मला
English Translations: A Complex Problem
कहानियाँ :
‘बड़े घर की बेटी- मुंशी प्रेमचंद
बड़े घर की बेटी
बेनीमाधव सिंह गौरीपुर गॉँव के जमींदार और नम्बरदार थे। उनके पितामह किसी समय बड़े धन-धान्य संपन्न थे। गॉँव का पक्का तालाब और मंदिर जिनकी अब मरम्मत भी मुश्किल थी, उन्हीं के कीर्ति-स्तंभ थे। कहते हैं इस दरवाजे पर हाथी झूमता था, अब उसकी जगह एक बूढ़ी भैंस थी, जिसके शरीर में अस्थि-पंजर के सिवा और कुछ शेष न रहा था; पर दूध शायद बहुत देती थी; क्योंकि एक न एक आदमी हॉँड़ी लिए उसके सिर पर सवार ही रहता था। बेनीमाधव सिंह अपनी आधी से अधिक संपत्ति वकीलों को भेंट कर चुके थे। उनकी वर्तमान आय एक हजार रुपये वार्षिक से अधिक न थी। ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम श्रीकंठ सिंह था। उसने बहुत दिनों के परिश्रम और उद्योग के बाद बी.ए. की डिग्री प्राप्त की थी। अब एक दफ्तर में नौकर था। छोटा लड़का लाल-बिहारी सिंह दोहरे बदन का, सजीला जवान था। भरा हुआ मुखड़ा,चौड़ी छाती। भैंस का दो सेर ताजा दूध वह उठ कर सबेरे पी जाता था। श्रीकंठ सिंह की दशा बिलकुल विपरीत थी। इन नेत्रप्रिय गुणों को उन्होंने बी०ए०–इन्हीं दो अक्षरों पर न्योछावर कर दिया था। इन दो अक्षरों ने उनके शरीर को निर्बल और चेहरे को कांतिहीन बना दिया था। इसी से वैद्यक ग्रंथों पर उनका विशेष प्रेम था। आयुर्वेदिक औषधियों पर उनका अधिक विश्वास था। शाम-सबेरे उनके कमरे से प्राय: खरल की सुरीली कर्णमधुर ध्वनि सुनायी दिया करती थी। लाहौर और कलकत्ते के वैद्यों से बड़ी लिखा-पढ़ी रहती थी। श्रीकंठ इस अँगरेजी डिग्री के अधिपति होने पर भी अँगरेजी सामाजिक प्रथाओं के विशेष प्रेमी न थे; बल्कि वह बहुधा बड़े जोर से उसकी निंदा और तिरस्कार किया करते थे। इसी से गॉँव में उनका बड़ा सम्मान था। दशहरे के दिनों में वह बड़े उत्साह से रामलीला होते और स्वयं किसी न किसी पात्र का पार्ट लेते थे। गौरीपुर में रामलीला के वही जन्मदाता थे। प्राचीन हिंदू सभ्यता का गुणगान उनकी धार्मिकता का प्रधान अंग था। सम्मिलित कुटुम्ब के तो वह एक-मात्र उपासक थे। आज-कल स्त्रियों को कुटुम्ब को कुटुम्ब में मिल-जुल कर रहने की जो अरुचि होती है, उसे वह जाति और देश दोनों के लिए हानिकारक समझते थे। यही कारण था कि गॉँव की ललनाऍं उनकी निंदक थीं ! कोई-कोई तो उन्हें अपना शत्रु समझने में भी संकोच न करती थीं ! स्वयं उनकी पत्नी को ही इस विषय में उनसे विरोध था। यह इसलिए नहीं कि उसे अपने सास-ससुर, देवर या जेठ आदि घृणा थी; बल्कि उसका विचार था कि यदि बहुत कुछ सहने और तरह देने पर भी परिवार के साथ निर्वाह न हो सके, तो आये-दिन की कलह से जीवन को नष्ट करने की अपेक्षा यही उत्तम है कि अपनी खिचड़ी अलग पकायी जाय। आनंदी एक बड़े उच्च कुल की लड़की थी। उसके बाप एक छोटी-सी रियासत के ताल्लुकेदार थे। विशाल भवन, एक हाथी, तीन कुत्ते, बाज, बहरी-शिकरे, झाड़-फानूस, आनरेरी मजिस्ट्रेट और ऋण, जो एक प्रतिष्ठित ताल्लुकेदार के भोग्य पदार्थ हैं, सभी यहॉँ विद्यमान थे। नाम था भूपसिंह। बड़े उदार-चित्त और प्रतिभाशाली पुरुष थे; पर दुर्भाग्य से लड़का एक भी न था। सात लड़कियॉँ हुईं और दैवयोग से सब की सब जीवित रहीं। पहली उमंग में तो उन्होंने तीन ब्याह दिल खोलकर किये; पर पंद्रह-बीस हजार रुपयों का कर्ज सिर पर हो गया, तो ऑंखें खुलीं, हाथ समेट लिया। आनंदी चौथी लड़की थी। वह अपनी सब बहनों से अधिक रूपवती और गुणवती थी। इससे ठाकुर भूपसिंह उसे बहुत प्यार करते थे। सुन्दर संतान को कदाचित् उसके माता-पिता भी अधिक चाहते हैं। ठाकुर साहब बड़े धर्म-संकट में थे कि इसका विवाह कहॉँ करें? न तो यही चाहते थे कि ऋण का बोझ बढ़े और न यही स्वीकार था कि उसे अपने को भाग्यहीन समझना पड़े। एक दिन श्रीकंठ उनके पास किसी चंदे का रुपया मॉँगने आये। शायद नागरी-प्रचार का चंदा था। भूपसिंह उनके स्वभाव पर रीझ गये और धूमधाम से श्रीकंठसिंह का आनंदी के साथ ब्याह हो गया। आनंदी अपने नये घर में आयी, तो यहॉँ का रंग-ढंग कुछ और ही देखा। जिस टीम-टाम की उसे बचपन से ही आदत पड़ी हुई थी, वह यहां नाम-मात्र को भी न थी। हाथी-घोड़ों का तो कहना ही क्या, कोई सजी हुई सुंदर बहली तक न थी। रेशमी स्लीपर साथ लायी थी; पर यहॉँ बाग कहॉँ। मकान में खिड़कियॉँ तक न थीं, न जमीन पर फर्श, न दीवार पर तस्वीरें। यह एक सीधा-सादा देहाती गृहस्थी का मकान था; किन्तु आनंदी ने थोड़े ही दिनों में अपने को इस नयी अवस्था के ऐसा अनुकूल बना लिया, मानों उसने विलास के सामान कभी देखे ही न थे।एक दिन दोपहर के समय लालबिहारी सिंह दो चिड़िया लिये हुए आया और भावज से बोला–जल्दी से पका दो, मुझे भूख लगी है। आनंदी भोजन बनाकर उसकी राह देख रही थी। अब वह नया व्यंजन बनाने बैठी। हांड़ी में देखा, तो घी पाव-भर से अधिक न था। बड़े घर की बेटी, किफायत क्या जाने। उसने सब घी मांस में डाल दिया। लालबिहारी खाने बैठा, तो दाल में घी न था, बोला-दाल में घी क्यों नहीं छोड़ा? आनंदी ने कहा–घी सब मॉँस में पड़ गया। लालबिहारी जोर से बोला–अभी परसों घी आया है। इतना जल्द उठ गया? आनंदी ने उत्तर दिया–आज तो कुल पाव–भर रहा होगा। वह सब मैंने मांस में डाल दिया। जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह क्षुधा से बावला मनुष्य जरा-जरा सी बात पर तिनक जाता है। लालबिहारी को भावज की यह ढिठाई बहुत बुरी मालूम हुई, तिनक कर बोला–मैके में तो चाहे घी की नदी बहती हो ! स्त्री गालियॉँ सह लेती हैं, मार भी सह लेती हैं; पर मैके की निंदा उनसे नहीं सही जाती। आनंदी मुँह फेर कर बोली–हाथी मरा भी, तो नौ लाख का। वहॉँ इतना घी नित्य नाई-कहार खा जाते हैं। लालबिहारी जल गया, थाली उठाकर पलट दी, और बोला–जी चाहता है, जीभ पकड़ कर खींच लूँ। आनंद को भी क्रोध आ गया। मुँह लाल हो गया, बोली–वह होते तो आज इसका मजा चखाते। अब अपढ़, उजड्ड ठाकुर से न रहा गया। उसकी स्त्री एक साधारण जमींदार की बेटी थी। जब जी चाहता, उस पर हाथ साफ कर लिया करता था। खड़ाऊँ उठाकर आनंदी की ओर जोर से फेंकी, और बोला–जिसके गुमान पर भूली हुई हो, उसे भी देखूँगा और तुम्हें भी। आनंदी ने हाथ से खड़ाऊँ रोकी, सिर बच गया; पर अँगली में बड़ी चोट आयी। क्रोध के मारे हवा से हिलते पत्ते की भॉँति कॉँपती हुई अपने कमरे में आ कर खड़ी हो गयी। स्त्री का बल और साहस, मान और मर्यादा पति तक है। उसे अपने पति के ही बल और पुरुषत्व का घमंड होता है। आनंदी खून का घूँट पी कर रह गयी।
आनंदी कहॉँ जाते हो?
लालबिहारी–जहॉँ कोई मेरा मुँह न देखे। आनंदी—मैं न जाने दूँगी? लालबिहारी—मैं तुम लोगों के साथ रहने योग्य नहीं हूँ। आनंदी—तुम्हें मेरी सौगंध अब एक पग भी आगे न बढ़ाना। लालबिहारी—जब तक मुझे यह न मालूम हो जाय कि भैया का मन मेरी तरफ से साफ हो गया, तब तक मैं इस घर में कदापि न रहूँगा। आनंदी—मैं ईश्वर को साक्षी दे कर कहती हूँ कि तुम्हारी ओर से मेरे मन में तनिक भी मैल नहीं है। अब श्रीकंठ का हृदय भी पिघला। उन्होंने बाहर आकर लालबिहारी को गले लगा लिया। दोनों भाई खूब फूट-फूट कर रोये। लालबिहारी ने सिसकते हुए कहा—भैया, अब कभी मत कहना कि तुम्हारा मुँह न देखूँगा। इसके सिवा आप जो दंड देंगे, मैं सहर्ष स्वीकार करूँगा। श्रीकंठ ने कॉँपते हुए स्वर में कहा–लल्लू ! इन बातों को बिल्कुल भूल जाओ। ईश्वर चाहेगा, तो फिर ऐसा अवसर न आवेगा। बेनीमाधव सिंह बाहर से आ रहे थे। दोनों भाइयों को गले मिलते देखकर आनंद से पुलकित हो गये। बोल उठे—बड़े घर की बेटियॉँ ऐसी ही होती हैं। बिगड़ता हुआ काम बना लेती हैं। गॉँव में जिसने यह वृत्तांत सुना, उसी ने इन शब्दों में आनंदी की उदारता को सराहा—‘बड़े घर की बेटियॉँ ऐसी ही होती हैं।‘रमाकांत गोस्वामी : पत्रकार से मंत्री बनने का सफर / अनामी शरण बबल

तीनों से मेरा साबका पड़ा है। लिहाजा पार्षद से विधायक और ( जनता के वोट से ज्यादा) किस्मत के धनी महाबल मिश्रा और लाटरी (बाजी) टिकट की बिक्री के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले विजय गोयल की सफलता की कहानी को सामने रखना भी जरूरी है। महज 10 साल के भीतर लाटरी(बाजी) नेता से सांसद और कैबिनेट मंत्री तक बनने वाले विजय गोयल की परियों जैसी सफलता की कहानी के पीछे दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की हर प्रकार की भूमिका रही है। दिवंगत प्रमोद महाजन की वजह से आसमानी सफलता हासिल करने वाले गोयल कभी डीयू नेता भी रहे हैं। अखबार के दफ्तरों में अपने प्रेस नोट्स को लेकर अक्सर ठीक से छपने के लिए अनुनय विनय और प्रार्थना करने वाले गोयल सांसद तक तो पत्रकारों के संपर्क में रहे, मगर पीएम अटल बिहारी वाजपेयी कैबिनेट में मंत्री बनते ही गोयल भाजपा के वरिष्ठ मंत्री बनकर पत्रकारों से परहेज करने लगे।
यही हाल लगभग, पार्षद से सांसद बनने वाले महाबल मिश्रा की रही। पत्रकारों को देखते ही हाथ जोड़ने (इस मामले में सपा नेता मुलायम को भी शर्मसार करने वाले) के लिए मशहूर महाबल में छपास रोग इतना था कि अपने प्रेस रिलीज को लेकर अखबार के दफ्तर तक जाने में कोई गुरेज नहीं होता था। अपनी मासूमियत और इनोसेंट फेस की वजह से महाबल पत्रकारों में काफी लोकप्रिय हो गए और उम्मीद से ज्यादा प्रेस में जगह पाने में हमेशा कामयाब रहे। हालांकि विधायक बनने के बाद महाबल में थोड़ा गरूर आ गया और सांसद बनने के बाद तो थोड़ा बौद्धिक होने का घंमड़ सिर चढ़कर बोलने लगा। यही वजह है कि अब महाबल दिल्ली की राजनीति में महा होने के बाद भी बली बनने का सपना शायद पूरा नहीं कर पाएंगे।
हां तो अभी बात हो रही थी, रमाकांत गोस्वामी की। अपनी पत्रकारीय प्रतिभा से ज्यादा बिरला मंदिर में अपने पुजारी रिश्तेदारों की सिफारिश से दैनिक हिन्दुस्तान में रिपोर्टर की नौकरी पाने वाले रमाकांत गोस्वामी दैनिक हिन्दुस्तान में चीफ रिपोर्टर भी बनने में कामयाब रहे। बात 1996 लोकसभा चुनाव की है। मैं गोस्वामी को जानता तो था, मगर मिलने का मौका कभी नहीं मिला था। कई तरह से बदनाम होने के बावजूद खासकर पत्रकारों में खासे लोकप्रिय भूत(पूर्व) सांसद सज्जन कुमार की जेब में रहने के लिए गोस्वामी ज्यादा बदनाम थे। तालकटोरा रोड़ वाले प्रदेश कांग्रेस दफ्तर में सज्जन की प्रेस कांफ्रेस थी। हिन्दुस्तान की तरफ से संतोष तिवारी हमलोग के साथ ही बैठे थे, मगर सज्जन के बगल में एक मोटा सा आदमी बैठा था। प्रेस कांफ्रेस के दौरान कई बार सज्जन उससे सलाह लेते तो कई बार अपना मुंह आगे बढ़ाकर वह आदमी भी सज्जन को सलाह देता। आधे घंटे की प्रेस कांफ्रेस के दौरान सज्जन को आठ-दस बार अनमोल सलाह देने वाले के प्रति मेरे मन में कोई खास उत्कंठा नहीं जगी।
प्रेस वार्ता खत्म होने के बाद मैं और ज्ञानेन्द्र सिंह (दैनिक जागरण कानपुर से दिल्ली आए चंद माह भी तब नहीं हुए थे) डीपीसीसी के बाहर खड़े होकर बातचीत में मशगूल थे। तभी मेरी नजर सज्जन कुमार के उसी चम्मचे की तरफ गई, जो अब तक दो बार डीपीसीसी के अंदर से निकल कर बाहर खड़ी अपनी कार तक जाकर कोई सामान लेकर अंदर जा चुका था। चंद मिनटों में ही एक बार फिर वही चम्मचा एक बार फिर बाहर निकल कर अपनी कार की तरफ जाता हुआ दिखा। मैने ज्ञानेन्द्र से कहा चलो जरा माजरा क्या है देखें? अपनी कार से कुछ सामान निकाल कर वापस डीपीसीसी लौट रहे मोटे सज्जन को देखकर हाथ जोड़ते हुए मैंने कहा, सर आप कौन, पहचाना नहीं? तब तपाक से वह बोला तुम कौन? अपना आपा खोए बगैर धीरज के साथ मैंने जवाब दिया मैं राष्ट्रीय सहारा से अनामी और ये दैनिक जागरण से ज्ञानेन्द्र। तब थोड़ा सहज होकर सज्जन के चम्मचे ने कहा अरे, तुमने मुझे नहीं पहचाना? मैं एचटी से गोस्वामी। तब पूरी विनम्रता के साथ हाथ जोड़कर मैंने फिर कहा नहीं सर नहीं पहचाना। तब सज्जन के चमच्चे ने कहा कमाल है, अरे भाई मैं रमाकांत गोस्वामी हिन्दुस्तान से। अब चौंकने की बारी मेरी थी। मेरी आंखे विस्मय से लगातार फैल रही थी। मैंने कहा कमाल है, सर आप और सज्जन के साथ, तो फिर संतोष तिवारी जी? लगभग सफाई देते हुए गोस्वामी ने कहा अरे सज्जन तो अपने भाई हैं, साथ देना पड़ता है। संतोष कवरेज के लिए आया था। इस सफाई के बाद भी मेरी हैरानी कम नहीं हो रही थी। बात को मोड़ने के लिए गोस्वामी ने शराब की कुछ बोतल और लिफाफे में रखे पकौड़े को दिखाते हुए पूछा खाओगे? जबाव देने की बजाय तपाक से मैंने पूछा क्या आप खाते है? इस पर जोर देते हुए गोस्वामी ने कहा, नहीं मैं तो पंड़ित हूं। तब मैंने पलटवार किया। नहीं सर, मैं तो महापंड़ित हूं, इसे छूता तक नहीं। मेरी बातों से वे लगभग झेंप से गए। इसके बावजूद अपने दफ्तर में कभी आने का न्यौता देकर अपनी पिंड़ छुड़ाई।
लोकसभा चुनाव खत्म होने के बाद मतगणना से एक दिन पहले तालकटोरा स्टेडियम में हो रही तैयारियों का जायजा लेने गया था। वहां पर एक बार फिर गोस्वामी से टक्कर हो गई। इस बार हम दोनों एक दूसरे को पहचान गए। मैंने गोस्वामी से पूछा- सर, परिणाम में क्या होने वाला है? एकदम बेफ्रिक होकर गोस्वामी ने कहा होने वाला क्या है? बस देखते रहो सज्जन भाईसाहब किस तरह जीतते है। इस पर मैंने आपत्ति की और बोला कि मामला कुछ दूसरा ही होने वाला है। तब ठठाकर हंसते हुए गोस्वामी ने कहा, 'तुम अनुभवहीन लोग पोलिटिकल हवा को नहीं जानते।' खैर बात को तूल देने की बजाय मैं दफ्तर लौट आया और अगले ही दिन बीजेपी के कृष्णलाल शर्मा ने सज्जन कुमार को एक लाख 98 हजार मतों से हरा कर सज्जन कुमार एंड़ कंपनी का बोलती ही बंद कर दी थी। हालांकि इसे शर्मा की जीत की बजाय इसे तत्कालीन सीएम साहिब सिंह वर्मा और पूरी बीजेपी की जीत कहें तो भी कोई हैरानी नहीं।
हिन्दुस्तान में नौकरी करने के बावजूद बिरला से ज्यादा सज्जन की वफादारी के लिए (कु) या विख्यात गोस्वामी को सज्जन सेवा का पूरा फल मिला और दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान सज्जन की पैरवी से रमाकांत 1998 में पत्रकारिता से अलग होकर अपने चेहरे पर पोलिटिकल मुखौटा लगाने में कामयाब रहे। निगम सदस्य विधायक होने के नाते गोस्वामी से मेरी एक और मुठभेड़ 2000 या 2001 में हुई। जब वे निगम की एक बैठक में बतौर विधायक एमसीडी सदन में आए। हम पत्रकारों को देखते ही गोस्वामी ने सबों को बेटा- बेटा कहकर प्यार दिखाना शुरू कर दिया। अपने पिता के रूप में थोड़ी देर तक बर्दाश्त करने के बाद अंततः मैने टोका गोस्वामीजी नेता का चेहरा तो ठीक है, मगर हम पत्रकारों के बाप बनने की चेष्टा ना करें। कई और पत्रकारों ने भी जब आपत्ति की तो फिर गोस्वामी खिसक लिए।
सज्जन की वफादारी निभाते हुए ही गोस्वामी ने शीला दीक्षित के भी वफादार साबित हुए। जिसके ईनाम के रूप में गोस्वामी को मंत्री होने का परम या चरम सुख भी हासिल हो गया है। मेरी गोस्वामी से कोई शिकवा शिकायत वाला रिश्ता भी कभी नहीं रहा, इसके बावजूद मंत्री बनने की खबर से न मन में कोई खुशी नहीं हुई। इसके बावजूद मैं यह जरूर चाहूंगा कि मंत्री की पारी 2013 तक जरूर नाबाद रहे।
लेखक
अनामी शरण बबल
अनामी शरण बबल

Comments (5)

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written by arvind mishra, February 18, 2011
written by arvind mishra, February 18, 2011
ramakant ji ek or bayakti ke chamje the o the punjabi bagh janmasthami ke sansthapak balkishan aggarwal ke . jinhone us samey sajjan kumar ke through ticket dilwaya tha , or aab patrakar to patrakar o us vayakti ko bhi bhul gaye hai , khair chhoriye isame 0goswami ji ki koi galati nai hai politics ka rob i aisa hota hai , ab mahabal mishara ko hi le lijiye.
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written by गोविन्द माथुर , February 18, 2011
written by गोविन्द माथुर , February 18, 2011
अब पत्रकारिता कोई मिशन तो रहा नहीं , अब तो लोग इस पेशे में पैसा कमाने या राजनैतिक लाभ लेने ही तो आते है.
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written by chandra prakahs pandey, February 17, 2011
written by chandra prakahs pandey, February 17, 2011
respected sir
charan champo kee mahima ka naya result hai ramakant goswami. halaki iskee ek lambi list hai. lucknow wale to sab jante hai.
chandra prakash pandey
9013121141
charan champo kee mahima ka naya result hai ramakant goswami. halaki iskee ek lambi list hai. lucknow wale to sab jante hai.
chandra prakash pandey
9013121141
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written by pardeep mahajan, February 16, 2011
...written by pardeep mahajan, February 16, 2011
"पत्रकार को न मारे डकेत, न मारे सरकार ,
"अगर मारे तो करतार या फिर खुद पत्रकार "
(प्रदीप महाजन)
www .insmedia .org
"अगर मारे तो करतार या फिर खुद पत्रकार "
(प्रदीप महाजन)
www .insmedia .org
written by एस एन द्विवेदी, February 16, 2011
अति सुंदर अनामि जी लगे रहिये....ऐसे ही पोल खोलते रहिए...
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