सोलह दिसम्बर की घटना और उसमें एक किशोर की भूमिका ने भारत के बाल न्याय कानून पर गंभीर प्रश्न खड़े किये हैं। अगर बच्चे अपराध करते हैं और अगर ये अपराध गंभीर हैं तो उन्हें वयस्क अपराधियों की तरह ही दंडित किया जाए।18 साल की उम्र को घटा कर 16 या 14 या 12 साल कर दिया जाये। बाल अपराधियों को भी वयस्क अपराधियों की तरह ही जेलों में बंद किया जाये,फांसी दी जाए, इस तरह की मांगें हो रही हैं और एक राष्ट्रव्यापी बहस जारी है, जिसके केंद्र में है-कानून को बदले जाने की मांग।
जिस तरह से इस पूरे मामले को मीडिया के एक वर्ग ने बेहद उत्तेजक, एकतरफा, अधकचरे और सनसनीखेज तरीके से प्रस्तुत किया है, उससे एक ऐसा माहौल बन गया है, जिसमें हर कोई यह मानकर चल रहा है कि कानून गलत है और इसके बनाने के समय ठीक से विचार नहीं किया गया। भय का वातावरण इस तरह से निर्मिंत किया गया है कि जैसे देश में सारा अपराध, सारे बलात्कार सिर्फ बच्चे ही कर रहे हैं। आपकी जानकारी के लिए बताते चलें की 124 करोड़ की आबादी वाले अपने देश में बाल अपराध नगण्य है। भारत में समूचे अपराध में बाल अपराध महज 1 प्रतिशत के आसपास है जबकि बच्चों की आबादी देश की कुल आबादी का 3 3 प्रतिशत है। जिस तरह की मांगें निकल कर आ रही हैं, अगर उस दिशा में कानून बदला जाता है तो उसके गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं, जिनके बारे में अभी कोई सोच ही नहीं रहा है।
अमेरिका के पश्चाताप से सीखिये
आज जो भारत में हो रहा है वह अमेरिका में घटित हो चुका है। 1990 के आसपास बिल्कुल ऐसा ही माहौल वहां भी बना और उसमें भी मीडिया और प्रबुद्ध वर्ग ने बढ़-चढ़ कर भूमिका निभाई। बाल अपराध की रोकथाम के लिए बने प्रभावी कानूनों की बलि चढ़ा दी गई। कम उम्र के नौजवान जेलों में भरे जाने लगे और उन पर बेहद सख्त कानून लागू कर दिए गये। आज वहां के हालात बद से बदतर हैं। अपराध में फंसे बच्चों को जेलों में ठूंस-ठूंस कर बाल अपराध को रोकने का ये नुस्खा असफल रहा और उस समय की जनता की मांग का खमियाजा पूरे अमेरिका ने भोगा।
आज अमेरिका की जेलें बच्चों और नौजवानों से पटी पड़ी हैं और बाल अपराध थमने का नाम नहीं ले रहा। अब फिर से वहां बच्चों और नौजवानों को जेलों में न भरे जाने की बात चल रही है। भारत का बाल न्याय कानून एक बेहतरीन कानून है, जो बच्चों के हालात, उनकी परेशानियां, उनके अपराध में फंसने की वजहों को बखूबी समझता है और ये बाल अपराध की रोकथाम के सबसे कारगर सिद्धांतों और प्रक्रियाओं को लागू करता है। ये भी बताते चलें की भारत का बाल न्याय कानून पश्चिमी देशों की नक़ल नहीं है। ये विशुद्ध रूप से भारत की जमीन में जन्मा और पनपा कानून है। 163 वर्षो का इतिहास समेटे भारत का बाल न्याय कानून एक प्रगतिशील और मानवीय सोच रखता है और बच्चों को अपराध की अंधेरी गलियों से निकाल कर एक सुंदर और सफल जीवन की ओर ले जाता है।
बच्चों के लिए काम करने वाले वकील के तौर पर मैंने हजारों ऐसे बच्चों के जीवन को देखा है। ये बच्चे कभी मीडिया की नज़र में नहीं आएंगे और न ही बाल न्याय कानून के पक्ष में बोलते दिखाई देंगे। लेकिन ये बाल न्याय कानून की सफलता के प्रमाण हैं, जो आज भीड़ में गुम हैं किंतु अपराध मुक्त जीवन जी रहे हैं। इनमें कई आज वयस्क हैं। कोई वकील बन गया है, कोई इंजीनियर है तो कोई पुलिस और सेना में है। कई खेती कर रहे हैं तो कई कारोबार या नौकरी। बाल न्याय कानून न होता तो इनमें से कई अपने जीवन के शुरु आती दिनों में हुई गलतियों और हालातों के चलते जेल की काल कोठरी में सड़ रहे होते और अपराधी का जीवन जीने को अभिशप्त होते। बाल न्याय कानून के चलते लाखों लोग समाज की मुख्य धारा में लौटे हैं।
कानून ने सुधारे हजारों बच्चों
एक नक्सल पीड़ित राज्य की कुछ बच्चियों का एक मामला मुझे याद आता है। आज वह बच्चियां पुलिस में काम करती हैं। उन्हें नक्सल गतिविधियों में शामिल होने की वजह से पकड़ा गया था और उस वक्त भी मीडिया के एक वर्ग ने उन्हें खतरनाक आतंकी कहते हुए वयस्कों जैसी सख्त सजा की मुखालफत की थी। आज वह बाल कानून के चलते नक्सलवाद के चंगुल से बाहर है और पुलिस में भर्ती होकर देश और समाज की सेवा कर रही है। एक 1 7 साल का नवयुवक जिस पर उत्तर प्रदेश पुलिस ने खतरनाक गैंगस्टर होने का मुक़दमा दर्ज किया हुआ है, असल में भगत सिंह और विवेकानंद का साहित्य पढ़ता है और एक विलक्षण रंगकार है। उसका पूरा परिवार संभ्रांत है, पिता एक पारंगत चित्रकार हैं और भाई खुद रंगकर्मी है। बाल कानून न होता तो ये बच्चा और उसका सौम्य कलाकार जेल की सलाखों के पीछे चीत्कार कर रहा होता। एक और बच्चा जिस पर दहेज़ हत्या का मुक़दमा दर्ज है जबकि वह मात्र 15 वर्ष का था और गलती सिर्फ इतनी कि वह घटना के वक्त घर में मौजूद था। बाल न्याय कानून न होता तो वह आज जेल में होता। कानून के चलते वह आज एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम कर रहा है। एक और बच्चा जो जब मेरे पास लाया गया था , नशे की हालत में था और मुझे गालियां और धमकी दे रहा था; आज नशे के शिकार बच्चों के पुनर्वास पर काम करता है। एक और बच्चा, जो दाऊद इब्राहिम बनने का सपना देखता था और मुझे उसका वकील होने के बावजूद उसकी जमानत न होने देने के लिए गलियां देता था, आज देवी जागरण में ढोल बजाने का काम करता है। ऐसे अनिगनत प्रसंग समाज में बिखरे हुए हैं।
मीडिया को संयम और जिम्मेदारी के साथ इस विषय के उजले पक्ष को भी जनता के सामने रखना चाहिए ताकि पूरे मामले पर परिपक्व और सही राय बन सके। आज भारत के बाल न्याय कानून को मिटाने पर तुले मीडिया और प्रबुद्ध वर्ग की चली तो जल्दी ही हम वह दिन देखेंगे जब हमारे अपने घरों के नौजवान और बच्चे अपनी एक गलती के चलते जेल जाएंगे। अपनी गलती को समझने और सुधरने का एक मौका जो सिर्फ 18 साल का होने तक मिलता है, नहीं मिलेगा।
आज घर-घर में बच्चे जरूरत से पहले वह कर रहे हैं, जो उन्हें नहीं करना चाहिए। प्यार के चक्कर में घर से भागना, शारीरिक सम्बन्ध बनाना, नशा करना, तमंचा-बंदूक रखना, ये सब आज लगभग हर घर में हो रहा है और अभिभावक जमीन- आसमान के प्रयास कर रहे हैं कि उनके बच्चे सुधर जाएं। बाल न्याय कानून इस तरह के हालातों में हमारा साथ देता है और हमें मौका देता है कि हम अपने बच्चों का जीवन तबाह होने से बचा सकें। जरूरत इस बात की है कि हम इस कानून को और प्रभावी तरीके से लागू करें, न कि इस कानून को उखाड़ फेंकने की मुहिम में शामिल हों।
बाल क़ानून में संशोधन की बात करने वाले भी बच्चों के हितैषी ही हैं ! सज़ा अपराध की गुरुता या लघुता को देख कर दी जाती है ! हर अपराधी बच्चे के लिये ना तो फाँसी की सिफारिश की जाती है ना ही उसे जेल में ठूंसा जाता है ! क़ानून लचीला हो और बच निकालने की संभावनाएं भी हों तो ऐसा क़ानून विकृत मानसिकता वाले बच्चों को दुस्साहसी बना देता है ! ऐसे अपराधी और बचाव ले लिये उनकी पैरवी करने वाले वकील भी क़ानून को खिलौना बना देते हैं और अपराधी को और निडर और निरंकुश !
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