गुरुवार, 12 जनवरी 2012

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हिंदी पर विदेशियों के विचार

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- बदरीनारायण तिवारी
वार्सा विश्वविद्यालय, पोलैण्ड में भारत विद्या विभाग के अध्यक्ष तथा भारत में पोलैण्ड के राजदूत रह चुकी प्रो मारिया स्टोफ़ बृस्की ने राष्ट्रपति को राजभवन में अपना परिचय-पत्र हिन्दी में ही प्रस्तुत किया था। हिन्दीनिष्ठ बृस्की की दृष्टि में बच्चों की पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी होने से संपूर्ण मानसिक शक्ति अध्ययन में नही लग सकती आधी शक्ति केवल दूसरी भाषा सीखने में लग जाती है। उनका स्पष्ट मत था कि भारत की आत्मा को पहचानने के लिये हिन्दी भाषा का ज्ञान अत्यन्त आवश्यक है। हम विदेशी लोग भारतीय समाज और संस्कृति को अंग्रेजी में नहीं जान सकते हैं। ‘मानस संगम’ में भाग लेने हेतु उनका स्वीकृति पत्र भी हिन्दी में ही आया था।
वर्तमान समय में विदेशी हिंदी विद्वानों की शृंखला काफी बड़ी हो चुकी है। हिन्दी फिल्मों तथा कथा-प्रवचनकारों द्वारा विदेशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार विस्तृत हुआ है। जिसकी लोकप्रियता को देखकर अनेक विदेशी और अंग्रेजी चैनलों ने उनका हिन्दी में प्रसारण प्रारम्भ कर दिया। त्रिनिदाद एवं टोबैगो के भारत स्थित उच्चायुक्त पं मणिदेव प्रसाद ने ‘इंडियन एराइवल डे’ के १६२ वर्ष पूरे होने पर कानपुर प्रवास में तुलसीदास की पंक्तियाँ—‘धन्य देश सो जहँ सुरसरी...’ सुनाते हुए कहा कि उस देश को प्रणाम जहाँ पवित्र गंगा प्रवाहित होती है। त्रिनिदाद की भूमि में प्रवेश करते ही वहाँ के रेडियो में फिल्मी हिन्दी गीत के स्वरों से भारत देश का भ्रम हो जायेगा।


हिन्दी में सर्वप्रथम बीबीसी लंदन ने नियमित समाचारों का प्रसारण शुरू किया था। इसके बाद हिन्दी प्रसारण हेतु ‘वॉयस आफ अमेरिका’ जर्मन रेडियो, जापान रेडियो, पीकिंग रेडियो (चीन) ‘विविध भारती’ सीलोन प्रकाश में आए। हालाँकि बाद में इसमें से कुछ बंद भी हुए पर फ्रान्स, कोरिया, मारीशस, त्रिनिडाड, गयाना, सूरीनाम, म्यांमार, बंगलादेश, पाकिस्तान, सऊदी अरब, इंडोनेशिया आदि देशों में भी हिन्दी में काफी कार्य हुए हैं। इंग्लैण्ड के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने अपने कार्यकाल में दीपावली के अवसर पर हिन्दी में मुबारकबाद देकर अंग्रेजी भाषा की मानसिकता वाले लोगों मे हिंदी का विश्वास जगाया। बीबी सी के भारतीय संवाददाता मार्क टली बहुत ही साफ और अच्छी हिंदी बोलते हैं।
‘हिंदी ज्ञान मेरे लिये अमृतपान है, जितनी बार उसे पीता हूँ, उतनी बार लगता है, पुनः जीता हूँ।’ मन को झंकृत करने वाली इन पंक्तियों को पढ़ने की बार-बार इच्छा होती है और यह जानकर प्रसन्नता भी कि हिन्दी की इन पंक्तियों को किसी भारतवासी ने नहीं वरन् दूर देश के निवासी (चेकोस्लोवाकिया) एक चेक नागरिक तथा प्रमुख शिक्षाविद् एवं भारत के राजदूत रहे डॉ ओदेलोन स्मेकल ने लिखा है। उन्होंने हिन्दी में १२ से अधिक पुस्तकें लिखीं जो प्रकाशित भी हुईं। उसी हिन्दीनिष्ठ ने हमारे आमन्त्रण को स्वीकार कर ‘मानस संगम’ समारोह में भाग लेकर हिन्दी में दो रचनायें भी सुना कर अपार जनसमूह को चमत्कृत किया।
ब्रिटेन में उज्बेकिस्तान के राजदूत फतेह तेशबीब हिन्दी के प्रति समर्पित हैं। उनके अनुसार वहाँ के ताशकंद, समरकंद, अंदीजान में बच्चों को तीसरी से दसवीं कक्षा तक हिन्दी पढ़ाई जाती है। संसार में हमारे पूर्वज जो गिरमिटिया मजदूर होकर मारीशस, सूरीनाम, फिजी, त्रिनीडाड, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में गये, वह अपने साथ तुलसीदास की रामायण और हनुमान चालीसा लेकर गये—उसी ने हिन्दी भाषा और संस्कृति को सुरक्षित रखा। अब इन देशों में बहुत बड़ी संख्या में हिन्दी संस्थाओं द्वारा हिन्दी शिक्षण कार्य हो रहे हैं जिन्हें मैंने प्रत्यक्ष अनुभव भी किया।


अभी कुछ वर्ष पूर्व अमेरिका के राष्ट्रपति जार्ज बुश ने यह कह कर कि हिन्दी २१वीं सदी की भाषा होने जा रही है, अपने देश में भी हिन्दी की संरक्षा अति आवश्यक है, उन्होंने अमेरिकी संसद से ११ करोड़ डालर हिन्दी विकास के लिये स्वीकृत कराने की घोषणा भी की। कम्प्यूटर तथा तकनीकी क्षेत्र पर भी हिन्दी में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता को विश्व ने स्वीकारा है। इसका प्रयोग अक्षरात्मक हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, मराठी तथा नेपाली आदि भाषाओं को लिखने में भी होता है।


डॉ लुइजि पियो तेस्सी तोरी हिन्दी के सबसे पहले विदेशी शोधार्थी थे जिन्होंने फ्लोरेंस विश्वविद्यालय, इटली में ‘रामचरित मानस और वाल्मीकि रामायण का तुलनात्मक अध्ययन’ पर शोध किया। भारत से इतना प्रभावित हुए कि वह स्वदेश इटली छोड़कर जीवनपर्यन्त भारत (बीकानेर) में रहे। साम्यवादी देशों में तुलसी कृत रामचरितमानस की लोकप्रियता देख स्टालिन ने द्वितीय विश्व युद्ध के समय अकादमीशियन अलकसेई वरान्निकोव द्वारा रूसी भाषा में पद्यानुवाद कराया। यह अनुवाद होने में साढ़े दस वर्षों का समय लगा। तुलसी भक्त हिन्दी प्रेमी बेल्जियम (योरोप) में जन्मे फादर डॉ० कामिल बुल्के ने हिन्दी प्रेम के कारण भारत की नागरिकता ली और यहीं चिर निद्रा में विलीन हुए। भारत एक बहुभाषी देश है। सम्पूर्ण देश में भाषा वैज्ञानिकों ने 1652 भाषायें तथा बोलियाँ बोली जाने की मान्यता दी है। शीर्षस्थ नेताओं ने अन्य प्रान्तीय भाषाओं और बोलियों का सहारा क्यों नहीं लिया इसका एक प्रमुख कारण यह है कि ‘हिन्दी एक ओर जनपदीय स्तर पर बोलियों के बीच आंतरिक एकता बनाती रही है तो दूसरी ओर भारतीय सन्दर्भ में अन्य भाषाओं के बीच सम्पर्क व एकता लाने का प्रयास करती रही है।’


फिजी देश के हिन्दीनिष्ठ पूर्व मंत्री विवेकानन्द शर्मा ने कहा था—‘हम फिजी में बसे प्रवासी लोग अपनी संस्कृति और अपनी आत्मा के लिये भारत की ओर देखते हैं। मगर हिन्दी-रूपी द्रौपदी आज भारत में नग्न हो रही है और द्रोण चुप बैठें हैं। आज कृष्ण नहीं है, मगर फिजी जैसे छोटे से द्वीप से भी हम चीर देने को तैयार हैं। इसके लिये हम शहीद होने को भी तैयार हैं।’ इस सन्दर्भ में मॉरीशस के भारत स्थित राजदूत रोहित नारायण सिंह गत्ति ने मुझे भेजे गए एक पत्र में लिखा -- ‘यों तो इस छोटे से देश में फ्रेंच, इंग्लिश, उर्दू, तेलुगू, चीनी, तमिल, मराठी, गुजराती एवं क्रियोल भाषायें बोली जाती हैं लेकिन हिन्दी सबसे अधिक लोग समझते और बोलते हैं। युग पुरुष महात्मा गाँधीजी के सद्प्रयास से मॉरीशस में हिन्दी संस्थाओं का जन्म हुआ। सन १९६८ में स्वतन्त्रता के पश्चात मॉरीशस में हिन्दी के पठन-पाठन की सुविधाओं का बहुत विकास हुआ है।’


जनवादी जर्मन गणतन्त्र में रेडियो बर्लिन के अधिकारी डॉ० फैडमैन श्लैडर की हिन्दी के प्रति भावना उन्हीं की कलम से, ‘‘हमें न केवल प्रसन्नता होती है बल्कि गर्व भी है कि हम बर्लिन रेडियो द्वारा छोटी सी सेवा कर रहे हैं और कार्यक्रमों द्वारा उसे अन्तर्राष्ट्रीय संवाद की भाषा बनाने में योगदान दे रहे हैं। हिन्दी एक अन्तर्राष्ट्रीय चरित्र अपना रही है और हम उसके अन्तर्राष्ट्रीय चरित्र में अपना निरन्तर मर्यादित योगदान दे रहे हैं।’’ अब ‘हिन्दी’ अन्तर्राष्ट्रीय भूमण्डलीयकरण युग की विश्व-भाषा बन चुकी है।
 


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