स्नेहन अर्थात तेल या घी के विभिन्न प्रयोगों की प्राचीन परम्परा के अनेकों प्रमाण मिलते हैं। आयुर्वेद में वर्णित शात्राोक्त विध्यिों के इलावा अनेकों अलिखित पर परम्परा से प्रचलित विध्यिँ भी हैं जो श्रुतिज्ञान के रूप में आज भी सुरक्षित हैं। सामान्य और अति विशिष्ट प्रयोग स्नेहन के अन्तर्गत प्रचलित है। पंच कर्म विध्यिों के अभ्यंग और तैल शिरोधरा एक महत्वपूर्ण अंग है। नस्य, तैल युक्त विरेचन तथा पिच्चू धरण भी आयुर्वेद के सुपरिचित विधन है। इस विद्या अर्थात स्नेहन पर जो अध्ययन, सूचनाएं और अनुभवों के निष्कर्ष हमें प्राप्त हुए, उनमें से कुछ ये हैं :
1.केवल मात्रा गौध्ृत से अंजन करने से आजीवन रतौंधी, कैट्रैक्ट, अंजनहारी, आईफ्रलू आदि रोग नहीं होते तथा ऐनक लगाने की आवश्यकता नहीं पड़ती । अर्थात गौध्ृत के कारण विजातीय पदार्थों का संग्रह नहीं होता और यह घृत संक्रमण रोध्क भी है। पर यहां यह जानना जरूरी है कि गौध्ृत कौनसा या किस गाय का हो और कैसे बना हो । इस पर हम आगे चर्चा करेंगे ।
2.नाक में गौध्ृत नसवार लेने से स्नायुकोष निरन्तर स्वस्थ और सशक्त बने रहते हैं। इतना ही नहीं, आयु के साथ स्नायुकोषों की मृत्यु होने का क्रम भी लगभग बन्द हो जाता है। यानी ब्रेनसैण्ड बनना बन्द होता है। सबसे मूल्यवान और महत्व की बात यह है कि जो अरबों स्नायुकोष आजीवन प्रसुप्त पड़े रहते हैं, वे भी क्रियाशील होने लगते हैं जिसके कारण व्यक्ति भी स्मरण शक्ति तथा प्रसुप्त अतिमानवीय शक्तियां भी क्रियाशील होने लगती हैं। इन प्रभावों का कारण शायद सैरिब्रोसाईट नामक वह पदार्थ है जो विशेष प्रकार की गऊओं के घीदूध में पया जाता है। कैरोटीन व विटामिन ॔ए’ के बारे में भी हम जानते ही हैं ।
3.एक अद्भुत जानकारी यह मिली है कि अध्रंग ;पैरेलेसिज़द्ध रोगियों को गौध्ृत की नसवार देने से कुछ देर में वे रोगी पूर्णतः ठीक हो गए । अध्रंग का आक्रमण होने पर उसी समय गौध्ृत की नसवार दी जानी चाहिए । एक वैद्य का दावा है कि पुराने अध्रंग रोगियों की मालिश विध्विधन से बने गौध्ृत से की गई तो सभी रोगी ठीक हो गए । एक भी रोगी ऐसा नहीं जो ठीक न हुआ हो । हम जानते हैं कि अध्रंग में स्नायुकोष नष्ट हो जाने के कारण अंग विशेष निष्क्रीय हो जाते हैं और आधु्निक विज्ञान के पास ऐसा कोई उपाय नहीं जिससे इन मृत कोषों को पुनः जीवित किया जा सके या नवीन कोष बनाए जा सकें । पर यह कमाल साधण से लगने वाले इस घृत प्रयोग से सम्भव है। योग्य वैद्यों और वैज्ञानिकों द्वारा इस पर विध्वित शोध किए जाने की आवश्यकता है।
विचारणीय और उत्साहजनक बात यह भी है कि अनेकों असाध्य समझे जाने वाले मानसिक रोगों का इलाज गौध्ृत प्रयोग से सम्भव हो सकता है।
4.गौ सम्पदा नामक पत्रिका में ही एक सूचना के अनुसार मैंने असाध्य अम्लपित व पेट दर्द के लिए गौघृत और गाय के दूध का प्रयोग किया । एक ही दिन में लाभ नजर आने लगा । केवल एक मास के प्रयोग से अम्लपित के पुराने रोगी ठीक होते हैं। आधु्निक युग के अनेक रोगों का मूल कारण यह अम्लपित रोग है। आयुर्वेद के विद्वान जानते हैं कि अम्लपित का निवारक घृत है और गौघृत विष निवारक भी है। हम आहार में अनेक प्रकार के विशाक्त रसायन खाने के लिए मजबूर हैं। अतः गौघृत का विध्वित प्रयोग इन विषों से हमारी पर्याप्त रक्षा कर सकता है।
5.अनेकों प्रयोगों से साबित हो चुका है कि घातक और असाध्य रेडियेशन से रक्षा और उसके दुष्प्रभावों को घटाने में गौघृत अत्यन्त प्रभावी है। एक्सरे, अल्ट्रासांऊड, सीटिस्कैन, सोनोग्राफी, कीमोथिरैपी के घातक दुष्प्रभावों के इलावा हम हीटर, गीजर, फ्रिज, हैलोजिन, टयूबों, ट्रान्सफार्मरों, विद्युत मोबाईल टावरों की घातक रेडिएशन प्रभावों के शिकार हर रोज बन रहे हैं। इन अपरिहार्य आपदाओं के विरु( गौघृत का प्रयोग सुरक्षा कवच साबित हो सकता है। विकीर्ण तक के प्रभावों को नष्ट करने में गौघृत सक्ष्म हैं, यह संसार के अनेक वैज्ञानिक सि( कर चुके हैं।
6.सरदर्द के अनेकों रोगियों की चिकित्सा हमनें गौघृत की मालिश पावं के तलवों में करके सफलता प्राप्त की है। पांव के तले में मालिश का प्रभाव सीध मस्तिष्क और शरीर के अन्य अंगों तक पहुंच जाता है। एक्यूप्रैशर के विद्वान जानते हैं कि पांव के तले में हमारे पूरे शरीर के प्रतिबिम्ब केन्द्र हैं जो अत्यन्त संवेदनशाील और शक्तिशाली हैं। प्रत्येक चिकित्सक को यह सरल पर अद्भुत प्रभाव वाला उपाय आजमानापरखना चाहिए। कमाल की बात यह है कि पावं के तले में की मालिश से केवल सरदर्द ही ठीक नहीं हुआ पेट की गैस, जलन, बेचैनी, अपच और हृदय पर पड़ने वाला दबाव व एंजाईना की दर्द भी उल्लेखनीय रूप से कम होती गई । ऐसा एक नहीं अनेकों रोगियों को साथ हुआ। आवश्यकता है कि पांव के तलों के शरीर के विभिन्न अंगों पर पड़ने वाले प्रभावों पर विध्वित शोध व अध्ययन हो । यह जानना भी जरूरी है कि गर्मियों में बूटजुराब पहनने का शरीर पर क्या और कितना दुष्प्रभाव होता है।
7.पकाकर ठण्डा किया तेल कानों में डालने का विधन आयुर्वेद में है और भारत में यह एक प्राचीन परम्परा भी है। आधु्निक चिकित्सक इसका निषेध करते हैं पर हमनें पाया है कि कानों में तेल डालने से सरदर्द, बाल झड़ना, आंखों की रोशनी, स्मरण शक्ति पर बहुत अच्छा और स्पष्ट प्रभाव कुछ दिनों के प्रयोग में ही नजर आ जाता है। कंठ शोथ्।, टांसिल के कुछ रोगी तो बिना दवा के केवल कान में तेल डालने से ठीक हो गए । तेल डालने से मैल सरलता से बाहर आ जाती है। एक रोगिणी की 1012 साल पुरानी कान दर्द मूलिन आयल डालने से 1516 दिन में ठीक हो गई और उसके कान से चने जितना बड़ा कठोर मैल का टुकड़ा स्वयं बाहर आ गया । कान का पर्दा फटा हुआ हो तो तेल डालना उचित नहीं, केवल पिच्चू धरण करना चाहिए। अर्थात पूरे स्नायुतंत्रा को स्वस्थ रखने के लिए कान में तेल और नाक में भी तेल या गौघृत धरण करना अत्यन्त लाभदायक है।
नाक कान के स्नेहन व सर की मालिश से पिच्यूटरी और पीनियल ग्लैंड भी स्वस्थ रहते हैं। हम जानते हैं कि पूरे शरीर और हमारे सभी ग्लैण्डस का नियंत्राण पिच्यूटरी ग्लैंड द्वारा होता है। उसके स्वस्थ होने का अर्थ है कि शरीर की सभी क्रियाएं सुचारू होंगी और शरीर स्वस्थ रहने में सहायता मिलेगी ।
विशेष निष्कर्ष :
श्वास, आहर और एलोपैथिक दवाओं के माध्यम से जो न्यूरोटॉक्सीन हमारे स्नायुतंत्रा में संग्रहित होते हैं और स्नायुकोषों को नष्ट करते हैं उनके उपचार व बचाव की दिशा में कुछ खास काम नहीं हो सकता है। तभी अवसाद, पागलपन, एल्जाईमर, ऑटिज़्म तथा अन्य मानसिक रोग महामारी की तरह ब़ रहे हैं। अमेरिका जैसा शक्तिशाली और विकसित देश ऑटिज़्म तथा अन्य अनेकों मानसिक रोगों का शिकार बनता जा रहा है। इन सब न्यूरोटॉक्सीन व असाध्य मानसिक रोगों से सुरक्षा का सुनिश्चित और शक्तिशाली उपाय व समाधन है स्नेहन । पर इसके लिए जरूरी है कि हमें शु( गौघृत, शु( सरसों का तेल, शु( नारियल, सूरजमुखी, बिनौले, तिल आदि के तेल मिल सकें । इस पर भी अन्त में चर्चा करेंगे ।
8.सूखी खांसी पर भी हमनें सैंकड़ों बार स्नेहन प्रयोग किए । रोचक प्रयोग यह है कि सूखी खांसी वाले को गुदा में शु( सरसों के तेल का पिच्चू धरण करवाया जाता है। हफ्रतों, महीनों पुरानी सूखी खांसी कुछ मिनट या अध्कि से अध्कि एक रात में ठीक हो जाती है। आई फ्रलू में भी यह प्रयोग सफल है। विचारणीय और शोध की बात है कि गुदाचक्र और हमारे कण्ठ व उत्तमांगों का सम्बन्ध किस प्रकार गुदा से है और गुदा का प्रभाव शरीर के अन्य अंगों पर कितना, क्यों और कैसे होता है? योगाचार्यों द्वारा गणेश क्रिया करनेकरवाने का क्या यह अर्थ नहीं कि वे गुदा चक्र के शोध्न का महत्व और शरीर पर इसके प्रभावों के रहस्यों को अच्छी तरह जानते थे। पर आधु्निक चिकित्सा शास्त्रा अनेक अन्य शरीर विज्ञान के रहस्यों की तरह इस बारे में भी अनजान है जबकि भारतीय मनीषी इसके गहन ज्ञाता थे।
विचारणीय यह भी है कि फोम के गद्दों पर बैठने, शौच के बाद पानी के स्थान पर टॉयलेट पेपर के प्रयोग का प्रभाव गुद रोगों, रक्त चाप, स्नायुमानसिक रोगों पर क्या होता होगा? शीतल जल से गुदा को अच्छी तरह धेने के क्याक्या उत्तम प्रभाव होते होंगे? भारतीय परम्परायें अत्यन्त वैज्ञानिक है। अतः शौच के बाद शीतल जल प्रयोग गुदा रोगों व स्नायु रोगों में सम्बन्धें पर गहन शोध की जरूरत है।
विशेष :
निर्गुण्डी तेल और विल्ब तेल की नियमित नसवार से पलित रोग पर वियज पाने का प्रयोग 2 बार हम सफलतापूर्वक कर चूके हैं।
क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि स्नेहन विध्ि के सही प्रयोग से ॔जरा’ पर एक सीमा तक नियन्त्राण सम्भव है। आखिर सारी अति मानवीय शक्तियों का केन्द्र हमारा स्नायुतंत्रा ही तो है। अतः ऊर्जा संचय यानी ब्रह्मचर्य के पालन करने, ऊध्र्वरेतस बनने और स्नेहन जैसे प्रयोगों से एक सीमा तक जरा को जीतने व अनेकों असाध्य रोगों पर विजय पाने का कार्य किया जा सकता है। इस पर भी विध्वित शोध कार्य की जरूरत है।
प्रत्येक विषय की सीमाएं असीमित होती हैं पर हमारी क्षमता और समय की सीमा बंधी हुई है। अतः विषय को विराम देता हुआ कुछ सूचनाएं देना चाहूँगा।
ए1 तथा ए2 गौवंश :
1987 से आजतक हुए शोध बतलाते हैं कि अमेरीकी गऊओं जर्सी, हालिस्टीन, फ्रीजियन, रैड डैनिश आदि की अध्किंश नस्लों में बीटा क्रैसीन ए1 नामक प्रोटीन पाया जाता है जो कैंसर, मधु्मेह, हृदय रोगों तथा अनेक असाध्य मानसिक रोगों का कारण है। इनके दूध में अत्यध्कि मात्रा में मवाद ;पस सैलद्ध पास गए हैं जो कई रोग पैदा करते हैं। इसके विपरित भारतीय गौवंश के दूध में बीटा कैसीन ए2 नामक प्रोटीन पाया गया है जो कैंसर कोषों ;कार्सीनोमा सैलद्ध को नष्ट करता है। सैरिब्रोसाईट, कैरेटीन आदि अन्य अनेक तत्व भी हैं जो शुक्राणुओं को सबल बनाते हैं, पौरूष व प्रजनन शक्तिवध्र्क हैं, बु(िवध्र्क है। अतः स्नेहन में प्रयोग भारतीय गौवंश के घी का होना उचित है। क्रीम से नहीं, मिट्टी के पात्रा में दही जमाकर बनाए मक्खन से बने घी का प्रयोग होना चाहिए।
ब्राजील ने अकारण ही तो 40 लाख से अध्कि भारतीय वंश की गीर, साहिबाल और रैंडसिंधी गऊँए तैयार वहीं कर ली। अमेरिका तेजी से अपने गौवंश को ए1 से ए2 बना रहा है और हम उनके बहकावे में आकर हॉलिस्टिन, जर्सी आदि विशाक्त गौवंश की वृि( कर रहे हैं। हमें अपने हितों की रक्षा अपने विवेक से करनासीखना होगा । विदेशीयों पर आंखें बन्द करके विश्वास करते हमें 200 साल हो गए जिससे हम निरन्तर हानि ही हानि उठा रहे हैं। हमें सम्भलना चाहिए।
विषाक्त तिलहन :
जहां तक तेल की बात है तो चिन्ता की बात यह है कि विदेशी कम्पनियों ने दर्जनों जी एम बीज बाजार में प्रचलित कर दिए हैं, ऐसा अनेक विशेषज्ञों का मानना है। केन्द्र सरकार के एक अध्किरी ने भी इस बात को माना है। सरसों, बाथू, ध्निया, पौदिना, बैंगन, घीया, भिण्डी, मूली, पपीता आदि अनेकों फलसब्जियों के जी एम उत्पाद कम्पनियों द्वारा बाजार में उतार दिये गये हैं इसकी प्रबल आंशका है।
हम 1516 साल से देसी घी और सरसों के तेल कर प्रयोग कर रहे हैं। रिफाईन्ड आयल का प्रयोग लगभग 15 साल से बन्द है। 1011 दिसम्बर को हमनें ड़े लीटर तेल जलाया तो पत्नी का रक्तचाप ब़ गय, मुझे तना व असाद होने लगा। पता नहीं कितना विषैला तेल होगा ।
अतः सही बीजों से खेती के लिए भी सम्भव प्रयास करने होंगे । कैसे होगा? यह हम सबको सोचना होगा । पर होगा जरूर, इस संकल्प पर विश्वास से समाधन होगा ।
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