शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

गोरख पांड़ेय के संग की यादें






अनामी शरण बबल / .




प्रस्तुति- रिधि सिन्हा नुपूर 

 
( बात उन दिनों की है जब हमलोग भारतीय जनसंचार संस्थान में पत्रकारिता की पढाई कर रहे थे। 1987-88 बैच और हिन्दी पत्रकारिता के पहले पाठ्यक्रम से जुड़े थे। हमलोगों ने इंटरव्यू तो साउथ एक्स के प्राचीन कार्यालय में दियाथा, मगर पढाई लिखाई मस्ताई गुंडई मस्तानी हरकतों को जेएनयू से सटे कैंपस में किया गया। मेरा अजीज और दिल्ली का अतिप्रिय मित्र ( जो पिछले एक दशक से लापता है और हमलोग उसको तलाश नहीं सके) यही अखिल अनूप एक दिन मेरे हॉस्टल में आया और कहा कि चलो एक मछुवारे से मुलाकात करवाता हूं। गोरख पांडेय को मैं जानता तो था, पर भलि भांति परिचित नहीं था।
अनूपके साथ मैं गोरखजी के कमरे में दाखिल हुआ तो वे एक आरामकुर्सी पर बैठे सिगरेट पी रहे थे। मेरा परिचय ( उस समय और ना आज ही मेरा कोई एे सा परिचय है) कराने पर मैंने गोरख जी को पैर छूकर प्रणाम किया, तो वे एकाएक अचकचा गए। मानों उन्हें पैर छूने का अंदाजा नहीं था। वे कुर्सी से एकदम खड़े होकर खिलखिला पड़े, और अपनी बांहों में आलिंगिंत करके अपनी गरिमा, स्नेह और वात्स्लय से अभिभूत कर दिया। हमलोग मिलकर कमरे में ही स्टोव जलाकर चाय बनाई। गपशप, काव्यपाठ और गालियों के बीच चाय की चुस्की चली। विदा करते समय उन्होने साधिकार कहा तुम पास में हो ,जब कभी फुर्सत मिले तो मेरे पास आना। सांत्वना देते हुए कहा कि जब कभी भी किसी चीज की कमी हो तो निसंकोच मांग लेना। गोरख जी ने अनूप पर जोर देते हुए कहा कि यह लड़का अभी दिल्ली में नया है लगातार संपर्क में रहना और इसे बिगड़ने से बचाना। यह अलग प्रसंग है कि धौंस देते हुए अनूप मुझे अक्सर यह कहता कि मेरे संग बदमाशी करोगे तो गोरख जी से पिटवाउंगा। करीब दो माह के दौरान मैं उनके कमरे में दो बार गया, तो वे हमेशा प्यार और स्नेह के साथ मिले और खुद चाय बनाकर मुझे दी।
करीब एक माह तक मैं उनके पास नहीं गया,मगर एक दिन जेएनयू क पूर्वाचंल छात्रावास के बस स्टॉप परवे मिल गए। करीब करीब गुस्सा करते हुए गोरख जी ने कमरे पर आने के लिए कहा, और मैं हां हूं कहते हुए किसी तरह अपनी जान बचाई। मैं करीब 10 दिन तक फिर उनके पास नहीं गया कि एकाएक सुबह सुबह हॉस्टल के कमरे के बाहर पार्थिव ने बताया कि अरे गजब हो गया गोरख पांड़ेय नहीं रहे। कमरे के भीतर से यह खबर सुनते ही मैं बाहर निकला और पेपर देखते ही उनते छात्रावास की तरफ भागा। जहां पर सैकड़ो लड़के लड़कियोें की भीड़ थी, और गोरख जी का बेजान शरीर एक सफेद कपड़े से छिपा था। हालांकि मैं उनके अंतिम संस्कार होने तक साथ नहीं रहा और ना ही श्मशान घाट तक गया, पर वे महीनों तक वे दिल दिमाग और चर्चो में बने रहे।
इस घटना के सालों बीत जाने पर मैं भी गोरख जी की यादों के केंचुल से बाहर निकल आया था, मगर साल 2013 में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विवि वर्धा में आने का मौका मिला। जहां पर गोरख पांड़ेय छात्रावास को देखा तो मेरे मन में दबी यादों की चिंगारी सुलग सी गयी। विश्व विद्यालय द्वारा एक छात्रावास के नामकरण को देखकर मन गद गद सा हो उठा। हालांकि मैं वर्धा प्रवास के दौरान एकशाम गोरख छात्रावास में भी गया। शायद वह कमरा बिमलेश पांड़ेय और बलि कोकट का था. जहां पर करीब एक घंटे तक बैठा।
अभी रात को कम्प्यूटरपर बैठा मैं कुछ खोज ही रहा था कि मेरे सामने गोरख पांड़ेय की कविताएं आ गयी, और मैं रात के करीब साढ़े 11 बज जाने के बाद भी गोरख जी पर अपने संस्मरण को लिखने से खुद को रोक नहीं पाया। करीब 27 साल के बाद एकाएक एेसा प्रतीत हो रहा है मानो गोरख जी मेरे सामने बैठे हो और हाल चाल पूछते हुए बार बार यह उलाहना दे रहे हो कि तुमने भी मेरे को सही ढंग से नहीं पढ़ा है।
यह स्वीकारते हुए संकोच सा हो रहा है कि आंशिक मुलाकात में ही उनके प्रिय होने के बाद भी मैंने शायद गोरखजी को सही मायने में नहीं देखा और ना ही पढ़ पाया। मेरी यादों में वे सदैव जीवित रहेंगे। एेसा लगता है मानों इस महा दयालु और स्नेहिल कवि का मैं कर्जदार ही रहूंगा। 













समाजवाद

गोरख पाण्डेय » समाजवाद

लाठी से आई, गोली से आई
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

हाथी से आई, घोड़ा से आई
अँगरेजी बाजा बजाई, समाजवाद…

नोटवा से आई, बोटवा से आई
बिड़ला के घर में समाई, समाजवाद…

गाँधी से आई, आँधी से आई
टुटही मड़इयो उड़ाई, समाजवाद…

काँगरेस से आई, जनता से आई
झंडा से बदली हो आई, समाजवाद…

डालर से आई, रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई, समाजवाद…

वादा से आई, लबादा से आई
जनता के कुरसी बनाई, समाजवाद…

लाठी से आई, गोली से आई
लेकिन अंहिसा कहाई, समाजवाद…

महंगी ले आई, ग़रीबी ले आई
केतनो मजूरा कमाई, समाजवाद…

छोटका का छोटहन, बड़का का बड़हन
बखरा बराबर लगाई, समाजवाद…

परसों ले आई, बरसों ले आई
हरदम अकासे तकाई, समाजवाद…

धीरे-धीरे आई, चुपे-चुपे आई
अँखियन पर परदा लगाई

समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई

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