गुरुवार, 27 अक्टूबर 2016

सेक्स अश्लील नहीं जीवन में टॉनिक समान है






मेरे जीवन के कुछ और इडियट्स-6


केवल किताबी ज्ञान से बनी सेक्स की प्रकांड़ ज्ञाता  


अनामी शरण बबल


तेरे साथ मैं हूं कदम कदम, मैं सुकूने दिल हूं, करार हूं
तेरी जिंदगी का चिराग हूं , तेरी जिंदगी की बहार हूं

अहमदाबाद से लेकर अमरीका तक कभी अपनी कविता गजल शेरो शायरी से  कभी मुशायरे की जान बन जाने वाली तो अमरीका में जाकर हिन्दी सीखाने के लिए हिन्दी सिनेमा के गानों को अपना माध्यम बनाकर अमरीकी भारतीय समाज में सालों तक बेहद लोकप्रिय रही डा. अंजना संधीर एक मल्टी टैंलेंट विमेन का नाम है ।  गैर हिन्दी भाषी राज्य गुजरात से होने के कारण हिन्दी गजल शायरी से ये एक जिंदादिल रोचक मोहक और यादगार महिला की तरह समाज में काफी लोकप्रिय है। अलबत्ता शान शऔकत और शोहरत्त के बावजूद काफी सामान्य तथा खासकर मेरके साथ इनका घरेलू बहनापा सा नाता है। जिसके तलते मैं इनकी शोहरत की परवाह किए बिना एक अधिकार के साथ जोर जबरन तक अपनी बात मनवा लेता हूं। माफ करना अंजना दी मैं तुम्हारे नाम के आगे अब डा. नहीं लिख रहा हूं । 56 साल की अंजना संधीर के साथ मेरा नाता भी एकदम अजीब है। हमदोनों 1983 यानी 33 साल से एक दूसरो के जानकार होकर पारिवारिक परिचय के अटूट धागे में बंधे है। मेरे घर के सारे लोग इनको बहुत अच्छी तरह से जानते भी है।

हम भले ही केवल एक बारही मिले पर फोन और जरूरत पड़ने पर उनके ज्ञान और संपर्को से घर बैठे बहुत सारी जानकारी भी हासिल किए। यह मैं भी मानता हूं कि अंजना से मेरा संबंध हमेळा कई रास्तों को जोड़ने वाली पुल की तरह दिखता रहा है।
मेरी अंजना संधीर से पहली आखिरी या इकलौती मुलाकात दिल्ली क्नॉट प्लेस के पास बंगला साहिब रोड के फ्लैट  एस- 91 में 1991 में हुई थी। यहां पर मैं दो सबसे घनिष्ठ दोस्त पार्थिव कुमार और परमानंद आर्या के साथ रहता था। इस मुलाकात के 25 साल हो जाने के बाद फिर दोबारा मिलना संभव नहीं हो पाया। अहमदाबाद जाने का मुझे  कोई चार पांच मौके मिले , मगर उन दिनो वे अमरीका में शादी कर बाल बच्चों के साथ हिन्दी की मस्ती में मस्त थी। और जब वापस अहमदाबाद लौटी तो फिर मेरा जाना नहीं हो पा रहा है। यानी एक मुलाकात के बाद दोबारा कोई संयोग ही नहीं बना ।

यहां पर भी एक रोचक प्रसंग है कि मेरे दो छोटे भाई  उनदिनों अहमदाबाद में ही रहता था। (एक भाई तो आज भी अहमदाबाद में ही है) मेरे और भी कई भाई और रिश्तेदार अभी गुजरात और अहमदाबाद में भी है। पर मेरा संयोग फिलहाल नहीं बन रहा है। मेरे भाई लोग किसी मुशायरा को सुनने गए, तो अंजना संधीर के नाम सुनते ही मेरे भाईयों ने जाकर अपना परिचय दिया। मेरे भाईयों का घरेलू नाम टीटू और संत को तो अंजना भी जानती थी। भरपूर स्वागत करती हुई अंजना ने माईक से पूरे जन समुदाय को बताया कि बिहार में मेरा एक दोस्त भाई है अनामी शरण बबल जिसे मैं कब मिली हूं यह याद भी अब नहीं पर आज अनामी के दो छोटे और मेरे प्यारे भाई यहां पर आए हैं जिनका स्वागत करती हुई मै इनसे गाना गाने का आग्रह भी करती हूं। ना नुकूर के बाद गायन में एक्सपर्ट मेरे भाईयों ने दो गाना सुनाकर महफिल की शोभा में दो एक चांद लगा दिया।

केवल मेरा नाम लेकर भी मेरे करीब पांच सात दोस्तों ने भी अंजना से मुलाकात की और सबके अपने रिश्ते चल भी रहे है। मैं इन बातों को इतना इसलिए घसीट रहा हूं ताकि 30-32 साल पुराने संबंधों की गरमी महसूस की जाए। मगर जब वो एक यौन विशेषज्ञ के रूप में मेरे सामने एक नये चेहरे नयी पहचान और नयी दादागिरी के साथ 1991 में मात्र 31 साल की उम्र में एक अविवाहित सेक्स स्पेशलिस्ट की तरह मिलने जा रही हों तब किसी भी पत्रकार के लिए शर्म हय्या संकोच का कोई मायने नहीं रह जाता। यौन एक्सपर्ट की नयी पहचान मेरे को थोड़ी खटक रही थी, यह एक संवेदनशील प्रसंग है जिस पर बातूनी जंग नही की जा सकती।  मेरे मन में भी इस सवाल के साथ दर्जनों सवाल रेडीमेड माल की तरह तैयार थे। दोपहर के बाद अंजना संधीर जब बंग्ला साहिब गुरूद्वारा रोड वाले फ्लैट मे आई। उस समय मेरे दोनों दोस्त मौजूद थे, मगर बातचीत में कोई खलल ना हो इस कारण हमारे प्यारे दोनों दोस्त पास के रीगल या रिवोली सिनेमाघर में पिक्चर देखने निकल गए। ताकि बात में कोई बाधा न हो।

कंडोम को लेकर नागरिकों की प्रतिक्रिया पर डा. अंजना संधीर ने जब लिंटास कंपनी के लिए एड को जब अपनी रिपोर्ट दी। तो जैसा कि उन्होने बताया कि वैज्ञानिक और सामाजिक आधार यौन संबदऔक कंडोम की भूमिका जरूरतऔर सामाजिक चेतना पर इनकी रिपोर्ट से एड कंपनी वाले बहुत प्रभावित हुए और एक विशेष प्रशिक्षम के बाद इनको अपना सेक्स कंसलटेंट के तौर पर अपने साथ जोड़ लिया। सर्वेक्षण रिपोर्ट के आधार महिलाओं की रूचि लालसा जिज्ञासा पसंद नापसंद चाहत मांग इच्छा आदि नाना प्रकार की मानसिक दुविधाओं पर इनके काम को  पसंद किया गया और इस शोध को बड़े फलक पर काफी प्रचारित करके मेडिकल शोध की स्वीकृति को वैधानिक मान्यता दी गयी। यानी यौन जीवन के बगैर ही यौन की मानसिकता पर पर डा. अंजना संधीर की ख्याति में इजाफा हुआ।

रसोई ज्ञान के रूप में केवल चाय कॉफी तक ही मैं ज्ञानी था। बातचीत की गरमी के बीच मैं चाय और अल्प खानपान के साथ अंजना जी के प्रवचन को लगातार कायम बनाए रखने के लिए एक ही साथ टू इन वन जैसा काम करता रहा। सेक्स को लेकर एक पुरूष, की उत्कंठा जिज्ञासा मनोभाव से लेकर मानसिक प्रतिबंध और शरम बेशर खुलेपन झिझक की सामाजिक धारणा पर भी मैं प्रहार करता रहा। वे निसंकोच एक बेहद बोल्ड लड़की ( उस समय अविवाहित अंजना जी की उम्र केवल 31 साल) की थी। मैने उनके ज्ञान पर बार बार संदेह जताया और बगैर किसी प्रैक्टिकल के सेक्स पर इतना सारा या यों कहे कि बहुत सारा साधिकार बोलना मुझे लगातार खटका। इसके बावजूद वे तमाम भारतीय यानी करोड़ो विवाहित महिलाओं की सेक्स जिज्ञासा अनाड़ीपन और झिझक शर्म पर भी निंदात्मक वार करती रही।
सेक्स विद्वान बनने की प्रक्रिया के अनुभव पर ड़ा. अंजना ने कहा कि यह एक बेहद अपमानजनक अनुभव सा रहा। बहुत सारी लड़की दोस्तों ने तो साथ छोड़ दी,तो कई लड़कियों के मां पिता ने तो अंजना को अपने घर से निकाल बाहर कर दिया। जिससे इनका मन और दृढ हुआ और लगा कि अब तो सेक्स पर एक गंभीर काम कर लेना ही इसका सर्वोत्तम जवाब होगा। अंजना ने कहा कि सेक्स को लेकर आज भी भारतीय महिलाओं से बात करना सरल नहीं है। भाग्य को मानकर अधिकांश महिलाएं सबकुछ शांति के साथ सहन कर लेती है। सेक्स को लेकर भारतीय महिलाएं शांत निराशावादी होती है जबकि भारतीय पुरूष शक्की आक्रामक  और सेक्स में स्वार्थी होता है। सेक्स सर्वेक्षण के बारे में इनका कहना है कि लंबे विवाहित जीवन के बाद भी 60 फीसदी महिलाएं संभोग में संतुष्टि या चरम सुख के दौर से कम या कभी नहीं गुजरी है। ज्यादातर महिलाओं का सेक्स ज्ञान भी लगभग ना के समान ही होता है जबकि पुरूष केवल अपनी संतुष्टि के लिए ही इसमें लिप्त होता है।  

सेक्स को जीवन और समाज में किस तरह देखा जाना चाहिए इसपर अंजना का मंतव्य है कि हमारे धर्म शास्त्रों में भी धर्म अर्थ काम मोक्ष में काम को स्थान दिया गया है। सामाजिक संरचना और वंशपरम्परा की वृद्धि में केवल सेक्स ही मूल  आधार है। शादी विवाह की अवधारणा भी सेक्स से समाहित है। इसे सामान्य और स्वस्थ्य नजर से देखा जाना चाहिए । मगर सेक्स को लेकर आज भी समाज में हौव्वा है। बगैर सेक्स मानव जीवन रसहीन नीरस चिंताओं कुंठाओं और तनावों से भरा है। सेक्स को अंधेरे बंद कमरे से बाहर निकालकर चर्चा संगोष्ठी और सामाजिक बहस का मुद्दा बनाना होगा तभी सेक्स को लेकर भारतीय समाज का नजरिया बदलेगा। भारत में सेक्स शिक्षा की जरूरत पर भी जोर देती हुई अंजना संधीर का मानना है कि ज्ञान के अभाव में लड़कियों को सेक्स का कोई वैज्ञानिक आधार ही नहीं मालूम है। एक कन्या तन परिपक्व होने से पहले नाना प्रकार के दौर से गुजरती है ,मगर खासकर ग्रामीण भारत में तो माहवारी की सही अवधारणा तक का ज्ञान नहीं है। कंड़ोम की जानकारी पर हंसती हुई डा. अंजना कहती है कि ग्रामीण भारत के पुरूषों में भी सेक्स का मतलब केवल शरीर का मिलन माना जाता है। कंडोम के बारे में इनका कहना है कि गांव देहात में सरकारी वाहन से कभी परिवार नियोजन के प्रचार में लगे स्वास्थ्यकर्मी कंडोम के प्रयोग विधि की जानकारी देते हुए कंडोम को हाथ के अंगूली में लगाकर लगाने की विधि को दिखाकर इस्तेमाल करने की सलाह देते है, मगर मजे कि बात तो यह है कि ज्यादातर पुरूष कंडोम को अपने लिंग में लगाने की बजाय संभोग के दौरान भी कंडोंम को अपनी अंगूली में लगाकर ही अपने पार्टनर के साथ जुड़ते है। और यह मामला भी तब खुला जब कंडोम के उपयोग के बाद भी महिलाओं का गर्भ ठहर गया और पूछे जाने पर ग्रामीण भारत के अबोध लोग यह जानकारी देते। गरीब अशिक्षित ग्रामीण भारत के अबोधपन को यह शर्मसार करती है तो ज्ञान के अभाव को भी दर्शाती है।
 भारतीय समाज में सेक्स को लेकर आज भी कुंठित नजरिया है। हस्तमैथुन को लेकर भी समाज में नाना प्रकाऱेण गलत धारणाएं है। डा. संधीर के अनुसार लगभग 100 प्रतिशत लड़के अपनी युवावस्था में किसी न किसी तरह इससे ग्रसित होते है। केवल पांच प्रतिशत लड़के इससे मना करते हैं और मेरी मान्यता है कि वे सारे झूठ बोलते है। एकदम एकखास उम्र में इससे युवा संलग्न होते ही है। और झूठ बोलना उनकी नैतिकता का तकाजा है। डा. संधीर के अनुसार लड़कियों के साथ भी यही हिसाब है और उनका व्यावहारिक समानते का समीकरण भी समान है।
पाश्चात्य देशो के बाबत पूछे जाने पर इनका मानना है कि वहां पर भी लोग अब सेक्स को लेकर अपनी धारणा भारतीयों की तरह संकीर्ण कर रहे है। सेक्स को लेकर खुलेपन और मल्टी रिलेशन को लेकर भी कोई खराबी नहीं माना जाता , मगर अब रोग और अपने आप को सेफ रखने के लिए ही सही वे सेक्स को लेकर अपने साथी पर साथ के अनुसार ही अब विचार करती हैं।  संधीर का मत है कि सेक्स जीवन समाज और सामाजिक नैतिकता का सबसे सरस प्रसंग है। इसको दबाने का ही यह गलत परिणाम है कि तमम रिश्तों को सेक्स से जोड दिया गया है। आज के जमाने में ज्यादातर मर्द 45-50 की उम्र पार करते करते सेक्स की  कई मानसिक बीमारी और भ्रांतियों से ग्रसित हो जाते है। अपनी इस  उम्र के अनुसार होने वाली कमी का इलाज कराने की बजाय इसको छिपाते है। मानसिक तौर पर बीमार समाज की गंदी सोच और सड़क छाप अनपढ़ नीम हकीमों ने यौनरोग को इस तरह आक्रांत कर दिया है कि लोग इसका इलाज कराने की बजाय शक्ति वर्द्धक गोलियों से राहत की तलाश करते है। जिससे बना बनाया खेल और बिगड़ जाता है।  पावर गोलियों की शरण में जाकर मरीज इसके जाल से मुक्त नहीं होता और पावरलेस होकर कुंठित हो जाता है। समाज को नीम हकीमी डाक्टरों से सेक्स रोग को मुक्त कराने की जरूरत है तभी सेक्स को लेकर नागरिक सहज सरल और निर्भय होकर अपनी बात सामूहिक चर्चा में करके एक बेहतर इलाज पर एकमत हो सकता है।

उन्मुक्त यौनाचार की नजर में सेक्स को देखे तो जीवन में चरित्र का कोई मायने रहता है ? इच्छा के खिलाफ यौन कर्म एक अपराध है। और जीवन में चरित्र कातो बड़ा महत्व है मगर यह सब पुरूष सत्ता को और प्रबल बनाने की साजिश का हिस्सा है। सेक्स तो मनुष्य को जोडता है। रंग भेद जाति की गहरी छाप समाज में है पर यौन संबंध के समय कोई धर्म कर्म जाति रंग नहीं होता। इसे स्वार्थपूर्ण लाभ का एक नजरिया भी कह सकते हैं, मगर सेक्स की कोई जाति रंग और भेद नहीं होता । यह इसका एक सार्थक पहलू है कि प्यार से समाज में समरसता बढ़ेगी ।

सेक्स पर अंकुश को आप किस तरह देखती है ?

यह भी पुरूष के स्वार्थी पन का उदाहरण है। अपने लिए तो चरित्र का अर्थ कुछ और है और महिलाओं के लिए इनके मायने अलग हो जाते है। यह दबाकर रखने की कुचेष्टा का अंजाम है।
श्लीलता और अश्लीलता को आप किसतरह परिभाषित करेंगी ?

सेक्स अश्लील नहीं होता. यह तो मानव सृजन का मूल आधार है। जीवन की एक सहज जरूरत है। इसे अश्लील कहा और बताया जाता है खजूराहों मंदिर के प्रेमपूर्ण कलाकृतियों को इसीलिए पावन माना जाता है।

प्रेम और संभोग तथा अपनी पत्नी तथा वेश्या के साथ के संबंधों में आप क्या अंतर स्पष्ट करेंगी ?

प्रेम की चरम अभिव्यक्ति का नाम संभोग है। अपने साथी के प्रति पूर्ण निष्ठा समर्पण और भावनात्मक लगाव की सबसे आत्मीय संवाद का ही नाम प्यार भरा संभोग है या आत्मीय समर्पण ही प्यार भरा संभोग होता है। जबकि वेश्या के साथ तो एक पुरूष केवल अपने तनाव को शिथिल करता है। पुरूष मूलत पोलीगेम्स (विविधता की चाहत) और महिलाएं मोनोगेम्स (एकनिष्ठ)  होती है।
आज विवाहेतर संबंधों में बढ़ोतरी हो रही है? इसकी मानसिकता और यह कौन सी मोनोगेम्स गेम है ?
आज महिलाएं खुद को जानने लगी है और पुरूषों द्वारा जबरन लगाए गए  वर्जनाओं से मुक्ति की चाहत से उबलने लगी है। पुरूषसता के खिलाफ महिलाएं खड़ी हो रही है
प्रतिशोध का यह कौन सा समर्पण तरीका है कि किसी और पुरूष की गोद में जाकर खो जाए ?
सेक्स के प्रति समाज में एक स्वस्थ्य और स्वाभाविक नजरिए के साथ सोचने और विचारने की जरूरत है ।

ओह चलिए आप भारतीय सेक्स नीति रीति दर्शन और पाश्चात्य सेक्स में क्या मूल अंतर पाती है  ?
हमारे यहां सेक्स एक बंद कमरे का सबसे गोपनीय कामकला शास्त्र की तरह देखा और माना जाता है। वेस्ट में सेक्स मौज और आनंद का साधन है। आम भारतीयों में सेक्स को लेकर तनाव रहता है सेक्स से मन घबराता भी है। वेस्ट में सेक्स को लेकर कोई वर्जना नहीं है वे इसको खुलेपन से स्वीकारते हैं मगर भारत में तो इसको सहज से लिया तक नहीं जाता । जीवन में इसकी अनिवार्यता को भी लोग खुलकर लोग नहीं मानते।

क्या यह नहीं लगता कि पाश्चात्य समाज में औरत की भूमिका एक अति कामुक सेक्सी गुड़िया सी है ?

नर नारी की यौन लालसा और संतुष्टि के निजी आजादी को यौन कामुकता का नाम नहीं दे सकते।

हमारे यहां यौन शिक्षा की जरूरत पर बारबार जोर दिया जाता है भारत में इसका क्या प्रारूप होना चाहिए ?

अश्लील विज्ञापनवों की तरह ही हमा
रे यहां यौन की गंदी विकृत और सतही जानकारी ही समाज में फैला है। सेक्स की पूरी जानकारी को परिवार के साथ जोड़ा जाना चाहे तथा विवाह से पूर्व कोई जानकारी भरे आलेख की जरूरत पर विचार होना चाहिए ताकि एकलस्तर पर भी पढकर लोग अपने बुजुर्गो से इस बाबत विमर्श कर सके। बच्चों की जिज्ञासा शांत हो इसके लिए मां पिता की भूमिका जरूरी है। सेक्स की सही सूचना भर से भी यौन अपराध कुंठा हिंसा और गलत धारणाओं से बचाव संभव है।
क्या केवल अक्षर ज्ञान वाली शिक्षा में यौन शिक्षा को जोडने से समाज में और खासकर बड़े हो रहे बच्चों में निरंकुश आचरण का शैक्षणिक लाईसेंस नहीं मिल जाएगा ?
 सेक्स एक बेहद संवेदनशील विषय है और जाहिर है कि इससे कई तरह की आशंकाए भी है । इसको वैज्ञानिक तरीके से लागू करना ही सार्थक और स्वस्थ्य समाज की अवधारणा को बल देगा. तभी कोई सकारात्मक परिणाम मिलेगा

और मान लीजिए कि यदि सेक्स शिक्षा को पढ़ाई में ना जोडा जाए तो क्या समाज में किस तरह का भूचाल आ जाएगा ?
(हंसकर)  तुम अब इस सवाल पर मजाक करने पर आ गए हो।

कमाल है अंजना जी सदियों से अनपढ़ निरक्षर हमारे पूर्वजों ने बगैर शिक्षा ग्रहण किए ही इसकी तमाम संवेदनाओं को समझा जाना और माना , तो अब 21 वी सदी से ठीक पहले इसे कोर्स में  शामिल कराना कहीं बाजार का तो प्रेशर नहीं है लगता कि सेक्स और कामकला को ही सेल किया जाए। ?

नहीं बाजार के प्रेशर से पहले इसको सेहत के साथ जोडकर देखना होगा कि इससे कितना नुकसान होगा।.

 मैं भी तो यहीं तो कह रहा हूं कि बाजार में दवा और औषधि भी आता है. एक भय और हौव्वा को प्रचारित करके अरबों खरबों की दुकानदारी तय की जा रही है और आप इसकी सैद्धांतिक व्याख्या कर रही है ?

नहीं आप काम सेक्स यौन संबंधों को एकदम बाजार की नजर से देख रहे हैं जबकि यह बाजारू नहीं होता।
कमाल है अंजना जी एक तरफ आपका तर्क कुछ और कहता है और दूसरी तरफ आप बाजार विरोधी बातें करने लगती है ?

नहीं तुम इसके मर्म को नहीं समझ रहे हो।  

कमाल है अंजना जी मैं तो केवल इसके मर्म और धर्म की बात कर रहा हूं केवल आप ही तो हिमायती बनकर संसार से तुलना करके भारतीय महिलाओं की अज्ञानता पर चिंतित हो रही है। पर चलिए बहुत सारी बाते या यों कहे कि बकवास कर ली आपको बहुत सारी जानकारी देने के लिए शुक्रिया । और इस तरह 1991 में की गयी यह बात उस जमाने की थी संसार में मेल नेट और गूगल अंकल पैदा नहीं हुए थे। टेलीफोन रखना स्टेटस सिंबल होता था और केवल तीन सेकेण्ड बात करने पर एक रूपया 31 पैसे सरकारी खजाने में लूटाने पड़ते थे। यानी यह इंटरव्यू भी बाबा आदम के जमाने की है जहां पर किसी लड़की को सेक्सी कह देने पर अस्पताल जाने की सौ फउसदी संभावना होती थी। यह अलग बात है कि इन 25 साल में अब इतना बदलाव आ गया है कि जब तक किसी लड़की को कोई लड़का सेक्सी ना कहे तबतक लड़की को भी लगता है कि उसके रंग रूप पर कोई सही कमेंट्स ही नहीं की गयी है ।



  

 

  












शायरा और ते





















































मेरे जीवन के कुछ और इडियट्स-6


टिकैत के साथ ही खामोश हो गयी किसानों की आवाज



अनामी शरण बबल


मई 1990 की बात है, मैं किसी रिपोर्ट के सिलसिले में मेरठ गया था। किसी पत्रकार ने ही मुझे बताया कि पिछले दो सप्ताह से किसान नेता महेन्द्र सिंह टिकैत जिला अस्पताल में भर्ती है। कहीं गिर जाने से पैर की हड्डी टूट गयी थी। मामला थोड़ा टिकैत का है इस कारण अस्पताल में पत्रकारों को जाने की अनुमति नहीं है। मेरठ से काम निपटा कर मुझे रात मुजफ्फरनगर में काटनी थी और अगले दिन शाम तक सहारनपुर पहुंचना था। एकदम टाईट कार्यक्रम के बावजूद मुझे लगा कि जब मेरठ में हूं तो टिकैट से मिले बगैर जाना ठीक नहीं। इसका टिकैत जी पर भी ज्यादा प्रभाव पड़ेगा और अपन रिश्ता भी सरस सरल और स्नेहिल सा हो जाएगा।

 अभी मैं अस्पताल के गेट पर ही था कि तीन चार साथियों के साथ टिकैत पुत्र राकेश टिकैत पर मेरी नजर पड़ी। राकेश को देखते ही मेरा मन खिल गया और लगा कि अब टिकैत से मिलना तो हो ही जाएगा। चाय रस और समोसे खा रहे राकेश एंड पार्टी के पास पहुंचते ही मैने सीधे पूछा कि बाबूजी अब कैसे है?  एकाएक मेरे को गौर से राकेश देखने लगा। मैने तुरंत कहा यही तो दिक्कत है राकेश जी कि लिखना याद करना और रखना भी हम पत्रकारों के ही जिम्मे है क्या? दिल्ली और शामली में दो तीन बार मिला था। मेरी बाते सुनकर राकेश खुशी से चहकते हुए कहा हां हां बाबूजी के साथ आपको कई बार देखा था। मैने तुरंत कहा कि कल शाम को ही मुझे दिल्ली में पता लगा कि बाबूजी बीमार हैं तो सोचा कि एकबार मिल आना चाहिए। मेरी बात सुनते ही राकेश मुझसे लिपट गए और हैरानी से कहा केवल बाबूजी को देखने आए हो आप ?   हंसते हुए मैने कहा राकेश जी बिहारी हूं लिहाजा यह भी नहीं कह सकता कि मेरठ कोई अपना ससुराल है। हंसी मजाक के बीच उनलोग के साथ चाय पी और राकेश के साथ सीधे महेन्द्र सिंह टिकैत के आरामदायक कमरे में ले जाया गया। दर्जनों लोगों की भीड़ कमरे के बाहर खड़ी थी तो घर की तीन चार महिलाएं बेड के आस पास में खड़ी थी।

टिकैत को नमस्कार करके एक कुर्सी पर बैठते ही उनके एक हाथ को लेकर हाल चाल पूछा। अपनी याद्दाश्त पर जोर देते हुए टिकैट ने कहा इधर भी आ गया छोरा ( महेन्द्र सिंह टिकैट से जब मैं पहली बार मिला था उस समय मेरी उम्र 22 साल की थी और वे तभी से वे मुझे नाम लेने की बजाय केवल छोरा ही कहते रहे)। राकेश टिकैत ने अपने बाबूजी को बताया कि ई केवल आपसे मिलने आए है, इनको दिल्ली में कल ही पता चला कि आप अस्पताल में हो। उठने बैठने से लाचार होने के बाद भी अपने बेटे से मेरे बारे में इन बातों को सुनकर वे गदगद हो गए। उनकी आंखे सजल हो गयी और मन ही मन मैं अपना दांव एकदम सही बैठने पर खुश हो रहा था। इनकी झलक पाने के लिए सैकड़ो लोग अंदर बाहर खड़े थे। मगर मैं अंदर एक घंटे तक बैठे बैठे इनके उदय से लेकर भावी दशा दिशा रणनीति से लेकर किसानों के स्थायी लाभ आदि पर बहुत सारी बातें की। भारतीय किसान यूनियन के भीतरघात पर भी कुछ हाल सवाल करता रहा। चूंकि मैं लिख नहीं रहा था लिहाजा बहुतों को इंटरव्यू सा नहीं लगा. और मैं ढाई तीन घंटे तक अस्पताल में रहते हुए थोकभाव से मौजूद किसान नेताओं से बाते करके भावी कार्यक्रमों पर जानकारी ले ली।

अस्पताल से बाहर निकला तो लगभग चार बज गए थे। मुझे अब सहारनपुर या मुजफ्फरनगर जाने से ज्यादा उचित दिल्ली लौटना ही लगने लगा, ताकि इस इंटरव्यू को कल दोपहर तक देकर अगले दिन बाजार में आने वाले अंक में इंटरव्यू छप जाए। बस में बैठा में इंटरव्यू की रूपरेखा बना ली और रात में दिल्ली लौटते ही मैने पूरे एक पेज के लंबे इंटरव्यू को देर रात तक जागकर रात में ही लिख डाला। अगले दिन शुक्रवार को सुबह सुबह दफ्तर में जाकर इंटरव्यू डेस्क पर दे पटका। इंटरव्यू देखकर हमारे संपादक श्री सुधेन्दु पटेल और मुख्य समाचार संपादक श्री कृष्ण कल्कि की आंखों में चमक आ गयी। अगले दिव मैं सहारनपुर हरिद्वार के लिए निकल गया। जबकि मेरे अनुरोद पर चौथी दुनिया की एक सौ प्रति खास तौर पर टिकैतों के लिए मेरठ भिजवा दी गयी। करीब चार दिन में इधर उधर हर जगह का हाल खबर लेकर वाया मुजफ्परनगर होते मेरठ लौटा। कई पुलिस अधिकारकियों से बातचीत के बाद मैं एक बार फिर मेरठ अस्पताल चला गया, तो इस बार यहां का नजारा ही बदला हुआ था। चौथी दुनिया साप्ताहिक अखबार की धूम थी। मेरठ होते दिल्ली से भी सैकड़ों कॉपी मंगवाकर अपनी जरूरतें पूरी की। राकेश से मुलाकात तो नहीं हो सकी मगर मैं दो पल में ही टिकैत के सामने था। मुझे देखते ही वे सीनियर टिकैत चीख पड़े अरे छोरा बिना लिखे ही कागज पर तूने तो मेरी सारी बात लिख डाली। हंसते हुए उन्होने कहा केवल मुझै ही नहीं सबौ को तेरा लिखा बहुत पसंद आया है । किसी से कहकर टिकैत ने मुझे अपने घर के दो जमीनी नंबर (लैंड लाईन नंबर) लिखकर देते हुए कहा कि जब तुम्हें आना हो तो फोन कर देना तो शामली से आने की व्यवस्था करा दी जाएगी।


मेरठ में स्वास्थ्य लाभ कर रहे टिकैत पर मेरा यह उल्लेख थोड़ा लंबा हो गया है मगर इसी एक घटने के बाद मैं महेन्द्र सिंह टिकैत से अपने संबंधों समेत उनके स्वभाव और कारिंदों पर भी पर बात करूंगा। मैं भारतीय जनसंचार संस्थान नयी दिल्ली 1987 में आने से पहले तक टिकैत का केवल नाम भर ही सुना था। मगर 1987 में दिल्ली वोट क्लब पर चक्का जाम करके संसद से लेकर नयी दिल्ली को पूरी तरह ठप्प कर दिया। मेरठ मुजफ्परनगर बागपत समेत पूरे पश्चिमी यूपी में किसान हितों को मुद्दा बनाकर लखनऊ तक को हिला डाला। और 1987 से 1990 के तीन सालों मे भारतीय किसान यूनियन ने लगभग एक दर्जन शहरों में किसान आंदोलन धरना प्रदर्शन करके देश भर में छा गए। 1987 से लेकर 2011 कर इनसे मेरी कमसे कम दो दर्जन बार मुलाकात हुई होगी। ज्यादातर मुलाकात तो संसद मार्ग थाना नयी दिल्ली के सामने बैरिक्रेटस के पास होती थी । इतनी भीड़ में भी हाल चाल नमस्ते के बाद दो चार बातें इनसे जरूर हो जाती थी।

समय सूत्रधार पाक्षिक मैग्जीन के लिए मुझे टिकैट के गांव सिसौली 1992 में जाना पड़ा। रह रहकर हंगामा मचा देना या यों कहे कि जब पेपर में लोग बाग नाम भूलने लगे तो टिकैत एंड कंपनी द्वारा फिर कहीं कोई हंगामा मचा दिया जाता। एक तरह से महेन्द्र टिकैट को लोग जाति से जाट की बजाय जाम टिकैट नेता हंगामेदार नेता औरकबी कभी दूसरों के कहने पर चलने वाले मूर्ख नेता का भी तगमा दे डालते। पुलिस प्रशासन बी इनसे थोड़ा कांपती थी। म्रठ के एकवरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि टिकैत थोड़ा सनकी है अगर एक बार सनक गए तो इनको मनाना सरल नहीं ।


बागपत्त सहारनपुर के रास्ते शामली तक तो मैं आ गया मगर राकेश टिकैत से बात नहीं होने का खामियाजा मुझे चिलचिलाती धूप में कई किलोमीटर तक पैदल चल कर चुकाना पड़ा। गांव सिसौली थाना भौरांकला पड़ता है। बीच रास्ते में यहां के थानेदार अपनी मोटर साईकिल पर सवार मिल गए। रास्ते में गुजर रहे थानेदार को मैने हाथ देकर रूकवाया तो दरियादिल सिपहिया रूक गया। जब मैने बताया कि मुझे टिकैत के यहां गांव सिसौली जाना है तो एकदम पूरे अदब के साथ लिफ्ट देते हुए सीधे महेन्द्र सिंह टिकैट की कोठी के बाहर तक न केवल पहुंचाया बल्कि मुझे लेकर सीधे एक हॉल में ले गया जहां पर 50-60 किसानों का एक दलबल गप्प शप्प के साथ हुक्के गुड़गुड़ा रहा था। मुझे देखते ही टिकैत ने बिन फोन किए आने पर हैरानी प्रकट की। मैने शिकायती लहजे में कहा कि फोन है या कटवा दी आपने। दो दिन से घंटी बजाते बजाते मेरे हाथ थक गए।  मेरी बात सुनते ही वे दूरभाष विभाग को भला बुरा कहने हुए बताया कि दो सप्ताह से दोनो फोन काम नहीं कर रहे है।

मैने सोचा यही मौका है जरा इनको गरम पानी में  उबाला जाए. मैने हंसते हुए कहा मैं समझ गया दद्दा अब सत्ता और ई फोनवा वालो को अब आपसे डर लगना बंद हो गया है। कहां तो लखनऊ हिलाते थे और अब आपके गांव का ही कोई कर्मचारी भय नहीं खाता। ई सब आपको परख रहे है कि गरमी बाकी है या....?????
 मेरी बात सुनते ही दर्जनों जाट आपस में ही हां हां करने लगे। कहां मर गयौ कहते हुए हाल में बैठे कुछ नौजवान जाट पुत्रो ने अपनी मोटरसाईकिल से निकाल कर गांव में तलाशी चालू कर दी। मैं थानेदार के साथ हाल में बैठा रहा। इस बीच छाछ का सेवन किया गया।
यहां पर एक रोचक प्रसंग लिखना मुझे जरूरी लग रहा है। थानेदार ने मुझे बाहर चलने का संकेत किया। उसके साथ मैं भी बाहर बरामदे में था। थानेदार ने टिकैत के साथ मेरे मेलजोल वाले रिश्ते को देखकर बिनती की। बकौल थानेदार यार लखनऊ का हूं और चार साल से यहीं पर टंगा हूं। केवल टिकैत जी के नहीं चाहने से मेरा तबादला रूका पड़ा है। हमारे कप्तान (एसएसपी) ने कह रखा है कि तेरा केस स्पेशल है, टिकैट चाहते हैं कि तबादला ना हो। उसने कहा कि यार बड़ी मेहरबानी होगी मेरे लिए आप सिफारिश कर दो न। हम दोनों को कानाफूसी करते देख टिकैत ने मुझे हांक मारी इधर आ जा आजा। मुस्कुराते हुए टिकैत ने मुझसे पूछा अपने बदली (ट्रांसफर) का पौव्वा लगवा रहा है न। टिकैट ने कहा कि यह सबों को एकदम घर सा मान देता है और कितना भला है यह तुम देख ही रहे हो। मगर यह भागना चाहता है यहां से। मैने थानेदार का पक्ष लेते हुए कहा कि इसको गौशाला में बांध कर रखा करे। एकदम फालतू होकर पालतू बन गया है। मेरी बात सुनकर टिकैत चौंक से गए कि बोले ? मैने थानेदार का ही पक्ष रखा इसको पुलिसिया ही बने रहने दो दद्दा डांगर ना बनाओ । इसके भी बाल बच्चे और मेहरारू है। आप समझ रहे हो न ? एक तरफ मेरी बाते सुनकर कई जाटों में भी थानेदार के प्रति सहानुभूति जाग गयी। थानेदार ने मेरे प्रति आभार जताया कि बस मैं अब अपना काम करवा लूंगा?

करीब एक घंटे में तीन फोन कर्मचारियों को अपने साथ धर पकड़ कर जाट युवकों का दल कमरे में दाखिल हुआ। टिकैत की फटकार के बाद देखते ही देखते दो सप्ताह से बेकार पड़े फोन मेरे आते ही घनघनाने लगे। इस खुशी में किसी ने सबों को खाने के लिए लड्डू देना चालू कर दिया। फोन के जिंदा होने पर टिकैत खुश हो गए छोरा तू तो बड़ा मस्त है जब आता है तभी मन में एक छाप दे जावै (जाता है)।

दिल्ली और लखनऊ के नेता अक्सर सिसौली में आकर टिकैत को अपने पाले में रखते थे, मगर बहुजन समाजवादी पार्टी की बहिन जी मायावती से इनकी भिंडत  कांटे की रही। आरोप लगा कि टिकैत ने बहिनजी को जातिसूचक गाली दी थी। जिससे खफा होकर सिसौली गांव को छावनी में बदल दिया गया। टिकैत की गिरप्तारी के आदेश पर आदेश जारी हो रहे है तो दूसरी तरफ हजारों जाट किसान गोताखोर की तरह दलबल और बंदूकों के साथ पुलिसिया कार्रवाई की छिपकर प्रतीक्षा करते रहे। चारो तरफ तनाव ही तनाव और कुछ भी होने की आशंका देर सबेर गिरफ्तारी करके हेलीकॉप्टर से टिकैत को ले जाने की तमाम योजनाओं को पूरा करने के लिए तैयार यूपी पुलिस फौज की तैनाती के बाद भी मुख्यमंत्री मायावती को अपनी जिद्द और दंभ त्यागना पड़ा। सरकार इसके लिए हिम्मत नहीं जुटा सकी। और खून खराबा के एक हिसंक काले अध्याय की पटकथा अधूरी रह गयी। यूपी में 2012 विधानसभा चुनाव में एकाएक बसपा के मतदाता इस तरह उखड़े कि बहिनजी का भी हाल खराब हो गया। 2017 विधानसभा चुनाव सामने है और बसपा के जनाधार की भी अग्निपरीक्षा बाकी है कि अब टिकैत के बिना बसपा का क्या  होगा ?  


भूमि अधिग्रहण गन्ना किसानों का अरबों का बकाया और भुगतान के लिए चीनी मील मालिको की नमक हरामी भी टिकैट के सामने नहीं चली। लंबित भुगतान बैंकों के उत्पीडन किसान खुदकुशी अकाल बिजली बिल पानी की सही आर्पूर्ति और कर्ज माफी आदि दर्जनों मामले इस तरह के थे कि भारतीय किसान यूनियन को चैन की वंशी बजाने का कभी मौका नहीं मिला। इन तमाम समस्याओं को हवा देकर टिकैत सरकार और नौकरशाहों के लिए एक चुनौती बन गए। जिसे नाथ पाना किसी के बूते में नहीं था। एक आह्रवान पर चार छह घंटे में एक लाख से भी अधिख जाटों या किसानो को बुलाकर अपनी बात मनवा लेना ही टिकैत का तिलिस्मी जादू था। जो 2011 मे उनके निधन के साथ ही यह चमत्कार भी लुप्त हो गया या यों कहे कि इनकी मौत के साथ ही किसानों की आवाज भी सदा सदा के लिए खामोश हो गयी। टिकैत से बगावत करके और भाकियू को कई फाड़ कर कर के टिकैत सा ही धारदार बनने के लिए लालयित कई नेताओं में से किसी एक ने भी आगे बढने का कोई प्रयास तक नहीं किया। एक दो दिन में लाखों करोड़ो रूपये खर्च करने वाले यूपी के जाटों की माली हालत अब करोड़ों की हो गयी है मगर आधुनिकता की मार कहें या फैशनपरस्ती  कि  इन किसानों के हल कुदाल और पाटा की तरह ही किसानों की नयी नस्लें धरना प्रदर्शन आंदोलनों की धार के साथ ही किसान नेता महेन्द्रसिंह टिकैत को भी भूल से गए।
















































मेरे जीवन के कुछ और इडियट्स-6

केवल नाम से नहीं व्यावहारिकता में भी मुलायम  हैं नेताजी


अनामी शरण बबल



उत्तर प्रदेश में कई बार मुख्यमंत्री रह चुके दिग्गज समाजवादी नेता मुलयम सिंह यादव को लेकर मेरे मन में कोई बड़ा लगाव या आकर्षण नहीं था।  बसपा के कांशीराम और मायावती के साथ इनका प्यार भरा नाता रहा था और सपा बसपा मिलकर ही सत्ता सुख को भोगा मगर बसपा की बहिनजी से छले जाने के बाद इनके रास्ते अलग अलग हो गए। मुलायम सिंह से 1990 के बाद कई बार मिला,बातचीत भी की मगर इसे याराना की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। मगर जब अपनी जान पहचान गहरी हो गयी तो मैं मुलायम सिंह का कायल हो गया। नाना प्रकार के आरोपों से नवाजे जाने वाले मुलायम (जिन्हें ज्यादातर लोग नेताजी कहते हैं)। ने अपने गांव सैफई की सूरत ही बदल दी है। मुलायम ने सरकारी धन का जमकर दुरूपयोग भी किया । कहने वाले कह सकते हैं कि एक गांव में एक बी ग्रेड का एयरपोर्ट बनवाने का क्या काम । मगर हवाई अड्डा सहित स्कूल कॉलेज तकनीकू सस्थान से लेकर इटावा के अपने इलाके को मीनी मुंबई का रूप दे दिया है।

 दुनिया मुलायम सिंह के बारे में चाहे जो करे या कहें मगर यहां के लोग इन्हें भगवान की तरह पूजते है। और किसी भी आदमी इटावा का होना ही नेताजी के लिए आज भी खास हो जाता है।  दूसरी तरफ बड़ी बड़ी बातें करने वाले सभी दलों के लगभग एक सौ तूफानी नेताओं मे से करीब 20-22 नेताओं के पैतृक गांव और घर पर जाने का भी मौका मिला। मगर यह देखकर मैं हमेशा आहत हुआ कि गांव चाहे देवीलाल का हो या पूर्व पीएम अटल बिहारी बाजपेयी, चंद्रशेखर का।  भूत (पूर्व) मुख्यमंत्रियों में मायावती (जगत बहिनजी के गांव बादलपुर में इनका महल है, मगर गांव बेहाल सड़को का खस्ताहाल और तमाम बुनियादी सुविधाएं भी दम और दिल तोडने लायक है) कल्याण सिंह लालजी टंडन से लेकर चौधरी वंशीलाल का गांव हो । तमाम दिग्गजों के गांव में जाकर कभी लगा ही नहीं मैं किसी खास आदमी के गांव में हूं। भारत के सामान्य गांवों की तरह ही बदहाली अभावग्रस्त बेनूर और बुनियादी समस्याओं से जूझते पाया। दरिद्र ग्रामीणों को अपने तथाकथित महान नेता से कोई लाभ नहीं मिला।

हालांकि यह बात थोड़ी क्या बहुतो को बहुत ज्यादा बुरी भी लग सकती है मगर बाहुबली किस्म के नेताओं के इलाको में विकास की हरियाली है। सरकारी योजनाओं का प्रभाव दिखता है और आम नागरिक भी शरीफ नेताओं की अपेक्षा अपने इन कथित बदमाश नेताओं से ज्यादा खुशहाल मिले। नौकरशाहों और प्रशासन पर भी इन बाहुबलियों का खौफ भी दिखता था। प्रजातंत्र में विकास और नागरिकों की खुशीहाली का यही पैमाना रहा तो लोग पप्पू यादव शहाबुद्दीन से लेकर कुख्यात राजा भैय्या के चरणों में लेटकर खुद को धन्य नहीं मानते।. पूरे इलाके में शहाबुद्दीन या राजा भैय्या को शादी कार्ड देने का मतलब यही होता है कि उस गरीब कन्या की शादी का सारा खर्च ये बाहुबलियों द्वारा ही वहन की जाएगी।

उधर दूसरी तरफ अत्यधिक शरीफ और लोकप्रिय माने जाने वाले नेताओं में पूर्व पीएम अटल बिहारी बाजपेयी हो या मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी की नजर से तो ज्यादातर बाप अपनी कन्याओं को छिपाकर रखना चाहते थे। शराफत और लोकप्रियता के बीच इन बाहुबलियों में कौन ज्यादा शरीफ है?  यह एक बड़े विवाद का गरमागरम मुद्दा बन सकता है,। कथित तौर पर शरीफजादे नेताओं की पूरी फौज और इनके अलंबरदार इससे नैतिकता का हवाला देकर परहेज करेंगे। खैर मैं कोई मुलायम का चारण करने नहीं बैठा हूं, बल्कि मुलायम के अपनों और अपने इलाके के लोगों के प्रति प्रेम को देखकर लगता है कि लोगों की परवाह किए बगैर मुलायम ने हमेशा हर उस आदमी की मदद की है जिसको वाकई मदद की जरूरत थी। मुलायम सिंह के बहाने अपने महान भारत देश के महान नेताओं के कामकाज और विकास के नजरिए की कलई खुलती है कि लगातार जीतने वाले ये नेता अपनों और अपने इलाके के प्रति कितने उदासीन रहते है।

यूपी में 1993 में विधानसभा चुनाव की पूरी कमान मुलायम सिंह यादव अकेले संभाल रखा था। दिल्ली के प्रेस के सामने मुलायम अपनी जीत की बार बार हुंकार मारते फिर रहे थे। जून 1993 के दूसरे सप्ताह में मुलायम अपने कानपुर दौरे को लेकर दिल्ली में बड़ी बड़ी बातें उछाल रहे थे।  मुझे आज भी याद है कि 22 जून 1993 को कानपुर रैली और शहर भ्रमण के बहाने चुनावी अभियान का आगाज होना था। संवाददाता सम्मेलन में ही मैने टोका और कानपुर रैली को मीडिया के सामने केवल पब्लिसिटी का स्टंट बनाने का आरोप लगाया । यह बात शायद नेताजीम को खटक गयी ।

संवाददाता सम्मेलन खत्म होते ही मुलायम मेरे पास आए और हाथ पकड़कर कहा कि आपको कानपुर चलना है। और कई पत्रकारों से पूछा कि कौन कौन कानपुर चलेंगे यह बताइए मैं व्यवस्था कराता हूं। मेरे साथ फोटोग्राफर अनिल शर्मा (जो अभी इंडियन एक्सप्रेस में है ) के अलावा कानपुर के ले कोई राजी नहीं हुआ। टिकट के लिए नाम पता लिखकर दे दिए थे। तीन चार दिन की खामोशी से लगा मानो कानपुर प्लान खत्म। तभी 21 जून को किसी मुलायम प्रेमी का फोन आया कि कल सुबह साढ़े पांच बजे की ट्रेन है। आपके घर पर तैयार रहेगे गाड़ी चार बजे आ जाएगी और अनिल जी को भी तैयार रखेंगे। अनिल शर्मा को फोन कर हमलोग सुबह के लिए लगभग तैयार थे। ट्रेन सही समय पर खुली और दोपहर 12 बजे मुलायम सिंह के चार आतिथ्य सत्कारी फौज के साथ हम दोनों मुलायम दरबार में थे । उस समय वे कानपुर प्रेस से रू ब रू थे । बीच में ही मैने कोई एक सवाल दाग दिया। उस पर जवाब देने की बजाय मुलायम अपनी जगह से उठकर मेरे पास आकर बैठ गए। मेरे हाथ को अपने हाथ में लेकर पूछा कि  सफर में कोई दिक्कत तो नहीं हुई.। मेरे ना कहने पर मुलायम ने कहा कि मै भी आपके साथ ही ठहरा हूं रात में बात करेंगे । यह कहते ही अपने सिपहसालारों को मुलायम नें संकेत किया और प्रेस कांफ्रेस के बीच में ही हमलोग को लेकर उनकी टोली एक होटल में पहुंची। जिसके तीसरा तल सपा के नाम आरक्षित था। मुझे जिस कमरे मे ले जाकर ठहराया गया ठीक उसके बगल वाले कमरे में ही मुलायम रूके हुए थे।

शाम को जनसभा में जाने से पहले यह मुलायम का अजब गजब चेहरा था। कानपुर के मुख्य सड़क से लेकर गली मोहल्ले की लगभग एक दर्जन मंदिर मस्जिद गुरूद्वारा चर्च में जाकर अपना माथा टेका। कोई कहीं हनुमान मंदिर तो कोई काली मंदिर तो कोई सती देवी मंदिर मे जाने के लिए गली मोहल्ले का चक्कर काटा। और शाम ढलने से पहले जब मुलायम जनसभा स्थल पर पहुंचे, तो वहां करीब 50 हजार से ज्यादा श्रोताओं की भीड़ इंतजार कर रही थी। किसी नेता के संग एक ही गाड़ी में चलने का अपना दुख होता है। उनका एक सिपहसालार आगे की सीट पर तो मेरे और अनिल के बीच मुलायम होते या एक कभी खिड़की की तरफ वे तो दूसरे गेट से हम दोनों रहते। रैली बहुत शानदार रही  और रात करीब 10 बजे हमलोग होटल में पहुंचे. थोड़ी देर के बाद डाईनिंग हॉल मे करीब एक सौ सपाई. के साथ नेताजी भोजन के लिए बैठे। मगर उससे पहले लगभग हर टेबल पर जा जाकर नेताजी ने सबों का हाल खबर खैरियत ली. किसी से हाथ मिलाया ,किसी से हाथ जोड़ा तो किसी के पीठ पर हाथ फेरते हुए आखिकार मुलायम के साथ खाना से अधिक बाते होती रही। करीब एक घंटे तक सामूहिक भोजन में मुलायम अपनी टेबल से उठकर कई बार पूरे हॉल का चक्कर काटते हुए लगभग हर आदमी को और खाने के लिए आग्रह किया। अपने कार्यकर्ताओं की इतनी चिंता करने वाले नेताजी सही मायन में केवल नाम के नहीं सही मायने में दिल से जुड़े हुए एक पारिवारिक नेता की तरह रहते हैं।

अगले दिन सुबह कानपुर के सारे पेपर मुलायम वंदना से भरे पड़े थे। सुबह सुबह अखबार देखते हुए हमलोग नेताजी के साथ ही चाय और नाश्ता की। तभी मुलायम ने कहा कि यहां से आपलोग लखनउ चलिए उसके बाद कोई कार्यक्रम बनाते हैं। कानपुर से हमलोग की करीब 10-12 गाड़ियों का काफिला लखनु के लिए निकला । और रास्ते में करीब 10 स्थानों पर गाड़ी रोककर मुलायम ने 10-15 मिनट की छोटी छोटी जनसभा की। आग के गोले के समान सूरज और 45 से पार पारा के बीच 23 जून 1993 की चिलचिलाती धूप में भी सड़क किनारे हजारों लोगों की भीड़ और लंबी कतार को देखकर मेरी आंखे फटी की फटी रह गयी। पहली बार मुलायम के प्रति जनता के बेशुमार प्यार को देखकर मेरा पूरा नजरिया ही बदल गया।

देर रात तक हमलोग की सवारी लखनऊ पहुंची। हमें किसी गेस्ट हाउल में ठहराया गया था।  उनके कई सिपहसालार भी गेस्ट हाउस में ही ठहरे।  हमलोग के साथ ही रात का खाना लेने के बाद नेताजी ने कहा कि सुबह 10 बजे आता हूं . अगले दिन सुबह वे कई घंटो तक साथ रहे और खान पान और गप शप तथा दिल्ली में लगातार बैठकर बातचीत करने की रणनीति के साथ ही भव्य सत्कार के बाद करीब 30-35 कार्यकर्ताओं ने पूरे आवभगत के साथ दिल्ली के लिए हम दोनों को रवाना किया। दिल्ली में आते ही मैने एक लंबी रिपोर्ट लिखी -भावी मुख्यमंत्री के अभिषेक की तैयारी- रपट को शब्दार्थ फीचर फाना न्यूज एजेंसी सहित कला परिक्रमा हिन्दुस्तान फीचर्स सहित दो और एजेंसी को रिपोर्ट में आंशिक हेर फेर कर दे दी। जिससे चार पांच दिन के अंदर यही रिपोर्ट देश की लगभग 100 से भी अघिक अखबारों में अलग अलग तरह और अलग शीर्षक के साथ छप गयी।

 मैने करीब 50-60 पेपर की कतरनों का  एक फाईल बनाकर मुलायम के सिपहसालारों को थमा दी। करीब एक सप्ताह के बाद दिल्ली आते ही नेताजी ने फोन कर यूपी निवास में मिलते का आग्रह किया। और जब मिले तो देखते ही मुझे अपनी बांहों में भर लिया। मैने नेताजी के साथ पैतृक गांव सैफई जाने की इच्छा जाहिर की । वे एकदम खुश हो गए। फिर तो इस तरह का सिलसिला बना कि दिल्ली से इटावा तक मैं कार से पहुंचाया जाता और उधर लखनउ से नेताजी इटावा आ जाते। कई बार ऐसा संयोग हुआ कि मेरे सिपहसालारों की गाडी देर से पहुंची तो मुलायम वेट कर रहे होते या जब कभी नेताजी अपने समर्थकों के बीच देर हो जाते तो मुझे अपने कई सिपहसालारों के साथ खान पान मिष्ठान के साथ नेताजी का इंतजार करना पड़ता। तीन चार बार सैफई जाने के बाद दो और मौके पर सैफई जाना हुआ तब तक हवाई अड्डा काम करने लगा था। मुझए इनकी दिवंगत पत्नी से भी मिलने का अवसर मिला। नेताजी से तो मैं हमेशा हाथ मिलाता रहा हूं मगर उनकी पत्नी को मैने पैर छूकर प्रणाम किया तो वे भाव विभोर हो गयी। मेरी आयु को देखते हुए उन्होने मेरा हाथ पकड़ा और स्नेह दिखाते हुए बाबू बाबू कहती रही। हमदोनों के वात्सल्य मिलन को देखकर नेताजी ने भी ठहाका लगाते हुए कहा अनामी तुम तो घर में आते ही रसोईघर तक अधिकार बना लिए। मैने फौरन टिप्पणी की इसीलिए तो मैं आपसे इतना करीब होकर भी सपा में नहीं आ रहा हूं केवल घर तक ही हूं नहीं तो आपको खतरा हो जाता। बड़े स्नेहिल माहौल में इनके घर की ज्यादातर महिलाएं बहू भाई भतीजे समेत बहुत सारे लोग मुझे जान गए।

इटावा से सैफई का काफिला एक सुखद सफर होता। क्या मस्त लंबी चौड़ी सड़के औरगांव में एक अति भव्य तालाब मंदिर स्कूल अस्पताल बड़े मकान इमारतों के बीच सैफई वाकई में एक नया आकार गढता गांव लगा। 1993 में सैफई में हवाई पट्टी नहीं बनी थी।  1993 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुलायम ने प्रदेश से ज्यादा केवल अपने गांव और इलाके के लिए किया।

नयी सदी के आरंभ में नेताजी अपने बेटे को लेकर काफी चिंतित थे। एक तरप कांग्रेस के बाबा राहुल गांधी में उस समय काफी जोश । और लगभग यूपी विधानसभा चुनाव की कमान अपने हाथों में थाम कर एक आक्रमक  युवा नेता की तरह उभरे बाबा यूपी में काफी लोकप्रियता थे। बाबा को देखकर मुलायक का रक्तचाप हमेशा उपर भागता था कि कि अपना बेटा (गाली देकर) अखिलेश कोई सबक नहीं ले रहा। बेटे को लेकर नेताजी हमेशा दुविधा में रहते थे। .बकौल नेताजी राजनीति बड़ी बदचलन होती है एक बार गोद से निकल गयी तो दोबारा पाना कठिन हो जाता है। मगर लायक नालायक बेटे के प्रलापो के बीच 2012 में चुनावी जंग फतह करने के बाद अंतत खुद सीएम बनने की बजाय बेटे को गद्दी सौंप दी।

पिछले साल मेदांता गुड़गांव में भर्ती नेताजी से काफी समय के बाद मिला। भूलने की गजनी टाईप आदत्त या बीमारी इन पर हावी होता जा रहा है। मेरे को देखकर पहले तो नहीं पहचाना पर मैं पास में बैठकर उनका हाल चाल लेता रहा और एक हाथ को अपने हाथों में ले रखा था। तभी एकाएक खुशी से खिल पड़े। अरे मैं आपको कैसे भूल सकता हूं। आप तो मेरे आड़े समय के दोस्त है। मैने उन्हें खामोश रहने का संकेत किय तो अपनी अक्खड़ शैली में उबल पड़े अरे इन डॉक्टरों का बस चले तो हर आदमी को गूंगा बना दे। अपने सीएम बेटे के परफॉरमेंस पर नेताजी ने संतोष जताया। हंसते हुए बोले कि सरऊ है अहीर और तुम लालाओं जैसा शरीफ शांत और लिहाजी है। इसको तो मैने मांजा है और अब यही सलाह दी है कि प्यार से काम कर मगर दब्बू की छवि से बचना।  खैर बेटे के निकम्मेपन से कभी आहत रहने वाले मुलायम को इसकी खुशी है कि बेटे को कोई चूतिया नहीं बना सकता क्योंकि यह सरल है शालीन है मगर अब इसको कोई मूर्ख नहीं बना सकता है।  हंसते हुए नेताजी ने कहा कि वो भी  राजनीति जान गया है।














































राजेन्द्र अवस्थी को याद करते हए


अनामी शरण बबल



दिल्ली शहर का चरित्र एकदम अनोखा और बेईमान सा है। एक बार दिल्ली से दिल लगने के बाद न तो कोई दिल्ली को छोड़ पाता है और ना ही दिल्ली अपने ग्लैमर पाश से उसको छोड़ती है। दिल्ली दिल में बस जाती है, और दिल्ली के तिलिस्म से भी कोई चाहकर भी बाहर नहीं हो पाता। मगर पिछले 28 सालों में यह देखा आजमाया या पाया है कि दिल्ली से दूर रहते हुए संबंधों में जो उष्मा बेताबी गरमी रोमांच लगाव, ललक आकर्षण और उत्कंठा होती है। यही लगाव दिल्ली पहुंचते ही नरमा जाता है। दिल्ली में रहते हुए भी आदमी अपनों से अपनों के लिए दूर हो जाता है।


















राजेन्द्र अवस्थी को याद करते हए


अनामी शरण बबल




जीवन में पहली बार मैं दिल्ली 1984 में आया था। फरवरी की कंपकपाती ठंड में उस समय विश्व पुस्तक मेला का बाजार गरम था। दिल्ली का मेरा इकलौता मित्र अखिल अनूप से अपनी मस्त याराना थी। कालचिंतन के चिंतक पर बात करने से पहले दिल्ली पहुंचने और दिल्ली में घुलने मिलने की भी तो अपनी चिंता मुझे ही करनी थी। उस समय हिन्दी समाज में कादम्बिनी और इसके संपादक का बड़ा जलवा था। इस बार की दिल्ली यात्रा में अवस्थी जी से मेरी एकाएक क्षणिक मुलाकात पुस्तक मेले के किसी एक समारोह में हुई थी। जिसमें केवल उनके चेहरे  को देखा भर था।

मगर 1984 में ही गया के एक कवि प्रवीण परिमल मेरे घर देव औरंगाबाद बिहार में आया तो फिर प्रवीण से भी इतनी जोरदार दोस्ती हुई जो आज भी है। केवल अपने लेखक दोस्तों से मिलने के लिए ही मैं एक दो माह में गया भी चला जाता था। इसी बहाने गया के ज्यादातर लेखक कवि पत्रकारों से भी दोस्ती सलामत हो गयी। जिसमें सुरंजन का नाम सबसे अधिक फैला हुआ था। दिल्ली से अनभिज्ञ मैं सुरंजन के कारण ही कादम्बिनी परिवार से परिचित हुआ।  जब भी दिल्ली आया तो पहुंचने पर कुछ समय कादम्बिनी के संपादकीय हॉल मे या कैंटीन में जरूर होता था। खासकर धनजंय सिंह सुरेश नीरव या कभी कभार प्रभा भारद्वाज दीदी  समेत कई लोग होते थे जिनके पास बैठकर या एचटी कैंटीन (जो अपने अखबार से ज्यादा कैंटीन के लिए ही आसपास में फेमस था) में कभी खाना तो कभी चाय नाश्ते का ही स्वाद काफी होता था।  

इस मिलने जुलने का एक बड़ा फायदा यह भी हुआ कि कादम्बिनी में उभरते युवा कवियों के लिए सबसे लोकप्रिय  दो पेजी स्तंभ प्रवेश में मेरी छह सात कविताएं लंबी प्रतीक्षा के बिना ही 1985 अक्टूबर में छप गयी । जिसके बाद औरंगाबाद और आसपास के इलाकों से करीब 100 से ज्यादा लोगों ने पत्र लिखकर मेरा हौसला बढाया । तभी मुझे कादम्बिनी की लोकप्रियता का अंदाजा लगा। देव के सबसे मशहूर लेखक पत्रकार और सासंद रहे शंकर दयाल सिंह (चाचा) का भी पटना से दिल्ली सफर के बीच लिखा पत्र भी मेरी खुशी में इजाफा कर गया।


दिल्ली लगातार आने जाने के चलते संपादक राजेन्द्र अवस्थी जी भी हमलोग को ठीक से पहचानने लगे थे। पहली बार कोई ( धनंजय सिंह सुरेश नीरव जी या कभी प्रभा जी) अवस्थी जी के कमरे में ले जाकर मुझे छोड़ देते थे। बारम्बार आने की वजह से अवस्थी जी से भी मैं खुल गया था । कई बार तो मैं अपन ज्यादा न समझ में आने के बाद भी उनके संपादकीय काल चिंतन पर ही कोई चर्चा कर बैठता तो कभी अगले तीन चार माह के भावी अंकों पर भी पूछ बैठता। कभी कभी मुझे अब लगता है कि इतने बड़े संपादक और साहित्यकात होने पर भी वे मेरे जैसे एकदम कोरा कागज से भी कितने सहज बने रहते थे। लेखक कवि से ज्यादा उत्साही साहित्य प्रेमी सा मैं उनके सामने बकबक कर देता तो भी वे मीठी मुस्कान के संग ही सरल बने रहते थे।

 मेरी आलतू फालतू बातों या नकली चापलूसी की बजाय सीधे भावी कार्यक्रमों योजनाओं पर या सामान्य अंक के बाद किस तरह किसी विशेष अंक  की रूपरेखा बनाते और तैयारी पर मेरा पूछना भी उनको रास आने लगा था । दो एक बार वे मुझसे पूछ बैठते कि भावी अंको को लेकर इतनी उत्कंठा क्यों होती है  ? इस पर मैं सीधे कहता था कि यदि अंक को लेकर मन में जिज्ञासा नहीं होगी तो उसे खरीदना पढना सहेजना या किसी अंक की बेताबी से इंतजार या दोस्तों में चर्चा क्यों करूंगा ? मेरा यह जवाब उनको हमेशा पसंद आता था। मैं अब महसूस करता हूं कि वे भी बड़ी चाव से अपने विशेष अंकों के बारे में ही मुझे बताते थे। कभी उबन सा महसूस नहीं करते।


उनदिनों 1987 में वे साप्ताहिक हिन्दुस्तान पत्रिका के संपादन का काम भी संभाल रहे थे। एक बार मैं अचनक टपका तो वे दो चार मिनट में ही बोल पड़े आज काफी बिजी हूं फिर आइएगा। मैने उठने की चेष्टा के साथ पूछ बैठा कोई खास अंक की रणनीति बना रहे है  क्या ?  उनके हां कहते ही मैंने मौके की गंभीरता और नजाकत को समझे बगैर ही कह डाला कि इसके लिए सर आप संपादकीय टीम के साथ बैठकर फाईनल टच दे और सबको इसमें सुझाव देने को पर जोर दे। इससे कई नए सुझाव के बाद तो विशेषांकों में और निखार आएगा। मेरी बात सुनकर वे एकटक मुझे देखने लगे। मुझे लगा कि मुझसे कोई गलती हो गयी। तो मैं हकलाते हुए पूछा मैने कुछ गलती कर दी क्या ? इस पर वे खिलखिला पड़े और हंसते हुए कहा बैठो अनामी बैठो तुम बैठो। मैं भी एकदम भौचक्क कि कहां तो वे मुझे देखते ही भगाने के फिराक में थे और अब ठहाका मारते हुए बैठने का संकेत कर रहे है। उन्होने पूछा कि चाय पीओगे क्या मेरी उत्कंठा और बढ़ गयी। चाय का आदेश देते हुए उन्होने कहा यार मुझे तुम जैसे ही लड़कों की जरूरत है। मैं एक पल गंवाए बिना ही तुरंत कह डाला कि सर तो वीकली में मुझे रख लीजिए न फिर कुछ सबसे अलग हटकर नया रंग रूप देते है। उन दिनों मैं दिल्ली में iimc-hj/1987-88 का छात्र थआ।  मेरी सादगी या बालसुलभ उत्कंठा पर मुस्कुराते हुए कहा जरूर अनामी तुम पर ध्यान रखूंगा पर साप्ताहिक हिन्दुस्तान तो अब केवल एक साल का बच्चा रह गया है।  इसको बंद किया जाना है लिहाजा मैं मैनेजमेट को कह नहीं सकता और साप्ताहिक के अंक तो बस पूंजीपतियों के लाभ हानि के हिसाब किताब के लिए छप रहा है।  पर अनामी मुझे तुम बहुत उत्साही लगते हो और मैं तुमको बहुत पसंद भी करता हूं। अपने उत्साह को किसी भी हाल में कभी मरने नहीं देना । यही आपकी पूंजी है जो कभी मौका मिलने पर आपको नया राह दिखाएगी। पहले तो मैं उनकी बाते सुनकर जरा उदास सा हो गया था, पर अवस्थी जी ,से अपनी तारीफ सुनकर मन पुलकित हो उठा।  मैने उनसे पूछा कि आप मेरे मन को रखने के लिए कह रहे है, या वाकई इन बातों से कुछ झलकता है ? मेरी बात सुनकर उन्होने कहा इसका फैसला समय पर छोड दो अनामी।


भारतीय जनसंचार संस्थान में नामांकन के बाद पूरे कादम्बिनी परिवार से महीने में दो एक बार मुलाकात जरूर कर लेता था। उस समय दिल्ली आज की तरह हसीन शहर ना होकर गंवार सा थका हुआ शहर था। जिंदगी में भी न रफ्तार थी न दुकानों में ही कोई खास चमक दमक ।  दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) का मासिक बस पास हम छात्रों को 13 रूपए में मिलता था। पूरी दिल्ली में घूमना एकदम आसान था । और दिल्ली के कोने कोने को जानने की उत्कंठा ही मुझे इधर उधर घूमने और जानने को विवश करती थी।

पत्रकारिता के पाठ्यक्रम के दौरान एक प्रोजेक्ट बनाना था। इसके लिए मुझे किसी एक संपादक से साक्षात्कार लेना था। और जाहिर है कि राजेन्द्र अवस्थी हमारे हीरो संपादक थे। फोन करके समय लिया और एकदम समय पर मैं उनके कमरे के बाहर खड़ा था। कमरे के भीतर गया तो हमेशा की तरह चश्मे के पीछे से मुस्कुराता चेहरा और उन्मुक्त हास्य के साथ स्वागत करने की उनकी एक मनोहर शैली थी। बहुत सारे सवालों के साथ मैं श्री अवस्थी की पत्रकारिता संपादकीय कौशल लेखन से लेकर आदिवासियों पर किए गए शोधपरक काम और घोटूल ( अविवाहित आदिवासी युवा लड़के लड़कियों का नाईट क्लब) जहां पर वे आपस में जीवन साथी पसंद करते है) पर अपनी जिज्ञासा सहित बहुत कुछ जानने की मानसिक उतेजना के साथ हाजिर था।

बहुत सारे सवालों का वे सटीक और सारगभित उतर दिया। तभी वे एकाएक खिलखिला पड़े अरे अनामी आपने मुझे कितना पढा है ? मैने तुरंत कहा कि कथा कहानी उपन्यास तो एकदम नहीं पर आपके संपादकीय कालचिंतन और इधर उधर के समारोह सेमिनारों में जो आपने विचार रखे हैं उसकी करीब 20-22 कटिंग के अलावा करीब एक दर्जन आपके इंटरव्यू का कतरन भी मेरे पास है और सबों को मिलाकर आपका पूरा लेखकीय छवि मेरे पास है। मेरी बात सुनकर वे फिर हंस पड़े। उन्होने कहाकि आदिवासियों पर काम करने वाला मैं हिन्दी का पहला साहित्यकार हूं इससे जुड़े सवाल को सामने रखे ताकि उसके बहाने मैं अपनी मेहनत और कार्य को फोकस कर सकूं।

मेरे पास इस संदर्भ से जुड़े तो कोई खास सवाल और गहन जानकारी थी नहीं। मेरे हथियार डालने पर कमान उन्होने खुद थाम ली। इस बाबत तब एक तरह से जानकारी देने के लिए अवस्थी जी खुद ही कोई सवाल करते और सुविधा जनक  तरीके से आदिवासियों के जनजीवन रहन सहन पर जवाब भी देकर बताने लगे। एकदम रसिक भाव से आदिवासी महिलाओं के देह लावण्य शारीरिक सौष्ठव से लेकर अंग प्रत्यंग पर रौशनी डालते हुए मुझे भी आदिवासी सौंदर्य पर मोहित कर डाला। घोटुल और उनकी काम चेतना पर भी अवस्थी जी ने मोहक प्रकाश डाला। करीब एक घंटे तक श्री अवस्थी जी अपना इंटरव्यू खुद मेरे सामने लेते देते रहे और मैं उनकी रसीली नशीली मस्त बातों और आदिवासी महिलाओं की देह और कामुकता का रस पीता रहा। और अंत में खूब जोर से ठठाकर हंसते हुए श्री अवस्थी जी ने इंटरव्यू समापन के साथ ही अपने संग मुझे भी समोसा और चाय पीने का सुअवसर प्रदान किया।


एक बार उन्होने पूछा आपने मेरा उपन्यास जंगल के फूल पढा है ? ना कहने पर फौरन अपने बुक सेल्फ से एक प्रति निकालकर मुझे दे दी। मगर इस उपन्यास पर अपनी बेबाक राय बताने के लिए भी कहा। इस बहुचर्चित उपन्यास को मेरे ही किसी उस्ताद मित्र ने गायब कर दी। तो सालों के बाद अवस्थी जी ने मुझे इसकी दूसरी प्रति 11 सितम्बर 1997 को फिर से दी। और हस्ताक्षर युक्त यह बहुमूल्य प्रति आज भी मेरे किताबों के मेले की शोभा है। और करीब एक माह के बाद इस किताब की बेबाक समीक्षा मैने उनके दफ्तर में ही उन्हें सुना दी।

पहले तो मेरे मन में श्री अवस्थी को लेकर एक छैला वाली इमेज गहरा गयी मगर दूसरे ही पल उनकी सादगी और निश्छलता पर मन मोहित भी हुआ कि मुझ जैसे एकदम नए नवेलों के साथ भी इतनी सहजत सरलता और आत्मीयता से बात करना इनके व्यक्तित्व का सबसे सबल और मोहक पक्ष है। इस इंटरव्यू समापन के बाद उनकी ही चाय और समोसे खाते हुए मैने पूछा कि आदिवासी औरतों के मांसल देहाकार पर आपका निष्कर्ष महज एक लेखक की आंखों का चमत्कार है या आपने कभी स्पर्श सुख का भी आनंद लिया है। मेरे सवाल पर झेंपने की बजाय  एकदम उत्सुकता मिश्रित हर्ष के साथ बताया कि मैं इनलोगों के साथ कई माह तक रहा हूं तो मैं सब जान गया था।

बात को पर्दे में रखने की कला का तो आदर करने के बाद भी घोटुल प्रवास पर रौशनी डालने को कहा, तो  इस सवाल को लेकर भी वे काफी उत्साहित दिखे। उन्होने कहा कि आदिवासी समाज में कई वर्जनाओं (प्रतिबंधों) नहीं है। घोटुल भी इस समाज की आधुनिक सोच मगर सफल और स्वस्थ्य प्रेममय दाम्पत्य जीवन की सीख और प्रेरणा देती है। मैने उनसे पूछा कि आमतौर पर आदिवासी इलाकों में अधिकारियों या कर्मचारियों द्वारा अपने साथ परिवार या पत्नी को लाने जाने वालों को मूर्ख क्यों समझा या माना जाता है  ? इस सवाल पर वे हंस पड़े और सेक्स को लेकर खुलेपन या बहुतों से शारीरिक संबंध को भी समाज में बुरा नहीं माना जाना ही इनके लिए अभिशाप बन गया है।

दिल्ली  विवि के हंसराज कॉलेज की वार्षिक पत्रिका हंस को किसी तरह अपने नाम करके और प्रेमचंद की पत्रिका हंस नाम का चादर ओढ़ाकर विख्यात कथाकार राजेन्द्र यादव और हंस का दरियागंज की एक तंग गली में जब पुर्नजन्म हुआ हंस के जन्म (1986 तक) से पहले तक  तो दिल्ली के लेखक और पाठकों के बीच कादम्बिनी नामक पत्रिका का ही बड़ा जलवा था। श्री अवस्थी जी को लेकर मेरे मन में आदर तो था पर उनके रोमांस और महिला मित्रों के चर्चे भी साहित्यिक गलियारे में खूब होती थी। कभी कभी तो मैं उन लेखकों को देखकर हैरत में पड़ जाता कि जो लोग अवस्थी जी को दिल खोलकर गरियाते और दर्जनों लेखिकाओं के साथ संबंधों का सामूहिक आंखो देखा हाल सुनाकर लोगों को रसविभोर कर देते थे। मगर  इसी तरह के कई लेखक जब कभी अवस्थी जी के सामने जाते या मिलते तो एकदम दास भक्ति चारण शैली में तो बेचारे कुत्ते को भी शर्मसार कर देते दिखे। और यह देख मेरी आंखे फटी की फटी रह जाती। शहरिया कल्चर और आधुनिक संबंधों की मस्तराम शैली ने मुझे एक तरह से महानगरीय  अपसंस्कृति से अवगत कराया। वही यह भी बताया कि किसी भी खास मौके पर किसी को भी बातूनी चीरहरण कर देना या चरित्रहनन कर देना किसी को अपमानित भले लगे मगर इन बातों से लेखकीय समाज में इनकी रेटिंग का ग्राफ हमेशा बुलंदी पर ही रहता। और नाना प्रकार के गपशप के बीच अवस्थी जी एचटी दरबारके
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मोहक मदिरा को कोई न कहो बुरा


ई समाज में पता नहीं क्यों लोग दारू और दारूबाजों को ठीक नजर से नहीं देखते हैं। मेरा मानना है कि संयम के साथ किसी भी चीज के सेवन बुराई क्या है ? सामान्य लोग मानते हैं कि यह दारू मदिरा शराब से आदमी बिगड. जाता है। अपन परिवार भी कुछ इस मामले में तनी पुरानी सोच वाला ही है। खैर इस पारिवारिक बुढ़ऊंपन सोच के कारण गाहे बेगाहे दर्जनों मौकों पर अपने दारूबाज दोस्तों की नजर में मेरा जीवन बेकार एकदम अभिशाप सा हो गया। इन तगमों उलाहनों और प्रेम जताने के नाम पर दी जाने वाली मनभावन रिश्तों वाली गालियों को सहन के बाद भी दारू कभी मुझे अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर सकी। मेरी धारणा है कि दारू को कोई नहीं पीता अंतत दारू ही सबको पी जाती है। इन तमाम पूर्वाग्रहों और गंवईपन वाली धारणा के बाद भी एक घटना ने मेरी आंखे खोल दी। चाहे शराब की जितनी भी हम निंदा करे, मगर शराब कुछ मामलों में संजीवनी से कम नहीं।

सुरंजन के साथ मैं सहारनपुर में ही था।  तभी लांयस क्लब वालो नें अपने सालाना जलसे में खास तौर पर अवस्थी जी को बुलाया था। अपने परम सहयोगी सुरेश नीरव  के साथ पूरे आदर सम्मान के साथ वे सहारनपुर पधारे। कहना बेमानी होगा कि इनका किस तरह का स्वागत किया गया होगा। बढ़िया होटेल में इनको और नीरव जी को ठहराया गया। रंगारंग कार्यक्रम के बीच रात में खानपान भी था। और इनसे मिलिए कार्यक्रम में अवस्थी जी को शहर की गणमान्य महिलाओं और महिला लेखको से मिलना था। उनके दिल्ली से आते ही हमलोग की सहारनपुर में एकाध घंटे की मुलाकात हो गयी थी। नीरव जी के संग गपशप के अलावा अवस्थी जी भी हम दोनों को यहां देखकर बहुत खुश हुए।

 रंगारंग कार्यक्रम निपट गया था और इनसे मिलिए का आयोजन भी समापन के बाद खाने और पीने का दौर चलने लगा था। अवस्थी जी भी नशे मे थे। दारू का रंग दिखने लगा था। तभी एकाएक पता नहीं सुरंजन एकाएक क्यों सनक गया और करीब 25-30 मिनट तक अवस्थी जी को गालियां देने लगा । दर्जनो लांछनों के साथ सुरंजन ने अपनी अश्लील भाषा में कहे तो अवस्थी जी को बेनकाब कर दिया। चारो तरफ सन्नाटा सा हो गया। मगर किसी क्लब वालों ने सुरंजन को पकड़ने या मौके से बाहर ले जाने की कोई कोशिश नहीं की। एक तरफ कई सौ लोग खड़े होकर इस घटना को देख रहे थे और दूसरी तरफ सुरंजन के गालियों के गोले फूट रहे थे। खुमार में अवस्थी जी बारबार सुरंजन को यही कहते क्यों नाराज हो रहे हैं सुरंजन इस बार आपकी कविता कवर पेज पर छापूंगा। तो बौखलाहट से तमतमाये सुरंजन ने मां बहिन बीबी नानी बेटी आदि को दागदार करते हुए कुछ इसी तरह कि गाली बकी थी तू क्या छापेगा आदि इत्यादि अनादि।

मैं दो चार बार अवस्थी सुरंजन कुरूक्षेत्र में जाकर सुरंजन को पकड़ने रोकने की पहल की। कईयों को इसके लिए सामने आने के लिए भी कहा पर बेशर्म आयोजक अपने मुख्य अतिथि का अपने ही शहर में बेआबरू होते देखकर भी बेशर्म मुद्रा में खड़े रहे। वहीं मैं एकदम हैरान कि जिस सुरंजन के साथ मैं अपना बेड और रूम शेयर कर रहा हूं वो भीतर से इतना खतरनाक है। खाल नोंचने का भी कोई यह तरीका है भला।

इस बेशर्म वाक्या का मेरा प्रत्यक्षदर्शी होना मेरे लिए बेहदअपमान जनक सा था। इस घटना के बाद रात में ही मेरे और सुरंजन के बीच अनबन सी हो गयी और मैने जमकर इस गुंडई की निंदा की। वो मेरे उपर ही बरसने की कोशिश की। मैने देर रात को फिलहाल प्रसंग बंद रात काटी। और अगले दिन सुबह तैयार होकर होटेल जाने लगा। इस घटना के बाद सुरंजन की भी बोलती बंद थी. हमलोग होटेल पहुंचे। मेरे मन में  यह आशंका और जिज्ञासा थी कि अवस्थी जी कैसे होगे?
मगर यह क्या ? कमरे में हमलोग को देखते ही अवस्थी जी मुस्कुरा पड़े और आए आइए कहकर स्वागत किया। कमरे में नीरव जी पहले से ही विराजमान थे। हमलोग को देखते ही अवस्थीजी ने हमलोग को अपने साथ ही खिलाया चाय कॉफी में भी साथ रखा। माहौल ऐसा लग रहा था मानो कल रात कुछ हुआ ही न था या कल रात की बेइज्जती का उन्हें कोई आभास नहीं था।

हमलोग उनके साथ करीब दो घंटे तक साथ रहा और उनकी विदाई के साथ ही सुरंजन के साथ वापस दफ्तर लौटा। मेरे दिमाग में कई दिनों तक यह घटना घूमती रही। सुरंजन भी एकाध माह के अंदर ही कुछ विवाद होने के बाद विश्वमानव अखबार छोड़कर वापस दिल्ली लौट गया। मगर मैं 11 दिसम्बर 1988 तक सहारनपुर में ही रहा। एक सड़क हादसे में बुरी तरह घायल होने के बाद दिल्ली में करीब एक माह तक इलाज हुआ.। मगर जैसे आदमी अपने पहले प्यार को जीवनभर भूल नहीं पाता ठीक उसी तरह पहली नौकरी की इस शहर को 28 साल के बाद भी मैं भूल नहीं पाया हूं। आज भी इस शहर में बहुत सारे मित्र है जिनकी यादें मुझे इस शहर की याद और कभी कभार यहां जाने के लिए विवश कर देती है।

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एक प्यार ऐसा भी  


अनामी शरण बबल

यह घटना या हादसा जो भी कहें या नाम दें  यह 21 साल पहले 1995 की है। एकदम सही सही माह और दिनांक तो याद नहीं हैं।  मैं उन दिनों राष्ट्रीय सहारा में था। किसी सामयिक मुद्दे पर एक  लघु साक्षात्कार या टिप्पणी के लिए मैं शाम के समय विख्यात साहित्यकार और कादम्बिनी पत्रिका के जगत विख्यात संपादक राजेन्द्र अवस्थी जी के दफ्तर में जा पहुंचा। उनके कमरे में एक 42-43 साल की  महिला पहले से ही बैठी हुई थी। मैं अवस्थी जी से कोई 20 मिनट में काम निपटा कर जाने के लिए खड़ा हो गया। तब उन्होने चाय का आदेश एक शर्त पर देते हुए मुझसे कहा कि आपको अभी मेरा एक काम करके ही दफ्तर जाना होगा। मैने बड़ी खुशी के साथ जब हां कह दी तो वे मेरे साथ में बैठी हुई महिला से मेरा परिचय कराया। ये बहुत अच्ची लेखिका के साथ साथ बहुत जिंदादिल भी है। ये अपने भाई के साथ दिल्ली आई हैं पर इनके भाई कहीं बाहर गए हैं तो आप इनके साथ मंदिर मार्ग के गेस्टहाउस में जाकर इनको छोड़ दीजिए। ये दिल्ली को ज्यादा नहीं जानती है। श्रीअवस्थी जी के आदेश को टालना अब मेरे लिए मुमकिन नहीं था। तब अवस्थी जी ने महिला से मेरे बारे मे कहा कि ये पत्रकार और साहित्य प्रेमी  लेखक हैं। अपनी किताबें इनको देंगी तो ये बेबाक समीक्ष भी अपने पेपर में छपवा देंगे। उन्होने मुस्कन फेंकते हुए किताबें फिर अगली बार देने का वादा की। अवस्थी जी की शर्तो वाली चाय आ गयी तो हमलोग चाय के बाद नमस्कार की और महिला लेखिका भी मेरे साथ ही कमरे से बाहर हो गयी।

याद तो मुझे लेखिका के नाम समेत शहर और राज्य का भी है मगर नाम में क्या रखा है । हिन्दी क्षेत्र की करीब 42-43 साल की लेखिका को लेकर मैं हिन्दुस्तान टाईम्स की बिल्डिंग से बाहर निकला तो उन्होने कस्तूरबा गांधी मार्ग और जनपथ को जोड़ने वाली लेन तक पैदल चलने के लिए कहा। उन्होने बताया कि यहां की कुल्फी बर्फी बहुत अच्छी होती है, क्या तुमने कभी खाई है ।  इस पर मैं हंस पड़ा दिल्ली में रहता तो मैं हूं और कहां का क्या मशहूर है यह सब जानती आप है। मैं तो कभी सुना भी नहीं थ। चलो यार आज मेरे साथ खाओ जब भी इस गली से गुजरोगे न तो तुमको मेरी याद जरूर आएगी। मैं भी इनके कुछ खुलेपन पर थोड़ा चकित था। फिर भी मैंने मजाक में कहा कि आप तो अवस्थी जी के दिल में रहती है उसके बाद भला हम छोटे मोटे लेखकों के लिए कोई जगह कहां है। इस पर वे मुस्कुराती रही और उनके सौजन्य से कुल्फी का मजा लिया गया। बेशक इस गली से हजार दफा गुजरने के बाद भी प्रेम मोटर्स की तरफ जाने वाली गली के मुहाने पर लगी मिठाई की छोटी सी दुकान की कुल्फी से अब तक मैं अनभिज्ञ ही था।

 कस्तूरबा गांधी मार्ग से ही हमलोग ऑटो से मंदिर मार्ग पहुंचे ऑटो का किराया उन्होने दिया और हमलोग मंदिर कैंपस में बने गेस्टहाउस में आ गए। एक कमरे का ताला खोलकर वे अंदर गयी। मैं बाहर से ही नमस्ते करके जब मैं जाने की अनुमति मांगी तो वे चौंक सी गयी। अरे अभी कहां अभी तो कुछ पीकर जाना होगा। अभी तो न नंबल ली न नाम जानती हूं । चाय लोगे या कुछ और...। मै उनको याद दिलाय कि चाय तो अभी अभी साथ ही पीकर आए हैं। कुल्फी का स्वाद मुहं में है । अभी कुछ नहीं बस जाने की इजाजत दे। लौटने के प्रति मेरे उतावलेपन से वे व्यग्र हो गयी। अरे अभी तो तुम पहले बैठो फिर जाना तो है ही। मेरे बारे में तो कुछ जाना ही नहीं। थोड़ी बात करते हैं तो फिर कभी दिल्ली आई तो तुमको बता कर बुला लूंगी। उन्होने अपने शहर में आने का भी न्यौता भी इस शर्त पर दी कि मेरे घर पर ही रूकना होगा। मैने उनसे कहा कि इतना दूर कौन जाएगा और ज्यादा घूमने में मेरा दिल नहीं लगता।

मैं कमरे में बैठा कुछ किताबें देख रह था। तभी वे न जाने कब बाथरूम में गयी और कपड़ा चेंज कर नाईटी में बाहर आयी। बाथरुम से बाहर आते ही बहुत गर्मी है दिल्ली की गरमी सही नहीं जाती कहती हुई दोनों हाथ उठाकर योग मुद्रा में खुद को रिलैक्स करने लगी। मैं पीछे मुड़कर देखा तो गजब एक तौलिय हाथ में लिए पूरे उतेजक हाव भाव के साथ मौसम को कोस रही थी। मैने जब उनकी तरफ देखने लगा तो वे पीछे मुड़कर पानी लगे बदन पर तौलिया फेरने लगी। अपनापन जताते हुए उन्होने बैक मुद्रा मे ही कहा यदि चाहो तो बबल तुम भी बाथरूम में जाकर हाथ मुंह धोकर फ्रेश हो जाओ। मैं इस लेखिका के हाव भाव को देखते ही मंशा भले ना समझा हो पर इतनी घनिष्ठता पर एकदम हैरान सा महसूस करने लगा था। मैने फौरन कहा अरे नहीं नहीं हमलोग को तो दिल्ली के मौसम की आदत्त है । मैं एकदम ठीक हूं। यह कहकर मैं फिर से बेड पर अस्त व्यस्त रखी पत्र पत्रिकों को झुककर देखने लगा।
बिस्तर पर झुककर बैठा मैं किसी पत्रिकाओं को देख ही रहा था कि एकाएक वे एकाएक मुझ पर जानबूझ कर गिरने का ड्रामा किया या पैर फिसलने का बहाना गढ़ लिया पर एक बारगी पेट के बल बिस्तर पर पूरी तरह मैं क्या गिरा कि उनका पूरा बदन ही मेरे पीठ के उपर आ पड़ा। एकाएक इस हमले के लिए मैं कत्तई तैयार नहीं था। एक दो मिनट तो मेरे पूरे शरीर पर ही अपने पूरे बदन का भार डालकर संभलने का अभिनय करने लगी। उनकी बांहें पीछे से ही मेरे को पूरे बल के साथ दबोचे थी। दो चार पल में ही मैं संभल सा गया। नीचे गिरने और अपने उपर कम से कम 70-72 किलो के भारी वजन को पीछे धकेलते हुए जिससे वे पेट के बल बिस्तर पर उलट सी गयी। दो पल में ही मैं उनको अपने से दूर धकेलते हुए बिस्तर से उठ फर्श कहे या जमीन पर खड़ा हो गया। वे दो चार पल तो बिस्तर पर निढाल पड़ी रही। कुछ समय के बाद भी उठने की बजाय बिस्तर पर ही लेटी  मुद्रा में ही कहा मैं अभी देखती हूं किधर चोट लगी है तुम्हें। बारम्बार गिरने के बारे में असंतुलित होने का तर्क देती रही। उनको उसी हाल में छोड़कर मैं कुर्सी पर पैर फैलाकर बैठा उनके खड़े होने का इंतजार करता रहा।

 मैं सिगरेट तो पीता नहीं हूं पर टेबल पर रखे सिगरेट पैकेट को देखकर मैने एक सिगरेट सुलगा ली और बिना कोई कश लिए अपने हाथों में जलते सिगरेट को घूमाता रहा। जब आधी से ज्यादा सिगरेट जल गयी तो फिर मैं यह कहते हुए बाकी बचे सिगरेट को एस्ट्रे मे फेंक दिया माफ करना सिगरेट भाई कि मैं पीने के लिए नहीं बल्कि अपने हाथ में सुलगते सिगरेट को केवल देखने के लिए ही तेरा हवन कर रहा था। वे खड़ी हो गयी और मेरे बदन पर हाथ फेरते हुए व्यग्रता से बोली जरा मैं देखूं कहीं चोट तो नहीं लगी है। मैने रूखे स्वर में कहा कि बस बच गया नहीं तो घाव हो ही जाता।  मेरी बात सुनकर वे हंसने लगी। चोट से तो घाव ठीक हो जाते है यह कहते हुए उन्होने फिर एक बार फिर मुझे आलिंगनबद्ध् करने की असफल कोशिश की। मैने जोर से कहा आपका दिमाग खराब है क्या?  क्या कर रही हैं आप। एकदम सीधे बैठे और कोई शरारत नहीं। आपको शर्म आनी चाहिए कि अभी मिले 10 मिनट भी नहीं हुए कि आप अपनी औकात पर आ गयी।

अरे कुछ नहीं तो अवस्थी जी का ही लिहाज रखती। यदि उन्होने कहा नहीं होता तो क्या मैं किसी भी कीमत पर आपके साथ आ सकता था।  मैं अपनी मर्यादा के चलते किसी का भी रेप नहीं कर सकता पर मैं किसी को अपना रेप भी तो नहीं करने दे  सकता । यह सुनकर वे खिलखिला पड़ी, यह रेप है क्या? मैने सख्त लहजे में कहा कि क्या रेप केवल आप औरतों का ही हो सकता है कि सती सावित्री देवी कुलवंती बनकर जमाने को सिर पर उठा ले । यह शारीरिक हिंसा क्या मेरे लिए उससे कम है। यह सब चाहत मन और लगाव के बाद ही संभव होता है। जहां पर प्यार नेह का संतोष और प्यार की गरिमा संतुष्ट होती है। आप तो इस उम्र में भी एकदम कुतिया की तरह मुंह मारती है। मेरे यह कहते ही वे बौखला सी गयी। तमीज से बात करो मैं कॉलेज में रीडर हूं और तुम बकवास किए जा रहे हो। मैं पुलिस भी बुला सकती हूं। मैने कहा तो फिर रोका किसने है मैं तो खुद दिल्ली का क्राईम रिपोर्टर हूं। कहिए किसको बुलाकर आपको जगत न्यूज बनवा दूं। मैने उनसे कहा कि कल मैं अवस्थी जी को यह बात जरूर बताउंगा। बताइए क्या इरादा है पुलिस थाना मेरे साथ चलेंगी या फिर मैं अभी थोड़ी देर तक और बैटकर आपको नॉर्मल होने का इंतजार करूं। मेरे मन में भी भीतर से डर था कि कहीं यह लेखिका महारानी  सनक गयी और किसी पुलिस वाले को बुला ली या मेरे जाने के बाद भी बुला ली तो हंगामा ही खड़ा हो जाएगा,
 मगर पत्रकार होने का एक अतिरिक्त आत्मविश्वास हमेशा और लगभग हर मुश्किल घड़ी में संबल बन जाता है। सिर आई बला को टाल तू की तर्ज पर मैने उनको सांत्वना दी। उन्होने अपना सूर बदलते हुए कहा कि तू मेरा दोस्त है न ?  जब कभी भी मैं दिल्ली आई और तुमसे मिलना चाही तो तुम आओगे न ? मैने भी हां हूं कहकर भरोसे में लिया। फिर मैने कहा कि खाली ही रखेंगी कि अब कुछ चाय आदि मंगवाएंगी। मैने चाय पी और चाय लाने वाले छोटू का नाम पूछा और 10 रूपए टीप दे दी ताकि वो गवाह की तरह भी कभी आड़े समय काम आ सके।  फिर मैने उनसे कहा बाहर तक चलिए ऑटो तो ले लूं। मैने ऑटो ले ली और मेरे बैठते ही उन्होने ऑटो वाले को 50 रूपये का नोट थमा दी। मेरे तमाम विरोध के बाद भी वे बोली कि आप मुझे छोडने आए थे तो यह मेरा दायित्व है।

बात सहज हो जाने के बाद अगले दिन मैं इस उहापोह में रहा कि कल की घटना की जानकारी श्री अवस्थी जी को दूं या नहीं। मगर दोपहर में हम रिपोर्टरों की डेली मीटिंग खतम् होते ही मैं पास वाले हिन्दुस्तान टाईम्स की ओर चल पड़ा। कादिम्बनी के संपादक राजेन्द्र अवस्थी के केबिन के बाहर था। बाहर से पता चला कि वे खाना खा रहे हैं तो मुझे बाहर रुककर इंतजार करना ज्यादा नेक लगा, नहीं तो इनके भोजन का स्वाद भी खराब हो जाता। खाने की थाली बाहर आते ही मैं उनके कमर में था। मेरे को देखते ही मोहक मुस्कान के साथ हाल चाल पूछा और एक कप चाय और ज्यादा लाने को कहा। चाय पीने तक तो इधर उधर की बातें की, मगर चाय खत्म होते ही कल एचटी से बाहर निकलने से लेकर मंदिर मार्ग गेस्टहाउस में शाम की घटना का आंखो देखा हाल सुना दिया। मेरी बात सुनकर वे शर्मसार से हो गए। उनकी गलती के लिए एकदम माफी मांगने लगे। तो यह मेरे लिए बड़ी उहापोह वाली हालत बन गयी। मैने हाथ जोड़कर कहा कि सर आप हमारे अभिभावक की तरह है। मैं आपके प्यार और स्नेह का पात्र भी हूं लिहाजा यह बताना जरूरी लगा कि पता नहीं वे कल किस तरह कोई कहानी गढकर मेरे बारे में बात करे। मैने अवस्थी जी को यह भी बताया कि मैंने कल शाम को ही उनको कह दिया था कि इस घटना की सूचना अवस्थी जी को मैं जरूर दूंगा। बैठे बैठे अवस्थी जी मेरे हाथओं को पकड़ लिए और पूछा कि आपने इस घटना को किसी और से भी शेयर किया है क्या ? मेरे ना कहे जाने पर अवस्थी जी ने लगभग निवेदन स्वर में कहा कि अनामी इसको तुम अपने तक ही रखना प्लीज।  मैं कुर्सी से खड़ा होकर पूरे आदर सम्मान दर्शाते हुए कहा कि आप इसके लिए बेफिक्र रहे सर।
इस घटना के कोई दो साल के बाद अवस्थीजी का मेरे पास फोन आया कहां हो अनामी ? उनके फोन पर पहले तो मैं चौंका मगर संभलते हुए कहा दफ्तर में हूं सर कोई सेवा। ठठाकर हंसते हुए वे बोले बस फटाफट आप मेरे कमरे में आइए मैं चाय पर इंतजार कर रहा हूं। उनके इस प्यार दुलार भरे निमंत्रण को भला कैसे ठुकराया जा सकता था। मैं पांच मिनट के अंदर अंबादीप से निकल कर एचटी हाउस में जा घुसा। कमरे में घुसते ही देखा कि वही मंदिर मार्ग वाली महिला लेखिका पहले से बैठी थी। मुझे देखते ही वे अपनी कुर्सी से उठकर खड़ी होकर नमस्ते की, तो अवस्थी जी मुस्कुराते हुए मेरा स्वागत किया। उन्होने कहा कि माफ करना अनामी मैने तुम्हें नहीं बुलाया बल्कि ये बहुत शर्मिंदा थी और तुमको एक बार देखना चाहती थी। अवस्थी जी की इस सफाई पर भला मैं क्या कहता। मैने हाथ जोड़कर नमस्ते की और हाल चाल पूछकर बैठ गया। वे बोली क्या तुम नाराज हो अनामी ? मैने कहा कि मैं किसी से भी नाराज नहीं होता। जिसकी गलती है वो खुद समझ ले बूझ ले यही काफी है । मैं तो एक सामान्य सा आदमी हूं नाराज होकर भला मैं अपना काम और समय क्यों खराब करूंगा?  करीब आधे घंटे तक बातचीत की और दोनों से अनुमति लेकर बाहर जाने लगा तो अवस्थी जी ने फिर मुझे रोका और महिला लेखिका को बताया कि अनामी को मैने ही कहा था कि इस घटना को तीन तक ही रहने देना। इस पर मैं हंसने लगा सर यदि आप मुझे नहीं रोकते तो 10-20 लोग तक तो यह बात जरूर चली जाती पर सब मेरे को भी तो दोषी मान सकते थे। मैने किसी को यह बात ना कहकर अपनी भी तो रक्षा की। इस पर एक बार फिर खड़ी होकर लेखिका ने मेरे प्रति कृतज्ञता जाहिर की, तो मैं उनके सामने जा हाथ जोड़कर नमस्ते की और इसे भूल जाने का आग्रह किया।
इस घटना के बाद अवस्थी जी करीब 13 साल तक हमसबों के बीच रहे। निधन हुए भी अब करीब आठ साल हो गए और लेखिका महोदया अब कहां पर हैं या नहीं या रिटायर होकर कहां पर है यह सब केवल भगवान जानते है। तब मुझे लगा लगा कि करीब 21 साल पहले की इस घटना को अब याद कर लेने में भी कोई हर्ज नहीं है। तो यह थी एक घटना जहां पर सावधान और बुद्धि कौशल साहस को सामने रखकर ही खुद को बचाया जा सकता था या बदनामी और खुद अपने रेप से खुद को किसी तरह बचाया ।      



























बबलनामा






इसमें कविताएं छपने के बाद मेरे पूरे परिवार में यह मान लिया गया कि कवि होकर यह देव वाला अपनी मां बाप का लाडला बबल बिगड़ गया। इससे पहले इसी साल 1985 में ही मेरे संपादन में एक काव्य संकलन संभावना के स्वर भी छपकर दिल्ली से आई थी। तब भी यही माना गया था कि कविता लिखने वाला बंदा जीनव में कुछ नहीं कर सकता। एक तरफ अपनों और आस पास के लोगों की यह उलाहना और दूसरी तरफ मेरे मां पापा की यह धारणा कि मेरा बेटा कुछ पढ लिख ही तो रहा है कोई चोरी लफंगई तो नहीं कर रहा। खासकर नानी पापा और मां हमेशा कहती थी कि लोगों की बातों पर ध्यान मत देना अपने लेखन को निखारना और कलम से ही इसका जवाब देना है। यह तो मैं नहीं जानता कि मैं कहां पर हूं पर कुछ सुदंरतम मौकों के लिए मैं समय पर ठोस फैसला नहीं कर सका नहीं तो शायद कुछ और जमाना होता मगर ऐसा नहीं कर पाने का भी मन मे कोई मलाल क्यों रखा जाए, शायद जिंदगी इसी का नाम है दोस्तों।

1 टिप्पणी:

  1. padh kar pitaji ki yaad taza hogai. Rajendra awasthy mere pitaji ke bare mai padhkar bhut acha lga. sambhav ho to sampark krein. SS Awasthy 9810157933

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