रविवार, 20 मार्च 2011

यायावर रमेश शर्मा

वही अर्जुन, वही बाण

बुधवार, ९ मार्च २०११


नब्बे के दशक में दिल्ली की पत्रकारिता के उन दिनों में अर्जुन सिंह बहुत बड़ी शख्सियत थे जब अपन ऐसे नेताओं के इंटरव्यू कर के ही खुद को गदगद रखते थे| कुछ संस्मरण हैं| उनके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि वे सस्ती लोकप्रियता के टोटकों में कतई यकीन नहीं रखते थे और राजनीति में शालीन रह कर भी विरोधी की काट की जा सकती है यह शैली अर्जुन सिंह ने गढ़ी थी| उनमे राजनीति की जितनी समझ थी और हवा के रूख को पहचान कर अपने कदम तय करने का जितना बारीक (शार्प) हुनर था वह कई बड़े नेताओं के पास भी नही था जो नाम में उनसे आगे थे लेकिन अर्जुन सिंह ने उनको भी पीछे छोड़ दिया| एम्स के डाक्टर कृत्रिम प्रणालियों के सहारे कब तक उनको जीवित रख पाते| अब वे संस्मरणों के अर्जुन हैं और अर्जुन सिंह को जो जानते रहे हैं वे जानते हैं कि अर्जुन सचमुच इस इस राजनीति के महाभारत में अर्जुन थे और लक्ष्य पर उनकी नजर पैनी रहती थी| उनके तीर बेआवाज चलते थे और जिसे बेधते थे वह चारों खाने चित्त पड़ जाता था| जलवा जिसे कहते हैं वो अर्जुन सिंह ने जमाया और एक वो दौर भी था जब अर्जुन सिंह की नजर से सारे बड़े फैसले हो जाया करते थे| उस दौर में अर्जुन सिंह के तर्क से राजनीति में ताकत के मायने गढ़े जाते थे और उनकी चाल का मतलब होता था सफलता की गारंटी| नब्बे के दशक में कई पत्रकार उनके इस कदर भक्त थे कि हर राजनीतिक खबर के केंद्र में होते थे अर्जुन सिंह और जो खबर बनती थी वह बताती थी कि एक शख्स ऐसा भी है जो बैठा तो मध्य प्रदेश में है मगर उससे दिल्ली के दिग्गज भी डरते हैं| अर्जुन सिंह से बड़ा अर्जुन सिंह का प्रभा-मंडल था|फिर एक दौर ऐसा भी आया जब वे लोक सभा की टिकट से वंचित कर दिए गए और अपनी पुत्री को भी टिकट नहीं दिला पाए| समय का फेर था | इसीलिए लिखा गया है

नर बली नही होत है

समय होत बलवान

भीलन लूटी गोपियाँ

वही अर्जुन वही बाण


राजीव गांधी जब तक जीवित रहे अर्जुन सिंह सीढियां फलांगते गए| समस्या तब हुई जब राजीव नहीं रहे और नेता का नाम ले कर हर काम करते रहो वाली जिस शैली का सूत्रपात अर्जुनसिंह ने किया था वो चरमरा गयी| सीताराम केसरी और नरसिम्हा राव ने मिल कर अर्जुन के तीरों को ऐसा बोथरा किया कि अंततः उनको तिवारी कांग्रेस बनानी पडी और यहाँ भी अध्यक्ष नारायण दत्त तिवारी ही रहे| अपनी शैली से अर्जुन सिंह ने जितने मित्र बनाए उतने शत्रु भी, यही उनके लिए शायद गलत हुआ| हर बार उनकी राह काँटों से सजी रहती| उनकी इमेज एक घाघ लीडर की बन गयी जो कब किसको निपटा देगा इससे विरोधी भी घबराए रहते थे| उनने निपटाया भी|

एक उदाहरण याद आता है- उन दिनों वे सी एम् थे और शुक्ल बंधुओं से उनकी बिलकुल नहीं पटती थी| वे आए दिन छत्तीसगढ़ के दौरे पर आते| शुक्लजी कहते उनको तो रोटी भी नहीं पचती अगर यहाँ ना आएं तो..वगैरह- वगैरह.. और जब अर्जुन सिंह से पूछा जाता तो वे रहस्य से भरी अपनी मुस्कान व तीखी नजरों को ढके चश्मे से झांकते कहते "वे(शुक्लजी) तो बड़े नेता हैं आदरणीय हैं..." आदरणीय बोल-बोल कर के ऐसा पलीता लगाया कि कई घटनाएं अब कालखंड का हिस्सा भर हैं| उनके स्कूल आफ पॉलिटिक्स से सीखे लोग बाद में उनको ही पटकनी दे कर आगे निकल गए| मेरा मानना है कि अर्जुन सिंहजी में काबिलियत थी और वे और भी आगे जाते| राष्ट्रीय स्तर पर एक मौके पर उनने प्रूव किया जब पंजाब में लोंगोवाल समझौता कराया| इसके बाद वे विरोधियों से निपटने में ही ऊर्जा लगाते रहे| हमारे यहाँ रिवाज है कि दिवंगत होने के बाद व्यक्ति के बारे में अच्छा ही कहा जाता है लेकिन मैं पूरी विनम्रता के साथ उनके प्रति सम्मान और श्रद्धा का भाव रखते हुए यह जरूर कहना चाहूँगा कि अर्जुन सिंह ने अपने शीर्ष काल में दिमाग से राजनीति ज्यादा की अगर वे दिल से करते तो शायद उनका फलक और बड़ा हो सकता था|

सिर्फ पलाश बाकी खलास

बृहस्पतिवार, ३ मार्च २०११


इस बार लम्बे अरसे बाद गाँव जाना हुआ और वहाँ पंहुच कर बसंत का जो नजारा देखा तो होश उड़ गए| निस्तब्ध वातावरण में प्रकृति एक नए चोले में सज रही है और बसंत ने कानन में डेरा डाल रखा है| आगबबूला हुए सुर्ख पलाश ने बाजी मार ली है और बाकी सब खलास हैं| सूखे दरख्तों के पत्ते झर रहे हैं और हवा की हिलोर भटकाने के लिए काफी है| पहाड़ अब तक हरी चादर ओढ़े सो रहे थे अब जाग रहे हैं और जंगल का हरेक दरख़्त अपने पत्तों का बोझ धरती पर पटकने को आतुर है| सूखे पत्तों के चादर सी जमी नजर आती है |अब चारों तरफ उजाड़ का मौसम है| कहीं कोई हरित पट्टी दिख जाए तो राहत मानिए|
इस पूरे नज़ारे में पलाश उर्फ़ टेसू उर्फ़ पलसा सबसे ज्यादा आकर्षित करता है| उसके लाल सुर्ख फूल खुल कर खिले हैं| यह बसंत है|और बसंत क्या है यह जंगल से ज्यादा कोई नहीं जानता| जब बड़े बड़े पत्तों वाला पलाश अपने सूखते हुए पत्तों को छोड़ सिर्फ सुर्ख लालिमा लिय्रे दहकती हुई फूलों की डालियों के साथ तेज धूप में तना रहता है तो सारे पेड़ उसकी इस आभा के सामने फीके लगते हैं| एक अकेला पेड़ सारे वीराने को अपने सौन्दर्य से भर देता है। पलाश लाख सुन्दर फूल है पर उसमें सुगन्ध नहीं होती ! वह इतना भारी होता है की उसे जूड़े में सजाया नहीं जा सकता, वह किसी भी गुलदस्ते की शोभा नहीं बन पाता| पलाश इस मौसम में केसरी आभा से दमकता है| फागुन मस्ती कीशुरुआत है| बाकी पेड़ और झाड़ियाँ भी हैं पर रूतबा तो पलाश और सेमल का ही है| सेमल हर जगह नहीं दिखता |

सुखद है कि घर के बगीचे में एक अदद पलाश का भी पेड़ साबुत खडा हुआ है और इस बार वही सबके आकर्षण का केंद्र रहा| इसका वानस्पतिक नाम ब्यूटिया मोनोस्पर्मा है। इसकी लकड़ी से कोई फर्नीचर वगैरह नहीं बन सकता है इसीलिए अमूमन इसे लोग नहीं उगाते|

जंगलों में इसके पेड़ बहुतायात में पाए जाते हैं| ख़ास करके इस इलाके में तो सड़क का लगभग हर किनारा पलाश की उपस्थिति दर्शा जाता है| इसे "जंगल की आग" भी कहा जाता है। प्राचीन काल ही से होली के रंग इसके फूलो से तैयार किये जाते रहे है।इसके फूल सुखा कर उबाल लिए जाते हैं जिससे प्राकृतिक रंग तैयार हो जाता है| यह फूल असाध्य चर्म रोगों में भी लाभप्रद होता है। हल्के गुनगुने पानी में डालकर सूजन वाली जगह धोने से सूजन समाप्त होती है।टेसू के फूल को घिस कर चिकन पाक्स के रोगियों को लगाया जा सकता है। इससे एलर्जी नहीं होती है|
गाँव की अमराई और घर का एक अदद आम के पेड़ पर इस बार खूब बौरें आईं हैं| यह सुखद संकेत है कि आम खूब फलेंगे| इन पेड़ों के पास जा कर कोई खडा हो जाए तो उनकी खुशबू पुलकित कर देती है| अमुवा की डाली पे गाए मतवाली... हमने कोयल की कूक सुनने का इंतज़ार किया मगर शायद कोयल आजकल मौन है| याद आया... बीत गयी रुत सावन की कोयल हो गयी मौन, अब दादुर वक्ता भए तो हमको पूछी कौन| खैर आगे बढ़ने पर देखा सेमल (रुई)पर भी गुलाबी फूल आए हैं और वह भी पलाश के साथ होड़ कर रहा है|

बन गिस हमर राज अब तहूँ भुगत

सोमवार, २८ फरवरी २०११


अब तक तो मैं यह मानता आया हूँ कि पत्रकार को सिर्फ अपने काम से काम रखना चाहिए और छत्तीसगढ़ जैसे अल्प विकसित राज्य में पत्रकारिता करना हो तो अपनी जान सम्हाल कर भी चलना चाहिए| राज्य के दो उदीयमान पत्रकार गोली का निशाना बना दिए गए| किसने मारा अब तक पता नहीं चल पाया है और कब कौन किसको गोली मार जाएगा इसकी भी गारंटी नहीं है| थक-हार कर सरकार ने मामला सी बी आई को सौंप दिया है| ऐसा नही है कि पुलिस मामले की जांच नहीं कर सकती मगर देश भर में यह साफ़ देखा जा रहा है कि जब भी ऐसा कोई हाई -प्रोफाईल मामला होता है पुलिस वाले दबाव में घुट जाते हैं और सी बी आई की जांच सूची बढ़ जाती है वरना आज भी भारत के एक साधारण से सिपाही को पूरी शै दे दी जाए तो 24 घंटे में पता लग सकता है कि बोफोर्स में दलाली किसने खाई और टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला किसने किया और अपराधों की तो सारी सूची क्लीयर हो सकती है| सारे अपराधी थानों में उठक-बैठक करते नजर आ सकते है|

छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता करना बेहद खतरनाक ही नहीं क्लेश-जनक भी हो गया है| ऐसा लगता है कि कोई सिस्टम जैसी कोई चीज विकसित ही नहीं हो पाई है |ताजा मामला छत्तीसगढ़ विधान-सभा का है| इसका बजट सत्र चल रहा है| सत्र की कवरेज के लिए पत्रकारों के पास बनाने का काम सचिवालय करता है| इसके लिए बाकायदा स्टाफ है मगर लाल फीताशाही की हद देखिए कि यह कैसे काम करती है| आठ दिन पहले एक आवेदन दिया गया जिसके मुताबिक़ कायदे से प्रवेश"पास" सत्र शुरू होने के दिन से पहले ही बन जाना चाहिए था मगर नहीं बन पाया| हमेशा की तरह कई संदेशवाहक रिमाईंडर दिए गए मगर कहा गया कि एक आवेदन और दे दीजिए| थक -हार कर वो भी दे दिया गया| सदन में बजट पेश होना था और सुबह नौ बजे तक मेरा पास नहीं बन पाया था|इसके बावजूद कि मुझे यह बताने में शर्मिंदगी महसूस हो रही है कि मैं विधानसभा की पिछली मीडिया समिति का सदस्य रहा हूँ | दिल्ली विधानसभा की मीडिया सलाहकार समिति का भी सदस्य रहा हूँ और लोक सभा की कवरेज भी छह साल की है| |

मित्रों पास तो बन चुका मगर इसके लिए सुबह-सुबह जितने फोन करने पड़े, फूं-फां करनी पडी कि उससे सचमुच कोफ़्त होने लगी| अंततः यह सूचना आई कि आपका पास गेट क्रमांक फलां पर है आप सीधे आ जाईए| वे मित्र सहयोगी और अफसर भी सुबह-सुबह परेशान हुए जिनको मैं इस अल्प विकसित इलाके में तल्लीनता से काम करते हुए देख खिन्नता के दौर में उनसे प्रेरणा लेता हूँ कि इलाके की तस्वीर जरूर बदलेगी ,बशर्ते कोई सिस्टम बने,हम प्रोफेशनल रुख अख्तियार करें| खीज इस बात की भी होती है कि ऐसे दिन देखने के लिए ही हम छत्तीसगढ़िया पत्रकारों ने पिछली सदी के अंत में जंतर -मंतर पर धरने दिए थे और दिल्ली में तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री मदनलाल खुराना की कांफ्रेंस में उचक उचक कर नए राज्यों के गठन बाबत सवाल पूछे थे| इस प्रसंग पर एक मित्र की टिप्पणी - "बन गिस हमर राज अब तंहू भुगत" |

और नहीं बस और नहीं

मंगलवार, २२ फरवरी २०११

बीते रविवार को अवसर था ताज महोत्सव में आगरा में संपन्न सूरसदन में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का। सभागार खचाखच भरा था| बाकी कवि सम्मलेन जैसा ही यह कवि सम्मलेन हो जाता तो यहाँ लिखने की जरूरत नहीं पड़ती लेकिन खड़े थे एक प्यार का नगमा है..., जिंदगी की न टूटे लड़ी..., पुरवा सुहानी आई रे... और नहीं बस और नहीं गम के प्याले और नहीं जैसे कालजयी गीतों के रचयिता कवि गीतकार संतोषानंद के साथ जो बदसलूकी आयोजकों ने की वह बेहद शर्मनाक तरीके से सरेआम हुई । जो रिपोर्टें हैं उनके मुताबिक़ कंपकंपाते पैरों और लड़खड़ाती जबान से 72 वर्ष की उम्र में यह गीतकार जब गीतों को सुर देने की कोशिश कर रहे थे तब उनको बैठ जाने के लिए कह दिया गया| इतना ही नहीं उनसे माईक छीन लिया गया| उनको हूट कर के बैठ जाने के लिए विवश कर दिया गया| खबर यह भी है कि संचालक महोदय शुरू से ही उनको ले कर टिप्पणियाँ कर रहे थे और ना मालूम उनको क्या सूझी उनने कविता के दौरान ही अपने माईक से दीगर सूचना देनी शुरू कर दी इस पर एतराज के बाद हंगामा भी हुआ और कवि सम्मलेन एक अखाड़े में तब्दील हो गया जिसमे डीएम औए दीगर अफसरों ने व्यवस्था संभाली |
फिर भी कवि सम्मलेन में झगडे होते रहे और शरीफ लोग एक एक करके खिसकते रहे| इसके बावजूद कवि संतोषानंद उस गीत को सुनाना चाहते थे जो उनके लिए प्यार के नगमे से बड़ा था उनने सुना ही दिया ।नज़ारे ये कहने लगे नयन से बड़ी कोई चीज नहीं|मेरे दिल ने कहा कि मेरे वतन से बड़ी कोई चीज नहींप्रख्यात हिन्दी कवि एवं फिल्म गीतकार संतोषानंद को वर्ष 2010 का 'मनहर ठहाका पुरस्कार' से सम्मानित हैं| 'रोटी, कपड़ा और मकान', 'क्रांति' तथा 'प्रेम रोग' जैसी चर्चित फिल्मों में अपने गीतों के लिए सुर्खियों में रहे लोकप्रिय गीतकार श्री संतोषानंद को 1975 और 1984 में 'फिल्म फेयर पुरस्कार', 'महादेवी वर्मा पुरस्कार', 'निरालाश्री पुरस्कार', 'मौलाना मोहम्मद अली जौहर अवॉर्ड', 'साहित्यश्री पुरस्कार' सातवां 'विपुलम् सहित अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है।
संतोषानन्‍द ने हाल में एक इंटरव्यू में कहा कि ‘अब कविता नहीं, कविता का धंधा हो रहा है। चुटकुलेबाज मजे ले रहे हैं। अंग्रेजी और दूसरी भाषाओं से थाट्स चुरा कर गीत लिखे जा रहे हैं। एक दौर था जब फिल्‍मों में ‘ ऐ मालिक तेरे बंदे हम ’ जैसे गीत लिखे जाते थे, और गीतकारों को भजन लिखने वाला माना जाता था। उसे दौर में मैने भाषा को प्लेन करने का काम किया और सीधी सपाट भाषा में मौलिक थाट्स के साथ ‘ इक प्‍यार का नगमा है, मौजों की रवानी है। जिंदगी और कुछ भी नहीं, तेरी मेरी कहानी है ‘ जैसा गीत लिखा। दरअसल यह मौलिक थाट इस लिये था क्‍योंकि यह गीत मैने अपनी पत्‍नी को सामने रख लिखा था। इस गीत की एक-एक पंक्ति मेरे जीवन का भोगा हुआ सच है।"

सवाल है कि क्या पकी उम्र के कारण कोई कवि कुर्सी पर बैठ कर कविता सुनाए तो क्या उसका उपहास उड़ाया जाएगा? क्या उपहास उड़ाने वाले कभी वृद्ध नहीं होंगे? इससे भी बडा सवाल यह है कि इतने बड़े रचनाकार के साथ क्या इस तरह का सुलूक क्या उचित है? आपको नहीं सुनना था तो बुलाया ही क्यों और जब वे आ गए तो माईक छीनना कम से कम कवि सम्मलेन की तो परम्परा नहीं है, और वहाँ जो कुछ हुआ उससे यही साबित होता है कि अब अमूमन कवि सम्मलेन में भी लोग सिर्फ चुटकुले चाहते हैं और जो संचालक होते हैं उनको तो दूसरों के पोस्टर उखाड़ने का लाईसेंस मिल जाता है| यह अवमूल्यन लम्बे समय से हुआ है जिसमें दोष श्रोताओं का भी है और कवियों का भी जिनने श्रोता को भ्रष्ट करने में कोई कसर नहीं छोडी है|

लाल लड़ाकों का इमोशनल अत्याचार

मंगलवार, १५ फरवरी २०११


बस्तर में अपहरण और रिहाई की का एक और एपिसोड देखने को मिला है जिसमे अंत तो सुखांत ही रहा है| नक्सलियों के चंगुल से छूट कर रिहा हुए जवान और उनके परिजन राहत की साँसें ले रहे हैं , मीडिया को भरपूर खबर मिली है|स्वामी अग्निवेश ने कहा कि हम एक बड़ी चुनौती, बड़ी समस्या का हल ढूंढने की कोशिश कर रहे हैं। हमारी इस कोशिश में मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने सकारात्मक रूचि दिखाते हुए पहल की है। रिहाई के बाद जो बातें सामने आई हैं उससे हम कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार ने एक सकारात्मक पहल की है।

जानकारों की राय में इस एपिसोड में एक बात खुल कर स्थापित हुई है कि पिछले दो वर्षों से बस्तर में तथाकथित आपरेशन ग्रीन हंट चलाने के नाम पर जो 700 करोड़ रूपये फूंके गए हैं- नक्सली लड़ाकों ने उस पर पूरी तरह पानी फेर दिया है और अब वे शुद्ध रूप से इमोशनल अत्याचार पर उतर आए हैं| मीडिया का चस्का लग चुका है| यह चस्का नेताओं को भी लगा रहा है|बस्तर के कई गांवों में पीने के पानी के नल नहीं है लेकिन बस्तर के नक्सली कमांडर मीडिया को रिकार्डेड बयानों की सी डी भेजते हैं|

इस तरह के छत्तीसगढ़ के कुल तीन और बेगुसराय बिहार के पुलिस अपहरण काण्ड की रोशनी में देखें तो साफ़ है कि गुरिल्ला वार का नया मन्त्र है- जवानो को उठाओ और सरकार की उठक-बैठक कराओ| इस पर भी तुर्रा यह कि दिक्कत सरकार से है , मांगें भी सरकार मानेगी मगर सरकार के किसी नेता या अफसर से बात नहीं करेंगे| ऐसा अपहरण छत्तीसगढ़ में वे पिछले छह महीनों मे दो बार कर चुके हैं और ताजा घटनाक्रम में पांच पुलिसकर्मी पिछले 18 दिनों तक उनके चंगुल में बंधक रहे हैं|

अपहृत जवान अबूझमाड़/बस्तर इलाके में रखे गए थे मगर इस इलाके में झाँकने तक की किसी की हिम्मत नहीं रही है क्योंकि इलाका पूरी तरह से जंगली और पहाडी है| दिन में भी यहाँ सूरज की रोशनी जमीन पर बमुश्किल पहुचती है|

नारायणपुर के गवाड़ी गर्दा गांव के जंगल से आठ नवंबर को दो जवानों का अपहरण कर लिया गया था| हफ्ते भर तक पुलिस खोज में लगी रही और मीडिया के लोग जंगल में नक्सलियों के चंगुल में फंसे जवानों से जा कर मिल आए| इससे पूर्व सितम्बर में सात जवानों का अपहरण करने के बाद नक्सलियों ने तीन जवानों की ह्त्या कर दी थी और शेष चार जवानों को 12 दिनों तक बंधक बनाने के बाद 1 अक्टूबर को रिहा कर दिया था| यह रिहाई मीडिया और सामाजिक संगठनों की पहल पर की गयी थी| नक्सलियों के केशकाल दलम के कमांडर रमेश ने मीडिया में दावा किया था कि वे जवानों को छोड़ देंगे बशर्तें उत्तर बस्तर के उन सभी ग्रामीणों को छोड़ दिया जाए जिनको नक्सली होने के शक में गिरफ्तार किया गया है| हालाकि मीडिया और लोगों के दबाव में सभी रिहा कर दिए गए|

ताजा हालात में देखें तो नक्सलियों की रणनीति लगता है अब सीधे वार करने की बजाय दबाव बना कर मांगें मनवाने की है और उनके निशाने पर हर बार पुलिस वाले ही होते हैं जिनको बस से बगैर सुरक्षा सफ़र की मनाही है| इस बार भी पुलिसकर्मी बस में निहत्थे सवार थे और आसानी से नक्सली उनको बंधक बना कर ले गए| अपहरण करो और एहसान दिखा कर रिहा करो यह नक्सलियों की नई रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है| नक्सलियों की इस नीति का फिलहाल कोई तोड़ नजर नहीं आता क्योंकि बंधक उनके कब्जे में महफूज रहते हैं उनके रहमोकरम पर और कोई उनका किला भेद नहीं पाता हैं और वे कहाँ हैं इसे लेकर सिर्फ कयास भर लगते रहते हैं| वे जिस इलाके में काबिज हैं वह चार हजार वर्ग किलोमीटर में फैला अबूझमाड जंगली इलाका है जहां नंग-धडंग आदिम सभ्यता आज भी ज़िंदा है और यह भी सच है कि पिछले दो वर्षों के सतत काम्बिंग अभियान के बावजूद नक्सली इलाके में महफूज हैं|
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यादों में बाबूजी (3 )

सोमवार, ७ फरवरी २०११

शिक्षा के प्रति उनका आग्रह इतना प्रबल था कि गाँव में उन्होंने 1970 के दशक में एक स्कूल खुलवाया, लोग आकर रुक भी जाएं इसके लिए स्कूल के पास कुआं सबके सहयोग से खुदवाया गया | बेहतर शिक्षा के लिए बच्चों को सदैव प्रेरित करते रहे| उस दौर का कालाहांडी| वेतालकथा वाली रूढ़ियों और आदिम युगीन सभ्यता के दकियानूस रिवाजों से जकड़ा हुआ |

औसत ग्रामीण की सोच थी कि मेरा लड़का पढने जाएगा तो खेत में काम कौन करेगा| अजीब सोच थी कि पढ़ना-लिखना "लरिया" (हिन्दी भाषी )लोगों का काम है या फिर कटकिया (कटक-उड़ीसा) कुलीन लोग ही पढ़ लिख सकते हैं| बाबूजी ने इस सोच को धीरे-धीरे बदलने की ठानी| गरीबी इस कदर लोगों में व्याप्त थी कि एक टाईम के भोजन के लिए लोग बच्चों को कोई न कोई काम कराना ज्यादा पसंद करते| बच्चे पढ़ें और स्कूल में ही उनको "खीरी "(मध्यान्ह भोजन ) मिले इसकी व्यवस्था की गयी और इस काम के लिए गाँव की एक दबंग और ईमानदार महिला गोरामती को जिम्मेदारी दी गयी| गाँव में उसी दौर में महिला समिति के मार्फ़त बच्चों को दूध पावडर और दीगर चीजें दी जाती| बाबूजी स्वयं आपूर्ति और विभागीय समन्वय के लिए मोर्चा सम्हाले रहते| गाँव के पढ़ाकू लड़कों को पढने के लिए अच्छी पुस्तकें दी जाती| कंदील या ढिबरी जला कर बाबूजी खुद भी पुस्तक या अखबार पढ़ते दीखते| उस जमाने में "लाईट" एक सपना थी| गाँव में अखबार आता नहीं था तो बाबूजी अखबार पढने के लिए दूरस्थ ग्राम पंचायत कुरुमपुरी जाते और घर पर रेडियो भी चलता | समाचार की एक लाइन पर पूरा गाँव घंटों चर्चा करता |
साईकिल उनके आवागमन का सुलभ साधन थी| घर पर बैल-गाड़ियां उस दौर में आवाजाही का एक मात्र साधन थी मगर बाबूजी साईकिल का ही इस्तेमाल करते | कितनी भी दूर जाना हो वे साईकिल से ही जाते| भीतर और बाहर से वे एक जैसे थे| समस्या क्या है ये मत देखो समाधान क्या है देखो- वे कहते जब हमारे आँगन में चौपाल लगती और सारे लोग कोई ना कोई समस्या ले कर आते|जय हो - बाबूजी का अभिवादन तकिया कलाम था | आज गुलजार की मेहरबानी से यह गीत दुनिया भर में गूँज रहा है| गरीब , अमीर सेठ, हमाल, किसान , मजदूर, स्त्री-पुरुष, बच्चे, बूढ़े सबके लिए वे जय हो कहते|आजकल स्कूलों में एक चीज का चलन है- रीसाईक्लिंग मैनेजमेंट| बाबूजी ने घर की पाठशाला में इस बाबत कितने प्रयोग किये यह बताना कठिन है| टूटे कप प्लेट जोड़ दिए जाते जिनमे बिल्लियाँ दूध पीती|
कुर्सी के हत्थे और पाये तार से जोड़ दिए जाते और लोहे की बाल्टी में भी जोड़ लगा कर उसे दुरुस्त करने का हुनर महराज के पास था जो आसपास के लोग सीख जाते| पुरानी इस्तेमाल की हुई बैटरियों से रेडियो चलाना वे जानते थे| पुराने कपड़ों से रालियाँ (बिस्तर) बनाने में वे माहिर थे| घर की छत पर लगी म्यार (बल्ली) टूट जाती तो उसे बीच से लोहे की पत्तियों पर कीलें ठोक कर जोड़ देते| ऐसी दुरुस्त बल्लियाँ आज भी सुरक्षित हैं| खाली समय में देसी जुगाड़ से चीजों को दुरुस्त करना उनका प्रिय शगल था| मैंने कभी उनको तनाव ग्रस्त हो कर बैठे नहीं देखा , वे फुर्सत पाते ही किसी ना किसी रिसाइक्लिंग वर्क में जुट जाते| साईकिल के टायर-ट्यूब घिस जाते तो उनमे पैबंद लग जाता था|
कोई काम छोटा नहीं होता यह वे अक्सर कहते| वे यह भी कहते कि नीचे देख कर चलो, ठोकर नहीं लगेगी| किफायत, बचत, सादगी और मितव्ययिता और मिनीमम में मैक्सिकम निर्वाह, उस पीढी में सर्वत्र था और बाबूजी तब ऐसा करते हुए एक समय हमें पिछड़े हुए लगते थे मगर आज लगता है कि दिमागों में ठुंसे हुए तथाकथित आधुनिक कचरे के कारण सोच पिछड़ जाती है और पता नहीं क्यों नई पीढी को पुरानी पीढी का काम पिछड़ा हुआ ही लगता है | आज जब मैं गाँव की बात करता हूँ तो बेटा कहता है छोडो ना पापा तब मुझे इस विचित्र पीढी प्रसंग पर हंसी आ जाती है | (जारी )

यादों में बाबूजी(2)

बुधवार, २६ जनवरी २०११


सदर बाजार के एक किराए के घर में गुजर-बसर थी| सदर के सेठ हीरालालजी "घी वाले" ने वर को होनहार पाया और किशोरावस्था की शुरुआत में ही सोन महाराज श्रीमती कमलादेवी शर्मा से ब्याह दिए गए| फिर जैसा कि आम घरों में होता है-गृहस्थी की अडचनें, आगे बढ़ने की ललक और गृहस्थाश्रम के लक्ष्यों को पाने की कोशिश में सोन महाराज ने कई छोटे -बड़े कामों को साधने की कोशिश की| कुछ दिनों तक आरंग के समीप ग्राम डोमा में भी रहे मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था|

उन दिनों पश्चिमी उडीसा में कई मारवाड़ी सेठ अपना कारोबार जमा चुके थे| जहां कारोबार होता है वहाँ मुनीम जरूर होता है| सेठ अनराजजी को भी ग्राम दलदली-नुआपाड़ा- उड़ीसा में भरोसे के मुनीम की जरूरत थी| सोन महाराज को अपने दादाजी श्रीमान रामनारायणजी के मार्फ़त सन्देश मिला | सोन महाराज रहते तो शहर में जरूर थे मगर उनका मन गाँव डोमा में रम गया था| उनने हामी भर दी| तकदीर उनके लिए एक नया और स्थायी मुकाम तय करने वाली थी| वे अपनी छोटी सी गृहस्थी ले कर दलदली आ गए| गांव नया था मगर सोन महाराज ने यहाँ काम मुस्तैदी से किया| कुछ साल सेठजी की मन लगा कर सेवा की लेकिन अगर वे सेठाश्रय में उम्रभर रह जाते तो शायद वो मुकाम हासिल नहीं कर पाते जो उनने हासिल किया|

सोन महाराज की पहली संतान पुत्री हुई- आशा| छः सात महीने की आशा को लेकर छोटा सा परिवार दलदली आ गया| फिर परिवार जब बढ़ने लगा तो बड़े स्थान की जरूरत हुई| सेठजी के बाड़े में छोटी सी जगह में गुजारा नहीं हो सका | सेठों से उलझनें कैसे पनपी इसका भी एक प्रसंग है|

उस जमाने में सरकारी हुक्म था कि जो भी व्यक्ति जितनी जगह घेर कर सहेजेगा वो जगह उसे दी जाएगी| मुख्य मार्ग की एक जगह सोन महाराज ने विकसित करनी शुरू कर दी तो छोटे सेठ ने आपत्ति दर्ज करा दी| सीमित आमदनी , कई दबाव| पराधीन सपनेहु सुख नाहीं| सोन महाराज आत्म निर्भर होना चाहते थे| आखिरकार नौकरी छोड़ दी| उस जमाने में अधिकारी सहृदय हुआ करते थे| उनने देखा कि शहर का एक युवक घोर पिछड़े इलाके में बसना चाहता है और गाँव के प्रति उसके मन में गहरा अनुराग है लिहाजा मौके पर ही अफसर ने जमीन कुछ शुल्क ले कर सोन महाराज के नाम हस्तांतरित कर दी| छोटा सेठ हाथ मलते रह गए मगर बदले हुए दौर में बड़े सेठजी और उनके परिवार ने हमेशा आत्मीयता कायम रखी| 2 .89 एकड़ के एक विशाल भू -भाग में मकान बना| सोन महाराज बाजार -हाट का काम करने लगे|समय ने ऐसे रफ़्तार पकड़ी कि दस संतानों वाले कुटुंब(आशा,प्रेम,संतोष,हेम,हरीश,रमेश,मोनिका,राजेश,सीमा और चिंटू) में खेत-खलिहान, बाग़-बगीचे और दूध-दही की कोई कमी नहीं रही| आमदनी के कई स्रोत खुले| हर संतान अपना भाग्य ले कर आयी| वह दौर परिवार का स्वर्ण काल था| एक खुशनुमा पल था जो बिखरना तय था| सोन महाराज ने अथक मेहनत करके कुछ संपत्ति जुटा ली तो ईर्ष्यालु लोग पीछे पड़ गए|

एक रात जब सोन महाराज और परिवार के लोग गाँव के बाहर थे, चोरों ने सेंध लगा लगा दी| पूरी कमाई लुट गयी| इस घटना ने सोन महाराज को इतना खिन्न और हताश कर दिया कि उसी पल उनने निर्णय ले लिया कि अब गाँव में नहीं रहना| निकटवर्ती कसबे खरियार रोड में जा बसने का इरादा कर लिया| दरअसल इसके पीछे एक वजह और थी| वे चाहते थे कि पढाई का जो धन उनको हासिल नहीं हो सका वे उसे अपनी संतानों को जरूर दिलाएं| पढो और बढ़ो- यह वे हमेशा कहते थे| खरियार रोड में बाकायदा मकान खरीदा गया और गृहस्थी एक बार फिर नए सांचे में ढलने लगी| उस खिन्न दौर में गाँव की जमीन का सौदा भी आनन -फानन में कर दिया गया| पेशगी की रकम मिल गयी मगर होई है वही जो राम रची राखा.. खरीदार पूरे पैसे नही चुका पाया|


बच्चे बड़े हो रहे थे| अब फिर फैसले की घड़ी थी| कसबे में रहें या गाँव में रहें? गाँव ज्यादा अनुकूल था| वहाँ सुकून था, नैसर्गिक सहूलियतें थी| सीधे सच्चे सोन महाराज ने डंडी मरना सीखा नहीं लिहाजा दुकानदारी भी नहीं जमा सके| शहरी सभ्यता के तौर-तरीके भी उनको नापसंद थे| मैं भला, मेरी खेती भली| यह उनकी सोच थी| मेहनत करो, फसल उपजाओ -इसके वे पक्षधर थे| उनने एक बार फिर से पक्के तौर पर गाँव में ही जा बसने का इरादा कर लिया और चोरी ने शायद यह सिखा दिया कि सादगी से रहो, जैसा देश वैसा भेस|


एक रात| उनने अपने सभी बच्चों को अपने साथ बिठाया | कंदील और दीपक की रोशनी थी| बच्चों से पूछा- मैं गांव जा रहा हूँ, तुम लोगों को को पढ़ना है तो शहर जाना होगा या फिर मेरे साथ गाँव चलो|बच्चों को पढ़ना था| आम सहमति शहर पर बनी| जिन्दगी ने अब एक नई करवट ली| खरियार रोड पिछड़ा कस्बा था| उच्च शिक्षा के साधन नगण्य थे| बच्चे अपने दादा और नाना के परिवारजनो के पास रायपुर आ गए| तब रायपुर एक जिला हुआ करता था| शांत और रहमदिल लोगों का धड़कता हुआ शहर | छत्तीसगढ़ राज्य बनने की कल्पना भी नहीं थी| अब तक मित्रों आप जान ही चुके कि सोन महाराज ही मेरे बाबूजी थे| (जारी ...)

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