"वही उन्नति करता है जो स्वयं अपने को उपदेश देता है।"/ कृष्ण मेहता
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हम दो भागों में बंटे हैं एक वह जो सुखीदुखी होता है,दूसरा वह जो सुखद दुखद है।इसमें हमारी भूमिका सुखीदुखी की है।हम यह तो भूल ही जाते हैं कि जो सुखद दुखद है वह हमारा ही हिस्सा है।इसे हम पहचानें और ठीक करें यह जरूरत हमेशा बनी रहती है।यह पहचान नहीं है तो हम बाहरी जगत को सुखद दुखद मानेंगे और उसे ठीक करने में लगेंगे।सारा संघर्ष इसी बात का है।वास्तविकता भिन्न है-
"व्यक्ति को हानि,पीडा और चिंताएं उसकी किसी आंतरिक दुर्बलता के कारण होती है।उस दुर्बलता को दूर करके कामयाबी मिल सकती है।"
हम ही हैं हानिकारक, पीडादायक,चिंताजनक।अपने इस रुप को उपदेश देने से काम नहीं चलता।यह चित्त है और हमही चित्त हैं।इसे दुश्मन की तरह देखना भी बाधक है।हमें जानना होगा किस तरह हम कष्टप्रद हैं बिना स्वयं से दूर भागे। आत्मपलायन और आत्मबल विपरीत बातें हैं यद्यपि सीधे आत्मबल आता नहीं।आत्मपलायन को समाप्त करना होता है।इसके लिये हम कष्टप्रद हैं तो अपने इस रुप के साथ रहना और उसे सहना पडता है।सारी समस्या स्वयं को न सह पाने के कारण ही हैं।लगता है बाहर हैं व्यक्ति, घटना,परिस्थिति उन्हें हम सह नहीं पाते।
एक बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये कि बाहर असहनीय कुछ भी नहीं है,हम ही हैं असहनीय और जीना तो अपने आपमें है।जिसे अपने आपमें जीना आगया उसे सब आगया।
यह बडा किमती सूत्र है।
यह है स्वयं के साथ घुलमिलकर रहना ताकि उसके साथ एक हुआ जा सके,वही हुआ जा सके।हम "स्वयं" हो जाएं(सेल्फ)।
"Be yourself,and nothing more."
स्व में रहना,स्व से घुलमिलकर रहना एक ही बात है।अभी हम "पर" से घुलेमिले हैं रागद्वेष पूर्वक।
प्रेम से भी सबके साथ घुलमिलकर रह सकते हैं।सेवा भी यही है।
आज समाचार सुने बिहार सरकार सामूदायिक रसोईघर खोल रही है सभी जिलों में।अच्छा लगा।सवाल यह नहीं कि सरकार किस पार्टी की है।यह बडी बचकानी बात है।अभी यह राजनीति करने का समय नहीं।
अभी जरूरत है इस बात की कि सरकार और प्रजा मिलकर काम करे।होता यह है कि कुछ काम सरकार के भरोसे छोड दिये जाते हैं,कुछ प्रजा के भरोसे।प्रजा हर चीज सरकार पर छोड देती है।ऐसे में सरकार अपना ध्यान महामारी पर लगाती है,भोजन व्यवस्था प्रजा पर छोड देती है लेकिन जब सरकार इसकी भी जिम्मेदारी लेती है तो जनता में नयी चेतना का संचार होता है।जनता को तो सुखदुख में अनुकूल सरकार ही चाहिये।
अभी यह स्थिति है कि भोजनसमस्या कहीं भी आ सकती है।इस समस्या का हल सरकार और प्रजा दोनों को साथ मिलकर निकालना चाहिये।एक काम सरकार करे,दूसरा काम लोग करें या दोनों काम दोनों मिलकर करें।
कुछ लोग और संस्थाएं हैं जो अपने स्तर पर यह पुनीत कार्य कर रहे हैं फिर भी उनके और सरकार के मिलकर कार्य करने से बहुत फर्क पडता है।बहुत बल मिलता है एक दूसरे से एक दूसरे को।
सरकार यदि महामारी में ही लगी रहे,भोजनव्यवस्था से ध्यान हटा ले तो जनता अकेली पड जाती है।
अभी किसीको भी जरासा भी अकेला नहीं पडना चाहिये न सरकार को,न जनता को।दोनों एक दूसरे की मांगों को देखें,समझें और एक दूसरे को पूरा सहयोग करें इसकी अनिवार्यता है।
यह आध्यात्मिक आवश्यकता है कि आदमी स्वयं अपने आपके साथ घुलमिलकर रहे।
इसमें दोनों बातें हैं।आदमी अपने सुखरुप के साथ मिलकर रह सकता है,दुखरुप के साथ नहीं।अपने कष्टप्रद रुप के साथ रहने के लिये बडा धैर्य, बडी गहरी समझ चाहिये वर्ना खुद के साथ मिलकर रहना आसान नहीं।
दूसरी बात बाहरी व्यक्ति, घटना,परिस्थिति को मूल कारण न समझे अपनी समस्या का इसीलिए कहा-खोजें तो अपनी हर समस्या के मूल में अपनी ही कोई आंतरिक दुर्बलता मिल जायेगी।
इसी संसार में ऐसी महान आत्माएं हुई हैं जिन्होंने अपनी कोई फिक्र नहीं करके दुखी,पीडित लोगों की मदद की है।परहित सरिस धर्म नहीं भाई।कहा भी है-जो दृढ राखे धर्म को तेहीं राखे करतार।
ऐसा व्यक्ति आश्चर्यजनक रुप से निर्भय,निश्चिंत हो जाता है।
जिसे चिंता सताती हो उसके लिये तो सेवाधर्म महान औषधि की तरह है चिंतारोग से मुक्ति पाने की।
यह करतार की तरह है जो उसे संभाल लेती है।मूल बात तो यही है क्योंकि सब उसीका है।इस की अवज्ञा करके हम केवल अपने ही स्वार्थ को महत्व दें तो कर्तापन के अभिमान के साथ चिंताभय की पीडा आ ही जाती है।जो सबके साथ मिलकर रहता है,सामूहिक समाधान खोजता है वह सकारात्मक होता है।
स्वयं के साथ मिलकर रहना आध्यात्मिक आवश्यकता है।इसे स्वार्थी नहीं कहा जा सकता।सच बात यह है कि अपने हृदय में अपने आपके साथ घुलमिलकर रहने से अपने सभी मानसिक विभाजन,अपने पराये की मान्यताएं लुप्त हो जाती हैं।ऐसा व्यक्ति जो व्यक्तिगत रुप से अखंड है सामूहिक दृष्टि से सबके साथ रह सकता है,सबको सहयोग कर सकता है।
भीतर भेद हो बाहर समूह को लेकर विचार हो तो उसकी कृति परोपदेश तक सीमित रह जाती है।इस वजह से आत्मोपदेश की महत्ता बताई।पहले स्वयं समझे ,स्वयं करता हो और ऐसा हर एक आदमी हो अर्थात् हर आदमी स्वयं अपनी जिम्मेदारी का अहसास करे फिर सब ठीक है।फिर जो भी समस्या आये सामूहिक रुप से मिलकर उसका मुकाबला किया जा सकता है।आदमी अकेला नहीं पडता।
अभी भी सरकार और जनता का भेद बना हुआ है।जनता,सरकार की ओर देख रही है।कर्फ्यू, लोकडाउन की बाध्यता झेल रही है।यह भेद समाप्त हो सकता है अगर दोनों मिलकर कार्य करें।
सरकार भी अलग कहां है?प्रजातंत्र में सरकार,प्रजा का ही तो हिस्सा है प्रजा की देखभाल के लिये,उसकी सेवा,सुरक्षा के लिये।
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