पोस्टेड ओन: 30 Sep, 2011 जनरल डब्बा में
अगले
साल लंदन में संपन्न होने वाले ओलंपिक खेल आयोजन से संबंधित एक रिपोर्ट
वास्तव में हमें आईना दिखाने के लिए काफी है। इस रिपोर्ट के अनुसार खेल
आयोजन की लगभग सारी तैयारियां पूरी हो चुकी हैं और स्टेडियम बनकर तैयार हो
चुके हैं। बस कुछ सजावट का काम बाकी है और वह भी जल्द ही पूरी कर ली
जाएगी। इस तरह स्टेडियम साल भर तक ओलंपिक के शुभारंभ का इंतज़ार करेगा।
इसमें पूरी दुनिया के 205 देशों के 14,700 प्रतिभागी हिस्सा लेने वाले
हैं। अब इस खबर के संदर्भ में भारत में संपन्न राष्ट्रमंडल खेलों को याद
किया जा सकता है। यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं कि इस खेल में हमने लंदन
से कोई सबक नहीं लिया। एक गरीब देश का पैसा पानी की तरह बहाने के बावजूद
उस खेल के नाम पर भारत में कितने खेल हो गए आज यह सबको पता है। आज भी आप
नई दिल्ली के कनॉट प्लेस घूम आइए। खुले हुए मेनहोल, कीचड़ से सना गलियारा,
हल्की बारिश में भी जमा हो जाने वाला घुटने भर पानी आपको शर्म से
पानी-पानी होने को मजबूर कर देगा। देश की राष्ट्रीय राजधानी के हृदय स्थल
कहे जाने वाले इस इलाके के हालात बड़ी संख्या में वहां पहुचने वाले
विदेशियों को शेष भारत की चुगली करता ही नजर आएगा। हालांकि यह जानकर आपको
ताज्जुब होगा कि कनॉट प्लेस की हालत ऐसी इसलिए है, क्योंकि वहां वह काम
अभी तक जारी है जो राष्ट्रमंडल खेल आयोजन का हिस्सा थे। खेल कब का खत्म हो
चुका है, विजेतागण पदकों के साथ अपने-अपने देश कब का रवाना हो चुके हैं।
कलमाड़ी
साहब भी लाख कोशिशों के बावजूद तिहाड़ में आराम फरमा रहे हैं। दिल्ली
सरकार भी इस मामले में लोकायुक्त और कैग की प्रतिकूल टिप्पणियों के बावजूद
अड़ी और डटी हुई है, लेकिन राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी चल रही है। आपकी
जेब इस नाम पर तो कब के साफ हो गए, लेकिन शहर की सफाई बदस्तूर जारी है।
ऑस्ट्रेलिया से आए मजदूर भी अब अपने वतन को लौट चुके हैं। सौ रुपये के
सामान का हजार रुपये किराया वसूलने वाली कंपनिया भी अपनी बैलेंसशीट चमका
कर अगले शिकार की तैयारी में जुट गई होंगी, लेकिन लूटने का काम जारी है।
अब आप लंदन और यहां की परिस्थितियों की तुलना करेंगे तो अपने देश में
बेरोजगारों की लंबी फौज के कारण जाहिर है, श्रम यहां काफी सस्ता है।
विशेषज्ञों की भी यहां कोई कमी नहीं है। ऐसी बात नहीं कि लंदन में काम नियत
समय से पहले पूरा होना और ओलंपिक समिति द्वारा तत्काल हरी झंडी भी दिखा
देना किसी और कारण से है, लेकिन याद कीजिए कॉमनवेल्थ के समय कितनी छीछालेदर
हुई थी। तब खेल की शुरुआत से कुछ दिन पहले तक उसे अधूरी तैयारियों के
कारण कॉमनवेल्थ समिति द्वारा हरी झंडी तक मिलना मुश्किल हो गया था। आखिर
कारण क्या है? केवल और केवल राजनीतिज्ञों की अक्षमता और भ्रष्टाचार के
कारण इस आयोजन के लिए इतनी फजीहत हुई थी। हर तरह की योजनाओं में जब तक
नेताओं-अधिकारियों का हिस्सा सुरक्षित न हो जाए तब तक काम की रफ्तार इसी
तरह रहनी होती है, लेकिन जहां भी उनका हिस्सा सुनिश्चित हो वहां रफ्तार को
पंख लग जाते हैं।
अभी
दिल्ली हाईकोर्ट के सामने आतंकी हमले के बाद गृह मंत्री चिदंबरम का एक
बयान यह भी आया था कि हाईकोर्ट में लगाने के लिए क्लोज सर्किट कैमरा
खरीदने के लिए चार बार टेंडर निरस्त करने के बाद भी पीडब्ल्यूडी कैमरा
खरीदने का निर्णय नहीं कर पाया, क्योंकि उसे डर था कि भ्रष्टाचार के आरोप
लग जाएंगे। इस मासूमियत पर कौन न मर जाए? कौन भरोसा करेगा उनकी इस दलील पर
कि जिस सरकार में तमाम नियमों को ताक पर रख कर अनावश्यक रूप से 111 हवाई
जहाज खरीदने के लिए कैग की फटकार के बावजूद सत्ताधारियों पर बल नहीं पड़े
और जहां बड़ी हड़बड़ी में बहुमूल्य 2जी स्पेक्ट्रम को अपनी चहेती कंपनियों
को लुटा दिया गया और कैग की ही रिपोर्ट के अनुसार देश को 1 लाख 76 हजार
करोड़ रुपये का चूना लगाया गया हो और जहां इसी राष्ट्रमंडल खेल में दस
रुपये के मैट्रेस की खरीदी बीस-बीस गुना कीमत पर की गई हो। इस आयोजन में
जहां कई रसूख वाले नेताओं पर कथित कंसल्टेंसी फीस के नाम पर ही करोड़ों
रुपये लुटा दिए गए हों, वहां पीडब्लूडी विभाग सुरक्षा के लिए जरूरी महज
कुछ लाख की खरीदी करने में ही डर गया।
सरकारी
अमला के पास कितने मासूम तर्क हैं। हालांकि क्या बात महज इतनी ही रही होगी
कि थोड़े से रकम से हो जाने वाली कैमरे की खरीदी के लिए अधिकारी इतनी
माथा-पच्ची भला क्यों करते? वास्तविकता तो यही है किइतनी ऊर्जा खर्च करके
तो इससे सैकड़ों गुना बड़े सौदे हो सकते थे। हमारे देश में न केवल
लालफीताशाही और भ्रष्टाचार, बल्कि नेताओं द्वारा इस देश के खजाने को जी
भरकर लूटने की बेशर्मी भी हमे बार-बार शर्मशार होने पर मजबूर करती है।
हमारे यहां मुश्किल तो यही है कि हर बात में हम विदेशों का अंधानुकरण करते
रहते हैं, लेकिन उनसे सीखते कुछ नहीं। हमारे कर्णधार विदेशों की अच्छी
बातों को भला सीखेंगे भी क्यों, जब उन्हें अपनी ही चलानी है और अपना लाभ
देखना है। नेताओं को अपने देश के भी इक्के-दुक्के उदहारण भी इसलिए रास
नहीं आते, क्योंकि उनकी नीयत में ही खोट है। इसी दिल्ली में मेट्रो
परियोजना के प्रमुख श्रीधरन का उदाहरण ही देख लेते तो भी अच्छा होता। केवल
इस एक व्यक्ति के अच्छे और जिम्मेदार होने के कारण आज काफी
महात्वाकांक्षी और मुश्किल मेट्रो की हर परियोजना न केवल तय समय से पहले,
बल्कि अनुमानित लागत से कम पैसों में ही पूरी हुई और इसकी हर जगह प्रशंसा
हो रही है। श्रीधरन के कारण ही निर्धारित बजट से काफी कम रकम खर्च करके
अच्छी गुणवत्ता का काम हो पाना संभव हुआ और लाखों-करोड़ की लागत के बावजूद
कहीं भी किसी तरह के भ्रष्टाचार की कोई बात सामने नहीं आ पाई।
अगर
विशुद्ध सरकारी कामों की ही बात करें तो देश के एक छोटे राज्य छत्तीसगढ़
के पीडीएस सिस्टम की बात की जा सकती है। देश में सबसे भ्रष्ट योजनाओं में
से एक माना जाने वाला जनवितरण प्रणाली वहां अपने उन्हीं सरकारी
कर्मचारियों की बदौलत नक्सल चुनौतियों के बावजूद आज प्रदेश के पहुंचविहीन
क्षेत्रों तक में आदिवासियों तक को मात्र एक रुपये किलो की दर से
खाद्यान्नों की आपूर्ति सुनिश्चित कर रहा है। आम लोगों के हालात से बिलकुल
अनभिज्ञ देश के सत्ताधारी कोई प्रेरणा लेने को तैयार दिखते हों, ऐसा भी
संकेत नजर नहीं आता। कोई भी उपाय कर केवल सत्ता पाने को ही अपना साध्य
समझने वाले नेताओं को देश के स्वाभिमान, जनता की आकांक्षाओं को जानने में
शायद ही कोई दिलचस्पी होती है। ये यही सोचकर निश्चिंत हैं कि बस 32 रुपये
मिल जाएं जनता को तो वह अमीर हो जाएगी। उन्हें इस बात से क्या फर्क पड़ता
है कि उनके खुद के एक डिनर पार्टी पर ही लाखों खर्च कर हो जाता है। यह देश
को तय करना है कि उसे कलमाड़ी मॉडल चाहिए या श्रीधरन मॉडल।
लेखक पंकज झा स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं
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