मंगलवार, 31 मई 2011
गुरुवार, 26 मई 2011
अनामी भाषा
अनामी भाषा
वियतनामी भाषा वियतनाम की राजभाषा है। जब वियतनाम फ्रांस का उपनिवेश था तब इसे अन्नामी (Annamese) कहा जाता था। वियतनाम के ८६% लोगों की यह मातृभाषा है तथा लगभग ३० लाख वियतनामी बोलने वाले यूएसए में रहते हैं। यह आस्ट्रेलियायी-एशियायी परिवार की भाषा है।
वियतनामी भाषा की अधिकांश शब्दराशि चीनी भाषा से ली गयी है। यह वैसे ही है जैसे यूरोपीय भाषाएं लैटिन एवं यूनानी भाषा से शब्द ग्रहण की हैं उसी प्रकार वियतनामी भाषा ने चीनी भाषा से मुख्यत: अमूर्त विचारों को व्यक्त करने वाले शब्द उधार लिये हैं। वियतनामी भाषा पहले चीनी लिपि में ही लिखी जाती थी (परिवर्धित रूप की चीनी लिपि में) किन्तु वर्तमान में वियतनामी लेखन पद्धति में लैटिन वर्णमाला को परिवर्तित (adapt) करके तथा कुछ डायाक्रिटिक्स (diacritics) का प्रयोग करके लिया जाता है।
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शुक्रवार, 20 मई 2011
प्रेमचंद की मूर्ति हटा देंगे
Monday, February 8, 2010
प्रेमचंद की मूर्ति हटा देंगे
लखनऊ, फरवरी। वाराणसी से मुंशी प्रेमचंद की मूर्ति हटाकर उनके गांव लमही भेजे जाने का भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने विरोध किया है। इस सिलसिले में भाकपा के प्रदेश सचिव डाक्टर गिरीश ने उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती को एक पत्र लिखकर दखल देने की मांग की है।
वाराणसी में मुंशी प्रेमचंद की मूर्ति पांडेपुर चौराहे पर लगी है। इस जगह पर प्रेमचंद की मूर्ति इसलिए लगवाई गई थी क्योंकि वे इसी चौराहे से होकर अपने गांव लमही आते-जाते थे। अब यह चौराहा निर्माणाधीन फ्लाईओवर ब्रिज के नीचे आ रहा है। जिसके चलते जिला प्रशासन उनकी मूर्ति वहां से हटाकर लमही भेजने के प्रयास में है। दूसरी तरफ साहित्यकार और बुद्धिजीवी वर्ग चाहता है कि प्रेमचंद की मूर्ति वाराणसी में ही किसी दूसरी जगह पर स्थापित की जए। प्रेमचंद का वाराणसी से गहरा रिश्ता रहा है। ऐसे में उनकी मूर्ति को लमही भेजना उचित नहीं होगा। भाकपा नेता गिरीश ने कहा-प्रेमचंद की मूर्ति हटाकर लमही ले जाना ठीक नहीं है। वाराणसी से उनका रिश्ता रहा है जिसको देखते हुए शहर के किसी भी चौराहे या पार्क में उनकी मूर्ति स्थापित की ज सकती है। राम कटोरा पार्क में भी यह मूर्ति लगाई ज सकती है जहां प्रेमचंद की मृत्यु हुई थी।
गिरीश ने मुख्यमंत्री मायावती को लिखे पत्र में मांग की है कि वे कहानी सम्राट और प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक अध्यक्ष मुंशी प्रेमचंद की अवमानना करने की कार्रवाई को फौरन रोकें। साथ ही राज्य सरकार की घोषणा के मुताबिक लमही में प्रस्तावित प्रेमचंद शोध संस्थान के लिए तीन एकड़ जमीन जल्द उपलब्ध कराएं ताकि उसका निर्माण जल्द से जल्द पूरा हो सके। गौरतलब है कि इससे निर्माण के लिए नोडल एजंसी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को दो करोड़ रूपए की धनराशि उपलब्धि करा दी गई। लेकिन राज्य सरकार अभी तक तीन एकड़ जमीन उपलब्ध नहीं करा पाई है। अब तक १.९७ एकड़ जमीन अधिग्रहीत की गई है जिसका हस्तांतरण भी नहीं हो पाया है। इस हालत में मुख्यमंत्री मायावती को फौरन दखल देना चाहिए। प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों और कहानियों में दलित, वंचित और शोषित तबके के सरोकारों को न केवल चित्रित किया बल्कि अपनी लेखनी के माध्यम से उनकी जीवन दशा सुधारने के लिए लगातार आवाज उठाई। इसलिए सरकार को वाराणसी में ही उनकी मूर्ति स्थापित करानी चाहिए।
जेएनयू में 'प्रेमचंद स्मृति व्याख्यान'
September 15, 2010
जेएनयू में 'प्रेमचंद स्मृति व्याख्यान'-- मीता सोलंकी
9 सितंबर, 2010 को भारतीय भाषा केन्द्र, जेएनयू की ओर से तीसरे 'प्रेमचंद स्मृति व्याख्यान' का आयोजन किया गया जिसमें मुख्य वक्तव्य इग्नू के प्रो. जवरीमल पारख और सेंट्रल वक्फ काउंसिल के सचिव डॉ. कैसर शमीम ने दिया और कार्यक्रम की अध्यक्षता हिन्दी के वरिष्ठ कवि प्रो. केदारनाथ सिंह ने की.
कार्यक्रम के आरंभ में भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष प्रो. कृष्णस्वामी नचिमुथु ने स्वागत भाषण देते हुए कहा कि ग्लोबलाइजेशन के इस जमाने में जेएनयू ही वो जगह हो सकती है जहां भारतीय भाषाएं अपनी सहयोगी भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं से संवाद कर विकास कर सकती हैं और नई जरूरतों के मुताबिक उपयुक्त दिशा हेतु पहल कर सकती हैं. उन्होंने आगे कहा कि 'प्रेमचंद स्मृति व्याख्यान' की तर्ज पर तमिल कवि 'सुब्रह्मण्यम भारती' और उर्दू शायर फैज अहमद फैज पर व्याख्यान और सेमिनार आयोजित करने की योजना है. एक सेमिनार अनुवाद और कल्चरल एक्सचेंज पर करना है. यह हिन्दी के कई बडे रचनाकारों (केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन आदि) का जन्मशताब्दी वर्ष है. इस उपलक्ष्य में भी एक बडा सेमिनार करने की योजना है. प्रो. नचिमुथु ने गोष्ठी के विषय (जब मैंने पहली बार प्रेमचंद को पढा) पर बात करते हुए कहा कि 'गोदान' तथा प्रेमचंद की कहानियों में मुझे वह सब कुछ मिला जो मैंने अपने गांव में अपनी आंखों के सामने घटित होते देखा था. प्रेमचंद के लेखन के इस तरह के संदर्भ ही पाठकों को आकर्षित करते हैं और उन्हें एक बडा लेखक बनाते हैं.
प्रो. जवरीमल पारख ने अपनी पृष्ठभूमि के बारे में बताते हुए बताया कि एक शहरी व्यक्ति होने के बावजूद प्रेमचंद की वजह से उन्हें गांव को समझने का मौका मिला तथा समाज में घटित होने वाले शोषण के विभिन्न प्रकारों की तरफ उनका ध्यान आकर्षित हुआ. उन्होंने प्रेमचंद के लेखन को समाज को बदलने वाली खामोश प्रक्रिया कहा.
डॉ. कैसर शमीम ने कहा कि प्रेमचंद अन्य भाषाओं के साहित्य के परिप्रेक्ष्य में भी देखना चाहिए. प्रेमचंद के लेखन में व्यक्त उर्दू तथा मुसलमानों के प्रति व्यक्त दृष्टिकोण की उन्होंने प्रशंसा की. जिस समय भाषा तथा सांप्रदायिकता के विवाद जारों पर थे, उस समय प्रेमचंद ने एक समतावादी नजरिया पेश किया तथा हिन्दुस्तानी गांव को उर्दू फिक्शन में दिखाया. डा. शमीम ने प्रेमचंद की समाज व साम्राज्यवाद के प्रति सोच की प्रशंसा की.
कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो. केदारनाथ सिंह ने अपने कुछ निजी अनुभवों को साझा करते हुए प्रेमचंद को ऐसे साहित्यकार के रूप में याद किया जिन्हें बार-बार पढा जा सकता है. उन्होंने कहा कि जाने हुए को फिर से जानने और बताने की कला प्रेमचंद में थी. प्रो. सिंह ने कहा कि हिन्दी में प्रेमचंद ने साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र को बदलने की शुरूआत की. इस संदर्भ में उन्होंने प्रेमचंद की ईदगाह कहानी का जिक्र किया. उन्होंने 'मंत्र' कहानी के संदर्भ में कहा कि प्रेमचंद ने सारे अर्जित ज्ञान के समानांतर एक सहज बोध की अंतर्दृष्टि को ज्यादा महत्व दिया.
कार्यक्रम के संयोजक प्रो. रामबक्ष ने प्रेमचंद साहित्य के साथ अपने पहले अनुभव को याद करते हुए बताया कि बालमन में एक लेखक नहीं, बल्कि कहानी के पात्र याद रहते हैं- 'बूढी काकी', 'दो बैलों की कथा', 'बडे भाई साहब' आदि कहानियों के पात्र याद आते हैं. लेखक के रूप में सबसे पहले कर्मभूमि याद आता है, जो मैंने 11वीं क्लास में पढा था. उस समय मुझे ये कहानी काल्पनिक और झूठ लगी थी. बाद में जब मैंने अपना गांव देखा, पडौस देखा, अपना घर देखा, तब मुझे गांव की गरीबी और प्रेमचंद का महत्व समझ में आया. उन्होंने आगे कहा कि प्रेमचंद के लेखन ने गांव को समझने में मदद की और गांव की परिस्थितियों ने प्रेमचंद को समझने में मदद की. प्रो. रामबक्ष ने आगे कहा कि आज प्रेमचंद को पढना और समझना जितना जरूरी है, उतना ही प्रेमचंद से मुक्त होना भी जरूरी है.
भारतीय भाषा केन्द्र के प्राध्यापक गंगा सहाय मीणा ने कहा कि प्रेमचंद को पढने का अनुभव तीन स्तरों पर है- पहला, जब चौथी-पांचवीं क्लास में 'ईदगाह' कहानी पढी और लगा कि यह हमार लोक की, हमारे आसपास की ही कथा है, दूसरा, जब एम.ए. में प्रेमचंद का विशेष अध्ययन करने के दौरान उनकी कहानियों से प्रेरणा लेकर स्वयं उसी तर्ज पर कहानी लिखना शुरू किया और तीसरा, अध्यापन के दौरान प्रेमचंद की सहजता एक बडी चुनौती के रूप में सामने आती है.
भाषा, साहित्य और संस्कृति अध्ययन संस्थान के डीन प्रो. शंकर बसु ने प्रेमचंद साहित्य की रूसी साहित्य से तुलना करते हुए कहा कि जैसे रूसी साहित्य में टॉलस्टॉय और गोर्की ने यथार्थवाद की शुरूआत की, उसी तरह भारतीय साहित्य में यथार्थवाद लाने वाले प्रेमचंद आरंभिक साहित्यकार थे.
कार्यक्रम में प्रो. चमनलाल ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि वे गांधी और प्रेमचंद की 'हिन्दुस्तानी' वाली परंपरा के हिमायती हैं. उसी परंपरा को आगे बढाने के लिए भारतीय भाषा केन्द्र में 'प्रेमचंद स्मृति व्याख्यान की शुरूआत की गई है. कार्यक्रम में प्रो. शाहिद हुसैन, प्रो. वीर भारत तलवार, डॉ. रणजीत कुमार साहा, डॉ. देवेन्द्र चौबे, डॉ. उल्फत मुहिबा, डा. एन. चंद्रशेखरन सहित बडी संख्या में विद्यार्थी मौजूद थे.
-- मीता सोलंकी, शोधार्थी, भारतीय भाषा केन्द्र, जेएनयू
गुरुवार, 19 मई 2011
लघु समाचार पत्र एवं पत्रकारिता को बचाने के लिए साथ आएं
लघु समाचार पत्र एवं पत्रकारिता को बचाने के लिए साथ आएं
साथियों अब समय आ गया है कि मीडिया के अस्तित्व को सरकारी नियमों के जाल में उलझने से बचाने की लड़ाई को लड़ा जाये। मेरे मन में गत एक वर्ष से मंथन चल रहा था। प्रेस मान्यता से लेकर विज्ञापन मान्यता में इतने अड़ंगे कि शायद ही कोई सच्चा पत्रकार इनसे पार पा सके। पत्रकारिता को मैंने और शायद हर सच्चे पत्रकार ने मिशन से जोड़ा है। समाज के अंतिम व्यक्ति की लड़ाई को लड़ने का संकल्प लेकर कम वेतन के बाबजूद पूरी शिद्दत से 24 घंटे कड़ी मशक्कत करने वाले पत्रकारों को सेवानिवृत्ति में क्या मिलता है। इसकी जानकारी हम सभी को है।
किसी बड़े नामचीन बैनर में काम करने वाले पत्रकार भी शायद मेरी बात से सहमत होंगे कि तमाम पत्रकार यूनियनों ने पत्रकारिता में सच की स्थापना के लिए कोई संघर्ष नहीं किया। जिस मान्यता को मीडिया के पास चलकर आना चाहिए था। उसे लेने के लिए पत्रकारों को दर दर की ठोंकरे खानी पड़ती हैं। कोई स्ट्रिंगर कहलाता है तो कोई संवादसूत्र। पत्रकारिता के लिए सरकारी सुविधाएं या तो पूर्णतयाः बंद होनी चाहिए, या उसका लाभ इस मिशन से जुड़े हर व्यक्ति को मिलना चाहिए। शायद ही कोई पत्रकार मेरी इस बात से असहमति रखता होगा।
नामचीन बैनर के अखबारों के मालिकों को पत्रकार या सम्पादक का दर्जा देना शायद ही उचित रहेगा, क्योंकि शायद ही उनकी कलम अखबार की रिर्पोटिंग के लिए उठती हो। डीएवीपी एवं तमाम राज्यों के सूचना जनसम्पर्क विभागों की नीतियों का अवलोकन करने के बाद कम से कम मुझे यह लगता है कि हमें एक ऐसे संगठन की जरूरत है, जो प्रेस मान्यता एवं विज्ञापन मान्यता में नियमों के जाल को काटने के लिए सरकार को विवश कर सके। अकेला चना भाड़ नहीं झोंक सकता, लेकिन इतना जरूर है जब चनों की बोरी एकत्र होगी तो जरूर बदलाव आयेगा।
इस एक फरवरी को मुरादाबाद मंडल के लघु समाचार पत्रों के स्वामियों/सम्पादकों के साथ चर्चा कर हमनें लघु समाचार पत्र हित रक्षक समिति के गठन का निर्णय लिया है। समिति की सदस्यता सभी पत्रकारों के लिए खुली रहेगी। हमारे संगठन के बिंदु निम्न हैं। फरवरी में ही समिति इन मुद्दों को लेकर देशभर के मीडिया जगत में जागरूकता लाने के साथ डीएवीपी एवं सूचना प्रसारण मंत्रालय की नीतियों के खिलाफ प्रदर्शन करेगा। हमारा आपसे अनुरोध है कि इस मुहिम में आप साथ आयें और कारपोरेट बनती जा रही मीडिया को फिर से मिशन के रूप में स्थापित करने में अपना योगदान दें। आप मेरी ईमेल आईडी genxmbd1@gmail.comThis e-mail address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it पर अपने विचार, सम्पर्क सूत्र भेज सकते हैं। हमारी प्रमुख मांगें होंगी-
1- लघु समाचार पत्रों के लिए पत्र के आकार की न्यूनतम सीमा को सामाप्त किया जाये।
2- विज्ञापन मान्यता के लिए प्रसार संख्या को आधार न बनाया जाये।
3- 100-1000 अखबारों का प्रकाशन करने वाले लघु समाचार पत्रों को विज्ञापन मान्यता प्रदान की जाये।
4- आरएनआई से समाचार पत्र का रजिस्ट्रेशन मिलने के साथ ही शासकीय विज्ञापन एवं प्रेस मान्यता प्रदान की जाये।
5- डिस्प्ले विज्ञापन का 80 फीसदी हिस्सा लघु समाचार पत्रों एवं 20 फीसदी हिस्सा बड़े समाचार पत्रों को दिया जाये।
6- लघु समाचार पत्र के सम्पादक हेतु शैक्षिक योग्यता एवं रिर्पोटिंग का अनुभव अनिवार्य हो।
7- जिला, राज्य, समूचे देश में कार्यरत पत्रकारों को सूचीबद्ध किया जाये।
8- लघु समाचार पत्रों पर न्यूज एजेंसियों की बाध्यता को खत्म किया जाये।
9- समाचार पत्र की समीक्षा उसके क्षेत्रीय समाचारों के आधार पर की जाये।
10- प्रेस मान्यता के जिला स्तर पर सूचना विभाग द्वारा कार्यरत पत्रकारों का पंजीकरण किया जाये। एक वर्ष के कार्यानुभव के आधार पर स्वतः ही जिलाधिकारी स्तर से प्रेस मान्यता सम्बन्धित संस्थान के पत्रकार को प्रदान की जाये।
11- लघु दैनिक, साप्ताहिक एवं अन्य प्रकाशनों के सम्पादकों एवं छायाकारों को आरएनआई पंजीकरण एवं नियमितता के आधार पर वार्षिक प्रेस मान्यता प्रदान की जाये।
12- लघु दैनिक, साप्ताहिक एवं अन्य प्रकाशनों के सम्पादकों को शासन की ओर से प्रतिमाह 20000/ मानदेय प्रदान किया जाये।
लेखक मोहित कुमार शर्मा मुदाराबाद से प्रकाशित दैनिक न्यूज ऑफ जेनरेशन एक्स के संपादक
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