अनामी
शरण बबल युवा भी हैं और वरिष्ठ पत्रकार भी। अनेक महत्वपूर्ण अखबारों में वे काम कर
चुके हैं। अपनी महत्वपूर्ण पत्रिका का प्रकाशन भी कर रहे हैं। फेसबुक के माध्यम से
वे मुझसे और अधिक गहरे तक जुड़ गए हैं। उनके मन में मेरी रचनात्मकता के प्रति काफी
आदरभाव है। अपनी पत्रिका का एक अंक मुझे पर केंद्रत भी करने की योजना उनकी रही है।
उनका मानना है कि साहित्य में इतनी सक्रियता के बाद भी मुझे वह स्थान शायद नहीं मिल
सका,
जो मिलना चाहिए थे। उनका कहना है कि महानगर के लेखकों ने कस्बों के लेखकों
के साथ अन्याय किया है। खैर, मैंने कितना लिखा, कैसा लिखा, इसके बारे में खुद कुछ कहना ठीक नहीं पर जब
श्री बबल जैसे मित्र मेरे साथ खड़े होते हैं तो संतोष होता है कि सभी अन्यायी नहीं
है। पिछले दिनों श्री बबल ने फेसबुक के इनबॉक्स में आकर संदेश भेजा कि आपसे अपनी पत्रिका
के लिए संक्षिप्त साक्षात्कार लेना चाहता हूँ। मैंने कहा-बिल्कुल,
स्वागत है। तो फिर अनायास सिलसिला शुरू हुआ। मुझे लगा कि कुछेक सवाल
होंगे और बात खत्म हो जाएगी, पर ऐसा नहीं हुआ। संक्षिप्त-सा समझा जाने वाला साक्षात्कार की हनुमान जी की पूँछ की तरह बड़ा होता गया
और लगभग अभूतपूर्व स्थिति में पहुँच गया। इसकी कल्पना मैंने भी नहीं की थी और न बबल
ने। श्री बबल ने प्रश्नों की बारिश ही कर दी । एक-दो तीन-चार नहीं, पूरे एक सौ बीस सवाल तक वे पहुँच गए। और यह
महासाक्षात्कार बन गया। मुझे लगता है हिंदी जगत में किसी लेखक से इतना बड़ा साक्षात्कार
इससे पहले कभी नहीं लिया गया । मेरे लिए यह रोमांचक अनुभव था। इतने सारे प्रश्नों को
देखना और उनके जवाब देना भी बेहद कठिन चुनौती थी। पर यह चुनौती मैंने स्वीकार की। वे
प्रश्न पूछते गए, मैं उत्तर देता गया। अपने विवेकानुसार हर प्रश्न
का उत्तर दिया। मेरे जीवन के प्रारंभिक काल से लेकर साहित्य जीवन के विभिन्न पहलुओं
पर श्री बबल के अद्भुत प्रश्न उभर कर सामने आए। देखना यही है कि सुधी पाठक उत्तरों
को कितना पसंद करते हैं।
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1
- गिरीश जी, आज आपके अपने बचपन की किस तरह की यादें
जीवित हैं?
उत्तर - बचपन की अनेक यादें अब स्मृति-कोश रूपी हार्डडिस्क में
अब संचित नहीं हैं। कुछ ही बची हुई हैं, पर वे भी अब कुछ धुंधली-सी हो गई हैं। कुछ जो बची हैं, उन्हें याद करके हम नॉस्टेल्जिक
हो जाते हैं यानी अतीत की मधुर स्मतियों में खो जाते हैं। और फिर तरोताजा होने की कोशिश
भी करते हैं, उन पलों में जी कर। जब मैं यादों के धुंधलके में
देखने की कोशिश करता हूँ तो एक नन्हा बालक नजऱ आता है, जो पढ़ाई
से दूर भागता था। कभी नदी किनारे चला जाता, कभी घुड़सवारी करता।
कभी बस्ता भूल कर घर लौटता था, तो कभी यही याद नहीं रहता कि घर
भी लौटना है। जो पतंग उड़ा रहा है.. गिल्ली-डंडा खेल रहा है। आमा डंडी में मस्त है। वह कंचे खेल रहा है। छप्पा
(सिगरेट के खोकों को जमा करके उससे खेलना)खेल रहा
है। गुच्चू ( एक खेल जिसमें एक छोटे-से
छेद में सिक्के डालना होता है) खेल रहा है। जिसकी •िांदगी में मस्ती थी, शैतानियाँ थी। पिताजी की पिटाई
है। उनका स्नेहभरा हाथ भी है। माँ का प्यार है। मित्रों से तकरार है। उस वक्त कुछ बनने
के सपने तो थे ही नहीं।
2
- अपने बचपन को आप आज किस तरह देखते हैं?
उत्तर - बचपन को मैं दूसरे बच्चों की मानिंद
ही देखता हूँ, जिसमें स्वच्छंदता है। उत्साह है। उमंग है। तरंग है।
जीवन के अनेक रंग हैं। आज के बच्चों के पास बचपन का वो सुख नहीं हैं जो हमने भोगा।
तब बस्ते का बोझ ही नहीं होता था। अपने बचपन की आज़ादी और आनंद के उन दिनों को याद करता हूँ, तो कई बार अफ़सोस होता है कि हम बड़े क्यों और कैसे हो गए। काश, अभी भी बच्चे होते, तो शायद कुछ अच्छे होते। खुशकिस्मत
हूँ कि मेरा बचपन बेहद खूबसूरत रहा। जहाँ मस्ती थी, आनंद था।
इसलिए आज भी तरोताजा होना होता है तो बचपन को याद करता हूँ। यादों की जुगाली बड़ा सुकून
देती है। मन को निर्मल करने के लिए बच्चा बनना पड़ता है। आज अगर कोई पूछे कि आपकी क्या
इच्छा है तो मैं कहूँगा मुझे फिर से बच्चा बना दो ।
3
- बचपन यानी अपने बालकपन की याद ज्यादा आज भी आती है या बचपन की?
उत्तर - बचपन को भूल पाना कठिन है। उसकी याद आती रहती है। बचपन के मित्रों की भी याद
आती है। कुछ तो आज भी
मिलते हैं और बातें करते
हैं। कुछ बातें जो मैं भी भूल चुका हूँ,
वे याद दिलाते हैं। बालकपन भी खूब याद आता है, और बचपन भी। बालकपन यही कि पढ़ाई से भागने की कोशिशें की। गंगा, नर्मदा और हसदो नदी में कूद-कूद कर नहाने की यादें हैं।
दिन में ही होलिका दहन कर दिया था, वो यह याद है। बचपन यानी वह
पड़ाव जिसमें हम चहकते
हैं चिडिय़ों की तरह। पिता के तमाम संघर्षों से अनजान, माँ की
परेशानियों से दूर,
अपने में मस्त बचपन। मारपीट, दादागीरी,
मस्ती। इन सबमें घुले-मिले बचपन को बार-बार याद करता हूँ। बालकपन की याद कम है, बचपन की यादें
हैं, पर इक्का-दुक्का ही।
4
- कैसा था वह समय? आज से तो कोई कल्पना ही नहीं
की जा सकती। मगर उस समय
के माहौल और परिवार की तोतली यादों पर प्रकाश डाले?
उत्तर - अब यादा आता है कि वह समय शायद निजी अभावों का समय था, पर भरपूर आनंद का भी मिला हमें। क्योंकि हमें वैसे महान पिता मिले। जो अपनी
जेब काट कर बचत करते थे हमारे लिए। वे घर के भीतर टीने की पेटी गाड़ देते थे। जिसमें
आते-जाते वे कुछ-न-कुछ रुपये या सिक्के डाल दिया करते थे। दिवाली के समय उसे निकालते थे। तब हम
रोमांचित हो जाते थे, जब देखते थे, डिब्बा
भर गया है रुपयों और सिक्कों से। तब समझ में आता था बचत का महत्व। पिताजी सप्ताह में
एक बार पच्चीस पैसे दे देते थे। सात दिन काटने होते थे। फिर भी कोई गिला नहीं,
कोई , शिकायत नहीं। इन्हीं पैसो के सहारे ऐश कर
लेते थे। चॉकलेट, टोस्ट, गुपचुप आदि खरीद कर आनन्दित होते रहते थे।
आज हम इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। हम तंगहाली में भी खुशहाली के साथ जी लेते थे,
पर आज के बच्चे पिता की गर्दन पकड़ कर खर्च करवा लेते हैं। मुझे याद है, पिताजी जो पैसे देते थे, उसमें से भी कुछ बचा लेता था,
ताकि कुछ ज्यादा पैसे मेरे पास जमा रह सके, क्योंकि तम मुझे धर्मेंद्र, देवानंद या राजेंद्रकुमार
की फि़ल्में भी देखनी होती थीं। सिनेमा देखने के लिए पिताजी पैसे नहीं देते थे। वे
पैसे अपनी बचत से मैं निकाल लेता था। फिल्म देखने का शौक था। कभी-कभी चोरी-छिपे देखने भी जाता था। तीस पैसे में थर्ड क्लास
में बैठ कर फिल्म देख लेते थे। दो-चार पैसे में मूँगफल्ली भी
मिल जाती थी। जब कभी पास में पैसे नहीं होते थे, तब उस टाकीज के टूटे-से दरवाजे से झाँक कर भी कुछ-कुछ आनंद उठाने की भी कोशिश
करते थे। पिताजी गांधीवादी थे। फिल्मों के शौक़ीन तो थे, पर बहुुत
अधिक नहीं इसलिए मुझ पर ध्यान रखते थे कि ज्यादा सिनेमा न देखूँ। इसके पीछे भाव यही
था कि मैं मन लगा कर
पढ़ूँ और अपना भविष्य गढूँृ। कभी कोई धार्मिक या देशभक्ति वाली फिल्म आ जाए तो खुद
कहते थे, जाकर देख लेना।
5
- आज से तुलना करके देखें, तो इस अंतराल को आप
किस तरह विश्लेषित करेंगे?
उत्तर - आज के समय से उस दौर की तुलना हो ही नहीं सकती। पिछले चालीस वर्षो में हमारा समाज
बदल गया है। अब हम लोग शॉपिंगमॉल - संस्कृति में जी रहे हैं।
अब तो नये लड़कों को सब कुछ ब्रांडेड चाहिए। उससे नीचे समझौता ही नहीं करते। भले ही
माता-पिता को चूना लग जाए। मूर्खता ये भी है कि सौ जगह से फटी
पैंट भी ब्रांडेड चाहिए। इतना अधिक पागलपन है। उस वक्त बांडेड जैसे शब्द ही चलन में
नहीं थे। छोटा-सा बाज़ार हुआ करता था, जिसमें
जरूरत और फैशन के सभी सामान मिल जाया करते थे। यह जो अंतराल आया है, वह पश्चिमोन्मुखी भारत बनाम इंडिया के कारण आया है। विदेश की संस्कृति को हमने आधुनिक
होने का पैमाना समझ लिया इस नकल में अक्ल का काम ही नहीं लिया। और एक नकलची बंदर की
तरह समाज को इस मुहाने
पे लाकर खड़ा कर दिया है कि अब गाँव-गाँव में बरमूडा मिल जाएंगे
और जींस और टॉपधारी लड़कियां भी। माता-पिता भी इस बदलाव को अच्छा
मानते हैं और अपने समय को हताशा के साथ निहारते हैं कि उनका कल आज की तरह चमक-दमक वाला क्यों न था। संक्षेप में कहूँ, तो कल और आज
का जो अंतराल है, वह उपभोक्तावादी संस्कृति से उपजे बाजारू दैत्य
का मायाजाल है, जिसमें हम सब रहने के लिए अभिशप्त हैं। और यह
अभिशाप हमें किसी प्रतिसाद - सा या प्रसाद -सा आनंददायक लग रहा है।
6
- बचपन की किस तरह की यादें आपको आज भी मन से बालक बना डालती हैं
?
उत्तर - जब बनारस में गर्मी की छुट्टियां बिताने पिताजी के साथ दूधविनायक मंगलागौरी
के घर अपनी शांति बुआ
के पास आया करता था तब
गंगा नदी के किनारे घाटों पर बने मंदिरों पर चढ़ कर नदी में गोते लगाया करता था। आज
भी गंगा को देखता हूँ तो बचपन लौट आता है। ये और बात है कि प्रदूषित गंगा में अब नहाने
की हिम्मत नहीं होती। बचपन में मनेंद्रगढ़ में अक्सर कुछ मित्रों के साथ घुड़सवारी करता था। हसदो
नदी के किनारे चरते घोड़ों को हम पकड़ लिया करते थे। मंदिर की आरती में नियमित रूप से
शरीक होता था। दशहरे के दिन भगवान राम बन कर हाथी पर सवार होकर शहर का चक्कर लगाना
और सैकड़ों लोगों को भगवान रूप में आशीर्वाद देना, और अंत में
रावण दहन के बाद फिर
मंदिर आकर सबको आशीर्वाद देना। यह सब याद करता हूँ तो बचपन में पहुँच जाता हूँ,
तब लगता है एक बार फिर वही जीवन री-प्ले हो जाए।
मन-ही-मन बचपन के अनेक घटनाक्रमों को याद
करके बचपन में लौट कर बेहद खुश होता हूँ। बस, यही सुख मन को बालक
बना देता है।
7
- एक मनुष्य के जीवन में बचपन का क्या महत्व मानते हैं?
उत्तर - बचपन की नींव पर ही हमारे जीवन का भवन खड़ा होता है। बचपन अगर अच्छा न हो,
उसमें खुशियों के रंग न हो तो जवानी अभिशप्त भी हो सकती है। बचपन अगर अभावों में
बीतेगा तो जीवन में मिलने वाली उपलब्धियां हम अपने तक सीमित रखेंगे। अगर जीवन खुशहाल
रहा तो बड़े होकर अपने सुख भी बाँटने में संकोच नहीं करेंगे। बचपन को हम जितना बेहतर
बना सकेंगे, किसी भी राष्ट्र का भविष्य उज्ज्वल होगा। इसलिए बच्चों के लिए
अच्छा साहित्य रचा जाना चाहिए, ताकि उससे जुड़ कर वो एक अच्छा
नागरिक बन सके। बचपन
जवानी का श्रृंगार है। यह जितना सुंदर रहेगा, जीवन उतना अधिक
सुवासित होगा, इसीलिये माता-पिता अपना पेट
काट कर बच्चों का लालन-पालन करते हैं। गरीब-से-गरीब अभिभवक भी अपने सुनहरे भविष्य की कोशिश करता
है।
8
-आपके लेखकीय जीवन में बचपन की क्या भूमिका है और उस समय की यादों रिश्तों
की यादें प्यार दुलार फटकार और मित्र बालक मंडली के नटखटपन की किस तरह की यादों की
छाप आप पर और आपके लेखन में देखने को मिलता है?
उत्तर- मुझे लेखक बनने में मेरा बचपन बड़ा सहायक हुआ। बगैर इसके रचना की दुनिया में मेरी
उपस्थिति शायद होती ही नहीं। स्कूल में 'वन्यजाÓ नामक शालेय पत्रिका का प्रकाशन होना था। मास्टर जी ने प्राचार्य महोदय सुनाया और कहा सभी बच्चों को कुछ-
लिख कर देना है. सरे बच्चे इधर-उधर की
रचनाएँ एकत्र करके जमा करने लगे. लेकिन मुझे कुछ सूझ नहीं रहा
था की करूँ क्या. स्मारिका में सबका नाम छपेगा, मेरा नहीं तो पिताजी की डाँट पड़ेगी। लेकिन कोई विचार तो मन में उमड़े। मित्र
तो चोरी की रचनाएँ दे रहे यह सम्भव न हो रहा था. मन में निराशा थी. पर अचानक एक दिन सरस्वती माँ ने आकर दुलराया और एक नन्हा-सा गीत बन गया-
''नींद से जागो प्यारे बच्चों, सबेरा सुहना मौसम
लाया। खेल-कूद के दिन बीते अब, पढऩे का
है मौसम आया।ÓÓ इस गीत में कुछ और पंक्तियाँ भी है,
जिन्हे भूल रहा हूँ. मेरी कविता पंद्रह साल के
बच्चे हिसाब से कुछ बेहतर
लगी तो गुरूजी ने पूछा-''तुमने ही लिखी हैं न?ÓÓ मैंने आत्मविश्वास के साथ कहा -''जी सर, मैंने ही लिखी है, अभी सुबह-सुबहÓÓ। गुरूजी खुश
हुए। मुझे शाबाशी दी
और कहा- ''वैरी गुड, इसी तरह लिखते रहो।ÓÓ
शालेय पत्रिका के लिए लिखी उस कविता ने मुझे लेखन की ओर प्रवृत्त किया। फिर दिनकर जी की कविताएँ पढ़ी। एक दिन पिताजी की एक
प्रकाशित कविता पर नजऱ पडी़, जो खादी ग्रामोदयोग आयोग की किसी
पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। कविता कुछ इस तरह थी- ''तुमको त्रेता का राम कहूँ या द्वापर का
घनश्याम कहूँ। तुम स्वयं एक अवतारी थे फिर तुम को क्यों अवतार कहूँ?ÓÓ गांधी जी की स्तुति में वह एक लम्बा गीत था। इस गीत को पढ़ कर पिता के प्रति
और सम्मान बढ़ा कि मेरे
घर पर ही इतने अच्छे कवि हैं। मैंने उसके बाद कुछ-न-कुछ लिखने के कोशिश की। उस वक्त तो गद्य नहीं, पद्य ही
सूझता रहा। कभी-कभी लिखता और पिताजी को दिखाता रहा। पिता देखते और मुस्करा कर पीठ थपथपाते।
कहते कुछ भी नहीं। वे
क्यों कुछ नहीं कहते थे, उसका अर्थ अब समझ में आता है। कविताएँ
तो कमजोर ही थीं, पर पिताजी ने कभी नहीं कहा कि बेकार हैं। वे
समझते थे कि हतोत्साहित करने से बच्चा टूट जाएगा। घर पर पिताजी थे और बाहर कौशल अरोड़ा था. उसके मन
में भी लिखने की ललक थी। उसके साथ मिल कर मैंने
कुछ नाटक भी लिखे जिन्हें हम लोग स्कूल के वार्षिकोत्सव में या मोहल्ले के गणेशोत्सव में
मंचित करते थे. अपने बचपन और मित्रों के नटखट रूपों को मैंने
काल्पनिक पात्रों के माध्यम से अपने व्यंग्य उपन्यास 'स्टिंग
ऑपरेशनÓ में सविस्तार वर्णित किया है।
9
- हम बचपन को लेकर इतनी बातें कर रहे हैं। क्या वाकई में यह बचपन इतना
महत्वपूर्ण-सा होता है?
उत्तर - बचपन महत्वपूर्ण ही होता है।
हम जीवन की किस दिशा की
ओर मुडेंग़े, यह अक्सर
बचपन ही तय कर देता है। यह और बात है कि उस वक्त खुद हमें पता नहीं होता, न माता-पिता को , मगर हमारी निर्माण-प्रक्रिया बचपन की गतिविधियाँ तय करती चलती हैं। हमने देखा है कि अनेक लोगों का जीवन
बड़ा संघर्षपूर्ण रहा। वे उन संघर्षो के बीच भी निखरे। कुछ टूट कर बिखर भी गए
, पर कुछ ऐसे निखरे कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक बने। अनेक महापुरुषों
का जीवन हमारे सामने हैं। बचपन के संघर्षों से ही वे निखरते चले गए। बचपन पर ध्यान
देने की जरूरत है। यह घरवालों का दायित्व है तो सरकारों का भी। जो निर्धन हैं उन्हें
भरपूर मदद मिले और जो सम्पन्न हैं, वे सावधानी के साथ बच्चों
को विकास करें।
10
- आपके जीवन के लालित्य में इस बचपन की क्या देन मानते हैं?
उत्तर - मेरे जीवन का वर्तमान स्वरूप जिसे आपने लालित्य का नाम दे दिया है,
बचपन की ही प्रतिसाद है। अगर मेरे बालमन में लिखने-पढऩे की ललक न होती तो मैं वो नहीं होता, जो शायद आज
हूँ। किसी सरकारी दफ्तर में बैठा कलम घिस रहा होता और अब तक सेवा निवृत्त हो कर शायद
मर-खप भी गया होता। आज अगर मैं सृजन-पथ
का पथिक हूँ तो उसके पीछे बचपन के वे हैं जिन्होंने मुझे रचनात्मक बने रहने प्रेरित किया। मेरे साथ मेरे कुछ और मित्र थे,
जो उस वक्त मुझसे बेहतर लिखते थे। मैं सोचा करता था, मुझे भी ऐसा लिखना चाहिए। यहाँ गोपाल बुनकर को याद करूँगा। उसकी कविताएं उस बक्त किसी बड़े कवि से कम नहीं थी। पंक्ति देखे -''गीत की ये पंक्तियाँ उस जहाँ के लिए हैं, लोग रहते हैं
जहाँ पर मुर्दनी छाई हुई है।ÓÓ आज मेरा मेरा वो मित्र है। पर लिखता ही नहीं। जीवन के संघर्षों ने शायद उसे दूसरे
पथ का राही बना दिया
और वह एक सरकारी शिक्षक
बन कर ही रह गया। संघर्ष -अभाव मेरे जीवन में भी था, पर मैंने उसमे भी जीवन का लालित्य बचाए रखने की कोशिश की।
11
- जीवनपर्यन्त माधुर्य और रस का मूल बालकपन में ही निहित मानते हंै?
उत्तर - बिलकुल। मेरी अपनी ही कविता है -
बचपन
से जो रस मिला,
उससे हुआ विकास।
मेरे
मन में चिरयुवा है वह मेरा मधुमास।
जीवन
में रंग भरने का काम बचपन आज भी करता है। बचपन की सुंदर बुनियाद पर जवानी का भवन खड़ा
होता है। मुझे अच्छा बचपन मिला, उस कारण मैं बड़ा हो कर कुछ कर सका।
वह रस जो बचपन में मिला, न मिलता तो शायद ये पंकज इतना नहीं खिलता।
12
- अपने आपको आज भी कहीं पर दोषी या किसी बदमाशी या अनजाने में हुई किसी
गलत आदत्त के लिए आज भी शर्मसार से महसूसते हैं? या और कौन-कौन-सी खट्टी-मीठी और मोहक यादों
को याद कर बेसाख्ता मुस्कुरा देते हैं या आँखे गीली हो जाती हैं?
उत्तर - बचपन में जाना,
किसी बच्चे को बेवजह पीट देना, झूठ बोल कर फिल्म
देखने चला जाना, गलत संगत में पड़ कर छुप-छुप कर (दो बार ही सही) सिगरेट
पीना, ये सब बातें याद आती हैं तो दु:ख
होता है। भगवान का आभारी हूँ कि कुसंग से जल्दी दूर हो गया। बचपन की एक याद जो दिल को अब तक वो है छोटे भाई हरीश की असामयिक मृत्यु।
उसे हम लोग प्यास से मुन्ना कहते थे।
मुन्ना बेहद तंदरुस्त था। गोरा-चिट्टा।
उसके माथे पर लाल तिलक -सा स्थाई निशान बना रहता। उसे देखकर साधु-संत कहते कि यह लड़का खूब नाम कमाएगा। बलिष्ठ भी था इसलिए सभी उसे 'दारासिंहÓ
कह कर भी बुलाया करते थे। पर कुदरत को कुछ और ही मंजूर था। वह बालक ब्रेन ट्यूमर से ग्रस्त हो
गया। पिता जी के खादी भंडार के प्रबंधक थे।
उनका सीमित वेतन था। पाँच भाई-बहन का परिवार। उनका लालन-पालन। फिर भी पिताजी ने मुन्ना के इलाज की हर संभव कोशिश की। दिल्ली ले गए। एम्स में उपचार चलता रहा लेकिन कोई फायदा न हुआ।
पिता जी ने मुन्ना की ख्वाहिश पूरी की। उसे हवाई जहाज में बिठा कर दिल्ली भ्रमण भी
कराया। खेल-खिलौने दिए लेकिन एक दिन मुन्ना हम सब को छोड़ कर
बहुत दूर चला गया,
बहुत दूर। नाबालिग बच्चे की मृत्यु हो तो उसे दफनाया जाता है। मुन्ना
को भी दफनाया गया। उस वक्त मेरी आँखों से निरंतर अश्रु बह रहे थे और वे बह कर उस मिट्टी
के साथ मिल रहे थे जिस मिट्टी में मेरे मुन्ना को दफ्न किया जा रहा था। आँसू आज भी
बहते हैं. यह दुखद याद है और एक मोहक और मुस्कान लाने वाली याद यह है कि एक बार मैं घर
से यह कह कर निकला कि पढऩे जा रहा हूँ पर निकल गया सिनेमा देखने। संयोगवश उसी दिन माँ अपनी सहेलियों के
साथ मैटिनी शो देखने पहुँची थी. उन्होंने मुझे थर्डक्लास में
बैठे देख लिया। शाम को जब मैं घर पहुँचा तो माँ ने पूछा, कहाँ गए थे? मुझे
सुबह का कहा गया झूठ याद था, दुहरा दिया। बस क्या था, हो गई जबरदस्त
पिटाई। वह पहली और आखिरी गलती थी। उसके बाद झूठ बोल कर कभी सिनेमा नहीं गया। मगर माँ की पिटाई आज भी मुझे मुस्करा देने
पर विवश कर देती है। एक और एक और रोचक घटना है। बड़ा शौक रहता था नाटक करने का। गणेशोत्सव
के दौरान हम तीन मित्रों ने एक नाटक तैयार
किया। कौशल, फऱीद और मैंने मिल कर कहानी
लिखी कि दो मित्र हैं। पक्के दोस्त। मित्र को सांप काट देता है तो दूसरा उसके वियोग
में रोता है। उस वक्त एक गाना लोकप्रिय था -''नफरत की दुनिया
को छोड़ कर प्यार की दुनिया में खुश रहना मेरे यारÓÓ। 'हाथी मेरे साथीÓ फिल्म का गीत। फरीद अच्छा गायक
था। मैंने उसे समझा दिया कि ''जैसे ही कौशल को साँप काटेगा और
वो मंच पर गिरेगा, तुम गाना शुरू कर देना। मैंने हिला कर अभिनय करूँगा।ÓÓ ऐसा ही हुआ। मंच पर कौशल गिरा और
फरीद ने गाना शुरू किया -''नफरत की दुनिया को छोड़ कर प्यार की दुनिया में, खुश रहना मेरे यार।ÓÓ भावपूर्ण दृश्य। मैं हाथ लहरा-लहरा कर अभिनय कर रहा हूँ। गाने में एक पंक्ति आती है, ''इक जानवर की जान आज इंसानों ने ली है, चुप क्यों है संसार।ÓÓ फिल्म
में हाथी के मरने पर हीरो राजेश खन्ना गीत गाता है। फऱीद ने जानवर वाली पंक्ति भी गा
रहा था और मैं हाथ हिला-हिला कर अभिनय कर रहा था। जैसे ही फरीद
ने गाया, 'इक जानवर की जान आज इंसानों ने ली हैÓ, दर्शक जोर -जोर से हँस पड़े। उनकी हँसी सुन कर मुझे बात समझ में
आ गई. तब काटो तो खून नहीं। परदे के पीछे खड़ा फऱीद मगन हो कर गाए जा रहा था। और लोग
हँसे जा रहे थे। लोगों की हँसी देख कर फौरन पर्दा गिराया गया। आज भी अनेक दर्शकों को
याद है। उत्साह में गीत
की बाद की पंक्तियों पर ध्यान ही न दे सके। नतीजा अपनी फजीहत करवायी। आज भी वो
घटना के बचपन की मासूम याद बन कर सामने आ जाती है और मैं बरबस मुस्करा उठता हूँ।
13
- आपके जीवन में किसका सबसे ज्यादा प्रभाव है और आज भी इसकी अनुभूति
होती है?
उत्तर - मेरे जीवन पर सबसे अधिक प्रभाव मेरे पिता जी का ही है। उसके बाद, गांधी,लोहिया,
विनोबा और जेपी का प्रभाव है। पिताजी के प्रभाव के कारण मैं आज
तक खादी के ही वस्त्र पहनता हूँ। ठेठ स्वदेशी का पक्षधर हूँ। मुझे अपनी मिट्टी से प्यार
है। वे चीजें मुझे अच्छी लगती हैं जो देश में बनी हैं। वे थोड़ी कमतर भी हो तो चलेगा।
मैं चीनी या अन्य देशो के उत्पादों की और आकर्षित नहीं होता। पिताजी का प्रभाव है कि
सिर्फ ऊपरी लिबास ही खादी का होता है, ऐसा नहीं, अंदर भी खादी ही शोभायमान होती है। घर को तो हम बदल नहीं सकते, अपने को बदल सके, यही बहुत है. पिताजी का संघर्ष मेरा आदर्श रहा। उस वक्त खादी भंडार चलाने वाले एक प्रबंधक
को मिलता ही कितना रहा होगा, हम सोच सकते हैं, पर पिता ने हम पाँच भाई-बहनों को पाला-पोसा, बड़ा किया। एक भाई बीच में हमारा साथ छोड़ गया,
पर उपचार के लिए पिता ने हैसियत से अधिक खर्च किया कर्ज ले कर। पिता के जीवन को देख कर लगा कि कोई
मेरा नायक हो सकता है तो यही हो सकते हैं। बाकी लोग मुझे वैचारिक धार देते रहे,
पर पिता हर पल मुझे पर जीवंत प्रभाव डालते रहे। आज वे नहीं हैं,
पर उनकी छाप मेरी आत्मा में पड़ी हुई है।
14
- आपके बचपन में घर-परिवार का हाल और सगे संबंधियों
का कैसा ताना-बाना था?
- बचपन हमारा सुखी था। घर-परिवार पिता चलाते थे, किसी चीज की कोई कमी कभी महसूस
नहीं हुई। हर मौसम में तरह -तरह के फल हमें खाने को मिलते थे।
मिठाई के वे शौक़ीन थे। खुद भी अनेक तरह के व्यंजन बनाते थे। जलेबी भी वे घर पर बनाते
थे। खोये की मिठाइयाँ बनने में एक्सपर्ट थे। हमारे सगे-सम्बन्धी
कम थे। कुछ बनारस में थे, जिनसे मिलाने पिताजी हर साल बनारस ले
जाया करते थे। कुछ नेपाल
में भी थे। पिताजी हमे
वहां भी ले कर गए। हमारा
संबंध था। और वैसे भी आज से चार दशक पहले तक आपस में रंजिशें नहीं होती थीं। जैसी आजकल
नजर आती हैं। हमारे परिवार में एक-दूसरे के प्रति समर्पण भाव
था, जो आज भी कायम है। इस बाज़ारवादी समय के बावजूद। पिताजी ने
ऐसे महान संस्कार दिए कि बनारस-इलाहाबाद में जो मुँहबोले रिश्ते
थे, वे सगे से बढ़ कर साबित हुए और आज भी वैसे बने हुए हैं।
15
- आप किस उम्र में थे जब आपको लगने लगा कि आपका इस बचपन से साथ छूट रहा
है। तब एकाएक कुछ बड़ा होने का बोध किस तरह हुआ?
- सोलहवाँ साल खतरनाक होता है भाई। यह कहा जाता है। इसलिए मुझे सोलहवें
साल की अवस्था के बाद से ही यह अहसास होने लगा था कि बड़ा हो रहा हूँ। सामजिक आंदोलनों में
भागीदारी, अंधविश्वास के विरुद्ध संघर्ष, फिर बाद में
छात्र राजनीति में सक्रियता, इन सबके कारण लगने लगा था कि अब
बड़ा हो रहा हूँ। बचपन
पीछे छूट रहा है। बचपन की नियति ही है छूटते जाना। ये और बात है कि भीतर एक बच्चा बैठा निर्मल बनाने
का काम करता है। जब मैं अपने शिक्षकों से बहस करने लगा, तब लगा
बड़ा हो रहा हूूँ। जब
कुछ-कुछ झूठ बोलने लगा तो यह लगने लगा बड़ा हो रहा हूँ। अंतस
में प्रेमांकुरित होने लगा। जब प्रेमपत्र-सा भी कुछ लिखने लगा
और उसी किस्म की कुछ कविताएँ भी होने लगीं तो समझ में आने लगा था कि कुछ बड़ा हो रहा हूँ।
16
- बचपन में आप कैसे थे ? शरारती या खामोश रहने
वाले कम शरारती?
-
पहले तो मैं मुखर-शरारती था। बाद में क्रमश:
शांत स्वभाव का होता गया। शुरू में तो इतना शरारती था कि सार्वजनिक होलिका
का धन करके गायब हो गया था. जो लड़का ज्यादा इतराता, उसकी मैं अक्सर
पिटाई कर देता था. अगर कोई शिक्षक अनावष्यक रूप मेरी पिटाई करता तो उससे भी उलझा जाता
था। अन्याय को खामोशी
के साथ सहना बचपन में भी नहीं आया। आज जब अपने बचपन को याद करता हूँ तो हैरत होती है
कि इतना दबंग कैसे था मैं. शायद इसीलिए मुझसे मेरे मास्टर त्रस्त
रहते थे. एक बार मेरी किसी बात पर प्राथमिक स्कूल के टीचर ने
पूछा - ''किसके लड़के हो?ÓÓ मैंने अकड़
कर अपने पिताजी का नाम बताया, तो शिक्षक ने हैरत के साथ कहा
-''अरे,तुम उस गऊ के लड़के हो? इतने शैतान?ÓÓ तब मुझे शर्मिंदगी हुई। उसके बाद
से शरारतें कुछ-कुछ कम करने लगा क्योंकि मुझे पिताजी की प्रतिष्ठा
की चिंता थी। वैसे उसके
बाद ही धीरे-धीरे परिवर्तन भी आने लगा और कॉलेज तक आते-आते तो पूर्णत:
गम्भीर हो गया। बचपन वाला शरारती गिरीश गायब हो गया। इस बीच पिताजी द्वारा
लाकर दिए जाने वाली अनेक पुस्तकों ने भी मुझे ठीक किया। इनमे कुछ उपन्यास थे, तो कुछ व्यक्तित्व विकास वाली पुस्तकें थी.
17
- किस समय आपको लगने लगा कि आप खुद से बडा और अपने इर्द गिर्द के साथियों
से अलग से हैं, उम्र में, अनुभव में,
या ज्ञान में?
-
यह सिलसिला कालेज में आने के बाद शुरू हुआ. जब
मैंने 'दिनमानÓ, 'माधुरीÓ, 'धर्मयुगÓ, 'नंदनÓ, 'नवभारत टाइम्सÓ
आदि में पत्र और कुछ लघु रचनाएँ छपने लगीं तो लगा मैं अनेक कुछ तो अलग
हूँ। ये तमाम पत्रिकाएँ पूरे देश में पढ़ी जाती थीं। जो पत्र छपते उनमें पूरा पता भी
रहता था, इस कारण अनेक लोगों से संपर्क होने लगा। धीरे-धीरे मैं लोकल से ग्लोबल-सा होने लगा तो सहज रूप में यह अनुभूति होने लगी
कि अपने तमाम साथियों से अलग हूँ। कॉलेज में लड़कियां मेरे पास आती थी, मेरी डायरी निकाल
कर मेरी थी। मेरी कोई रचना कहीं प्रकाशित हो तो वे बधाइयां देती थीं। बाकी छात्रों
के जीवन में ऐसी कोई रचनात्मकता नहीं थी। वे केवल मटरगश्ती में लगे रहते थे। कुछ विशुद्ध
पढ़ाकू थे, मगर मैं लेखन के साथ-साथ सांस्कृतिक
गतिविधियों में भी संलग्न रहता था इसलिए शहर में चर्चा में भी रहता था,। इन सब कारणों से खुद को अपने
साथियों से कुछ अलग -सा महसूस करता ही था
और यह उस समय के हिसाब से स्वाभाविक भी था। मैं उनसे ज्ञान में आगे था, यह कहना उचित न होगा। हां, इतर गतिविधियों में खुद को
बहुत आगे समझता था।
18-
कुछ बडा होने का बोध और कुछ उपर के क्लास में पढने का सुख और अपने मन
से काम करने घूमने की आजादी को किस तरह लेते और देखते थे?
-कालेज में आने के बाद बड़ा तो हो ही गया था। और यह समझने लगा था, इसीलिये यह सोचने लगा कि मुझे भी कुछ कमाना चाहिए। पिताजी पर बोझ बनना ठीक नहीं इसलिए मैं सरस्वती शिशु
मंदिर में आचार्य हो गया। और पढ़ाई के साथ नौकरी का सिलसिला शुरू हो गया। इसके बाद
ग्रामीण बैंक में भी
नौकरी की। रोज पास के कस्बे चिरमिरी (हल्दीबाड़ी) में स्थित बैंक में जाता और शाम को घर लौटता था। सिलसिला भी साल भर चला। बाद में अप-डाउन से त्रस्त
हो कर नौकरी छोड़ दी। लेकिन मैं खाली नहीं बैठ सकता था। कुछ तो करना चाहिए इसलिए एक दिन कोयला
खदान झगड़ाखांड में मजदूरी करने निकल गया।
'लोडरÓ बनने। लोडरों की भर्ती हो रही थी।
उनको वेतन भी अच्छा मिलता था। बस, पहुँच गया इंटरव्यू देने। इंटरव्यू
क्या, सामने रखा कुछ बोझ उठाना होता था। जिसे मैं उठा सकता था।
लेकिन वहाँ किसी परिचित ने (जिनका नाम-चेहरा
कुछ भी याद नहीं है) मुझे रोक दिया कि तुमको यह काम शोभा नहीं
देगा। तब तक मैं 'बिलासपुर टाइम्सÓ का संवाददाता
बन गया था। वे मुझे पहचानते थे। मुझे लोडर की नौकरी के लिए आया देखकर वे चौक पड़े।
उन्होंने फौरन कहा, ''तुम पत्रकारिता ही करो। उसी में तुम्हारा
भविष्य है।ÓÓ उनकी बात सही थी। मैं सोचने लगा, क्या करूँ सोचता
रहा। तभी रायपुर से प्रकाशित दैनिक अखबार युगधर्म के बारे में पता चला कि वहाँ मुझे
नौकरी मिल सकती है। युगधर्म में मेरे बड़े-बड़े वैचारिक पत्र
छपते ही थे। रायपुर जा कर संपादक बबनप्रसाद मिश्र जी से मिला और फिर रायपुर आकर सक्रिय
पत्रकारिता का हिस्सा बन गया। सबसे बड़ी बात यह रही कि कुछ भी करना चाहता था, उस पर पिताजी की पूरी सहमति रहती थी, मेरे घूमने-फिरने के बंदोबस्त
भी वे कर दिया करते थे। इस कारण मुझे निरंतर निखारने का मौका मिला। अगर पिताजी टोकने
वाले होते मैं वो नहीं हो सकता था, जो आज बन सका हूँ।
19
- बचपन मे पढऩे-लिखने का लगाव किसकी प्रेरणा से
हुआ? उस काल में लोक
साहित्य या किस्से कहानियों को ही मनोरंजन का साधन माना जाता था, तो अपने बड़ो दादा-दादी, नाना-नानी से सुनी कहानियों का भी कोई प्रभाव महसूसते हैं?
-
पिताजी जी जो पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं लेकर आते थे, उनको पढ़ते हुए साहित्य से लगाव होता चला गया। पिताजी के माता-पिता
बचपन में ही नहीं रहे इसलिए दादा-दादी जैसा सुख मुझे नहीं मिला। हाँ, नानी का कुछ स्नेह
जरूर मिला। उनकी कहानियां तो कुछ याद नहीं पर उन झुर्रियों के बिम्ब अब भी स्मृति-कोष में हैं। नाना की याद नहीं है। यह सच है कि उस दौर में टीवी नहीं था, रेडियो था, पर उस पर बहुत ध्यान नहीं रहता था। मनोरंजन के लिए अक्सर कहानियों की
किताबें पढ़ता था या पत्रिकाएं। ज्यादा उत्साहित होता तो कभी-कभी फिल्में देख लिया करता था,
वो भी चोरी-चोरी। फिल्म कोई भी हो, मुझसे छूटती नहीं थी। अपने जेब खर्च से पैसे बचा कर रखता था। उस वक्त तीस-चालीस
पैसे में फिल्म देख लेते थे।
20
- आज के जमाने में बच्चों को
सब सुख उपलब्ध हैं, मगर सहजीवन संयुक्त परिवार और लोक कथाओं को
अपने बुजुर्गो से सुनने का मौका और
सुख नहीं है। इसका नहीं होना आज के बच्चों को आगे जाकर किस तरह
प्रभावित करता है?
-
यह इस समय का सबसे अहम सवाल है। समस्या भी। अब परिवार एकल हो रहे हैं। बाज़ारवाद ने इस मामले में हमे पश्चिमीसोच
से ग्रस्त कर दिया है। हमने वह दौर देखा है जब भाइयों के परिवार
एक साथ रहते थे। कोई झगड़ा न होता था, बच्चे एक-दूसरे की देख-रख में बड़े हो जाते थे। आत्मीय वातावरण
रहता था। बुजुर्गो की गोद में बैठ कर बच्चे न जाने कितने
महत्वपूर्ण सबक सीखते रहते थे। बच्चे आगे बढ़ते-पढ़ते जाते थे. कोई अलगाव नहीं होता था। प्रेम ही परिवार का केंद्र होता।
उस दौर में फिल्में भी परिवार को जोडऩे वाली बनती थीं। साहित्य भी वैसा रचा जा रहा
था. उसके कारण परिवार एक थे। पर आज जैसे हम अपने ही गुलशन को
उजाड़ चुके हैं।
21
- आपके साथ बचपन का साथ छूटने के बाद कैसा प्रतीत हो रहा था और अक्षर ज्ञान से अक्षर प्रेम के
बीच का दौर कैसा था?
-
बचपन छूट जाए, इससे बड़ा दु:ख और क्या हो सकता है? बचपन में हम मस्ती में रहते है,
जिम्मेदारियों से मुक्त।
पर बड़े हो कर तरह-तरह के बंधन लद जाते
हैं, फिर भी यह सच है कि बचपन छूटता जाता है। मेरा भी छूट गया। और जब अक्षरों की दुनिया का विद्यार्थी
बना और अंतस में अक्षर-प्रेम जगा तो जैसे दीवाना ही हो गया उसका।
प्रतिदिन कुछ-न-कुछ पढ़ाने की ललक। उस दौर की अनेक पत्रिकाओं को खोज-खोज कर पढऩा। पुस्तक दुकान जा कर किराए से किताबें लाना, उन्हें पढऩा। पत्रिकाओं में अगर कहीं दिखा कि 'नमूने
की प्रति के लिए लिखेंÓ तो फौरन एक पोस्टकार्ड भेज देता था। पिताजी
द्वारा समय-समय पर लेन वाली पुस्तकों का चाव से वाचन करना। यह
सब करते हुए साहित्य के संस्कार जो मिले, वे अद्भुत ही हैं। मुझे
लगता है अगर बचपन में रचनात्मक वातावरण न रहे तो लेखन की नींव मजबूत नहीं हो सकती।
मुझे अपने बचपन का वो सृजनशील दौर अब तक याद है, जब मैं खुद अपने
को गढ़ रहा था और अपने साथ अपने अनुजों में भी बीजांकुरित कर रहा था।
22
- किस तरह के साहित्य और किताबों को आप पसंद करते थे ? किताब-प्रेम की कहानी किस तरह शुरू होती है?
-मुझे कहानियों की पुस्तकें पसंद आती थी. उपन्यास कम पढ़े,
पर कहानियाँ खूब पढ़ीं। छंदबद्ध कविताओं में गहरी रूचि थी इसलिए उस दौर
के हर बड़े कवि की रचनाओ को पढ़ता गया।
धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्ता, दिनमान,
माधुरी आदि तो दिनचर्या में शामिल थे। कुछ फैंटेसी, जासूसी पुस्तकें भी पढ़ीं। पर पता नहीं क्यों उनसे खुद को बचा ले गया। साहित्यिक
पुस्तकों पर ही ध्यान केंद्रित रहा। उसी दौर में बिजनौर से निकलने वाली पत्रिका
'ठलुआÓ ने कमाल किया। कवि हुक्का की इस पत्रिका ने मेरे मन
में व्यंग्यनुराग जाग्रत किया। ठलुआ के कारण व्यंग्य कविताएँ लिखने लगा फिर गद्य व्यंग्य की और प्रवृत्त हुआ
जब परसाई -शरद जोशी वगैरह को पढऩा शुरू किया। धीरे-धीरे 'हास्य-व्यंग्यÓ की ओर झुकाव होता गया जो बाद में केवल व्यंग्य पर एकाग्र हो गया।
23
- अध्ययन के बीच पुस्तक प्रेम और लेखन के बीच का वह रोमानी और तिलस्मी
संसार कैसा था,मन में किस तरह के भाव उमड़ते थे?
-
साहित्य-संसार में एक शिशु की तरह मचलते हुए मैंने
पुस्तकों को जीवन का अंग बना लिया था और मन में यह भाव आते थे कि मुझे भी एक लेखक बनना है.
कोई गाइड नहीं, पिता की अपनी व्यस्तता थी , पर वे मुझे साहित्य लाकर देते थे, उन के सहारे मैं किसी
एकलव्य की तरह सीखने की कोशिश कर रहा था. वह रोमानी काल ही था,
जब सोचता था बड़ा हो पर फलां-फलाँ के जैसा बनूंगा। कृति को परहता था, तो सोचता था ये लोग इतना कैसे लिख लेते थे. क्या मैं
भी कभी िासा लिख सकूंगा। बड़े-बड़े उपन्यास भी पढ़े, बे मन से। पृष्ठ
संख्या अधिक होती थी,
फिर भी पढ़ता। बाद में रुचिकर लगने लगता तो पूरा पढ़ कर दम लेता। साहित्य
के तिलस्म में फंसने के कारण पाठ्य पुस्तकों में ख़ास दिलचस्पी नहीं रह गयी थी,
पर परीक्षा पास करने के लिए उन्हें भी पढऩा ही पढऩा था. पर सच कहूं तो साहित्यिक पुस्तकें ज़्यादा आकर्षित करती थी.यही कारण
था कि मैंने अपने मित्रो
के साथ मिल कर शहर में पहले सार्वजनकि पुस्तकालय की बुनियाद भी रखी.
24
- लेखन का नशा कहें या लेखन को लेकर दीवानगी के बीच आपके पूरे परिवार
की क्या धारणा थी?
-
परिवार मेरे साथ था। पिताजी इस बात को लेकर चिंतित थे कि अगर यह पढ़ाई
में कमजोर रहा तो भविष्य का होगा? कोई अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी।
लेकिन बाद में वे आश्वस्त हो गए कि लड़का जो करेगा, अच्छा करेगा।
इसलिए वे मुझे प्रोत्साहित करते रहे। किताबें और पत्र-पत्रिकाएं
लाकर देते रहे और जब मैंने एक दैनिक के संवाददाता के रूप में एक नया अध्याय शुरू किया,
तो उन्होंने पूरा स्पोर्ट किया। यह बड़ी बात है। वर्ना अक्सर यही सुनाने
मिलता है कि 'बर्बाद
होना है क्या जो पत्रकारिता की लाइन में जाएगा?Ó लेखन में रुझान के कारण अखबार मेरे
लिए जैकपॉट साबित हुआ , वहां ख़बरें भी भेजता और अपनी रचनाएँ
भी। मेरी चीजें छप कर आतीं तो पिता प्रसन्न होते, माँ भी खुश
होती थीं।
25
- किस उम्र में आपको लगने लगा कि आपको लेखक ही बनना है यह लेखन और लेखक
के बीच का सफर और दौर कैसा था?
-
हाईस्कूल के दौर में ही मन में ठान लिया था कि लेखक-पत्रकार ही बनना है। इसके लिए यह भी पता था कि मेहनत खूब है इसलिए उस हिसाब
से जीवन-शैली भी जरूरी है। अत: मित्रों
के साथ आवारगी, घूमना-फिरना बंद
, स्कूल से गोल मारना बंद कर दिया। पढऩे में ही ध्यान और घर आकर लिखने
में। पिताजी ने एक डायरी
दे दी थी, उसी में कुछ - न - कुछ लिखता रहता था कवितायेँ ज़्यादा लिखता था। बाद में लघु व्यंग्य, लघु कथाएं वगैरह लिखीं। नई रचनाओं से असंतुष्ट होना मेरे सहज स्वभाव में था
, जो लिखता था, उसमे से बहुत को नष्ट भी करता या
सम्पादित करता. कभी-कभी मित्रों को भी दिखाता,
सुनाता। कुछ मज़ाक भी उड़ाते पर मुझे सराहते कि कोई तो है जो लिखता है।
मेरी लेखन-यात्रा गतिशील होती गई.
26
- वह कौन-सी खासियत आप अपने अदंर मान रहे थे कि
इसका इलाज केवल लेखन ही है और लेखक बनने का मन बना लिया?
-
स्कूली पत्रिका 'वन्यजाÓ में जब पहली बाल कविता लिखी और उसकी सराहना हुई तो मुझे लगा मुझे इसी तरह लिखना
चाहिए। बस, वही एक था,
जिसने लेखन की ओर प्रवृत्त कर दिया। मैं सोचता हूँ अगर शालेय पत्रिका
न निकलती और उसमे मौलिक लिखने की तड़प न होती तो शायद मेरे भीतर का लेखक सामने ही न आता। तब शायद मैं भी किसे
सरकारी नौकरी का एक हिस्सा बन कर दूसरी धारा में बहता रहता। उस बाल कविता ने मुझे यह
समझाया कि तुम भी लिख
सकते हो. रचना का वही एक क्षण था, जब उसने
मुझे निर्देशित किया कि तुमको लेखक बनना है, बस लेखक।
27
- शुरूआती लेखन क्या था और कौन होते थे आपके पहले श्रोता?
-
प्रारम्भिक लेखन तो छान्दसिक कविताओं का ही था। अवधी- बृजभाषा की रचनाएँ पढ़ रहे थे, तो उनका प्रभाव था। गीत
लिखना और गाना, यही करता था। आकाशवाणी में भी मेरे अनेक गीत प्रसारित
हुए, जब मैं सोलह-सत्रह साल का ही था। मेरे श्रोता पिताजी
होते या इक्का-दुक्का मित्र। अगर कोई न मिलता तो मैं ही अपना श्रोता
आप होता। अपनी रचनाओं को बार-बार पढ़ता और सुधारने की कोशिश करता।
मैं जिस शहर में रहता था, वहाँ ऐसा कोई सही मार्गदर्शक था नहीं,
जिसके पास जाकर अपनी कविताएं दिखा सकता। इसलिए 'आत्म
दीपोभवÓ की तर्ज पर चलता रहा।
28
- पहला श्रोता के बीच आप किस तरह संवाद करके अपने लेखन की मान्यता को
सही ठहराते थे और उनकी टिप्पणी क्या होती थी?
-
पिताजी की टिप्पणियां तल्ख़ होती थी। मेरी बेहतरी के लिए। मित्रों की
ज़्यादातर तो उपहासात्मक होतीं थी लेकिन हर टिप्पणी के बाद सोचता था कि और अच्छा लिखना है। गुरुजन भी कभी-कभी कुछ सलाह देते थे। एक थे जितेंद्रकुमार झा। वे हमेशा सराहना करते थे और
कहते थे, तुममे सम्भावना है। आज वे पचहत्तर साल के हो गए है,
कभी-कभी फोन से बाते होती हैं। वे कहते हैं गिरीश, तुमने तो कमाल ही कर दिया। पचास पुस्तकें लिख डाली? मैंने
तो ले-देकर सिर्फ एक ही लिखी है। अच्छा लगता है यह सोच कर कि
मेरी सृजन यात्रा को गति देने वाला एक चेहरा अभी विद्यमान है। एमए करते हुए व्यंग्य
लिखने लगा था। उन्हें पढ़ कर मुझे हिंदी पढ़ाने वाले प्राध्यापक विनोदशंकर शुक्ल बड़े
खुश होते थे। वे खुद स्थापित व्यंग्यकार थे। वे कहते थे, 'तुममे व्यंग्य-दृष्टि हैÓ।
कुछ वर्ष पहले एक दिन बोले, ''गुरु गुड़
रहा गया और चेला शक्कर हो गयाÓÓ। उनकी इस प्रशंसा से हृदय गद्गद
हो गया। मुझे और खुशी
उस वक्त हुई जब एक शोधार्थी ने अपने विषय का चयन किया, 'विनोदशंंकर
शुक्ल और गिरीश पंकज के व्यंग्य साहित्य का तुलनात्मक अध्ययनÓ।
29
- क्या आज आपको लगता है कि पहले श्रोता की राय आज ज्यादा प्रांसगिक है?
-बिलकुल, अगर मेरे पहले श्रोता न होते तो यह यात्रा भी
न होती। उन सबके प्रोत्साहन और टिप्पणियों से मैं मजबूत होता गया। इसलिए जो नए लेखक हैं उन्हें किसी-न-किसी के पास जाकर मार्गदर्शन प्राप्त करना चाहिए। एक
सही दिशा के लिए यह जरूरी है।
30
- कौन-कौन थे आपके लेखक बनने के पहले आधिकारिक
सहोदर उनको आप आज किस तरह देखते हैं और क्या लगता हैं कि इस तरह के श्रोता सदैव होना
चाहिए?
-
मेरे साथ बहुत कम लोग ही थे पर वे सहयात्री ही थे. इनमे मैं याद करूंगा
गोपाल बुनकर को, कौशल अरोड़ा को। वीरेंद्र श्रीवास्तव,
जितेन्द्र सिंह सोढ़ी को, रुद्रप्रसाद रूप को,
कुरील जी को। समलियाप्रसाद सराफ थे. कुलमित्र जी
थे। जगदीश पाठक थे। उस वक्त कुछ समय के लिए माताचरण मिश्र (भोपाल)
का भी साथ मिला। वे उस समय भी स्थापित रचनाकार थे। मैं अक्सर उनसे मिलता था। एक कवि थे श्रमिक
हैदराबादी। वे हमे मंच
पर काव्यपाठ के तरीके बताते थे. खुद अच्छे कवि थे। ये सारे लोग सहयात्री थे। हम लोग एक साथ बैठते थे। एक-दूसरे की कविताएँ
सुनते थे, सुनाते भी थे। धीरे-धीरे शायद
हम बहुत कुछ सीखते गए। ये सारे कवि भी थे और श्रोता भी। इन सबके प्रोत्साहन से काफी निखार आया।
31
- स्कूली शिक्षा ख़त्म होते-होते और कॉलेज में
पहुँचते -पहुँचते आपको अपने लेखक को लेकर किस तरह का भाव था?
-
एक गर्वीला भाव था की कुछ लिख रहा हूँ। कॉलेज में जब मेरे लेखन की तारीफ़
होती तो बेहद खुशी मिलती। छात्राओं की और ही रिस्पांस मिलता, सभी मुझसे कवितायेँ सुनना उनके चक्कर में नहीं पड़ता था। मुझे
यह तो पता था कि लिख
सकता हूँ पर बाद में लिखना ही मेरा केंद्रीय तत्व हो जाएगा इतना भी नहीं सोचा था। कॉलेज
में मेरी कविता को उस वक्त की एक नयी अध्यापिका ने भी बहुत पसंद किया। मुझे एक दिन
घोर आश्चर्य हुआ जब उन्होंने
अपनी डायरी देकर कहाँ मेरी कविताएँ देख लीजिए। आप अच्छा लिखते हैं। तब लगा,
शायद ठीक ही लिखता हूँ।
लेकिन मैं गुरूर में बिल्कुल भी मुझे अपना लम्बा रास्ता तय करना
था। मित्र उपेक्षा करते थे क्योंकि उनमें कोई भी रचनात्मक नहीं था। कोई भी। अनेक लोग
धंधेपानी वाले थे। सब अपने में मग्न रहते थे। केवल एक मित्र गोपाल था। जो शुरू में
कविताएँ था, पर बाद में वह साहित्य से दूर ही होता चला गया। यह बात आज तक मेरे लिये पीड़ादायक
है । उसके बारे में बता चुका हूँ।
32 मेरे ख्याल से वह एक पीड़ाजनक प्रक्रिया
की तरह मन और सोच विचारों पर हॉवी रहता है?
-
मैं सोचता हूँ कि कोई साहित्य की दुनिया में सम्भावनाशील उपस्थित के बाद भी उससे विरत हो सकता
है ? आज अगर गोपाल साहित्य की दुनिया में रमा रहता, तो एक बड़ा कवि बन सकता था।
उसके साथ रहते हुए मैं सोचता था, मुझे भी
इसके जैसा अच्छा लिखना है। समाज वह समय आपात्काल का था, जब मैं
कॉलेज में पढ़ रहा था, तब सरकार के प्रति मन में एक विद्रोह था। सारे नागरिक अधिकार रद्द कर दिए गए
थे। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित थी। हम लोग छुप-छुप कर सरकार
के खिलाफ जनजागरण किया करते थे और कविताएँ
लिख-लिख कर खुद को क्रांतिकारी समझने का
भ्रम पाला करते थे। एक कविता याद आ रही है -
हम
हैं क्रांतिकारियों के वंशज, नहीं सहेंगे अत्याचार।
आज
नहीं तो कल होगी,
अपनी कहने वाली सरकार।
इसी तरह की कुछ कविताएं थीं। उस वक्त
टाटा, बिड़ला और डालमिया जैसे पूँजीपति देश में छाए रहते थे।
उनके लिए भी लिखा
टाटा -बिड़ला-डालमिया,
नोच
देश की खाल मिया
घर
भर ले सरकार भरोसे,
बना
हमे कंगाल मिया।
...तो, आपातकाल
ने भीतर के कवि को और विद्रोही बनाया और मेरी कविता की धारा धीरे-धीरे गद्य व्यंग्य लेखन की ओर मुड़ गयी।
33 - शायद वह दौर भी रहा होगा जब आत्मबोध होता हो,
अपने सृजन पर गौरव का भाव और तब एक लेखक खुद को औरों से अलग और बड़ा भी मानने लगता है?
-
बहुत सही बात है। जब वहाँ कोई प्रतिस्पर्धा भी न हो, तब यह भाव और अधिक घनीभूत होता है शायद। दूसरों से अलग तो मानने लगा था था,
बड़ा होने का भाव मन
में नहीं था. उम्र से बड़ा होने का भाव
लेकर मैं अपने से छोटी उम्र ले लड़को
में साहित्यानुराग जगाने का काम कर रहा था। इसीलिये 'बाल कला मंदिरÓ नामक संस्था बनाई जिससे कुछ लड़के जुड़े. उन्हें पत्र-पत्रिकाएं पढऩे के लिए देता था। याद नहीं आ रहा। शायद कवि गोष्ठियां भी करता
था। उस वक्त अनवर सुहैल,
सतीश उपाध्याय (छोटा भाई) और प्रमोद अग्रवाल
वगैरह आते थे। इनको अपने हिसाब से कुछ टिप्स देता था. मुझे खुशी
है कि आज अनवर साहित्य
की दुनिया में उपस्थिति दर्ज करा चुका है। अच्छी कहानियाँ लिख रहा है। एक पत्रिका संकेत भी निकालता है।
छोटा भाई सतीश भी व्यंग्य साहित्य में सक्रिय है। मैंने हमेशा कोशिश की कि दूसरों को
ले कर चलूँ। यह भाव आज
भी मन में रहता है इसलिए
आज भी अनेक नए लेखक मुझसे जुड़े रहते हैं। समुचित मार्गदर्शन करता रहता हूँ। खुद को
'बड़ा माननेÓ का भाव मन में
कभी आया ही नही। हाँ,
दूसरों से अलग तो आज भी मानता हूँ विनम्रतापूर्वक।
34
- आपकी पहली रचना कौन-सी थी , क्या याद है?
- मेरी पहली रचना 'बच्चों के प्रतिÓ थी, जो शालेय पत्रिका में प्रकाशित हुई। दूसरी रचना 'नवभारत टाइम्सÓ नई दिल्ली में छपी, जब मैं कक्षा ग्यारहवीं का छात्र था। नवभारत टाइम्स के बाल-जगत में वह कविता छपी थी। यह मेरे जीवन का रोमांचक अनुभव था, जिसने मुझे लगातार प्रेरित किया।
35
- आज लगभग 40 साल के बाद भी उस रचना को लेकर मन में किस तरह की याद शेष है?
-
चार दशक बाद अपनी बाल कविता को देखता हूँ तो बिलकुल ही नहीं लगता कि पंद्रह साल के बच्चे ने लिखी है। उसकी भाषा, उसका शिल्प परिपक्व है। यह आश्चर्य की बात है। आज भी मैं अगर बाल कविता लिखता
हूँ तो भाषा वही रहती है। कविता का छन्द भी मँजा हैरत होती है कि पहली रचना कही से कमजोर नहीं थी।
यह बात मुझे आज भी गर्व से भर देती है। उस पहली कविता ने बाल कविता ने मुझे
कवि बना दिया,
यह अविस्मरणीय है मेरे लिए।
36
- पहली रचना को लेकर किस तरह
का सुख आज भी महसूस करते हैं?
-
पहली रचना का सुख शायद पहली संतान को पाने के सुख की तरह तरह ही है। वह सुख याद आते ही हृदय
झूम उठता है क्योंकि रचना से प्यार दुनिया में वह मेरा पहला कदम था।
37
- मतलब यह कि रचना लेखन के
इस चक्रव्यूह में पहली रचना कविता ही थी, क्या बाद में कहानियां
भी लिखीं?
-
कहानियाँ बहुत बाद में लिखीं। पहले कविताओं में हाथ साफ़ किया,
फिर धीरे- अनेक कहानिया भी लिखीं। पता नहीं क्यों
साहित्य की दुनिया में कदम रखते ही कविता पहले अवतरित होती है। ये शायद सभी के साथ
होता है। शायद इसलिए कि कहानी विस्तार मांगती है।
38-
रचनाकर्म के आरंभिक काल में किन लोगों की याद आज भी मन में सम्मान के
साथ अंकित हैं और लगता हैं कि काश, ये नहीं होते तो शायद आप आज
इस तरह स्थापित नहीं हो पाते अपने रचनाकाल के कोंपल दौर की कौन- कौन-सी यादें आज भी ताजी हैं?
-शुरुआती दौर में जब साहित्य का
रहा था,तब मैंने 'सम्बोधनÓ नामक संस्था का गठन किया था. उसमे कुछ ऐसे लोग भी जुड़े जो पहले साहित्य से दूर थे, फिर वे संस्था लिखने लगे और बहुत ही अच्छा लिखने लगे। इनमे
एक थे एमएल कुरील। वे हम लोगों से उम्र में बहुत बड़े थे. उनसे
हम प्रेरित होते थे. माताचरण मिश्र, समलियाप्रसाद सर्राफ, अमरलाल सोनी अमर आदि का नाम भी लूँगा। ये सब अच्छा लिखते थे, इनका पाठ भी अच्छा होता था। उस्ताद कवि श्रमिक हैदराबादी भी थे, जो मंच पर प्रस्तुति की तकनीक बताया करते थे। उस वक्त कुछ कवि सम्मेलन भी सुने। जिसमे बालकवि बैरागी, सोम
ठाकुर, अनिरुद्ध नीरव, शैल चतुर्वेदी आदि भी थे। इन सब की
रचनाओं ने असर डाला। फिर दिनकर, निराला, प्रसाद, महादेवी वर्मा, दुष्यंत, धूमिल आदि को पढ़ा तो कविता की गहराई समझ में
आने लगी। किसी एक कवि नहीं, मुझे बनाने में समूचे हिन्दी साहित्य का योगदान था.साहित्य
के साथ रंगकर्म में भी तभी रुचि विकसित हो चुकी थी और इसको दिशा देने में वाकड़े सर
का बड़ा रोल था। बाद में हबीब तनवीर जैसे महान नाट्य गुरु का भी मार्गदर्शन मिला।
39
- हाँ, तो लेखन का पहले एक दो साल का सफर कैसा
था और इस दौरान लेखन की गति का विकास किस तरह होता रहा?
-
लेखन का प्रारम्भिक काल अभ्यास का काल था,
जब हम लिखना सीख रहे थे। लिखना तो आज भी सीख ही रहे हैं पर उस वक्त और अधिक चैतन्य थे। उस वक्त धुन यही रहती थी कि अच्छा लिखना है, जो लिखा जा चूका है उससे बेहतर लिखना चाहिए। इस आत्म स्पर्धा ने अध्ययन पर ध्यान केंद्रित किया।
और महान लेखकों की रचनाओं से गुजरने का मौक़ा मिलता रहा। उनको पढ़-पढ़ कर कुछ समझ विकसित हुई । और लेखन को कुछ गति भी मिलती रही।
40
- आपकी रचनाओं के लेखन और प्रकाशन
का एक सिलसिला-सा बन गया होगा, तो पाठकों
और लेखकों की किस तरह की प्रतिक्रियाएं मिलती थी और तमाम पत्रिकाओं में आपको लेकर क्या
भाव और धारणा बन रही थी?
-
नवभारत टाइम्स, धर्मयुग, दिनमान,
माधुरी, प्रकाशितमन, ठलुआ, नवभारत,
युगधर्म, बिलासपुर टाइम्स आदि में कुछ-न-कुछ प्रकाशित होता रहता था। यह सिलसिला बना रहा। इसका परिणाम यह हुआ कि शहर में अनेक
लोगों की नजऱों में मेरा
दर्जा कुछ विशिष्ट हो गया। बाहर से भी मित्रो के पत्र आने लगे। डाक से पत्रिकाएँ आने लगीं।
साहित्य को लेकर मेरी गम्भीरता को घर और
बाहर भी समादृत किया जाने लगा। किसी की भी नकारात्मक टिप्पणियाँ
मिली। मित्र जरूर उपहास
करते थे पर उन के उपहास को मैं मित्र भाव से ही ग्रहण करता था.
उनके उपहास मेरे लिए चुनौती का काम कर रहे थे. एक सरदार मित्र ने कहा था कि आगे चल कर ये या तो पागल हो जाएगा या फिर काफी
नाम कमाएगा। सरस्वती
शिशु मंदिर जहां मैं
पढ़ाता था, वहाँ
की बहन चिखलदेकर
ने भी कहा था ''आप काफी आगे जाएंगे।ÓÓ
आज ये लोग मुझे याद आ रहे हैं। मैं कहाँ तक पहुँच सका, पहुंचा भी या नहीं, कह नहीं सकता, पर उस दौर के प्रोत्साहन से ही मुझे सृजन की प्रेरणा मिलती रही।
41 लेखन और प्रकाशन के प्रारंभिक सफर को आप किस तरह बयान करेंगे?
-
लेखन के साथ ही आंशिक प्रकाशन का सिलसिला शुरू हो गया था। जब सक्रिय
पत्रकारिता में आया तो मेरे पास एक दैनिक (युगधर्म, रायपुर) था, जिसमें छपने के अवसर-ही -अवसर थे । वहाँ मेरे व्यंग्य और सम-सामयिक लेख छपने भी लगे थे पर मुझे इतने से संतुष्ट नहीं होना था। मुझे अखिल
भारतीय स्तर पर कुछ कर दिखाना था। इसलिए दिल्ली आदि से प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन का सिलसिला शुरु किया और बहुत जल्द ही मुझे सफलता मिलने
लगी। नवभारत टाइम्स, दैनिक हिंदुस्तान, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, कादम्बिनी, राजस्थान पत्रिका, ट्रिब्यून,
गंगा, माया, इंडिया टुडे,
आदि में व्यंग्य, समीक्षाएँ, बाल साहित्य और अन्य रचनाएँ भी छपने लगीं।ये सब मेरे लिए संतोषप्रद थे। कह
सकता हूँ कि मुझे निराश नहीं होना पड़ा।
42
- आपको कब लगने लगा कि लेखक बनना ही अपना कैरियर है और लेखन ही जीवन
है?
-
वैसे तो इस दिशा में मैं शुरू से ही मन बनाने लगा था पर जब सक्रिय पत्रकारिता
में आया तब मैंने ठान लिया कि अब लेखन के क्षेत्र में ही रहना है। वरना सरकारी नौकरी
के अच्छे अवसर थे मेरे सामने। उस वक्त जब पत्रकारिता स्नातक की परीक्षा में प्रावीण्य
सूची में प्रथम आया तो अनेक लोगों ने कहा कि जनसंपर्क अधिकारी बन जाओ, तब मैंने यही कहते हुए इंकार कर दिया था कि शेर पिंजरे में कैद नहीं हो सकता।
सरकारी नौकरी मेरे लेखन को प्रभावित करेगी। मेरी स्वतंत्रता बाधित होगी। और होता भी
यही। सरकार के जन संपर्क अधिकारी बेचारे करते क्या हैं? सरकार
की छवि को परिमार्जित करने में लगे रहते हैं। अन्याय का प्रतिकार जनसंपर्क अधिकारी
कर नहीं सकता। मैं खुल कर सरकार की आलोचना कर सकता हूँ। मेरे कुछ मित्र बाद में जनसंपर्क
अधिकारी बने, उनका हश्र मैं देख रहा हूँ। जो व्यंग्य लिखा करते
थे, अब वे उससे कोसों दूर हैं। अन्य उपलब्धियाण उनके हिस्से होंगी,
पर धारदार जनवादी लेखन का सुख उनके पास नहीं है, मेरे पास है। और यही मेरा जीवन है।
43
- इसके बाद फिर नियोजित ढंग
से लेखन को लेकर आपने किस तरह की रूपरेखा तय की?
-
जैसे-जैसे मुझे आभास होता गया कि लेखन ही मेरे
जीवन का लक्ष्य है तो मैंने अपने आपको और व्यवस्थित करना शुरू किया। अपने समकालीनों
को पढऩा, देश की महत्वपूर्ण पत्रिकाओं को अध्ययन और जो महत्वपूर्ण
लेखक हैं उनसे जीवंत संवाद। इसका लाभ मिला। जब मैंने गीत-$ग•ाल लिखना शुरू किया तो मेरी नजऱ रमेश रंजक पर पड़ी। उनके नवगीत मुझे बेहद पसंद
आते थे। वे $ग•ालें भी कहते थे। दिल्ली
के जमुनापार इलाके में कहीं रहते थे।
वे किसी पत्रिका का संपादन भी करते थे। मैंने उनके पास अपनी रचनाएँ
भेजीं तो उन्होंने मुझे अनेक सुझाव दिये। सच कहूँ, उससे मेरा
परिमार्जन हुआ, मुझे सही दिशा मिली। तब एक बार अपने लम्बे पत्र
में मैंने ये पंक्तियाँ रंजक जी की तारीफ मे लिखी थी, जो उन्हें
बेहद पसंद आई थी कि अब तलक जितने मिले भंजक मिले, युग बिताया
तब मुझे रंजक मिले। तो, अपने अग्रजों को पढ़ कर के, उनका मार्गदर्शन प्राप्त करके मुझे संतोष मिलता था। रायपुर में ही मशहूर व्यंग्यकार
विनादशंकर शुक्ल से भी प्रोत्साहन मिलता था। शुक्ल जी ने मुझे एमए(हिंदी) में पढ़ाया भी।
44
- लगभग सभी विद्या पर आपने हाथ आजमाया पर खुद को अभिव्यक्त करने मे सबसे
ज्यादा सहज सरल और आराम के साथ सक्षम पाते थे। या आज भी महसूसते हैं?
-
सच कहूँ तो व्यंग्य ही मेरी केंद्रीय विधा है। बच्चों के लिये भी लिखा
और नवसाक्षरों के लिये भी। उसके बाद गीत-$गजल में अपने आप को
सहज-सरल पाता हूँ। क्योंकि ये सब एक बैठक में, एक बार में ही पूर्ण हो जाते हैं। कहानी और उपन्यास में लम्बा समय लगता है।
वैसे विस्तार से अपने मन की बात कहने के लिए उपन्यास मुझे पसंद आते हैं। आठ उपन्यास
लिख चुका हूँ और तीन की रूपरेखा बन गई है।उन पर एक-एक करके काम
शुरू करना है। पचास से ज्यादा पुस्तकें हो गई हैं। व्यंग्य समकालीन विषय है। उस पर
तत्काल किसी घटना पर लिखने का सुख मिलता है। अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार का एक बड़ा
हथियार है व्यंग्य। गीत-$ग•ालों के माध्यम
से भी यही काम हो सकता है। पर यह ध्यान रखता हूँ कि रचना ऐसी हो जो समय के साथ बासी
न पड़े इसलिए शाश्वत मानवीय मूल्यों को ही विषय बना कर लिखता हूँ ताकि वे भविष्य में
भी ता•ाा रहें। वैसे व्यंग्य लिखते हुए सबसे ज्यादा सहज पाता
हूँ खुद को।
45
- कब आपको और किस तरह लगा कि लेखन ही एकमात्र रास्ता अपना हो सकता है
और लेखन की एक मंडली से जुड गए?
-
लिखते-लिखते समझ में आने लगा था कि लेखन के अलावा
और कोई रास्ता नहीं है। लेखन के बगैर जीवन कठिन हो जायेगा इसलिए सरकारी नौकरी का मोह
छोड़ दिया। और लेखन की किसी मंडली से जुडऩेकी बात है तो मैं केवल व्यंग्य की मंडली
से जुड़ा लेकिन दूर-दूर से ही। प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, विनोदशंकर शुक्ल, सुरेशकांत,
सुभाषचंदर, अश्विनीकुमार दुबे आदि की मंडली में
मैं भी शामिल हो गया। तब परसाई और शरद जोशी जीवित थे। तब उनसे भेंट होती थी। परसाईजी
से मिलने हम लोग दो बार जबलपुर भी गए। दो बार वे रायपुर पधारे तब उनसे भेंट हुई। जोशी
जी कवि सम्मेलनों में भाग लेने रायपुर आते रहते थे। तब उनसे चर्चाएँ होती थी। हमारी
वैसी कोई मंडली नहीं थी, जैसी आजकल न•ार
आती है। साहित्य अब गुटबंदी का शिकार कुछ अधिक हो रहा है।
46
- इस लेखन में वह कौन-कौन-सा दौर था जब आपको कई तरह के सम्मान पुरस्कार और पुरस्कारों से नवाजा गया तो
आपने अपने लेखन को एक चुनौती की तरह लिया?
-
पुरस्कार-सम्मान तो बहुत बाद में मिलने शुरू हुए,
पहले तो केवल लिखना ही होता था। पहला पुरस्कार सुभाष सम्मान मिला था,
तो अच्छा लगा कि किसी ने मान्यता दी। पर उससे मुझमें कोई फर्क नहीं आया।
लगा ही नहीं कि मैं कुछ खास हूँ। लेखन करता रहा। चुनौती जैसा भी कोई भाव मन में नहीं
आया। यह भाव आज भी नहीं है जब अनेक महत्वपूर्ण कहे जाने वाले सम्मान मिल चुके हैं।
सम्मान-पुरस्कार व्यक्ति को और अधिक जिम्मेदार बनाते हैं। मुझे
भी जिम्मेदार बनाते गये। पत्रकारिता और साहित्य में निरंतर पुरस्कार मिलता गया तो दूसरे
ईष्र्याग्रस्त जरूर हुए पर मैं स्थितप्रज्ञभाव से ही सबको स्वीकार करके चलता रहा।
47- सही मायने में किन-किन रचनाओं और पुस्तकों से आपको ज्यादा सुकून मिला?
-
यह कठिन सवाल है। हर रचनाकार को उसकी सभी रचनाएँ प्रिय होती हैं। जैसे
माँ को उसके सभी बच्चे प्रिय लगते हैं। भले ही किसी बच्चे में कोई शारीरिक कमी भी क्यों
न हो। अपनी पचास से अधिक पुस्तकों में सर्वाधिक प्रिय कौन -सी
है, यह कहना बेहद कठिन है। अपने आठों उपन्यासों को मैं महत्वपूर्ण
मानता हूँ। लेकिन 'एक
गाय की आत्मकथाÓ को जितनी लोकप्रियता मिली उससे बेहद सुकून मिला।
इस पुस्तक की सार्थकता यह रही कि इसे तीन अलग-अलग प्रकाशकों ने
प्रकाशित किया। दिल्ली के राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर न्यास ने तो दस हजार प्रतियाँ
प्रकाशित कीं। इस पुस्तक को पढ़ कर एक मुस्लिम युवक फै•ा खान
अब अपनी नौकरी छोड़ कर देश भर में घूम-घूम कर गौ-कथा कह रहा है। इससे बड़ी खुशी और क्या हो सकती है कि अपने जीते-जी मुझे अपनी कृति का सुपरिणाम सामने दीख रहा है। इसी तरह मेरे व्यंग्य संग्रह
'समाजवादी मच्छरÓ की तिरपन हजार प्रतियाँ प्रकाशित
हुई और उसकी सम्मानजनक रायल्टी भी प्राप्त हुई। अन्य रचनाएँ भी लोकप्रिय रहीं। सबसे
बड़ी बात मेरा पहला उपन्यास 'मिठलबरा की आत्मकथाÓ को आज भी याद किया जाता है। 'माफियाÓ को भी साहित्य प्रेमियों ने बेहद सराहा। फेस बुक में मेरी रचनाओं को अनेक
लोग शेयर करते हैं। यही सृजन का सुख है। अनेक रचनाएँ हैं जिनको लिख कर मुझे सुकून मिला,
मन को शांति मिली। क्योंकि उन्हें पाठकों का प्यार-दुलार मिला।
48
- आपकी नजर में गिरीश पंकंज को आप किस तरह देखते हैं और लेखन को लेकर
आपकी ईमानदार आलोचनात्मक टिप्पणी पर क्या कहते हैं?
-
अपने को साक्षी भाव से जब देखता हूँ तो लगता है कि मुझे अपनी उम्र से
ज्यादा प्रतिसाद मिला और अब मैं अपनी बोनस लाइफ जी रहा हूँ। यानी जो उपलब्धियाँ मिलीं,
उन्हें देख कर लगता है कि अब अगर मृत्यु भी आ जाये तो कोई मलाल नहीं
होगा। साठ साल तक आते-आते लगभग साठ पुस्तकें तैयार हो गईं। तिरपन
तो प्रकाशित ही हो गई हैं और धीरे-धीरे अन्य भी प्रकाशित हो जाएँगी।
मेरी रचनाओं को लोगों को प्यार मिला। उन लोगों का अधिक मिला जो साहित्य में नहीं थे।
साहित्य के कुछ लोग बेचारे इसी जलन में मर गये कि ये इतना अधिक लिखता क्यों है?
लिखता है तो छपता क्यों है? छपता है तो सम्मान
क्यों प्राप्त करता है? सम्मान प्राप्त करता है, तो घमंडी क्यों नहीं होता, उनकी तरह। मैं अपने लेखन से
संतुष्ट हूँ, पर अभी मेरी लड़ाई जारी है। सृजन की । अभी मुझे
अपना और बेहतर देना है। उसकी ही तलाश में बेचैन हूँ। मैं अपने लिये की गई हर ईमानदार
अआलोचना का स्वागत करता हूँ। क्योंकि हमारे यहाँ तो कहा ही गया है कि निंदक नियरे राखिये
आंगन कुटी छवाय। बिना इसके परिष्क ार संभव नहीं। इसलिए मेरी जितनी भी आलोचनाएं हुई,
मुझे उनसे शक्ति मिली। और अगर मैं खुद की ईमानदार आलोचना करूँ तो कहना
चाहूँगा कि मैं समय पर
कोई काम कर नहीं पाता। पिताजी इस बात को ले कर दुखी रहते थे। यह आदत सुधर जाती तो शायद
अभी मैं सत्तर पुस्तकें लिख चुका होता। लापरवाही, आलस ने मुझे
पीछे धकेल दिया है। मुझे अपने में सुधार लाना चाहिए।
48
- गिरीश पंकज के लेखन के सबसे कमजोर पक्ष और दृष्टिकोण के बारे में कुछ
कहें?
-
गिरीश के लेखन की सबसे बड़ी कमी है कि वह बेबाक है। उसमें साफगोई है।
गढ़ी गई कलात्मक भाषा का यहाँ अभाव है। जो है, वो सब बहुत कुछ
सपाट भी है। हालांकि साहित्य में सपाटबयानी पसंद नहीं की जाती। फिर भी मुझे लगता है
कि सम्प्रेषण के लिये सपाटबयानी जरूरी है। सीधी-सरल भाषा भी होनी
चानी चाहिये। हालांकि मैं व्यंग्य लेखन में सपाटबयानी से बचता हूँ? अपनी बात किसी रोचक कथा या वक्रोक्ति के माध्यम से ही कहता हूँ। रचना में रंजकता
होनी चाहिए तभी वह बोधगम्य भी होती है। गिरीश का एक और कमजोर पक्ष यह है कि वह बेहद
सरल भाषा का इस्तेमाल करता है। जबकि इस समय की कविता या कहानी या उपन्यास दुरूह भाषा
में लिखे जाते हैं। कथित दुरूहता इस समय की जरूरत है। और सैं समय के विपरीत चल रहा
हूँ। और गिरीश के लेखन पर दृष्टिकोण देने की बात है तो कहना चाहूँगा इनको अपनी धार
और गति और तेज करनी चाहिए। और नैतिक मूल्यों के प्रति जो लगाव बना कर रखे हुए हैं,
उनसे भी पीछा छुड़ाना चाहिए। आज जब ये समय 'गेÓ
पर लिखने का है, गिरीश 'गायÓ
पर लिखता है।
49
- लेखन के सबसे सबल पक्ष को आप किस तरह देखते हैं इसकी व्याख्या करें?
-
लेखन का सबसे सबल पक्ष यही है कि कोई भी रचना क्या लोकमंगल के लिये लिखी
गई है, या अपनी छवि चमकाने के लिये। धूमिल कहते हंै
''कविता क्या है, क्या वह कमाने-खाने जैसी कोई चीज है? ना भई ना, कविता भाषा में आदमी होने की तमीज है।ÓÓ मैं धूमिल की
पंक्तियों में कविता हटाकर साहित्य को रखना चाहता हूँ और कहना चाहता हूँ कि साहित्य
हमें जीवन की तमीज सिखाए। वह केवल छवि चमकाने का साधन न बने। जबकि आज यही हो रहा है।
बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोग साहित्यकार के रूप में उभर कर सामने
आ रहे हैं। इनके साथ प्रकाशक है, इनके साथ आलोचक है, इनके साथ पत्रिकाएँ हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए है कि ऐसे लोगों के पास पद है,
पैसा है। लेखन गौण है। इनकी रचनाओं के तेवर निकृष्ट पर पुस्तक के कलेवर
जोरदार होते हैं। मुझे लगता है लेखन का सबल पक्ष उसका कथ्य है। उसकी अंतरवस्तु क्या
है, उसेक विमर्श का केंद्रीय पक्ष क्या कहता है। लेखन सायास होना
चाहिए। कविता भले अनायास निकलती है, पर निकलती है सायास प्रहार
के लिये ही। मेरे लिये रचना का मतलब है परविर्तनकामी प्रक्रिया। अगर रचना अपने समय
से संवाद नहीं कर पा रही है, वह सिर से ऊपर निकल रही है,
वह केवल विशुद्ध कलावादी तड़का है, तो वह केवल
छवि चमकाने की एक भद्दी कोशिश ही है, बड़ी रचना नहीं है।
50
- आपके लेखन में क्या ऐसा हैं जो आपको दूसरों से अलग करता है और एक स्थान
दिलाता है?
-
मेरे लेखन में वही तत्व हैं जो हर सम्प्रेषणीय रचना के बुनियादी तत्व
हैं। यानी रंजकता, सहजता-सरलता और परिवर्तन
की अकुलाहटता। सरल भाषा, उनन्त दृष्टिकोण। अपनी निजी शैली। अपने
विकसित किये गए मुहावरे। अपनी मौलिक शैली-शिल्प। कोई कह नहीं
सकता कि पूरी रचना किसी की नकल है। कभी-कभार हो सकता है कि परम्परा
की हल्की-सी छाया कहीं-कहीं न•ार आये पर अंतत: मेरी रचना किसी छठाप से मुक्त है। परसाई-जोशी का भक्त हूँ पर मेरी रचनाओं में उनकी शैली नहीं मिलेगी। विषय मिल जायेंगे
क्योंकि हमारे पूर्ववर्ती लेखकों ने विषय इसी समाज से चुने हैं। वही राजनीति,
वही विसंगतियाँ हैं। नेता हैं, चमचे हैं,
पाखंड है। परिवर्तन नहीं आया है इसलिये उन विषयों पर मुझे भी लिखना है।
पर मैंने जो कुछ भी लिखा है, उसे अपनी शैली में लिखा है। इसलिए
मैं विनम्रतापूर्वक दूसरों से खुद को अलग करता हूँ। जो कुछ भी स्थान बन सका है,
शायद इसीलिए भी है।
51 - समकालीन लेखन में खुद को आप कहाँ
पर पाते हैं?
-
समकालीन लेखन में अपने को सृजन के एक सिपाही की भूमिका में पाता हूँ।
मैं अपना काम कर रहा हूँ। मुझे खुद अपना स्थान नहीं पता। कोई स्थान बना भी है या नहीं,
पता नहीं। ये सब मुझे समझ में नहीं आता। हाँ, जब
कुछ लोग थोड़ा-थोड़ा-सा स्थान देते दीखते
हैं तो लगता है शायद सृजन बेकार नहीं गया। अगर इस वक्त बिना किसी प्रयास के नौ लोग
मेरे साहित्य पर शोध कर रहे हैं तो लगता है शायद कुछ तो ऐसा लिख सका हूँ, जो शोध के योग्य है। वैसे अनेक शोध जोड़-तोड़ करके करवाए
जाते हैं। ऐसे-ऐसे लोगों पर भी शोध हो रहे हैं, जिन्हें देख कर कोई बी अचरज में पड़ सकता है। क्योंकि वे लोग प्रभावशाली हैं।
कुछ के पास पद है, कुछ के पास कुछ और है। लेकिन अपने बारे में
दावे के साथ कह सकता हूँ कि मेरे पास न पद है, न पैसा है। मेरे
पास केवल मेरा सृजन है। आज देश के अनेक गाँव-कस्बों से लेकर दिल्ली
तक अगर लोग मुझे बुला कर अपना प्यार देते हैं तो इसे अपनी खुशकिस्मती मानता हूँ। और
विनम्रतापूर्वक सोचता हूँ कि कुछ तो जगह शायद बना सका हूँ।
52 - आपकी कहानियों और उपन्यासों में
किस तरह के संदेश हैं? और तथ्य के स्तर पर नयापन क्या है?
उसकी प्रांसगिकता देर तक की है या सामयिक है? और
यह भी कि आपकी साहित्य में क्या छवि है, क्या हास्य-व्यंग्यकार की छवि सबसे मजबूत-सी है? अगर ऐसा है तो क्यों?
-
एक साथ अनेक सवाल निहित हैं इसमें । एक-एक कर के
उत्तर देना होगा। सबसे पहला सवाल कि मेरी काहनियों या उपन्यासों में किस तरह के संदेश
हैं। तो मैं स्पष्ट कर दूँ कि मेरी हर रचना संदेह के साथ रची जाती है। सामाजिक परिवर्तन
की उत्कट अभिलाषा ही मेरा रचनात्मक लक्ष्य है। कहानियों की तरह मेरे हर उपन्यास का
अपना लक्ष्य रहा है। कहानियों पर बात लम्बी हो जाएगी पर उपन्यास सीमित हैं इसलिए उन
पर विमर्श हो सकता है। मेरा उपन्यास मिठलबरा की आत्मकथा (सन्
1999)क्षेत्रीय पत्रकारिता पर मेरा पहला व्यंग्य उपन्यास था। जिसके बारे
में प्रेस जगत के अनके पुराने लोग जानते हैं। इस उपन्यास का उद्देश्य यही था कि हिंदी
जगत को पता चल सके कि और की आजादी के लिये संघर्ष करने वाले पत्रकार किस तरह एक संपादक
के गुलाम होते हैं । खास कर उस संपादक के जो मालिकों का दलाल होता है। पत्रकारिता जब इंटरनेट के दौर में
आई और उस पर बाजारवाद
हावी हुआ तो सन् 2014 में मेरा उपन्यास आया 'मीडियाय नम:Ó । इसमें भी व्यंग्य के माध्यम से कुछ चरित्रों
की पड़ताल की जो पत्रकारिता में तो हैं मगर उनका चरित्र दागदार है। वे संपादक है या
मालिक हैं, पतित हो चुके हैं। बाजार ने उन्हें बाजारू बना दिया
है। माफिया (2003) उपन्यास में साहित्य जगत में पनप रहे साहित्यिक
माफिया पर प्रहार है। एक तरफ संघर्षशील लेखक हैं, तो दूसरी तरफ
अफसर-लेखक हैं, जिनको हमारा हिंदी का आलोचक
महान रचनाकार के रूप में स्थापित करने में लगा रहता है। उसकी जय-जयकार करता है। पॉलीवुड़ की अप्सरा (2007) में क्षेत्रीय
सिनेमा में घुस रही बुराइयों को व्यंग्यात्मक चित्रण हुआ है। एक गाय की आत्मकथा में
भारतीय देसी गायों की दुर्दशा का चित्रण है। कैसे इस उपभोक्तावाद ने स्वार्थी गौ भक्तों
को गाय को बेचने के मामले में पूरी तरह बेशर्म बना दिया है। उपन्यास में मुस्लिम पात्र गाय बचा
रहा है और हिंदू पात्र गाय बेच रहा है और उसकी आड़ में कमाई कर रहा है। इस उपन्यास
का उद्देश्य यही है कि समाज पाखंड से ऊपर उठे और गौ माता की ईमानदारी से सेनवा करे। टाउनहॉल में नक्सली उपन्यास व्यंग्य
उपन्यास नहीं है। उसमें वर्णित कुछ दृश्यों में जरूर व्यंग्य है, पर पूरा उपन्यास नक्सल समस्या का समाधान चाहता है। सर्वोदय की भावना से प्रेरित
इस उपन्यास के अंत में नक्सली राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल होने के लिये आत्म समर्पण
कर देते हैं। उपन्यास स्टिंग ऑपरेशन(2015) राजनीतिक व्यंग्य है।
जिसमें एक आवारा, पढ़ाई चोर लड़का बड़ा हो कर नेता बनता है। मंत्री
भी बन जाता है। लेकिन अंतत: स्टिंग ऑपरेशन के बाद उसका राजनीति
जीवन खत्म हो जाता है। इस उपन्यास में मैंने बताने की कोशिश की है कि राजनीति में अपराधी घुसते जा
रहे हैं। एक अपराधी दूसरे को रिप्लेस करके आ जाता है। यही सिलसिला चल रहा है। मतलब
यह कि मेरे हर उपन्यास का उद्देश्य समाज में घटित हो रहे सच का पर्दाफाश करता है। हर
उपन्यास एक साहसिक चुनौती है। माफिया लिखने के बाद साहित्य जगत के अनेक चेहरे नाराज
हुए क्योंकि उन पर प्रहार हुआ था। किताब का प्रचार करते हुए प्रकाशक ने जो कुछ लिखा,
उसे अपनी प्रशंसा ही मानता हूँ कि ''माफिया लिख
कर लेखक ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है।ÓÓ मुझे अपने पैरों
पर कुल्हाड़ी मारना अच्छा लगता है। अन्याय के विरुद्ध जब मैं लिखता हूँ तो अपने लाभ
के बारे में नहीं सोचता, न अपनी हानि की परवाह करता हूँ। जो सच
है, वो लिखता हूँ। यही होना भी चाहिए। और दो टूक लिखता हूँ। मेरी
क्रांति इतनी अमूर्त नहीं होती कि हो जाए और पता ही न चले। आलोचक बताए कि लेखक क्रांति
का संदेश दे रहा है। दूसरे सवाल का उत्तर यह है कि मेरी हर रचना में यापन रहता है।
विषय लीक से हट कर ही होते हैं। और उसकी प्रासंगिकता भी लम्बे समय तक बनी रहेगी,
ऐसी उमम्मीद करता हूँ। जहाँ तक मेरी छवि का सवाल है, साहित्य में मुझे एकांत साधक की तरह
ही देखा-समझा जाता है। मैं किसी दाँव-पेंच
में नहीं रहता, जोड़-तोड़ में नहीं रहता।
और हास्य-व्यंग्यकार की बजाय केवल व्यंग्यकार के रूप में अपनी
छवि मजबूत बन रही है। मुझे केवल व्यंग्यकार के रूप में जाना जाए, हास्यकार के रूप में नहीं, यही मेरी इच्छा है। मुझे संतोष
है कि सात उपन्यास लिख लेने के बावजूद मेरी व्यंग्यकार की छवि धूमिल नहीं हुई है। मैं
खुद को उपन्यासकार की बजाय व्यंग्यकार कहलाना अधिक पसंद करता हूँ।
53
- समकालीन स्तर पर सैकड़ों व्यंग्यकार सक्रिय होकर लिख रहे हैं। इनमें
आप किन-किन से प्रभावित है और आप अपने आप को लेखन के प्रभाव और
गुणवत्ता के हिसाब से कहाँ पर पाते हैं?
-
इसमें दो राय नहीं कि इस वक्त अनेक व्यंग्यकार लिख रहे हैं। अखबारों
में प्रकाशित होने वाले कालमों ने भी अनेक व्यंग्कार पैदा किये हैं। जो कभी दिखते हैं
और कभी गायब हो जाते हैं। कुछ को मैंने ट्रैक बदलते भी देखा है पर कुछ निरंतर लिख रहे
हैं। जहाँ तक प्रभावित होने की बात है मैं अपने समकालीनों में अनेक व्यंग्यकारों से
प्रभावित हूँ। जो स्वर्गीय हो चुके हैं, उनके नाम नहीं लूँगा,
मगर जो जीवित हैं, उनमें से कुछ के नाम ले सकता
हूँ। कुछ के छूट भी सकते
हैं। गोपाल चतुर्वेदी, ज्ञान चतुर्वेदी, हरि जोशी, सूर्यबाला, विनोदशंकर
शुक्ल, प्रेम जनमेजय, बालेंदुशेखर तिवारी,
हरीश नवल, सुभाषचंदर, अश्विनी
दुबे, सुशील सिद्दार्थ, स्नेहलता पाठक,
श्रवणकुमार उर्मलिया, अनुराग वाजपेयी, अजय अनुरागी, अरविंद तिवारी, जवाहर
चौधरी, फारुख आफरीदी, अख्तर अली,
त्रिभुवन पांडेय, प्रभाकर चौबे, विनोद साव, आरके पालीवाल आदि मुझे याद आ रहे हैं। इनके
लेखन से मुझे प्रेरणा मिलती रहती है। नये लेखकों में भी कुछ लोग उभर रहे हैं। इनमें
नीरज बधवार, अंशुमान खरे, संतोष त्रिवेदी,
अतुल चतुर्वेदी, शरद उपाध्याय, अर्चना चतुर्वेदी, इंद्रजीत कौर, अनूपमणि त्रिपाठी, अलंकार, पंकज
प्रसून, मनोज लिमये, कमलेश पांडेय,
लालित्य ललित, वीणा सिंह, अंशु प्रधान, अभिषेक उपाध्याय, सतीश उपाध्याय, राहुल देव, वीरेंद्र
सरल आदि हैं। कुछ नाम और होंगे जो फिलहाल याद नहीं आ रहे हैं। पुराने व्यंग्यकारों
के साथ अपनी तुलना करता हूँ तो इतना ही कह सकता हूँ कि मैं अपने स्तर पर मौलिक हूँ।
ये सब भी हैं। सबकी अपनी शैली है। जहाँ तक गुणवत्ता
का सवाल है, मैंने हमेशा कोशिश की है कि अपनी शैली को निरंतर
परिमार्जित करता रहूँ और लगातार बेहतर होने पर ध्यान दूँ। यह कहना उचित नहीं कि मैं
सबसे आगे हूँ, पर इतना विश्वास है कि मैं परसाई और जोशी की परम्परा
को ठीक ढंग से गति देने की विनम्र कोशिश कर रहा हूँ।
54
- लेखन के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती क्या खुद को सामने लाने की भी होती
है? तो किस तरह की चुनौती होती है यह, इस
पर प्रकाश डाले?
-
इसमें दो राय नहीं हो सकती कि अपनी रचनात्मक मेधा से खुद को सामने लाना
एक बड़ी चुनौती है। धक्का दे कर या प्रयोति तरीके से कुछ दूर तक तो चला जा सकता है
पर लम्बी रेस का घोड़ा साबित होने के लिये उसे चेतक की तरह ही मजबूत होना पड़ेगा। ये
और बात है कि अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने में अब पसीने छूट जाते हैं। क्यों कि अभी
संघर्ष बहुत है। आलोचकों का कब्जा है। प्रकाशन जगत में माफिया सरगर्म है। वहाँ सबकी
प्रवेश संभव नहीं है। फिर भी जो अच्छे रचनाकार हैं, वे अपनी जगह
बना ही लेते हैं। समय जरूर लगता है। मुझे भी कुछ समय लगा। पर अब लोग नोटिस तो लेने
लगे हैं। प्रकाशकों के फोन आते हैं, वे पांडुलिपि मांगते हैं
तो अच्छा लगता है कि वे मुझसे जुड़ रहे हैं। सबसे बड़ी चुनौती अपने आप के बारे में
विज्ञापन करना है। यह पैसे खर्च करके विज्ञापन देना नहीं है, वरन अपनी मौलिकता से, अपनी प्रतिभा से खुद की पहचान बनाना
है। अपने यहाँ कहा जाता
है, सत्य परेशान हो सकता है, पराजित नहीं,
मैं कहता हूँ अच्छा लेखन
उपेक्षित किया जा सकता है, पर उसकी चमक
नहीं छीनी जा सकती।
55
- हास्य-व्यंग्यकार के रूप में लेखन को आपने किस
तरह दिशा दी?
-
शुरू -शुरू में जरूर मैं हास्य-व्यंग्यकार के रूप में सक्रिय रहा। तब शायद उतनी समझ भी ठीक से विकसित नहीं
हो सकी थी इसलिए मैं हास्य और व्यंग्य को एक ही समझता रहा।पर धीरे-धीरे दोनों का अंतर समझ में आने लगा। हास्य केवल मसखरी है और व्यंग्य गंभीर
दायित्व है। मैं क्रमश: हास्य से दूर होता गया और व्यंग्य मेरी
आत्मा का हिस्सा बन गया। हाँ, इतना जरूर रहा कि व्यंग्य की सम्प्रेषणीयता
बनाये रखने के लिये हास्य का आंशिक इस्तेमाल होता रहा पर वक्रोक्ति के रूप में ही।
मेरी रचना में केंद्रीय तत्व हास्य कभी नहीं रहा। तब भी नहीं जब मुझे हास्य-व्यंग्य से परहेज नहीं था। तब भी मेरी रचनाओं में व्यंग्य ही प्रमुख होता था,
आज भी है। एक व्यंग्यकार के रूप में अपने किसी भी लेखन में मैनें यह
ध्यान जरूर रखा कि बात कहनी है तो व्यंग्य में ही कहनी है इसलिए मैंने कहानियाँ लिखीं
तो उसमें व्यंग्य आया, कवितायें लिखीं तो उसमें भी व्यंग्य आ
गया। लघु कथाएँ लिखी तो वे भी व्यंग्यपूर्ण हो गये। अखबारों के गंभीर कालम भी लिखे तो वहाँ भी व्यंग्य
आ गया। अग्रलेख लिखे तो व्यंग्य से बच नहीं सका। मतलब यह कि अपने लेखन का मूल स्वर
ही व्यंग्यमय हो गया।
56
- व्यंग्य लेखक बनने को लेकर समाज में मित्रों में और पाठकों में किस
तरह की धारणा और प्रतिक्रिया रही?
-व्यंग्य लेखक को समाज का एक खास वर्ग पसंद नहीं करता। हास्यकारों को खूब सराहना
मिलती है। व्यंग्य सच बोलता है, और हास्यकार विशुद्ध रूप से हँसाता
है। हँसना सबको अच्छा लगता है। खा-पी कर अघाए लोगों को हम हास्य
कवि सम्मेलनों में देख सकते हैं। व्यंग्य में विद्रूपताओं पर प्रहार होता है। जो लोग
पाखंडी हैं, उन पर कटाक्ष होता है। और समाज में अनेक लोग ऐसे
होते हैं इसलिए वे जब कोई व्यंग्य देखते हैं तो लगता है कि यह उन पर ही लिखा गया है।
मेरा निजी अनुभव यही है कि लोग अपने पर ले लेते हैं। दुष्यंत का शेर है- 'मत कहो
आकाश में कोहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना हैÓ। हम विसंगतियों की बात करते हैं और लडऩे पहुँच जाते हैं कि आपने हम पर व्यंग्य
लिख दिया। दो-तीन बार मेरे साथ ऐसा हो चुका है। मैंने व्यंग्य
लिखा तो कोई अफसर शिकायत करने लगा, तो कोई लेखक छाती पर सवार
हो गया। मुझे व्यंग्य पर एकाग्र देख कर मित्रों की यही प्रतिक्रिया रही कि बेहतर है
कि तुम अन्य विधाओं में हाथ आजमाओ क्योंकि व्यंग्य को साहित्य में उतना महत्व नहीं
मिलता। मुझे भी पता था पर मैं चाहता था कि व्यंग्य के माध्यम से ही साहित्य की सेवा
करूँ। यही एक विधा है जो सच को साहस के साथ प्रस्तुत करती है। इसलिए प्रतिक्रिया कैसी
भी रही हो, मैंने व्यंग्य का रास्ता ही चुना और आज संतुष्ट हूँ।
57
- व्यंग्य को लेकर क्या आप भी अपने मित्रों के बीच कभी हास्य के शिकार
बने?
-हाँ, अक्सर। मित्र तो परिहास करते ही हैं। यह अनुभव उस
वक्त अधिक हुआ जब मैंने एक गाय की आत्मकथा लिखी। तब कुछ मित्रो ंने कहा कि ये तो गाय
वाला व्यंग्यकार है। ये तो अब ट्रैक से हट गया है। मैंने भी •ावाब दिया कि सच है, मैं ट्रैक से हट गया हूँ। गे
(समलैंगिकता) पर लिखना चाहिए तो गाय पर लिख रहा
हूँ। गाय पर उपन्यास लिखने के बाद मेरा उपहास ही उड़ाया गया कि आज के दौर में ये क्या
पिछड़ा विषय उठा रहा है। पर इन लोगों को पता नहीं है कि गाय पिछड़ा विषय नहीं,
अधुनातन ही है। गाय आज भी हमारे जीवन के केंद्र में है। उसके बिना हमारी
मुक्ति नहीं है। गाय के दूध से बनी चीजें हमारे जीवन का हिस्सा हैं। हमारे स्वास्थ्य
से जुड़ी है गाय। पर लोग समझते नहीं। हमारे अनेक व्यंग्यकार मित्र खुद को आधुनिक समझने
या बनाने के चक्कर में न केवल गाय से कटे, वरन अपनी महान संस्कृति
से भी कटते चले गये।
58
- एक व्यंग्यकार बनना कितना कठिन-सा फैसला लगा
या लगता है और तब अपने समकालीनों के प्रति क्या सोचा और प्रेरणा ली?
-
यह कठिन फैसला था। क्योंकि जिस विधा में बहुत अधिक सामाजिक, साहित्यिक संभावना न हो, तो उसे आत्मसात करना चुनौती
ही थी। लेकिन चुनौती को स्वीकार करना मेरा सहज स्वभाव रहा इसलिए मैंने बहुत सोचा नहीं।
कबीर ने कहा है - जो घर जारे आपना चले हमारे साथ। अनेक व्यंग्यकार
पिटे, प्रताडि़त हुए। परसाई पिटे, शरद जोशी
प्रताडि़त हुए। लक्ष्मीकांत वैष्णव, मनीष राय और विद्रोही कवि
गोरख पांडेय ने खुदकशी कर ली। व्यंग्य पथ पर चलने के जोखिम हमेशा से रहे हैं। हरि जोशी
भी निलंबित किये गए। ये सब घचनाएँ मुझे प्रेरित ही करती रहीं। खतरा होने के बावजूद
मुझे व्यंग्य पसंद है क्योंकि मुझे सर्वाधिक सुख व्यंग्य लिख कर ही मिलता है। मुक्तिबोध
की चर्चित पंक्तियाँ हैं- अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे।
तोडऩे होंगे गढ़ और मठ सारे। तो यग गढ़-मठ व्यंग्य करके ही तोड़े
जा सकेंगे। घोर कलावादी या पलायनवादी रचनाएँ नहीं तोड़ सकतीं इनको। व्यंग्य लिखते हुए मुझे लगता ै मैं
अपने सरोकारों से जुड़ा हूँ। यह मेरा फर्ज है। जैसे सीमा पर सैनिक दुश्मनों के विरुद्ध
लड़ाई के लिये तैनात रहता है, उसी तरह मैं भी अपने व्यंग्य के
माध्यम से समाज के शत्रुओं से जूझता हूँ।
59
- आपकी नजर में कुछ व्यग्ंय लेखकों के बारे में विस्तार से बताइए कि उनमें क्या खास है जो सबसे
बड़े लेखक की तरह माने जाते है?ं
-
कुछ व्यंग्यकारों का जिक्र मैं कर चुका हूँ। ये अच्छा लिखते हैं और मुझसे
भी अच्छा लिखते हैं इसलिए मेरे आदर्श भी हैं। कुछ अग्रज हैं, कुछ मित्र है तो कुछ अनुजवत हैं। ज्ञान चतुर्वेदी मुझे प्रिय हैं क्योंकि उनके
व्यंग्य रंजक होते हैं। ये और बात है कि वे जब उपन्यास लिखते हैं तो वे गालियों के
सहारे अपनी बात कहते हैं। यह उनकी अपनी शैली है। हालांकि कुछ मैली है। यह मेरी समझ
में नहीं आता कि हर दूसरे वाक्य में गालियाँ क्यों? क्या उनके
पात्र गालियों के बगैर बात ही नहीं कर सकते? यह लेखक की कमजोरी
है । जैसे लोग बातों से जीत नहीं पाते तो गालियों पर उतर आते हैं। उसी तरह लेखक जहाँ
शब्दों से चुकने लगता है तो गालियों का सहारा लेने लगता है। वैसे गालियों को निकाल
दें तो ज्ञान हिंदी के सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकारों में एक माने जाते हैं। गोपाल चतुर्वेदी
सर्वाधिक उम्रदराज व्यंग्यकार हैं पर अभी भी युवकोचित सोच से लबरेज हैं। सरस व्यंग्य
लेखक हैं। गाली-गलौच से दूर । अपने व्यंग्य स्तंभों के माध्यम
से वे नये-नये विषयों पर सार्थक लेखन कर रहे हैं। प्रेम जनमेजय
भी एक बड़े व्यंग्यकार हैं। ये परसाई जी से प्रभावित हैं। पर इन्होंने अपने निजी मुहावरे
विकसित किये हैं। इनके कुछ व्यंग्य आज भी लोकप्रिय हैं। राजधानी में गँवार हो,
या सीता अपहरण केस, इन सबके माध्यम से वे सार्थक
व्यंग्य लेखन करते हैं। प्रेम जी ने
व्यंग्य लेखन के साथ एक और बड़ा काम किया, 'व्यंग्य यात्राÓ नामक पत्रिका का प्रकाशन करके। इससे
उनका अपना लेखन तो प्रभावित जरूर हुआ पर उन्होंने व्यंग्य-विमर्श
का वातावरण बनाने में सफलता प्राप्त की। अनेक नये व्यंग्यकार इस पत्रिका के माध्यम
से सामने आए। व्यंग्य पर गंभीर चिंतन भी इस पत्रिका में न•ार
आता है। परसाई जी की परम्परा के एक और वाहक हैं हरीश नवल जी। इनको पहला युवा ज्ञानपीठ
पुरस्कार 'बागपत के खरबूजेÓ के लिये मिला
था। इनके व्यंग्य की मार महीन होती है। उनमें कटुता नहीं है। एक मिठास है। हल्की-सी चुभन है पर वह दर्द नहीं देती। गुदगुदाती भी नहीं, हाँ चैतन्य जरूर कर देती है। मेरा सौभाग्य है कि प्रेम जी और हरीशजी का स्नेह
मुझे मिलता रहा है। सुभाषचंदर व्यंग्यकार भी है और व्यंग्यालोचक भी। दोनों रूप में
ही वे वरेण्य हैं। 'इंसानियत को शोÓ उनका
चर्चित व्यंग्य संग्रह हैं। उनका उपन्यास 'अक्कड़-बक्कड़Ó भी चर्चा में रहा। गालियों के कारण इस उपन्यास
की आलोचना तो हुई पर यह उपन्यास व्यंग्य के निकष पर खरा साबित हुआ। उनकी कृति हिंदी
व्यंग्य का इतिहास उनको आचार्य रामचंद्र शुक्ल की परम्परा से जोड़ देती है। हिंदी व्यंग्य
की परम्परा को समझने के लिये यह एक अनिवार्य कृति है। इसी तरह का एक काम सुरेशकांत
ने भी किया है। बालेंदुशेखर तिवारी तो शुरू से ही व्यंग्यालोचन में माहिर रहे हैं।
अश्विनीकुमार दुबे ने व्यंग्य लेखन के साथ उपन्यास भी लिखे। वे भी आक्रामक नहीं होते।
धैर्य से मिठासभरे शब्दों में अपनी बात कहते हैं। रवि श्रीवास्तव के पास अपनी वैचारिक
प्रतिबद्धता है और वे भी परसाई परम्परा के सार्थक पथिक हैं। विनोद साव ने भी कुछ व्यंग्य
उपन्यास लिखे हैं। इनमें शरद जोशी जैसी ही रंजकता नजर आती हैं। व्यंग्य के साथ परिहास
भी इनकी रचना का इधर के व्यंग्यकारों में संतोष त्रिवेदी के व्यंग्य मुझे पसंद हैं।
वनलाइनर के लिये जाने जाने वाले नीरज बधवार में प्रचुर संभावना है। अनुज खरे के पास
भी अपनी खास शैली है। अर्चना चुतुर्वेदी, सुनीता शानू,
वाणी सिंह, इंद्रजीत कौर और अंशु प्रधान महिला
व्यंग्यकारों की कमी को पूर्ण कर रही है। पंकज प्रसून और अनूपमणि में धार है। ये सारे
लोग मिल-जुल कर व्यंग्य साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं। छत्तीसगढ़
से एक नया चेहरा उभर रहा है वीरेंद्र सरल के रूप में। उसके दो व्यंग्य संग्रह आ चुके
हैं और दोनों में उसके सशक्त व्यंग्यकार होने के प्रमाण मौजूद हैं।
60- व्यग्ंयकार के लिए आज हास्य-व्यंग्य लिखना कितना जटिल लगता है या कुछ सरल-सा हो गया
है?
-
इस वक्त व्यंग्य लिखना बेहद कठिन है। हास्य लिखना आसान है। जैसे बत्तीसी
दिखाना सरल है पर गंभीर बने रहना चुनौतीपूर्ण। जैसे-जैसे समाज
आरामतलब और सुविधाभोगी होता जा रहा है, वो व्यंग्य से विमुख हो
रहा है। उसे हास्य चाहिए। यही कारण है कि टीवी हो या मंच, वहाँ
हास्य कार्यक्रमों की बहुलता है। चुटकुलों को जोड़-जोड़ कर कविता
बना देना या उसी को विस्तार दे कर प्रहसन में तब्दील करने का खेल चल रहा है। यही कारण
है कि अब गंभीर व्यंग्य से लोग दूर हैं। अखबारों में भी व्यंग्य के नाम पर कुछ भी छप
रहा है इसलिएअच्छा व्यंग्य लिखना जटिल होता जा रहा है। लिख तो लें, पर वो छपेगा कहाँ? फिर भी मेरे जैसे व्यंग्यकार कोशिश
में रत रहते हैं कि गंभीरता बनी रहे। बाजार से प्रभावित हो कर हास्य या हास्यास्पद
रचनाएँ न हों। जबकि इस वक्त ऐसे ही लोगों की भीड़ है।
61
- पाठकों की रुचि और पसंद को
लेकर आपकी क्या धारणा है?
-
मेरी अपनी धारणा यही है कि पाठक भी समय के साथ चलता है। जब उसके सामने
सैकड़ों दृश्य माध्यम हैं तो वह उस ओर ही झुकता है। घर बैठे अनेक रंजक कार्यक्रम वह
देखते हुए बड़ा होता है इसलिए स्वाभाविक तौर पर उसका झुकाव उस ओर हो जाता है। अब घर-परिवार में भी साहित्य पढऩे वाले कम बचे हैं। इंटरनेट के दौर में मनुष्य का
फेसबुकीकरण और व्हाट्सपीकरण होता जा रहा है। उसे मनोरंजन चाहिए और वह सब इन माध्यमों
से अर्जित कर लेता है। इसलिए साहित्य पढऩे की जहमत वो कम ही उठाता है। यह सब समय सापेक्ष
है। इसके लिये किसी पाठक को दोष नहीं दिया जा सकता। अब ये हमारी जिम्मेदारी है कि हम
अपनी रचनाओं को इस लायक बना सकें कि पाठक खिंचा चला आए। जैसे मैं एक बार फिर अपने ही
उपन्यास एक गाय की आत्मकथा का जिक्र करूँगा, जिसे लोगों ने खोज-खोज कर पढ़ा और अब तक लाखों पाठक उसे पढ़ चुके हैं। अगर कृति में दम है तो
पाठक उसे पढ़ेगा ही। हाँ, उसकी रुचि बहुत अधिक गंभीरता में नहीं
होती इसीलिए वो हल्की-फुल्की चीजें पढ़ता है। वर्दीवाला गुंडा
की पाँच लाख प्रतियाँ बिक जाती हंै। वैसे भक्ति-साहित्य और व्यक्तित्व-विकास-विषयक पुस्तकें भी लोग खूब पढ़ रहे हैं। ट्रेंड
बदला है। इस वक्त साहित्येतर चीजें अधिक पढ़ी जा रही हैं। डायमंड से प्रकाशित मेरी
पुस्तक 'मेरे जीवन के अनुभवÓ की निरंतर
बिक्री के कारण मुझे जो निजी अनुभव हुआ, उस आधार पर भी मैं कह
रहा हूँ। पाठक को बेहतर सामग्री चाहिए। चाहे वो साहित्य हो, या
साहित्येतर कृति।
62
- अभी भी हास्य-व्यंग्य समेत सभी प्रकार के लेखन
में आप क्या कमी और खासियत पाते हैं?
-
अभी साहित्य की विभिन्न विधाओं के लेखन को जब देखता हूँ तो पाता हूँ
लिखा तो खूब जा रहा है, मगर वैसा लेखन जिससे मनुष्यता निर्माण
हो, जीवन मूल्य स्थापित हों, देश और समाज
में अनुराग पैदा हो, वैसा लेखन कम हो रहा है। हास्य फूहड़ता के
शिकार हैं तो व्यंग्य लेखक बाजारू हाते जा रहे हैं। मतलब जो खप सकता है, वो लिख रहे हैं। यानी सुबह व्यंग्य पैदा होता है और शाम को दम तोड़ देता है।
कहानियों में भी सेक्स अधिक है। या फिर कथा कम, कौशल ज्यादा है। उपन्यास कुछ मूल्य प्रधान नजऱ आ रहे हैं। मगर कविता का सर्वाधिक
कबाड़ा हो रहा है। छंद हाशिये पर कराह रहा है। नई कविता के नाम पर केवल गद्य परोसा
जा रहा है। कविता की भाषा गढ़ी गई है। वो सहज-सरल नही हैं। कविता
में शब्दों का गुंफन तो है, पर अर्थ को अभाव है। यही कारण है
कि कविता अलोकप्रिय विधा बनती जा रही है। जबकि एक दौर था कविता ही साहित्य के केंद्र
में हुआ करती थी। तब जब वह छंद-प्रधान थी। तब उसमें रस था,
जीवन था, प्रवाह था। अब की कविता निष्प्राण है।
केवल देह है। आत्मा गायब है। कविता में काव्यात्मकता का अभाव है। मुझे लगता है कविता
को धीरे-धीरे छंद की ओर लौटना ही होगा। छंद के बगैर काम चलेगा
नहीं। बाजार को भी अपने उत्पाद बेचने के लिए कविता के सहारा लेना पड़ता है। यानी दिम
का, लय का ख्याल रखना पड़ता है। जैसे- 'लाइफबॉय है जहाँ तंदरुस्ती है वहाँÓ, या फिर
'जो ओके से नहाए, कमल-सा
खिल जाएÓ। छंद से बात बेहतर तरीके से सम्प्रेषित होती है। समकालीन
लेखन में सम्प्रेषणीतता का निपट अभाव है। शिल्प की दृष्टि से प्रयोग दीखता है,
पर प्रयोग का सही उपयोग नहीं हो पा रहा। साहित्य का जो उद्देश्य है सबके
हित को ले कर चलना, उसकी कमी मुझे दीखती है।
63
- एक लेखक से ज्यादा स्पष्ट
कहना क्या एक आलोचक के लिए संभव है जो केवल नकारात्मक तरीके ही रचना का अवलोकन करता
है?
-
लेखक लेखक होता है, आलोचक आलोचक। लेखक के जैसा
आलोचक हो, यह संभव नहीं। लेख के पास जो दृष्टि होती है,
वह आलोचक के पास नहीं होती। हाँ, वह रचना के गुण-दोष को समझने की कोशिश कर सकता है। और लेखक की भावनाओं का पिष्टपेषण भी कर
सकता है, पर वह लेखक की तरह स्पष्ट नहीं हो सकता। क्योंकि उसका
समूचा चिंतन लेखक की कृति के आधार पर ही होता है। कई बार आलोचक इस भ्रम में होता है
कि वह लेखक से बड़ा है। उसका भाग्यविधाता है। यही कारण है कि अनेक आलोचक पूर्वाग्रह
से ग्रस्त होते हैं। इसलिए नकारात्मक हो जाते हैं। जिनसे उनके संबंध मधुर हैं,
उनकी कृतियों का गुणगान करते हैं मगर जिनसे उनका परिचय नहीं है,
उनकी कृतियों को वे देखते ही नहीं और कभी भूले से देखने का या लिखने
का अवसर मिला तो उसे खारिज करने की कोशिश करते हैं। ईमानदार आलोचना का अभाव होने के कारण
अनेक महान कृतियों पर विमर्श नहीं हो पा रहा है।
64
- एक लेखक और पठन-पाठन में सतत लीन और चिंतन में
मशगूल रहता है। अपनी रचना को तमाम लेखकों से एक अलग रास्ता बनाता या मंजिल लक्ष्य निर्धारित
करता है । इन तमाम बाधाओं के बाद प्रकट हुई रचना का मूल्यांकन क्या लेखकीय नजरिए से
कोई आलोचक कर पाता है?
-अगर आलोचक मौलिक लेखक है तो वह लेखक की पीड़ा को समझेगा मगर वह केवल आलोचक
है तो वह लेखकीय संवेदना तक पहुँच ही नहीं सकता। कोई श्रेष्ठ कृति तपस्या, साधना और श्रम से तैयार होती है, यह उस कृति को पढ़ कर
समझ में आ सकता है। एक बड़ी रचना (जैसे उपन्यास, या महाकाव्य और खंड काव्य) सुदीर्घ साधना के बाद आकार
लेती है। लेखक अपना खून-पसीना एक करके उसे तैयार करता है। जैसे
माँ नौ महीने तक गर्भधारण करके शिशु का जन्म देती है उसी तरह लेखक भी महीनों की वेदना
के बाद अपनी बड़ी कृति को जन्म देता है। तब उसकी सहज अपेक्षा होती है कि आलोचना उसे
देखे और उसकी मेहनत का मूल्यांकन करे। पर ऐसा कम ही हो पाता है। हिंदी में अनेक महान
लेखक या कृतियाँ अब तक गुमनाम पड़ी हैं। जाने कब उन्हें अच्छे आलोचक मिलेंगे और लोग
उनके बारे में जान सकेंगे। हिंदी की बड़ी कृतियों को अच्छे आलोचक ईमानदारी के साथ पढ़ते हैं और उस
पर लिखते हैं। ऐसे लोग अब दुर्लभ जीव हो चुके हैं। अधिकतर लोग प्रायोजकीय समीक्षा के
पक्षधर हैं। खिला-पिला कर उनसे समीक्षा या सुगदीर्घ आलोचना करवा
लो। ये बाजारू आलोचक हैं और लगभग चार-पाँच दशकों से हिंदी की
छाती पर मूँग दल रहे हैं। एसे आलोचकों के कारण हिंदी साहित्य का नुकसान हुआ है। दोयम
दर्जे के कुछ लेखक साहित्य के सिरमौर बना दिए गए और जो सचमुच महान थे, वे किनारे कर दिए गए। यह पाप है जो अब तक होता रहा। जब तक ईमानदार आलोचक सामने
नहीं आएँगे, हिंदी साहित्य का भला नहीं हो सकता।
65
- वर्तमान आलोचना पर आपकी टिप्पणी क्या है और क्या इसकी दशा,
दिशा और आलोचकों की नयी फसल संतोष देती दिलाती है?
-
समकालीन आलोचना की निंदा करने की ही मन होता है। यह आलोचना है कि मुँहदेखीवाद
है? जो लोग औसत दर्जे के लेखक हैं, उन्हें
प्रथम श्रेणी का दर्जा दिया जा रहा है। सच्चे-अच्छे लेखकों की
कृतियों की चर्चा ही नहीं होती। मेरे जैसे अनेक लेखक इस दौर की आलोचना की घोर निंदा
करते हैं। मेरे सात प्रकाशित उपन्यास हैं। मैं पूछना चाहता हूँ कि कितने आलोचकों ने
इस पर कभी कोई पंक्ति लिखी? हाँ, अगर मैं
आलोचकों तक कृति ले कर पहुँचता, उनका चरण-वंदन करता तो वे मेरे उपन्यास पर सुदीर्घ चर्चा करते। आज जो अफसर हैं,
या आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न पुरुष या महिलाएँ हैं, उनकी कृतियों की फौरन चर्चा हो जाती है। किताब आई नहीं कि उन्हें महान साबित
करने की होड़-सी लग जाती है। अनेक आलोचक धन और स्त्री के गुलाम
हैं। अपनी तृप्ति के अनुरूप में आलोचना का काम करते हैं। इस वक्त अपवादों को छोड़ दें
तो एक भी आलोचक ऐसा नहीं दिखता जो ईमानदारी से समीक्षा करता हो। ईमानदारी से समीक्षा
का आशय यह है कि वह लेखक को नहीं, कृति को देखता है और उस पर
लिखता है। सही आलोचना यही है कि लेखक से मिले-जुले बगैर ही कुछ
लिखा जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। लेखक या लेखिकाएँ आलोचक शरणम् गच्छामि होते हैं तब
उनकी आलोचना लिखी जाती हंै। विस्तार के साथ। और ऐसी हवा बनाई जाती है कि देश में दो-चार ही बड़े लेखक दिखाई पड़ते हैं। साहित्य का दुर्भाग्य है कि आलोचना लगभग
अपराधी किस्म के लोगोंं के हाथों में कैद है। माफिया कहें तो अतिरंजना नहीं होगी। क्या
इन आलोचकों को वे लेखक बिल्कुल ही नहीं दिखाई देते जो ईमानदारी के साथ साहित्य साधना
कर रहे हैं? आज ये मेरी ही नहीं, अनेक लेखकों
की पीड़ा है। आलोचना मतलब संतुलित भाव से चीजों को देखना-परखना,
पर कितने आलोचक ऐसा करते हैं। इसलिए मैं कह सकता हूँ कि आलोचना की दसा
बेहद खराब बै और यही रफ्तार रही तो इसकी दिशा और खराब होगी। और इसका कुपरिणाम यह होगा
कि साहित्य से अच्छी रचनाएँ गायब हो जाएँगी और औसत दर्जे का लेखन पढ़ाया जाता रहेगा।
इधर जो कुछ नये आलोचक आ रहे हैं वे भी पुराने स्कूल के ही विद्यार्थी हैं। वे भी उसी
परम्परा में रमें हैं। उनके पास अलंकारिक भाषा है, आलोचना के
टूल्स तो हैं, पर वह निष्पक्ष विवेक नहीं है, जो आलोचना का मूल त्तव या चरित्र कहा जा सकता है। खास विचारधारा के व्यामोह
में फँसे नये आलोचक भी वही खेल खेल रहे हैं जो पहले के आलोचक खेलते रहे । यहाँ किसी
का नाम नहीं लिया जा सकता क्योंकि किसी की निंदा करना मेरा स्वाभाव नहीं है। पर संकेत
वे लोग बी समझ जाएँगे जिनके लिये मैं अपनी बात कह रहा हूँ। आलोचना मौलिक लेखन नहीं
है, फिर भी वह साहित्य का अनिवार्य हिस्सा है। आलोचना साहित्य
को गति देती है। साहित्य की दिशा भी तय करती है। पर पूर्वाग्रही आलोचनाएँ साहित्य का
कबाड़ा कर रही हैं और भविष्य में भी करती रहेंगी। इसके लिये जरूरी यह भी हो गया है
कि लेखक अपना भी आलोचना समूह बनाये। आलोचना में व्यंग्य साहित्य की उपेक्षा के कारण
अंतत: कुछ व्यंग्यकारों को ही सामने आना पड़ा और उन्होंने आलोचना
का जिम्मा लिया तब कुछ व्यंग्यकारों पर ढँग से रौशनी पड़ सकी। मुझे लगता है निर्मल-निष्पक्ष आलोचना ही साहित्य के उन्नयन में सहायक हो सकती है। अभी वो पवित्रता
दृष्टव्य नहीं हो रही है। भविष्य का पता नहीं।
66
- आलोचना में क्या खास सुधार जरूरी मानते हैं?
-
आलोचना में सबसे महत्वपूर्ण सुधार यह हो कि वह केवल रचना पर फोकस करे।
रचनाकार को न देखे। वे उसका पद, न उसका रुतबा, न उसकी देह-यष्टि, न उसकी दौलत,
न उपहार, न हवाई यात्रा, न पंचतारा होटल। आलोचना ईश्वरीय कार्य की तरह की जाए। उसे साधना समझा जाए।
आलोचना की भाषा सिर से ऊपर निकलने वाली भी न हो। कई बार मैंने यह महसूस किया है कि
जानबूझ कर दुर्गम भाषा गढ़ी जाती है। आलोचना भी साहित्य है। उसे भी कुछ-कुछ बोधगम्य होना चाहिए। ठीक है कि भाषा का लालित्य तो हो मगर एक सीमा तक।
और सबसे बड़ी बात आलोचना समालोचना हो। निष्पक्ष हो। निर्मम तो हो पर रचना पर,
रचनाकार पर नहीं। आलोचना भविष्य के बेहतर साहित्य की नींव भी रखती है।
इसलिए उसकी जिम्मेदारी अधिक है। उसको पाक-साफ तरीके से कृतियों
पर विमर्श करना चाहिए। और जो कृति जिस लायक है उसे उस लायक बताना चाहिए। हिंदी में
इन दिनों अधिमूल्यित (ओवररेटेड) लेखकों
की भरमार है। जो आठ आने के थे, उन्हें सौ रुपये का बता कर खपाया
जा रहा है। जो सौ रुपये के हैं, उनको दो कौड़ी का बताया जा रहा
है, क्योंकि आलोचक के वे न तो मित्र हंै, न उनकी शरण में हैं। अगर आलोचना निष्प्रह भाव से आलोचना करने लगे तो साहित्य
का भला होगा।
67
- एक लेखक के सामने कितनी दिक्कत
है किताब छपवाने-छापने, रचना-प्रकाशन, समीक्षा की? स्तरीय पत्रिकाओं
को लेकर अलग-अलग राग अलग-अलग ढपली का लेखन
नजऱ आता है। इन सबसे लेखकों के मनोबल पर किस तरह का असर पड़ता है?
-
यह बहुत बड़ी समस्या है। आज प्रकाशन जगत में वैसे प्रकाशक नहीं रहे जो
कृति का देखते थे और उसे प्रकाशित कर दते थे। तब प्रकाशक साहित्यकार या साहित्यानुरागी
भी होते थे। उनमें साहित्य की समझ होती थी। वे पांडुलिपि को देखकर उसके पन्ने पलट कर
समझ जाते थे कि यह कृति छापने योग्य है अथवा नहीं। पर अब व्यापारी आ गए हैं। उन्होंने
रचनाओं को परखने के मुनीम उर्फ संपादक रख लिये हैं। ये भी सच है कि एक प्रकाशक सैकड़ों
पांडुपिपियों को देख भी नहीं सकता। तो उनके संपादक अपना खेल खेलते हैं। वे अपने हिसाब
से पांडुलिपियों को चयन करते हैं। कुछ प्रकाशक तय करता है। कौन कलेक्टर है,
कौन पुलिस का अधिकारी है, कौन बड़ी सुंदर लेखिका
है। कौन कितनी खरीदी करवा सकता है। ये सब पैमाने हैं। जिनके आधार पर पुस्तकें प्रकाशित
की जाती है। सौ फीसदी ऐसा नहीं होता। गुणवत्ता भी देखी जाती है। अगर ेेसा नहीं होता
तो मेरी इतनी पुस्तकें प्रकाशित नहीं होती। वैसे अच्छे-समझदार
प्रकाशक भी हैं, जो फोन करके पांडुलिपियाँ मंगाते हैं। तब लगता
है कि अभी कुछ मूल्य बचे हुए हैं। वरना इन दिनों चेहरे देख कर और अपने विशुद्ध लाभ
को समझ कर किताबों छापी जा रही हैं। प्रकाशक भी सोचता है कि दस अच्छी किताबों के बीच
अगर किसी प्रभावशाली अफसर की कोई किताब छाप भी दी तो कोई बात नहीं, उसको लाभ ही होगा। उसकी अन्य किताबें भी अफसर खरीदी करवा देगा। तो,
यह चल रहा है। हर लेखक प्रकाशक के पास पहुँच नहीं पाता। कुछ प्रकाशकों
के इर्दगिर्द वहीं माफिया किस्म के आलोचक बैठे रहते हैं। वे जिसका नाम लेते हैं, उनकी किताब प्रकाशक छाप देता है। यही पैमाना हो गया है। धंधेबाज आलोचक वर्षों
से ये काम कर रहे हैं। इस कारण हो यह रहा है कि जो साहित्य साधक हैं वे अप्रकाशित ही
रह जाते हैं। उनकी पांडुलिपियाँ पड़ी रह जाती हैं। या फिर ये स्थानीय स्तर पर पैसे
खर्च करके छपवा लेते हैं और अंतत: वे पुस्तकें दीमकों की भेंट
चढ़ जाती हैं। अपने खर्च
से किताब छपवा लो तो समीक्षा का संकट भी आ जाता है। पत्रिकाओं में बैठे संपादक लोकप्रिय प्रकाशकों से प्रकाशित पुस्तकों
को पहले देखते हैं। हम जिनको स्तरीय पत्रिकाएँ कहते हैं वहाँ भी एक काकस सक्रिय रहता है।
चौकडिय़ाँ भी कह सकते हैं। वहाँ वे ही लोग छपेंगे जो हर दृष्टि से सम्पन्न हैं। ऐसा
कह रहा हूँ मतलब यह नहीं कि सर्वनाश-ही-सर्वनाश है। अच्छे लोग कहाँ नहीं हैं। हर जगह हैं। पर बुरे लोगों को वर्चस्व
होने के कारण अच्छे लोग दब जाते हैं। खोटे सिक्के अच्छे सिक्के को चलन से ही बाहर कर
देते हैं। साहित्य में यह खूब हो रहा है। इन परिस्थितियों से गुजर कर लेखक टूटता जाता
है। जब उसकी रचना नहीं छपती, लौट कर आ जाती है। या पड़ी रहती
है तो उसमें हीनभावना का जन्म होता है और अगर वो न संभला तो लेखन से ही दूर हो जाता
है। अगर धैर्य के साथ प्रतीक्षा करता है तो काफी लम्बी वेटिंग लिस्ट हो जाती है। फिर
भी प्रतिभा का अपना आकाश मिलता-ही-मिलता
है।
68
- व्यंग्य को लेकर साहित्य में क्या धारणा है ? क्या इसको सम्मानजनक जगह दी गयी है या अखबारी-लेखन मान
कर बासी और चलताऊ- सा मान लिया गया है?
-
व्यंग्य को लेकर साहित्य में कोई बहुत अधिक गंभीरता पहले भी कभी नहीं
देखी गई। उस वक्त भी जब यह कहा जा रहा है कि परसाई व्यंग्य के पितामह हैं। दुखद बात
तो यह है कि परसाई व्यंग्य लिखते थे, मगर व्यंग्य को व्यंग्य
मानने से इंकार करते थे। विधा तो वे कहते ही नहीं थे। इसे शैली बताते थे। व्यंग्य को
निबंध कहते थे। परसाई का झंडा उठाकर चलने वाले प्रगतिशील लोग परसाई के व्यंग्य को कहानियाँ
बतला रहे थे। और ऐसा जो लोग कह रहे थे, उन लोगों के पास ही आलोचना
की ठेकेदारी थी। इसलिए वे जब साहित्य विमर्श करते थे, तो परसाई
की महानता को रेखांकित करते जरूर थे, पर उन्हें व्यंग्यकार नहीं
कहते थे। उनको सामाजिक विद्रूपताओं और विसंगतियों के विरुद्ध लडऩे वाला रचनाकार कहते
थे। बीच-बीच में व्यंग्य शब्द का उपयोग भी करते थे, किंतु ऐसा कभी नहीं लिखते थे कि व्यंग्य साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है। जबकि
उस समय तक व्यंग्य साहित्य की केंद्रीय विधा में तब्दील होता जा रहा था। परसाई के साथ
ही अमृतलाल नागर, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल,
रवींद्रनाथ त्यागी, केपी सक्सेना आदि कुछ अन्य व्यंग्यकार भी व्यंग्य लिखने
लगे थे। धर्मयुग और सारिका जैसी अनेक पत्रिकाएँ नियमित रूप से व्यंग्य प्रकाशित कर
रही थीं। साहित्य में व्यंग्य की धारदार उपस्थिति के साथ अनेक व्यंग्यकार सक्रिय थे।
किंतु साहित्यिक आलोचना में व्यंग्य पर कोई बात नहीं होती थी। इसका नतीजा यह हुआ कि
व्यंग्य साहित्य के हाशिये पर आ गया और व्यंग्य लिखने वाले को दोयम दर्जे की नागरिकता
मिलने लगी। उसे किनारे किया जाने लगा। शरद जोशी को तो प्रगतिशीलों ने लेखक मानने से
ही इंकार कर दिया। मैं गवाह हूँ इस बात का कि मेरे सामने ही भरी सभा में प्रगतिशीलता
के एक थोक ठेकेदार ने कहा कि ''शरद जोशी भी कोई लेखक है,
वो व्यंग्य क्या लिखेंगे। व्यंग्य तो परसाई लिखते हैं।ÓÓ तो, ऐसी मानसिकता ले कर चलने वालों की बहुलता के कारण
साहित्य में व्यंग्य जैसी महान विधा उपेक्षित होती गई। तीन दशक पहले एक निर्णायक मोड़
आया और व्यंग्य को साहित्य में स्थान मिलने लगा। भारतीय ज्ञानपीठ जैसी संस्था ने व्यंग्य
लेखन के लिये पुरस्कार शुरु किये। व्यंग्य साहित्य का प्रकाशन शुरू किया। तब व्यंग्य
का एक साहित्यिक विधा के रूप में सम्मान मिलना शुरू हुआ। अनेक पुस्तकें प्रकाशित होने
लगीं। शरद जोशी, त्यागी, श्रीलाल शुक्ल,
अमृतलाल नागर वगैरह के व्यंग्य निरंतर आने लगे तो चर्चा होने लगी। लेकिन
पिछले दो दशकों से अखबारों में जो व्यंग्य आ रहे हैं उसके कारण व्यंग्य की तेजस्विता
घटी है। और यह आरोप बहुत हद तक सही है कि वह अखबारी हो कर रहा गया है। अखबारों में
व्यंग्य के लिये स्पेस कम होता गया और नये संपादकों को रुझान भी फूहड़ हो गया। वे राजनीतिक
खबरों या तात्कालिक घटनाओं पर व्यंग्य लिखवाने लगे। और उनकी रुचि देख कर व्यंग्यकार
भी डिमांड और सप्लाई के काम मे लग गए। परसाई और जोशी तक तो अखबारों में उनके कालम गरिमापूर्ण
होते थे। मगर उनके जाने के बाद गरिमा भी चली गई।अब वैसे बड़े व्यंग्यकार बी नहीं रहे,
न वैसा समय ही रहा। बाजारवाद के कारण पत्र-पत्रिकाओं
को स्तर गिरा तो उसमें लिखने वालों का स्तर गिरता गया। और आज जो हालत है, वह किसी से छिपी नहीं है। मुझे लगता है कि व्यंग्य की गरिमा को दुबारा स्थापित
करने की जरूरत है। इसके लिए अखबारों से बहुत अधिक उम्मीद तो नहीं की जा सकती। हाँ,
वैचारिक साहित्यिक पत्रिकाएँ यह काम कर सकती हैं। जैसा व्यंग्य के लिए
व्यंग्ययात्रा (सं. प्रेम जनमेजय)
कर रही है।
69
- आपको लिखते हुए करीब तीन दशक से ज्यादा हो गए हैं, तो जाहिर है कि लेखन में बहुत सारे मापदंड वर्जनाएं और आधुनिकता के नाम पर
बहुत कुछ मान्य होने लगा है। इससे लेखन में दृष्टिकोण और लेखन में किस तरह का बदलाव
आया है?
-समय के साथ मूल्य भी बदलते हैं। साहित्य को भी इस परिवर्तन को देखना-सहना पड़ रहा है। पिछले तीन दशकों में मेरे देखते-देखते
पत्रकारिता मिशन से कमीशन में बदल गई। सम्पादक सीईओ हो गए। अखबार विज्ञापन के सामान
बन कर रह गए। अनेक साहित्यिक पत्रिकाएँ बंद हो गीं। इन सब के कारण लेखन भी प्रभावित
हुआ। कल तो जो वज्र्य विषय थे, वे साहित्य की जरूरत बन गये। समलैंगिकता,
लिव-इन रिलेशनशिप, समाज का
पश्चिमीकरण, भारत या हिंदुस्तान का इंडिया में रूपांतरण होता
गया और हम सब स्वीकार करते चले गये। भ्रष्टाचार और सामाजिक पतन को सामाजिक स्वीकृति
मिलने लगी। गाँव-गाँव में जींस और टॉप नजर आने लगे हैं। सलवार-कुर्ता और चुन्नी के दिन बीत गये। नग्नता को आधुनिकता समझढा जाने लगा। व्यभिचार
को अपना अधिकार माना जाने लगा। इन सबका असर साहित्य में भी हुआ। भारत आजाद तो हुआ पर
भाषा के मामले में, संविधान के मामले में, अपनी अस्मिता के मामले में लापरवाह रहा और विदेशी सोच का गुलाम बनता चला गया।
इसका कुपरिणाम ये हुआ कि साहित्य में वो सारा विनाश दृष्टव्य होने लगा। और यह कहा जाने लगा कि ये सब
ही नये भारत बनाम इंडिया का निर्माण करेंगे। पतन को उत्थान का संकेत बताया जाने लगा।
स्त्री-मुक्ति के नाम पर जो कहानियाँ लिखी गईं, से कोकशास्त्रीय लेखन को भी मात करने वाली साबित हुई। हिंदी आलोचना ने इसे महिमामंडित किया और जो लेखिकाएँ अश्लीलता
को अपना हक मान कर कहानियाँ लिख रही थीं, उन्हें महान निरूपित
किया जाने लगा। इसे देख कर बाद की पीढ़ी भी उनका अनुसरण करने लगीं और कहानियाँ बदबू
मारने लगीं। साहित्य की ये सड़ांध अब तक जारी है। पर इसे सड़ांध नहीं, उत्तर आधुनिकता का नाम दिया गया।
जब चारों तरफ वर्जनामुक्त माहौल न•ार आने
लगा तो नया लेख भी उसी धारा में बहने लगा। नतीजा सबके सामने हैं। जो विषय कभी वज्र्य
थे, वे साहित्य के केंद्र में आ गये। कहानियाों में माँ-बहिन की गालियाँ दी जाने लगीं। उसका असर सिनेमा पर भी पड़ा। वहाँ बी खुल कर
गालियों का उपयोग होने लगा। अब तो कुछ व्यंग्यकार और लेखक उपन्यास जैसा कुछ लिखते हैं
तो बेचारे बगैर गाली के कोई वाक्य भी पूर्ण नहीं कर पाते और उनकी इस शैली को आक्रामक
बता कर भूरि-भरि प्रशंसा की जाती है। मतलब यह कि समाकालीन लेखन
में बदलाव -ही-बदलाव है और यह बदलाव कोई
बेहतर नहीं, वरन साहित्य को पतनोन्मुखी बनाने वाला बदलाव है।
साहित्य को खेमों में भी बाँटा गया। समाज का अलगाव साहित्य में भी घुस आया और दलित
लेखन और सवर्ण लेखन की बात होने लगी। और यह विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है कि दलित
लेखन की प्रोत्साहन के बाद सामाजिक नफरत किस हद तक बढ़ती जा रही है। साहित्य केवल साहित्य
है। वह न तो दलित होता है, न सवर्ण, न हिंदू
होता है न मुसलमान। पर अब सब हो रहा है। और उसके बाद भी कहते हैं कि हम प्रगति कर रहे
हैं। खाक प्रगति कर रहे हैं। हम और पीछे जा रहे हैं। मध्ययुगीन हो रहे हैं। साहित्य
के प्रगतिशील मूल्य मनुष्य और समाज को खेमाों में, जातियों में,
वर्गों में बाँटने वाले नहीं हो सकते। मगर यह हो रहा है। बहुत हद तक
राजनीति भी इसके लिये जिम्मेदार है। साहित्य की राजनीति भी, और
देश चलाने वाली राजनीति भी।
70
- आज व्यग्ंय तीखा हो कर किस तरह का स्वरूप गढ़ रहा है?
-
दुख की बात है कि आज का व्यंग्य तीखा नहीं रह गया। वह भेलपूरी बनता जा
रहा है। तीखापन खत्म तिरोहित होता जा रहा है। उसकी धार भोथरी हो गई है। अब व्यंग्य
लगता है बोंसाई-सा हो गया है। लगता है कि आम का पेड़ है पर वह
गमले में उगा हुआ है। या कहें कि पिंजरे का मरहा शेर बन कर रह गया है। व्यंग्य की हालत
भी लगभग वैसी है। ऊपर लिखा रहता है व्यंग्य पर पढऩे लगो तो व्यंग्य का पता नहीं चलता।
वह आम निबंध की तरह लिखा जा रहा है। जो तीखा लिख रहे हैं, उनके
लिये कहीं कोई जगह नहीं है। अब व्यंग्य सॉफ्ट हो गए हैं। परसाई-जोशी जैसी धार नहीं मिलती। इक्का-दुक्का व्यंग्यकार हैं
जो बेबाकी के साथ लिख रहे हैं और धारदार लिख रहे हैं। लेकिन उनके व्यंग्य पत्र-पत्रिकाओं में नहीं, उनके संग्रहों में नजऱ आते हैं।
क्यों कि वैसे व्यंग्य कोई छापना नहीं चाहता। अनेक पत्र-पत्रिकाएँ
सत्ता के साथ चलती हैं। उनके न्यस्त स्वार्थ होते हैं। वे व्यंग्य का पैनापन पसंद नहीं
करते । हाँ उनकी खास विचारधारा हो तो दूसरी विचारधारा पर प्रहार के लिये वे व्यंग्य
की धार को पैना कर सकती हैं। अमूमन व्यंग्य सामान्य स्तर के हो कर रह गये हैं। और यही
रफ्तार रही तो व्यंग्य वैसे व्यंग्य नहीं रह जाएँगे, जैसे कभी
होते थे। पर अभी संतोष यही है कि पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य
आ रहे हैं। और कभी-कभी कुछ बहुत अच्छे भी आ जाते हैं।
71
- पाठकों-श्रोताओं-दर्शकों की कई दौर की पीढ़ी को आपने करीब से
देखा है, इन पर क्या कहना है?
-
समाज में ये तीनों वर्ग शुरू से जरूरी रहे हैं। इनके बगैर कोई भी कला
फल-फूल नहीं सकती। लेकिन समय के साथ इनमें विकृतियाँ भी आती गईं,
जिनका परिमार्जन साहित्य का काम है। पहले पाठक धार्मिक या सत्साहित्य
पढ़ता था, बाद में वह अश्लील या लुग्दी-साहित्य की ओर झकुने लगा। श्रोता पहले कवि सम्मेलनों में अच्छी कविताओं को
सुनते थे, बाद में वे फूहड़ कविताओं पर रीझने लगे। अच्छी कविताएँ
मंच पर हूट होने लगीं। इसी तरह दर्शक भी परिवर्तित होते रहे। पहले सोद्देश्य नाटकों
या फिल्मों को दर्शक मिल जाते थे, बाद में केवल हास्य नाटकों
या सस्ते मनोरंजन से भरपूर फिल्मों का लोग पसंद करने लगे। फिर यह कहा जाने लगा कि लोगों
की पसंद के अनुरूप हम सृजन कर रहे हैं। जबकि मुझे लगता है साहित्य लोक परिष्कार का
भी काम करता है। साहित्य लोगों के पीछे नहीं चलता वरन् उसके पीछे समाज चलता है। सच्चा
साहित्य वही है, जो मंगल की भावना से सृजित हो। जो खतरे उठाकर
श्रेष्ठ सृजन करे। जन अभिरुचि बढ़े इस दिशा में काम करना चाहिए पर समाज की रुचि विकृत
हो रही है तो उसके विरुद्ध भी खड़ा होना पड़ेगा। हम कई बार देखते हैं कि साहित्य में
अश्लीलता, फूहड़ता का वर्चस्व दीखता है। इसके पीछे बा•ाार में बिकने की ललक अधिक होती है। अँगरेजी साहित्य में ऐसा प्रचलन है। वहाँ
अश्लीलत को स्वीकृति मिली है। घटियाभाषा और निकृष्ट कथानक वहाँ हिट होते रहते हैं।
उसे देख कर हिंदी में भी यह रोग लगने लगा है। फिर भी मैं मानता हूँ कि अभी भी लाखों
पाठ-दर्शक और श्रोता अच्छी रचनाएँ पसंद करते हैं और ेेसे लोगों
के कारण ही श्रेष्ठता अभिनंदनीय होती है।
72
- किसी भी लेखन-गायन या फिल्मों के लिए ऑक्सीजन
यही दर्शक श्रोता और पाठक ही होते हैं । पिछले तीन दशक के अलग अलग कालखंड के लेखन माध्यम
और पाठकों में आ रहे या आए बदलाव पर किस तरह की चिंता और टिप्पणी जाहिर करेंगे और आने
वाले समय में पाठकों श्रोताओं या दर्शकों की रुचि में किस तरह के बदलाव की आशंका है?
-
मुझे लगता है कि पिछले तीन दशक परिवर्तनकारी रहे हैं। साहित्य का ट्रेंड
बदला और फिल्मों का भी। मंचों का भी। समाज शायद एक रसता से ऊब जाता है इसीलिए उसे अब
कानफोड़ू-डीजे में आनंद आता है। शादी-ब्याह
या अन्य समारोहों में डीजे जरूरी है। अभद्रताओं से भरे गाने और उस पर थिरकते लोग। पहले समारोहों
में शहनाई बजती रहती थी। एक शालीन वातावरण रहता था। लोग आपस में बातचीत भी तकर लेते
थे। अब इतना शोर होता है कि केवल इशारे में ही बात कर सकते हैं। यही हाल साहित्य में
हो रहा है। साहित्य लाउड हो रहा है। अराजकता बढ़ रही है। गैर साहित्यिक सामग्री अधिक पसंद
की जा रही है। साहित्य को पूछ-परख कम हुई है। पाठक साहित्य से
कुछ विमुख हुआ है तो इसका कारण साहित्यकार ही हैं। वे ऐसा साहित्य क्यों नहीं रचते
कि पाठ उनकी ओर खिंचा चला आए। इसके लिये उसको प्रभावित करने वाला साहित्य रचा जाना
चाहिए। मतलब यह नहीं कि साहित्य को विकृत किया जाए। पाठक को सुसंकृत किया जाए। इसमें
समय लग सकता है पर यह काम होना चाहिए। फिल्में अश्लील हो रही हैं, लोग उन्हें पसंद कर रहे हैं। यह दुखद है। फिर भी इन सबके बीच अगर मूल्यों को
स्थापित करने वाली फिल्में आती हैं तो वे भी चलती हैं। मतलब यह है कि कहानी और उसकी प्रस्तुति में दम होना चाहिए।
साहित्य के पाठक भी उन किताबों को पसंद करेंगे जिनकी भाषा आकर्षक होगी, और जिनके कथानक में नयापन होगा।
73
- मीडिया, अखबार और रेडियो समेत लेखन और प्रकाशित
होने वाली किताबों को लेकर प्रकाशकों के नजरिए में क्या बदलाव आ रहे हैं?
-
आज का प्रकाशक अधुनातन किताबें चाहता है। बाजार में व्यक्तित्व विकास
से संबंधित पुस्तकें खूब बिक रही हैं। धार्मिक साहित्य भी अच्छा-खासा बिक रहा है। नये विषयों की तलाश में प्रकाशक लेखकों से किताबें लिखवा
रहा है। यह समय सापेक्ष भी है। प्रकाशकों ने मेरे उपन्यास पसंद किये क्योंकि उनमें
नवीनता था। मीडिया के बदलते चरित्र पर मैंने उपन्यास लिखा 'मीडियाय
नम:Ó। उसे प्रकाशक ने पसंद किया और फौरन छापा। उसकी प्रतियाँ
तेजी के साथ बिकीं। नक्सल समस्या पर मैंने उपन्यास लिखा-'टाउनहॉल
में नक्सलीÓ। उसे भी अच्छा प्रतिसाद मिला। भारतीय गायों की दुर्दशा
्किसी से छिपी नहीं है। उस पर कोई उपन्यास भी लिखा जा सकता है, यह आश्चर्यजनक बात थी। एक नये प्रकाशक ने छापा। और बाद में हालत ये हुई कि
दो और प्रकाशकों ने उसे छापा और किताब की हजारों प्रतियाँ छप कर लोगों तक पहुँची। मेरे
जीवन के अनुभव नामक मेरी किताब भी हजारों पाठकों ने पसंद की। मतलब प्रकाशक मीडिया में
जगह पाने वाले मुद्दों का पसंद करता है इसीलिए इन दिनों मीडिया से संबंधित अनेक पुस्तकें
बाजार में भरी पड़ी हैं।
74- इस तरह के बदलाव से आने वाले समय
में साहित्य-सृजन और रचनात्मकता पर कैसा प्रभाव पड़ेगा?
-ये बदलाव अच्छे संकेत देने वाले हैं। इससे साहित्य की एकरसता या जड़ता टूटेगी
और साहित्य को नया आस्वादन मिलेगा। मीडिया समेत अन्य विषयों पर किताबें आएँगी तो साहित्य
ही समृद्ध होगा। लेखकों का रचनात्मक विकास होगा। साहित्य में सृजन के नये रंग देखने
को मिलेंगे। इसलिए हमारे समालोचकों का दायित्व है कि अगर विषय से हटकर कोई कृति आती
है तो बिना किसी अपेक्षा के उन पर लिखना चाहिए। वरना जो नये प्रयास हो रहे हैं,
वे उपेक्षित और अचर्चित रह जाएँगे। उन पर चर्चा होगी तो लेखक की मेहनत
सफल होगी औप प्रकाशकों का भी हौसला बढ़ेगा।
75
- हास्य लेखन में आपने पिछले एक दशक के दौरान किस तरह का कुछ खास बदलाव
या नयापन को देखा और इसे कितना सार्थक माना? हास्य लेखन की उपयोगिता
क्या आज और ज्यादा बढ़ी है अथवा पाठकों में कमी आयी है?
-
हास्य लेखन में तेजी आई है। जन- जीवन में निराशा
का प्रतिशत बढ़ा है। समाज में आपसी संघर्ष बढ़ा है। लोग तनावपूर्ण जीवन जी रहे हैं।
महंगाई बड़ा कारण है। राजनीतिक-प्रशासकीय विफलताओं के चलते देश
में अराजकता भी बढ़ी है। इस कारण लोगों में हास्य लेखक के प्रति रुचि बढ़ी है। तनाव-तल्खीभरे जीवन में हास्य नया रंग भर देते हैं। हास्य मनुष्य की पुरातन फितरत
है। हँसी को जीवन का प्रभात कहा गया
है और रोना जीवन का अंधेरा है। कौन चाहेगा जीवन में अंधेरा
? इसलिए जीवन का उजाले से भरने के लिए लोगों को हँसने की सलाह दी जाती
है। अब तो लाफ्टर क्लब खुल गए हैं। लाफ्टर-शो होने लगे हैं। साहित्य
के साथ-साथ चुटकुलों की पुस्तकें भी खूब बिक रही हैं। इसीलिए
व्यंग्य साहित्य का प्रकाशन भी खूब हो रहा है। हास्य जीवन का केंद्र बनता जा रहा है
इसलिए अब केवल हास्य कवि सम्मेलन अधिक होते हैं। ये सब तो ठीक है पर अब हास्य के नाम
पर द्विअर्थी संवाद अधिक होने लगे हैं। टीवी कार्यक्रमों में फूहड़ता असहनीय स्थितियों
तक पहुँच जाती है। फिर भी लोग हास्य कार्यक्रम पसंद करते हैं। उसी तरह साहित्य में
हो रहे हास्य लेखन का भी पाठक स्वागत करते हैं। लेकिन अब विशुद्ध हास्य की किताबें
नहीं आतीं। हास्य के साथ व्यंग्य प्रमुख हो गया है। और निजी अनुभव है कि व्यंग्य के
पाठकों में क्रांतिकारी बढ़ोत्तरी हुई है।
76
- अपने सहकर्मियों के बीच अमूमन अब किस तरह की चिंता प्रकट होने या मुखर
होने लगी है?
-
अपने संगी-साथियों के बीच अब बाजारवाद को लेकर
अधिक चिंताएँ होती हैं। बदलते हुए समय को लेकर गंभीर विमर्श होते रहते हैं। समाज में अब अच्छे लोग
किनारे होते जा रहै हैं और लुच्चे-लफंगे महत्व प्राप्त कर रहे
हैं। राजनीति में धनिकों और अपराधियों का वर्चस्व बढ़ा है। प्रशासन में लोक सेवक नहीं,
लोक लुटेरे बढ़ गए हैं। अफसर बन कर जो नया चेहरा आता है वह पहली भेंट
में जो विार व्यक्त करता है, वे बड़े क्रांतिकारी होते हैं। लगता
है यही देश का निर्माता होगा। पर जब वह नौकरी करने लगा है, तब
वह आदर्श भूलकर सस्टिम का हिस्सा बन जाता है और सड़ांध कुछ और तेज हो जाती है। आजादी
के बाद जिस भारत का सपना उस समय के चालीस करोड़ लोगों ने देखा था, वहीं सपना आज सवा सौ करोड़ लोग देख रहे हैं। भौतिक विकास तो सहज स्वाभाविक
घटना थी। उसे तो होना ही था। इसमें सरकार या प्रशासन की कोई बड़ी भूमिका नहीं थी। सबसे
बड़ी बात यह है कि जिस समतावादी, लोकतांत्रिक भारत की हम कल्पना
करते थे, वह भारत नजर नहीं आता। गांधी या हमारे अनेक क्रांतिकारियों
ने सपना देखा था कि आजादी के बाद इस देश में समाजवाद आएगा, लोगों
को दमन से मुक्ति मिलेगी। आपसी सदभाव बढ़ेगा, पर आज इन सब बातों
की कमी दीखती है। हमारी अपनी राष्ट्रभाषा नहीं है। अँगरे•ाों
के समय के कानून अब तक चल रहे हैं। हमारी अपनी सांस्कृतिक पहचान लुप्त-सी हो गई है। आधुनिकता के चक्कर में समाज नकलची बंदर बन कर रह गया है। लोकतांत्रिक
ताकतें किनारे हैं। प्रतिरोध करने वालों का दमन होता है। पुलिस बेहद क्रूर हो चुकी
है। निरंकुश कह सकते हैं। बिल्कुल वर्दीधारी गुंडों जैसी है वह। ऐसे में हमारी आजादी
का क्या अर्थ? इन्हीं तमाम बातों पर हम सोचते हैं। बस,
सोचते हैं, लिखते भी हैं, पर उसका समाधान हमारे पास नहीं है।
77
- आप एक सक्षम गजलकार भी हैं।
सामयिक मुद्दों पर तो आप कम्प्यूटर से भी तेज और मारक शायर के रूप में पहचाने जाने
लगे हैं। क्या कहेंगे आप?
-
इस अतिरंजित तारीफ के लिये धन्यवाद ही दूँगा और यह स्वीकार करना चाहता
हूँ कि गक़ा़लों के माध्यम से मैं लोगों के बीच तेजी के साथ पहुँच सका हूँ।
$ग•ाल लोकप्रिय विधा है। पुरातन विधा है। हिंदी
में अब वह धूम मचा रही है। मैं खुद को दुष्यंत और अदम गोंडवी की परम्परा का संवाहक
मान कर लिखता हूँ। और सच कहँू तो ये ऐसी विधा है जो लिखी नहीं जाती, यह उतरती है। कही जाती है। यह अनायास बनती है। इसे बैठ कर लिखा नहीं जाता ।
ऐसा कोई बड़ा महान लिक्खाड़ ही होगा जो कहता है कि आज मैं दो-चार ग•ालें लिखूँगा। फेसबुक के आने के बाद मैंने उसमें
अपने सम-सामयिक विचार दिए और बाद में $ग•ा़लें भी देने लगा। कुछ जो पहले से कही जा चुकी थीं, उनका पोस्ट किया और बाद में ऐसा होने लगा कि शेर अपने आप ही बनने लगे। देश के
हालात पर, घटनाओं पर। लेकिन मेरी कोशिश यही रही कि $ग•ा़लें निहायत खबरी न हों। सुबह लिखी और शाम को मर गई।
मानवीय प्रवृत्तियों पर लिखी जाने वाली ग•ा़लें ही महत्वपूर्ण होती हैं। और मैंने
यही कोशिश की । मुझे खुशी है यह बताते हुए कि मेरी ग•ा़लों को
लोगों ने बेहद लाइक (फेसबुक की भाषा में) किया और बेहिसाब टिप्पणियों से स्वीकृति दी। कुछ ग•ा़लों
को तो साठ -सत्तर लोगों ने शेयर तक किया। मेरी सहज-सरल शैली से लोग प्रभावित हुए। और अनेक लोगों ने मार्गदर्शन भी चाहा तो जो
समझ थी, उसके अनुरूप उन्हें बताने की कोशिश भी की। मेरा अपना
मानना है-
गीत
हो या के ग•ा़ल हो दोस्तो
बात
सीधी हो सरल हो दोस्तो
सीधी-सरल बातें लोग पसंद करते हैं। दुरूह चीजें पसंद नहीं की जाती। ग•ा़ल का अपना शास्त्र है। उसके अनुसार वह लिखी जाना चाहिए। पर जो दिल से निकलती
है, उसका क्या। मेरी ग•ा़लें दिल से निकलती
हैं और ग•ा़ल के शास्त्र का जानने वाले कहते हैं आपकी ग•ा़ल फलां-फलां बहर पर है। तब सुन कर अच्छा लगता है कि
मेरी ग•ा़लें तकुबंदी नहीं हैं, वे ग•ा़ल के निकष पर भी खरी हैं। रदीफ-काफिया, व•ान इन सबके बिना ग•ा़ल पूर्ण
नहीं होती और असर भी नहीं डालती। उसमें भावनाएँ भी हों और शास्त्रीयता भी। और इन सब
बातों को वर्षो तक अभ्यास किया है। उर्दू शायरी की महान परम्परा को देखा-समझा, उर्दू भी सीखी-लिखी। किसी
भी विधा में माहिर होने के लिये उसमें गहरे प्रवेश करना पड़ता है। मेरी ग•ा़लें हिंदी
प्रकृति की हैं इसलिए उसे अनेक मित्र गीतिका भी कहते हैं जिसे मैं स्वीकार करता हूँ।
मेरी मातृभाषा हिंदी है, उर्दू नहीं। लेकिन मैं लिखता हूँ हिंदुस्तावानी में । हिंदुस्तानी यानी वह भाषा जिसमें
हिंदी भी है और उर्दू भी। ग•ा़ल को मैं भाषाओं की दीवार में बाँट
कर नहीं देखता। उसे अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम समझता हूँ। संतोष की बात है कि मुझे
व्यंग्य के साथ-साथ एक शाइर के रूप में भी लोगों ने पहचाना। फेसबुक
से जुड़े अनेक लोगों को मेरे व्यंग्यकार रूप का पता भी नहीं है। और मैं इसे लेकर चिंतित
भी नहीं। किसी भी रूप में लोग मुझे प्यार देते हैं, यही मेरे
लिये बड़ी बात है।
78
- आपकी गजलों में रदीफ-काफिया चाक-चौबंद होते हैं और बहुत कम शब्दों में आप अपनी बात कर देते हैं। जैसे देखन में छोटन लगे और घाव करे गंभीर।
इस तरह की गज़़लों के माहिर मैं केवल विज्ञान व्रत जी को देखता और मानवता हूं।
(मेरा ज्ञान और जानकारी की सीमा है। बुरा मानने वालों से क्षमा याचना
सहित) आपने खुद को एक गक़ा़लकार की तरह क्यों नहीं विकसित किया?
-
आभार कि आपने मेरी शाइरी को चर्चा के लायक समझा। छोटी बहर में या सहज-सरल तरीके से लिखने वालों में अग्रज शाइर विज्ञान व्रत के अलावा और भी हैं।
अनेक हैं पर अभी मुझे दो नाम याद आ रहे हैं। जहीर कुरैशी और चंद्रसेन विराट। विनोद
तिवारी भी थे। इधर लम्बी फेहरिश्त है। सबके नाम नहीं ले सकूँगा। लेकिन मैंने नाम लिये
हैं इसलिए यह आरोप नहीं लग सकता कि मैंने किसी का नाम नहीं लिया। क्योंकि यह मानसिकता
है कि केवल मैं -ही- मैं, दूसरा कोई नहीं। छोटी बहर में लिखने का सहज अभ्यास नहीं है। ग•ा़ल लिखते-लिखते बन जाती है। और अक्सर बहर छोटी ही रहती
है। या तो छोटी रहेगी या फिर जो बनेगी, वह बेहद सहज-सरल, जैसे पाठक से बतिया रही हो। रही बात खुद को ग•ा़लकार के रूप में विकसित करने की, तो इस बारे में मैंने
कभी गंभाीरता से सोचा ही नहीं कि मुझे ग•ा़लकार बनना है। अगर
केवल उस पर एकाग्र किया होता और मेरे केवल ग•ा़ल संग्रह आए होते
तो उस रूप में पहचान बनती, पर मैंने अपने को व्यंग्य क्षेत्र
तक सीमित किया। लेखक बनना है यह सोचता था। व्यंग्यकार भी बनना है, इसके बारे में भी गंभीर था, पर ग•ा़ल की दुनिया में भी कुछ करना है। इस बारे में विचार ही नहीं करता था। पर
अचेतन में शाइरी बैठी हुई थी और वह समय-समय पर सामने आती रहीं।
व्यंग्य लेखन के साथ -साथ समानांतर रूप से शाइरी भी करता रहता
था। इसलिए दो ग•ा़ल संग्रह भी छपे, आँखों
का मधुमास और यादों में रहता है कोई। कुछ और संग्रह भी प्रकाशित होंगे, पर मेरे मन में इस बात को मोह या जिद नहीं रही कि मुझे ग•ा़लकार के रूप में भी जाना जाए। बस, लिखता रहता हूँ।
अगर आप जैसे मित्र उसे पसंद करते हैं, तो लिखना सार्थक हो जाता
है।
79
- कवि सम्मेलनों में भी आप लगातार जाते रहते हैं । कल (अतीत) आज (वर्तमान) और कल यानी (आने वाला कल) की तुलना
और विश्लेषण को आप किस तरह प्रस्तुत करेंगे?
-कवि सम्मेलनों में मैं शुरू से जाता रहा हूँ। पर अब काफी कम कर दिया है। क्योंकि
वहाँ आपको कवि कम, एक नाटक-नौटंकीबाज के
रूप में अधिक प्रस्तुत होना होता है। इसीलिए मंच पर कविता प्रस्तुति का परफार्मिंग
आर्ट भी कहने लगे हैं। वहाँ आप को वीर रस की रचना भी प्रस्तुत करनी है तो पहले कुछ चुटकुले सुनाने
होंगे, श्रोताओं को हँसाना होगा, उसका मनोरंजन
करना होगा। वहाँ बहुत गंभीर हो कर आप टिक नहीं सकते और हम लोग फितरत से गंभीर हैं।
अपनी बात कहने के लिए चुटकुलों का सहारा ले नहीं सकते। कुछ दशक पहले तक कवि सम्मेलनों
में महान कवि भी रचना
पढ़ते रहे हैं। महादेवी, निराला और मुक्तिबोध तक। पर अब आज संभव
नहीं। सब हूट कर दिए जाएँगे। अब मंच पर जो चेहरे लोकप्रिय हैं, उनका नाम लेकर कलम का अपमान नहीं करना चाहता । ये लोग मंच पर घंटो खड़े रहते
हैं। लोगों को हँसाते रहते हैं और दो-एक कविता सुना दी तो बहुत।
श्रोता अब हास्य कलाकार राजू श्रीवास्तव की तरह कवि को भी देखना चाहता है। इसलिए हमारे
जैसे लोग उस खांचे में फिट नहीं हो सकते। कभी शरद जोशी, और केपी
सक्सेना मंच पर व्यंग्य पाठ करते थे तो उवे उस तरह की रचनाएँ चयनित करते थे जिनमें
हास्य के त्तव अधिक होँ। वे लोग हल्क ी-सी नाटकीयता के साथ व्यंग्य
पढ़ते थे। अब ऐसी कला हम लोगों के पास है नहीं, इसलिए हिम्मत
भी नहीं करते। आने वाले समय में मंच पर हास्यप्रधान रचना ही पसंद की जाएगी। दो साल
पहले दिल्ली में मैंने अपना व्यंग्य पढ़ा था- 'ई मनुष्य से मुलाकातÓ
। उसे सुनने के बाद अनेक श्रोताओं ने खड़े हो कर तालियाँ बजाई और मुझसे
मिल कर बधाइयाँ दीं। उसमें कुछ अधिक विनोद है शायद। तो कभी-कभी
कोई रचना अधिक रंजक होने के कारण पसंद कर ली जाती है। पर हम लोग चूँकि व्यंग्य पसंद
करते हैं रचना को मंचीय बनाने की प्रतिभा को विकसित नहीं कर पाते। इसलिए अब मंच पर
जाना कम बहुत कम है। फेसबुक ही अपना नया मंच हैं जहाँ हजारों लोगों से प्रतिदिन संवाद
करते हैं और उनकी सराहना से ही खुश होते रहते हैं।
80
- कवियों-शायरों और पाठकों के बीच के संबंधों में
किस तरह संवादहीनता आई है?
-
मैं ऐसा नहीं मानता कि कवि-पाठक के बीच कोई संवादहीनता
आई है। अपना ही अनुभव बताता हूँ कि फेसबुक और अन्य पत्र-पत्रिकाओं
में मेरी ग•ा़लें प्रकाशित होती हैं तो फोन आते हैं। लोग रचना
पर बात करते हैं। हाँ, कई बार प्रकाशित ग•ा़ल के साथ मोबाइल नंबर नहीं होता तो लोग संपर्क नहीं करते, और अगर मोबाइल नंबर है तो लोग फोन करते हैं। अगर पता प्रकाशित है तो पाठक पत्र
भी लिखते हैं। यह आज की बात नहीं। पहले भी ऐसा होता था। कई बार पाठक पढ़ लेता है और
प्रतिक्रिया के मामले में उदासीन बना रहता है। उसकी अपनी मानसिकता होती है। कभी प्रतिक्रिया
देगा, कभी नहीं। उसकी परवाह भी नहीं करनी चाहिए। आपकी रचना को
कितनों ने पंसद किया, कितनों ने प्रतिक्रिया दी, यह पैमाना ठीक नहीं। रचनाकार को लिखते रहना चाहिए। देर सबेर प्रतिक्रिया भी
मिलेगी। वैसे कुछ पाठक उदासीन भी होते हैं, उनका हम कुछ नहीं
कर सकते।
81
- क्या इसके लिए टीवी-युग को दोषी मानें या इस
भागदौड़ के दौर में समय की कमी को?
-
थोड़ा-थोड़ा-सा इन सबको दोषी
माना जा सकता है। टीवी में सैकड़ों चैनल हैं। घरों में नल नहीं होगा, पर चैनल जरूर होंगे। लोग इसी में रमें रहते हैं। इसलिए पढऩे से कट रहे हैं।
भागदौड़ भी एक बड़ा कारण है। सबसे बड़ा कारण है मोबाइल और उस पर भी इंटरनेट कनेक्शन
वाला स्मार्ट मोबाइल, जिसमें फेसबुक है, व्हाटसएप है। ट्विटर है। गूगल है। यानी व्यस्त रहने का पूरा बंदोबस्त। अब ऐसी स्थिति
में आदमी उसी में लगा रहता है। ज्ञान का खजाना वहाँ है, मूर्खता
का खजाना भी वहीं है। सब अपनी-अपनी अभिरुचियों के अनुसार लगे
रहते हैं मुन्नाभाई की तरह। घंटों बिता देते हैं लोग पर पुस्तकें नहीं पढ़ते। और कहते
हैं टाइम किसके पास है। ऐेसे लोगों से हम उम्मीद नहीं कर सकते और यह लत धीरे-धीरे फैलती जा रही है। छूत की बीमारी की तरह। आने वाले दिन और कठिन रहेंगे।
इसलिए जरूरी है कि हम लेखक और जागरूक मिल कर समाज में पठन-पाठन
की संस्कृति की जीवित रखें। वरना जैसे आज हम ई- मनुष्य बनते जा
रहे हैं तो पुस्तकें भी सौ फीसदी ई-बुक्स हो जाएँगी। जबकि सच
पूछा जाए तो आज भी पुस्तक को हाथ में ले कर पढऩे का आनंद ही कुछ और है। बिजली गुल हो
जाए तो सूरज की रौशनी के सहारे भी हम पढ़ सकते हैं। पर ई बुक को बिजली बगैर पढऩा संभव
नहीं।
82
- कवि सम्मेलनों और मुशायरों के आयोजनों में कमी आई है। वैसे पहले की
तुलना में आयोजकों द्वारा खर्च ज्यादा किए जा रहे हैं। एक कवि के साथ पाठक साहित्यप्रेमी
और श्रोताओं की तरफ से आप किस तरह का बचाव करना चाहेंगे या कमियों को सामने रखना जरूरी
मानते हैं?
-
पहले के मुकाबले में आयोजनों में कमी इसलिए आई है कि अब जो कवि या शायर
है, वो चालाक हो गया है। वह मंच पर जा-जाकर
लोकप्रिय हो गया है तो अब उसका ऊँचा दाम हो चुका है। अनेक मंचीय कवि एक लाख से ऊपर
पारिश्रमिक ले रहे हैं। कुछ मंच की कला में माहिर हो चुके तो और बड़े कलाकार है। वे
तीन-चार लाख तक लेते हैं। क्योंकि वे कवि कम, मिमिक्री कलाकार अधिक हैं। वे मंच पर खड़े होते हैं, और एक घंटे तक श्रोताओं का मनारेंजन करते हैं। चुटकुले सुनाते हैं,
भाव-भंगिमाओं से हँसाते हैं। खड़े रहते हैं मंच
पर। वे सिद्धहस्त हो चुके हैं, ठगने में । उनके पास कविता कम
है, कलाकारी अधिक है। इसलिए उनका रेट अधिक है। ऐसे अनेक कवि हैं।
कोई आयोजक जब इन लोकप्रिय कवियों से संपर्क करता है, तो उनका
रेट सुन कर उसकी हिम्मत जवाब दे जाती है। मगर अभी भी कुछ सेठ-साहूकार हैं, जो खर्च करते हैं। और कवि सम्मेलन करते
रहते हैं। एक महंगे कवि सम्मेलन होते हैं तो दूसरे स्थानीय स्तर के सस्ते कवि सम्मेलन।
यहाँ कुछ कवि अच्छे होते हैं, पर वे मंच की कलाा में पारंगत हो
रहे होते हैं। बाद में इनके रेट भी बढ़ेंगे। मैं अनेक कवि सम्मेलनों में गया हूँ इसलिए
यह सब कह पा रहा हूँ। मुझे मंच की नाटकीयता पीड़ा पहुँचाती है। मैं न कवियों का बचाव
करूँगा, न श्रोताओं का, यह समय का बदलता
चरित्र है, उसे स्वीकारना पड़ेगा। अब विशुद्ध कविता मंच पर नहीं
चलेगी। उसमें मनोरंजन का तड़का लगाना ही होगा।
83-
आपकी अपनी नजर में आपकी कौन-कौन-सी कृति बेहतर है और खराब या कम गुणवत्ता की है?
-मेरी न•ार में मेरी हर कृति बेहतर है। प्रकाशित इक्यावन
पुस्तकें हंै। पांडुलिपियाँ भी लगभग दस तैयार हैं। जैसे माँ की नजर में उसकी हर औलाद
होती है। लेकिन इतना तो है कि हमें अपना मूल््यांकन स्वयं करना चाहिए। और जब आत्म मूल्यांकन
करता हूँ तो पाता हूँ पुरानी सभी कृतियाँ अच्छी हैं, पर उन्हें
अभी फिर से परिमार्जित करूँगा तो उनकी भाषा और बेहतर हो जाएगी। पुरानी रचनाओं को देखता
हूँ कि वे कथ्य के हिसाब से तो ठीक हैं, पर उनकी भाषा-शैली अब कुछ कमजोर लगने लगी है। मैं अपने लगभग तमाम पुराने व्यंग्यों को मैं
फिर से दुरुस्त करना चाहता हूँ। निसंदेह आज के परिप्रेक्ष्य में तीस साल पहले लिखी
गई रचनाएँ कम गुणवत्ता वाली लग सकती हैं और वे हैं भी। तीस सालों में रचनाात्मक समझ
बढ़ी है, भाषा की दृष्टि से भी कुछ आगे की यात्रा हुई है,
इसलिए अब मुझे अपनी ही रचनाओं को और अधिक बेहतर बनाने का काम करना है।
उनको और अधिक प्रासंगिक बनाना है।
84
- एक लेखक और कवि के रूप में आप देश भर का दौरा करते रहे हैं। शहरी महानगरीय लेखकों के प्रति छोटे-छोटे गाँव-शहर-कस्बों के लोगों
की धारणा कैसी है?
-
मेरा अपना अनुभव है कि महानगरों के लेखकों को छोटे-छोटे गाँव-कस्बे के लोग ठग या परम स्वार्थी के रूप में
ही देखते हैं। महानगर के लेखक छोटे कस्बें में आते हैं तो वहाँ के लेखकों को अपने मसीहाई
अंदाज से प्रभावित करते हैं। उनके आतिथ्य का लाभ उठाते हैं और उन्हें अपने शहर में
आमंत्रित भी करते हैं। और मगर मान लीजिए कस्बे का लेखक कभी महानगर चला गया और उसने
उस लेखक से मिलने की कोशिश की तो लेखक फौरन व्यस्त हो जाएगा। देखता हूँ, बताता हूँ कहते हुए बहाने बनाएगा। मिलेगा ही नहीं। ऐसे अनेक शातिर-माफिया लेखक हिंदी में फैले हुए हैं। दरअसल ये नकली लोग हैं। साहित्य खरेपन
की मांग करता है। पर हर कोई खरा नहीं होता। महानगर में रहने वाले लेखकों को अपना यह
फरेबी चरित्र सुधारना चाहिए। कस्बे या गांव का कोई लेखक बड़ी हसरत से उनसे मिलने पहुँचता
है। अगर हम उनको थोड़ा-सा स्नेह दे दें, एक बार मिल लें, ताय-नाश्ता का
दें, तो लेखक जीवन भर के लिए ऋणी हो सकता है पर सज्जनता-महानता के लिए बड़ा त्याग करना पड़ता है। महानगर का लेखक लूटने की कला में
माहिर होता है, देना उसकी फितरत में कम ही होता है। लेखकों की
तरह हमारे नेता भी लगभग ऐसा करते हैं। लोगों से कहते हैं आकर मिलना और जब कोई उनसे
आकर मिलता है तो उसे पहचानते भी नहीं। शायद यह महानगरीय चरित्र की विशेषता ही है।
85
- छोटे-छोटे शहरों से आनेे वाले लेखकों को आप किस
तरह देखते हैं?
-
छोटे-छोटे शहरों में रहने वाले लेखक दिल से ईमानदार
होते हैं। वे अध्ययनशील होते हैं। खूब पढ़ते हैं। वे साहित्य को अपने सुंदर प्रदेय
से समृद्ध करना चाहते हैं। और अनेक लेखक तो ऐसे भी हैं जो कभी महानगर नहीं गए,
गाँव-कस्बे में रह कर ही साहित्य-साधना करते रहे और श्रेष्ठ रचनाओं का सृजन कर सम्मानित भी हुए। गाँव-कस्बा हमें निर्मल बनाए रखता है, पर महानगर क्रूर कर
देता है। वहाँ की भौतिकता, वहाँ की जीवन-शैली, मनुष्य को मनुष्यता से दूर करती जाती है। वो केवल
पाखंडी बन कर रहे जाता है। यह भी देखा है कि कस्बे-गाँव का लेखक
जब महानगर में आकर बस जाता है तो वह भी शातिरत्व को प्राप्त हो जाता है। जैसा मैंने
अभी बताया है। कुछ फिर भी बचे रहते हैं। ये वे लोग हैं, जो अपनी
मिट्टी को, अपने अतीत को भूलते नहीं। महानगर में कुछ ही लेखक साधक बने
रह पाते हैं, अधिकतर माफिया में तब्दील हो जाते हैं और अपनी छवि
कैसे चमाकाएँ, इसी धंधे में लग जाते हैं। ये ऐसे पापी होते हैं,
जो निर्मम व्यवहार करने के बाद करुणा पर कविता लिखते हैं। अपने ही घटिया
चरित्र को कहानियों में भी पिरो कर वाह-वाही भी लूट सकते हैं।
86
- छोटे शहर में रहकर जो लिखा जा रहा है, वह कितना
सार्थक या परिपक्व है और किस स्तर का है?
मूल अंतर क्या पाते हैं ? लेखकों के इस
शहरी क्षेत्रीय या आंचलिक स्तर पर रहकर लेखन करने की प्रवास-प्रक्रिया
पर क्या एक ग्रामीण स्तर पर रहकर लेखन कर रहे लेखक के स्तर और लेखन की दशा-दिशा को लोग जान पाते हंै?
-
छोटे शहर में रह कर लिखने वाले लेखक के अनुभव सीमित होते हैं। पर उसकी
संवेदना में कमी नहीं रहती। हाँ, अगर उसने एक सुंदर-परिपक्व भाषा अर्जित कर ली है, तो उसका लेखन चर्चित हो
जाता है। यह सत्य है कि उसका अनुभवलोक उतना विशाल नहीं होता। उसके पात्र, उसकी दुनिया सीमित होती है। साहित्य केवल कल्पना से नहीं उपजता, वह अनुभव की सान पर भी खरा होता है, निखरता है। जैसे
विदेश में रह कर जो कहानी लिखी जाएगी, वैसी कहानी गाँव में रहने
वाला लेखक नहीं लिख सकता। मेरी एक कहानी है- भाई साहब । नेट पर
उपलब्ध है। यह कहानी मैंने वेस्टइंडीज से लौटने के बाद लिखी। वह कहानी रायपुर में बैठ
कर लिखी ही नहीं जा सकती थी। रायपुर से लंदन जाना, फिर त्रिनिडाड
जाना। वहाँ रह कर उस देश को समझना, उसकी संस्कृति को महसूसना,
उसके बाद ही आप लिख सकते हैं। केवल कल्पना करके कोई रचना नहीं बनती।
हाँ, कविता लिखी जा सकती है। कहानी लिखनी है तो आपको वो देश देखना
होगा, उसका शहर देखना होगा, लोगों से मिलना-जुलना होगा। वहाँ के जीवन की समस्याओं को समझना होगा। विदेश में रह कर प्राण
शर्मा, तेजेंद्र शर्मा, सुधा ओम धींगरा
या शिखा वार्षणेय आदि जो लिख रहे हैं, वैसा हम आप नहीं लिख सकते
क्योंकि हमारा अनुभव-लोक सीमित है। विदेश में रहते हुए वहाँ का
लेखक जो लिखेगा, वो प्रामाणिक होगा। अच्छा होगा। इसी तरह महानगर
में रह कर लेखक वहाँ की समस्याओं से, वहाँ के चरित्रों से रू-ब-रू होता रहता है। वह जो लिखेगा, अनुभव और कल्पना के मेल से लिखेगा। गांव-कस्बे के लेखक
के पास यह सब नहीं होता। केवल कल्पना के सहारे रचना नहीं बनती। उसमें अनुभव-संसार भी आना चाहिए। फिर भी गाँव में लिखा जा रहा साहित्य गाँव की मानसिकता
को बयान करता है। गाँव के जीवन पर लिखने के लिए गाँव तक आना होगा। भ्रण करना होगा। तब आप 'अहिरनÓ
(इंदिरा गोस्वामी) जैसा उपन्यास लिख सकते हैं या
महाश्वेता देवी जैसा लेखन कर सकते हैं। महाश्वेता आदिवासियों के बीच रहती हैं। उनके
दुख-दर्द को निकट से समझती हैं फिर उपन्यास रचती हैं। अमृतलाल
नागर जैसे महान लेखक को 'करवटÓ उपन्यास
लिखने के लिए वेश्याओं के इलाके में जा कर रहे। 'आवारा मसीहाÓ
लिखने के लिए विष्णु प्रभाकर ने कोलकाता में जा कर कितना संघर्ष किया।
विनम्रतापूर्वक अपनी भी बात करूँ कि मुझे जब अपना उपन्यास 'टाउनहॉल
में नक्सलीÓ लिखना था तो बस्तर जाना पड़ा। वहाँ के गाँवों को
निकट से देखना पड़ा। 'एक गाय की आत्मकथाÓ लिखने के लिए गौशालाओं के चक्कर लगाने पड़े। गाँवों के दौरे करने पड़े। कितना
अध्ययन करना पड़ा यह मैं ही जानता हूँ। रेणु, नागार्जुन और प्रेमचंद
जैसे महान लेखक बहुत अधिक शहरी नहीं हुए थे। उनके पात्र गाँवों से आते थे। वे शहरों
तक भी यदाकदा जाते रहते थे, पर उनका पूरा जीवन देशज अनुभतियों
से संपृक्त रहा और उन्होंने उत्कृष्ट साहित्य दिया। अब केवल वातानुकूलित कमरे मैं बैठ
कर निष्प्राणकिस्म की रचनाएँ हो रही हैं। दुर्भाग्य से वे सायास-चर्चित भी की जाती हैं।
87- शहरी-ग्रामीण
लेखन जैसे भेदभाव या रहन-सहन पर क्या कोई विमर्श की जरूरत महसूसते
हैं?
-
मुझे ऐसे भेद ठीक नहीं लगते। साहित्य में अब तरह-तरह के भेद दिखाई देने लगे हैं। स्त्री लेखन, दलित लेखन,
शहरी लेखन, ग्रामीण लेखन, मुस्लिम लेखन, हिंदू लेखन। और हिंदुओं में भी ब्राह्मण
लेकन, कुर्मी लेख, वेश्य लेखन। हिंदी के
अनेक बड़े लेखकों को कुछ लोगों ने अपनी जातिधर्म तक सीमित करके रखने की मूर्खताएँ की
हैं। साहित्यकार साहित्यकार होता है। साहित्य भी केवल साहित्य होता है। उसे सीमित करके
नहीं देखना चाहिए। साहित्य यानी जो हित के साथ चले। साहित्य सबके हित की बात करता है।
वह साहित्यकार साहित्यकार नहीं है जो केवल अपनी जाति, धर्म या
अपने समाज की सोचता है। वह साहित्यकार हाने के लायक नहीं है। साहित्य अगर मानव मात्र
के लिए नहीं रचा जाता तो वह साहित्य नहीं हो सकता। साहित्य की सोच संकुचित नहीं हो
सकती। कबीर कहते हैं,
हद
छांडि़ बेहद गया,
रहा निरंतर होय।
बेहद
के मैदान में रहा कबीरा सोय।
तो, कबीर की परम्परा ही साहित्य की परम्परा है। साहित्य हदें तोड़ता है। दिलों
को जोड़ता है, पर अब दिल नहीं, दलों से
जुड़ कर लोग लिख रहे हैं। कोई वाम पंथी है तो कोई दक्षिण पंथी। और उन दोनों में तीसरी
बिचोलिया-शक्ति है दामपंथियों की । ये लोग विचारधारा की आड़ में
अपना उल्लू सीदा करते हैं पर समाज का नुक्सान करते हैं। लोगों को लड़वाते हैं। इसलिए
मेरा अपना मानना है कि साहित्य को हर तरह के भेदभाव से मुक्त करना चाहिए। जाति,
समाज और विचारधारा से घेर कर साहित्य को हम निर्मल नहीं बना सकते। प्रतिबद्धता
विचारधाराओं के प्रति नहीं, प्रतिबद्धता मनुष्य के प्रति हो,
उसके संघर्षों के प्रति हो। उसके शोषण और अन्याय के विरुद्ध हो। इसके
विरुद्ध जो साहित्य खड़ा होगा, वही सचमुच बड़ा होगा और कालजयी
भी। इसलिए शहरी-ग्रामीण लेखन जैसे विवाद की जरूरत नहीं। साहित्य
को निर्मल नदी की तरह बचा कर रखने की जरूरत है। क्योंकि जैसे नदियाँ प्रदूषित हो रही
हैं, वैसे ही साहित्य की गंगा भी वैचारिक-प्रदूषण का शिकार हो रही है।
88
- क्या आप कुछ गुमनाम साहित्यकारों का उल्लेख करना चाहेंगे, जो ग्रामीण परिवेश में रहने की वजह से अपनी प्रतिभा के संग न्याय नहीं कर पा
रहे हों या शहरी लोग आंचलिक स्तर के सृजनकर्मियों को जगह नहीं दे रहे हैं। क्या सच
में लगता है कि बहुत सारी प्रतिभाएँ दम तोड़ देती हैं। क्या कुछ इस तरह के मित्र भी
आपके हैं जो अपने साथ न्याय नहीं कर सके। इस संकटपूर्ण हालात के लिए किसको दोषी मानते
हैं?
-
निसंदेह इस देश में अनेक लेखक ऐसे हैं, जिनके साथ
अन्याय ही हुआ है। एक दौर था जब उन्होंने अपनी रचनात्मक-मेधा
से साहित्य को समृद्ध किया। पर आज वे कहीं खो गए। मुझे छत्तीसगढ़ के ही एक लेखक की
याद आ रही हैं। लाल मोहम्मद रि•ावी। बेमेतरा के पास किसी गाँव
से रह कर खेती-किसानी कर रहे हैं। आज से तीस साल पहले उनकी कुछ
कहानियाँ सारिका और अन्य पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। पर आज कितने लोग उन्हें जानते
हैं। आनंदीसहाय शुक्ल रायगढ़ में रहते थे। अस्सी-पचासी साल में
उनका निधन हुआ। वे हिंदी के बड़े गीतकार थे। धर्मयुग में उनका एक गीत निराला जी के
साथ प्रकाशित हुआ था। वे छंद लिखते थे। मंचों पर जाते थे। उनकी रचनाएँ सुनकर लोग झूम
जाते थे, पर उनका नाम भी साहित्य के इतिहास से गायब है। ऐसे ही
कुछ और नाम और हैं जिनको उनका आकाश नहीं मिल सका। रायपुर के ही रूपनारायण वर्मा वेणु
अभावों में मर गए। साहित्य में ऐसा होता रहता है पर सच्चा लेखक इसकी परवाह नहीं करता।
जोड़तोड़ करने वाले आगे निकल जाते हैं और सज्जन लोग अंधेरे में ही रह जाते हैं। हाँ,
कुछ लोग किस्मत वाले भी होते हैं जो जोड़तोड़ नहीं करते और उनको उनका
स्थान मिलता है। जैसे अभी उड़ीसा के एक लेखक को पद्मश्री मिली। वे ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं, गाँव में रहते हैं पर अद्भुत कविताएँ
लिखते हैं। उन्हें सम्मानित किया गया। बस्तर में रहने वाले कवि -लेखक लाला जगदलपुरी साहित्य के महान साधक थे। पर उन्हें उतना मान-सम्मान नहीं मिल सका, जिसके वे हकदार थे। ऐसे लोगों को
याद करूँ तो सूची लम्बी होती जाएगी। देश में अनेक ऐसे लेखक हैं जो छंद में पारंगत हैं।
वे आज भी महाकाव्य और खंडकाव्य लिख रहे हैं, पर उन्हें कोई तवज्जों नहीं। क्योंकि इस
वक्त साहित्य की धारा में आधुनिकता का प्रदूषण भी मिला हुआ है। परम्परा से प्यार करने
वाले लेखकों को महत्व नहीं मिल रहा। जबकि एक दौर था कि कस्बे के लेखक को उसकी प्रतिभा
को पहचान कर समादृत किया जाता था। राजनांदगांव के पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी
'सरस्वतीÓ जैसी महान पत्रिका के संपादक बनाए गए।
वे इलाहाबाद की कुछ अन्य पत्रिकाओं के संपादक भी रहे। 'छायावाद
के प्रवर्तकÓ कहे जाने वाले कवि मुकुटधर पांडेय रायगढ़ में रहते
थे, पर उनको पूरा सम्मान मिला। तो वो दौर था, जब कस्बों में रह कर भी श्रेष्ठ लिखने वाले लेखकों को पहचाना जाता था। पर अब
जानबूझ कर अनदेखी की जाती है। यही है साहित्य का माफिया। जिसने दुर्भावना की सुपारी
दे कर अनेक प्रतिभाओं को रास्ते से हटाने का निर्मम काम किया है। गुमनाम लेकिन अपनेआप
में महान अनेक लेखक होंगे, जिनके नाम मैं भले नहीं जानता मगर
मेरे विचार पढऩे वाले पाठकों को अपने क्षेत्र के कुछ महान नाम जरूर याद आ रहे होंगे।
89
- अभी हमने शहरी और आंचलिक परिवेश के लेखन और लेखकों पर बात की है। आप
इन दो तरह के इलाकों के पाठकों और उनकी लेखन की रुचि, लेखन के
प्रति जिज्ञासा और साहित्य को लेकर नैसर्गिक पकड़ पर क्या कहेंगे? खासकर शहरी पाठकों में किस तरह के गुण हैं, जो अन्यत्र
नहीं देखा जाता?
-शहरी पाठक गाँवों के दर्द को समझना चाहता है, तो ग्रामीण
पाठक शहरों में घट रहे सत्य को भी जानना चाहता है। वैसे दोनों इलाकों में समान प्रवृत्ति
है फैंटेसी पढऩे की। लोग साहित्य को पढऩे के बजाय जासूसी-थ्रिलर
उपन्यास पढऩे में अधिक दिलचस्पी लेते हैं। शहरी पाठक अआधुनिक विषयों से जुड़ी सामग्री
को अधिक पसंद करता है। जैसे व्यक्तित्व विकास, जीवन-व्यवसाय- प्रबंधन, वास्तुशास्त्र,
अँगरे•ाी या अनूदित उपन्यास, विवादास्पद पुस्तकें । इनमें उसकी रुचि बहुत होती है जबकि ग्रामीण पाठक मुंशी
प्रेमचंद, शरतचंद्र, रवींद्रनाथ ठाकुर आदि
की कृतियाँ पसंद करता है। भक्ति साहित्य भी वह पढऩा चाहता है। शहरी पाठकों में एक वर्ग
ऐसा है जो दिखावे के लिए भी पुस्तकें पढ़ता है, या फिर कहें कि
दिखाने के लिए उसके हाथ में किताब होती है। कुछ शहरी पाठकों में छद्म होता है,तो कुछ सचमुच साहित्यानुरागी होते हैं।
90
- देश के हिन्दी अहिन्दी भाषी इलाकों में आपको अक्सर मौका मिलता रहता
है। आप अपने अनुभव के आधार पर बताइए कि देश के विभिन्न क्षेत्रों के नागरिकों की साहित्य-कला-संस्कृति और पठन-पाठन का संस्कार
किस तरह का और कैसा विकसित हुआ है?
-
मैं अनेक बार दक्षिण की यात्रा पर गया हूँ। यह कहने में गर्व होता है
कि वहाँ साहित्य के प्रति लोगों में गहरी रुचि है और सबसे बड़ी बात हिंदी के प्रति भी वहाँ लगाव बढ़
रहा है। हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी के लिए वो ललक नजडर नहीं आती, जो दक्षिण में दीखती है। एक बार मैं केरल के कालकिट गया। वहाँ मेरे चार-पाँच कार्यक्रम हुए। हर जगह उपस्थिति देख कर मैं दंग रह गया। पूछने पर पता
चला कि ये हिंदी के विद्यार्थी हैं। मुझे अच्छा लगा। वे लोग हिंदी इसलिए पढ़ रहे थे
कि उससे उनको रोजगार मिलता। हिंदी अब रोजगार देनेवाली भाषा भी बन रही है। दक्षिण में
अनुवाद हो रहे हैं। हिंदी की श्रेष्ठ कृतियों के अनुवाद निरंतर हो रहे हैं। मेरी कृति
'भानसोज की चैतीÓ का तमिल में अनुवाद हुआ और उसकी
ग्यारह हजार प्रतियाँ खरीदी गई। 'इंसान की पहचानÓ का कन्नड में अनुवाद हुआ। अन्य कृतियों को भी अनुवाद होते रहता है। तमिलनाडु
के एक विश्वविद्यालय में बीए में मेरा एक नाटक पढ़ाया जाता है। हिंदी के अनेक लेखक
वहाँ समादृत हो रहे हैं। वहाँ सहकारी आधार पर प्रकाशन गृह चलते हैं। उनकी हजारों प्रतियाँ
बिकती हैं। लेखकों को रायल्टी भी खूब मिलती है। ंिहदी में ऐसा संभव नहीं। अहिंदी भाषी
क्षेत्रों में पठन-पाठन के संस्कार हिंदी क्षेत्र से बेहतर हैं।
91
- अलग-अलग क्षेत्र के नागरिकों और संस्थाओं की
रुचि-जिज्ञासा को लेकर आपके मन में किस तरह के सुसस्ंकृत समाज
की अवधारणा प्रकट होती है?
-
मेरा अपना मानना है कि कोई भी सुसंस्कृत समाज मूल्यों की स्थापना के
सहारे ही संभव हो सकता है। एक दौर था जब अपना भारत मूल्याधारित जीवन शैली का पक्षधर
था। यह वह समय था जब हम कृषि और ऋषि-संस्कृति को महत्व देते थे। गुरुकुल में
जा कर निर्धन और धनवान सभी अध्ययन करते थे। ठीक है कि कुछ भेदभाव वहाँ भी नजर
आते हैं, पर अधिकांश घटनाओं में हम ज्ञान के महत्व को देखते हैं।
राजा भी ऋषि के लिये सिंहासन छोड़ देता था। अब सिंहासन के लिए ऋषि अपना ऋषित्व त्याग
देता है। ऋषिगण ज्ञानदान के साथ कृषि कर्म भी करते थे। गौ पालन करते थे। पौराणिक कथाओं में
हम देखते हैं कि हर पात्र के पास हजारों गायें होती थी। कुछ के पास कामधेनु गायें हुआ
करती थीं। कामधेनु मतलब वो गाय जो मनचाही इच्छा पूण्र कर दे। ऐसी गायें ऋषियों के पास
होती थीं और राजा उन्हें प्राप्त करने के लिए युद्ध करते थे और पराजित हो जाते थे।
उस समय गायों को महत्व था। गाय को पूजते थे। पूजते तो आज भी हैं, मगर उसे कचरा खिला कर। उसकी हत्या करके। हमारे धार्मिक ग्रंथ आदमी को इंसान
बनाने वाली महान कृतियाँ हैं। इनमें कोई भी आकाश से नहीं उतरी । ये सुदीर्घ अनुभव जनित
ज्ञान के संचित कोष हैं। इनको पढ़-पढ़ कर ही समाज चरित्रवान बनता
रहा। बुराइयाँ उस वक्त भी थीं, पर ऐसे सदग्रंथ मनुष्य को बचा
लेने का उपक्रम करते थे। मैं आज भी इस हाइटेक समय में उस सांस्कृतिक समाज की कल्पना करता हूँ जहाँ धरती माँ के रूप में पूजी जाए। गायें
न कटें। ऋषि भी बचे रहें और कृषि भी। लेकिन अब ऐसा हो नहीं रहा। ऋषियों के नाम पर अपराधियों
की संख्या बढ़ रही हैं। भगवा वस्त्र में गुंडे मिल जाएँगे। कुंभ में ये तलवार भांजते
हैं। हाथों से कट्टा लिये किसी लंपट-गुंडे की तरह नजर आते हैं।
जिनको समाज संत-बापू कह कर सम्मान देता है, वे एक दिन बड़े ककुर्मी निकलते हैं। मतलब यह कि हम धीरे-धीरे पाखंडी होते गए। और जो समाज पाखंडी हो जाए वह संस्कृति की आड़ लेकर सकल-कर्म करता है। ऐसा समाज सांस्कृतिक होने का केवल आभास दे सकता है, होता नहीं है। हमारा समाज उसी स्थिति का प्राप्त हो चुका है। अब उसके बचने
की उम्मीद कम है। हालांकि बचाने के पूरे प्रयास हो रहे हैं। मंदिर हैं, साधु हैं, प्रवचन हैं। सत्ससाहित्य हैं, सियासत है। पर ये सब एक छद्म है। एक आवरण है। बाहर कुछ हैं, अंदर कुछ चल रहा है। नागरिक और संस्थाएँ दोनों से ही अपेक्षा होती है कि ये
समाज को बेहतर बनाएँ लेकिन अब ये लोग अपना स्वार्थ सिद्ध करने में व्यस्त हैं। कैसे
बनेगा सुसंस्कृत समाज? आज भी अगर हमारी आत्मा में रामचरित मानस,
महाभारत और गीता जैसी महान युगांतकारी कृतियाँ स्थापित हो जाएँ तो हम
सांस्कृतिक मूल्य अर्जित कर सकते हैं।
92
- क्या आपको ऐसा लगता है कि जितने लेखक आज लेखन की मुख्यधारा में सक्रिय
हंै, उससे कहीं ज्यादा रचनाकार शोहरत के बगैर ही निष्ठा के साथ
लगे हुए हैं, जिनमें साहित्य की सेवा का भाव हैं। इस तरह के लेखकों
पर आपकी टिप्पणी क्या होगी?
-
मैं इस बात से सहमत हूँ कि इस महादेश में अनेक प्रतिभाशाली लेखक आज भी
गुमनाम रह कर साहित्य-साधना कर रहे हैं। उनके जीवन का परम लक्ष्य
है एक बेहतर समाज की स्थापना। मुख्यधारा के अनेक साहित्यकार नकली सिक्के हैं,
जो चल रहे हैं। चलाए जा रहे हैं। ये सिक्के चमकीले अधिक हैं। हम देख
रहे हैं कि इस समय में नकली फूल ही ज्यादा शोभा पा रहे हैं। नकली नारियल, नकली फूल, नकली अगरबत्ती, नकली
फूल मालाएँ भगवानों पर चढ़ी मिल जाएँगी। नकलीपन से हम खुश हैं। साहित्य में ऐसे लोग
मुख्यधारा में हैं। ऐसे लेखक सत्ता के दलाल हैं। ये राजनीतिक एजेंट की तरह साहित्य
में घुसपैठ जमाए हुए हैं। ये वामपंथी भी हैं, दक्षिण पंथी भी।
विचारधारा कोई हो, इनका लक्ष्य है, उसकी
आड़ में अपने न्यस्त स्वार्थों की पूर्ति। राजनीतिक दल कोई भी हो, सभी में अवसरवादी लेखकों की बहुलता है। आजादी के बाद से ही साहित्य में ऐसी
नस्लों का वर्चस्व रहा है। उनके कारण पहले भी साधक साहित्यकार हाशिये पर थे और आज भी
है। बड़े-बड़े पदों पर उनके लोग बैठे हैं। आलोचना जगत में उनकी
मठाधीशी है। ये वे लोग हैं जो भोजन करके और डकार मारने के बाद भुखमरी पर कविताएँ लिखते हैं।
वातानुकूलित कक्ष में बैठ कर गरमी की पीड़ा का वर्णन करते हैं। साहित्य में इस वक्त
खा-पीकर अघाए लेखकों का एक बड़ा वर्ग मुख्यधारा में हैं। वहीं
जो जोड़-तोड़ नहीं करता, जो दरबारी नहीं
होता, जो साहित्य को साधना मानता है और जो कुंभनदास की पंक्तियों
को जीवन में उतार लेता है, वह किनारे या गुमनाम रह जाता है। कुंभनदास
ने कहा था- संतन को कहाँ सीकरी सों काम। आवत-जात पनहिया टूटी, बिसर गयो हरिनाम। ऐसे साहित्यकार मुख्यधारा
में शामिल नहीं होते । उनको वर्तमान नहीं होता, पर भविष्य उन्ही
का होता है। इतिहास में वे ही अमर होते हैं। पर इतनी गहराई से कौन सोचता है। सबको लगता
है जो भी है, बस यही इक पल है। इस पल को जितना दोहन हो सके,
कर लो। साम-दाम-दंड-भेद, जैसे भी हो। मैं ऐसे अनेक मुख्यधारी लेखकों को जानता
हूँ, पर मैं वैसा बनना नहीं चाहता। अवसर तो बहुत थे मेरे पास
बर्बाद होने के। पर मैंने अपने को बचाए रखा क्योंकि अगर मैं भी उन जैसा बन गया तो मेरी
अपनी पहचान कहाँ बची? या मैं उनसे अलग कैसे हुआ? ठीक है कि साहित्य सेवा करते-करते तथाकथित कोई बड़ा सम्मान
नहीं मिल सका, पर संतोष है कि समाज ने मेरी रचनात्मकता को निरंतर
पुरस्कृत किया है। इतनी सारी कृितयाँ इसलिए भी लिख सका कि जोड़तोड़ से दूर रहा। आज
बी हूँ। जब भी ऐसे अवसर आते हैं, उठापटक की बात होती है,
उससे अलग हो जाता हूँ। कुछ व्हाटसएप ग्रुप में मैं था, वहाँ कुछ लेखक एक-दो लेखकों की पालकी ढोते नजर आए। उनकी
गुटबाजी, उनका टुच्चापन साफ-साफ नजर आने
लगा तो उस ग्रुप को भरे मन से छोडऩा पड़ा।क्योंकि मैं साहित्य हृदय के साथ रहता हूँ
और मुझे वैसे ही निश्छल मन वाले चाहिए। ऐसे लोग ही सच्चे लेखक होते हैं। ये भले ही
मुख्यधारा में नहीं है, पर वे लेखक हैं। उनको बहुत अधिक शोहरत
भी नहीं मिल सकी, पर वे साहित्य को एक मिशन की तरह लेते हैं और
अपनी साधना से उसे और अधिक पवित्र बनाते चलते हैं।
93
- आप लगातार हर तरह के लोगों से मिलते रहते हैं। यह बताइए कि एक शहरी
लेखक की अपेक्षा आंचलिक क्षेत्र के लेखक गण क्या वैचारिक स्तर पर कुछ ज्यादा ईमानदार
होते हैं। हो सकता है कि वे अपनी मार्केटिंग शायद नहीं कर पाते। इन इलाकों में लोगों
के पास क्या साहित्य-संगीत के लिए समय और रूचि है। इस तरह के इलाकों में जाकर और उम्दा
किस्म के पाठकों को देखकर तो आप लोग भी क्या मंत्रमुग्ध हो जाते हैं? खासकर कवि सम्मेलनों और संगोष्ठी
आदि में यहाँ के लोगों की क्या और कैसी उत्कंठा रहती है? वे किस
तरह इसको ग्रहण करते हैं?
-
आपके प्रश्न में उत्तर भी निहित है। आंचलिक लेखक ईमानदार ही होते हैं।
उनकी परवरिश जिस परिवेश में होती है, वहाँ ईमानदारी, नैतिकता, त्याग, जीवन मूल्य,
संस्कार-संस्कृति को महत्व दिया जाता है। वहाँ
महानगरीय निर्ममताएँ नहीं होतीं कि मतलबी यार किसके, काम निकाला
और खिसके। वे अपने बल पर कुछ अर्जित करना चाहते हैं। इसलिए वे मार्केटिंग से दूर रहते
हैं। शहरों के कुछ लेख (सब नहीं) केवल मार्केटिंग
में ही लगे रहते हैं। वे किसी लाभ दिलाने वाले पद पर होते हैं। वैसे भी कुछ पद है तो
वहाँ लाभ-ही-लाभ की गुंजाइशें बनी रहती
हैं। मैंने देखा है कि दोयम दर्जे के लेखक मार्केटिंग की कला में निष्णात होते हैं। वे अपनी
घटिया रचनाओं को इधर-उधर देखर बार-बार पुस्तक
रूप में प्रकाशित करवाते रहते हैं, कहीं कोई पुरस्कार है,
तो बोल कर झटकते हैं कि भाई, इस बार मुझे दो। आयोजक
को भी अपना उल्लू सीधा करना होता है तो ऐसे लोगों को अपना पुरस्कार समर्पित कर देता
है। साहित्य की दुनिया में ऐसे कलाकारों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। इस नकली मार्केटिंग
का लाभ जुगाड़ू लेखकों को मिलता है और वे चर्चा में बने रहते हैं। आंचलिक लेखक ये सब तिकड़में नहीं कर पाता।
हालांकि धारे-धीरे आंचलिक लेखकों में भी ये दुर्गुण समाते जा
रहे ैं। सभी आंचलिक लेखक दूध के धुले होते हैं, महान होते हैं,
वे हथकंडे नहीं अपनाते,ये कहना सच्चाई से आँखें
चुराना होगा। शहरी बुराइयाँ अब अंचलों में भी घर करती जा रही हैं। फिर भी तुलनात्मक रूप से देखें तो
आंचलिकता में संस्कार बचे हैं। ईमानदारी बची है। आदर्श बचे हैं। मूल्य बचे हैं। आंचलिक
लेखक अब भी सीधासादा है। इसीलिए महानगरीय लेखकों की धूर्तताओं को शिकार भी होता है।
उसके झांसे में आ कर उन्हें बुलाता है, अतिथिदेवोभव समझ कर उन
का सम्मान करता है मगर अंतत: उसके हाथ कुछ भी नहीं आता। मैं तो
अक्सर कस्बों और गाँवों के कार्यक्रमों में जाता रहता हूँ और जो कुछ कह रहा हूँ,
वो सब मैंने देखा है। वैसा कुछ किया नहीं है। यह दावे से कह सकता हूँ।
इसलिए कि मेरे मन में अब तक आंचलिकता बची हुई है। देशज अनुराग से लबरेज हूँ मैं। मेरी
अपनी रचना है-महलों में भी रहें हम फकीर की तरह। जिंदगी को जीएँ
पर कबीर की तरह। साहित्य-संगीत का संरक्षण आंचलिक लेखक-कलाकार ही करते रहे हैं।
संस्कार यही से लेते हैं, फिर वे भले ही महानगरों में जा कर बस
जाएँ पर प्रारंभिक संस्कार उन्हें बचाए रखता है। मैं जब अंचलों में जाता हूँ तो पाता
हूँ वहाँ के लेखक बड़े शहरों से पधारने वाले लेखकों को श्रद्धा से देखते हैं। उनके
साहित्यिक योगदान से परिचित होते हैं। उनके साथ ही वे रहते हैं। सेवा करते हैं। बड़े
लेखक को अगर दारू पीने के शौक है, तो भी अंचल का लेखक उसका बंदोबस्त
करता है। अपनी आवभगत देखकर महानगरीय लेखक गद्गद रहता है। उसे अपनी महानता का भंयकर-बोध हाने लगता है। और वह कुछ ज्यादा ही फूलफाल जाता है। और अंचल के लेखक को
ठग कर वह लौट जाता है। अंचल का लेखक शहरी रचनाकार के साथ खींची गई तस्वीरें फेसबुक
में डालता है, व्हाटसएप में देता है और मगन रहता है। जीवन भर
उसका यही सिलसिला बना रहता है। मगर मैं इन सबको देखते हुए भी ऐसी किसी विसंगति का हिस्सा
नहीं बनता, न मैं किसी लेखक का शोषण करना पसंद करता हूँ। उससे
मेरे संबंध मित्रवत रहते हैं, बाराती जैसे नहीं। मैं उनसे पूरी
आत्मीयता से मिलता हूँ और यह सोचता हूँ कि उनका शोषण न हो। मैं अंचल के लेखकों की किताबें
वापस लौटते वक्त होटल में ही नहीं छोड़ देता, साथ ले कर आता हूँ।
उसे पढ़ता भी हूँ। अनेक लेखक ऐसा दुराचरण करते हैं। वे प्रेम से भेंट की गई पुस्तकों
को होटल में ही छोड़ कर लौट जाते हैं। यह मैंने देखा है इसलिए लिख रहा हूँ।
94
- आम पाठकों, लोगों या श्रोताओं की जीवंत प्रतिक्रिया
को आप लोग भी किस तरह आत्मसात करते हंै? क्या ये पात्र और जीवंत
क्षेत्र भी कथा-कहानी में मुखर होते हैं? साहित्यिक आलोचना पर कुछ बातें हम लोगों ने की थीं, पर
क्या भारतीय साहित्यिक आलोचना पर कुछ और कहना होगा? क्या लगता
है कि आज आलोचना की भी आलोचना की जरूरत है?
-
मैं अपने लेखन पर आने वाली हर अच्छी-बुरी प्रतिक्रिया
का स्वागत करता हूँ। दोनों ही स्थितियों में मैं यह देखता हूँ कि प्रशंसा कर रहा हैं
तो वो कौन है, तथा निंदा कर रहा है तो कौन है। उसके भावों को
समझने की कोशिश करता हूँ। मेरा अपना मानना है कि लेखक को अपनी प्रशंसा से फूल कर कुप्पा
नहीं होना चाहिए और आलोचना से हताश-विराश नहीं होना चाहिए। प्रशंसा
से फूल गए तो विनाश होना तय है और आलोचना (निंदा के अर्थ में)
से दुखी हो गए तो भी विनाश तय है। इसलिए लेखक को समदर्शीभाव में रहना
चाहिए। स्थितप्रज्ञता ज्यादा सही है। हमारे पाठक-श्रोता हमारे
फीडबैक भी साबित होते हैं। उनसे हम बहुत कुछ सीखते हैं। वे हमारी रचनाओं के हिस्से
भी बनते हैं। उनसे प्राप्त हुई बहुत-सी बातें हमारी रचनात्मकता
को निखारनें में सहायक होती हैं। रही आलोचना की आलोचना की बात तो मैं बेबाकी के साथ
कहना चाहता हूँ कि समकालीन आलोचना ने हमारे महान साहित्य का कबाड़ा किया है। उसने अनेक
प्रतिभाशाली लेखकों के साथ अन्याय किया है। आलोचना जब तक पवित्र नहीं होगी,
नीर-क्षीर-विवेक वाली नहीं
होगी, साहित्य के साथ न्याय नहीं होगा। सुपात्र और कुपात्र को
पहचानने की दृष्टि उसके पास होनी चाहिए। अभी ये हो रहा है कि समाज का प्रभुवर्ग ही
चर्चा में है। प्रभावशाली लोगों की कृतियाँ आते साथ ही हाथोंहाथ ली जाने लगती हैं।
उनकी तारीफों के पुल बंधने लगते हैं। इसलिए नहीं कि उन्होंने किसी महान कृति की रचना
कर दी है वरन इसलिए कि व्यक्ति पावरफुल है। वह कुछ दे सकता है। पैसा दे सकता है,
सम्मान दिला सकता है, प्रकाशन करवा सकता है। विदेश
भिजवा सकता है। वह देने की स्थिति में होता है इसलिए उसकी कृतियों की तारीफ होती है।
उस पर लम्बे-लम्बे आलेख लिखे जाते हैं। टीवी पर चर्चा होती है।
गोष्ठियाँ की जाती हैं। अब तो पंचतारा होटलों में किताबों को लोकार्पण होता है। जितने
का प्रॉडक्ट नहीं होता, उससे ज्यादा उसके प्रचार में खर्च हो जाता है। आज का
हमारा जो आलोचक-वर्ग है वो अवसरवादी है, स्वार्थी है। टुकडख़ोर भी है बहुत हद तक। उसको लालच दो तो वह किसी भी कचरा कृति
को भी महान बना देगा, अगर उसको कुछ न मिला तो श्रेष्ठ कृति को भी वह उपेक्षित कर
देगा। इतिहास यही बताता है। अच्छी कृतियों का उल्लेख वह करता तो है, पर इत्यादि में। यह अलोचकीय प्रतिभा मैं देख रहा हूँ, झेल रहा हूँ। सह रहा हूँ। मेरा अपना मानना है कि पवित्र आलोचना ही साहित्य
के उन्नयन का आधार है। पर ऐसा हो नहीं रहा। आलोचना बाजार में खड़ी वेश्या की तरह हो
गई है, जो उसको मनचाही कीमत देगा, वो उसकी
हो जाएगी। सौदा एक बार का ही होगा। अगली बार फिर सौदा करना होगा, तब शायद कुछ अलग रेट हो। तो, जब आलोचक वेश्यावृत्ति पर
उतर आए तो वह साहित्य को चकलाघर ही तो बनाएगा। लेकिन जब आलोचक संत बन कर आलोचना के मंदिर में प्रवेश
करेगा तो उसे हर अच्छी कृति पूजा का सामान लगेगी और उसको वह महत्व देगा। काश,
हमारे आलोचक ऐसे हो सकते। हिंदी में अभी ऐसे आलोचकों की बेहद कमी हैं।
कुछ हैं, वे प्रणम्य हैं। प्रणम्य मैं इसलिए कह रहा हूँ कि कुछ
ऐसे महानुभाव भी है जिन्होंन मुझसे किसी तरह का परिचय न होने के बावजूद मेरी कृतियों
पर कलम चलाई। वैसे साहित्य जो है वो आलोचना की बैसाखी पर खड़ा नहीं होता, वह अपनी कालजयी
गुणवत्ता के कारण लोकप्रिय होता है। मुझे अपने उपन्यास एक गाय की आत्मकथा या अन्य कृतियों
के लिए किसी भी आलोचक के पास जाने की जरूरत नहीं महसूस हुई । वे कृतियाँ धीरे-धीरे सुधी
पाठकों तक पहुँचती गईं या पहुँच रही हैं। मैं इंतजार कर सकता हूँ। इस जन्म में भी और
अगले जन्म तक भी। मेरा अपना ही शेर है, अपने लिए भी और दूसरे
संघर्षशील साथियों के लिए भी कि
इतनी
जल्दी मंजि़ल किसको मिलती है
कभी-कभी तो एक ज़माना लगता है
तो, हम इंतजार करेंगे कयामत तक। हर साधक-लेखक का वक्त आएगा
और आलोचना उसका नाम लेने के लिए बाध्य होगी।
95
- आलोचकों ने कवि सम्मेलनों -मुशायरों समेत इसके
कवि-शायर-गीतकार तथा व्यंग्यकारों को ही
सिरे से ही नकार दिया है। आलोचना की इस सौतियाडाह-परम्परा पर
आप की टिप्पणी? क्या आप लोग एकजुटता की जरूरत महसूस नहीं करते
कि आप सब तमाम लोग इसके विरुद्ध कुछ लिखें या अपने-अपने स्तर
पर कुछ करें । लघु पत्र-पत्रिकाओं समेत पत्रिका और अखबार में
तो व्यंग्य को जगह दी जाती है फिर भी लघु पत्रिकाओं से किस तरह के संयम विवेक और साहसपूर्ण
पहल की उम्मीद करते हैं?
-
मेरी समझ में यह नहीं आता कि लोकप्रिय साहित्य को दोयम दर्जे में क्यों
रखा जाता है। शरद जाशी जैसे व्यंग्यकार कवि सम्मलनों के मंचों पर बेहद लोकप्रिय हुए।
हालत यह हुई कि आम लोग उनके गद्य का पद्य की तरह ही आनंद लेते थे। एक तो उनके पढऩे
का अंदाज निराला था। और रचना में दम भी होता था। लोग कहते थे, 'वाह, शरद जोशी की पानीवाली कविता (शीर्षक -पानी की समस्या) शानदार
थीÓ। उनकी लोकप्रियता को साहित्य के आलोचक नहीं पचा पाए। परसाई
मंचों पर नहीं जाते थे इसलिए जोशी उनसे ज्यादा लोकप्रिय हुए इसलिए आलोचक नाराज थे।
क्योंकि अधिकतर आलोचक वामपंथी रुझान वाले थे और परसाई उनके आका थे। मंचों पर अनेक कवि
भी बेहद लोकप्रिय हुए, जैसे नीरज, भवानीप्रसाद
मिश्र, वीरेंद्र मिश्र, सोम ठाकुर,
बाल कवि बैरागी आदि। इनको भी साहित्य में उतना महत्व नहीं मिला क्योंकि
ये लोकप्रिय थे। लोकप्रियता साहित्य की आलोचना का निकृष्ट पैमाना बना हुआ है। जबकि
मंचों के माध्यम से भी बेहतर साहित्य लोगों तक पहुँचता है। मंच एक सशक्त माध्यम है।
यह और बात है कि अब वहाँ मसखरों को कब्जा है। लेकिन मंच पर हर कोई मसखरा नहीं है। कुछ
खरे भी हैं वहाँ, खोटों के बीच। तो, आलोचना
सचमुच सोतियाडाह से ग्रस्त हो गई। आलोचकों को तो समाज में कोई पूछता नहीं। कहीं कोई
इज्जत नहीं, मौलिक सृजन ही असली चीज है। साहित्य अकादमी में मेरे
चयन की प्रक्रिया चल रही थी। ये बात है सन् 2007 के अंत की। छत्तीसगढ़
से तीन नाम गए थे दिल्ली। तीन नामों में मेरा साहित्यिक-प्रदेय
कुछ अधिक था। मेरा चयन होने वाला था, तभी रायपुर से एक तथातकथित
वरिष्ठ आलोचक ने मंत्री के माध्यम से अपना नाम भिजवा दिया। अकादमी के तात्कालिक सदस्यों
में से एक ने मझे फोन किया कि ''चौथा नाम जिसका आया है,
वो कौन है भाई?ÓÓ उन्होंने जब मुझे उनका नाम बताया
तो मैंने उनसे कहा- ''ये आलोचक हैंÓÓ, तो
फोन करने वाले आदरणीय ने छूटते ही कहा, ''अच्छा तो आलोचक है,
मौलिक लेखक तो नहीं है न?ÓÓ और अंतत: मेरा चयन हुआ। ये वहीं आलोचक हैं जो अक्सर मंचों पर सत्ता को गरियाते रहते
थे लेकिन जब लाभ लेने की स्थिति बनी तो मंत्री की शरण में चले गए। जबकि सच्चाई बताते
हुए मुझे गर्व होता है कि सदस्य बनने के लिए मैंने कोई प्रयास नहीं किया। संस्कृति
मंत्री ने अपनी ओर से मेरा नाम दिल्ली भेजा था। सम्मान तो यही है कि आपको कहीं जाना
न पड़े। ये कैसे आलोचक हैं कि मंच पर सरकार को गालियाँ दो और वहीं जाकर याचना करो?
अपनी घटना बता कर मैं कहना चाहता हूँ कि देखें, आलोचक को लेकर समाज में धारणा क्या है। मौलिक लेखक को लोग तवज्जो देते हैं,
आलोचकों को नहीं। जबकि आलोचना भी साहित्य ही है पर आलोचकों ने अपनी हरकतों
के कारण अपनी छवि प्रवंचक की, अराजक की बना डाली है। ऐसे आलोचकों
के विरुद्ध लामबंद तो होना चाहिए पर जैसे एक ही तराजू में हम मेंढकों को तौल नहीं सकते,
उसी तरह एक मंच पर साहित्यकारों को भी एकत्र करना कठिन है। व्यंग्यकारों
से हम उम्मीद नहीं कर सकते कि वे एक साथ मिल कर आलोचकीय चरित्र की निंदा करें। पर अपने-अपने स्तर पर काम होना चाहिए। मैं तकरता हूँ। जैसे यहाँ कर ही रहा हूँ,
यह जानते हुए कि इसका खामियाजा भी भुगतना होगा। पर मैं इसकी परवाह नहीं
करता। बिना किसी घमंड
के, पूरी विनम्रता के साथ कहना चाहता हूँ कि मैं बिना किसी आलोचना
के भी टिका रहने वाला लेखक हूँ। अब तक टिका हूँ, भविष्य में भी
शायद टिका रहूँ। और व्यंग्य ऐसी विधा है जिसे आलोचना दबा नहीं सकती। पत्र-पत्रिकाओं में स्तरहीन व्यंग्य भले ही छप रहे हों, पर
इसी बहाने व्यंग्य को लेकर समाज में एक वातावरण तो बना हुआ है। हाँ, हम लघु पत्रिकाओं के विवेकवान संपादकों से उम्मीद करते हैं कि वे अपनी पत्रिकाओं
में व्यंग्य को व्यंग्य लिखें, ललित निबंध नहीं। संकोच न करें।
व्यंग्य साहित्य की अब जरूरी विधा है। एक तरह से केंद्रीय विधा है। इसके बिना साहित्य
की गति नहीं है। वे अच्छे व्यंग्य प्रकाशित करें। ऐसे व्यंग्य जिनका साहित्यिक मूल्य
हो। यानी मानवीय प्रवृतित्यों पर रचना हो। अगर यह सिलसिला चलता रहा तो व्यंग्य की प्रतिष्ठा
बढ़ेगी। उसे महत्व मिलेगा।
96
- मीडिया को लेकर भी कुछ कहना चाहेंगे? आम तौर
पर लघुपत्रिकाओं के मौजूदा स्वरूप पर आपकी क्या राय है?
-
मीडिया अब एक व्यापक अर्थ वाला हो गया है। इसमें प्रिंट के साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी समाहित है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में व्यंग्य
के नाम पर फूहड़ता अधिक है। मसखरापन है। गंभीर व्यंग्य के लिए वहाँ कोई जगह नहीं। यहाँ
मिमिक्री चलेगी। मीडिया अब बाजारवादी है। बाजार में जो खपता है, वही चलता है। वही बिकता है। अखबार में भी जो व्यंग्य छपते हैं, उनमें बाजारवादी मानसिकता झलकती है। इस पर चर्चा हो चुकी है। लघु पत्रिकाओं
से हम कुछ उम्मीद कर सकते हैं। क्योंकि अभी भी लघु पत्रिका आंदोलन बाजार की विसंगतियों
के विरुद्ध एक रचनात्मक जेहाद की तरह है। लघु पत्रिकाओं के प्रकाशन की चुनौती बड़ी
गंभीर है। सरकारी मदद उसे कम मिलती है। जन सहयोग से ही निकलती हैं। व्यंग्य पर केंद्रि
त पत्रिकाएँ तो आप उंगलियों में गिन सकते हैं। व्यंग्ययात्रा, चकल्लस, अट्टहास, गुदगुदी,
विदूषक आदि कुछ नाम हैं। बहुत पहले विनोदशंकर शुक्ल जी के साथ मिल कर
हम लोगों ने 'व्यंग्यशतीÓ नामक पत्रिका
निकाली थी, जो बाद में अर्थाभाव के कारण बंद हो गई। पर अब पत्रिकाएँ
निकल रही हैं। मगर अनके संपादकों ने व्यंग्य को छोड़ दिया है। उनकी नजर में व्यंग्य
साहित्य ही नहीं है, वह कोई हल्का-फुल्का
काम है। जबकि अब ज्ञानपीठ जैसी संस्थाएँ भी व्यंग्य का प्रकाशन कर रही है। तो,
व्यंग्य पर विमर्श होना चाहिए। लघु पत्रिकाओं से उम्मीद की जा सकती
है। धीरे-धीरे ही सही, लघु पत्रिकाएँ इस
दिशा में बढ़ रही हैं। दबाव बनेगा तो बाकी भी व्यंग्य को महत्व देने लगेंगी। वैसे लघु
पत्रिकाओं में व्यंग्य प्रकाशन की बात छोड़ भी दें तो मैं कह सकता हूँ कि लघु पत्रिकाओं
में ही साहित्य जिंदा है। विचार यहीं मिलते हैं। सम-सामयिक विमर्श
यहाँ नजर आते हैं। साहित्य की गंभीर आलोचना का आस्वादन लघु पत्रिकाओं में ही मिलता
है। लघु पत्रिका आंदोलन पहले से अधिक मजबूत हुआ है। ये और बात है कि संगठित रूप से
कोई काम नहीं हो रहा है पर हर पत्रिका अपने-अपने स्तर पर वैचारिक
जागरण का काम कर रही हैं। अब तो दलित विमर्श करने वाली स्तरीय पत्रिकाएँ भी बाजार में
नजर आने लगी हैं। बस,निवेदन यही है कि लघु पत्रिकाओं को हम परिवार
की पत्रिका बनाने की कोशिश करें। अभी यह केवल पापा की पत्रिका बन कर रह गई है। पत्रिका
आई मतलब तो उसे केवल घर का मुखिया ही पढ़ेगा, यानी पापा। उसे
केवल पापा की नहीं, समूचे परिवार की पत्रिका बनाएँ? कुछ बच्चों के लिए बी हो उसमें, कुछ महिलाओं के लिए,
कुछ बुजुर्गों के लिए भी। लघु पत्रिका का मतलब गरिष्ठ बौद्धिकता समझा
जाना लगा है, वह गलत है। लघु पत्रिका बौद्धिक तो रहे,
पर उसकी भाषा में रवानी हो। ठहराव नहीं। जड़ता नहीं, सरसता हो। तभी वह व्यापक होगी।
97
- इन लघु पत्रिकाओं में किस तरह के बदलाव या साहित्य को लोकप्रिय बनाने
की कैसी योजना की आप उम्मीद करते हैं?
-लघु पत्रिकाओं को सत्ता से दूर रहना चाहिए। और ये जो विचारधारा को ढोने का
सिलसिला है, वह लघु पत्रिका-आंदोलन को कमजोर
करता है। लघु पत्रिकाओं को राजनीतिक विचारधारा के दलदल से निकल कर काम करना चाहिए और
जितने भी श्रेष्ठ विचार हैं, उन को स्थान देना चाहिए। सर्वोद्य,
समाजवाद, मानवतावाद, प्रगतिशीलता
इनके बगैर तो बेहतर साहित्य हो ही नहीं सकता पर जब हम किसी खास चश्मे से चीजों को देखने
लगते हैं तो केवल कटुता फैलती है। मैं अनेक पत्रिकाओं को देखता रहता हूँ। उन्हें पढ़ते
हुए बड़ा हुआ हूँ। मेरा अनुभव है कि अनेक पत्रिकाओं ने साहित्य और समाज में केवल भयंकर
गंद फैलाई। आज भी वे ये काम कर रहे हैं। उनकी विचारधारा से परे कोई दुनिया उन्हें स्वीकार
ही नहीं। जैसे इस वक्त हालात हैं। देश में दक्षिण पंथी सोच वाली सरकार है तो वामपंथी
लट्ठ ले कर पिल पड़े हैं। सत्ता सत्ता होती है। उसका चरित्र एक ही होता है। इस वक्त
की सरकार भी सत्ताजीवी है। लेकिन अब वामपंथी सत्ता सुख से वंचित हैं। इसलिए बौखलाए
हुए हैं। कांग्रेस के शासन में उन्हें हर तरह का सुखमलता था। सम्मान भी, पैसा भी। लेकिन अभी सब बंद है। और स्वाभाविक रूप से भाजपा समर्थकों के सुख
भागने का समय है, तो वामपंथी या कांग्रेसपंथी लेखक विचलित हैं
कि हे भगवान, ये क्या हो रहा है? और कितने
दिन हमें बनवास भोगना पड़ेगा। ऐसे लोगों की लघु पत्रिकाओं में साम्पर विमर्श जारी है, सरकार को लताडऩे का सिलसिला चल रहा है। ये लोग ऐसी हवा बना रहे हैं,
गोया देश अचानक असहिष्णु हो गया है। जितना नाटक हो सकता था, किया गया। लघु पत्रिकाओं के माध्यम से वातावरण बनाने की कोशिश की गई। मुझे
लगता है कि किसी पार्टी का मुखपत्र ऐसा करे तो ठीक पर साहित्यिक पत्रिकाएँ ऐसा करें,
तो यह अपराध है। साहित्य की दुनिया को शुचिता के साथ चलना चाहिए। और
समाज के मन में कैसा करुणा का भाव जगे, कैसे मनुष्यों में आपस
में प्रेम-भाव बना रहे, इसकी कोशिश वाली
रचनाएँ प्रकाशित होनी चाहिए। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। मैं चाहता हूँ कि हमारी लघु पत्रिकाओं
में केवल साहित्य हो। वैचारिक लेख भी हों तो वे पूर्वाग्रह से ग्रस्त न रहें। देश में
घटित हो रहे अन्यायों का जिक्र हो, उनका प्रतिवाद हो,
पर उसमें अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को झंडा ऊँचा न रहे, वरन् देश का झंडा ऊँचा करने की भावना हो। साहित्य तभी लोकप्रिय हो सकता है,
जब वह साहित्य हो। राजनीतिक एजेंडा नहीं। साहित्य में परदुखकातरता हो।
लोकमंगल का भाव हो। जो है, उससे बेहतर करने की ललक हो। सहजता-सरलता के साथ जीवन मूल्यों पर विमर्श हो। साहित्य लोक प्रिय तभी हो सकता है
जब बाल्यकाल से ही बच्चों को अच्छा साहित्य पढ़ाया जाए। उनको असमय अधिक ज्ञानवान बनाने
के चक्कर में चरित्रहीन बनाने के उपक्रम न हों। साहित्य ऐसा पढ़ाया जाए जो बोधगम्य
हो। सम्प्रेषित होने लायक हो। निरंतर कुछ लेखकों को पढ़ाया जा रहा है, उन्हें भी पढ़ाया जाए पर उनके ही समकक्ष जो अन्य महान लेखक हैं, उनको बी स्थान मिले। शातिर लोगों ने केवल कुछ ही लेखकों तक साहित्य को सीमित
कर रखा था। ऐसे-ऐसे लेखक पढ़ाए जाते रहे, जिनकी रचनाएँ उस लायक नहीं रहीं। मैं कुछ नाम भी ले सकता हूँ, पर यह ठीक नहीं होगा। किसी की निंदा ठीक नहीं। पर यह हुआ है। दुर्बोध रचनाओं
को महान रचना साबित करने का अपराध साहित्य में होता रहा है। अब यह सिलसिला बंद होना
चाहिए। उस दिशा में कुछ काम हो रहा है पर दिक्कत ये है कि इस चक्कर में फूहड़ किस्म
की रचनाओं के चयन का खतरा बड़ रहा है। साहित्य के मामले में कुछ सुलझे लेखकों की एक
समिति बननी चाहिए। उनकी बैठक हो। विमर्श हो। और देश की परम्परा, संस्कृति को आगे ले जाने वाले साहित्य का चयन किया जाए। इसका मतलब यह नहीं
कि देश को हम साम्प्रदायिकता की आग में धकेल दे, ऐसी कोई रचना
पाठ्य पुस्तक में शांिमल न हो, जो साम्प्रदायिक हो। साहित्य उदार
हो। सबको गले लगाने वाला है। सबसे बड़ी बात, वह पठनीय हो। भाषा
के स्तर पर। इस दिशा
में काम हो तो साहित्य को लोकप्रिय बनाया जा सकता है।
98
- गैरों पर बहुत सारी बातें
हो रही है पर गिरीश पंकज जी महाराज पर किस तरह की बातों का श्रीगणेश करूं? आप अब जरा दिल थामकर एकदम दिल की कसम खाकर सही-सही बोलने
का साहस करें कि जो कहेंगे एकदम सच ही कहेंगे (बबल की कसम भी
ले सकते हंै)
-
मैं जो कहूँगा, सच ही कहूँगा, बबल की कसम।
99
- आपकी नजर में 10-15 अब तक के कौन-कौन से लेखक-रचनाकार और कालजयी किताबें हैं, जिसको पढऩे की प्रेरणा आप सभी पाठकों और ने रचनाकारो ंको भी देना पसंद करेंगे?
-
अगर मैं अपने हिसाब से हिंदी साहित्य की सूची बनाना शुरू करूँ तो कुछ
नाम ले सकता हूँ। अमीर खुसरो से शुरू करूँगा। फिर तुलसी, कबीर,
रहीम, रसखान, जायसी,
भारतेंदु हरिश्चंद्र, गालिब, प्रेमचंद, रामनरेश त्रिपाठी, निराला,
दिनकर, प्रसाद, महादेवी वर्मा,
मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, सोहनलाल द्विवेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, मुक्तिबोध, अज्ञेय, नागार्जन,
हजारीप्रसाद दिव्वेदी, राहुल सांकृत्यायन,
चतुरसेन शास्त्री, मुकुटधर पांडेय, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, माधवराव सप्रे, रेणु, धूमिल, परसाई, शरद जोशी, द्विजेंद्रनाथ मिश्र निर्गुण, भगवतीचरण वर्मा, वंदावनलाल वर्मा, अमृतलाल नागर, विष्णु प्रभाकर आदि अनेक नाम हैं। ये सारे
मेरे प्रिय हैं और इन्हें मैं पढ़ता रहा हूँ। आलोचकों में महावीरप्रसाद द्विवेदी और
आचार्य रामचंद्र शुक्ल तो हैं ही। अगर कालजयी कृतियों की बात करूँ तो कुछ कृतियों के
नाम भी लेना चाहूँगा। ये हैं गोदान, कफन, मंत्र, मुक्तिधन, ठाकुर का कुआं,
ईदगाह (प्रेमचंद), कुल्लीभाट,
बिल्लेसुर बकरिहा, चतुरीचमार, जूही की कली, अनामिका, परिमल,
कुकुरमुत्ता, सरोजस्मृति, राम की शक्तिपूजा (निराला), रश्मिरथी,
कुरुक्षेत्र, उर्वशी, परशुराम
की प्रतीक्षा (दिनकर), मुक्तिबोध रचनावली
(ग. मा. मुिक्तबोध),
नदी के द्वीप, शेखर एक जीवनी, हरीघास पर क्षण भर (अज्ञेय), मृगनयनी,
झांसी की रानी, कचनार (वृंदावनलाल
वर्मा) चित्रलेखा, धुप्पल, टेढे-मेढ़े रास्ते, भूले-बिसरे चित्र, वह फिर नहीं आई (भगवतीचरण
वर्मा), तितली, कंकाल, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, आँसू,
लहर (प्रसाद),अनामदास का
पोथा, बाणभट्ट की आत्मकथा (हजारीप्रसाद
दिव्वेदी), करवट, खंजन नयन, बूँद और समुद्र, मानस का हँस, नाच्यौ
बहुत गोपाल (अमृतलाल नागर), परसाई रचनावली(हरिशंकर परसाई), मैं, मैं और मैं,
अंधों का हाथी, एक था गधा (शरद जोशी), मंगलभवन, देहरी के पार,
समर शेष है (विवेकी राय : अन्य कृतियाँ भी हैं), संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे (धूमिल), तोड़ो,
कारा तोड़ो (नरेंद्र कोहली : अन्य कृतियां भी हैं), रागदरबारी (श्रीलाल शुक्ल),और अंत में अपनी पीठ थपथपाते हुए कहना
चाहूँगा एक गाय की आत्मकथा। इन सब कृतियों और कृतिकारों की समस्त रचनाएँ पढऩे की कोशिश
की जानी चाहिए। और भी अनेक नाम हैं। कुछ महत्वपूर्ण भी हो सकते हैं, पर मुझसे छूट गए होंगे, इसके लिए अग्रिम क्षमा याचना।
100
- अपनी भी 10-15 उन रचनाओं पर प्रकाश डालें जिन्हें
आप आज भी पढऩा चाहते हैं?
-
मैं अपनी जिन रचनाओं को बार-बार पढऩा चाहता हूँ,
उनमें अपने सभी सातों उपन्यासों को शामिल करना चाहता हूँ। मिठलबरा की
अआत्मकथा मेरा पहला उपन्यास था। लेकिन व्यंग्य उपन्यासों की श्रंृखला में एक प्रयास
था। उसका तेलुगु और उडिया में अनुवाद हुआ। यह उपन्यास आज भी लोगों के जेहन में हैं।
'माफियाÓ उपन्यास मैं भूल नहीं सकता, लोग भी नहीं भूले हैं क्योंकि इसमें मैंने साहित्य के अंदर पनप रही टुच्ची
राजनीति का जिक्र किया है। यह मेरे जैसे अनेक लेखकों के दर्द का हलफनामा है।
'पॉलीवुड की अप्सराÓ उन मासूम लड़कियों के शोषण
की कथा है जो रुपहले पर्दे दी चमक-दमक में खो कर अपनी अस्मिता
भी नीलाम कर देती हैं और अंत में पछताती हैं। 'मीडियाय नम:Ó
आज के मीडिया के चरित्र का व्यंग्यात्मक वर्णन करता है। 'टाउनहॉल में नक्सलीÓ नक्सलवाद के खात्मे को ले कर मेरा
एक विनम्र सर्वोदयी प्रयास है। 'स्टिंग ऑपरेशनÓ राजनीतिक उपन्यास है। इसकी शैली से मैं खुद प्रभावित हूँ। इसलिए इसे पसंद करता
हूँ। 'एक गाय की आत्मकथाÓ को अपना कालजयी
किस्म का उपन्यास कह सकता हूँ। भारतीय गायों की दुर्दशा का वर्णन है। और मुझे पता है
कि गायों का संकट लगातार जारी रहेगा, जब तक इस देश में गायें
जीवित हैं। शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास 'वो एक सत्योन्वेषीÓ
सतनामी समाज के महान गुरु घासीदास जी पर केंद्रित है। पंद्रह व्यंग्य
संग्रह हैं। सबका यह जिक्र ठीक नहीं, फिर भी उनमें से जो मुझे
अधिक प्रिय हैं, उनमें सम्मान फिक्सिंग, ईमानदारों की तलाश, श्रीमान जोड़तोड़क, नेताजी बाथरूम में, थाने में प्रवचन, निलंबित डॉट कॉम, आधुनिक बैताल कथाएँ आदि हैं। अपनी तमाम
रचनाओं को आज दुबारा पढ़ता हूँ तो एक बात ईमानदारी से कहना चाहता हूँ कि उनका फिर से
लिखने का मन है। उपन्यासों को नहीं, व्यंग्य लेखों को। उन्हें
कुछ और अपडेट करना चाहता हूँ। भविष्य में कुछ समय मिला तो यही काम करूँगा। अपनी रचनाओं
पर बहुत अधिक विस्तार से कहने में बड़ा संकोच होता है, इसलिए
कम कहे को आप विस्तार में ग्रहण करें, यही अनुरोध है।
101
- मगर आप अपनी इन कृतियों को क्यों पढऩा चाहते हैं? क्या खास है इनमें?
-
खास यही है कि इसमें अपने समय की अनेक विसंगतियों का विस्तार से वर्णन
है। कुछ का जिक्र मैं कर चुका हूँ। अपनी रचनाओं को समय-समय पर
इसलिए भी देखते रहता हूँ कि उससे आगे, या उससे हट कर कुछ और नया
क्या लिख सकता हूँ। आत्म मूल्यांकन के लिए भी अपनी रचनाओं को समय-समय पर देख लेना चाहिए।
102
- क्या इन रचनाओं को आप विश्वस्तर के मास्टर पीस के बराबर मानते हैं?
यह ठीक और बेहतर भी है । इस समय की रचनाओं में आप खासकर किस तरह की प्रवृतियों
पर ज्यादा लेखन कर रहे हंै?
-
अपनी किसी भी कृति को विश्व स्तर के रूप में खुद प्रमाणित करना ठीक नहीं
होगा। इस बारे में मुझे कोई मुगालता भी नहीं है। पर मैं सोचता हूँ अगर 'एक गाय की आत्मकथाÓ, 'माफियाÓ या
मेरे समस्त उपन्यासों को अँगरे•ाी में अनुवाद हुआ होता तो बात
कुछ और हो सकती थी। पर साहित्य में गुटबाजी है। अनेक कृतियों को अनुवाद नहीं हो पता।
उसके लिए लेखक को ही लाखों रुपये खर्च करने पड़ते हैं और मार्केटिंग का प्रयास करना
पड़ता है। यही सब चल रहा है। नोबेल पुरस्कार पाने वाले एक विदेशी लेखक ने एक बार कहा
था कि मुझे नोबेेल पुरस्कार मिलने के पीछे पूरा श्रेय मेरे मार्केटिंग मैंनेजर को जाता
है। आज साहित्य लेखन से अधिक उकी मार्केटिंग पर ध्याम देने की जरूरत है और मैं इस मामले
में बहुत कमजोर हूँ भाई। अपनी रचनाओं में मैं इस वक्त बदलते हुए जीवन मूल्यों को केंद्र
में रख कर लिखने की कोशिश कर रहा हूँ। मानवीय प्रवृतित्यों के क्रमश: होते विनाश को लक्ष्य करके लिखता रहता हूँ। आने वाले समय के मेरे दो उपन्यास
साढिय़ाँ और उजड़े हुए लोग इसी पर केंद्रत हैं। गाँव खत्म हो रहे हैं। शहरीकरण बढ़ रहा
है। लोग उ•ाड़ते जा रहे हैं। मुझे कहने में संकोच नहीं है कि
यह भारतीय समाज का पतनकाल है। छुटपुट रचनाएँ भी इसी के इर्दगिर्द रहती हैं।
103
- अपनी उन किताबों के बाबत् बताइए जो आपकी ही नजर में नीचे आ गयी हंै?
-
अपनी किसी भी किताब को इतना पराभव मैंने महसूस नहीं किया है भाई। जो
कल जहाँ थीं, जिस स्थान पर थी, आज भी हैं।
किसी भी कृति को मैंने कम नहीं महसूस किया। हाँ, यह अवश्य है
कि कुछ व्यंग्य रचनाओं को संपादित करना चाहता हूँ। किसी को भी पूर्णत: खारिज नहीं करूँगा। जो रचना खारिज होती है, वह उसी वक्त
नष्ट कर दी जाती है? जो सृजित हो गई, उसमें
संपादन की गुंजाइश तो रहती ही है, मगर उसे मैं अपनी ही नजर में
नीचा गिरा दूँ, यह संभव नहीं है। हाँ, ये
संभव हो सकता है कि कुछ विद्वान आलोचक जब मेरी कृतियों को बारीकी से देखें तो बता सकेंगे
कि कौन-सी रचना या कृति कितने नीचे आई है।
104
- लंबे समय तक लेखन और समाज को सही तरह से विश्लेषित कर रहे हैं । लिहाजा
एकदम दो टूक कहें कि लेखन-साहित्य में जो कुछ भी हो रहा है,
वह क्या है? माफिया उपन्यास भी तो इसी पर आया है
न, क्या खास है?
-
साहित्य की दुनिया की सच्ची और दो टूक पड़ताल को उद्घाटित करने वाला
मेरा उपन्यास है माफिया। समाज में साहित्य की राजनीति होती रही है। किसी को गिराना,
किसी को उठाना, यह खेल जारी है। अच्छे-बुरे लोगों का संघर्ष चलता रहता है। एक बार निराला जी से किसी ने पूछा कि इस
समय का सबसे बड़ा लेखक कौन है, तो निराला जी ने हँसते हुए कहा
था कि तुम मुझसे ही पूछ रहे हो कि सबसे बड़ा लेखक कौन है? ये
सच्चाई है कि लोग चालाकी से काम लेते हैं, जो योग्य हैं उनसे
ही पूछते हैं कि बताइये, यहाँ कौन योग्य है। साहित्य-समाज में निर्मलता की कमी आती जा रही है। माफिया बढ़ रहे हैं। कबी संचेतना
जैसी महत्वपूर्ण पत्रिका के संपादक डॉ. महीप सिंह ने
'माफिया सरगर्मÓ शीर्षक से पत्रिका में बहस छेड़ी
थी। मुझे याद आ रहा है कि आपने भी उसमें अपने विचार व्यक्त किए थे। मेरे भी विचारों
को पत्रिका ने प्रमुखता से स्थान दिया था। इस बहस के बाद ही मेरे मन में 'माफियाÓ उपन्यास का ख्याल आया और मैंने उसे पूर्ण किया।
संतोष की बात यह है कि अनेक मित्रों को उपन्यास पसंद आया। आलोचकों ने तो उसे बाव नहीं
दिया, पर हजारों पाठकों तक वह उपन्यास पहुँचा। मेरे लिए खुशी
की बात है कि सूर्यबाला जी जैसी बड़ी लेखिका ने अपनी किसी पुस्तक में उस किताब का जिक्र
किया है। मेरे साहित्य का उद्देश्य ही यही है कि जो कुछ घटित हो रहा है, उसे कलात्मक स्वरूप देकर प्रस्तुत करूँ। कल मर जाने वाला साहित्य मैं नहीं
लिखना चाहता। वह लम्बे समय तक जिंदा रहे, ऐसी कोशिश करता हूँ।
मेरे अनेक उपन्यास इसी कलेवर वाले हैं। ये समाज के चेहरे को सत्यपित करते चलते हैं।
साहित्य में जो कुछ हो रहा है, उस पर पहले के कुछ सवालों के उत्तर
में मैंने अपने मन की बात कही है। फिर कहना चाहता हूँ कि साहित्य में इन दिनों बहुत
ही सकारात्मक संदेश देने वाला साहित्य कम लिखा जा रहा है। बाजारू साहित्य अधिक है।
नये विषयों के नाम पर अश्लीलता है, स्वतंत्रता के नाम पर अराजकता
है। और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियाँ हैं। ऐसे समय
में न केवल साहित्य का बचाना है, वरन समाज को भी बचाना है। उसके
मूल्यों की रक्षा करनी है। कभी मैथिलीशरण गुप्त जैसे राष्ट्रकवियों ने कहा था-''हम कौन थे क्या हो गए और क्या होंगे अभी । आओ विचारें आज मिल कर ये समस्याएँ
सभीÓÓ। तो, यह समय आत्म-मंथन का है। हम और कितना पतित होंगे, यह सोचने का है।
यह पतन हमें क्या रास आ रहा है? मेरी रचना है- 'हमने कहा पतन है यह तो, वे बोले उत्थान है। मेरे देश
में अब तो यारो, इसी की खींचातान हैÓ।
105
- आपको आम तौर पर कम्प्यूटर-लेखक माना जाता है
जो एक साथ बहुतायत में खूब लिखते हैं। क्या इरादा है, इस आरोप
या सराहना पर कुछ कहना है?
-
इस आरोप को मैं विनम्रतापूर्वक स्वीकार करता हूँ। पिछले एक दशक से मैं
कम्प्यूटर-लेखक हूँ। हाथ से लिखने का अभ्यास अब छूट गया है। सीधे
लैपटॉप पर लिखता हूँ। यह समय सापेक्ष आचरण है। युग की नई सुविधाओं के अनुरूप चलने की कोशिश है। कम्प्यूटर
से लगाव इसलिए भी था कि मैं मीडिया से जुड़ा रहा। वहाँ कम्प्यूटर आया तो मैंने उसे
आत्मसात किया। मेरे अनेक मित्र उससे बचते रहे। इसका नतीजा यह हुआ कि वे अब पछताते हैं।
और मैं करत-करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान की स्थिति में पहुँचता
गया। पहले एकाध पेज लिखने में जान पर बन आती थी पर अब तो दो-दो
सौ पेज के उपन्यास भी सीधे टाइप कर लेता हूँ। फेसबुक, ट्विटर
और ब्लॉग आदि पर भी सक्रिय रहता हूँ। पहले ब्लॉग में खूब सक्रिय था, पर जब से फेसबुक अधिक लोकप्रिय हुआ, तो फेसबुक में सक्रिय
हूँ। यह एक ऐसा सोशल मीडिया है जिसके माध्यम से मैं अपनी बात विश्व तक पहुँचा रहा हूँ।
जो भी इनका इस्तेमाल कर रहा है, उसके साथ भी यही स्थिति है। पर
गर्व के साथ कहना चाहता हूँ कि मुझे फेसबुक का बड़ा लाभ मिला। बबल जैसे अनेक मित्र
मुझे दुबारा यहीं मिले और उनसे रिश्ता मजबूत होता गया। फेसबुक की मेरी रचनाओं को पढ़कर
अनेक लोगों ने मुझसे मित्रता की और कुछ लोगों ने आग्रह करके अपनी पुस्तकों के लिए मुझसे
दो शब्द भी लिखवाए। फेसबुक ने मुझे वो सब दिया जो साहित्य के तीन दशकों ने नहीं दिया।
इसलिए कम्प्यूटर-लेखक होने में गर्व महसूस करता हूँ। मेरे हम
उम्र अनके मित्र अभी भी कम्प्यूटर से दोस्ती नहीं कर सके हैं। वे करना तो चाहते हैं
पर कर नहीं पाते कि आखिरी वक्त में अब क्या खाक मुसलमां होंगे। पर मैं सोचता हूँ सीखने
की कोई उम्र नहीं होती। फेसबुक में अनेक वयोवृद्ध लेखक सक्रिय हैं। वे हम सब के लिए
प्रेरणा काम काम कर रहे रहे हैं। पहले हाथ में कॉपी -कलम आने
के बाद सृजन का मूड बनता था, अब लैपटॉप के खोलते ही सृजन का वातावरण
बनने लगता है। यह आत्मश्लाघा नहीं है, सच्चाई है। अन्य लेखक भी
मेरी बात से सहमत होंगे। पर किसी पुराने लेखक को यह बताओ तो वह अन्यथा लेता है कि ऐसा
कैसे हो सकता है। मेरा मत है कि सृजन की मन:स्थिति बने रहने के
कारण लेखन बाधित नहीं होता। रचना-प्रक्रिया चली रहती है। मैं
ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि वह मुझे स्वस्थ रखे। हाथ-पैर चलते रहें, दिमाग सक्रिय रहे ताकि भविष्य में भी
मैं कम्प्यूटर के माध्यम से साहित्य को कुछ बेहतर देने की कोशिश में रत रहूँ।
106
-पारिवारिक स्तर पर आपके बच्चे-रिश्तेदार,
आपकी पत्नी वगैरह भी क्या आपके पाठक हैं?
-
हाँ, मेरी रचनाओं को मेरे परिजन भी पढ़ते रहते
हैं कभी-कभी। इतनी अधिक किताबें हो गई हैं कि हर कृति को सबके
लिए पढऩा संभव नहीं, पर किसी-न-किसी को तो पढ़ते ही हैं। हाँ, पत्नी डॉ. मंंजुला जरूर देख लेती है। उस ने नवगीत पर शोधकार्य किया है। कॉलेज में हिंदी
पढ़ाती है इसलिए सहज रूप से साहित्य में रुचि है। मौलिक लेखन कम करती है पर साहित्यिक-आलोचना में अधिक रुचि है। उसकी आलोचकीय सम्मतियाँ भी समय-समय पर मिलती रहती हैं। अभी तो यह सिलसिला छूटा-सा है
पर जब मैं कभी बाल साहित्य लिखता था तो अपने एकमात्र पुत्र साहित्य को भी सुनाता था,
अन्य बच्चों को भी सुनाता था। जब उन्हें रचना समझ में आती थी तो मैं
रचना को ओक्के करता था, वरना फौरन ही रद्द कर देता था। जिसके
लिए अगर कविता लिख रहा हूँ, या नाटक तो उसे भी वो समझ में आना
चाहिए। पुत्र शुरू-शुरू में मेरी रचनाओं को पढ़ता और सुनता था।
इसलिए उसे आज तक मेरी अनेक कविताएँ कंठस्थ हैं। उसे वह सस्वर सुना कर दाद भी बँटोरता
है। पहले वह कविताएँ भी लिखता था, पर पढ़ाई के बोझ में दब कर
उसका रचनाकार मन कुचलता गया। अब चूंकि वह इंजीनियर है तो साहित्य से थोड़ा-सा ध्यान हटा है, पर वह इस बात पर गर्व तो करता ही है
कि मेरे पिता निरंतर सृजन रत रहते हैं और उनकी कृतियाँ प्रकाशित होती रहती हैं। परिजनों
को भी अच्छा लगता है कि उनके परिवार में कोई लेखनुमा जीव सक्रिय है। मेरी बुआसास डॉ.
स्नेहलता पाठक भी व्यंग्यकार हैं। वे भी सराहना करती रहती हैं। पिताजी
और ससुर अब नहीं रहे, पर वे भी अंतिम समय तक मेरी रचनाओं के पाठक
रहे। पिताजी अक्सर दिशा देते थे। जहाँ कहीं कमी लगती, तो कड़ी
आलोचना करते थे कि ये तुमने ठीक नहीं लिखा या ऐसा नहीं लिखना चाहिए था। मेरी कृति
'सेवाआश्रमÓ को पढ़ कर वे भावुक हो गए थे और कहा
था कि ''इसे किसी पाठ्य पुस्तक का हिस्सा होना चाहिए थाÓÓ। तब मैंने हँसकर कहा था, ''मेरी अनेक कृतियाँ पाठ्यपुस्तक
में आएँगी पर मेरे मर जाने के बादÓÓ। मेरी बात सुन कर वे मुस्कराए
थे और कहा था, ''ठीक कह रहे हो। समाज में जीते-जी लेखकों को उतना सम्मान नहीं मिलता, पर तुम लगे रहो।ÓÓ
एक गाय की आत्मकथा को भी उन्होंने सराहा था। लघुभ्राता सतीश उपाध्याय
व्यंग्य क्षणिकाएँ लिखता है। उसे भी मेरी रचनात्मकता पसंद आती है।
107
- क्या आपको साहित्य से जुड़े
सवालों से जूझना कठिन-सा प्रतीत होता है?
-
नहीं, मुझे साहित्य से जुड़े हर सवाल आकर्षित करते
हैं और ये सवाल दरअसल मुझे रास्ता भी दिखाते हैं। साहित्य का हर सवाल मेरे जीवन का
भी सवाल है। उन्हें हल करना मेरा कर्तव्य है। घर-परिवार के लोग
हों, या मित्रगण, सबके सवालों को सुनता
हूँ। उनकी प्रतिक्रियाएँ भी। और उनके अनुरूप खुद को गढऩे की कोशिश करता हूँ।
108-
सामान्य पाठक की अपेक्षा आपके परिवार के लोगों की किस तरह की टिप्पणी
होती है आपके लेखन आपकी उपलब्धियों पर?
-
वे अमूमन खुश ही होते हैं। किसी के चेहरे पर शिकन नहीं दीखती। उन्हें
गर्व होता है कि उनके परिवार को कोई सदस्य इतना सक्रियहै, भ्रमणशील
है। हाँ, कुछ मित्र जरूर ईष्या करते हैं। उनको लगता है ये दुकान
दार है। इतनी किताबें, इतना सम्मान, इतना
प्रवास? उफ। हम क्यों नहीं कर पाते, ये
कर लेता है। तब मैं स्पष्ट करता हूँ कि अगर मैं कहीं नौकरी कर रहा होता तो शायद ये
सब न कर पाता, पर मैं स्वतंत्र हूँ। जब चाहे जहाँ जा सकता हूँ।
नौकरी छोडऩे के बाद मैंने अनेक देशों की यात्राएँ की। इतना लिख सका। और निरंतर प्रवास
करता रहता हूँ। कोई बंधन नहीं है। घर का सहयोग तो रहता ही है। मेरी उपलब्धियों पर घर
बहुत खुश होता है। यह बड़ी बात है वरना अब लोग नाक-भौंह सिकोड़ते
हैं कि ये सब क्या कचरा (स्मृति चिन्ह, मानपत्र आदि)जमा होता जा रहा है।
109
- बहुधा घर से बाहर होने को लेकर भी क्या बच्चे और परिजन परेशान रहते
हैं?
-
नहीं, कोई परेशान नहीं होता। वरना प्रसन्न ही रहते
हैं कि चलो, इतने दिन टोकी-टोकी,
डांँट-फटकार कम होगी। नहीं-नहीं, ये मजाक में कह रहा हूँ। सब खुश होते हैं कि इन्हें
लोग किसी-न-किसी कार्यक्रम में आमंत्रित
करते रहते हैं। आखिर कितने लोगों को ऐसा सौभाग्य मिलता है भाई? और कौन किसी को बुलाता है आजकल, पर मुझे लोग बुलाते हैं,
सम्मानित भी करते हैं। कभी-कभी कुछ पैसे भी मिलते
हैं तो पत्नी के हाथों में दे देता हूँ। बच्चे का भी बताता हूँ। इससे सबको यह पता रहता
है कि साहित्य केवल घर फूँक तमाशा नहीं है, यह घर में लक्ष्मी
लाने का काम भी करता है। हाँ, कभी-कभी घर
के लोग इस बात से चिंतित होते हैं कि मेरा स्वास्थ्य ने बिगड़ जाए। पिछले एक दशक में
स्वास्थ्य निरंतर खराब होता रहा। दो बार पीलिया हुआ, फिर गॉल
ब्लेडर फूट गया पेट में ही। रायपुर और हैदराबाद ले जाकर आपरेशन कराया गया।प्रवास से
लौट कर कभी-कभी बीमार भी पड़ जाता हूँ इसलिए परिजन समझाते हैं कि अब प्रवास कम कीजिए। सो,
अब धीरे-धीरे उस ओर भी बढ़ रहा हूँ।
110
- आपके घर के इर्द-गिर्द के वे लोग जो आपको एक
लेखक के रूप में नहीं जानते होंगे या थे पर जब जाने कि आप भी लेखक हैं तो किस तरह की
कोई प्रतिक्रिया रही? कोई कमेंट्स याद हैं?
-
ये बड़ा रोचक सवाल है, भाई। घर के लोग तो जानते
हैं कि लेखक हूँ पर जिसे हम इर्दगिर्द कहते हैं, उनमें कई नहीं
भी जानते कि मैं कोई लेखक हूँ। उनके लिए एक पड़ोसी हूँ, एक व्यक्ति
हूँ। यह मेरे लिए भी पर्याप्त है। पड़ोस में अलेखकिस्म से रहना ज्यादा फायदेमंद है,
वरना लोग आकर तंग करते हैं। इसलिए नये मोहल्ले में सामान्य व्यक्ति की
तरह रहता हूँ और मिलता हूँ। आज भी कुछ लोग हैं जो मुझे पत्रकार के रूप में ही जानते
हैं। लेकिन जैसे ही उन्हें पता चलता है कि मैं व्यंग्य लिखता हूँ, कविताएँ लिखता हूँ तो वे खुश हो कर कहते हैं, ''अरे वाह,
हमें तो पता ही न था। यार, बच्चे का मुंडन संस्कार
है, कोई कविता लिख देना।ÓÓ तब मैं सिर पीटता
हूँ। कभी-कभी ऐसी बेगारियाँ भी करनी पड़ती हैं फोकट में,
क्योंकि हम किसी के मित्र हैं, रिश्तेदार हंै।
कई बार टाल भी देता हूँ। लेखक होने की जानकारी होने पर पड़ोस के लोग आवेदन पत्र लिखवाने
भी पहुँचते रहे हैं। बच्चे के लिए निबंध लिख कर देने की फरमाइशें भी करते हैं। बड़ी
कठिन स्थिति हो जाती है। पर सबको संभालना पड़ता है। कभी मना करना पड़ता है,
कभी किसी के लिए कुछ लिखना भी पड़ता है। एक बार एक सज्जन को मैंने मना
किया तो वे उखड़ गए और बोले- ''वाह, इत्ते
बड़े लेखक बनते हो और चार लाइन का पत्र नहीं लिख सकते? लेखक हो या बाबा जी घंटा हो?ÓÓ
मुझे बहुत हँसी आई । मैंने कहा, ''जो समझ लो।ÓÓ
वे नाराज हो कर चले गए। कुछ लोग कहते हैं फलां नेता के लिए कुछ लिख दो
तो मना कर देता हूँ। तब लोग घमंडी कहने लगते हैं। एक बड़े नेता थे। एक साहित्यिक संस्था
के वे अध्यक्ष थे और मैं मंंत्री-संचालक। जब कार्यक्रम होता तो
मैं उनके पास जाता था, पर वे चाहते थे कि मैं रोज उनके पास आकर
बैठूँ, चर्चा करूँ। राजनेताओं में यह सामंती मानसिकता होती है
दरबार सजाने की। वे समझते थे कि मैं भी उसी गोत्र का हूँ। तो, मैं कभी जाता ही नहीं था। एक दिन वे कहने लगे - ''आपकी
पत्रिका का नाम सदभावना दर्पण है, पर आप में सद्भावना नहीं है।
आप आते नहीं। आप में घमंड है।ÓÓ मैं विनम्रतापूर्वक जवाब दिया
था, ''जब आयोजन संबंधी चर्चा करनी होती है, तब मैं आ जाता हूँ।ÓÓ उनके लिए भी मैंने कभी बेगारी नहीं
की, यानी कोई भाषण-वाषण नहीं लिखा।
111- आज पूरे परिवार की आपके प्रति क्या
धारणा और राय है?
-पहले और अभी में काफी अंतर आया है। पहले एक आशंका रहती थी, कि क्या होगा। अब सामने है कि क्या हुआ है। जो हुआ, बेहतर
ही हुआ है। पिताजी तो खैर शुरू से मेंरे साथ थे। उन्होंने मुझे गंगा नदी में फेंक कर
तैरना सिखाया। मैं डूबने लगता था तो हाथ-पैर मारता था। धीरे-धीरे तैरना सीख गया। जीवन की नदी में भी मैंने ऐसा किया। धीरे-धीरे तैरना सीख गया। कभी डूबा नहीं। पिताजी मेरी सफलता पर खुश रहे। वे पहले
कहते थे- पीएच डी कर लो तो मैंने पंजीयन करा लिया- 'हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रवींद्रनाथ त्यागी के व्यंग्य
साहित्य का अनुशीलनÓ। यह विषय था। काफी-कुछ लिख भी लिया था। पर बाद में दिल उचट गया। कोई अनिवार्यता थी नहीं। नौकरी
का कोई बंधन नहीं था कि डॉक्टर हो जाएँगे तो प्रमोशन हो जाएगा, वेतन बढ़ जाएगा। मैंने लेखन पर ही ध्यान दिया। मेरी इस लापरवाही पर पिताजी
नाराज रहते थे। पर बाद में ऐसा कुछ हुआ कि मेरे व्यंग्य साहित्य पर लोग शोध कर के डॉक्टर
होने लगे। (यह सिलसिला अभी भी जारी है) तो पिताजी ने एक दिन अपनी ओर से ही कहा कि बेटा, तुमने
भले ही पी-एच. डी. नहीं की, पर अब लोग तुम पर पीएच. डी कर रहे हैं, यह मेरे लिए संतोष की बात है।ÓÓ
मेरी अनेक उपलब्धियों पर पिताजी ने हमेशा आशीर्वाद दिया। रिश्तेदार सोचते
थे कि मैंने अखबार की नौकरी छोड़ दी है तो अब क्या होगा। पर बाद में उन्होंने देखा
कि मेरे सामने अर्थ का संकट नहीं रहा। घर पर मैं बोझ कभी नहीं बना। पिताजी से बचत को
जो सबक मैंने सीखा था, वह मेरे बड़े काम आया। मैंने बचत करके एक बड़ी रकम बैंक
में जमा कर दी और उसके ब्याज और लेखन-पारिश्रमिक से आर्थिक संकट
का दूर करता रहा। प्राध्यापक पत्नी का सहयोग था ही। उसे भी खुशी थी कि उसके पति ने
अपना एक स्थान बनाया है। साहित्य में कुछ जगह तो बनी ही है। कुल मिला कर घर-परिवार और रिश्तेदार सभी प्रसन्न हैं। वे सब चाहते हैं कि लेखन की दुनिया में
मैं इसी तरह सक्रिय रह कर सबको गौरवान्वित करता रहूँ।
११2 - एक व्यग्यंकार की छवि कैसा होती है जब लोग उसका परिचय एक व्यंग्यकार के रूप
में कराते हैं?
-
व्यंग्यकार की छवि एक बेहतर दबंग इंसान की होती है। पर अफसोस, ऐसी छवि कम व्यंग्कारों की ही है।
मैंने अनेक व्यंग्यकारों को लचर, चापलूस और घटिया लोगों की तरह
ही देखा है। मैं जब व्यंग्यकारों को ही अनेक विसंगतियों से घिरा देखता हूँ तो सोचता
हूँ ये व्यंग्यकार कैसे हो गए? इन्हें तो कुछ और होना था,
पर वे व्यंग्यकार हैं। दरअसल अब यह बात समझ में आ गई है कि लेखन एक कला
है। इसे कोई भी सिद्ध कर सकता है। जब कुख्यात आतंकी ओसाम बिन लादेन भी कवि हो सकता
है तो कोई व्यंग्यकार भी क्यों नहीं हो सकता । व्यंग्यकार या साहित्यकार होने भर से
कोई महान नहीं हो जाता। खैर,अपनी बात करूँ, तो मुझे बड़ी खुशी होती है जब मेरा परिचय
एक व्यंग्यकार के रूप में दिया जाता है। बहुत पहले परसाई जी का किसी ने परिचय दिया
था, ''मिलिए, आप हैं मिस्टर परसाई। कुछ
फनी थिग्स लिखते हैं।ÓÓ मेरे लिए भी मित्र कुछ-कुछ ऐसा ही कहते हैं कि ये व्यंग्यकार हैं। लोगों को उधेड़ते रहते हैं। लम्बे
समय तक पत्रकारिता में रहा, पर खुद को पत्रकार कहलाने में संकोच
होता है। आज पत्रकारिता का जो चरित्र बन गया है, उसके कारण लोग
इस पेशे को संदेह की नजरों से देखते हैं, पर साहित्यकार या व्यंग्यकार
को अभी भी सम्मान से देखा जाता है। इसलिए अगर कोई मुझे लेखक या व्यंग्यकार अथवा कवि
भी कहता है तो बुरा नहीं लगता। हाँ, कवि कहने के बाद खतरा यह
रहता है कि लोग शुरू हो जाते हैं कि भाई, एक कविता सुना दो। तब
कहना पड़ता है कि याद नहीं है । व्यंग्यकारों के प्रति समाज में आदर भाव है। क्योंकि
व्यंग्यकार कम हैं। ज्यादातर चाटुकार ही हैं। मसखरे किस्म के। हालांकि ये सत्य है कि
समाज में मसखरों की ज्यादा पूछ-परख है, व्यंग्यकार से लोग दूर रहते हैं। खास कर सत्ता में बैठे लोग। व्यंग्यकार उनकी
खिंचाई करता है। और मेरे जैसा व्यक्ति तो और अधिक करता है क्योंकि मुझे सत्ता से लाभ
की कोई ख्वाहिश ही नहीं है। सत्ता में बैठे नेता-अधिकारी बिदकते
हैं, पर आम लोग स्नेह देते हैं। यही बहुत है मेरे लिए। मैं चाहता
हूँ लोग मुझे व्यंग्यकार के रूप में ही पहचानें।
११3- अपने ऊपर सबसे सटीक व्यग्ंय क्या है?
-
अपने ऊपर सबसे सटीक व्यंग्य यही है कि अब तक लेखन कर रहा हूँ। हताशा-निराशा के बीच भी लगे हुए हैं मुन्नाभाई की तरह। मान-अपमान भी मिलते हंै। विफल भी होते रहते हैं, निराश भी
होते हैं पर जीवन के प्रति ललक बनी रहती हैं। सृजन का साथ नहीं छूटता। कृतियाँ आती
हैं, और कहीं खो जाती हैं। चर्चा नहीं होती। फिर भी किसी नई लेखकीय
परियोजना के लिए तत्पर रहते हैं। यह व्यंग्य ही तो है जीवन का, फिर भी प्रतिबद्ध हैं। उपभोक्तावादी लोगों की नजर में हम बेकाम हैं,
झंडूबाम हैं। क्योंकि न मांस खाते हैं, न मदिरा
पीते हैं। न पिज्जा-बर्गर, न फटी जींस पहन
कर घूमते हैं। खादी ही हमारी आत्मा काऔर हमारा लिबास है। ऐसे लोग अब व्यंग्य ही हैं
और क्या।
११4 - आज समाज में चारों तरफ कुव्यवस्था और अनियमितता है। इस बेहाल समय में लोग हास्य
के प्रति क्या धारणा बना रहे हैं। खासकर अपने आपको यह बताना कितना कठिन-सा लगता है कि मैं व्यंग्यकार हूँ और व्यंग्य लिखता हूँं। लोग किस तरह देखते
हैं ? स्थितियों को व्यंग्य में ढालना-पेश
करना और प्रस्तुत करना कितना कठिन है?
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यह एक बड़ी चुनौती है। और इस चुनौती में खुद को व्यंग्यकार बताना या
उस रूप में देखना बड़ा कठिन है। ऐसे समय में जब लोग हास्य रस की ओर उन्मुख हों,
पूरे कुएँ में भांग पड़ी हो, तब व्यंग्यकार होना
बड़ी चुनौती है। अब लोगों को पूरा ध्यान हँसने-हँसाने में हैं।
देश और समाज की चिंता पर बात करना पागलपन है। हास्य ही जीवन का लक्ष्य हो गया है। लोगों
को केवल हँसी चाहिए। इसलिए टीवी पर हास्य के कार्यकम अधिक होते हैं। कवि सम्मेलन भी
हास्यमय हो गए हैं। अखबारों में चुटकुलों की बहुलता है। व्यंग्य स्तंभों में फूहड़
हास्य की स्थितियाँ हैं। इसलिए किसी से परचिय की नौबत हो तो यह बताने में भी संकोच
होता है कि हम व्यंग्यकार हैं। कोई बता दे तो कोई बात नहीं, अपना
खुद का परिचय देना हो तो यही कहते हैं कि सद्भावना दर्पण नामक पत्रिका के संपादक हैं।
झंझट खत्म। कोई लफड़ा नहीं। मान लीजिए हमने कह दिया कि व्यंग्यकार हैं तो सामने वाला
बिदक सकता है। क्योंकि पता नहीं किस व्यंग्य से वह चोट खा चुका हूँ। आज चारों ओर रिश्वतखोरी
है, अराजकता है, न जाने कितने लोग विसंगतियों
से घिरे हैं। न जाने कौन-सा व्यंग्य उन्हें आहत कर चुका हो। इसलिए
लोग व्यंग्यकारों से बचते हैं। इसलिए यह समय व्यंग्य-विरोधी है।
व्यंग्य से बच कर रहते हैं लोग फिर भी अगर हम व्यंग्य लिखते हैं तो बड़ी बात है। यह
धारा के विपरीत चलने जैसा है, फिर भी चलना है क्योकि व्यंग्य
अपने लिए छवि चमकाने की विधा नहीं, जीवन जीने की एक प्रविधि है।
एक अनविार्यता है। इस समय व्यंग्य लिखना कठिन है। क्योकि उसके प्रति अनुराग कम दीखता
है, फिर भी लिखना है। हम जैसा व्यंग्य लिख रहे हैं, वैसा व्यंग्य छापना कलेजे का का काम है। वह छपता नहीं, इसलिए थोड़ा सॉफ्ट भी करना पड़ता है। लेकिन लिखते व्यंग्य ही हैं। कुछ पत्र-पत्रिकाओं में भले न छपे, सीधे संग्रह में आ जाते हैं।
११5 - साहित्य का सबसे बड़ा व्यंग्य क्या है ? खासकर लेखकों
में इस तरह के कौन हैं जो हर तरह से इस विघ्धा को साकार करते हैं?
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साहित्य का सबसे बड़ा व्यंग्य यही है कि इस दौर में साहित्य लिखा जा
रहा है और थोड़ा-बहुत पढ़ा भी जा रहा है। साहित्य की सबसे बड़ी
विधा इस वक्त व्यंग्य ही है। और मुट्ठीभर लोगों के द्वारा वह लिखा जा रहा है। इस महादेश
में करोड़ों लेखक होंगे पर व्यंग्य लिखने वाले अभी भी उँगलियों में ही गिने जा सकते
हैं। यह एक व्यंग्य ही तो है। रही बात वे लेखक जो इस विधा को हर तरह से साकार करते
हैं तो ऐसे व्यंग्यकार कम ही हैं। परसाई, शरद जोशी, त्यागी, यज्ञ शर्मा जैसे व्यंग्यकार तो थे ही,
अब उनके बाद निरंतर व्यंग्य लिखने वालों में गोपाल चतुर्वेदी,
हरि जोशी, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम, जनमेजय, हरीश नवल,
सूर्यबाला, सुभाषचंदर, सुशील
सिद्दार्थ, अरविंद तिवारी, श्रवणकुमार उर्मलिया
आदि निरंतर लिख रहे हैं। मैं भी इनके साथ हूँ। कुछ नये व्यंग्यकार भी हैं, जिनका जिक्र मैं पहले कर चुका हूँ।
११6 - अब बात करें, महिला व्यंग्यकारों की। महिला व्यंग्य लेखन
की मुख्यधारा क्या है? इसकी शुरूआत कब से हुई है? खासकर महिला और पुरूष व्यग्ंयकारों
के लेखन में मूलत: क्या कुछ अंतर पाते हैं ? महिला व्यग्यंकार की क्या खासियत है और किस पहलू को आप नए अंदाज में देखते
हैं?
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महिला व्यंग्य लेखन या पुरुष व्यंग्य लेखन के रूप में विभाजन अन्याय-सा लगता है। लेखन लेखन होता है पर लाख कहें, विभाजन हो ही जाता है।
यह सवाल उठता ही है। मुख्यधारा का जहाँ तक सवाल है तो महिला व्यंग्यकारों के विषय घर-परिवार तक अधिक सिमटे होते हैं। वे राजनीतिक विमर्र्श कम ही करती हैं लेकिन
जब भी करती है, तगड़ा करती हैं। महिला व्यंग्यकार तीक्ष्ण व्यंग्य
शैली वाली होती हैं। वे किसी को बख्शती नहीं। महिला व्यंग्य लेखन की मुख्यधारा में
करुणा है। पाखंड है। असमानता के विरुद्ध जेहाद है। स्त्री मुक्ति की छटपटाहट भी है।
अन्याय के विरुद्ध प्रतकिार का उग्र स्वर महिला व्यंग्यकारों की मुख्यधारा है। स्त्री
की जो कोमल छवि हम कविता में देखते हैं, वह छवि व्यंग्यकार रूप
में नजर नहीं आती है। वैसे महादेवी वर्मा हो, या सुभद्राकुमारी
चौहान, इनके लेखन में भी कहीं-कहीं व्यंग्य
झलकता है। पर उनकी केंद्रीय विधा कविता रही। गद्य में उनका व्यंग्य दृष्टव्य नहीं होता।
फिर भी हम कह सकते हैं कि स्त्री लेखन में तेजस्विता की परम्परा ऐसी ही लेखिकाओं के
कारण संभव हो सकी। महिला व्यंग्य लेखन की विशेषता यह है कि वे अधिक कटु नहीं होतीं।
वे मनोविनोद के साथ व्यंग्य करती हैं। वे समय सापेक्ष होती हैं। जैसे आज का समय है
तो उनके व्यंग्य में
आज की बात होगी। सोशल मीडिया की दुनिया का व्यंग्य होगा। पिछले दिनों लखनऊ में माध्यम संस्था
की ओर से हुई संगोष्ठी में महिला व्यंग्यकरों पर बात हुई पर वह अंतत: स्त्री-पुरुष की प्रतिस्पर्धा में तब्दील हो गई। इसमें
कोई छिपाने वाली बात नहीं है कि व्यंग्य की क्षेत्र में महिलाएँ बहुत कम हैं। सूर्यबाला
सबसे आगे हैं। उसके बाद अलका पाठक और स्नेहलता पाठक आदि कुछ वरिष्ठ लेखिकाएँ हैं। नई
लेखिकाओं में अर्चना चतुर्वेदी, इंद्रजीत कौर, वीणासिंह आदि सक्रिय हैं। आरिफा, शशि पुरवार,
शशि पांडेय, अंशु प्रधान, संगीताकुमारी भी यदा-कदा लिखती रहती हैं। कुछ और भी हो
सकती हैं, जिनके नाम मैं भूल रहा हूँ। इन सबको व्यंग्य के बारे
में गंभीरतापूर्वक पढऩा होगा। व्यंग्य की परम्परा को समझना होगा।
११7 - महिला व्यंग्यकारों की मौजूदा पीढ़ी और उभर रही नयी पीढ़ी पर आपकी क्या राय
है?
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मैंने कुछ नाम पूर्व प्रश्न के उत्तर में लिए हैं। फिर यहाँ दुहराना
ठीक नहीं। ये सभी लेखिकाएँ अच्छा लिख रही हैं। कुछ जो बिल्कुल नई हैं, उनमें व्यंग्य की समझ धीरे-धीरे ही आएगी। पिछले दिनों
लखनऊ में कुछ महिलाओं ने जो व्यंग्य पढ़े, उसे सुन कर वरिष्ठ
व्यंग्यकार निराश हुए। ज्ञान जी समेत हम सबको बोलना ही पड़ा कि महिला व्यंग्यकार अपनी
लेखनी में निखार लाएँ। व्यंग्य का मतलब सपाट तरीके से बयान देना नहीं है कि सड़कों
पर गड्ढे हो गए हैं। गंदगी पसरी हुई है। यह लेख हुआ है। अपनी बात तो जब तक व्यंजना
में नहीं कहेंगे, तनिक वक्रोक्ति के साथ नहीं कहेंगे,
वह व्यंग्य नहीं कहलाएगा। ऐसे सपाट व्यंग्यों की आलोचना से कुछ महिला
व्यंग्यकार भड़क गईं। वे बेहद नई थीं। उनकी रचनाएँ कमजोर थीं, पर वे मानने का खाली नहीं थी। हम जब अपना आत्म मूल्यांकन नहीं करेंगे,
निखरेंगे नहीं। जो निंदकों को नियरे रखेगा, वही
सफल होगा। लखनऊ की गोष्ठी के बाद कुछ महिला व्यंग्यकारों ने जरूर महसूस किया कि उनमें
कमी है, वे सुधार करेंगी। तो नई पीढ़ी में दो तरह की लेखिकाएँ
हैं। एक तो वे हैं जो यह मान कर चल रही हैं, कि वे आकाश से उतरी
हैं, उनमें कोई दोष नहीं, उन्हें सीखने
की जरूरत ही नहीं, और दूसरी वे हैं जो सीखना चाहती हैं। बेहतर
लिखना चाहती हैं। ऐसी लेखिकाएँ आगे बढ़ेंगी। जो गुरूर में रहेंगी, वे टूट जाएँगी। जो विनम्र-भाव से आलोचनाओं को स्वीकार
करेंगी, वे भविष्य में सूर्यबाला भी बन सकती हैं।
118
- आजकल स्त्री-मुक्ति आंदोलन का बड़ा जोर है। कुछ
लेखिकाएँ खूब हल्ला मचाए हुए हैं। उन पर आप क्या कहना चाहेंगे?
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स्त्रीमुक्ति-आंदोलन एक जुमला है। एक राजनीति है
जो कुछ लेखिकाएँ करती रही हैं और उन्हें हवा देने का काम एक बड़े लेखक-संपादक ने किया। वे अब इस दुनिया में नहीं हैं वरना उनका नाम भी ले सकता था।
तो ऐसे कुछ लेखकों, संपादकों और आलोचकों या कहें कि जिस्मखोर
लागों ने स्त्रीमुक्ति आंदोलन का हवा दी। और कुछ लेखिकाएँ आजादी के नये अर्थ तलाशते
हुए स्त्री मुक्ति का नारा लगाने लगीं। देखते-ही-देखते स्त्री मुक्ति देह मुक्ति में बदल गई। स्त्री अपने ही पतन की कहानी लिखने
लगी और उसे स्त्री मुक्ति का नाम दे दिया। कुछ लंपट किस्म के लेखकों ने उन्हें और प्रोत्साहित
किया। कुछ पत्रिकाओं ने अपना हँस-विवेक ही खत्म कर दिया और वे
कौवे की तरह उन अश्लील-कचरा रचनाओं को प्रकाशित करने लगे,
जिनमें स्त्री की आजादी के नाम पर केवल मांसलता थी। दैहिक उत्तेजना थी।
समलैंगिकता की अनेक कहानियाँ लिखी गईं। अपनी देह किसी को भी सौंप कर यह कहा गया कि
यह हमारी देह है, इस पर हमारा अधिकार है। जिसे चाहें दे सकते
हैं। हमें रोकने वाला पुरुष कौन होता है? महादेवी वर्मा जैसी
लेखिकाएँ अपने समय में स्त्री के बंधनों को तोडऩे की बातें करती थीं पर वे भारतीय अस्मिता
के बाहर नहीं निकलती थीं। वे मूल्यों की पक्षधर थीं। उनके निबंधों को हम पढ़ सकते हैं।
ये मैं अपने मन से नहीं कह रहा। वे स्त्री को स्वतंत्रता देने के पक्ष में थीं, उसके
लिए संघर्षरत भी थीं, पर उनके लेखन में कहीं अश्लीलता नहीं थी।
पर अब तो घोर अश्लीलता नजर आती है। मेरी एक परिचित लेखिका से जब एक घरेलू महिला ने
कहा कि आप अश्लील लिखती हैं तो वह जवाब देती है, तुम जो भी कहो
लेकिन तुम ये तो मानती हो न कि मैं बोल्ड हूँ। आजकल इसी बोल्ड होने के नाम पर अश्लीलता
फैल रही हैं। फिल्मों में हीरोइनें माँ-बहिन की गालियाँ दे रही
हैं। कहानी में स्त्री गालियाँ दे रही हैं। वस्त्र उतार रही हैं। यानी सारी वर्जनाएँ
इस मुक्ति आंदोलन की देन है। लेखिकाओं की यह बोल्डनेस साहित्य पर भारी पड़ी है। और इधर
की कुछ लेखिकाओं में उसका भोंडा असर साफ दीख रहा है। यह स्त्री मुक्ति आंदोलन पश्चिमम
की देन हैं। इसके विरुद्ध
स्त्रियों को ही आगे आना होगा और समझाना होगा कि हमें मुक्त तो होना है पर अपनी संस्कृति
से, परम्परा से, नैतिक मूल्यों से मुक्त
नहीं होना है। कुरीतियों से होना है। टोनही प्रथा से होना है। अज्ञानता से होना है।
फैशन से होना है। नग्नता से होना है। आधुनिकता के नाम पर जो बुराइयाँ आ रही हैं,
उनसे मुक्त होना है। हमें घर-परिवार से मुक्त नहीं
होना है। इस बंधन में सुख हैं। जुडऩे का भाव है। सामूहिकता का बोध है। इसे बचा कर रखना
है। स्त्री मुक्ति के नाम पर अश्लीलता फैलाने वाली मानसिकता का विरोध भारतीयता अस्मिता
से जुड़ी महिलाएँ ही कर सकती हैं।
119
- आपकी नजर में आदर्श साहित्य कैसा होना चाहिए?
-
मुझे लगता है जो साहित्य आदमी को इंसान बनाने की क्षमता रखे,
वैसा साहित्य होना चाहिए। जैसे हमारे धर्मग्रंथ होते हैं, जो हमें नेक राह दिखाते हैं, नेक पाठ पढ़ाते हैं। हमारे
भीतर के विकारों को दूर करते हैं। हमें महानता की ओर ले जाते हैं। मेरा एक मुक्तक है-
जिसमें
जन-गण-मन का वंदन, वह सच्चा साहित्य।
जिसमें
करुणा का स्पंदन वह सच्चा साहित्य।
आजादी
का अर्थ नहीं हम हो जाएँ निर्वस्त्र।
जिसमें
नैतिकता का बंधन वह सच्चा साहित्य।।
साहित्य
अराजक न बनाए। वह हिंसा के लिए प्रेरित न करें। वह अश्लीलता न फैलाए। जो भटके लोगों
को नेक राह दिखाए। वह अपनी परम्पराओं में आधुनिकता का संस्पर्श तो करे पर यह ध्यान
रखे कि वह उसे विकृत तो नहीं कर रहा। साहित्य चाहे वह कोई भी लिखे, वह साहित्य रहे। साहित्य में अलगाववादी स्वर मुखरित न हो। अब साहित्य को हमने
दलित साहित्य, स्त्री साहित्य, हिंदू साहित्य
और मुस्लिम साहित्य में बाँट दिया है। साहित्य केवल साहित्य होता है। उसकी भाषा कुछ भी हो सकती है, पर उसका अंतिम लक्ष्य एक ही होता है जो मुक्तिबोध ने कहा था, ''जो भी है उससे बेहतर चाहिए। सारा
कचरा साफ करने के लिए मेहतर चाहिएÓÓ। तो, समाज को बेहतर बनाने के लिए साहित्य को मेहतर की भूमिका में भी उतरना पड़ता
है। पर यह ध्यान रहे
कि गंदगी को साफ करना है, उसे बाहर निकालना है। उसमें समाना नही
हैं। हमें गंदगी नहीं बनना। साहित्य जिम्मेदार कर्म है, जो बड़ी
गैर जिम्मेदारी के साथ रचा जाने लगा है। साहित्य तुलसी, कबीर,
नानक, रैदास यानी ऐसे ही महान संतों के चिंतन की तरह भव्य होना चाहिए।हमारी
हर रचना स्वांत:सुखाय तो हो पर वह परदुखकातरता मय हो। अगर अंतस
की सोई करुणा जगाने में साहित्य विफल है तो कच्चा साहित्य है।
१20- नये लेखकों के लिए कोई संदेश?
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चूँकि अब साठ का होने वाला हूँ इसलिए कुछ पाठ तो पढ़ा ही सकता हूँ।वैसे
अब तो किसी को कोई पाठ पढ़ाना या संदेश देना बड़ा कठिन है। कौन सुनता है किसकी?
फिर भी नई पीढ़ी से कहना चाहूँगा कि साहित्य की दुनिया में अगर वे आने
के लिए गंभीर हैं, तो वे सोच लें कि सृजन का पंथ लम्बा होता है।
दूर तक की यात्रा करनी पड़ती है। यहाँ लोग फौरन फल पाने के आकांक्षी हो जाते हैं और
वे सारे हथकंडे अपनाते हैं, जो बेहतर इंसान बनने के लिए वज्र्य
होते हैं। यानी लेखक को कथनी-करनी में अंतर रख कर जीने वाला नहीं
होना चाहिए। जो कहता है वा करके दिखाने वाला होना चाहिए। अग हम कहते हैं सदा सच बोलें
तो सच बोलने वाला बनना भी चाहिए। नैतिकता, करुणा, जीवन-मूल्य इन सबके लिए उसका जीवन समर्पित हो। उसकी कलम
चले तो लोक मंगल के लिए। सामाजिक परिवर्तन के दूत की तरह लेखक को काम करना चाहिए। विधा
कोई भी हो, साहित्यकार उसके माध्यम से रचनात्मक क्रांति कर सके,
यही उसका लक्ष्य होना चाहिए। लेखक होने के गुरूर और उसके शुरूर से मुक्त
हो कर ही सच्चा लेखन हो सकता है। और सबसे बड़ी बात सीखने की, पढऩे की ललक हो। इधर अनेक
लेखकों को मैं देखता हूँ कि वे पुरानी पीढ़ी को पढञना ही नहीं चाहते। अगर वे पढ़ते
होते तो अपनी परम्परा को समझ सकते थे। भाषा के क्रमिक विकास से भी वे गुजरते। कितना
बेहतर लिखा जा चुका है, इसका पता भी चलता। इसलिए सारा अभिमान
त्याग कर हमें पढऩा चाहिए। अच्छा लिखने की शर्त ही है कि हम पहले खूब पढ़े। ज्यादा
पढ़ें और कम लिखें। मैंने
कभी लिखा था- कम लिखें ज्यादा पढ़ें, जिं़दगी
को यूँ गढ़ें। अंत में अपने एक और मुक्त के साथ अपनी बात खत्म करूँगा कि
सृजन
का पंथ है लम्बा अभी तो दूर जाना है।
रुके
ना पैर ये मेरे यही संकल्प ठाना है।
बहुत-सी मुश्किलें भी पेश आएँगी मगर साथी,
भुजाओं
में है कितना बल इसे ही आजमाना है।
बहुत-बहुत धन्यवाद। आभार।