विख्यात गीतकार संतोषानंद ने अनामी शरण बबल से कहा------
आखिरी वक्त है,
इम्तहान देने आया हूं-- संतोषानंद
दिल्ली जिनकी ताकत
है और दिल्ली ही जिनकी सबसे बड़ी कमजोरी रही हो. दिल्ली से ऐसा लगाव कि मुबंई
मायानगरी की चकाचौंध भी जिसकों बांध नहीं सकी। अपने आप में मस्त और फिर बैतलवा डाल
पर की तरह बार बार और हर बार मुबंई जाकर फिर दिल्ली भाग जाने वाले विख्यात गीतकार
और करीब एक सौ से अधिक फिल्मों में गीत लिखने वाले संतोषानंद यादगाक गानों की वजह
से ही धूम मचा दी थी। दिल्ली के कारण मायानगरी में दूर के ढोल से हो गए मायानगरी
में न जम सके और न अपना सिक्का ही जमा सके। मंचीय कवि और शिक्षक रहे संतोषानंद से
यह साक्षात्कार 2008 में फोन पर ली गयी थी। खबरिया चैनल इंडिया न्यूज में काम के
दौरान इनसे एक अटूट सा नाता बना कि रोजाना दो चार बार फोन पर गप्प होने लगी। और यह
सिलसिला करीब आठ माह तक बदस्तूर जारी रहा। फिर हमदोनों ऐसे बिछड़ें की फिर ना मिल
सके और ना ही फिर बातों का सिलसिला ही बन पाया। इस बार दीपावली पर पुरानी फाईलों
को खोजते टटोलते हुए ही एक रजिस्टर में उनका लिखा हुआ इंटरव्यू मिला। अबतक
अप्रकाशित इस साक्षात्कार को मैं पहली बार कहीं मुद्रित कर रहा हूं। इस दौरान दस
साल पहले की तमाम यादें मेरे मन में नाच रही है।
1.सबसे पहले आप अपने
बारे में बताइए कि आपका जन्म कब कहां हुआ था और पारिवारिक हालात समेत आसपास का
माहौल कैसा था ?
--उत्तरप्रदेश के
बुलंदशहर जिले के गांव सिकंदराबाद में मेरा जन्म 1939 में हुआ था। मेरे पिताजी
स्वर्गीय पंडित अमर सिंह अमर एक बैद्याचार्य थे। खांटी ईमानदार होने के चलते
पटवारी की परीक्षा पास हो जाने के बाद भी उन्होनें नौकरी नहीं की। पिताजी का तर्क
था यह पोस्ट बेईमानी का है और ईमान धरम से यहां पर टिका नहीं जा सकता। जीवन भर
टीचरी की और बच्चों को शिक्षादान के साथ पंजाब में घूमते रहे। मेरे दादा पंडित
बलवंत सिंह दौराला के जमींदार थे। मेरे नाना पंडित राम सिंह मुजफ्फरनगर में एक
स्कूल में हेडमास्टर थे। मेरे उपर पिता का गहरा प्रभाव पड़ा, मगर मैं ज्यादातर
अपने नाना के संग ही रहा। जीवन के सबसे अमूल्य निधि संतोष और आनंद को एक में
जोड़कर संतोषानंद का नाम मेरे नाना ने दिया था। जिसमें कोई उपनाम या जातिसूचक शब्द
नहीं है। मेरे नाना का कहना था कि
संतोषानंद किसी एक का नहीं सबका इस पर अधिकार है. यह भी केवल मेरे परिवार का नहीं
बल्कि सबका है। ( बाद में जब इस नाम की गूढ़ता को समझा तो मैं अपने नाना के प्रति
कृतज्ञ हो उठा कि नामकरण के बहाने उन्होने कितना बड़ा आशीष प्रदान किया था। ) आज
वाकऊ संतोषानंद सबका ही है।
2 -आपकी शिक्षा
दीक्षा कैसे और कहां तक हुई ?
-मेरी पढाई आरंभ से
ही थोड़ी बाधित रही। यूपी में सीलिंग प्रणाली लागू होने की वजह से पूरा परिवार
परेशान था। तमाम घरेलू दिक्कतों के बावजूद इंटरमीडियट के बाद अलीगढ़ मुस्लिंम
विवि अलीगढ़ से मैने लाईब्रेरी सांइस में
स्नात्तक की पढ़ाई पूरी की और 1959 से मैने नौकरी करनी शुरू कर की।
3- पढाई के सिलसिले
को और लंबा ना कर जल्दी जल्दी ही पढाई छोड़कर नौकरी करने की बेताबी या आकुलता के
पीछे की कोई खास वजह ?
-इसके पीछे एक दुख भरी कहानी है। मेरी उम्र उस समय कोई 15
साल की थी और एक दिन हाकी खेलते हुए मेरे पांव में चोट लग गयी। और चोट भी ऐसा कि
दर्द एक अबूझ पहेली बन गयी। मेरे पूरे बदन में पानी भर गया। महीनों तक मेरा हर
प्रकार का इलाज हुआ मगर मैं ठीक नहीं हो सका।
डाक्टरों ने पांव काटने का फैसला किया। इसी दौरान एक दिन मेरी हालत इतनी
खराब हो गयी कि दिल्ली के इर्विन अस्पताल
के चिकित्सकों ने मुझे मृत घोषित कर दिया। मेरी मौत का सदमा मेरे पिताजी बर्दाश्त नहीं
कर पाए और अस्पताल के समीप ही किसी मंदिर
में जाकर विलाप करने लगे। जैसा कि लोगों ने मुझे बताया कि तभी कोई एक साधू पिताजी
के पास आकर रोने का कारण पूछा और मुझे देखने की इच्छा प्रकट की। साधू को लेकर
पिताजी अस्पताल में कहीं रखे गए मेरे मृत शरीर के पास लाए। मृत शरीर को देखते ही
साधू ने कहा कि बालक अभी कहां मरा है, यह तो जिंदा है। इसके शरीर के उपर से कपड़े
को हटाओ। यह कहकर साधू बाबा एकाएक अंर्तध्यान से हो गए। और लोग बाग मेरे मृत शरीर
को देखा तो उसमें सांस चलने लगी थी और शरीर की हरकत से लगा कि मैं अभी जिंदा हूं।
अस्पताल के सारे कर्मचारी और ड़ॉक्टर इस चमत्कार से हैरान परेशान होकर दंग रह गए।
कुछ ही घंटों में मेरी चेतना लौट गयी मेरी सेहत सुधरने लगी और मैं स्वस्थ्य होकर
घर लौटा। मगर पांव में लगी चोट की परेशानी सदा सदा के लिए बन गयी। इस घटना ने मेरे
मनोबल को तोड दिया। मुझे अपनी जिंदगी उधार की लगने लगी। पांव की स्थायी समस्या से
मेरी सक्रियता और गति पर असर पड़ा।
4- इस हालत से आप
कैसे बाहर आए ?
--एक लंबे अंतराल के
बाद मैने अपनी निराशा हताशा को काबू में लाया। और पूरे जोश के साथ उत्साह के संग
अपने आपको साबित करने की ठान ली। सबसे पहले मैं आत्मनिर्भर होना चाहा। घर वाले
बताते हैं कि इस हाल में भी मैं अस्पताल में रोने की बजाय गीत गाता था। क्या गाता
था यह तो मुझे अहसास भी नहीं है मगर मेरी बीमारी की जटिलता के बीच सदा गाने वाले
बालक की छवि से तमाम डाक्टर और कर्मचारी दंग रहते थे। मेरा खास ख्याल करते थे। और
मेरे गीत सुनने की ललक के कारण मैं उनका चहेता सा था तो उनलोगों ने भी निस्वार्थ
भाव से बढचढ कर मेरी सेवा की, जिससे मैं इस हाल से उबर सका।
5- आपने किस उम्र
में तुकबंदियां करनी शुरू कर दी थी, और लोगों ने कब इस तरफ ध्यान देना चालू कर
दिया। कैसा था उस समय का माहौल और उनकी प्रतिक्रियाएं ?
-
काव्य
का प्रस्फूटन तो 12-13 साल की उम्र में ही हो गयी थी। तुकबंदिया भी करने लगा था।
किसी भी माहौल हालात पर फट से झटपट कविताएं बनाकर गुनगुनाने लगता। लिखने और गाने
का यह सिलसिला परवान पर था तो लोगों को लगने लगा कि संतोषानंद में कुछ खास है।
अपनी पीड़ा को शब्द देता मगर तमाम लोगों को मेरी गीतों में अपना दर्द दिखने लगा।
आसपास के लोग मुग्ध होकर न केवल सुनते बल्कि फरमाईश करते। राह चलते रोक रोक कर
कविताएं गाने सुनाने की जिद करने लगते। मेरे गीत सुनकर दूसरे लोग भी रोने लगते। दर्द
की मोहक अभिव्यक्ति लोगों को रास आने लगी और शहर में मेरा नाम फैलने लगा।
-
दर्द
को मैं इस तरह बयान करता कि-- आएगा आने
वाला , मेरा साथी दर्द आएगा। आएगा आएगा आने वाला ......।
6-- लंबी बीमारी से उठने
के साथ ही एक कवि संतोषानंद का जन्म होता है। इस संतोषानंद के जन्म के
प्रेरणास्त्रोत किसे मानते है। तत्कालीन परिस्थतियां कैसी थी ?
--लगभग 15-16 साल की
उम्र तक बुलंदशहर में मैं एक कवि के रूप में जाना जाने लगा था। लोकल होने के कारण
ज्यादातर लोग मुझे कहीं भी रोककर या इकठ्ठा होकर मुझसे कविताएं सुनने और मुग्ध
होकर तालियां बजाते। अपनों की सराहना
लोकप्रियता और दीवानगी से मुझे आत्मबल मिला और मुझे लगने लगा कि मेरी रचनाएं लोगों के दिल को छूती है. पसंद आती है। इससे
मेरा हौसला बढा, आत्मबल और विश्वास पैदा हुआ। छोटा होने के बावजूद कवि सम्मेलनों
में मुझे बुलाया जाने लगा और जाकर मेरी धाक जमने लगी। पब्लिक की फरमाईश के कारण
मेरा डिमांड होने लगा । जिससे मेरी मांग काफी बढ गयी।
7- जिले के कवि
सम्मेलनों से बाहर निकल कर दूसरे शहरों में जाने का मौका कब और कैसे आया ?
--जिले के एक बड़े
अधिकारी का तबादला मसूरी में हुआ था। तभी मसूरी महोत्सव मनाने का समय आया। जिसमें
एक कवि सम्मेलन का आयोजन होना था। मसूरी गए अधिकारी ने इसके लिए मुझे भी आमंक्षित
किया। यह मेरे जीवन का सबसे बडा कवि और जिले से बाहर निकलने का मौका था। इसमें
गोपाल प्रसाद व्यास गोपाल दास नीरज जैसे दिग्गद दर्जनों कवियों के सामने काव्यपाठ
करने का मौका मिला । मेरी धूमं रही. कम उम्र के चलते लोगों ने बार बार मेरी मांग
की और इस तरह मैं मंच के कवियों और श्रोताओं का चहेता बन गय़ा। कवि सम्मेलन में आए व्यास जी
के प्यार और आशीष के कारण मुझे देशभर के कवि सम्मेलनों में जाने का सौभाग्य मिला
और यही मेरी जिंदगी बन गयी।
8-- लालकिला कवि
सम्मेलन की धूम आज भी है, मगर आपको जब पहली बार लाल किला कवि सम्मेलन में जाने का
मौका मिला उस समय उसकी क्या महिमा थी ?
--लालकिला कवि सम्मेलन की रौनक तो अब रही नहीं।
1962 में मुझे पहली बार लालकिला कवि
सम्मेलन में जाने का मौका मिला।और लगभग एक लाख लोग रातभर तन्मय होकर कविताएं सुनते
रहे। वाह क्या गजब का नजारा था। आज भी जब कभी उस माहौल को याद करता हूं तो पहले
जैसे रसिक और कविताओं की समझ रखने वाले अब श्रोताओं की भीड खत्म हो गयी।
9--आपका
पहला अनुभव कैसा रहा। आपको लोगों ने सुना या आप सुनाने के लिए तरस गए ?
--यह मेरे जीवन का
पहला सबसे बड़ा कवि सम्मेलन था, जहां पर मैं आमंत्रित था। दर्जनों बड़े कवियों के
साथ काव्यपाठ का अनुभव प्रेरक रहा। व्यास जी का मुझपर आशीष बना रहा। इस कवि
सम्मेलन में इतनी भीड़ देखकर तो मैं घबरा सा गया। आंखे बंद करके मैं काव्य पाठ
करने लगा। काव्यपाठ के बाद जब मैने अपनी आंखें खोली तो चारो तरफ तालियों की
गड़गड़ाहट थी। मंच पर बैठे सारे कवि भी मेरी सराहना और दाद देने में लगे थे। बार
बार मेरी डिमांड होने लगी तो रातभर में कई बार काव्यपाठ करना पड़ा। लाल किला कवि
सम्मेलन से मेरा उदय एक ऐसे कवि के रूप में हुआ जिसकी गूंज लंबे समय तक बनी रही।
मैं 1997 तक लाल किला लगातारक जाता रहा। एक बात और खास है कि आज के लोग पास लेकर कवि
सम्मेलन में जाते हैं मगर पहले लोग टिकट खरीदकर रातभर कविताएं सुनने में तल्लिन
रहते थे। धीरे धीरे इस कवि सम्मेलन से टिकट प्रथा खत्म हो गयी और सबों के लिए यह
निशुल्क हो गया मगर अब 30-35 हजार से भी कम ही श्रोताओं का जमावड़ा लगता है।
10-
एक कवि के रूप में स्थापित होने के बाद फिल्मों में आपको गीत लिखने का मौका कब
कैसे और किस तरह मिला ?
--फिल्म अभिनेता
मनोज कुमार दिल्ली के नजफगढ़ में उपकार की शुटिंग कर रहे थे। मेरे सहकर्मी और
दोस्त हरि भारद्वाज ने मेरे बारे में मनोज कुमार को बताया और कुछ कविताएं सुनाई तो
वे मुझसे मिलने के लिए उतावले हो गए। अगले ही दिन मनोज कुमार से मेरी पहली मुलाकात
हुई। काव्यपाठ और गीतों का ऐसा रंग जमा कि वे घंटो तक मंत्रमुग्ध होकर कविताएं
सुनते रहे। तभी उन्होने अपनी अगली फिल्म पूरब और पश्चिम में गीत लिखने का अनुबंध
कर लिया। फिल्मी सफर का मेरा पहला गाना था पूरवा सुहानी आई रे ............ जिसे
स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने गाया और इस गीत की चारो तरफ धूम मच गयी। मनोज कुमार ने
मुझे एक नये गीतकार के रूप में पोस्टर में जगह दी। और सही मायने में मनोज कुमार के
कारण ही मेरा फिल्मी सफर चालू हुआ और अलग छवि बनी। -11-- इस गाने की जोरदार सफलता और गूंज से आपकी
कैसी छवि बनी और इसके बाद इसका क्या क्या लाभ मिला ?
---इस गाने की
जोरदार सफलता से मेरा सिक्का चल निकला। मनोज कुमार जी तो मेरे दीवाने हो गए मगर वे
नहीं चाहते थे कि मैं धड्ल्ले से दूसरों के लिए गीत लिखता रहूं। मनोज कुमार ने इसके
बाद अपनी सभी आने वाली फिल्मों में गीत लिखने का मौका दिया । उनके लिए शोर में
गाना लिखा और इसका एक गाना-- इक प्यार का नगमा है .......। काफी हिट रही और इसकी
गूंज महीनों तक बनी रही। इसके बाद तो रोटी कपड़ा और मकान क्रांति प्रेमरोग प्यासा
सावन आदि करीब दर्जन भर फिल्मों का तांता लग गया जिसके गीतों औरने रेडियों के
मार्फत करोड़ों श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। सारी दुनियां दीवानी हो गयी।
12--लगातार सुपरहिट
गानों और फिल्मों के आने के बाद भी न आप मुंबह में जम सके ना ही रह पाए। इसकी क्या
वजह है और इसका क्या खामियाजा आपको भुगतना पड़ा ?
--- पहले पहल तो मनोज कुमार की अनिच्छा रही कि
मुबंई में आकर सबों के लिए लिखना शुरू करूं। बाद में जब मैने दूसरों के लिए कुछ
गीत लिखना शुरू किया तो इसमें सबसे बड़ी दिक्कत मेरा मुंबई में उपलब्ध नहीं रहना
सामने आया। जो निर्माता मुझे लेना भी चाहा तो मैं समय पर मुंबई में नहीं होता। इस
कारण दर्जनों निर्माताओं ने मुझे लेना चाहा मगर बाद में उन लोगों ने दूसरे
गीतकारों से अपना काम चलाया।
13- तो आपकी दिल्ली से क्या ऐसा मोह लगाव या मजबूरी
थी कि सफलता के उस दौर में भी दिल्ली से अपने आपको मुक्त नहीं कर सके ?
एक
तो मेरा पूरा परिवार मुंबई में बसने के खिलाफ था। सफलता के उस दौर में भी मेरे
परिवार पर मायानगरी या मुंबई का खुमार नहीं था। परिजनों के विरोध को देखते हुए
अकेले मेरे लिए मुंबई जाकर रहना नामुमकिन था। वहीं मैं अपनी सरकारी नौकरी भी
छोड़ना नहीं चाहता था। इन तमाम विवशताओं के कारण ही मैं जिंदगी भर दिल्ली -मुंबई
आता जाता और भागता रह गया।
-
14--- क्या फिल्मी दुनियां के लोगों ने आपको मुंबई
में रहने या बसने के लिए दवाब नहीं डाला ?
-
मेरे
उपर दवाब तो काफी था । लक्ष्मीकांत प्यारेलाल तो 15 दिन दिल्ली और 15 दिन मुंबई
में रहने के लिए कहा और इसके लिए सारी व्यवस्था करने पर भी जोर दिया। पर मेरे उपर
भी कुछ ऐसा पागलपन था कि काम खत्म होते ही मैं दिल्ली भागने के लिए आतुर हो जाता।
काम की परवाह नहीं तो दिल्ली मुंबई के बीच भागमभाग से काम और सफलता ने भी मेरी
परवाह नहीं की।
15- दिल्ली
मुंबई की भागमभाग के बीच आप काम के साथ
संतुलन किस तरह स्थापित करते थे। इसके लिए किस तरह का तनाव और मेहनत करनी पड़ती थी?
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--
काम पर तो असर पड़ता ही है, पर खासकर मनोज कुमार और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ
मेरा इस कदर तालमेल था कि ज्यादातर गाना और संगीत की रचना अमूमन फोन पर ही हो जाया
करती थी। मनोज कुमार कोई माहौल बताते या किसी गाने का डिमांड करते तो ज्यादातर गीत
मैं फोन पर ही रच कर सुना देता। और वे मेरी तुरंत गीत रचना से मोहित हो जाते। इस
तरह मैं मुंबई आने जाने से बच जाता और इनका काम पलक झपकते ही हो जाया करता। इसी
तरह लक्ष्मीकांत जी में भी संगीत का अदभुत सेंस था। उनकी मांग पर जब मैं किसी गाने का मुखड़ा
सुनाता तो गाने की पंक्तियों को दोहराते ही वे मुखड़े को सूरों में बांधकर फोन पर ही
लय के साथ सुना डालते। और इस तरह 10-12
मिनट में ही हम दोनों फोन पर ही गीत को गाते
गुनगुनाकते हुए ही गीत और संगीत की रचना कर डालते थे। गीत संगीत की पलक झपकते
तैयार हो जाने की इस प्रतिभा से जहां मैं लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल की विलक्ष्णता
पर दंग रहता तो वे लोग भी फोन पर ही ज्यादातर गीतों के लिखवा डालने की कला पर वे
लोग भी दंग रह जाते। खासकर लक्ष्मी -प्यारे में सूरों के ज्ञान और मनोभावों को
समझने की क्षमता से आज भी अचंभित रह जाता हूं।
16- लक्ष्मी-प्यारे
के अलावा और किन किन संगीतकारों के साथ आपने काम किया और उनकी खासियत पर प्रकाश
डालते हुए अपने अनुभव को हमारे साथ साझा करे ?
n इस मामले में मनोज कुमार और सदाबहार राजकपूर को
मैं बेस्ट फिल्म मेकर मानता हूं। इनकी समझ और हर चीज पर गहरी पकड़ हमेशा दंग करती
है। ये लोग जीनियस की श्रेणी में आते हैं। संगीतकारों में भी शंकर जयकिशन को द
ग्रेट म्यूजीशियन कहना चाहूंगा। हांलाकि उषा खन्ना, आर.डी बर्मन, एस.डी वर्मन ,
नदीम श्रवण, ओ.पी नैय्यर, कल्याणजी आनंदजी, अन्नू मल्लिक, मदन मोहन, नौशाद, सलिल
चौधरी और श्रीराम चंद्र जैसे अनोखे संगीतकारों के साथ काम करने का मौका मिला। सभी
संगीतकारों में अलग अलग गुण और हुनर था। सबों की खासियत पर तो एक महाग्रंथ लिखा जा
सकता है। तमाम संगीतकारों में सूरों की वैराईटी और माधुर्य्यता का खजाना भरा था। मगर
नये संगीतकार भी काफी स्मार्ट और पाश्चात्य संगीत की तकनीक और नयी सूचनाओं से लैस
हैं। ये संगीतकार इतने स्मार्ट हैं कि संगीत की रचना पहले ही कर देते है। बस
गीतकारों को तो धुन और मात्रा के आधार पर
शब्दों का टोन देना पड़ता है। पहले के संगीतकार की तरह आज के नए संगीतकार अब
गीतकारों को अपने मन से गीत लिखने की छूट देनी बंद कर दी है। पहले के संगीतकारों की
विविधताओं और मधुरता पर रौशनी डालना मेरे लिए सरल नहीं है। पहले के गीत संगीत
कालजयी होते थे , कई दशक के बाद भी लोग उन्हें भूल नहीं पाते थे। मगर आज का गीत
संगीत धूम धडाका के साथ कब आकर कब खो जाता है यह पता ही नहीं चलता।
17-- फिल्मी
गीतकारों के बारे में आपकी क्या धारणा है ?
-फिल्मी दुनियां में
एक से बढकर एक नामी गीतकारों की परम्परा रही है। मशहूर शायरों ने फिल्मी गानों को
एक स्तर दिया और गानों के मार्फत गीत संगीत साहित्य और शायरी को जन जन तक लोकप्रिय
बनाया। गीतों की गुणवत्ता 1980-85 तक कायम रही । मेरे को गीतलेखन के लिए दो दो बार
फिल्मफेयर अवार्ड दिया गया। मगर अब संगीत के बदलने से बेहतर गीतों की रचना कम होने
लगी है।
18-- आपके बारे में
फिल्मी गीतकारों की क्या राय थी ?
ज्यादातर गीतकार तो
मेरे दोस्त ही थे। सबों की शिकायत थी कि मुंबई में आकर रहो बसो ताकि कुछ बेहतर गीत
सिनेमा जगत की शान बने।
19--कड़ी टक्कर के
बाद भी क्या इतना प्यार दुलार लगाव गीतकारों में है ?
जहां पर सबसे अधिक कड़ी
प्रतियोगिता होती है, वहीं पर आपस में सबसे ज्यादा मेलजोल होता है। कोई एक गाना
हिट रहा तो दूसरों में उससे भी बढ़कर कुछ करने की लगन जागती है। और आपको यह जानकर
हैरानी होगी कि एक सुंदर गाना लिखने के बाद लगभग ज्यादातर गीतकार अपने प्रिय
गीतकार मित्रों को वह गाना जरूर सुनाता है ताकि कुछ संशोधन हो सके। और बहुधा गीतों
में इस तरह के बीच के दो चार शब्दों के हेरफेर करने की सलाह भी दी जाती है. जिसके
फलस्वरूप गाना पहले से ज्यादा मोहक और असरदार हो जाता है।
20-- सुनने में तो आता हैं कि यहां पर तो लोग भावों
धुनों गीतों पटकथा डायलाग आदि की चोरी करते हैं, नकल करते है ?
हम लेखक गीतकार क्या
इतने दरिद्र हैं कि अपने सृजन की बजाय चोरी और नकल पर ध्यान दें। सब बकवास है। एक
गीत की सफलता पूरे गीतकार समुदाय की सफलता होती है और मिलजुत कर इस पर जलसा किया
जाता है।
21--- गीतकारों और
संगीतकारों से आपका दिल्ली में रहते हुए भी तालमेल कैसे जीवंत रहता था?
अरे भाई मैं इन
निर्माताओं और गीतकार संगीतकार दोस्तों के कारण ही तो लगभग एक सौ फिल्मो के लिए गीत
लिख पाया। ज्यादातर गीतकार और संगीतकार ही मेरे लिए मेरी मार्केटिंग और जनसंपंर्क
का काम कर देते थे। यही लोग मेरे लिए निर्माताओं से मेरे नाम की सिफारिश भी करते
थे। सिनेमा के सरताज गीतकार आनंद बख्शी ने मेरे बारे में एक बार सार्वजनिक तौर पर
कहा था असली गीतकार तो दिल्ली के संतोषानंद जी हैं जो मायानगरी की माया से दूर
रहकर दिल्ली से गीत लिखते हैं और हम सबका मान बढ़ाते हैं। आनंद बख्शी जी का मेरे
बारे में यह कहना मेरे लिए किसी फिल्मफेयर अवार्ड से बड़ा सम्मान है। मैं इस जन्म में तो अपने गीतकार - संगीतकार
मित्रों के अहसान और कर्ज से मुक्त हो ही नहीं सकता। जिन्होनें दूर बैठे दिल्ली के
एक गीतकार को फिल्मी दुनियां के गीत संगीत की दुनियां का सरताज बनाया।
22-- इतना कुछ पाने
के बाद इस मायावी संसार पर आपकी क्या टिप्पणी है ? क्या अनुभव रहा और
क्या कमाया ?
--- केवल नाम शोहरत
और लोगों के प्यार की कमाई की। यह संसार बड़े और प्रभावशाली लोगों का है। मेरे लिए
ज्यादातर निर्माता आने जाने ठहरने के अलावा जो दे दिया वहीं रख लिया। उस समय हजार
दस हजार की बड़ी कीमत थी। पैसे आते जाते रहते थे। मगर मुंबई में नहीं रहने के कारण
लगातार आय का स्थायी जरिया यह संसार मेरे लिए नहीं बन पाया। यही कारण है कि मैं
कमाई का कोई हिसाब नहीं दे सकता और ना ही पार्ट टाईमर होने के कारण आय का अनुमान
ही लगा पाता था।
23--- फिल्मी संसार
तकनीकी दुनियां हो गयी है। हर चीज का फॉर्मेट चेंज कर गया है. इस बदलाव को आप किस
तरह देखते है ?
जमाना बदल रहा है
लोगों की सोच और रहन सहन बदल गयी है। लिहाजा सिनेमा तो बदलते समाज का आईना होता
है। इसको तो समाज से पहले बदलना होता है ताकि लोग इसका अनुसरण करे। मैने भी शोर
पूरब पश्चिम क्रांति प्रेमरोग प्यासा सावन से लेकर तिरंगा सूर्या गोपीचंद जासूस
बड़े घर की बेटी तहलका, मेरा जवाब नागमणि आदि जैसी फिल्मों के लिए भी गीत लिखे जो
बदलते समय मिजाज और चरित्र को दर्शाता था।
24--फिल्मी दुनियां में आज भी कोई हैं जो आपको
याद करता है ?
बहुत कम लोग रह गए
हैं । मनोज कुमार तो आज भी हमेशा हाल चाल लेते रहते हैं। प्यारेलाल भाई का भी फोन
आता रहता है। कभी कभी यह सुनकर दर्द होता है कि एक समय के सबसे लोकप्रिय और व्यस्त
लक्ष्मी-प्यारे भाई की जोडी खताम होने पर प्यारे जी अकेले हो गए । काम ही नहीं है।
लक्ष्मी जी की मौत के बाद इनका युग खत्म हो गया। और भी पुराने लोग हैं जो कभी कभार
बातें कर लेते हैं।
25--- आजकल आप क्या
कर रहे हैं ?
--- मैं आज भी गीतों
के शब्द और संगीत के धुनों के लय ताल पर धड़कता रहता हूं। पारिवारिक दायित्व के
कारण जो अधूरा रह गया जो छूट गया उसका क्या गम। जो पाया और हासिल है वहीं कम नही
काफी है। मैं तो संतोष में आनंद मनाता हूं। संतोषानंद को हर गम एक समय के बाद
उर्जावान कर जाता है। हर दौर का हीरो कोई नया चेहरा होता है। एक ही आदमी हर दौर
में फिट कभी नहीं बैठता। मगर लेखन मेरा
जीवन है। सामाजिक सक्रियता अब कम हो गयी है।
अब तो यही गाता -गुनगुनाता हूं। --तुम्हीं से प्यार करता हूं /
तुम पर हीं जान देने आया हूं / आखिरी वक्त हैं मेरा /
इम्तहान देने आया हूं।
अनामी शरण बबल
Asb.deo@gmail.com
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