एक बस्ती में गालिब, खुसरो और रहीम
मिर्जा गालिब, अमीर खुसरो और रहीम।
विवेक शुक्ल
तीनो कलम के धनी। संयोग देखिए कि राजधानी के निजामउद्दीन क्षेत्र के कोलाहल से दूर तीनों चिरनिद्रा में हैं बहुत कम दूरी पर। शायद ही किसी और स्थान पर आपको इस तरह से तीन लेखक मिलें।यूं मिर्जा गालिब((जन्म 27 दिसंबर 1797) का जीवन पुरानी दिल्ली की गलियों में ही गुजरा। पर 15 फरवरी 1869 को गालिब ने आखिरी सांस ली तो उन्हें दफनाया गया निजामुद्दीन बस्ती में। उर्दू शायरी गालिब के बिना अधूरी है। “उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़, वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है...” अब भी गालिब की शायरी के शैदाई उपर्युक्त शेर को बार-बार पढ़ते हैं। उनका एक और शेर पढ़ें।
“रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए...धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए...”गालिब के कुल 11 हजार से अधिक शेर जमा किये जा सके हैं। उनके खतों की तादाद 800 के करीब थी। और दरबारी शायर गालिब का जब-जब जिक्र होगा तो उनके इस शेर को जरूर सुनाया जाएगा। “हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले...बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले...” वे फक्कड़ शायर थे। गालिब के हर शेर और शायरी में कुछ अपना सा दर्द उभरता है।“हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन... दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है...” इतने नामवर शायर की कब्र को कुछ दशक पहले तक कोई देखने वाला भी नहीं था। हाल-बेहाल पड़ी थी। फिर दिल्ली में जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी के संस्थापक हकीम अब्दुल हामिद साहब ने अजीम शायर की कब्र को नए सिरे से विकसित करवाया ताकि उनके चाहने वाले वहां पर जाकर कुछ देर उनकी शायरी के माध्यम से उनका स्मरण कर सकें।
ग़ालिब अपनी लेखनी से जो कमाल कर गये वो शायद ही इतिहास में कोई और शायर कर पाया हो, और शायद ही भविष्य में कोई शख्स ऐसी कालजयी कृतियों के निशां छोड़ पाये। ग़ालिब के लेखन की खास बात ये ही है कि उनके लिखे शेर अब भी ताजा-तरीन लगते हैं।दौर बदलते गये लेकिन ग़ालिब की शायरी समाज को वैसे ही आईना दिखाती रही। एकऔर शेर गालिब का जिसे हम रोज सुनते-सुनाते हैं, “इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया,
वरना हम भी आदमी थे काम के।”
खुसरो और कठिन है डगर पनघट की
और चचा गालिब से ही सटी है हज़रत अमीर ख़ुसरो की मजार। बस चंदेक कदम की दूरी पर है। अमीर ख़ुसरो अनेक खूबियों के मालिक थे और उनकी शख़्सियत बहुत बहुआयमी थी। वो शायर, सियासतदां, सूफ़ी और न जाने क्या-क्या थे।
वो ख़ुदअपने बारे में लिखते हैं:" तुर्क़ हिंदुस्तानियम मन हिंदवीगोयम जबाब " यानी "मैं तुर्क हिंदुस्तानी हूं और हिंदीबोलता और जानता हूं।"
अमीर ख़ुसरो ने इस ज़ुबान को नया रंग-रूप दिया।एक तरफ़ जहाँ उन्होंने अपनी शायरी में फ़ारसी का इस्तेमाल करते हुए लिखा "ज़ेहाले मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराये नैना बनाये बतियां, सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूं अँधेरी रतियाँ।" वहीँ दूसरी तरफ उन्होंने अवधी और ब्रजभाषा का इस्तेमाल करते हुए लिखा "छाप तिलक सब ले ली री मोसे नैना मिलाई के" और "बहुत कठिन है डगर पनघट की" जैसी शायरी क़ी।
अमीर ख़ुसरो ने संगीत की दुनियाको दो ऐसे नायाब तोहफ़े दिएजिन्हें सितार और तबला के नाम से जाना जाता है।अमीर ख़ुसरो ने फ़ारसी और हिन्दी में शायरी की।
उन्होंने अनगिनत दोहे और गीत लिखे। हज़रत अमीर ख़ुसरो को "बाबा-ए-कव्वाली" भी कहा जाता है जिन्होंने मौसीक़ी के इस सूफ़ीफन को नया अंदाज़ दिया और भारत-पाकिस्तान की शायदही कोई ऐसी दरगाह हो जहां सालाना उर्स के दौरान अमीर ख़ुसरो का कलाम न पढ़ा जाता हो। उर्स के आख़िरी दिन यानी कुल के दिन अमीर ख़ुसरो का रंग तो लाज़िमी तौरपर गाया जाता है।
“आज रंग है ऐ मां रंग है री,मेरे महबूब के घर रंग है री।सजन मिलावरा, सजन मिलावरा, मोरे आंगन को...”
पंडित जवाहर लाल नेहरू अपनी किताब डिस्कवरी आफ इंडिया में लिखते हैं: " अमीर ख़ुसरो फ़ारसी के अव्वल दर्जे के शायर थे और संस्कृत भी बख़ूबी जानते थे। वे महान संगीतज्ञ थे जिन्होंने हिंदुस्तानी संगीत में कई प्रयोग किए और सितार ईजाद किया। अमीर ख़ुसरो ने हिंदुस्तान की तारीफ़ में क़सीदे पढ़े। उन्होंने भारत के अलजबरा के बारे में, साइंस के बारे में, और फलों केबादशाह आम और ख़रबूज़े के बारे में खूब लिखा।”
अमीर ख़ुसरो की पैदाइश उत्तर प्रदेश के एटा ज़िलेके पटियाली गांव में गंगा किनारे सन् 1253 ईस्वी को हुई थी। अमीरखुसरो 4 बरस की उम्र में दिल्ली आ गए और 8 बरस कीउम्र में मशहूर सूफ़ी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया केमुरीद बन गए। कहा जाता है 16-17 बरस की उम्र मेंअमीर खुसरो मशहूर शायर हो चुके थे और दिल्ली केमुशायरों में अपनी धाक जमाने लगे थे।
देनहार कोउ और है
और अब चलते हैं रहीम के मकबरे में उन्हें नमन करने। ये स्थान उन जगहों से सटा है जहां पर गालिब और खुसरो भी हैं।क्या आपको ये बताने की आवश्यकता है कि निम्नलिखित दोहे के रचयिता कौन हैं? “एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय॥”
“देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥”रहीम(जन्म 17 दिसम्बर 1556) का पूरा नाम अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना था। उनके पिता बैरम ख़ाँ मुगल बादशाह अकबर के संरक्षक थे। रहीम जब पैदा हुए तो बैरम ख़ाँ की आयु 60 वर्ष हो चुकी थी। कहा जाता है कि रहीम का नामकरण अकबर ने ही किया था। वे अकबर के नव रत्नों में थे। वीरता के साथ-साथ रहीम में कविता लिखने की अदभुत क्षमता थी।
रहीम पर गहन अध्ययन कर रहे डा. मोहसिन खान कहते हैं कि रहीम ने अपनी काव्य रचना द्वारा हिन्दी साहित्य की जो सेवा की वह अद्भुत है। रहीम की कई रचनाएँ प्रसिद्ध हैं जिन्हें उन्होंने दोहों के रूप में लिखा।रहीम का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। वे मुसलमान होकर भी कृष्ण भक्त थे। रहीम ने अपने काव्य में रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को लिया है। वे अपने को को "रहिमन" कहकर भी सम्बोधित किया है। इनके काव्य में नीति, भक्ति, प्रेम और श्रृंगार का सुन्दर समावेश मिलता है। पूरे हिन्दी साहित्य में रहीम के जैसा विलक्षण व्यक्तित्त्व किसी भी कवि का दिखाई नहीं देता है, उनमें एक साथ कई अद्भुत गुणों का समागम बड़ी सहजता के साथ देखा जा सकता है। एक ओर वे तलवार के धनी हैं, तो दूसरी ओर कलम के धनी हैं, एक हाथ में तलवार को थामे रखा है, तो दूसरे हाथ में कलम को साधे हुए हैं। वे साम्राज्य के विस्तारकर्ता हैं। एक ओर अपनी मूल भाषा अरबी, फ़ारसी और तुर्की में रचना करते हैं, तो दूसरी ओर अन्य भारतीय भाषाओं को भी आत्मसात किए हुए हैं और श्रेष्ठ रचनाएँ देते हैं। एक ओर अपार धन-संपदा के मालिक हैं, तो दूसरी ओर उनके समय में उनसे बड़ा कोई दानी नहीं है। एक ओर वे मुस्लिम संस्कृति से बंधे हुए हैं, तो दूसरी ओर हिन्दू धर्म और संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था भीतर सँजोए हुए हैं। एक ओर वे कुशल नीतिकार हैं तो दूसरी कूटनीति भी उनमें मौजूद है।
रहीम ने अपने अनुभवों को जिस सरल शैली में अभिव्यक्त किया है वह वास्तव में अदभुत है। उनकी कविताओं, छंदों, दोहों में पूर्वी अवधी, ब्रज भाषा तथा खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।
तो अब आप जब राजधानी के निजामउद्दीन क्षेत्र से गुजरें तो गालिब, खुसरो और रहीम को नमन करना नहीं भूलें।
Ps- i AM INSPIRED BY Dr. Mohsin Khan ( डा मोहसिन खान) and Vidhyut Maurya to write this piece. Both are like my younger brothers. And can i forget the name of Gillian Wright ?
मिर्जा गालिब, अमीर खुसरो और रहीम।
विवेक शुक्ल
तीनो कलम के धनी। संयोग देखिए कि राजधानी के निजामउद्दीन क्षेत्र के कोलाहल से दूर तीनों चिरनिद्रा में हैं बहुत कम दूरी पर। शायद ही किसी और स्थान पर आपको इस तरह से तीन लेखक मिलें।यूं मिर्जा गालिब((जन्म 27 दिसंबर 1797) का जीवन पुरानी दिल्ली की गलियों में ही गुजरा। पर 15 फरवरी 1869 को गालिब ने आखिरी सांस ली तो उन्हें दफनाया गया निजामुद्दीन बस्ती में। उर्दू शायरी गालिब के बिना अधूरी है। “उनके देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़, वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है...” अब भी गालिब की शायरी के शैदाई उपर्युक्त शेर को बार-बार पढ़ते हैं। उनका एक और शेर पढ़ें।
“रोने से और इश्क़ में बे-बाक हो गए...धोए गए हम इतने कि बस पाक हो गए...”गालिब के कुल 11 हजार से अधिक शेर जमा किये जा सके हैं। उनके खतों की तादाद 800 के करीब थी। और दरबारी शायर गालिब का जब-जब जिक्र होगा तो उनके इस शेर को जरूर सुनाया जाएगा। “हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले...बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले...” वे फक्कड़ शायर थे। गालिब के हर शेर और शायरी में कुछ अपना सा दर्द उभरता है।“हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन... दिल के बहलाने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है...” इतने नामवर शायर की कब्र को कुछ दशक पहले तक कोई देखने वाला भी नहीं था। हाल-बेहाल पड़ी थी। फिर दिल्ली में जामिया हमदर्द यूनिवर्सिटी के संस्थापक हकीम अब्दुल हामिद साहब ने अजीम शायर की कब्र को नए सिरे से विकसित करवाया ताकि उनके चाहने वाले वहां पर जाकर कुछ देर उनकी शायरी के माध्यम से उनका स्मरण कर सकें।
ग़ालिब अपनी लेखनी से जो कमाल कर गये वो शायद ही इतिहास में कोई और शायर कर पाया हो, और शायद ही भविष्य में कोई शख्स ऐसी कालजयी कृतियों के निशां छोड़ पाये। ग़ालिब के लेखन की खास बात ये ही है कि उनके लिखे शेर अब भी ताजा-तरीन लगते हैं।दौर बदलते गये लेकिन ग़ालिब की शायरी समाज को वैसे ही आईना दिखाती रही। एकऔर शेर गालिब का जिसे हम रोज सुनते-सुनाते हैं, “इश्क ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया,
वरना हम भी आदमी थे काम के।”
खुसरो और कठिन है डगर पनघट की
और चचा गालिब से ही सटी है हज़रत अमीर ख़ुसरो की मजार। बस चंदेक कदम की दूरी पर है। अमीर ख़ुसरो अनेक खूबियों के मालिक थे और उनकी शख़्सियत बहुत बहुआयमी थी। वो शायर, सियासतदां, सूफ़ी और न जाने क्या-क्या थे।
वो ख़ुदअपने बारे में लिखते हैं:" तुर्क़ हिंदुस्तानियम मन हिंदवीगोयम जबाब " यानी "मैं तुर्क हिंदुस्तानी हूं और हिंदीबोलता और जानता हूं।"
अमीर ख़ुसरो ने इस ज़ुबान को नया रंग-रूप दिया।एक तरफ़ जहाँ उन्होंने अपनी शायरी में फ़ारसी का इस्तेमाल करते हुए लिखा "ज़ेहाले मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराये नैना बनाये बतियां, सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूं अँधेरी रतियाँ।" वहीँ दूसरी तरफ उन्होंने अवधी और ब्रजभाषा का इस्तेमाल करते हुए लिखा "छाप तिलक सब ले ली री मोसे नैना मिलाई के" और "बहुत कठिन है डगर पनघट की" जैसी शायरी क़ी।
अमीर ख़ुसरो ने संगीत की दुनियाको दो ऐसे नायाब तोहफ़े दिएजिन्हें सितार और तबला के नाम से जाना जाता है।अमीर ख़ुसरो ने फ़ारसी और हिन्दी में शायरी की।
उन्होंने अनगिनत दोहे और गीत लिखे। हज़रत अमीर ख़ुसरो को "बाबा-ए-कव्वाली" भी कहा जाता है जिन्होंने मौसीक़ी के इस सूफ़ीफन को नया अंदाज़ दिया और भारत-पाकिस्तान की शायदही कोई ऐसी दरगाह हो जहां सालाना उर्स के दौरान अमीर ख़ुसरो का कलाम न पढ़ा जाता हो। उर्स के आख़िरी दिन यानी कुल के दिन अमीर ख़ुसरो का रंग तो लाज़िमी तौरपर गाया जाता है।
“आज रंग है ऐ मां रंग है री,मेरे महबूब के घर रंग है री।सजन मिलावरा, सजन मिलावरा, मोरे आंगन को...”
पंडित जवाहर लाल नेहरू अपनी किताब डिस्कवरी आफ इंडिया में लिखते हैं: " अमीर ख़ुसरो फ़ारसी के अव्वल दर्जे के शायर थे और संस्कृत भी बख़ूबी जानते थे। वे महान संगीतज्ञ थे जिन्होंने हिंदुस्तानी संगीत में कई प्रयोग किए और सितार ईजाद किया। अमीर ख़ुसरो ने हिंदुस्तान की तारीफ़ में क़सीदे पढ़े। उन्होंने भारत के अलजबरा के बारे में, साइंस के बारे में, और फलों केबादशाह आम और ख़रबूज़े के बारे में खूब लिखा।”
अमीर ख़ुसरो की पैदाइश उत्तर प्रदेश के एटा ज़िलेके पटियाली गांव में गंगा किनारे सन् 1253 ईस्वी को हुई थी। अमीरखुसरो 4 बरस की उम्र में दिल्ली आ गए और 8 बरस कीउम्र में मशहूर सूफ़ी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया केमुरीद बन गए। कहा जाता है 16-17 बरस की उम्र मेंअमीर खुसरो मशहूर शायर हो चुके थे और दिल्ली केमुशायरों में अपनी धाक जमाने लगे थे।
देनहार कोउ और है
और अब चलते हैं रहीम के मकबरे में उन्हें नमन करने। ये स्थान उन जगहों से सटा है जहां पर गालिब और खुसरो भी हैं।क्या आपको ये बताने की आवश्यकता है कि निम्नलिखित दोहे के रचयिता कौन हैं? “एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय॥”
“देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥”रहीम(जन्म 17 दिसम्बर 1556) का पूरा नाम अब्दुल रहीम ख़ानख़ाना था। उनके पिता बैरम ख़ाँ मुगल बादशाह अकबर के संरक्षक थे। रहीम जब पैदा हुए तो बैरम ख़ाँ की आयु 60 वर्ष हो चुकी थी। कहा जाता है कि रहीम का नामकरण अकबर ने ही किया था। वे अकबर के नव रत्नों में थे। वीरता के साथ-साथ रहीम में कविता लिखने की अदभुत क्षमता थी।
रहीम पर गहन अध्ययन कर रहे डा. मोहसिन खान कहते हैं कि रहीम ने अपनी काव्य रचना द्वारा हिन्दी साहित्य की जो सेवा की वह अद्भुत है। रहीम की कई रचनाएँ प्रसिद्ध हैं जिन्हें उन्होंने दोहों के रूप में लिखा।रहीम का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। वे मुसलमान होकर भी कृष्ण भक्त थे। रहीम ने अपने काव्य में रामायण, महाभारत, पुराण तथा गीता जैसे ग्रंथों के कथानकों को लिया है। वे अपने को को "रहिमन" कहकर भी सम्बोधित किया है। इनके काव्य में नीति, भक्ति, प्रेम और श्रृंगार का सुन्दर समावेश मिलता है। पूरे हिन्दी साहित्य में रहीम के जैसा विलक्षण व्यक्तित्त्व किसी भी कवि का दिखाई नहीं देता है, उनमें एक साथ कई अद्भुत गुणों का समागम बड़ी सहजता के साथ देखा जा सकता है। एक ओर वे तलवार के धनी हैं, तो दूसरी ओर कलम के धनी हैं, एक हाथ में तलवार को थामे रखा है, तो दूसरे हाथ में कलम को साधे हुए हैं। वे साम्राज्य के विस्तारकर्ता हैं। एक ओर अपनी मूल भाषा अरबी, फ़ारसी और तुर्की में रचना करते हैं, तो दूसरी ओर अन्य भारतीय भाषाओं को भी आत्मसात किए हुए हैं और श्रेष्ठ रचनाएँ देते हैं। एक ओर अपार धन-संपदा के मालिक हैं, तो दूसरी ओर उनके समय में उनसे बड़ा कोई दानी नहीं है। एक ओर वे मुस्लिम संस्कृति से बंधे हुए हैं, तो दूसरी ओर हिन्दू धर्म और संस्कृति के प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था भीतर सँजोए हुए हैं। एक ओर वे कुशल नीतिकार हैं तो दूसरी कूटनीति भी उनमें मौजूद है।
रहीम ने अपने अनुभवों को जिस सरल शैली में अभिव्यक्त किया है वह वास्तव में अदभुत है। उनकी कविताओं, छंदों, दोहों में पूर्वी अवधी, ब्रज भाषा तथा खड़ी बोली का प्रयोग किया गया है।
तो अब आप जब राजधानी के निजामउद्दीन क्षेत्र से गुजरें तो गालिब, खुसरो और रहीम को नमन करना नहीं भूलें।
Ps- i AM INSPIRED BY Dr. Mohsin Khan ( डा मोहसिन खान) and Vidhyut Maurya to write this piece. Both are like my younger brothers. And can i forget the name of Gillian Wright ?
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