बुधवार, 7 अगस्त 2013

बीए ऑनर्स को चार साल का करना एक गलत फैसला है : ड़ा. त्रिवेदी








 प्रियरंजन त्रिवेदी से अनामी शरण बबल की बातचीत


दिल्ली यूनीवर्सिटी  द्वारा 2013 -14 से बीए विद ऑनर्स  पाठ्यक्तम को चार साल का कर दिया गया है। इसको लेकर  यूनीवर्सिटी सहित इसका जमकर विरोध भी हो रहे है। चार साला पाठ्यक्रम का देश के जाना माने शिक्षाविद डॉ प्रियरंजन त्रिवेदी  ने कड़ा विरोध जताया है। वे इस पैसले को ही बेकार और केवल समय की बर्बादी माना है। देश में दो दो यूनीवर्सिटी ग्लोबल ओपन युनिवर्सिटी (नागालैण्ड)  तथा इंदिरा गांधी टेक्नोलॉजिकल एंड मेडिकल साइंसेज यूनिवर्सिटी (अरुणाचल प्रदेश)  के संस्थापक कुलाधिपति डॉ प्रियरंजन त्रिवेदी एक अनूठे चिंतक हैं। शैक्षणिक चिंतक होने के साथ साथ पर्यावरण और कृषि विशेषज्ञ डा. त्रिवेदी ज्यादातर देशी समस्याओं पर गहरी पकड़ और बेबाक नजरिया से तल्ख टिप्पणी करते है। इनकी टिप्पणियों में तलख्यित के साथ साथ सरकार और नौकरशाही की बेऱूखी को लेकर काफी रोष है.। जल जंगल जमीन जानवर जनजीवन पर्यावरण प्रदूषण बाढ़ सूखा अकाल  और प्राकृतिक – मानवीय आपदा पर भी ये काफी चिंतित हैं। मगर शिक्षा और सेहत के अंधाधुंध व्यावसायिक करण से स्वास्थ्य और शैक्षणिक वातावरण में पैसे की चमक दमक से  डा. त्रिवेदी  विचलित है। तमाम ज्वलंत मुद्दों पर संस्थापक कुलाधिपति डॉ प्रियरंजन त्रिवेदी से लास्ट संड़े के लिए अनामी शरण बबल ने लंबी बातचीत की। प्रस्तुत है बातचात के मुख्य अंश: ---
सवाल – इसी साल से दिल्ली यूनीवर्सिटी ने बैचलर कोर्सेज विद ऑनर्स के तीन साल के पाठ्यक्रम को चार साल का कर दिया है। इसे आप किस तरह देखते है ?
जवाब – यह एक गलत और बेकार सा फैसला है, जिसे दो चार साल के बाद वापस लेना पड़ सकता है।   दिल्ली यूनीवर्सिटी जैसे केंद्रीय यूनीवर्सिटी  द्वारा इस तरह के अवैज्ञानिक और अतार्किक फैसलों से ही शिक्षा में अंतरविरोध बढ़ता और पनपता है। चार साल के पाठ्यक्रम  से छात्रों को केवल एक साल की बर्बादी के अलावा कुछ और नहीं हासिल होने वाला है।. एक तरफ सरकार के पास नौकरियों की कमी है लिहाजा मुझे तो लग रहा है कि ज्यादा से ज्यादा समय तक छात्रों को पढ़ाई में व्यस्त रखने की यह केवल एक सरकारी चाल भी हो सकती है। ,जिसे दिल्ली यूनीवर्सिटी के जरिये लागू किया जा रहा है। एक तरफ सरकार नौकरियों की उम्र सीमा तो बढ़ा नहीं रही है ?  लिहाजा सरकार का यह फैसला लाखों छात्रों के कैरियर को प्रभावित करने वाला है।
सवाल – डीयू के इस फैसले के खिलाफ क्या होना चाहिए  ?
जवाब – आप देखते रहे हमलोगों को कुछ करने से ज्यादा काम दो एक साल के अंदर ही यहां के छात्रों,  छात्र संगठनो और पोलिटिकल पार्टियां ही कर देंगी। यह समय का तकाजा और मांग भी है कि इस तरह के बेकार और एक साल बेकार करने वाले पाठ्यक्रमों को समाप्त कराने  में लोग एकजुट होकर खड़ा हो।
सवाल – सरकार से इस मामले में क्या अपेक्षा रखते है ?
जवाब – सरकार से क्या उम्मीद करेंगे ?   सारा फितूर ही सरकार का करा कराया है। डीयू चूंकि राजधानी में है लिहाजा इसको लेकर होने वाले हंगामे को सरकार अपने सामने ही देखना चाहती है।  एक तरफ चुनावी फायदे के लिए सरकार नौकरी की उम्र बढ़ाकर 65 साल करने पर आमादा है तो दूसरी तरफ देश में करोड़ो बेकार और बेरोजगार युवक उबल रहे है। सरकार का ध्यान इनकी तरफ नहीं है। सत्ता के मोह से बाहर  निकल कर अब देश हित के लिए काम  करने का समय आ गया है। 
सवाल – भारत की शिक्षा नीति पर आपकी क्या धारणा है ?
जवाब --  यह पूरी तरह दोषपूर्ण अवैज्ञानिक दृष्टिकोण वाला है ।. शिक्षा को बाजार और समय के साथ जोड़ा ही नहीं गया है। शिक्षा को केवल कागजी ज्ञान का माध्यम बनाया गया है.। शिक्षा में सुधार के नाम पर इसको और बदतर किया जा रहा है। तकनीकी शिक्षा के नाम पर छात्रों को तकनीक का प्रवचन पिलाया जाता है, बगैर यह जानने की मनोवैज्ञानिक पहल  किए कि  तकनीकी शिक्षा को एक छात्र द्वारा कितना और किस स्तर तक ग्रहण किया गया। एक इंजीनियर भी मौके पर रहते हुए काम को अपने सामने निरीक्षण करने की अपेक्षा एक हेड मिस्त्री या कारीगर की दक्षता पर निर्भर करता है। इनलोगों की कार्यदक्षत्ता पर देश के बड़े बड़े प्रोजेक्ट की मजबूती का पैमाना तय होता है.।  एक तकनीकी शिक्षा प्राप्त अधिकारी केवल कागजों पर पूरी योजना को साकार करता है, मगर उसको वास्तविक आकार में एक कारीगर ही साकार रूप देता है। , जो रोजाना के अनुभव से दक्ष या माहिर होकर पारंगत बनता है। मौजूदा शिक्षा नीति की यह दुखदाई हालत है कि शिक्षा समाप्त होने के बाद एक छात्र अपना बायोडॉटा बनवाने के लिए भी वह कोई साईबक कैफे के उपर निर्भर होता है.। शिक्षा में प्रैक्टीकल शिक्षा या अभ्यास की भारी कमी है। इस वजह से एक छात्र सही मायने में चार पांच साल की पढ़ाई को अपने जीवन और कैरियर में उतार नहीं पाता। . कागजी शिक्षा से नौकरी तो मिल जाती है, मगर वहां पर भी किसी क्लर्क या सहायक द्वारा ही काम को बताया जाता है।
सवाल – इसमें क्या खराबी है ? कोई भी आदमी किसी काम को समझने पर ही तो बेहतर तरीके से कर सकता है ?
जवाब – क्या आपको इसमें कोई खराबी नजर नहीं आती। एक डॉक्टर, इंजीनियर या वैज्ञानिक को गहन विषयों के बारे में सामान्य सी जानकारी कोई टेक्निशियन या कोई हेल्पर बताएगा ?  यह हमारी शिक्षा प्रणाली का क्या दोष नहीं है कि वह पांच छह साल में भी एक छात्र को पारंगत नहीं कर पाता ?
सवाल – देश की शिक्षा में एकरूपता की भारी कमी है। हर राज्य का अपना अलग शिक्षा बोर्ड या परिषद है। राष्ट्रीय स्तर पर भी सीबीएसई के अलावा और भी कई बोर्ड या परिषद है। अलग अलग जातियों या खास समुदायों के अपने पाट्यक्रम और शिक्षा संविधान तक है। इस विभिन्नता या अनेकता को क्या एक दायरे  में करने की जरूरत नहीं लगती ? 
जवाब--  देखिए , अगर किसी देश में शिक्षा के कई बोर्ड या परिषद है तो इसमें को खराबी नहीं है, और ना किसी को इस पर कोई आपति ही होनी चाहिए। हमारा देश अधिक आबादी वाला एक विशाल और विभिन्नताओं वाला देश है। हर प्रांत और उसमें रहने वाले लोगों का अपनी संस्कृति, मान्यता  .लोकाचार और भाषा का अलग संस्कार होता है, जिसे जीवित रखना और संरक्षित करना भी आवश्यक है। इस तरह स्थानीय बोर्ड अकादमी या शैक्षणिक माध्यमों के जरिये ही इन पर पूरा ध्यान दिया जा सकता है। मगर मेरी मान्यता है कि देशज संस्कारों को सहेजने के साथ साथ प्रांतीय लोगों के दृष्टिकोण को राष्ट्रीय और  वक्त के साथ उनको भी अवगत कराने की जरूरत है. एक आधुनिक राष्ट्रीय नजरिये के बिना देश की शिक्षा के स्तर को एकरूप नहीं किया जा सकता। छात्रों पर ज्यादा निगरानी रखने के लिए अलग अलग बोर्ड या राज्य शैक्षणिक बोर्डो का होना आवश्यक है जो एक दूसरे के लिए सहायक भी है। मगर पाठ्यक्रमों में एकरूपता और परीक्षा प्रणाली को लेकर भी एक समान दृष्टि का होना जरूरी है, तभी तो कोई छात्र चाहे मुबंई से हो या किसी दूरदराज इलाके से हो , मगर सबके अध्ययन का पैमाना एक समान ही हो। मगर इसको लेकर देश में अभी तक एक नजरिया नहीं हो सका है । सरकारी और निजी स्कूलों के पाठ्यक्रमों और सांस्कृतिक गतिविधियों में भी एक रूपता का घोर अभाव है। देश के सभी संस्थानों को इसमें पहल करनी चाहिए।।
सवाल – पहले तो केवल प्राईवेट स्कूल होते थे मगर आज तो देश में एक दो नहीं सैकड़ों प्राईवेट यूनीवर्सिटी भी खुल चुके है. जहां पर लाखों छात्र पढ़ाई कर रहे है ?
जवाब --  प्राईवेट यूनीवर्सिटी से कोई आपति नहीं है , मगर सरकार को यूनीवर्सिटी या डीम्ड यूनीवर्सिटी या इसके समतुल्य मान्यता देते समय पाठ्यक्रमों में एक समान संयोजन की नीति को अनिवार्य करना होगा। मगर आज जितने यूनीवर्सिटी हैं उतने ही प्रकार के प्रयोग और एक दूसरे से बेहतर पाठ्यक्रम को लागू करने की अंधी प्रतियोगिता हो रही है। यह जाने बगैर कि इसका एक छात्र पर क्या असर पड़ रहा है। छात्रों की परवाह किए बगैर केवल अपनी इमेज को औरों से बेस्ट करने की नीयत के पीछे एक छात्र को एक क्लासरूम की बजाय एक शैक्षणिक अनुसंधान के प्रयोगशाला में बैठा दिया जाता है,। जहां पर होने वाले रोजाना के प्रयोगों से एक छात्र किस तरह किस रूप में बाहर निकल रहा है यह किसा से छिपा नहीं है। एक छात्र को उसकी मौलिकता उसके विचारों और उसके नजरिये का सम्मान होना चाहिए। मगर,उसको अपनी प्रतिभा के आधार पर विकसित होने का मौका नहीं दिया जा रहा है।
सवाल इसका कारण आप क्या मान रहे हैं ?
जवाब – दरअसल लगभग सभी अभिभावकों को अपने बच्चों पर भरोसा नहीं है। . उनको निजी स्कूल ट्यूशन या ट्यूटर पर ज्यादा यकीन होता है। पढाई के अलावा किसी बच्चें की मौलिक प्रतिभा का परिवार द्वारा अनादर किया जाता है। केवल कागजी ज्ञान या कट पेस्ट की पढ़ाई को ही परिवार टैलेंट की तरह देखता है। बच्चे की मौलिकता के प्रति सामाजिक और पारिवारिक दृष्टिकोण में बदलाव की जरूरत है। खेलों को ज्यादातर परिवारों में सबसे बेकार और बुरा माना जाता है, मगर केवल खेल की वजह से ही दर्जनों खिलाड़ी घर घर के हीरो माने जा रहे है। पारिवारिक समर्थन के बगैर क्या कोई सचिन या धोनी सामने उभर पाते। मेरी धारणा है कि केवल खेल ही नहीं हर तरह की विभिन्नता और लीक से अलग चलन को प्रथा को सम्मान और प्रोत्साहन देना होगा।
सवाल -- शिक्षा में क्या होना चाहिए ?
जवाब – शिक्षा पर लॉर्ड मैकाले के सांस्कृतिक हमले को खत्म करना होगा।. देश को बर्बाद और  विनाश करने की मैकाले पद्धति को हटाना होगा। मैकाले ने शिक्षा को औजार बनाकर देश की संस्कृति पर हमला किया था। हमें बाबूओं वाली शिक्षा से हटकर एक आधुनिक शिक्षा को पढाई में शामिल करना होगा। .शिक्षा को सर्वसुलभ करना और बनाना होगा। आज की शिक्षा गरीबों को केवल अंगूठाटेक साक्षर करने की है। पढ़ाई काफी महंगी हो गयी है, जिसको सबके लिए बनाना होगा। नहीं तो जिसके पास पैसा है वहीं आज पढ़ और अफसर बन रहा है। इससे समाज में असंतुलन की खाई और चौड़ी होगी। सरकार को पहल करनी होगी। हमारे ग्लोबल यूनीवर्सिटी में 3000 पाठ्यक्रम है। .45 पाठ्यक्रम स्पेशल है। ग्रामीणों किसानों को कृषि पर पढाई का पूरा संचार है। ओपन यूनीवर्सिटी में करीब 50 हजार छात्र है जिनको पाठ्यक्रम और गाईड के माध्यम से जोडा जाता है।यह एक अनोखा और अनूठा प्रयास है, जहां पर पैसे से ज्यादा गुण और कौशल को तराशने की चेष्टा की जाती है। पढाई बाजार की जरूरत है।  विदेशों में उसका उपयोग किया जाता है, जबकि हमारे यहां शिक्षा बाजार और रोजगार से ना जुड़कर व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का आधार माना जाता है। यही वजह है कि पढ़ा लिखा आदमी सामाजिक ना होकर समाज के लिए सबसे बेकार हो जाता है, क्योंकि उसकी कोई उपयोगिता ही नहीं रह जाती। मूल्यपरक शिक्षा होने पर ही एक आदमी को अपनी सामाजिक उपयोगिता और दायित्व का भान होगा। जिसके ले सामाजिक समरसता और कार्य के प्रति सम्मान को भाव होना जरूरी है। सरकार को युवाओं के रोजगार के लिए बाजार देना होगा तभी तो समाज का हर तरह का आदमी कुटीर उधोग के मार्फत भी समाज के साथ जुड़ा रहेगा।
सवाल – आपने दो दो यूनीवर्सिटी की स्थापना की है । इसकी क्या जरूरत पड़ी और आपके ये यूनीवर्सिटी औरों से अलग और बेहतर किस तरह है ?
जवाब – हमने देखा कि शिक्षा के नाम पर जो होना चाहिए वो नहीं हो पा रहा है, तभी मैंने  द ग्लोबल ओपन युनिवर्सिटी (नागालैण्ड)  तथा इंदिरा गांधी टेक्नोलॉजिकल एंड मेडिकल साइंसेज यूनिवर्सिटी अरुणाचल प्रदेश की स्थापना की  मैं इसका संस्थापक कुलाधिपति हूं। इसमें सैकड़ों वो पाठ्यक्रमों को लागू किया गया है जो कहीं नहीं शिक्षा का आधार बना है। मैनें शिक्षा को रोजगार और बाजार से जोड़ा है.। 2100 से ज्यादा पाठ्यक्रमों की मान्यता के लिए मेरी फाईले सरकारी टेबलों पर रूकी पड़ी है। जिससे सरकार को अपनी शिक्षा में दोशी मान्यताओं से जोड़ने का मौका मिलेगा। देश की प्राचीनतम 355 दवा रहित चिकित्सा प्रणालियों की मान्यता के लिए मैं सालों से सरकार से लड़ रहा हूं। मगर मैंने पहले ही कहा था कि हम नवीनती पर विचार करने की बजाय पीछलग्गू की तरह पुरानी लीक पर ही चलना चाहते है। 355 पैरामेड़िकल चिकित्सा प्रणाली की मान्यता से सरकार को घाटा तो नहीं है पर करोड़ों लोगों को इसका फायदा तो मिल सकता है। इसकी पढाई होगी और तमाम साधनों को एक पहचान मिलेगी। इससे लाखो लोग रोजगार पाएंगे। ये चिकित्सा पद्धति हमारे देश में प्रचलित भी है पर सरकार को इसको अपना मानकर दावा करना चाहिए। इस पर दुनियां भर में काम हो रहे है और लाखो लोग इसके इलाजा से ठीक भी हो रहे है। मगर सरकार की उपेक्षा कब टूटेगी ?  यही इच्छाशक्ति सरकार और नौकरशाहों में नहीं है। हमारे देश में हजारों कॉलेजों की कमी है। तमाम तकनीकी संस्थानों को देश के उधोगों से जोडा जाना चाहिए ताकि वे एक छात्र को तराश कर अपने यहां रोजगार दे और उनको प्रशिक्षित करने का खर्चा वहन करे। शिक्षा के व्यय को कम किया जा सकता है, मगर इसके लिए सरकार को ही तो उपाय और साधनो को आकार देना होगा।
सवाल – सरकारी लापरवाही या उदासीनता को आप किस तरह देखते है ?
जवाब --   आज देश का हाल बेहाल ही उदासीनता या काम को फौरन करने  की बजाय कल पर टालने की नीति से हो रही है।  कड़ाके  की ठंड़ में भी देश की रक्षा के लिए हौसले को बनाए रखना पड़ता है।  मगर देश के नौकरशाह और सरकार का रवैया इन बहादुरों के प्रति भी नकारात्मक है। पड़ोसी देशों से रिश्ते जगजाहिर है।. बांग्लादेश जैसा देश जिसको अलग देश बनवाने में भारत की भूमिका रही है वो भी हमारे सैनिकों को मारकर जानवरों की तरह फेंकता है और हमारे नेता केवल रेड़ियों और न्यूज चैनलों पर धमकी देकर चुप हो जाते है। पाकिस्तान के सामने हम पिछले सात दशक से दब्बू बने हुए है।  मामला बाहरी या आंतरिक सुरक्षा का हो मगर, हर मामले को निपटारे से पहले लाभ हानि को देखा और परखा जाता है। देश के भीतर ही देखिये लगभग हर राज्य में कोई ना कोई बड़ी समस्या उबल रही है। उदासीनता या वोट बैंक की वजह से मामले को दशकों तक लटकाया जाता है। बाद में वही समस्या भयानक हो जाती है, तब जाकर मामले पर गौर किया जाता है. । 
सवाल  इसे जरा और स्पष्ट करे ?
जवाब – देश को आजाद हुए करीब करीब 70 साल होने वाले है।  इस दौरान 14 दफा लोकसभा चुनाव हुए.। देश में करीब 50 साल से भी अधिक समय तक एक ही पार्टी सत्ता में रही है, इसके बावजूद एक सभ्य  समाज और देश के विकास के लिए सबसे जरूरी पानी बिजली परिवहन सड़क शिक्षा सफाई और  स्वास्थ्य की सुविधाओं का भी पूरा इंतजाम नहीं किया जा सका है। गांव हो या शहर या फिर राजधानी दिल्ली हो या कोई भी महानगर,  हर जगह नागरिकों को इसकी कमी है। इंतजाम पर करोड़ों खर्च होने के बाद भी सुविधा का अभाव क्या दर्शाता है।. सरकारी स्कूल हो या कॉलेज,  सरकारी अस्पताल की बजाय लोग प्राईवेट अस्पताल में जाना ज्यादा पसंद करते है। काम के प्रति लापरवाही का मुख्य कारण एक कर्मचारी के मन से नौकरी के खतरे का भय का नहीं होना है. जिससे एक कर्मचारी बेखौफ होकर उदंड़ हो जाता है। 

सवाल -- चलिए मान लेते है कि हर जगह गलत और गलत ही हो रहा है, मगर शिक्षा नीति से कोई समाधान आपके पास है ?
जवाब – क्यों नहीं। भारतकी दोषपूर्ण शिक्षा नीति या प्रणाली से बेकारी अशांति हिंसा आतंकवाद और प्रदूषण की समस्या सिर उठा चुकी है. इनके सामने सरकार और सरकारी आलाकमानों ने समर्पण सा कर दिया है। इसको नियोजित तरीके से ही समाधान किया जा सकता है। बेकारी से समाज में अशांति का माहौल बढ़ता है। . अशंति में हिंसा आंतकवाद और तस्करी बढ़ जाती है। युवावर्ग को छोटे छोटे साधनों और स्वार्थो के लिए खरीदा जा रहा है। समाज में हर तरफ प्रदूषण का साम्राज्य है. हर तरह का प्रदूषण का बोलबाला है। यहां पर सबसे अच्छा समाधान है कि इन तमाम समस्याओं को आपस में मैत्री करा दी जाए। इससे तमाम समस्याओं में एक समन्वय संतुलन पैदा होगा। समाज में इको  फ्रेणडली इकोलॉजी पनपेगा। देश भर में नर्सरी बनाए जाए। पौधों की नर्सरी से समाज में पर्यावरणीय प्रबंधन को लेकर नयी दृष्टि का विकास होगा। कचरा प्रबंधन को लेकर समाज में नये उधोग का विकास होगा। इस तरह बेकारी अशांति हिंसा अपराध और लूटमार की बजाय कूड़ा सबके लिए रोजगार और कमाई का साधन बन जाएगा। इससे जैविक खाद्य बनाया जाएगा और देश भर में एक नए समाज की रूपरेखा प्रकट होगी। विदेशों में भी कचरा प्रबंधन को लेकर शोध होंगे। ( हंसते हुए ) पाकिस्तान को यदि इस कचरा प्रबंधन और जैविक खाद्य के बारे में पत्ता चल जाए तो आतंकवाद और सोने की तस्करी को छोड़कर इसके माध्यम से अपने देश की तकदीर बदलने में लग जाएगी.।
 सवाल---, एक सौ मे 99 बेईमान, फिर भी अपना भारत महान, चारो तरफ जय जयकार है और आदमी यहां पर बेबस लाचार है। इस तरह की छवि और आम धारणा के बीच आप देश और देश के संचालकों नीति नियंताओं पर क्या राय रखते है ?
जवाब – देश एक गंभीर संकट के दौर में है। स्वार्थी शासकों लालची नौकरशाहों और अदूरदर्शी संचालकों की समाज निर्माण के प्रति उदासीन नीतियों से देश संचालित हो रहा है। देश को विकासशील देशों की कतार में लाने की ठोस पहल की बजाय नेताओं की जुबानी बयान से ही देश आगे बढ़ रहा है। देश की सुरक्षा को लेकर भी यहीं जुबानी जंग जारी है।  पूरी दुनियां हमारे देश के नेताओं और नौकरशाहों की कागजी बहादुरी को जान गयी है। सरकार  किसी समस्या को सुलझाने की बजाय उसे यथावत बनाए रखना चाहती है। देश को बेहतर बनाने की बजाय कोई आफत ना हो। बस इसी सावधानी से सरकार चलाते है। डर डर कर सरकार चलाने वाली पार्टियां करप्शन घोटालो और देश को बेचने वाली नीतियों को लागू करते समय तो नहीं डरती है पर देश हित के लिए कोई भी कड़ा फैसला लेते समय वोट बैंक का ख्याल करके लाचार हो जाती है। इस तरह के शासकों से देश को कभी आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी नहीं बनाया जा सकता। 
सवाल—इसका देश पर क्या असर पड़ता है ?
जवाब – इसका असर तो आप हर तरफ हर स्तर पर देख ही रहे है।. नेताओं के चरित्र को देखकर सत्ता की पूरी कमान आज नौकरशाहों और बाबूओं के हाथों में चली गयी है। इनके भीतर शासकों का डर खत्म हो गया है। यहां पर शासकों में ही नौकरशाहों और बाबूओं को लेकर डर व्याप्त है। सत्ता में रहने वाली हर पार्टी के नेता अपनी पसंद के ब्यूरोक्रेट को अपना सारथी बनाता है। मंत्री अपने सारथी नौकरशाह पर निर्भर रहते है और वो ब्यूरोक्रेट अपनी अंगूलियों पर नेता को नचाता है.। उसको लाभ पहुंचाता है और मंत्री के नाम पर अपने खजाने और ताकत को बढ़ाता रहता है। उसके लिए अपने मंत्री को खुश रखना और चापलूसी करके उस पर कायम अपने विश्वास को अटल बनाये ऱखना जरूरी है। हमारे नेताओं का नौकरशाहो पर निर्भर होने का ही नतीजा है, कि वे लोग एक दूसरे के रक्षक बनकर लूटमार में लगे है। सत्ता, नौकरशाहों और बाबूओं की तिकड़ी के एक साथ हो जाने का असर सरकारी सेवाओं साधनों और संस्थानों पर दिखने लगता है। खुलेआम करप्शन और सुविधा शुल्क के बगैर कामकाज नहीं हो पाता। लोग लाचार बेबस है फिर भी ज्यादातर सरकारी कर्मचारियो में डर संकोच नहीं रह गया है। लोगों की लाचारी पर भी सरकार और नौकरशाहों का ध्यान नहीं जाता। 
सवाल – क्या आप अपने विचारों और साधनों को लेकर सरकार से कभी वार्ता की है  ?
 जवाब – एक बार नहीं कई बार, मगर सरकारी प्लानरों और विशेषज्ञों को इन चीजों में ना कोई दिलचस्पी है और ना ही वे इस तरह के समाधान को लेकर कोई उत्सहित है। देश की बेकारी से लेकर तमाम ज्वलंत मुद्दों पर भी नौकरशाहों की उदासीनता सबसे बड़ी कठिनाई बन जाती है।
सवाल – विदेशों में आपके विचारों और उपायों को लेकर क्या धारणा है  ?
जवाब -  मैं एक भारतीय हूं, लिहाजा मेरी पहली जिम्मेदारी और सपना अपने देश के लिए है। विदेशों में तो नवीन विचारों मौलिक उपायों को गंभीरता से सुना और लिया जाता है। वहां की ब्यूरोक्रेसी और पोलटिशियन को लगता है कि इससे देश का भला हो सकता है तो त्तत्काल एक कमेटी द्वारा उसका विशेलेषण किया जाता है और खर्चे से लेकर अंतिम निराकरण और लाभ घाटे का हिसाब लगाकर मान्यता दी जाती है , या ज्यादा लाभप्रद ना मानकर उसको रद्द कर दिया जाता है। इसके बावजूद दोनों ही हालात में छोटे स्तर पर एक पायलेट प्रोजेक्ट शुरू होता है। पूरी टीम की मेहनत और सलाह मशविरा के उपरांत चर्चा होती है। उसको ज्यादा लाभप्रद और बजट पर लेकर माथा पच्ची की जाती है। तब कहीं जाकर उसको देश में लागू किया जाए या लंबित रखा जाए इसका फैसला किया जाता है। यह सब हमारे देश में संभव नहीं है। हम नयेपन को तरजीह देने की अपेक्षा पीछे पीछे चलने के रास्ते को ज्यादा आरामदेह मानते है। यही वजह है कि देश की प्रतिभाएं देश से बाहर जाकर ही अपना सिक्का मनवा पाती है। देश में नाना प्रकार की दिक्कतों और उदासीनता से जूझने के बाद जब देश का टैलेंट बाहर जाकर नया काम करते हुए नाम कमाता है तब कहीं जाकर हमारा देश उसकी आरती उतारने और सम्मान देकर भारतीय होने पर गौरव मान लेती है। देश की प्रतिभाओं ने विदेशों में जाकर हर जगह अपना ड़ंका बजाया है, और बजा रहे है, मगर देश में उनको तमाम साधनों के ज्यादा समस्याओं से लड़ना पड़ता है। हमें नकलची बनने की बजाय टैंलेंट को मान सम्मान देना होगा । केवल जुबानी बयानबाजी या महज औपचारिकता के लिए बयान देने की बजाय सार्थक तरीके से काम करना होगा।
सवाल – क्या आपको यह मुमकिन लग रहा है ?
जवाब— नामुमकिन तो इस संसार में कुछ भी नहीं है, मगर उसके लिए स्वार्थ और दलगत भावना से उपर उठकर देश समाज और आम नागरिकों के लिए कुछ कर गुजरने की चाहत जरूरी है। हमारे यहां युवा आ तो रहे है, मगर नया कुछ करने की बजाय करप्शन में नया नया रिकार्ड बना रहे है। इस तरह के नैतिक मंद युवाओं से देश का तो कभी भला हो ही नहीं सकता। इसके लिए शिक्षा कार्यप्रणाली में आमूल परिवर्तन की नए सोच की और देश को एक समय के भीतर टारगेट मानकर काम करने की जरूरत है। फिर देश में इस समय युवाओं की तादाद काफी है, लिहाजा उनको अपने साथ लेकर कुछ करना होगा। पर्यावरण, खेती किसान और पैदावार को बचाना होगा। देश की नदियों को लेकर सरकार को गंभीर होना पड़ेगा। तभी पर्यावरण और देश की कृषि को नया जीवन मिलेगा। हर राज्य में किसानों की असेम्बली बनानी होगी तथा किसाल और उनकी समस्.ओं को मुख्यधारा में रखना पड़ेगा। विकास तो मानवीय बनाना होगा, मगर देश में विकास की नीति ही मानव विरोधी है।. पेड़ों पहाड़ों नदियों प्राकृतिक संसाधनों को खत्म करके हमारे देश में जो विकास का मॉडल है वो पूरी तरह सामाजिक नरसंहार जैसै है. पेयजल सहित जल जंगल और पर्यावरण की चिंता किए बगैर किया जा रहा है। यह कैसा विकास है जहां पर मानव ही सुरक्षित ना हो।  पर्यावरण शिक्षा से ही धरती माता को बचाया जा सकता है,  जिसके लिए युवाओं को आगे आना होगा। विश्व पर्यावरण महासम्मेलन के आयोजनों को पूरी दुनियां में लगातार करते रहना होगा, तभी इसके प्रति लोगों में जागरूकत्ता आएगी.
सवाल  लोकतंत्र की धारणा है कि यह जनता द्वारा जनता की जनता के लिए बनाई गई सरकार होती है , और इसमें सबसे बड़ी भूमिका एक जनता की ही होती है ?     
जवाब – आपका कहना एकदम सही है। देखने में तो यह सत्ता की एक अनोखी परम्परा सी दिखती है, मगर लोकतंत्र वास्तव में एक समय के बाद भीड़तंत्र या अराजक आपराधिक चेहरों की समूह बन जाती है।  तमाम दलों को अपने वोटरों के रूख और समर्थन का पत्ता होता है। ज्यादातर पार्टियां पूरे देश को अपना मानने की बजाय एक खास वर्ग या समूह को ही सत्ता की पूंजी मान लेती है। यहां पर सोच का दायरा सिकुड़ जाता है। छोटे छोटे दलों का एक महाजनी चेहरा प्रकट होता है जो भले ही देश की बात करते हो, मगर उनका पूरा ध्यान केवल अपने इलाके अपने वोट बैंक और अपने हितों पर रहता है। और वे सत्ता में ज्यादा से ज्याद ब्लैकमेल करके अपनी मांगे मनवाने पर ध्यान देते हैं।
सवाल – लगता है कि हमारी बातचीत का पूरा लाईन ही चेंज हो गया है । कहां तो बातचीत शिक्षा से शुरू होनी थी और हमलोग कहां आकर ठिठक गए ? 
जवाब – नहीं हमें तो लग रहा है कि बातचीत पटरी पर है, क्योंकि जब जीवन बचेगा समाज है और समाज की मुख्यधारा में आशाओं और विश्वास की संजीवनी बची रहेगी, तब तक लोगों में और समाज में संघर्ष का माद्दा भी बना रहेगा। शिक्षा तो समाज और लोगों के उत्थान की केंद्र बिंदू है। मगर आज तो समाज और इसके मुख्य स्त्रोतो को बचाने की जरूरत है। हमारे यहां की नदियां सूख चली है. देश के 90 फीसदी तालाब झील और गांवो के पोखर सूख गए है। जलस्तर पाताल में चले जाने से हैंड़पंप और कुंए बेकार हो गए। शहरी कचरा नदी के किनारे के शहरों और बस्तियों को लील रही है। जीवन दायिनी होने की बजाय नदियां मानव विनाशकारी हो गयी है। पानी की कमी को पूरा करने के लिए गंदे पानी को रीट्रीट करके गंदे पानी को ही शोधित पेयजल के तौर पर दिया जा रहा है। खाने के नाम पर हमलोग जहर खाने को लाचार है.। खेतो में खाद और कीटनाशक दवाईयों के नाम पर पेस्टीसाईज का जम कर छिड़काव हो रहे है, जिससे खेतों की उर्वरा क्षमता पर ही असर पड़ रहा है। दवाईयों के नाम पर जिस तरह मानव सेहत से  खिलवाड़ हो रहा है। बिजली की कमी को पूरा करने के लिए बड़ी बड़ी नदियों के प्रवाह को रोका जा रहा है, तो पहाड़ों को काटा जा रहा है । बिजली के नाम पर भूकंप जलप्रलय और विभीषिका को हमारे प्लानर और इंजीनियर न्यौता दे रहे हैं। उत्तराखंड विनाश के भयानक तांड़व से भी कुछ  सीखने के लिए हम तैयार नहीं है। है। । 

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

उदयपुर को चेतना होगा

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udaypurउदयपुर। उत्तराखंड में हुई त्रासदी से उदयपुर को सबक लेने की जरुरत है। झीलों , नदी नालो के तंत्र के बीच बने इस शहर में भी अंधा धुंद व अदूरदर्शी कथित विकास से कभी भी तबाही आ सकती है।यह चिंता डॉ मोहन सिंह मेहता मेमोरियल ट्रस्ट एवं झील संरक्षण समिति के साझे में हुई उत्तराखंड के सबक विषय पर हुए संवाद में उभरे। संवाद में गाँधी मानव कल्याण सोसायटी ,चांदपोल नागरिक समिति .पहल संस्थान ,ज्वाला जन जाग्रति संस्थान ,झील हितेषी नागरिक मंच ,कृति सेवा संस्थान ,गाँधी स्मृति के प्रतिनिधियों ने शिरकत की।
डॉ तेज राजदान ने कहा कि उत्तराखंड में बड़े पैमाने पर पहाडियों को काटा गया व मलबे को नदी किनारे ही डाल दिया गया। पेड़ो की अंधा धुन्ध कटाई तथा नदियों के किनारे बेतरतीब होटलों ,गेस्ट हॉउस का निर्माण तथा बादल फटने से आये सैलाब ने भू स्खलन किया तथा किनारों पर बनी इमारतों को बहा दिया। डॉ तेज ने जोर देकर कहा की उदयपुर में यही सब कुछ किया जा रहा है यह शहर के लिए विपदा का आमंत्रण है।
विद्या भवन पोलिटेक्निक के प्राचार्य अनिल मेहता ने कहा कि उदयपुर में फ्लेश फ्लड की घटनाये बढ़ रही है। जल ग्रहण क्षेत्र को नुकसान पहुचाने से पानी तेजी से बहता है ,आयड नदी के किनारे व भीतर इमारते बन रही है।सतोलिया नाले में जल प्रवाह मार्ग अवरुद्ध है,पहाडियों में मार्बल स्लरी डंपिंग यार्ड है।बाढ़ को रोकने में मददगार छोटे तालाब नष्ट कर दिए गए है ऐसे में थोड़ी सी तेज वर्षा भी उदयपुर में प्रलय मच सकती है।मेहता ने कहा की बांधो की मजबूती को मापने की व्यवस्था नहीं है उन्होंने प्रश्न किया की शहर की आपदा प्रबंधन में कोई दक्ष व सक्षम है।
संवाद का प्रारंभ करते हुए सचिव नन्द किशोर शर्मा ने कहा कि उत्तराखंड में विनाशकारी विकास से कई गांवों के लोग भू-स्खलनudaypur1 से मरते रहे है।लेकिन वर्त्तमान हादसे ने पूरी दुनिया का ध्यान विकास बनाम विनास की तरफ खीचा है।उदयपुर को समय रहते इस पर ध्यान देना चाहिए।चांदपोल नागरिक समिति के तेज शंकर पालीवाल ने कहा की हमारे यहाँ राजमार्ग निर्माण में पहाड़ो को बेतरतीब कटाई हुई है तथा मलबे को जल प्रवाह मार्ग में डाला गया है यह गंभीर संकट पैदा कर सकता है गाँधी मानव सोसायटी के मदन नागदा ने कहा कि आपदा प्रबंधन की गाइड लाइन के बारे में न तो अधिकारियों को समझ है न ही आम जनता को,जरुरत शहर की आपदा प्रबंधन इकाई को मजबूत करने की है।
ज्वाला जाग्रति संता के भवर सिंह राजावत तथा पहल की ज्योत्सना झाला ने कहा की आवासीय बस्तीयो में पानी की निकासी की उपयुक्त व्यवस्था नहीं है। राजावत ने बताया कि देवास टनल की खुदाई का मलबा कोडियात नदी में दल है जो अवरोध पैदा करेगा।पूर्व पार्षद व नेता प्रतिपक्ष रहे अब्दुल अज़ीज़ ने वर्ष 1973 व 2006 की बाढ़ का विश्लेषण करते हुए कहा कि गुमानिया नाले में सुधार व कोडियात में बाढ़ नियंत्रण बाँध बनाना आवश्यक है।
इस अवसर पर उत्तरखंड त्रासदी के गवाह व पीड़ित राकेश झवर ने बताया कि हर पल और हर तरफ मौत का मंजर था लेकिन सलाम भारतीय सेना को जिसने अपने अथक परिश्रम से हम को बचाया। राकेश झवर ने कहा की उदयपुर की डिजास्टर प्रबंधन के लोगो को उत्तराखंड जा कर सीखना चाहिए कि जनता को मुश्किल में कैसे बचाए।
संवाद में गाँधी स्मृति के सुशिल दशोरा , नागरिक मंच के सोहन लाल तम्बोली ,गोवार्दन सिंह झाला ,हाजी सरदार मोहम्मद,हाजी नूर मोहम्मद कमलेश पुरोहित,सत्यपाल सिंह , ए ए खान लीला ओझा ,नितेश सिंह सहित कई नागरिको ने विचार व्यक्त किये। शायर मुश्ताक चंचल ने उत्ताराखंड पर मार्मिक नज़्म प्रस्तुत की।
इस अवसर पर उपस्थि सभी पर्यावरण प्रेमियों ने उत्तराखंड त्रासदी के शिकार हए नागरिको तथा सेना के जवानों को दो मिनट की मौन श्रधांजली ज्ञापित की गयी।
संपर्क
नन्द किशोर शर्मा अनिल मेहता
9414160960 9414168945

शनिवार, 12 जनवरी 2013

खास लोग / जनता जर्नादन

खास लोग
...जब खून से सजाया गया नेहरू का स्कैच जनता जनार्दन डेस्क ,  Jan 10, 2013
आज से 67 साल पहले जब कराची में जवाहरलाल नेहरू छात्रों के साथ बातचीत कर रहे थे, तो एक छात्र ने उनका चित्र बनाकर उसे अपने खून से इस उम्मीद से रंग दिया था कि नेहरू उसे जरूर देखेंगे।इस छात्र का नाम था एचजी हिंगोरानी। वैज्ञानिक से चित्रकार बने 88 वर्षीय हिंगोरानी ने वह चित्र आज भी संभाल कर रखा है और इस चित्र की हर वर्षगांठ (10 जनवरी) पर वे इसकी झलक प्रशंसकों को दिखाना नहीं भूलते। ....  समाचार पढ़ें
कैसे हुई लाल बहादुर शास्त्री की मौत, रहस्य बरकरार! जनता जनार्दन डेस्क ,  Jan 10, 2013
कुछ मौतें ऐसी होती हैं जो ताउम्र रहस्य बनी रहती हैं... गुदड़ी के लाल...लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में मौत ऐसा ही एक रहस्य है, जो 46 वर्ष बाद आज भी रहस्य बना हुआ है।सरकार गोपनीयता एवं विदेशी संबंधों का हवाला देकर इसे उजागर करने से इंकार कर रही है, लेकिन उनके परिवार के सदस्य इस रहस्य पर से पर्दा उठाने की मांग कर रहे है। ....  समाचार पढ़ें
आखिर क्यों 39 साल में ही दुनिया छोड़ गए थे स्वामी विवेकानंद? जनता जनार्दन डेस्क ,  Jan 07, 2013
दुनिया भर में भारतीय आध्यात्म का झंडा बुलंद करने वाले स्वामी विवेकानंद 31 बीमारियों से पीड़ित थे। शायद यही वजह रही कि इस विद्वान का महज 39 साल की उम्र में देहावसान हो गया।मशहूर बांग्ला लेखक शंकर की पुस्तक द मॉन्क एस मैन में कहा गया है कि निद्रा, यकृत, गुर्दे, मलेरिया, माइग्रेन, मधुमेह व दिल सहित 31 बीमारियों से स्वामी विवेकानंद को जूझना पड़ा था। ....  समाचार पढ़ें
'शिवाजी, राणा, भगत, बोस जैसा राजा चाहिए' नरेन्द्र सिंह राणा ,  Jan 03, 2013
इज्जत, सुरक्षा और अधिकार मिले सबको। समाज सम्मान दे, सरकार सुरक्षा दे, संविधान अधिकार दे। हर हाल में हमें दूसरे की माँ, बहन और बेटी को अपनी माँ , बहन और बेटी से अधिक इज्जत, सुरक्षा और सम्मान देना है। उस बलिया की बहादुर बालिका के साथ जो कुछ हुआ उसकी जितनी भ्रत्सना, निंदा की जाए कम है। ....  समाचार पढ़ें
दामिनी के आखिरी शब्द, मां मुझे माफ करना! जनता जनार्दन डेस्क ,  Jan 03, 2013
गैंगरेप की शिकार दामिनी के पिता ने बातचीत में बताया कि जब दामिनी अस्पताल में भर्ती थी तब उसने मां को कसकर पकड़ कर कहा कि में मैंने आप लोगों को बहुत दुख दिया है,हो सके तो मुझे माफ करना। ....  समाचार पढ़ें
गैंगरेप पीड़िता लड़की की अस्थियां गंगा में विसर्जित जनता जनार्दन डेस्क ,  Jan 01, 2013
दिल्ली में चलती बस में वहशियाना दरिंदगी की शिकार हुई लड़की की अस्थियां मंगलवार को उसके गृह जनपद बलिया स्थित भरौली घाट पर गंगा में प्रवाहित कर दी गईं। ....  समाचार पढ़ें
अशोक मिश्र ,  Jan 01, 2013
वाराणसी में जनसंघ के प्रथम अध्यक्ष एवं ज्ञानपुर से 1967 में एम.एल.ए. पंडित मुरलीधर पांडे पाण्डेय का कल रात्रि में अपने पैत्रिक गांव खेदौपुर में निधन हो गया। वह 95 वर्ष के थे। उनका अंतिम संस्कार कलिंजरा घाट, वाराणसी पर किया गया, ....  समाचार पढ़ें
बॉलीवुड के पहले सुपरस्टार को यादों का सलाम जनता जनार्दन डेस्क ,  Dec 29, 2012
राजेश खन्ना को हिंदी फिल्मों का सुपरस्टार यूं हीं नहीं कहा जाता। जिस दौर में राजेश खन्ना का कॅरियर अपनी बुंलदी पर था उस समय लोगों में राजेश का नाम रखने की होड़ लगी रही। 1969 से लेकर 1975 तक का दौर राजेश के लिए सबसे बेहतर दौर रहा। राजेश खन्ना के हर काम से सुपरस्टार झलकता था। उन्होंने अपना स्ट्रगल भी कार से किया। ऐसी कार जो इस समय के फिल्मी कलाकारों के पास भी नहीं थी। ....  समाचार पढ़ें
कवि और नेता के रूप में हमेशा 'अटल' रहे वाजपेयी जनता जनार्दन डेस्क ,  Dec 25, 2012
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी मंगलवार को 88 वर्ष के हो गए। उनके जन्मदिन पर भाजपा के कई नेताओं ने उन्हें बधाई दी है। भाजपा में करिश्माई व्यक्तित्व के धनी वाजपेयी को उनके विरोधी भी पूरा सम्मान देते हैं। वे एक ओजस्वी एवं पटु वक्ता और सिद्ध हिन्दी कवि भी हैं। ....  समाचार पढ़ें
कैलीफोर्निया में याद किए गए पंडित रविशंकर जनता जनार्दन डेस्क ,  Dec 21, 2012
पूर्व और पश्चिम की संस्कृति को आपस में जोड़ने वाले भारतीय सितारवादक पंडित रविशंकर को उनके मित्रों और परिजनों ने याद किया। दक्षिणी कैलीफोर्निया में रविशंकर के घर के समीप एन्सीनिटास में इस स्मृति समारोह का आयोजन किया गया। इस अवसर पर उनकी पत्नी सुकन्या तथा बेटियों अनुष्का और नोराह जोन्स, संगीतज्ञ जुबिन मेहता के साथ सैंकड़ों अन्य लोग मौजूद थे। ....  समाचार पढ़ें

दिल्ली की उमर सौ साल / पंकज श्रीवास्तव

इंद्रप्रस्थ नाम देकर अपनी राजधानी बनाया लेकिन कौरव उत्तराधिकारी दुर्योधन को ये बर्दाश्त नहीं हुआ। नतीजे में तमाम छल-प्रपंचों का सिलसिला शुरू हुआ और आखिरकार कुरुक्षेत्र के मैदान में 18 दिनों का विकट युद्ध हुआ। ऐसा युद्ध, जिसने पांडवों को सुई की नोक बराबर जमीन भी ना देने पर अड़े कौरवों का अंत कर डाला।
कौरवों का अंत हुआ लेकिन अंत नहीं हुआ तो हवस का, बेजा ख्वाहिशों का, ताकत और हुकूमत के नशे का। हमेशा ही, सत्ता के सिंहासन को इंसानी खून से धोया जाता रहा। इस हकीकत को बेहद करीब से महसूस करने वाले शहर का नाम है दिल्ली। भारत की राजधानी दिल्ली...बस-बस के उजड़ना और उजड़-उजड़कर बसना ही इसका इतिहास है। इंद्रप्रस्थ भी इसी किस्से का एक सिरा है। कहा जाता है कि पुराने किले के पास इंद्रपत नाम का एक गांव 19वीं सदी में भी था, जिसे सहज ही पांडवों के इंद्रप्रस्थ से जोड़ा जाता था।
पढ़ें:आज 100 साल की हुई हमारी, आपकी, सबकी दिल्ली!
बहरहाल, लिखित इतिहास में दिल्ली की चर्चा पहली बार तब अहम होकर उभरती है जब 1180 में इसे चौहानों ने जीता। चौहान राजा पृथ्वीराज तृतीय ने यहां तोमर राजा अनंगपाल के बनवाए लालकोट को किला राय पिथौरा में बदल दिया। ये दिल्ली का पहला शहर माना जाता है। पृथ्वीराज, अजमेर और दिल्ली के बीच के क्षेत्र पर शासन करते थे। अपनी बहादुरी के लिए मशहूर पृथ्वीराज ने अफगानिस्तान के गौर से आए हमलावर मोहम्मद गौरी को बुरी तरह पराजित किया। लेकिन 1192 में हुए तराइन के युद्ध में गौरी को आखिरकार जीत मिल गई। पृथ्वीराज वीरगति को प्राप्त हुए। हालांकि चारणकवि चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में इस हार का दर्द कम करने के लिए लिखा कि गौरी पृथ्वीराज को अंधा बनाकर अपनी राजधानी ले गया। शब्दभेदी बाण चलाने में माहिर पृथ्वीराज ने एक दिन शहाबुद्दीन गौरी का काम तमाम कर दिया। चंदबरदाई खुद भी इस कथा का एक पात्र है।



बहरहाल, रासो के रस में बदला ले लेने का सुख चाहे हो, हकीकत की तासीर नहीं है। गौरी की जीत के साथ भारत में तुर्कों का प्रवेश हो गया। उनकी जीत नई युद्ध तकनीक और बेहतर हथियारों की बदौलत हुई। तुर्क शासकों ने प्रशिक्षित गुलामों की ऐसी फौज खड़ी की थी, जो सिर्फ उनके लिए जीती-मरती थी। गंगा-यमुना के दोआब की उपजाऊ धरती की कशिश उन्हें खींच रही थी।
शहाबुद्दीन गौरी ने हिंदुस्तान में मिली जीत को संभालने की जिम्मेदारी अपने विश्वासपात्र गुलाम सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंपी, जिसने 1206 में दिल्ली सल्तनत की स्थापना की। लगभग आठ सौ साल से दिल्ली की शान बनी हुई कुतुब मीनार ऐबक के इरादों और हिंदुस्तान में आए उस ऐतिहासिक बदलाव की गवाह है। कुतुबमीनार और कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद के साथ उसने कुतुब महरौली बसाया जिसे दिल्ली का दूसरा शहर कहा जाता है। लेकिन सिर्फ चार साल बाद 1210 में कुतुबुद्दीन ऐबक की घोड़े से गिरकर मौत हो गई। ऐबक के बाद उसका दामाद इल्तुतमिश दिल्ली का सुल्तान बना जिसने 26 साल तक शासन करते हुए सल्तनत की बुनियाद को मजबूत किया। इल्तुतमिश अपने बेटों को नालायक समझता था। ऐसे में उसकी नजर अपनी काबिल बेटी रजिया पर गई।
दिल्ली एक क्रांतिकारी घटना की गवाह बनी। दुनिया में पहली बार कोई महिला इतने बड़े साम्राज्य की कमान संभालने जा रही थी। इल्तुतमिश की मौत के बाद उसकी ख्वाहिश के मुताबिक, उसकी बेटी रजिया ने महिलाओं के कपड़े छोड़, चोगा-टोपी पहनी और हाथी पर सवार हो गई। इस शुभ घड़ी पर दिल्ली झूम उठी। रजिया सुल्तान में वो सभी गुण थे जो उस वक्त के सुल्तानों में जरूरी माने जाते थे। लेकिन तुर्क सरदारों के मुकाबले गैरतुर्क और हिंदुस्तानी सामंतों की एक वफादार टोली तैयार करने की कोशिश उस पर भारी पड़ी। तुर्क अमीरों ने खुली बगावत की जो उसकी जान लेकर थमी। बहरहाल, रजिया का सिर्फ साढ़े तीन साल का शासन, इतिहास बना गया।
दिल्ली का सीरी फोर्ट स्टेडियम सल्तनत काल में बसाए गए तीसरे शहर की याद है। इसे बसाने वाले का नाम था अलाउद्दीन खिलजी। 1296 में अपने चाचा और खिलजी वंश के संस्थापक जलालुद्दीन खिलजी की कड़ा मानिकपुर में हत्या करके उसने सत्ता हथिया ली थी। उसके कारनामों से डरी हुई दिल्ली उसका इंतजार कर रही थी। फिर एक बरसाती रात सोना लुटाते हुए अलाउद्दीन दिल्ली में दाखिल हुआ। लेकिन अलाउद्दीन एक कुशल शासक साबित हुआ। उन दिनों दिल्ली के बाजारों में ज्यादा दाम वसूलने वालों की खैर नहीं थी। यही नहीं, वो पहला सुल्तान था, जिसने स्थायी सेना का बंदोबस्त किया। तब की दिल्ली पर मंगोलों के हमले का साया मंडराता रहता था। लेकिन सीरी के मैदान में अलाउद्दीन ने मंगोलों को इस बुरी तरह हराया कि उनका आतंक खत्म हो गया। बाद में इसी मैदान को दीवार से घेरकर उसने सीरी शहर बसाया ताकि दुश्मनों का हमला हो तो सिर्फ शासकवर्ग की नहीं, पूरी जनता की हिफाजत हो सके। सीरी स्टेडियम के पास दीवारों के खंडहर अब भी देखे जा सकते हैं। वैसे, लोगों की याद में अलाउद्दीन से जुड़ा सबसे अहम किस्सा है चित्तौड़ की रानी पद्मावती की पाने की उसकी कोशिश। हालांकि ये किस्सा इतिहास नहीं, अवधी महाकाव्य पद्मावत की वजह से आम हुआ, जिसे मलिक मोहम्मद जायसी ने अलाउद्दीन की मौत के काफी बाद लिखा था।
तुगलकाबाद किले की विशाल दीवार 1320 ई. में दिल्ली के तख्त पर तुगलक वंश की स्थापना करने वाले गयासुद्दीन तुगलक के इरादों की गवाह हैं। इसे दिल्ली का चौथा शहर कहते हैं। इस समय तक तुर्कों के भारत आगमन के लगभग सवा सौ साल बीत चुके थे। विदेशी और स्थानीय आबादी के बीच घुलने-मिलने का सिलसिला तेज हो गया था। इसी समय दिल्ली सूफी संतों का केंद्र भी बन रही थी। मशहूर सूफी संत निजामुद्दीन औलिया, इस दौरान ऐसे मशहूर हुए कि सुल्तान की चमक भी फीकी पड़ गई। तुगलकाबाद आज वक्त की धूल में खो गया, लेकिन ख्वाजा के दर पर सुकून का चश्मा बदस्तूर बह रहा है। ख्वाजा का दर दिल्ली की तहजीब का मरकज आज भी है। यहां के हर जर्रे में देहली की खुशबू बसी हुई है।
हजरत निजामुद्दीन के शिष्य अमीर खुसरो की ना जाने कितनी रचनाओं ने दिल्ली में तहजीब का एक नया रंग भरा था। अमीर खुसरो का असल नाम अबुल हसन था। उन्होंने पांच सुल्तानों की सेवा की थी लेकिन तलवार से ज्यादा कलम के लिए जाने गए। अरबी-फारसी के रंग को ब्रजभाषा और अवधी जैसी लोकभाषाओं से मिलाकर उन्होंने हिंदवी की शुरुआत की। जो आगे चलकर उर्दू कहलाई और फिर इसी ने खड़ी बोली हिंदी का रूप धरा। तबला और सितार का आविष्कार ही नहीं किया, कई रागों की रचना भी की। अपनी कविताई के लिए। इसका ऐसा डंका बजा कि उन्हें दुनिया भर में तूतिए हिंद कहा जाने लगा। खुसरो की पहेलियां दिल्ली से निकलकर गांव-गांव में खेल बनकर छा गईं। ये सिलसिला आज भी जारी है।
गयासुद्दीन तुगलक के बाद उसका बेटा मोहम्मद बिन तुगलक सुल्तान बना। उसने सल्तनत की राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद ले जाने का अजब फैसला किया। कुछ विद्वान इसे उसकी दूरंदेशी बताते हैं तो कुछ के मुताबिक ये उसकी सनक भर थी। बहरहाल जल्द ही उसे गलती का अहसास हुआ और राजधानी वापस दिल्ली ले आई गई। लेकिन दिल्ली की सूरत में चार चांद लगाया मुहम्मद बिन तुगलक के बाद गद्दी पर बैठे, उसके चाचा सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने। आज फिरोजशाह कोटला का नाम आते ही लोगों के जेहन में क्रिकेट मैच घूमने लगता है, लेकिन कोटला के खंडहर बताते हैं कि दिल्ली का पांचवां शहर यानी फिरोजाबाद किस शान का नमूना था। इससे पहले सारे शहर अरावली की पहाड़ियों पर बसाए गए थे। वहां के निवासियों को बड़े-बड़े हौजों में इकट्ठा किए गए पानी पर निर्भर रहना पड़ता था। पर आबादी बढ़ रही थी और पानी कम था। ऐसे में फिरोजशाह ने यमुना के किनारे 18 गांवों को मिलाकर इस शहर फिरोजबादा की तामीर की। इसमें 30 महल, दो सौ मुसाफिरखाने, चार अस्पताल, 10 हम्माम, 150 कुएं और 1200 बाग थे। नई-नई इमारतों के शौकीन फिरोजशाह ने 1368 में बिजली गिरने से टूटी कुतुब मीनार की दो ऊपरी मंजिलों को भी दुरुस्त कराया। यही नहीं, उसने पांच नहरों का भी निर्माण कराया जिसमें सबसे लंबी नहर डेढ़ सौ मील लंबी थी। लेकिन 1388 में फिरोजशाह की मौत के साथ ही इस शान-शौकत पर बुरी नजर लग गई।
1398 में तैमूर लंग ने दिल्ली पर हमला कर दिया। जाहिर है, इरादा लूटपाट था, जिसे हमेशा की तरह एक धार्मिक जामा पहनाया गया। उसका आरोप था कि दिल्ली का सुल्तान हिंदुओं के साथ उदारता का व्यवहार करता है, जो इस्लाम के खिलाफ है। दिलचस्प बात ये है कि लगभग डेढ़ सौ साल बाद उसके वंशजों यानी मुगलों ने भारत में अपने राज की मजबूती के लिए ठीक यही नीति अपनाई।
तैमूर के सैनिकों ने तीन दिन-तीन रात तक लगातार दिल्ली में लूटपाट की। फिरोजशाह के शानदार शहर को खंडहर बना दिया गया। हजारों लोगों की गर्दनें उड़ा दी गईं। दिल्ली का हर कूचा, हर गली इंसानी खून से नहा गई। तैमूर के लौटने के बाद थोड़े समय के लिए सैयद वंश के हाथ में सत्ता रही और फिर लोदियों का वक्त आया। अफगानी नेतृत्व वाले इस पहले शासक परिवार के बहलोल, सिकंदर और इब्राहिम लोदी दिल्ली का गौरव ना लौटा सके।
दिल्ली सल्तनत का सूरज डूब रहा था। फरगाना के अपने पुश्तैनी इलाके से दरबदर किया गया जहीरुद्दीन बाबर एक घर की तलाश में हिंदुस्तान की ओर बढ़ा चला आ रहा था। पानीपत के मैदान में हिंदुस्तान की तारीख करवट ले रही थी। दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी की लंबी-चौड़ी फौज को बाबर की एक छोटी सी सेना ने हरा कर इतिहास रच दिया। फरगाना और समरकंद से भगाया गया जहीरुद्दीन बाबर दूध और शहद की जमीन के नाम से मशहूर हिंदुस्तान में अपने लिए एक स्थायी ठिकाना चाहता था। इस ऐतिहासिक जंग ने उसका ख्वाब पूरा किया।
इब्राहिम लोदी पहला सुल्तान था, जो युद्धक्षेत्र में मारा गया। 1192 में तराइन के मैदान में जिस दिल्ली सल्तनत का जन्म हुआ था उसने पानीपत के मैदान में अंतिम सांस ली। लेकिन सल्तनत के साथ दिल्ली का सितारा भी डूबता दिखाई दिया। ये स्वाभाविक था कि बाबर भी दिल्ली को अपनी राजधानी बनाता, लेकिन वो दिल्ली सुल्तान नहीं, हिंदुस्तान का पहला मुगल बादशाह बनना चाहता था। इसलिए सल्तनत की छाया से बाहर जाते हुए उसने आगरा को अपनी राजधानी बनाया। लेकिन सिर्फ चार साल बाद 1930 में बाबर की मौत हो गई। बहरहाल, उसके उत्तराधिकारी हुमायूं को दिल्ली का महत्व समझ में आया और उसने यहां एक शहर बसाया। यमुना किनारे बसे इस शहर को आज पुराने किले के अवशेषों से पहचाना जाता है, जिसे हुमायूं ने दीनपनाह नाम दिया। लेकिन हुमायूं काफी बदकिस्मत निकला।
इब्राहिम लोदी की हार से बौखलाए अफगान बिहार के फरीद खां उर्फ शेर खां के नेतृत्व में एकजुट हो रहे थे। उसने 1539 में हुमायूं को चौसा के मैदान में बुरी तरह पराजित किया। फिर 1540 में कन्नौज के पास उसने मुगलों को निर्णायक शिकस्त दी और शेरशाह बनकर दिल्ली के तख्त पर जा बैठा। शेरशाह ने दिल्ली में हुमायूं के दीन पनाह में कुछ तरमीम करके उसे शेरगढ़ बना दिया। शेरशाह बेहद कुशल शासक साबित हुआ। उसने बंगाल को पेशावर से जोड़ने वाली ऐसी सड़क बनवाई जो आज भी जीटी रोड के नाम से जानी जाती है। उसका चलाया रुपया आज भी भारत की मुद्रा है।
किस्मत ने शेरशाह का भी साथ नहीं दिया। 1545 में एक दुर्घटना में उसकी मौत हो गई। उसके उत्तराधिकारी कमजोर साबित हुए। दर-बदर भटक रहे हुमायूं को फिर मौका मिला और दस साल बाद 1555 में हुमायूं को फिर से दिल्ली पर कब्जा करने का मौका मिल गया। शेरगढ़ फिर दीनपनाह हो गया। लेकिन महज सात महीने बाद पुस्तकालय की सीढ़ियों से गिरकर हुमायूं की मौत हो गई। दिल्ली में मौजूद उसका मकबरा, आज भी उस बदकिस्मत बादशाह की याद दिलाता है। जाहिर है, दिल्ली मुगलों को रास नहीं आ रही थी। हुमायूं के बेटे और मुगल वंश के सबसे मशहूर शासक साबित हुए अकबर ने अपनी राजधानी आगरा बनाई। उसके बेटे जहांगीर और पोते शाहजहां के समय भी आगरा ही शासन का केंद्र रहा। शाहजहां खासतौर पर शानदार इमारतें बनवाने के लिए मशहूर था। आगरा में ताजमहल जैसी बेमिसाल इमारत की वजह से वो इतिहास में अमर है। लेकिन आगरा उसकी ख्वाहिशों के लिहाज से छोटा पड़ रहा था।
शाहजहां ने दिल्ली का रुख किया और यमुना किनारे शाहजहांनाबाद की नींव रखी जो दिल्ली का सातवां शहर कहा जाता है। शाहजहांनाबाद का लाल किला दस साल में बनकर तैयार हुआ। वहां का दीवाने आम, दीवाने खास और बाग-बगीचे मुगलों की शान का डंका बजाते थे। शाहजहां के बैठने के लिए एक तख्तेताऊस यानी मयूर सिंहासन बना जिसमें 46 लाख रुपये के जवाहरात लगे थे। जामा मस्जिद की खूबसूरती, 5000 संगतराशों की छह साल तक की गई मेहनत का नतीजा है। चांदनी चौक जैसे बाजार हों, या बस्तियां, इस शहर में वो सबकुछ था जिसके बारे में सिर्फ कल्पना की जा सकती थी।
शाहजहां का बेटा औरंगजेब यूं तो काबिल शासक साबित हुआ, लेकिन उसके दौर में ही मुगल साम्राज्य अपने बोझ से चरमराने लगा था। 1707 में उसकी मौत के बाद तख्त पर बैठने वाले दिल्ली की शान को बरकरार नहीं रख पाए। सिर्फ 32 साल बाद ईरान के शासक नादिरशाह ने दिल्ली की शान को खून में डुबो दिया। 1739 में बादशाह मुहम्मदशाह के वक्त हुए इस हमले में दिल्ली के 30000 नागरिक मारे गए। नादिर शाह अकूत दौलत के साथ तख्त-ए-ताऊस और कोहिनूर हीरा भी अपने साथ ले गया। दिल्ली की हर आंख में आंसू था और हर गली में खून की चादर बिछी थी।
नादिरशाह के जाने के बाद दिल्ली और मुगल वंश का नूर उतरने लगा। बादशाह सामंतों के हाथ की कठपुतली साबित होने लगे। इस बीच सियासत में तिजारत का बोलबाला बढ़ रहा था। सात समंदर पार से आए गोरे व्यापारियों की काली नजर अब तक हिंदुस्तान पर बुरी तरह गड़ चुकी थी। वे व्यापार नहीं, खुली लूट चाहते थे।
ये व्यापारी ईस्ट इंडिया कंपनी की शक्ल में हिंदुस्तान में दाखिल हुए थे। 1615 में इंग्लैंड के सम्राट जेम्स प्रथम की ओर से सर टामस रो बतौर राजदूत जहांगीर के दरबार में हाजिर हुआ था। उसने घुटनों के बल बैठकर अंग्रेजी कंपनी को सूरत में फैक्ट्री खोलने की इजाजत मांगी थी। तब उस दरबार में किसी ने कल्पना नहीं की थी कि उसके वंशज, एक दिन जहांगीर के वंशजों को ना सिर्फ घुटनों पर झुकाएंगे बल्कि उनका गला भी काटेंगे।
मुगल वंश की कमजोर पड़ती चमक के बावजूद भारत का पारंपरिक व्यापार कमजोर नहीं पड़ा था। दुनिया के कुल व्यापार में भारत का हिस्सा लगभग 30 फीसदी था। अंग्रेज व्यापारी मौका पाकर इस समृद्धिचक्र को उलटना चाहते थे। लार्ड क्लाइव के षडयंत्रों और विश्वासघात की नीति ने उन्हें कामयाबी दिलाई। उनकी बढ़ती महत्वाकांक्षा को रोकने की पहली गंभीर कोशिश की बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला ने। लेकिन मीर जाफर और सेठ अमीचंद जैसे गद्दारों ने गुपचुप अंग्रेजों का साथ दिया। नतीजा 1757 में प्लासी के मैदान में अंग्रेजी सेना ने नवाब सिराजुद्दौला को हरा दिया।
सिर्फ सात साल बाद यही कहानी बक्सर के मैदान में दोहराई गई। मायूस दिल्ली ने देखा कि बादशाह शाहआलम, अवध के नवाब शुजाउद्दौला और बंगाल के मीर कासिम की संयुक्त सेना बक्सर के मैदान में पराजित हो गई। 1764 की इस लड़ाई ने भारत में अंग्रेजी राज की बुनियाद रख दी। पहले बंगाल का राजकाज उनके हाथ आया और कलकत्ता उनके इरादों की राजधानी बनी। इसके बाद धीरे-धीरे वे देश के तमाम दूसरे इलाकों में भी दखल करते चले गए।
19वीं सदी के आगाज के साथ दिल्ली का तख्त चरमरा गया था। कहावत मशहूर थी-शहंशाह ए आलम, ला दिल्ली अज पालम..यानी शंहशाह की हद दिल्ली के लालकिले से लेकर पालम गांव तक सिमट गई है। 1803 में अंग्रेजों ने दिल्ली को भी दखल कर लिया। 28 सितंबर 1837 को बादशाह अकबरशाह की मौत के बाद उनके बेटे बहादुर शाह जफर को बादशाह बनाया गया। लेकिन इस बादशाहत का असर लाल किले की दीवारों के अंदर तक ही था। दिल्ली पर अंग्रेज रेजीडेंट की हुकूमत चलती थी और बादशाह अपने खर्च के लिए कंपनी का मोहताज था। बहादुर शाह जफर आला दर्जे के शायर थे और उनकी कलम से उनका ही नहीं, जमाने का दर्द टपकता था। वे मुगल वंश और हिंदुस्तान की किस्मत पर जो कुछ लिख रहे थे उसे सुनकर किले के लाल पत्थरों पर आंसुओं की लकीर पड़ जाती थी।
बहरहाल दिल्ली शहर के रंग-ढंग में पुरानी आब बाकी थी। बाजारों में चमक बरकरार थी और जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर जिंदगी के मेले अब भी लगते थे। गालिब जैसे महान शायर दिल्ली की गहराई और ऊंचाई की नई पहचान बनकर उभरे थे। लेकिन 1857 की गर्मियां ऐसा अंधड़ लाईं कि अंग्रेजी राज कांप उठा। पहले स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बज उठा। यूं तो ये कुछ राजे-रजवाड़ों का विद्रोह लगता था, लेकिन इसमें बड़ी तादाद में आम लोग, किसान, मजदूर, दस्तकार शामिल थे। हिंदू-मुस्लिम का फर्क मिट गया था। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई हों, या बिठूर में बैठे नानासाहब पेशवा या फिर अवध की बेगम हजरत महल सबने दिल्ली के बादशाह का परचम उठा लिया था। रोटी और कमल को प्रतीक बनाकर चुपचाप जो तैयारियां चल रही थीं, उसे यूं तो मई में रंग दिखाना था। लेकिन चर्बी वाले कारतूस के मुद्दे पर बंगाल के बैरकपुर में सिपाही मंगल पांडेय ने अप्रैल में ही विद्रोह की चिंगारी भड़का दी। ये चिंगारी शोला बनकर जल्दी ही मेरठ जा पहुंची। हिंदुस्तानी सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और हर तरफ से दिल्ली की ओर कूच कर दिया। वे बहादुरशाह जफर जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे।
शुरुआती हिचक के बाद बहादुरशाह जफर ने विद्रोह की कमान अपने हाथ में ले ली। वे हिंदुस्तान की आजादी का चेहरा बन गए थे। उनकी कलम से अब बारूद निकल रही थी। उन्होंने लिखा-गाजियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की, तख्ते लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की।
1857 की क्रांति ने अंग्रेजों की रूह कंपा दी। लेकिन अफसोस, पटियाला, कश्मीर, जींद, नाभा और ग्वालियर जैसी रियासतों की सैनिक मदद से अंग्रेजों ने इसका दमन कर दिया। बहादुर शाह जफर को हुमायूं के मकबरे से गिरफ्तार कर लिया गया। उनके दो बेटों का कत्ल कर दिया गया और उनके कटे सिर तोहफे बतौर उन्हें पेश किए गए। इस दौरान दिल्ली में अंग्रेजों ने जैसी कत्लोगारत मचाई, उसने नादिरशाही जुल्म को फीका कर दिया। लाल किले के अंदर की तमाम इमारतों और आसपास की बस्तियों को जमींदोज कर दिया गया। उस समय दिल्ली की आबादी लगभग डेढ़ लाख थी। इस आबादी ने हर जुल्म सहा, लेकिन गली-गली अंग्रेजों से मोर्चा लिया।
मशहूर शायर मिर्जा गालिब, इस कहर के भुक्तभोगी थी। बल्लीमारान की जिस गली में गालिब रहते थे, तबाही उसके मुहाने पर खड़ी थी। उन्होंने दिल्ली की तबाही का मंजर एक खत में कुछ यूं बयान किया-मेरा हाल खुदा और मेरे अलावा कोई नहीं जानता है। कहने को तो हर कोई ऐसा कह सकता है, लेकिन मैं अली को गवाह मानते हुए कह सकता हूं कि मरने वालों के दुख और जिंदा बचे लोगों के बिछोह में मुझे पूरी दुनिया अंधेरी नजर आ रही है। जो दौलतमंद और खाते-पीते लोग थे, उनके बीवी-बच्चे भीख मांगते फिरें और मैं देखूं, इस मुसीबत की ताब लाने का जिगर चाहिए। हाय इतने यार मरे कि जो अब मैं मरूंगा तो रोने वाला कोई भी न होगा।
मिर्जा गालिब दिल्ली के हाल से बुरी तरह टूट गए थे। इसके बाद वो करीब 12 बरस जिंदा रहे, लेकिन उनकी कांपती कलम कभी-कभार ही कुछ कह पाई। फिर भी जो लिखा, उसमें दिल्ली और उसके जरिये पूरे हिंदुस्तान का दर्द शामिल था। 1857 ने बता दिया कि देश की अवाम के दिल में दिल्ली के बादशाह की क्या जगह है। लिहाजा बहादुरशाह जफर और उनकी बेगम जीनत महल को रंगून भेज दिया गया। 7 नवंबर 1862 को उनकी मौत के बाद उन्हें वहीं दफना दिया गया। कितना है बदनसीब जफर दफ्न के लिए दो गज जमीन भी ना मिली कूए यार में।
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