गुरुवार, 13 जनवरी 2011

शिक्षा और रोजगार भीख नहीं है शिक्षा और रोजगार

भीख नहीं है शिक्षा और रोजगार

आलोक तोमर
भारत की संसद को रोजगार गारंटी कानून बनाने में तीन साल लगे। विधेयक 2005 के बजट सत्र के बाद लाया गया था लेकिन खासतौर पर कॉरपोरेट समूहों के मीडिया द्वारा तमाम तरह के सवाल उठाने के बाद वोटों और प्रचार की चिंता में कोई खुल कर सामने नहीं आ रहा था और आजिविका का संविधान में दिया गया मौलिक अधिकार संसद की फाइलों में एक कागजी सपना बन कर बैठा हुआ था।
इसमें कोई शक नहीं कि इतने बडे देश में इतने ज्यादा लोगों को रोजगार देना और उसके लिए उचित अवसर पैदा करना एक असाध्य काम है। यहां मैं असाध्य शब्द का इस्तेमाल कर रहा हूं असंभव का नहीं। देश को अंग्रेजों से आजाद करवाना असंभव माना जाता था और वह भी इसी देश के लोगों की इच्छाशक्ति ने संभव कर दिखाया। यह आजादी तब तक पूरी नहीं होगी जब तक यह आजीविका के लिए आजाद लोगों का देश नहीं बनेगा। इस कानून से सबसे ज्यादा परेशान वे लोग हैं जिन्होंने अपना कारोबार पहले कोटा परमिट राज में जुगाडाें से और अब खुली अर्थव्यवस्था में अपनी उद्यम शक्ति से खडा किया है और दुनिया में जगह बनाई है। विशेषज्ञता और तकनीकी कौशल की मांग करने वाले इन कॉरपोरेट घरानों को अगर यह बर्दाश्त नहीं है कि सरकार के आदेश पर उन्हें कर्मचारी अपने नियम और संहिता तोड क़र रखने ही पडें तो इस आपत्ति को समझा जा सकता है। आखिर दस करोड शिक्षित और प्रशिक्षित तथा पच्चीस करोड अन्य बेरोजगारों के लिए रोजगार का अवसर पैदा करना आसान नहीं है। इसके लिए मनमोहन सिंह की खगोलीय अर्थव्यवस्था को चुनौती देनी होगी और रोजगार से जुडी अपनी सामाजिक मानसिकता भी बदलनी पडेग़ी।
अभी जो सामाजिक मानसिकता है उसके अनुसार रोजगार का पहला अर्थ होता है कि सरकारी नौकरी मिल जाए। उसमें लोगों को आश्वस्ति और सुरक्षा नजर आती है लेकिन खुद सरकार के पास इतनी नौकरियां नहीं हैं और जो लाल फीताशाही का हाल है उसमें नौकरियों के अवसर पैदा करने में इतनी बाधाएं और इतने घोटाले होने तय हैं कि योजना की पवित्रता तो खंडित होगी ही, इसका पूरा उद्देश्य मिट्टी में मिल जाएगा। इसके लिए पहली जरूरत तो यह है कि रोजगार गारंटी कानून में योग्यता के आधार पर उपयुक्त आजीविका देने का प्रावधान जोडा जाए। आप अगर निकम्मे लोगों को रॉकेट उडाने पर लगा देंगे तो उसके नतीजे बहुत अच्छे नहीं मिलने वाले। अभी तक सरकार औद्योगिक घरानों को कारखाने और विशेष आर्थिक क्षेत्र-सेज -बनाने के लिए किसानों की जमीन जबर्दस्ती हडपने के अधिनियम पारित करती रही है लेकिन अपनी मूल आत्मा में रोजगार गारंटी कानून कामगार वर्ग को शक्ति देने वाला है और यही इसका सबसे बडा खतरा है।
पहला खतरा तो यह है कि कानून तो बन गया लेकिन जमीनी स्तर पर इसका पालन कैसे होगा इसका अभी तक कोई ढांचा नहीं बनाया गया है। अभी कुछ दिन पहले इंडिया डेवलपमेंट फाउंडेशन नाम के एक लगभग अज्ञात संगठन द्वारा एक सर्वेक्षण करवा कर बहुत सारे ढोल नगाडे पीटे गए थे। इस कॉरपोरेट सर्वेक्षण में बताया गया था कि रोजगार गारंटी योजना से मुद्रास्फीति बढेग़ी और इसका कारण बताया गया था कि सरकार पर खर्चे का बोझ और बढ ज़ाएगा। विनम्र निवेदन है कि भारत में रक्षा सेवाओं पर होने वाला खर्चा पूरे देश के बेरोजगारों को रोजगार दिलवाने में हो सकने वाले खर्चे का दसवां हिस्सा भी नहीं है और यह एक दिन में खर्च नहीं होने वाला। अभी जो गांव देहात में गरीबों को साल में चालीस पचास दिन के लिए रोजगार की जो गारंटी दी जाती है उसका सभी राज्यों को मिला कर बजट निकाला जाए तो इस पूरे खर्चे से ज्यादा बैठेगा। इन योजनाओं के नतीजे सबको मालूम हैं।
उधर सरकार भी अपनी ओर से बहुत टुच्चे प्रचार में उतर आयी है। सरकार के प्रेस इंफॉर्मेशन ब्यूरो 28 दिसम्बर 2007 को एक प्रेस विज्ञप्ति के जरिए यह ऐलान किया था कि रोजगार गारंटी योजनाएं बहुत सफल हुई हैं। यह प्रेस विज्ञप्ति एक फरमान की तरह थी कि जिसमें एक भी आंकडा नहीं दिया गया था। सरकारी इमाम जो बोले उसे फतवा मान लो और उस पर भरोसा करो। यह तब है जब सरकार की ही सीएजी रपट में लगातार साठ पन्नों में बताया गया है कि देश के सबसे गरीब इलाकों में जो पैसा दिया जाता है वह गरीबों तक कभी नहीं पहुंचता। हालांकि यह कोई रहस्योद्धाटन नहीं है लेकिन सरकार की पहले से शंका में घिरी हुई नीयत पर और बडे सवाल खडे क़रता है। इससे मुक्ति पाना सरकारी तंत्र के ही हाथ में है।
राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना पर अमल करवाना मूलत: ग्रामीण विकास मंत्रालय के हाथ में रहने वाला है क्योंकि सबसे ज्यादा बेरोजगार इन्हीं क्षेत्रों में हैं। रोजगार देकर सरकार कोई परोपकार नहीं कर रही है, सिर्फ अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करने का अवसर उसने भले ही चुनावी कारणों से, स्थापित किया है। यह अवसर एक दुर्भाग्य में नहीं बदले और रोजगार सबको उपलब्ध हो, लोकतंत्र सबकी दहलीज तक पहुंचे इसके लिए सबसे पहले लोकतंत्र को बदनीयत हाथों से बचाने की जरूरत है। दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे संविधान में शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकारों में शामिल नहीं है और इसके लिए भी एक कानून बनाने का प्रस्ताव संसद में तीन साल से ही पडा हुआ है। इस साल मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह की पहल पर संसद सत्र के पहले हुई मंत्रिमंडल की बैठक में तय किया गया था कि इस विधेयक को भी कानून बना दिया जाएगा और इसके लिए जो अपार खर्चा आएगा वह खुली अर्थव्यवस्था से पैसा कमाने वालों से ही वसूला जाएगा।
आपको याद होगा कि अनिवार्य शिक्षा के लिए पहले से दो प्रतिशत का एक टैक्स पिछले तीन साल से लागू है और इस कोष में अरबों रुपये जमा हो गए। केंद्रीय विद्यालय संगठन से लेकर नवोदय और बहुत सारे विश्वविद्यालय देश में मौजूद हैं और जरूरत पडने पर और खोले जा सकते हैं। जब तक रोजगार की गारंटी और शिक्षा की गारंटी एक साथ लागू नहीं होगी तब तक साफ है कि हमारे पास करने का इरादा तो होगा लेकिन अवसरों को भरने के लिए पात्र नहीं होंगे। भले ही इसे चुनावी कहा जाए लेकिन शिक्षा के अधिकार को मौलिक बनाना संविधान की रचना में हुई एक अक्षम्य भूल को सुधारने का काम हो सकता है और वह होना ही चाहिए। वरना आप कागज पर कानून बनाते रहिए और अदालतों में इसके विरोध को झेलते रहिए। रोजगार और शिक्षा दोनों बहस के नहीं प्रतिबध्दता के विषय हैं और इस पर जो बहस करता है उसे हैलिकॉप्टर में लाद कर अरब सागर में फेंक देना चाहिए।

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