September 15, 2010
जेएनयू में 'प्रेमचंद स्मृति व्याख्यान'-- मीता सोलंकी
9 सितंबर, 2010 को भारतीय भाषा केन्द्र, जेएनयू की ओर से तीसरे 'प्रेमचंद स्मृति व्याख्यान' का आयोजन किया गया जिसमें मुख्य वक्तव्य इग्नू के प्रो. जवरीमल पारख और सेंट्रल वक्फ काउंसिल के सचिव डॉ. कैसर शमीम ने दिया और कार्यक्रम की अध्यक्षता हिन्दी के वरिष्ठ कवि प्रो. केदारनाथ सिंह ने की.
कार्यक्रम के आरंभ में भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष प्रो. कृष्णस्वामी नचिमुथु ने स्वागत भाषण देते हुए कहा कि ग्लोबलाइजेशन के इस जमाने में जेएनयू ही वो जगह हो सकती है जहां भारतीय भाषाएं अपनी सहयोगी भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं से संवाद कर विकास कर सकती हैं और नई जरूरतों के मुताबिक उपयुक्त दिशा हेतु पहल कर सकती हैं. उन्होंने आगे कहा कि 'प्रेमचंद स्मृति व्याख्यान' की तर्ज पर तमिल कवि 'सुब्रह्मण्यम भारती' और उर्दू शायर फैज अहमद फैज पर व्याख्यान और सेमिनार आयोजित करने की योजना है. एक सेमिनार अनुवाद और कल्चरल एक्सचेंज पर करना है. यह हिन्दी के कई बडे रचनाकारों (केदारनाथ अग्रवाल, अज्ञेय, शमशेर, नागार्जुन आदि) का जन्मशताब्दी वर्ष है. इस उपलक्ष्य में भी एक बडा सेमिनार करने की योजना है. प्रो. नचिमुथु ने गोष्ठी के विषय (जब मैंने पहली बार प्रेमचंद को पढा) पर बात करते हुए कहा कि 'गोदान' तथा प्रेमचंद की कहानियों में मुझे वह सब कुछ मिला जो मैंने अपने गांव में अपनी आंखों के सामने घटित होते देखा था. प्रेमचंद के लेखन के इस तरह के संदर्भ ही पाठकों को आकर्षित करते हैं और उन्हें एक बडा लेखक बनाते हैं.
प्रो. जवरीमल पारख ने अपनी पृष्ठभूमि के बारे में बताते हुए बताया कि एक शहरी व्यक्ति होने के बावजूद प्रेमचंद की वजह से उन्हें गांव को समझने का मौका मिला तथा समाज में घटित होने वाले शोषण के विभिन्न प्रकारों की तरफ उनका ध्यान आकर्षित हुआ. उन्होंने प्रेमचंद के लेखन को समाज को बदलने वाली खामोश प्रक्रिया कहा.
डॉ. कैसर शमीम ने कहा कि प्रेमचंद अन्य भाषाओं के साहित्य के परिप्रेक्ष्य में भी देखना चाहिए. प्रेमचंद के लेखन में व्यक्त उर्दू तथा मुसलमानों के प्रति व्यक्त दृष्टिकोण की उन्होंने प्रशंसा की. जिस समय भाषा तथा सांप्रदायिकता के विवाद जारों पर थे, उस समय प्रेमचंद ने एक समतावादी नजरिया पेश किया तथा हिन्दुस्तानी गांव को उर्दू फिक्शन में दिखाया. डा. शमीम ने प्रेमचंद की समाज व साम्राज्यवाद के प्रति सोच की प्रशंसा की.
कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो. केदारनाथ सिंह ने अपने कुछ निजी अनुभवों को साझा करते हुए प्रेमचंद को ऐसे साहित्यकार के रूप में याद किया जिन्हें बार-बार पढा जा सकता है. उन्होंने कहा कि जाने हुए को फिर से जानने और बताने की कला प्रेमचंद में थी. प्रो. सिंह ने कहा कि हिन्दी में प्रेमचंद ने साहित्य के सौन्दर्यशास्त्र को बदलने की शुरूआत की. इस संदर्भ में उन्होंने प्रेमचंद की ईदगाह कहानी का जिक्र किया. उन्होंने 'मंत्र' कहानी के संदर्भ में कहा कि प्रेमचंद ने सारे अर्जित ज्ञान के समानांतर एक सहज बोध की अंतर्दृष्टि को ज्यादा महत्व दिया.
कार्यक्रम के संयोजक प्रो. रामबक्ष ने प्रेमचंद साहित्य के साथ अपने पहले अनुभव को याद करते हुए बताया कि बालमन में एक लेखक नहीं, बल्कि कहानी के पात्र याद रहते हैं- 'बूढी काकी', 'दो बैलों की कथा', 'बडे भाई साहब' आदि कहानियों के पात्र याद आते हैं. लेखक के रूप में सबसे पहले कर्मभूमि याद आता है, जो मैंने 11वीं क्लास में पढा था. उस समय मुझे ये कहानी काल्पनिक और झूठ लगी थी. बाद में जब मैंने अपना गांव देखा, पडौस देखा, अपना घर देखा, तब मुझे गांव की गरीबी और प्रेमचंद का महत्व समझ में आया. उन्होंने आगे कहा कि प्रेमचंद के लेखन ने गांव को समझने में मदद की और गांव की परिस्थितियों ने प्रेमचंद को समझने में मदद की. प्रो. रामबक्ष ने आगे कहा कि आज प्रेमचंद को पढना और समझना जितना जरूरी है, उतना ही प्रेमचंद से मुक्त होना भी जरूरी है.
भारतीय भाषा केन्द्र के प्राध्यापक गंगा सहाय मीणा ने कहा कि प्रेमचंद को पढने का अनुभव तीन स्तरों पर है- पहला, जब चौथी-पांचवीं क्लास में 'ईदगाह' कहानी पढी और लगा कि यह हमार लोक की, हमारे आसपास की ही कथा है, दूसरा, जब एम.ए. में प्रेमचंद का विशेष अध्ययन करने के दौरान उनकी कहानियों से प्रेरणा लेकर स्वयं उसी तर्ज पर कहानी लिखना शुरू किया और तीसरा, अध्यापन के दौरान प्रेमचंद की सहजता एक बडी चुनौती के रूप में सामने आती है.
भाषा, साहित्य और संस्कृति अध्ययन संस्थान के डीन प्रो. शंकर बसु ने प्रेमचंद साहित्य की रूसी साहित्य से तुलना करते हुए कहा कि जैसे रूसी साहित्य में टॉलस्टॉय और गोर्की ने यथार्थवाद की शुरूआत की, उसी तरह भारतीय साहित्य में यथार्थवाद लाने वाले प्रेमचंद आरंभिक साहित्यकार थे.
कार्यक्रम में प्रो. चमनलाल ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कहा कि वे गांधी और प्रेमचंद की 'हिन्दुस्तानी' वाली परंपरा के हिमायती हैं. उसी परंपरा को आगे बढाने के लिए भारतीय भाषा केन्द्र में 'प्रेमचंद स्मृति व्याख्यान की शुरूआत की गई है. कार्यक्रम में प्रो. शाहिद हुसैन, प्रो. वीर भारत तलवार, डॉ. रणजीत कुमार साहा, डॉ. देवेन्द्र चौबे, डॉ. उल्फत मुहिबा, डा. एन. चंद्रशेखरन सहित बडी संख्या में विद्यार्थी मौजूद थे.
-- मीता सोलंकी, शोधार्थी, भारतीय भाषा केन्द्र, जेएनयू
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