हमारे देश में यह पहली बार नहीं है कि किसी तथाकथित बाबा पर लोगों को गुमराह करके पैसे ऐंठनें का इल्जाम लगा है। मेरे ख्याल से जितने पुराने हमारे विभिन्न धर्म है लगभग उतना ही पुराना धर्म को धंधा बनाकर पैसे या अन्य कीमती वस्तुओं को हड़पने वाले असितत्व में रहे है। निर्मल बाबा बड़ी तेजी से उभरने वाले एक बाबा है जिन्होने कुछ ही समय में सभी नये-पुराने मोक्ष, मुक्ति, छुटकारा दिलाने वाले कृपामयी लोगों को पीछे छोड़ दिया था। यह इतनी जल्दी देश-विदेश में शायद न छा पाते यदि इन्होनें अपनी प्रसिद्धि के लिए मीडिया का सहारा नही लिया होता। सवेरे उठते ही किसी भी अधार्मिक चैनल को आन कीजिए, आप इनके दर्शन प्राप्त कर लेंगे। इनके कृपा देने का तरीका भी एकदम हट के फिल्मों की तरह होते है। किसी के लिए रूपयों का दान, किसी के लिए किसी खास पूजास्थल को जाने का आदेश, काम बन गया तो ठीक नही तो जो नही कर पाये उसी की कमी बता दी।
इसमें कोर्इ शक की गुंजाइश नही रह गर्इ है कि धर्म को एक धंधे के रूप में कर्इ लोगों ने विकसित कर लिया है। जिस प्रकार एक गंभीर बीमारी से पीडि़त व्यक्ति इलाज की हर पद्धति अपना लेता है, ठीक उसी तरह दु:खी और निराश व्यक्ति भी किसी भी तरह के सान्त्वना और रास्ते दिखाने वाले व्यक्ति की शरण में चला जाता है। कभी बच्चों की बलियों के नाम पर या कभी उनके दु:ख हरने के नाम पर, ये लोग जनता की अंध भकित या अति भकित का समुचित दोहन करना जानते है। इस प्रकार के लोगों की पैठ गाँव, कस्बो, मुहल्लों से लेकर चकाचौंध करने वाले शहरों और विदेशों तक में है। संगठित और असंगठित हर रूप में इस प्रकार के लोग आपको मिल जाऐंगे। सवाल यह उठता है कि कैसे और कब से लोगों ने ऊपरवाले का सहारा छोड़ इन नीचे वालों को अपनाना शुरू कर दिया? कब से वे लोग जो पहलें केवल अपने धर्मानुसार पूजास्थलों पर जाकर अपने आराध्य को प्रणाम किया करते थे, आजकल इन बाबाओं को प्रणाम करने लग गये?
यह एकता की अखंडता है, जी हाँ, एकता कुछ लोगों की, जो संगठनात्मक रूप ले लेती है और फिर खेल शुरू होता है चकाचौंध और ग्लैमर रूपी दीपक का जिसमें आम जनता, जिनके कदम-कदम पर दु:ख, तकलीफें बिछी हुर्इ है, पतंगे की तरह खीचती चली आती है। इस खेल में मीडिया, नेताओ, उधोगपतियों और कुबेरपतियों का भी समय-समय पर इस्तेमाल किया जाता है। जहाँ ये कुबेरपति अपने काले धन को धर्म के रास्तें सफेद बना लेते है, वही टीवी पर इन काले धन की महिमा की चकाचौंध से आम आदमी की आँखें भी चौंधिया जाती है।
दु:ख तो इस बात का है कि जहाँ हम 21वी सदी में रहते हुए भी इन चक्करों से निकल नही पाये है, वही कुछ मीडिया के समझदार और जिम्मेदार लोग भी जानबूझकर ऐसे लोगों का महिमामंडन कर न केवल उनके कारोबार को चार चाँद लगवा रहे है, बलिक अपनी उस सामाजिक जिम्मेदारी से भी मुँह मोड़ रहे है जो केवल इंसान के तौर पर ही नहीं बलिक उनके पेशे की भी अनिवार्यता है। केवल वे ही नही बलिक ऐसे समय में उन धर्म का झंडा बुलंद करने वाले लोगों की जबान भी शांत रहती है जो अपने आप को देश और धर्म का एकमात्र हितैषी समझते है। आशा है कि वे भी इन बाबाओ के खिलाफ भी अपना सफार्इ अभियान चलायेगें जो न केवल देश की जनता की आस्था के साथ खेल रहे है बलिक जिस धर्म का वे झंडा उठाये रहते है उस को भी कलंकित कर रहे है।
अन्त में उन बच्चों कों बधार्इयाँ जिन्होनें इस ओर लोगों का ध्यानाकर्षण कराया। हालांकि अब तक बाबाजी पर काफी कृपाऐं बरस चुकी है, लेकिन यही कहा जा सकता है कि -देर आयद दुरूस्त आयद
इसमें कोर्इ शक की गुंजाइश नही रह गर्इ है कि धर्म को एक धंधे के रूप में कर्इ लोगों ने विकसित कर लिया है। जिस प्रकार एक गंभीर बीमारी से पीडि़त व्यक्ति इलाज की हर पद्धति अपना लेता है, ठीक उसी तरह दु:खी और निराश व्यक्ति भी किसी भी तरह के सान्त्वना और रास्ते दिखाने वाले व्यक्ति की शरण में चला जाता है। कभी बच्चों की बलियों के नाम पर या कभी उनके दु:ख हरने के नाम पर, ये लोग जनता की अंध भकित या अति भकित का समुचित दोहन करना जानते है। इस प्रकार के लोगों की पैठ गाँव, कस्बो, मुहल्लों से लेकर चकाचौंध करने वाले शहरों और विदेशों तक में है। संगठित और असंगठित हर रूप में इस प्रकार के लोग आपको मिल जाऐंगे। सवाल यह उठता है कि कैसे और कब से लोगों ने ऊपरवाले का सहारा छोड़ इन नीचे वालों को अपनाना शुरू कर दिया? कब से वे लोग जो पहलें केवल अपने धर्मानुसार पूजास्थलों पर जाकर अपने आराध्य को प्रणाम किया करते थे, आजकल इन बाबाओं को प्रणाम करने लग गये?
यह एकता की अखंडता है, जी हाँ, एकता कुछ लोगों की, जो संगठनात्मक रूप ले लेती है और फिर खेल शुरू होता है चकाचौंध और ग्लैमर रूपी दीपक का जिसमें आम जनता, जिनके कदम-कदम पर दु:ख, तकलीफें बिछी हुर्इ है, पतंगे की तरह खीचती चली आती है। इस खेल में मीडिया, नेताओ, उधोगपतियों और कुबेरपतियों का भी समय-समय पर इस्तेमाल किया जाता है। जहाँ ये कुबेरपति अपने काले धन को धर्म के रास्तें सफेद बना लेते है, वही टीवी पर इन काले धन की महिमा की चकाचौंध से आम आदमी की आँखें भी चौंधिया जाती है।
दु:ख तो इस बात का है कि जहाँ हम 21वी सदी में रहते हुए भी इन चक्करों से निकल नही पाये है, वही कुछ मीडिया के समझदार और जिम्मेदार लोग भी जानबूझकर ऐसे लोगों का महिमामंडन कर न केवल उनके कारोबार को चार चाँद लगवा रहे है, बलिक अपनी उस सामाजिक जिम्मेदारी से भी मुँह मोड़ रहे है जो केवल इंसान के तौर पर ही नहीं बलिक उनके पेशे की भी अनिवार्यता है। केवल वे ही नही बलिक ऐसे समय में उन धर्म का झंडा बुलंद करने वाले लोगों की जबान भी शांत रहती है जो अपने आप को देश और धर्म का एकमात्र हितैषी समझते है। आशा है कि वे भी इन बाबाओ के खिलाफ भी अपना सफार्इ अभियान चलायेगें जो न केवल देश की जनता की आस्था के साथ खेल रहे है बलिक जिस धर्म का वे झंडा उठाये रहते है उस को भी कलंकित कर रहे है।
अन्त में उन बच्चों कों बधार्इयाँ जिन्होनें इस ओर लोगों का ध्यानाकर्षण कराया। हालांकि अब तक बाबाजी पर काफी कृपाऐं बरस चुकी है, लेकिन यही कहा जा सकता है कि -देर आयद दुरूस्त आयद