बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

Janjwar/ जनज्वार...........अजय प्रकाश



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कोका कोला विवादों के 125 साल



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शीतल पेयों को पहली सामाजिक चुनौती भारत में उस समय मिली जब योगगुरु बाबा रामदेव ने सार्वजनिक मंचों से लगातार कहा 'कोका-कोला मतलब ट्यावलेट क्लिनर।’ यह पहला मौका था जब आम भारतीय जनमानस के एक हिस्से को कोका-कोलाकी गंदगी का एहसास हुआ...
कोका कोला स्थापना के 125 साल पूरे हुए हैं और भारत में उसकी कार्यप्रणाली लगातार सवालों के घेरे में है
अजय प्रकाश
कुछ वर्ष पहले दिल्ली के प्रेस क्लब में कोका-कोला शीतल पेय कंपनी ने अपने खिलाफ बन रहे माहौल को ठंडाने के लिए एक प्रेस वार्ता आयोजित की थी। इस आयोजन में कंपनी अधिकारियों के अलावा कुछ विशेषज्ञ बैठे थे, जिनके बारे में अधिकारियों ने दावा किया कि इन महानुभावों को कोका-कोला में मिलाये जाने वाले पदार्थ की तकनीकी और वृहद जानकारी है। आप इनसे कंपनी के पेय पदार्थों के सच को समझ सकते हैं। coca-cola
इसी दौरान कंपनी के एक अधिकारी ने जोशीले अंदाज में कहा, ‘ हमारे जो भी उत्पाद हैं, उसे आप किसी भी उम्र के बच्चों से लेकर बूढों तक को निश्चिन्त होकर पिला सकते हैं, अब फिर एक बार साबित हो चुका है कि कोका सुरक्षित है।’ तब एक पत्रकार ने पूछा, क्या आप अपने बच्चों को कोका-कोला पिलाते हैं और जन्म के कितने महीने बाद से?


इस सवाल के जवाब को लेकर जिस किंतु-परंतु में उन अधिकारियों ने जवाब देना शुरू किया, उसका सीधा जवाब अब नहीं है और 200 देशों में 500 ब्रांडों के जरिये अपने उत्पाद बेचने वाली यह शीतल पेय कंपनी लगातार और लगातार विवादों में फंसती रहती है।


रिश्तेदारों की आवभगत, दोस्तों के मेलजोल, बच्चों के नाराज होते ही या प्रेमिका के साथ दो पल ठंडी आहें भरने के वक्त सबका रास्ता बालीवुड अभिनेता आमिर खान द्वारा प्रचारित किये जाने वाले 'ठंडा मतलब कोका-कोला' से ही होकर जाता है। मेट्रो शहरों से लेकर छोटे शहरों तक, कस्बों से लेकर उन गाँवों तक जहां दिन में एक बार मुश्किल से बस जाती है, सड़कों का कोई ठिकाना नहीं, उन सुदूर क्षेत्रों में पहुंच रखने वाले इस कोकप्रिय शीतल पेय कंपनी को पहला धक्का तब लगा जब देश के 10 बडे शीतल पेय ब्रांडों में कीटनाशक मिलाये जाने की बात सामने आयी थी।


उसके बाद से कोका-कोला और पेप्सी की जो बिक्री गिरी, वह फिर कभी चढ नहीं पायी। हालांकि कंपनी का दावा है कि वह प्रतिदिन 1.4 बिलियन बोतल बाजार में उतारती है और 2010 में उसे 11.809 बिलियन डॉलर का शुद्ध मुनाफा हुआ, जो कई देशों की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) से ज्यादा है।


करीब 1 लाख 40 हजार कर्मचारियों वाली इस कंपनी के उत्पादों के बारे में अगस्त 2003 में दिल्ली स्थित सेंटर फॅर सांइस एंड इनवायरमेंट (सीएसइ) ने दावा किया था कि भारत में 10 कोल्ड ड्रिंक ब्रांड ऐसे हैं, जिनमें चार कीटनाशकों -डीडीटी, मैलाथियान, लिंडेन और क्लोफीरिफ़ोज का इस्तेमाल किया जाता है। सीएसइ के पोल्यूशन मॉनिटरिंग लेबोरेटरी द्वारा की गयी जांच में कीटनाशकों का इस्तेमाल करने वालों में बहुराष्ट्रीय कंपनी कोका-कोला और पेप्सी का नाम प्रमुखता से उजागर हुआ था, ज्यादातर ब्रांड इन्हीं कंपनियों के उत्पाद थे।


सीएसइ की ओर से जांच में शामिल डॉक्टर एचबी माथुर, सपना जॉनसन तथा अविनाश कुमार की टीम ने सरकार और उप भोक्ताओं के सामने यह भी जानकारी रखी थी कि इन्हीं कंपनियों के अमेरिकी उत्पादों में कीटनाशक नहीं हैं। बाद में दोनों कम्पनियों ने एक संयुक्त प्रेस कांफ्रेंस में इन खुलासों और आरोपों का खंडन किया था।


घर-घर में अपनी पैठ जमा चुके इन शीतल पेयों को पहली सामाजिक चुनौती भारत में उस समय मिली जब योगगुरु बाबा रामदेव ने सार्वजनिक मंचों से लगातार कहा 'कोका-कोला मतलब ट्यावलेट क्लिनर।’ यह पहला मौका था जब आम भारतीय जनमानस के एक हिस्से को कोका-कोलाकी गंदगी का एहसास हुआ।


इससे पहले तक शीतल पेय कंपनियों के खिलाफ चला आन्दोलन स्थानीय स्तर का या फिर कुछ बुद्विजीवियों और भुक्तभोगियों के बीच का ही बना रहा। जिसमें पानी के अतिदोहन के कारण किसानों और पशुओं को होने वाली परेशानी, सरकारी नियमों की अनदेखी तथा पर्यावरणीय हालातों की अवहेलना ही कोक और पेप्सी के खिलाफ मुख्य मुद्दा हुआ करते थे।
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jharna-anurag-singhकोका-कोला ने अपनी स्थापना के 125 साल पूरे किये हैं। इस सफलता के बीच कंपनी पर भारत में अवैध जमीन कब्जाने, भूमि उपयोग बदलने, पानी और पर्यावरण को प्रदूषित करने जैसे कई आरोप लगते रहे हैं। इन आरोपों में कितनी सच्चाई है?
मैं पिछले 7 वर्षों से कोका-कोला को लेकर रिसर्च कर रही हूं। रिसर्च के शुरूआती समय में मुझे लगा कि कंपनी के खिलाफ पूर्वाग्रहित हुए बगैर जानकारी जुटायी जाये और मैंने वही किया। मगर जैसे-जैसे कंपनी के एक प्लांट से दूसरे प्लांट चलती गयी, मैंने पाया कि कंपनी पर किसानों, आंदोलनकारियों और पर्यावरणविदों द्वारा जो आरोप लगाये जा रहे हैं वह सभी सही हैं ।कंपनी एकाधिकार कायम करने के लिए सरकारों को अपने बस में करती है और फिर विरोधियों को हाशिये पर धकेल देती है।


आपातकाल के बाद भारत में यह कंपनी प्रतिबंधित कर दी गयी थी, फिर दुबारा प्रवेश क्यों मिला?
पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को जब कंपनी अपने उत्पाद निर्माण का फार्मूला बताने को तैयार नहीं हुई तो उन्होंने कोका-कोला को भारत से भगा दिया था। उनकी दूसरी शर्त थी कि कंपनी में 51 प्रतिशत शेयर सरकार के होंगे, जिसपर कोका-कोला तैयार नहीं हुआ। लेकिन 90 का दशक आते-आते नयी आर्थिक नीतियों को लागू करने में जुटी सरकार कोयह पाबंदियां पूंजी और मुनाफे की राह में रोड़े लगने लगीं। इस तरह सरकार ने फिर एक बार इनके लिए लाल कालीन बिछा दी और कल्याणकारी राज्य का लबादा उठाकर फेंक दिया।


मगर कोका-कोला का ही विरोध क्यों है, पेप्सी का क्यों नहीं?
कोका-कोला पेप्सी के मुकाबले दोगुने से ज्यादा औकात की कंपनी है। अगर मजबूत दानव के खिलाफ लडा जाये तो कमजोर अपने आप निपट जाता है। केरल के प्लाचिमाडा में कोक कंपनी के खिलाफ 47 मिलियन डॉलर का जुर्माना ग्राम समिति ने लगाया है, मगर उसके हक में कोई आवाज नहीं है।


मगर भारत में कुछ सामाजिक कार्यकर्ता तो कोका-कोला के प्रयासों को ठीक मानते हैं और उससे जुडे हुए हैं?
कोका-कोला के इतिहास को देखें तो उसके लिए यह कोई नयी बात नहीं है। वर्ल्ड वार से लेकर अफगानिस्तान युद्ध तक में भूमिका निभाने वाली यह कंपनी सबसे पहले देश की कला-संस्कृति में पैठ बनाती है और प्रगतिशील तबके को अपने दायरे में करती है।


वह कौन लोग हैं?
संगीतकार प्रसून जोशी, अभिनेता आमिर खान, सामाजिक कार्यकर्ता बंकर रॉय, गीतकार जावेद अख्तर, सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा आदि को अपने में शामिल करने वाली इस कंपनी के लिए किसी देश के हजारों करोड़ के संसाधनों, किसानों और मजदूरों को लूटने का रास्ता आसान हो जाता है, क्योंकि ये सम्मानित लोग कंपनी के लिए आवरण का काम करते हैं और सार्वजनिक मंचों पर इसे पवित्र गाय साबित करते रहते हैं। सवाल है कि एक तरफ आमिर खान पानी बचाने का विज्ञापन करते हैं और दूसरी तरफ 300 मिली के कोका-कोला के लिए बर्बाद किये जा रहे 10 लीटर पानी पर चुप्पी साधे रहते हैं।


आगे चलकर मिलावट का मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर बहस का विषय बना। कोका-कोला प्रबंधन इस चुनौती के खिलाफ अदालत गया, विज्ञापनों का सहारा लिया, सामाजिक हस्तियों को अपने पक्ष में करने की भरसक कोशिश की। बाकायदा कोका-कोला फाउंडेशन की स्थापना कर डाली और मानवाधिकार पर काम करने वाले दिग्गजों जैसे मानवाधिकार आयोग के पूर्व चेयरमैन और न्यायधीश जेएस वर्मा, जावेद अख्तर, शशि थरूर, नरेश तेहरान, रोशन सेठ, मीथु अलूर और बंकर रॉय को शामिल किया। वहीं दिल को छूने वाले विज्ञापन बनाने का जिम्मा प्रगतिशील कहे जाने वाले संगीतकार प्रसून जोशी को थमाया और युवा पीढी के आदर्श बन चुके क्रिकेटरों को ठन्डे की बोतल।


भारत में शीतल पेय बाजार के लग भग नब्बे प्रतिशत हिस्सा पर कब्जेदारी जमायी बैठीं दोनों बहुराष्ट्रीय कंपनियां पेप्सी और कोका-कोला के खिलाफ इस समय जारी आन्दोलन उतना ही पुराना है जितनी इनकी भारतीय बाजार पर कब्जेदारी। थम्सअप, कोक, लिम्का, स्पराईट या फिर कोई और नाम। कोल्ड ड्रिंक हो या पानी जो बाजार में छाये हुए हैं उनमें से ज्यादातर कोक या पेप्सी के उत्पाद हैं।


दस हजार लीटर पानी के बदले सरकार को दस पैसा देने वाली इन कंपनियों के लिए कोल्ड ड्रिंक और पानी बेचने का धंधा कामधेनु साबित हुआ है। सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु ठक्कर कहते हैं, ‘पानी को पानी, या पानी को रंगीन बनाने का यह धंधा इतना चोखा है कि भा ारत में सिर्फ पानी से पानी पैदा करने वाली सोलह सौ लाइसेंसधारक कंपनियां है। इनमें से 95 प्रतिशत भूगर्भीय जल के भरोसे व्यापार करती हैं। जबकि पानी बेचने वाली कंपनियों के पचास प्रतिशत बोरिंग उन क्षेत्रों में हैं, जिन्हें पहले से ही जल दोहन के लिए प्रतिबंधित अधिसूचित क्षेत्र घोषित किया जा चुका है।’


बाजार में एकाधिकार-इजारेदारी और वर्चस्व की आर्थिक परंपरा की वाहक यह कंपनियां आज भारत में लगभग नब्बे का आंकड़ा छू रहीं हैं। इनमें 49 प्लांट अकेले कोका-कोला के हैं। कुछ जगहों पर तो कोक प्रबंधन ने बाकायदा दूसरी कंपनियों को अपने में समेटते हुए उनका सबकुछ खरीद लिया। उत्तर प्रदेश के बनारस जिले से 20 किलोमीटर आगे शेरशाह सूरी मार्ग पर कोका-कोला बॉटलिंग प्लांट मेहदीगंज गांव में बना हुआ है, वह भी इसी परंपरा के तहत भारतीय बिस्कीट कंपनी पार्ले जी से खरीदा गया है।


ग्रामीण रामशरण यादव बताते हैं कि 'प्रतिदिन लग ग दस से बारह लाख लीटर पानी यहां से निकाला जाता है। एक लीटर शीतलपेय बनाने में लग ग 6 से 10 लीटर पानी बर्बाद होता है। प्लांट चल रहा है या नहीं, इसका अंदाजा हमें उस समय होता है जब कुओं का पानी कुछ फिट और नीचे चला जाता है।’
कोका-कोला का एक दूसरा बॉटलिंग प्लांट जयपुर से उत्तर पश्चिम कालाडेरा में है जिसे कोका-कोला ने 1999 में बनाया था। केंद्रीय भूगर्भ जल अधिकारिता विभाग (सीडब्लूजीए) के मानकों के मुताबिक यह क्षेत्र डार्क जोन (पानी का दोहन व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए नहीं) माना गया है। फिर भी कंपनी लगातार लाखों लीटर पानी का हर रोज दोहन कर रही है।


ग्रामीणों के अनुमान के अनुसार गर्मियों में लगभ ग 11 लाख लीटर प्रतिदिन भूगर्भीय जल का दोहन कंपनी करती है। कालाडेरा के किसान नेता सवाई सिंह का सवाल है कि ‘बैंक पंपसेट, कुआं आदि के लिए किसानों को कर्ज नहीं दे रहे हैं क्योंकि यह क्षेत्र डार्क जोन श्रेणी में आता है। वहीं कोका-कोला पर सरकार रोक लगा पाने में अक्षम साबित हो रही है।


इन्हीं तानाशाहीपूर्ण और अदूरदर्शी रवैये का असर रहा कि सिंहाचौर बॉटलिंग प्लांट को बंद करना पड़ा। कंपनी द्वारा किसानों की जमीनों पर अवैध कब्जा और जहरीले पानी का खेतों में रिसाव ने बलिया के सिंहाचौर क्षेत्र में जोरदार विरोध की हवा बहा दी।

कालाडेरा, मेंहदीगंज, हाथरस समेत देश के अन्य हिस्सों में पेप्सी कोला, कोका-कोला के खिलाफ जारी संघर्ष में केरल के आदिवासी बहुल क्षेत्र प्लाचिमाड़ा का संघर्ष मील का पत्थर माना जाता है। केरल के पालक्कड़ जिला का प्लाचिमाड़ा क्षेत्र तमिलनाडू के सीमा से लगता है। यहां के विजयनगर कॉलानी की रहने वाली 55 वर्षीय जुझारू महिला माईलेम्मा के नेतृत्व में चले एक लंबे आंदोलन का परिणाम रहा कि मार्च 2004 में कंपनी ने प्लांट बंद कर दिया।


‘कोका-कोला प्लाचिमाड़ा छोड़ो, देश छोड़ो’ के बैनर तले इस आंदोलन की शुरूआत अप्रैल 2002 में उस समय हुई जब ग्रामीणों को लगा कि क्षेत्र का पानी का स्तर लगातार घट रहा है। उसके बाद से कोका-कोला के खिलाफ पूरी एक मुहिम शुरू हो गयी और आंदोलनकारी यह साबित करने में सफल रहे कि कंपनी ने न सिर्फ आदिवासी किसानों को ठगा है, बल्कि मुनाफे की फिराक में शीतल पेयों में आवश्यकता से अधिक कैडमियम, लेड आदि डाला है, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है।

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