मीठी मीठी यादों से भरे कॉलेज के वे मोहक दिन (1986-87)
अनामी शरण बबल
अतीत की याद मनभावन
लागे
ज्यों दूर के ढोल
सुहावन लागे
(1987- 2017)
( कॉलेज में मेरे
साथ मेरी मोहक यादों को ना भूलने योग्य बनाने में अपनी भूमिका निभाने वाले तमाम
गुरूजनों, मेरे क्लास के सहपाठी पाठिन मित्रों समेत उस दौरान कॉलेज के विभिन्न
कक्षाओं पाठ्यक्रमों में पढने वाले समस्त दोस्तों साथियों की याद में समर्पित है
यह मादक और मीठा सा संस्मरण। आप सभी के कारण ही मैं 30 साल गुजर जाने के बाद भी इन
मीठी मीठी यादों से भरे कॉलेज के वे मोहक दिनों को मैं भूल नहीं पाया। इस संस्मरण
को लिख लेने के बाद मैं अपने सहपाठियों की तलाश में लगा, बहुतों को फोन भी किया
सूत्र के सूत्र के सूत्रों को भी खंगाला मगर अंतत केवल एक सहपाठिन से दूरभाष पर
बात हुई। एक स्कूल में शिक्षिका के रूप में काम कर रही सहपाठिन तो अब नानी बन गयी
है। इनसे बात करने में मुझे अपनी शिक्षिका मौसी का सहारा लेना पड़ा। पटना में ही
कहीं बतौर शिक्षिका शिक्षा की रौशनी बांट रही वीणा से अंतत कोई संपंर्क नहीं हो
सका। अलबत्ता वहीं एक और सहपाठिन से फोन पर बात हुई तो संस्मरण को कुछ ज्यादा रसदार
बनाने की कोशिश की आलोचना की, मगर ज्यादातरों की पहिचान को पर्दे में रखने की
सराहना करती हुई बोली कि लेख जब जब मैं पढ़ती हूं तो 1986-87 के दिन जीवंत हो जाते
है।
हालांकि इस दौरान
मेरा औरंगाबाद जाना तो तीन बार हुआ मगर कब आकर लौट आया सका कोई अहसास ही नहीं हुआ,
नहीं तो दो एक मित्रों की खोजबीन हो सकती थी। खैर कॉलेज छोड़ने के 30 साल में
जमाना बदल गया। युवा से लेकर अधेडावस्था सिर पर है। मैंने क्या कॉलेज छोडा कॉलेज
की शिक्षा तो मेरी बेटी की भी पूरी हो गयी। मगर यादें ही जीवन है, निधि है और
जिंदा रहने की दवा है। यादें हमें प्रेरणा देती है। तो तमाम दोस्तों अपने कॉलेज
में गए भी 10 साल से ज्यादा हो गए हैं, मगर मीठी मीठी चुभन और अपनी छात्रावस्था की
मोहक खुश्बू आज भी कॉलेज में कहीं ना महसूसता हूं जो कभी जाने पर जीवंत हो जाएगी।
तो मेरे कॉलेज के भूत से लेकर वर्तमान यानी सभी छात्रों छात्राओं को समर्पित है मेरा
कॉलेजी संस्मरण जिसमें मैं भी कभी कभी खुद को संलग्न पाता हूं। नमस्कार )
1
अपने अतीत में एक
लंबे अंतराल के बाद झांकना मन को भावविभोर कर देता है। हालांकि बहुत सारी बातें तो
मन की पटरी से उतर भी जाती हैं, मगर अतीत की तमाम मोहक यादें सदा पटरी पर ही बनी रहती
है। 1981 में मैट्रिक पास करने के बाद पढ़ने के लिए दयालबाग आगरा में मेरा नाम
लिखवाया गया मगर घर से बाहर निकलते ही मानों मैं
बेहय्या सा होकर बहक गया, और मेरी तंद्रा तब टूटी जब इंटरमीडिएट (कृषि) की
परीक्षा में फेल हो गया। कृषि में मेरी
कोई दिलचस्पी पहले भी नहीं थी पर मेरे पापाजी का मन कृषि में ही नाम लिखवाने का था।
मैं पहले से ही मना कर रहा था कि पापाजी इसमें ही मेरा नाम लिखवा कर माने। पर पापाजी के नाक काटकर अभी घर लौटे एक माह भी
नहीं हुआ था कि एक दिन सुबह सुबह मुझे फिट पडा और मैं एपिलेप्सी का मरीज हो गया।
करीब छह माह में 30-32 बार फिट पड़े होंगे। इसका बेहतर ईलाज रांची के डॉक्टर के के
सिन्हा ने किया। और 1983 में मैं स्वस्थ्य हुआ। ईलाज के बाद फिर फिट पड़ने बंद हो गए। और मैं औरंगाबाद के एक
इंटरमीडिएट कॉलेज से किसी तरह 1983 में पास हुआ । जिले के सबसे बडे कॉलेज के रूप
में विख्यात सिन्हा कॉलेज में बीए में नाम लिखवाया। कॉलेज के तमाम गुरूओं से
परिचित होते हुए 1986 में बीए जिसे स्नातक भी कहा जाता है पास हो गया। बीए ऑनर्स
हिन्दी से मैने करने का फैसला किया। और सच में 30 साल के बाद यह कहने और स्वीकारने
में कोई संकोच नहीं कि यह 9-10 माह मेरे शैक्षणिक जीवन का सबसे सुदंर मोहक और
यादगार लम्हा रहा। बाद में भले ही भारतीय जनसंचार संस्थान नयी दिल्ली में भी हिन्दी
पत्रकारिता के पहले बैच के पहले सत्र में छोटे शहरों से आए हम जैसे बहुत सारे
दोस्तों ने जमकर कई तरह के धमाल मचाया। इसके बावजूद 1986-87 का हिन्दी ऑनर्स का साल मेरे लिए आज भी लाजवाब
ही है।
एक दिन मैंने अपने पापा
से श्री झा जी से किस तरह के संबंध है के बारे में पूछा। पापा ने बताया कि झा जी
के एक साले उनके साथ बिजली विभाग में ही काम करते थे। उनके साथ पापाजी भी कई बार
श्री झा जी के यहां गए थे, लिहाजा मेरे पापा के साथ भी वे साले का मजाकिया रिश्ता
ही रखते थे। जीजा साला का रिश्ता तो मेरे पापा के साथ था, मगर वे मजाक और उलाहने का
रिश्ता मेरे संग ही निभाते थे। मुझे उलाहना देने में वे कभी नहीं चूकते। और आज जब
इन रिश्तों के बीच मैं अपने गुस्ताखियों पर गौर करता हूं तो वाकई लगता है कि वे कितने
महान थे जो मेरी तमाम उदंडताओं को किस सहजता के साथ माफ या नजरअंदाज कर देते
थे।
बीए ऑनर्स में नामांकन के बाद जब मैं पहले दिन
कमरे में घुसा ही था कि क्लास में लड़कियों की भीड़ देखकर मैं घबराकर उल्टी पांव वापस
बाहर निकल भागा। मुझे लगा कि मै गलती से किसी दूसरे कमरे में घुस आया हूं। बाहर
आकर देखा कि कमरे में तो अपने झा जी ही है। खैर किसी तरह मैं फिर कमरे में प्रवेश
करने की हिम्मक की। अभी कमरे में ठीक से अंदर भी नहीं हुआ था कि झा जी ने मजाकिया
लहजे में पूछा कहां भागे जा रहा था लाला। ( वे अमूमन मुझे इसी नाम से पुकारते थे)
तब तक तो मैं थोडा संभल गया था।. भाग नहीं रहा था सर इतनी सारी लड़कियों को देखकर
मुझे लगा कि मैं गलती से किसी और कमरे में चला गया हूं। मेरी बात पर कमरे में
ठहाका लगा। मैं बैठने की बजाय खड़े होकर लड़कियों की गिनती करने लगा। इस पर फिर
तपाक से झाजी बोले बैठो न लाला क्या कर रहे हो ? मैं उनकी तरफ मुड़ते हुए कहा और ये 17 नहीं 18 है सर। मेरी बात को सर भी नहीं समझे और पलटते
ही बोले कि क्या 18 । मैं अभी तक खड़ा ही
था मैने बड़ी मासूमियत से कहा सर क्लास
में 18 लड़कियां और लड़के केवल आठ । इनको संभाला कैसे जाएगा । तो क्या तुम्हें कोई
दिक्कत हो रही है ? नहीं सर दिक्कत तो आपको होगी मैं तो केवल गिनती बता
रहा था। मेरी बकवास से श्री झा जी उबल पडे और उलाहना भरे अंदाज में बोले ठीक है
ठीक है लाला चल तू बैठ मैं सब संभाल लूंगा। मैं फिर खडा होकर तपाक से कह ही डाला
कि हां सर आपके बाद मैं भी सबको संभाल कर रखूंगा। इस पर अपनी कुर्सी से उठकर वे
मेरे सामने आ गए और हिटलरी अंदाज में बोले
चल बता तू लाला कि कैसे इन लोगों को संभालकर रखेगा। तबतक मैं लगभग सभी
लड़कियों को एक नजर देख चुका था। कमरे का पूरा माहौल एकदम खिलखिलाहट से भर गया था।
तमाम लड़के लडकी मंद मंद तो कोई खुलकर हंस रहा था। पूरे हिम्मत के साथ मैने कहा कि
सर इनमें दो तीन तो मेरी मौसी हैं दो तीन मेरी मौसियों की सहेली है और कईयों के
पापा तो मेरे पापा के संग काम करते है। बाकी दो चार अनजानी सी हैं तो सब काबू में
रहेगी। काबू सुनते ही श्री झा जी फिर बौखला गए तू लाला इन्हे काबू में रखेगा ।
मैने हाथ जोड़कर एकदम दंडवत मुद्रा में सबिनय कहा कि मेरी क्या बिसात है सर इन
देवियों को काबू में रखने की। इनको देख देख कर तो हमलोग काबू में रहेंगे। इस पर
श्री झा जी भी मुस्कुरा पडे, और क्लास के सभी छात्र छात्राएं भी हंसने लगे। वे सहज
और सामान्य होते हुए बोले चल लाला सीट संभाल । हम सभी लड़के तो परिचित थे ही ।
अलबत्ता दो एक को छोड़कर और से बात नहीं हुई थी। सामान्य औपचारिक बातें कर क्लास
खत्म हुआ। गुरूजी के कमरे में रहते ही सारी छात्राएं एक एक कर बाहर निकल गयी, तब
कहीं जाकर हमारे झा जी भी कमरे से बाहर हुए। सबों के बाहर जाते ही कमर में सन्नाटे
के साथ रह गए बाकी हम लड़के जो ठहाका मार कर हंस पड़े। मेरी हाजिर जवाबी पर मेरे
दोस्तों ने कहा अनामी भाई गजब तुमने तो आज सबों से जमकर मस्ती की। तो यह था बीए
ऑनर्स का मेरा पहला दिन ।
मैं पढ़ने में कोई
बडा उस्ताद कभी नहीं रहा हू। पर मेरी समझने की क्षमता लगभग ठीक ठाक है। एक बार गौर
से सुन लेने के बाद बिषय सार की समझ हो जाती है और मैं उसको अपनी भाषा में लिखने
का प्रयास करता था । मैं किताबें तो कई बार कई जगह से पार ( जिसे चुरा ली भी कह
सकते है) कर दी है। मां और नानी के बक्से से और पापा की जेब से भी महीने में कई
बार रुपए निकाल लेता था। उस समय तो दस पांच रूपए की ही बड़ी कीमत होती थी लिहाजा
छोटी छोटी चोरियां लंबे समय तक चली मगर किसी की पकड़ में नहीं आयी। अलबत्ता हम सभी
भाई इस पॉकेटमारी से परिचित थे । लिहाजा अपने
त्रिदेव बंधुओं को मुंह बंद रखने का जुर्माना भी देना पड़ता था। इसके अलावा चोरी
करने की न आदत्त है न प्रवृति। परीक्षा में लोग कैसे नकल या चोरी कर लेते हैं यह
तो मैं आज तक भी नहीं समझ सका। और मेरी यह पक्की धरणा है कि जो लड़के नकल करके
लखने में माहिर होते हैं यदि अपनी किताबों पर जरा गौर करें तो बगैर नकल के ही बढ़िया
नंबरों से पास हो सकता है।
पढाई के दौरान मेरी
बहुत सारी कविताएं भी छपती रहती थी और एक संपादित किताब भी दिल्ली से छपी थी।
साहित्य पढने का नया चस्का लगा था, और उस पर पटना के एक वीकली पेपर स्पिलंटर के
लिए मैं लगातार रिपोर्टिंग भी करता था। पटना के ज्यादातर पत्रकार उस समय मेरे
मित्र तो नहीं मेरे आदरणीय थे ( बाद में दिल्ली में रहते हुए भले ही वे फिर मेरे
दोस्त हो गए) और मैं किसी भी खबर को आज पाटलिपुत्र टाईम्स प्रदीप तथा आर्यावर्त
में छपवा लेता था। (1984-87 ) के दौरान हिन्दुस्तान दैनिक जागरण आदि का पटना में
आगमन नहीं हुआ था। यानी एक तरह से मैं कवि लेखक और पत्रकार बनने की प्रक्रिया में
था। इसका कोई दंभ तो नहीं पर खुद को औरो से जरा अलग थलग मानकर जरूर चलता था।
हिन्दी पढाने वालों
में श्री झा जी के अलावा परम आदरणीय उपाध्याय जी तथा आधुनिक साहित्य श्री गुप्तेश्वर
सिंह पढ़ाते थे। मैं इन दोनों का भी स्नेह पात्रों में था। एक तरफ श्री उपाध्याय
जी तुलसी सूरदास कबीर भूषण विद्यापति आदि के गीतों को जिस माधुर्य्यरस के साथ गाकर
पढ़ाते थे, वह अतुलनीय होता था । बाद में
दिल्ली मे रहते हुए श्री उपाध्याय जी की पढाई शैली को याद करके महसूस हुआ कि वाकई
वे कितने सहज तरीके से बच्चों को अपनी बात समझाते थे। मगर उस समय मैं इतना परिपक्व
और काव्य रसिक नहीं था, जो श्री उपाद्याय की शैली पर मुग्ध रहता। वहीं श्री
गुप्तेश्वर जी की पकड़ आधुनिक साहित्य में काफी गहरी थी। बात बात पर धूमिल
मुक्तिबोध सर्वश्रवर दयाल सक्सेना रघुवीर
सहाय राही मासूमं रजा काशीनाथ सिंह आदि इत्यादि लेखकों का जिक्र करते रहते थे और
यह संयोग था कि ज्यादातर समकालीन साहित्यिक पत्रिकाएं मेरे पास होती थी लिहाजा मैं
भी उल्लेखित लेखकों का जानकार निकलता था। नया नया साहित्य का मुल्ला होने के कारण
अपने मित्रों से भी बहुत सारी बातें सुन चुका था, लिहाजा उनके ज्ञान धरातल पर मैं भले
ही कम था पर आधुनिक समकालीन जानकारियों में तो एकदम बराबर ठहरता था। , इस कारण
उनसे मेरी पटती भी थी। हिन्दी विभागाध्यक्ष श्री झा जी से तो मेरा प्यार मुहब्बत
उलाहना कटाक्ष का रिश्ता जगजाहिर जारी ही था।
बीए ऑनर्स क्लास
मे मात्र 25 छात्रों में 18 लड़कियों का
होना अमूमन कॉलेज में चर्चे का प्रसंग रहता था। चूंकि मेरा घर कॉलेज से 14
किलोमीटर दूर एक कस्बा देव में था, इस कारण सुबह वाली बस पकड़नी पड़ती थी । जिससे
कॉलेज आने वाले बहुत सारे लड़कों में मैं भी समय से पहले ही आ जाता था। लिहाजा
कॉलेज प्रांगण में बने एक चबूतरा ही हम तमाम लड़कों का अड्डा होता था। मेरा क्लास
रूम भी सामने ही था। और वहीं पर लड़कियां
का कॉमन रूम भी था। यानी सभी लड़कियों का क्लास से पहले या बाद में कन्याओं का जमघट
इसी एक कमरे के कॉमन रूम में ही होता था। सुबह सुबह दर्जनों रिकशे से थोडी थोडी
देर के बाद रंग बिरंगे वेश भूषा साज सज्जा और महक चहक से रंगीन परियों
फुलझड़ियों और तितलियों सी चंचल कन्याओं
का आगमन होता रहता था,। कॉलेज प्रांगण में
मौजूद मेरे सहित सैकड़ों लड़कों की निगाहें भी उधर ही लगी रहती थी, कि देखे अब
इसमें कौन आई और अब तक कौन नहीं आई है। बहुत लोग तो बाकायदा कौन लड़की कब आ रही है
इसका पूरा विवरण तक रखते थे। बहुत सारे
लड़कों द्वारा शिष्ट अशिष्ट कटाक्ष फब्तियो
समेत सामूहिक ठंडी आहों कराहों का भी सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाता था।
जिसके उपरांत मुस्कान और ठहाकों का बेशर्म सिलसिला भी चालू रहता।
क्लास की तमाम
लड़कियों से तो मैं परिचित हो गया था( अलबत्ता चार पांच कन्याओं के अलावा आज केवल
चार का ही नाम याद है। बाकी का तो सही मायने मे मुझे चेहरा भी अब ठीक से या एकदम
याद नहीं है। पर लगभग एक माह के अंदर ही छात्र छात्राओं के बीच माहौल स्वस्थ्य सा
हो गया था। बेझिझर किसी भी बिषय पर बात कर लेना अपने पाठ्यक्रम पर चर्चा कर लेना
या गरमागरम बहस नुमा माहौल भी दूसरे क्लास के छात्रों के लिए कौतुहल से ज्यादा
नमकीन न्यूज ही बनता दिखने लगा।
हमारे परम आदरणीय
प्रोफेसरों के पीछे पूंछ की तरह आने और इनसे पहले निकल जाने की आदत या परम्परा पर
मुझे बडी बैचेनी सी होती थी। अक्सर लगता था कि क्या हमलोग इतने अशिष्ट वनमानुष से हैं क्या कि लडकियों का इतना बडा जत्था भी
बगैर गुरूजन के हमलोग के साथ सहज होकर एक साथ नहीं बैठने का साहस नहीं करती। मगर
हकीकत तो यह है कि लडकियों का क्लास में सामान्य तौर पर ना बैठना ही हम लडकों के
लिए ज्यादा सुकून दायी होता था। मैने देखा कि किसी भी कन्या को लेकर कुछ भी बोल
देने वाले किसी भी लड़के में लड़की के सामने मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं होती थी।
मैने कई बार सीधे अपनी वीणा ( मौसी)
से प्रतिवाद करने के बाद भी उनलोगों को क्लास रूम में एक साथ बैठे रहने के
लिए राजी नहीं कर पाया। दो एक दिन बाद ही नर नारी के समान अधिकारों पर कोई मामला
उठा। मैं खडा होकर जोर शोर से बोलने लगा कि नारी को समानता का अधिकार एकदम नहीं
मिलना चाहिए। किस बात की समानता। जिस नारी या लड़की में पुरूषों के साथ बैठने की
हिम्मत ना हो उसके लिए समानता या बराबरी की बात करना भी बेमानी है।
मेरे ओजस्वी प्रवचन
का जोरदार प्रभाव पड़ा और ज्यादातर छात्राओं ने काफी ना नुकूर करने के बाद सभी
देवियां राजी हो गयी कि क्लास रूम में एक साथ बैठने मे कोई हर्ज नहीं है। सबसे दबंग हमारी वीणा ने फिर आशंका प्रकट की
तुम नहीं जानते अनामी लोग क्या कहेंगे। इस पर मैं खिलखिला पडा। मेरी खिलखिलाहट से
अचंभित सारी लडकियों ने रोष जताया कि इसमें हंसने वाली क्या बात है कि तुम हंसने
लगे। इस पर मैने कहा कि तुमलोग क्या समझती हो कि इससे पहले लोग तुमलोग के बारे में
कुछ नहीं कहते है। अरे जितनी बाते और टीका टिप्पणियां तुमलोग पर होती है या की
जाती है न उसे यदि एक बार भी तुमलोग सुन लो तो चेहरा शर्म से लाल हो जाए। मैने
अपनी तरफ से जोडा कि जब तुमलोग पर कोई बोलता है, जिसे सुनकर मैं शर्मसार सा हो
जाता हूं भला तो तुमलोग का क्या हाल होगा। दो चार लड़कियों ने जोर देकर पूछा कि
क्या कहते हैं जरा बताओ न बताओ तो सही। इस
पर मैं फिर हंस पड़ा और दोनों हाथ कान पर ले जाकर पूरे अभिनय अंदाज में कहा कि तुम
लोग मुझे क्या इतना बेशर्म समझ रखा है कि जिन बातों को मैं सुन नहीं सकता उसको
तुमलोग को बता सकता हूं। तब दो चार लड़कियों ने अपना पैर पटकते हुए कहा कि सबसे
बडा गुंडा तो तुम हो जिसके मन मे जो आए बोलने दो न इसका हम पर क्या असर पड़ता है। हिम्मत
है किसी में तो सामने आकर तो कोई कहे।
इन फूलकुमारियों को एकाएक फूलन देवी बनते देखकर
मेरा मन मयूर नाच उठा। पूरे उल्लास से कहा यही तो मैं बोल रहा हूं कि किसमें दम है
हिम्मत है जो तुमलोग के सामने आकर बोल दे । मगर तुमलोग इस हिम्मत को अपनी ताकत
बनाओगी तब न। बात को आगे बढाते हुए कहा कि एक कहावत है कि हाथी चले बाजार और
कुत्ता भूंके हजार । मगर क्या कभी किसी हाथियों को भागते देखा है। मेरा यह
जोशवर्द्धक प्रयास पूरी तरह सफल रहा। और अगले ही दिन हमारे क्लास की तमाम
सुकोमलांगियॉ कॉमनरूम की बजाय सीधे क्लास
रूम में थी। मैं कमरे में घुसते ही ताली बजाकर सबो का स्वागत किया। पूरा दिन
शानदार रहा। मगर और तो और हमारे पूज्य गुरूजनों को ही लड़कियों की यह आजादी कुछ
रास नहीं आई और महिला आंदोलन और स्त्री स्वतंत्रता का यह परचम फिर अपने एक महिला
कॉमन कमरे में ही सिमट गयी। और कन्या जागरण का मेरा यह पूरा प्रयास बुरी तरह फ्लॉप
कर दिया गया। अलबत्ता लड़कियों की यह दो दिवसीय आजादी का यह मुहिम मुझ पर भारी
पड़ा और तमाम लड़को मे मुझे महीन गुंडा का तगमा दे डाला। हंस हंस कर आग लगाने वाला
महीन गुंडा।
मेरे पापाजी तक भी
यह बात पहुंच गयी कि मैने तमाम लड़कियों को बहका करके कुछ गलत शलत कराया है। रात
को दफ्तर से लौटते ही पापा एकदम गरम थे। तुम कॉलेज में पढने गए हो या गुंडई करने जाते
हो। आजकल कॉलेज में तेरा बडा नाम हो रहा है। मैं एकदम निरीह और अबोध सा पापा के
सामने जाकर अपनी सफाई में केवल यही कहा कि आपके ऑफिस में काम करने वाले तीन लोगों
की बेटियां हमारे साथ पढती है। मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता। कल आप उन
लड़कियों से यह जरूर पूछे कि क्या हो रहा है कॉलेज में। उसके बाद जो मन में आ आप
कर सकते है। मैं क्यों अपनी सफाई दूं। मेरे तार्किक सफाई से पापा जी नरम तो पड़ गए
पर काफी देर तक मां पर बौखलाते रहे। मैंने फिर कहा कि पापा इस बारे में आप कल बात
करके तो देखिए पर जो बोल रहा है क्या वो इस लायक है कि उसकी बातों पर यकीन किया
जाए ? मेरे पापा जी ने चिंता प्रकट की बेटा कौन यकीन
करने लायक है या नहीं यह जरूरी नहीं है जरूरी यह देखना होता है कि आखिरकार बात
कैसे फैल रही है। तेरे को कुछ नहीं होगा पर इसका क्या प्रभाव दूसरों पर पडता है इस
पर कौन सोचेगा। कोई भी बात या काम करो तो यह जरूर देखो कि इसका दूसरे पर क्या असर
पड़ रहा है। मुझे पापा की बातों में दम लगा और मैने कहा पापा मै बोल जरूर ज्यादा
जाता हूं पर गलत शलत काम तो नहीं करता। मै भी
इस घटना पर शांत रहा और पापा की तरफ से ही इसका असर देखना चाह रहा था। दो
एक दिन बाद ही पापा बड़े अच्चे मूड में घर लौटे और मेरी पढाई से लेकर मेरे संगी
साथियों का भी हाल चाल पूछना चालू कर दिया। मैं फौरन भांप गया कि बढिया
प्रतिक्रिया मिली है और यह सब उसी का असर है। मुंह हाथ धोकर पापा मेरे साथ पढने
वाली लड़कियों के बहाने मेरी तारीफ में जुटे रहे। मैने पूछ लिया कि लगता है पापा
कि आप आज अभिराम चाचा के घर गए थे। तो फिर पापा एकदम खुल गए और मेरे साथ पढने वाली
तीन चार लड़कियों का नाम लेकर उनकी सकारात्मक प्रतिक्रियाओं समेत पढाई और हाजिर
जवाबी की खुले मन से प्रशंसा की। पापा जी से अपनी तारीफ सुनना यह हमसब भाईयों के
लिए चौदहवी का चांद सा था। पर मै इस घटना
को पचाकर अगले दो दिन तक थोडा खामोश और अनमना सा रहा.। मेरे इस तरह के व्यावहार से
ज्यादातर लोगों को बडी हैरानी हो रही थी.। खासकर हमारी वीणा रुके न रूकी क्या बात
है अनामी क्या हुआ। यूं ही मुंह बनाए हो या कोई बात है ? इस पर मैने कहा अरे यार तुमलोग को जो कुछ भी
मेरे से शिकायत हो तो सीधे कहो न । सीधे मेरे बाप के पास जाकर कहने की क्या जरूरत
थी। फिर हमने किसके साथ क्या कुछ अईसा वईसा तो कुछ बोला तक नहीं है। फिर भी मैं
साफ कर दूं कि भले ही मैं ज्यादा बोल देत हूं पर तुम सबलोग से भी ज्यादा सभ्य
शालीन तमीजदार कमीजदार और शर्मदार हूं। वीणा मेरे साथ हो गयी और बोली क्या हुआ।
मैं बौखलाते हुए कहा कि मुझे क्या पता कि क्लास रूम की बात घर तक ले जाना कहां सही
है। फिर मैं तो कोई टेढी मेढी और दो अर्थी बाते भी करता ही नहीं। मेरे पापाजी ने
तो मेरी इज्जत ही उतार दी है। इस पर पापा के साथ काम करने वाले कई लोगों की तीन
चार लड़कियां सामने आ गयी। अरे चाचा जी से तो हमलोग ने तुम्हारी कोई शिकायत नहीं की
थी। हमलोग तुम्हारे बारे में ही बात कर रहे थे पर शिकायत तो नहीं कि और शिकायत किस
बात की करते । मैं भी खुद को पूरी तरह
लाचार दिखाकर पूछा कि बस मेरी शिकायत करने के अलावा और कोई बात नहीं थी। मैने कहा
कि तुमलोग को देखकर तो पहले ही दिन से मेरा ब्लडप्रेशर बढ गया था क्योंकि किसी को
बोल दो वीणा मेरी मां और मौसियों से बोल देगी और किसी पर कटाक्ष कर दूं तो सीमा
मेरी मौसी से बोल देगी। पापा के दफ्तर के कई जासूस मेरे साथ है ही.। मैं तो एकदम
32 दांतो के बीच जिह्रवा की तरह फंसा हूं भाई। मेरे इस नाटकीय प्रलाप का अच्छा
खासा असर रहा। मेरे दुख से आहत होकर पापा के सीनियर श्री अभिराम सिंह की बेटी (
इसका नाम याद नहीं है मित्रों पर इस लेक के लिखने केबाद पता लग गया कि उषा नाम ता।
उषा से फोन पर बात भी हुई थी) ने उसी दिन शाम को पापा को पकड़कर हमारे दुख पर
विलाप की । पापा ने एकदम चकित होकर उसको शांत कराया। तो अगले दिन मेरी शामत थी।
मेरे बनावटी विलाप पर ज्यादातर फूलनदेवियों ने अपना उग्र रूप दिखाया। मेरी लानत
मलानत की और मुझे भी इनसे सार्वजनिक तौर पर क्षमा मांगनी पडी, तब कहीं जाकर बिन
बुलाए आफत से राहत मिली।.
1987 मे संभवत मार्च
का महीना होगा। पढाई लगभग खत्म हो रहे थे। एक दिन बडी सीरियस मूड में वीणा मेरे
पास आई. अनामी मुझे तुमसे बहुत जरूरी बात करनी है। एकाएक इन उग्रवादियों के गंभीर
हाव भाव को देखकर तो मैं भी थोडा संजीदा हो गया। फिर उसने एक लड़की का नाम लेकर
पूछी कि वो तुम्हें कैसी लगती है ? मैं इस सवाल पर खिलखिला उठा। तभी खीजते हुए वह फिर
सवाल दोहरायी। तब मैने फौरन कहा कि भई मुझे तो दुनिया की समस्त लड़कियां भोली भाली
भली सुदंर अच्छी और प्यारी लगती है। खासकर तुमलोग तो और ज्यादा। मैं तो किसी लड़की
को बुरा कह ही नहीं सकता। मैं जरा दर्शन बघारते हुए आगे बढा कि जिसने मुझे तुम्हे और
उसको बनाया है उसके निर्माण पर भला मैं क्या कोई टीका टिप्पणी कर सकता हूं। मेरे
भाषण से मेरी सब साथिने बोर सी हो उठी थी.. वीणा भी थोडी क्रोधित सी हो गयी. और
जोर से बोली मजाक नहीं एकदम गंभीरता से बताओं न। इस पर मैं शांत होकर पूछा कि बात
क्या है ? तो फिर वीणा ने बताया कि वो तुमसे प्यार करती है
और शादी करना चाहती है। वीणा की बात सुनकर मैं एकदम हतप्रभ रह गया। तब तक वीणा के
समर्थन में एक साथ चार पांच लड़कियों नें उसका पक्ष लेते हुए सिफारिश की। बात की
गंभीरता को कम करने के लिए मैं एकदम से मुस्कुरा उठा। अरे भई मैं एक भला तुम कितनी
लड़कियों से शादी करूंगा ? इस पर एक साथ उसकी सिफारिश करने को आतुर
लड़कियों ने जोर देकर कहा हमलोग उसके बारे में कह रहे हैं अपने बारे में नहीं।
मैंने फिर कटाक्ष किया मुझे तो लगा कि तुम सब एक साथ ही मेरे उपर टूट पडी हो। तभी
किसी ने पीछे से मजाक उडाया आईने मे शक्ल देखी है अपनी। इस पर मैं पूरी तरह
खिलखिला उठा। सब कुछ तो ठीक है बस तेरे से रंग में ही थोडा श्यामला हूं बस्स। बात
कहां तो शादी की हो रही थी और देखते ही देखते पूरे प्रसंग की रासलीला हो गयी।. तब
माहौल को संयमित करने के लिए वीणा ने अपने तोप को दोबारा दागा। इस पर मैं कहा कि
लगता है कि तुम एकदम पागल हो इस तरह की बाते कहीं इस तरह की जाती है। तुम तो मेरी
मां को जानती हो सीधे उनसे ही जाकर बात करो। तो उसको लगा कि दांव अभी हाथ में ही
है। तपाक से वीणा ने अपना तार झंकृत की तो
तुम्हें तो पसंद है न ? इस पर मैने सीधे कहा कि नहीं जिस लड़की में सामने और सीधे
कहने की हिम्मत ना हो तो उसके साथ फिर कैसी शादी ? फिर वीणा झंकृत
हुई. नहीं वो थोडा शरमा रही थी. तो फिर उसको शरमाने दो न। मेरे साथ शादी ना होकर
ही उनका भला होगा । जानती हो यदि वह एकदम सामने आकर यही प्रपोजल देती न तो मैं तो
हाथ पकड़कर उसको आज ही अपने घर ले जाता। यह तो मुझे नहीं पता कि मेरा क्या होगा पर
अगले 6-7 साल तो मेरी शादी नहीं होगी, यदि उसकी भी शादी कहीं नहीं हुई तो तुम मुझे
बताना फिर मैं उसके साथ शादी जरूर कर लूंगा।
हमारे कॉलेज में नए
प्रिसिपल श्री सिद्धेश्वर सिंह का आगमन हुआ। अनुशासन प्रिय और सख्त प्रशासक के रूप
में विख्यात श्री सिंह के आते ही चौपाली
मजनूओं पर सबसे पहले लगाम लगा दी गयी। चबूतरे वाली रोजाना की चौपाल होनी
बंद हो गयी तो एक ही साथ दीवानापन के भी बहुत सारे मामले रूक गए। जाड़े में दूप
सेंकने पर भी रोक सी लगी रही। उधऱ प्रिसिपल साहब ने अपने कमरे को भी चमका डाला।
गेट पर पर्दा टंग गया और पहले की तरह बेधड़क अंदर घुसने पर रोक लग गयी। श्री सिंह
साहब को भी कॉलेज में आए अभी दो माह भी नहीं हुए थे कि कॉलेज की फुटबॉल टीम और जिले की बिहार
पुलिस के बीच मैच खेला गया। जिसमें हमारे
कॉलेज के रणबांकुरों ने पुलिस पर तीन गोल की बढ़त ले ली। अपनी हार से बौखलाए पुलिस
टीम के खिलाडियों ने गेंद की बजाय कॉलेजी खिलाडियों पर निशाना साधना चालू कर दिया
और देखते ही देखते हमारे पांच खिलाड़ी खून से तर ब तर घायल होकर मैदान से बाहर हो
गए। पुलिस टीम द्वारा खिलाडियों की मदद करने की बजाय बूट पहने ही कईयों के हाथ और
छाती पर भी पुलिसिया खिलाडी सवार हो गए। तब तक पुलिस टीम दो गोल करके कॉलेज की बढत
को भी कम कर दी। लगातार अपने खिलाडियों को जानबूझकर घायल करते देख सैकड़ो छात्रों
ने हो हल्ला हंगामा करके विरोध जताया तो पुलिस ने जमकर छात्रों पर ही लाठियां भांज दी। और इस तरह फुटबॉल का यह खूनी
मैच अधूरा ही रहा। पुलिस से चोटिल खिलाडियों को उपचार के लिए प्रशासन से पटना भेजने
की मांग की गयी, मगर तत्कालीन युवा और तेजतर्रार एडीएम सुनील कुमार सिंह ने इस
मांग को सिरे से नकार दिया। अगले दिन सुबह कॉलेज आते ही इस घटना की जानकारी हम
जैसे दूर से आने वाले तमाम छात्रों को मिली तो हमारे प्रिंसिपल श्री सिंह की
अगुवाई में सैकडों छात्रों ने एडीएम के दफ्तर का घेराव कर डाला। श्री सिंह के साथ
मुश्किल से हम 10-12 छात्र ही अंदर गए थे। पर एडीएम का तेवर काफी सख्त था और वो
किसी भी हालात में चोटिल छात्रों को पटना भेजने तथा पुलिसिया खिलाडियों के खिलाफ
एक्शन लेने को राजी नहीं था। हमारे प्रिंसिपल साहब को भी वे मि. सिंह मि. सिंह
कहकर ही संबोधित कर रहा था। बात बनते ना देखकर मैं फौरन बाहर भागा और पुलिस
प्रशासन तथा एडीएम के खिलाफ जमकर नारेबाजी करने के लिए अपने छात्रों को उकसाया। और
देखते ही देखते चारो तरफ नारे गूंजने लगे और पूरा माहौल तनावग्रस्त हो गया।
जब मैं अंदर आया तो
एडीएम मेरे उपर बौखला गया और तुरंत नारे को बंद कराने पर जोर दिया। मैने कमान अपने
हाथ में ली और एडीएम को आगाह किया कि मि, सिंह अभी आप हमारे प्रिंसिपल साहेब को
नहीं जानते। ये तुम जैसे सैकड़ो आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को पैदा करने वाली
फैक्टरी है। अभी चार फोन पटना घूमा देंगे न तो दर्जनों तुमसे सीनियर अधिकारी इनके
पांव छूने के लिए लाईन लगा देंगे। और आप इनसे बदतमीजी से बात कर रहे हो। हम सबके
सम्मान के ये प्रतीक है और इनके साथ ही इस तरह का बर्ताव। आप क्या पटना भेजोगे अब
पटना से फोन आएगा कि क्या कर रहे हो। प्रिंसिपल साहब के पीछे आकर मैने कहा कि यदि
ये एक आवाज बुलंद कर दे न तो आपके दफ्तर का हाल मटियामेट हो जाएगा। इतना कहकर मैं
अपने प्रिसिपल को लेकर कमरे से बाहर निकलने लगा तो एडीएम एकदम हाथ जोडकर माफी
मांगी और 10 मिनट के अंदर ही पटना भेजने के लिए दो एम्बुंलेंस सहित सारी व्यवस्था करने का इधर उधर निर्देश
देने लगा। हमारे प्रिंसिपल साहेब को फिर से कमरे मैं बैठाकर एडीएम ने अपने सहायकों
को चाय और समोसे लाने का आदेश फरमाय। जब
तक समोसे का स्वाद लिया जाता तब तक सारी व्यवस्था हो गयी। देख रेख के लिए तीन चार
लोगों के साथ तीन गाडियों से आठ छात्र खिलाडियों को दो अधिकारी के साथ पटना भेजा
गया। उधऱ गाडी पटना की तरफ गयी और इधर जमकर हंगामा हुआ। नारेबाजी के साथ विजयी
मुद्रा में हमलोग प्रिंसिपल के साथ कॉलेज लौटे,। तो उन्होने फौरन मुझे बुलवाया।
नाम आदि पूछा और जमकर तारीफ की और यह भी कह डाला कि तुम्हारा जब भी मन करे बिना
पूछे मेरे दफ्तर में आ जाया करो। और जब
मैं बाहर निकला तो लड़कों ने मुझे अपनी गोद में उठा लिया। कईयो ने कहा कि आज तुमने
कॉलेज की लाज रख ली अनामी। इस पर सबों के समक्ष झुककर मैने इस तरह की बाते न करने
की सलाह दी कि कॉलेज हम सबसे बडा और गौरव क् प्रतीक है मित्र। मैं तो केवल एक अदना
सा छात्र हूं. छात्रों की भीड़ ने जमकर तालियां बजाते हे मेरी बात का समर्थन किया।
यूं तो रोजाना कॉलेज
का दिन बड़ा मन भावन सा ही होता था, पर एक दिन हमारे झाजी ने सभी लड़कियों समेत
मुझे भी हिदायत दी कि कल मैं सबका नोट्स चेक करूंगा सो कल सब नोट्स लेकर आना। इस पर वीणा समेत कई लड़कियों ने मेरी खिल्ली सी
उडाई। अब कल तो तुम्हें भी नोट्स लाना ही पड़ेगा। हमारी सहपाठिने हमेशा मुझे नोट्स
बनाने और दिखाने के लिए कहती थी औरे मैं हमेशा यही कहता था कि मैं किसी पेपर का
नोट्स नहीं बनाता। मेरी बातों पर किसी को भी यकीन नहीं था। सबो का आरोप था कि तुम
नोट्स दिखाना ही नहीं चाहते। इस कारण वे लोग इस मामले में मुझसे नाराज सी रहती थी।
अगले दिन सारे छात्रों ने तरह तरह के जिल्द और रंगीन आवरण में नोट्स ला लाकर श्री
झा जी को दिखाना चालू किया। और मजे की तो यह बात कि नोट्स को देखते हुए हमारे सर
श्री झा जी ने सबों को डीविजन भी बॉटना शुरू कर दिया। मसलन, वीणा तू एकदम फस्ट
आएगी और तू सीमा जरा इसको ठीक कर लो तो तेरा भी नंबर वन पक्का है। सर द्वारा
रेवड़ी के भाव दिए जा रहे डीविजन से अभिभूत होकर हमारी तमाम संगी साथिनों का दिल
बाग बाग हो रहा था। वहीं श्री झा जी भी अपने छात्रों की तैयारी से अभिभूत थे।
नोट्स दिखाने की अब
मेरी बारी थी, तो मैं अपना चेहरा लिए खाली हाथ बिना नोट्स के उनके सामने खड़ा था।
खाली हाथ मुझे देखकर वे फिर भड़क उठे, अपना नोट्स निकालो न । मैं भी तो देखू कि
तेरी क्या तैयारी है। इस पर मैने कहा कि सर मैने तो कोई नोट्स ही नहीं बनाया है।
यह सुनते ही मानो कोई भूचाल आ गया हो, वे एकदम खड़े हो गए और नाराजगी के साथ बोले
कि लाला तू इस बार फेल हो जाएगा। मैने तुरंत उनकी बातों को काटते हुए कहा कि सर
जिस तरह से आप नोट्स देखकर इन्हें डीविजन से नवाज रहे हैं, क्या यह हो जाएगा। मेरी बातों को अनसुना करते हुए श्री झा जी ने
नाटकीय अंदाज में सभी छात्रों को संबोधित किया कि एक थे हमारे राष्ट्रपति बाबू
राजेन्द्र प्रसाद जिनको देखकर ही सबकुछ याद हो जाता था और ये है देव के राजेन्द्र
बाबू के सुपुत्र अनामी शरण जिनको भी सब कुछ याद है। इनको नोट्स बनाने की जरूरत ही
नहीं पड़ती। श्री झा जी ने क्लास रूम में ही यह सार्वजनिक तौर पर घोषणा कर दी कि
लाला तू इस बार जरूर फेल होगा। मैने तुरंत उनकी बातों को काटा और मैंने भी सबके
सामने ही कह डाला कि सर फेल तो दूर क्लास में सबों से ज्यादा नंबर केवल मेरा ही
होगा। मेरी बातों पर पूरा क्लास खिलखिला पडा। श्री झा जी के गुस्से के दौर में भी
पूरा क्लास मेरी लानत मलानत पर मंद मंद मुस्कुरा रहा था। और क्लास में श्री झा जी
के संग नोक झोंक में मेरी खाल नुचाई समारोह का मेरे समस्त संगी साथी मजा ले रहे
थे।
परीक्षा के दिन करीब आ रहे थे तो एक दिन अकेले
में श्री झा जी ने कहा कि कल हाफ फीस माफी का इंटरव्यू है , समय पर आ जाना। मैने
उनसे कहा कि मेरा तो फीस आप माफ करवा ही देंगे। इस पर फिर वे झुंझला उठे हां हां
क्यों नहीं मैं क्या तेरे बाप का नौकर हूं। मैने अपने कान पकडते हुए कहा कि सर यह
तो मैने नहीं कहा। तो वे मुस्कुरा उठे और मेरे सिर पर प्यार से एक धौल जमा दिया।
अगले दिन इंटरव्यू
होना था । सबों को मेरे इंटरव्यू पर उत्कंठा थी। अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष श्री
बामनदास जी इंटरव्यू ले रहे थे। मेरी बारी आते ही उन्होने राम चरित्र मानस के
रचयिता समेत तीन सामान्य से सवाल पूछे, और मैने तीनो सवाल के प्रति अनभिज्ञता
प्रकट की तो वे बौखला गए। अंत में आजिज होकर मुझसे पूछा कि आपको पता क्या है ?
मैने तुरंत कहा कि सर मैं बीए ऑनर्स का छात्र हूं और आप सवाल तो मेरे स्टैणडर्ड का
पूछे। इससे पहले कि श्री बामन दास जी कुछ बोलते श्री झा जी ही बीच में उबल पड़े चल
चल चल भाग यहां से हमें स्टैण्टर्ट का उपदेश देने लगा। मैं बाहर निकला तो कई दोस्तों ने मुझसे पूछा कि क्या क्या सवाल पूछ रहे है
यार? तो मैने अपने इंटरव्यू का हाल बयान कर दिया और
साथ ही यह भी कहा कि देखना मेरा तो माफ हो ही जाएगा। और सच में अगले दिन जब फीस
माफी की जो लिस्ट लगी तो उसमें मेरा भी नाम था।
लगभग पढाई खत्म होने
ही वाली थी कि एक दिन तमाम लड़कियों ने मुझे टोका कि कल जरा ठीक ठाक कपड़े पहनकर
आना। मैं इस सवाल पर चौंका कि अभी तक मैं खराब कपड़े पहनता था क्या ?
सलीके की साज सज्जा से ज्यादा मुझे रफ टफ कपड़ो का पहनावा ही सहज सरल और आरामदेह
लगता था और आज भी लगता है। मैने वीणा से पूछा कि किस तरह के कपड़े पहन कर आंऊ कुछ
तो बताओ। किसी ने इस पर कुछ कहा पर मैं संभवत कुछ कम पुराने कपड़े ही पहनकर कॉलेज
आया तो सबों ने मुझे उलाहना दे डाला कि आज फोटोग्राफी है इसलिए तो बन ठन कर आए हो।
हमारे क्लास की तमाम लड़कियों ने तो अपने साथ दूसरे ड्रेश भी लाए थे और क्लासरूम
के पीछे वाले कमरे में साज ऋंगार करने में सब बिजी थी। मैं लडकियों के ड्रेशिंग
रूम मे गया और फौरन बाहर निकल आया। किसी से आईना मांगा तो एक साथ हमारी साथिनों ने
उपहास किया कि तैयार हो लो ठीक से फोटू को तो अपने दिल से चिपकाकर रखोगे। मैने
तुरंत पूछा किसके लिए यह तो बताओ। तब कईयो ने कहा कि एक साथ 18 लड़कियों के संग की
फोटो को तो रखोगे ही। मैने भी पूछा कि क्या तुमलोग रखोगी तो कईयों ने कहा कि तुम
जैसा मजेदार लड़का साथ में पढा है तो फोटो तो रखनी ही पड़ेगी। मै मुंहफट और मूर्ख
की तरह कह डाला कि मगर मैं फोटो नहीं रखूंगा। और आज भी यह सामूहिक फोटो मेरे पास
नहीं है। और इसका मुझे आज बहुत दुख और मलाल भी है कि मेरी एक मिनट की वाचालता जिसे
मूर्खता ही कहना ज्यादा बेहतर होगा ने मुझे एक सुदंर यादगार फोटो से वंचित कर
दिया। हालांकि फोटोग्राफी के लिए मेरे मित्र समान अखैरी प्रमोद आए थे मगर मैं उनसे
यह दुर्लभ फोटो ले न सका। सच तो यह है कि आज मैं इस फोटो के लिए श्री अखौरी प्रमोद
जी से भी कहा तथा साथ में पढ़ने वाली सुश्री सीमा के भाई किशोर प्रियदर्शी समेत
उषा और वीणा से भी कहा मगर यह समूह फोटो प्राप्त नहीं हो सक।
कॉलेज के सुनहरे
दिनों के बीच में ही संभवत फरवरी 1987 में किसी दिन एक अखबार में भारतीय जनसंचार
संस्थान नयी दिल्ली का एक विज्ञापन छपा था। जिसमें हिन्दी पत्रकारिता के पाठ्यक्रम
को शुरू करने की सूचना थी। पहले पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिखित परीक्षा के लिए
आवेदन मांगे गए थे। मैने भी प्रवेश के लिए त्तत्काल फॉर्म भर दिए अप्रैल में लिखित
परीक्षा भी पटना में जाकर दे आया। एक तरफ मैं बीए ऑनर्स की तैयारी में था तभी
पत्रकारिता के लिए भी एक दिमागी शैतानी हरकत शुरू हो गयी। लिखित परीक्षा में पास
होने के बाद मई में इंटरव्यू होना था। जिसके लिए मैं दिल्ली गया और मेरा चयन भी हो
गया। इधर एक जुलाई से पहला सत्र 1987-88 आरंभ हो रहा था और उधर ऑनर्स की भी परीक्षाएं उसी समय में हो रही
थी। मेरा आखिरी पेपर 26 जुलाई को था और तब तक उधर की पढाई का एक माह खत्म होने
वाला था। पर क्या करता ऑनर्स की परीक्षा तो देनी ही थी। पत्रकारिता के पाठ्यक्रम
के शुरू में दिल्ली में जाकर दो चार क्लास की और छात्रावास के एक कमरें में ताला
जड़ कर 20 दिन के लिए वापस बिहार आ गया।
इस बीच दिल्ली का
पत्ता लिखा दो पोस्टकार्ड लेकर जुलाई के किसी दिन
चिलचिलाती धूप में मैं श्री झा जी के घर पहुंचा। वे एकाएक मुझे देखकर चौक
पडे। मैने दोनो पोस्टकार्ड उनके घर में टंगे एक कैलेण्डर में स्टेप्लर से टांक
दिया। और विनय स्वर में कहा कि सर मैं फेल तो नहीं करूंगा पर मेरा चाहे जो परिणाम
हो उसकी सूचना केवल आप देंगे। गौरतलब है कि 1986-87 में मोबाईल नामक खिलौने का
ईजाद नहीं हुआ था, लिहाजा डाकघरों के महत्व तो था पर आदमी का आदमी से सूचना और
संचार बडा दुर्लभ था। मैं झा जी के यहां बैठा ही था कि उनकी धर्मपत्नी एक प्लेट
में मिठाई लेकर आई। मैने उनके चरण स्पर्श किए। उन्होने मिठाई खाने पर जोर दिया तो
मैने कहा कि आंटी जी आज और अभी तो मिठाई किसी भी सूरत में नहीं खाउंगा, क्योंकि
मेरे और सर के बीच पास और फेल होने की बाजी लगी हुई है। वैसे तो मैं सर को पराजित
कर रहा हूं मगर मेरा परीक्षा परिणाम क्या रहा इसकी जानकारी के लिए ही पोस्टकार्ड
देने आय़ा हूं। उनके जोर देने पर भी मैंने मिठाई नहीं ली।
अलबत्ता बीए आनर्स
की आखिरी परीक्षा के दिन मैने अपने समस्त साथियों से हाथ जोडकर तमाम गुस्ताखियों
बदतमीजियों ज्यादा बोलने से दिल दुखाने या कभी लक्ष्मण रेखा पार कर जाने की तमाम
उदंडताओं के लिए क्षमा मांगी । मैने कहा कि यार कॉलेज का मेरा यह 10-11 माह की
मधुर याद जीवन भर तुम लोगों की याद दिलाएगी। मेरे तमाम संगी साथिनों ने भी भावुक
होकर अपनी शुभकामनाएं दी और मैं उसी रात गया से ही दिल्ली चला गया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें