रविवार, 12 फ़रवरी 2017

जनता के संपादक बलवीर दत्त / अनामी शरण बबल

बिहार के यशस्वी पत्रकार लेखक और सांसद रह चुके शंकर दयाल सिंह के मुखारबिंद से मैंने पहली बार रांची एक्सप्रेस अखबार का नाम सुना था। संभवत यह 1982 की बात है, उस समय मेरे भीतर भी कुछ कुछ होता है सा कुछ लिखने की भावनाएं फूटने लगी थी। और पहली बार इस अखबार को देखने का मौका कहे या सौभाग्य 1983 में मिला। जब एक मरीज की तरह मुझे रांची के जगत विख्यात डॉक्टर केके सिन्हा से इलाज के लिए रांची जाने का मौका मिला। उस समय तक मैं और पत्रकारिता का कोई नाता भी नहीं था। एक सामान्य पाठक की तरह ही मैने इस पेपर को देखा। मगर हमारे लेखक चचा शंकर दयाल सिंह ( मैं इनको हमेशा चाचा ही कहता रहा) इसके पुराने लेखक थे। इनका एक कॉलम यदा-कदा भी काफी मशहूर था। मैं एक संपादक के रूप में बलवीर दत्त को नहीं जानता था और न शोहरत से ही परिचित था।
मेरे गांव देव में हमारे लेखक चचा शंकर दयाल जी अक्सर आते रहते थे। देव के भवानीपुर में उनका अपना एक फॉर्महाउस सा है  कामता सेवा केंद्र। जहां पर शंकर दयाल चचा के आने की भनक पाते ही मैं वहीं पहुंच जाता। इस तरह मैं उनके स्नेह का पात्र बना, और बात बे बात मैं  कभी उनसे कोई पत्रिका पा जाता या उनके ठहाकेदार चर्चाओं का मूक साक्षी बनासाथ रहता।  कोई नाता नहीं होने के बाद भी उनसे मिलना और नकी बातें सुनना रोचक लगती थी।
 एक नहीं कई बार किन किन मुद्दो या मौकों पर वे अक्सर बलवीर दत्त का नाम लेते रहते थे। इस तरह पहली बार चूंकि मैने शंकर दयाल चचा से यह नाम सुना था तो इस नाम की गूंज मेरे दिमाग में अंकित हो गयी थी। जब कभी भी इस पेपर का नाम मेरे सामने आता तो दिमाग में केवल दो ही छवि  उभरती थी अपने शंकर दयाल चचा के यदा -कदा कॉलम की और इसके संपादक बलवीर दत्त की।  उस समय तक या तब तक तो मैं बलवीर जी का कोई फोटो भी नहीं देखा था। इसके बावजूद मन में एक अज्ञात छवि अंकित थी।
एक संपादक के रूप में मैं इनको जान तो गया था मगर हकीकत यह है कि इनके लेखन या संपादकीय कौशल कुशलता क्षमता या एक संपादजक के काम काज को भी मैं न कुछ जानता था और ना ही अपन को कोई खास जानकारी ही थी । बाद में पत्रकार बनने की प्रक्रिया के दौरान जब सैकड़ों पत्रकारों लेखकों पत्र- पत्रिकाओं को जाना तो उसी क्रमांक में बलबीर दत्त की इमेज मन में बननी और पकने लगी।  इस दौरान मैंने  इनके कुछ लेखों को देख जरूर लिया था. यहां पर पढ़ने का दावा करना कम से कम सच नहीं होगा। एक पत्रकार के रूप में दिल्ली में सक्रिय हो जाने के बाद 1993 में मेरा हजारीबाग से जुडाव हुआ तो मैं एक गंभीर पाठक की तरह रांची एक्सप्रेस को देखने लगा। और पहली बार बलवीर जी का एक आलेख पढ़ा जिसमें कोलकाता से भारत की राजधानी को दिल्ली स्थानांतरित करने से पहले रांची को भी कभी अंग्रेजों ने राजधानी बनाने पर विचार किया था। लेख का मूलसार और तथ्य क्या था यह तो आज एकदम याद नहीं है, पर अचरजपूर्म इस लेख की याद मुझे कोई 23 साल के बाद भी है। मेरे लिए एक पत्रकार की लेखकीय इमेज का यह पहला ना भूलने वाली छवि थी। और आज भी जब कभी उनसे बात करता हूं तो इस लेख की याद उनको जरूर दिलाता हूं।
मेरे मन में बलवीर दत्त के रांची से ही चिपके रहने का मलाल था। इंदौर या मध्यप्रदेश की सीमा को लांघकर ही चाहे राजेन्द्र माथुर हो या प्रभाष जोशी हो दिल्ली में आकर ही राष्ट्रीय शोहरत पा सके। मुझे बिन देखे हमेशा लगता था कि बलवीर दत्त शायद इस तिकड़ी के सही  पात्र  होते। मगर कोई जान पहचान नहीं था एक पोस्टकार्ड वाला भी नाता नहीं था लिहाजा अपनी बात को मैं बता भी नहीं सकता था, मगर मेरे मन में क्षेत्रीय पत्रकारिता की इमेज और लगातार बढ़ती इज्जत के बीच बलवीर दत्त की छवि एक वीर संपादक की तरह बनने लगी थी। यही कारण था कि जब 2016 में मेरे पास रांची एक्सप्रेस के संपादक बनने का ऑफर आया तो मैं भी बिन कुछ सोचे समझे ही दिल्ली में 25 साल की बसी दुनिया और बने बनाये काम नाम की परवाह को छोड रांची जाने का मन बना लिया। उस समय इस पेपर को करीब से देखने और इसके संस्थापक संपादक से मिलने की इच्छा परवान पर रही।

राजनीति के जंगल में आजकल ज्यादातर पुरस्कार और सरकारी सम्मान पांव पैसा पहुंच पौव्वा और जुगाड़ के चलते ही हासिल किया जाता है। पुरस्कार देने का जमाना और मान सम्मान अब कहां? मगर दिल्ली की चकाचौंध से 1500 किलोमीटर दूर रांची के अपर बाजार के एक साधारण से दफ्तर में बैठकर क्षेत्रीय पत्रकारिता के मान ज्ञान सम्मान केऔर जनहितों के लिए संघर्ष का जो सत्ता विरोधी चेहरा समाज के सामने रखा, वह वंदनीय है। इन्होने रांची से प्रकाशित इस अखबार की जो प्रतिष्ठा दिलाई है इसके लिए इनको और इनकी साधनहीन पूरी टीम की जितनी भी तारीफ की जाए वह कम है। ये इस तरह की फौज के कमांडर थे जहां पर बहुत सारी सुविधाओं की चूक हो जाने के बाद भी पत्रकारिता की मान और शान के लिए सब एकजुट हो जाते थे।
आमतौर पर किसी सम्मान या पुरस्कार को अर्जित करके लोग महान और सम्मानित से हो जाते हैं। मगर क्षेत्रीय पत्रकारिता के इस पुरोधा संपादक बलवीर दत से ज्यादा पद्मश्री का सम्मान सम्मानित होकर गौरव का सूचक बना है। अविभाजित बिहार झारखंड के लिए सम्मान की गरिम तब और बढ़ जाती है जब 1954 से निरंतर दिए जाने वाले पद्मश्रीसम्मान से यह राज्य वंचित था। अविभाजित बिहार झारखंड के वे पहले पत्रकार हैं जिनको इस सम्मान से नवाजा गया है।
पिछले साल मुझे भी कुछ माह रांची एक्सप्रेस से संपादक का ऑफर आया। यह एक पत्रकार के रूप में मेरे मित्र सुधांशु सुमन ने दिया था। एक टेलीविजन पत्रकार के रूप में मैं इनको करीब 20 साल से जानता हूं। हालांकि उन्होने मुझे दिल्ली संस्करण में संपादक का ऑफर दिया था। मगर मेरे मन में रांची एक्सप्रेस और बलबीर दत के नाम का इतना तेज मेरे मन में था कि दिल्ली में रहते हुए भी मैने खुद ही रांची में पांच छह माह तक रहने की इच्छा जाहिर की । दो तीन किस्तों में दिल्ली रांची आते जाते करीब ढाई तीन माह तक मैं रांची में रहा भी
नयी सत्ता नयी व्यवस्था और नए हालात में देखा जाए तो जिन सपनों और बदलाव की योजनाओं और इच्छाओं के साथ मैं रांची गया था,उसमें कुछ खास नहीं हो पाया। इस बीच पहाड़ी इलाके की कंपकंपी वाली ठंड को देखते हुए मैने दो तीन माह तक दिल्ली लौटने की इच्छा जाहिर की और तमाम कठिनाईयों दिक्कतों के बाद भी मेरे तमाम नखडरों को प्रबंधन ने सिर माथे लिया और मुझे दिल्ली जाने का टिकट थमा दिया। हमलोग में कोई शिकायत नहीं है क्योंकि यह अखबार तो इनके पास अभी सामने आया है, मगर हमारा नाता इनसे 20 साल से एक पत्रकार वाला सबसे प्रमुख रहा था।
रांची पहुंचते ही जब मैं अपने एक प्रिय सहकर्मी नवनीत नंदन  के साथ जब बलवीर जी के घर पर पहुंचा तो अवाक रह गया। उनके स्टड़ी रूम में चारों तरफ हजारों किताबों का अंबार लगा था। स्टडी कमरे में चारो तरफ किताबें ठूंसी पड़ी थी। सैकड़ों फाईलों और हजारों कतरनों को देखकर तो मैं दंग रह गया। मैने उनके पांव छूए और उस अखबाक की कमान थामने से पहले आशीष मांगा । मैने कहा कि सर आपके अनुभव लेखन और संपादकीय दक्षता कौशल कुशलता के सामने तो मैं कहीं पासंग भर भी नहीं हूं। मगर यह मेरा सौभाग्य भरा संयोग है कि मैं भी उसी रांची एक्सप्रेस का चालक बन रहा हूं जिसको आपने बुलेट ट्रेन बना रखा था। पहली मुलाकात में ही मैने रांची को राजधानी बनाने वाले लेख की चर्चा की और रांची में ही सिमटे रहने का राज पूछा। मैने दो टूक कहा कि आज तो अलेखक संपादकों का दौर है। यदि आप समय रहते दिल्ली आते तो शायद माथुर और प्रभाष जोशी की परम्परा में कुछ विकास होता। हालांकि मेरी बात को काटते हुए उन्होने कहा कि यदि दिल्ली चला जाता तो शायद यहां रहकर जितना कम और संतोष पाया है वह अर्जित नहीं हो पाता। एक घंटे की जादूई मुलाकात में मैं उनके किताबों के ढेर को मोहित सा देखता रहा। मगर मन में यह असंतोष था कि रांची बलवीर जी की जगह नहीं थी।

दमश्री की घोषणा होते ही मेरा मन अपार संतोष से भर गया और तब मुझे अपनी गलती क अहसास हुआ कि रांची में रहकर पत्रकारिता के बूते जो शोहरत और कां बलवीर जी ने किया है वो काम दिल्वी में रहकर नहीं कर पाते। फोन पर बात होने पर मैने उनके रांची में ही  रहन की जिद्द को सार्थक माना। यह सम्मान केवल बलवीर दत्त को नहीं मिला है इसके बहाने क्षेत्रीय पत्रकारिता की ताप को सम्मानित किया गया है। क्षेत्रीय पत्रकारिता को बल मिला है और इसकी सार्थकता को राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी स्तर पर मान्यता मिली है। इन तमाम सम्मानजनक कारणों से बलवीर जी को प्राप्त यह सम्मान और इसकी गरिमा बढ जाती है। वे क्षेत्रीय पत्रकारिताके एक लौह पुरूष की तरह खुद को प्रमाणित कर दिखाया। यह क्षेत्रीय पत्रकारिता के तेज और महत्व का विशेष सम्मान है ।     
पूरे झारखंड में  संपादक बलबीर दत को बच्चा बच्चा (जो अखबार पढने वाला हो) जानता है। यह अखबार पूरे शहर समेत झारखंड का अपन अखबार सा है। हालांकि जमाने की चमक दमक और बाजारी मारामारी वाले इस राज्य में बलवीर दत्त यहां के इकलौते सामाजिक संपादक हैं जिनको उपराज्यपाल से लेकर रांची शहर का एक एक रिक्शा वाला भी जानता और अपना मानता है। पत्रकारिता में ये यहां के इकलौते जगत विख्यात संपादक का सर्वमान्य चेहर की तरह स्थापित है। संपादक का मुखौटा लगाकर तो मैं या मेरे जैसे ही दर्जनों लोग रांची में सक्रिय हैं, मगर किसी की भी धमक जनता में नहीं है। और मैं तो अपर बाजार से लेकर फिरायालाल चौक के बीच कई रास्तों में ही सही राह की खोज में भटकता रहा।

इस समय रांची से दर्जन भर अखबार निकल रहे हैं मगर रविवार वाले हरिवंश जी के प्रभात खबर से अलग होने के बाद किस पेपर का संपादक कौन है यह सब मुझ समेत ज्यादतर सपादक भी संभवत नहीं जानते होंगे। मैं भी ढाई तीन माह में यह नहीं जान पाया कि तमाम अखबारों के संपादक कौन है। चौथी दुनिया में रह चुके हरिनारायण जीको मैं दिल्ली से जानताथा मगर अब हिन्दुस्तान छोड़कर  किसी पेपर के मालिक बन गए है। यानी मेरे परिचित एक संपादक भी रांची की भीड़ में कहीं खो गए। या यों कहे कि पाठकों की नजर में मेरी तरह ही सब अनाम गुमनाम ही रह गए हैं । दूसरी तरफ वरिष्ठ पत्रकार बलवीर दत् आज किसी भी पेपर के संपादक नहीं होने के बावजूद पूरे राज्य के पहले या इकलौते संपादक के रूप में विख्यात या स्थापित संपादक का एकमात्र चेहरा आजभी है।
 हालांकि प्रभात खबर दैनिक जागरण हिन्दुस्तान और दैनिक भास्कर सबसे ज्यादा बिकने वाला अखबार  हैं, मगर यह मेरा दावा है कि झारखंड के 10 फीसदी लोग भी शायद सभी संपादकों के नाम नहीं जानते ोंगे। । मगर यह देखकर मुझे रांची प्रवास के दौरान अक्सर गौरव बोध होता कि रांची एक्सप्रेस की प्रसार संख्या आज भले ही इन पेपरों से काफी कम हो मगर अपर बाजार के दफ्तर और संपादक के रूप में बलवीर दत को एक रिक्शा वाला भी जानता है।  कभी कभी तो मैं इसे सदमा कहे या अचरज कि मेरे सामने ही मेरे पूछने पर बहु कम पढ़े लिखे या एकदम अंगूठाटेक लोगों ने भी माना कि आज भी रांची एक्सप्रेस के संपादक बलवीर दत्त ही है।
क्षोभपूर्ण लहजे में मैने कईयों से कहा कि उनको  तो पेपर से अलग हुए भी काफी समय हो गया है और आजकल इसका संपादक मैं हूं । मेरे यह कहने पर उनलोंगो के नेत्रों में मैने अपने लिए हिकारत देखी । बड़े अजीब तरह से घूरते हुए दो एक लोगों ने मुझसे कहा कि आप हो कौन? मैं तो जानता तक नहीं मगर आपमें  बलवीर दत की कुर्सी संभालने का माद्दा कहां है भला । इस तरह की बातें सुनकर उलझते हुए अपने आपको और ज्यादा हास्यपूर्ण बनाने की अपेक्षाौन होकर खिसकने में ही अपनी भलाई लगी। ये बाते मुझे अजीब भी लगी तो वहीं बलवीर दत्त के प्रति मेरे मन में प्यार आस्थ और आदर सम्मान को और जागृत कर गया कि सच में वे एक सामान्य जनता के संपादक है ।
एक और दिलचस्प अनुभव को आज मैं आपलोगों से शेयर  करने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं।. फिरायालाल चौक के पास बीएसएनएल के मुख्यालय की है। वहां पर बीएसएनएल मोबाइल के कनेक्शन के लिए मुफ्त में सिम का विरण हो रहा था। मैने भी एक सिम लेने की इच्छआ प्रकट की। साथ में दिल्ली वाले पता का अपना आधार कार्ड की फोटोकॉपी दी। तब रांची के स्थानीय पता के लिए प्रमाणपत्र मांगा तो  मैने रांची एक्सप्रेस अखबार निकाल कर सामने कर दी कि इसमें काम करता हूं.  पेपर को रखते हुए बीएसएनएल कर्मी ने कहा कि बस्स कल अपने संपादक से एक लेटर बनवा कर ला दे तो हाथों हाथ कनेक्शन दे दिया जाएगा।
संपादक का नाम सुनते ही मैंन अपना आधारकार्ड और पेपर के प्रिंटलाईन में अंकित अपने नाम को सामने करते हुए बताया कि भई इसका संपादक तो मैं ही हूं। भला मैं किससे लेटर लिखवाकर लाउं आप प्रिंटलाईन की फोटोकॉपी लगाकर कनेक्शन दे. दे।  मेरी बात सुनकर वो दंग रह गया। अपनी कुर्सी छोड़कर खडा होते हुए कहा कि आप कब से इसके संपादक बन गए और बलवीर जी कब पेपर छोड चले गए भाई?  पूरे झारखंड में तो केवल एक ही संपादक हैं बलवीर जी प नया संपादक दिल्ली से कब पैदा हो गए? अखबार में नाम छप जाने से कोई भला संपादक हो जाता है क्या ?  पूरे झारखंड में  तो केवल एक संपादक है बस्स। अब इस बीएसएनएल कर्मी से उलझने की बजाया. अपनी और जगतहंसाई करवाने से भला यही लगा कि सिम मिले ना मिले मगर यहां से अब खिसकना ही सर्वोत्तम रास्ता है, और मैं उन कर्मचारियों से बिन सिम लिेए ही निकल गया।
योंतो रांची शहर मेरे लिए नया और अनजानाशहर था। फिर भी मैं यहां रहते हुए भी ज्यादा  भ्रमण नहीं कर पाया मगर ज्यादातर स्थानों पर एक संपादक की छवि का मतलब ही जनता में केवल एक ही नाम बलवीर दत्त क ही देखा। संपादक यानी बलवीर दत्त. यही इनकी खासियत देखी और जीवन भर की कमाई का सामाजिक प्रतिफल भी महसूस करता रहा और देखा। जनता यानी अपने पाठतों के बीच इस कदर अंकित किसी पत्रकार को पहली बार देखकर लगा कि यही इनकी उर्जा हैर रांची की जनता का विश्वास ही इनकी पूंजी है, जो दिल्ली में अर्जित नहीं हो सकती थी।
दिल्ली में इनका वेतन तो छह अंको में मिल जाता  मगर दफ्तर के बाहर शायद ही किसी को अपना मानकर यकीन कर सकते थे। सक्रिय पत्रकारिता से फिलहाल वे विश्राम कर रहे हैं इसके बावजूद इस सर्वकालीन झारखंड समेत हिन्दी के श्रेष्ठ संपादक की छाया से झारखंड की पत्रकारिता आज भी छाय़ामुक्त नहीं हो सकी है। खासकर पदमश्री के सम्मान के बाद तो वे बिहार झारखंड के इकलौते पत्रकार हो गए हैं जिनको यह सम्मान हासिल हुआ है। और यही मायने में आज बाजारवाद की आंधी में समाज को हाशिये पर धकेलने की खतरनाक रणनीति के बीच इस सम्मान के साथ ही क्षेत्रीय पत्रकारिता के प्रति समाज का ध्यान फिर से आकर्षित हुआ है।  

रांची एक्सप्रेस में बलवीर दत्त जी के साथ काम करने वाले सहकर्मिर्यों में .उदय वर्मा जी ने भी इनकी वीरता धीरता और जनता के लिए अंगद की तरह अडिग हो जाने की दर्जनों किस्से कहानियों को सामने रखा। रांची एक्सप्रेस में मेरी एक संक्षिप्त पारी रही। इसके बावजूद मुझे इस बात का हमेशा गौरवबोध रहेगा कि मैने भी उनको देखा और उनके स्नेह और प्यार का पात्र बना। रांची एक्सप्रेस से अलग होकर दिल्ली आए दो माह होने वाले हैं । इसके बावजूद मैं कभही कभी अपने सौभाग्. पर इतरा सा जाता हूं कि मुझे भी बलवीर दत्त जैसे कर्मठ संपादक के बाद उनकी कुर्सी पर बैठने का मौका मिला। यह एक इस तरह का गौरवबोध है कि मैं मन ही मन मे इस पेपर के न मालिक और पत्रकार रह चुके सुधांशु सुमन के प्रति भी मुग्ध सा हो जाता हूं कि उन्होने एक विराट संपादक की कमान थामने का मौका दिया
 एक पाठक के रूप में इनकी सजगता देखकर मैं दंग रह गया। यह इस तरह के दूरदर्शी लेखक संपादक हैं जो अपने रिपोर्टरों को अपनी कीमती सामान संपति और अनमोल निधि मानते थे। और निजी तौर पर अपनी देखरेख में सहेजते और संवारते थे।  बिना कुछ कहें ही अपने सहकर्मियों को निखारते थे। इन पर मैं  यही कहूंगा कि ये एक अनमोल संपादक पत्रकार हैं जो अपने साथ साथ एक पूरी पीढी को भी संवारते हुए सुरक्षित रखते थे। किसी भी पत्रकार की कोई रपट लेख या कॉलम के छपने पर सुबह सुबह ये खुद फोन करके उसे वाहवाही देते या उसे और बेहतर करने का सुझाव देते। मुझे भी यह सुख कई बार मिला। इतना उदार और बड़े दिल का संपादक भला आज कहां मिलेगा ?
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संपर्क -
अनामी शरण बबल
asb.deo@gmail.com

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