हिन्दी के कथित विवाद पसंद और अंग्रेजी के अश्लील प्रधान लेखक खुशवंत सिंह से तुलना करने पर भीतर से खुश होने वाले परम आदरणीय प्रात: स्मरणीय हिन्दी के महामहिम संपादक राजेन्द्र यादव जी तुस्सी ग्रेट हो? आपसे इस 45 साला उम्र में 5-6 दफा मिलने और दो बार चाय पीने का संयोग मिला है। इस कारण यह मेरा दावा सरासर गलत होगा कि आप मुझे भी जानते होंगे, पर मैं आपको जानता हूं। आपकी साफगोई का तो मैं भी कायल (एक बार तो घायल भी) हूं। तमाम शिकायतों के बाद भी आपके प्रति मेरे मन में कोई खटास नहीं है। सबसे पहले तो आपने हंस को लगातार 25 साल चलाकर वह काम कर दिखाया है जिसकी तुलना केवल सचिन तेंदुलकर के 99 शतक (सौंवे शतक के लिए फिलहाल मास्टर ब्लास्टर तरस रहे हैं) से ही की जा सकती है। काश. अगर मेरा वश चलता तो यकीन मानिए यादव जी अब तक मैं आपको भारत रत्न की उपाधि से जरूर नवाज चुका होता( यह बात मैं अपने दिल की कह रहा हूं) । हिन्दुस्तान में हिन्दी और खासकर साहित्य के लिए किए गए इस अथक प्रयास को कभी नकारा नहीं जा सकता। सच तो यह भी है यादव जी कि हंस ने ही आपको नवजीवन भी दिया है वरन सोचों कि अपने मित्रों के साथ इस समय तक आप परलोक धाम ( नर्क सा स्वर्ग की कल्पना आप खुद करें) में यमराज से लेकर लक्ष्मी, सरस्वती समेत पार्वती के रंग रूप औप यौवन के खिलाफ साजिश कर रहे होते। मगर धन्य हो यादव जी कि प्रेमचंद के रिश्तेदारों से हंस को लेकर अपनी नाक रगड़ने की बजाय हंसराज कालेज की वार्षिक पत्रिका हंस को ही बड़ी चालाकी से हथियाकर उसे शातिराना तरीके से प्रेमचंद का हंस बना दिया। प्रेमचंद की विरासत थामने का गरूर और उसी परम्परा को आगे ले जाने का अभिमान तो आपके काले काले चश्मे वाले गोरे गोरे मुखड़े पर चमकता और दमकता भी है। हंस को 25 साला बनाकर आपने साबित कर दिया कि आप किस मिट्टी के बने हुए हो। फिर अब किसी खुशवंत से अपनी तुलना पर आपको गौरवान्वित होने की बजाय अब आपको शर्मसार होना चाहिए। सार्थकता के मामले में आप तो खुशवंत के भी बाप (माफ करना यादव जी खुशवंत सिंह का बाप सर शोभा सिंह तो देशद्रोही और गद्दार था, लिहाजा मैं तो बतौर उदाहरण आपके लिए केवल इस मुहाबरे का प्रयोग कर रहा हूं) होकर कर कोसों आगे निकल गए है। देश में महंगाई चाहे जितनी हो जाए, मगर सलाह हमेशा फ्री में ही मिलता और बिकता है। एक सलाह मेरी तरफ से भी हज्म करे कि जब हंस को 25 साल का जवान बना ही दिया है तो उसको दीर्घायु बनाने यानी 50 साला जीवित रखने पर भी कुछ विचार करे। मुझे पता है कि यमराज भले ही आपके दोस्त (होंगे) हैं पर वे भी आपकी तरह कर्तव्यनिष्ठ हैं, लिहाजा थोड़ी बहुत बेईमानी के बाद भी शायद ही वे आपको शतायु होने का सौभाग्य प्रदान करे। भगवान आपको लंबी आयु और जवां मन दुरूस्त तन दे। लिहाजा यादव के बाद भी हंस दीवित रहे इस पर अब आपको ज्यादा ध्यान देना चाहिए। हालांकि अंत में बता दूं कि हंस में छपी एक कहानी कोरा कैनवस के उपर आपने संपादकीय में विदेशी पांच सात लेखकों का उदाहरण देते हुए बेमेल शादियों की निंदा की थी।, मगर ठीक अपनी नाक के नीचे रह रहे कुछ बुढ़े दोस्तों (अब दिवगंत भी हो गए) की बेमेल शादियों को आप बड़ी शातिराना अंदाज में भूल गए। अपनों को बचाकर दूसरों को गाली देने की शर्मनाक हरकतों को बंद करके सबको एक ही चश्मे से देखना बेहतर होगा। वैसे भी आपको गाली देने वालों की कोई कमी नहीं है, मगर लंबी पारी के लिेए ईमानदारी तो झलकनी चाहिए। अंत में इसी कामना के साथ कबाड़खाने में घुट रहे हंस और प्रेमचंद को गरिमामय बनाने में आपके योगदान को कभी भी नकारा नहीं जा सकता।
राजेन्द्र यादव पर पांखी का हाथी अंक
आमतौर साहित्यिक पत्रिकाओं के मालिक संपादक लोग जब कभी विशेषांक निकालते हैं तो उसका दाम इतना रख देते है कि बड़े मनोरथ से प्रस्तुत अंक की महत्ता ही चौपट दो जाती है। किसी पत्रिका को कितना मोटा माटा निकालना है, यह पूरी तरह प्रबंधकों पर निर्भर करता है। मगर पाठकों की जेब का ख्याल किए बगैर ज्यादा दाम रखना तो उन पाठकों के साथ बेईमानी है जो एक एक पैसा जोड़कर किसी पत्रिका को खरीदते हैं। पांखी का महाविशेषांक 350 पन्नों(इसे 250 पेजी बनाकर ज्यादा पठनीय बनाया जा सकता था) का है। जिसमें हंस के महामहिम संपादक राजेन्द्र यादव को महिमा मंड़ित किया गया है। संपादक प्रेम भारद्वाज ने यादव को मल्टीएंगल से देखने और पाठकों को दिखाने की कोशिश की है। मगर भारी भरकम अंक में यादव के लेखन को नजरअंदाज कर दिया गया। संपादक महोदय यादव पर लेखों और संस्मरणों की झड़ी लगाने की बजाय यादव के 10-12 विवादास्पद संपादकीय, कुछ विवादास्पद आलेख और कालजयी कहानियों को पाठकों के लिए प्रस्तुत करते तो इस हाथी अंक की गरिमा कुछ और बढ़ जाती, मगर यादव की आवारागर्दी, चूतियापा, लफंगई, हरामखोरी, नारीप्रेम बेवफाई, और हरामखोरी को ही हर तरह से ग्लैमराईज्ड करके यादव की यह कैसी इमेज (?) सामने परोस दी गई ?
यही वजह है कि 350 पन्नों के इस महा अंक में रचनाकार संपादक राजेन्द्र यादव की बजाय एक दूसरा लफंगा यादव (आ टपका) है। जिसके बारे में करीब वाले लोग ही जानते थे। फिर आप किसी अंक को जब बाजार में देते हैं तो यह ख्याल रखना भी परम आवश्यक हो जाता है कि उसका कालजयी मूल्याकंन हो, ना कि 70 रूपए में खरीदकर इसे पढ़ने के बाद कूड़े में फेंकना ही उपयोगी लगे।
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जवाब देंहटाएंAvoid the acceptance of things free of cost or in charity.
Avoid evil deeds and telling lies.
Association with saints and Faqirs will prove very harmful.
Things of ivory will give very adverse effects. Avoid them.