रविवार, 16 जनवरी 2011

कामता प्रसाद सिंह काम/ एक काव्य श्रद्धाजंलि


कामता प्रसाद सिंह काम/ एक काव्य श्रद्धाजंलि

कामता प्रसाद सिंह काम

कामता बाबू को एक श्रद्धाजंलि

मधुकर गंगाधर

जैसे संध्या बगल में भंसती गई 
और संध्या तारा मुझे छूते हुए गुजर गया ।
गति के धुव्रों के बीच
जैसे कोई इंद्रधनु टंगता गया
और, किन्हीं अनबुझ फुहारों में आंखें झपती गई
अनुभूतियां वृताकार घूमती रही है....
कई रंगों की
और, कई एक कील
स्याह दीवाल पर टीक गई
जिसके आसपास टीसती हुई रात
अपने सूखे होठों को बार बार चाटकर
ओसित करती है और डरी डरी सहमी सहमी सी रहती है
क्योंकि समय का स्हस्त्र फण नाग
प्रतीक्षा की टंगी टंगी आंखों के
कई बार झुरियाने के के बाद मणि देता है
और सदैव अवतरित मणि के साथ
युगांतव्यापी अंधेरा लड़ता है
और मणि की धरम ज्योति बढ़ती है।
आज भी हवा पर तैरती हुई कोई हंसी
मुझे छू जाती है,
जैसे परवत की घाटियों में सूरजसेवी शिखरों की अनुकंपा
भंस भंस आती है
हंसी की इस शीतलता में, मुझे आभास होता है
कि उस समय भी, जब युग प्रतीक
खुशचेव, केनेडी, नेहरू के गंभीर मुख
सदा चिंताग्रस्त छे, और भूगोल पर डोलती गृहछाया
हमें त्वचाहीन हड्डियों का बोध देती थी,
और उस युग में भी हमारे बीच एक एेसी अपराजेय, संघषी् आस्थावान हंसी थी
वह उज्जवल हंसी स्वयम अंतहीन जिंदगी की परयायय थी।
अगिन सी आंकी गई ेक आकृति उभर आती है
दो तीखी आबदार कटारों के बीच, गुलाब का अधखिला फूल
और कटारों के ऊपर दो शारदीय खंजर
जिस जिसने देखी यह आकृति
जहां जहां अनुभूत हुआ यह अंकन
सुरभि परिवेशित हुई और
शीतल पंचागिन  वहां वहां
मंत्रोच्चार करती रहेगी.....
करती रहेगी... करती रहेगी....
हमने तुमने आपने
बरगद का विशाल पेड़ देखा है....
अनेक जीवों का आश्रय
प्रलय झेलने की सामथ्य
सर पर झाग उगलता सूरज गोद में अंगूठा चूसती छाया
कभी कभी बरगद भी पा लेता है
आदमी की काया काम के रूप में
कामतामय होकर
बरगद भी हो जाता है धन्य
काम में होकर साकार

प्रस्तुतिः स्वामी शरण
14.01.2011
    


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